सोमवार, 11 अक्टूबर 2010
जिनकी कविताओं, नज़्मों, गीतों से यादें गुलज़ार हैं
किताबों की अलमारी संभालने-सहेजने के क्रम में एक किताब हाथ में आई है। खोलकर देखती हूं। मेरी ही लिखावट में मेरा नाम लिखा है। अपने जन्मदिन पर कई सालों से खुद को एक किताब तोहफे में देती हूं मैं। ये किताब मैंने 1996 में खरीदी थी, अपने अठारहवें जन्मदिन पर। "पुखराज" - गुलज़ार की नज़्मों का संग्रह मैंने खरीदा तो होगा, लेकिन सोचती हूं तब उन लफ्ज़ों की क्या समझ होगी मुझमें। लेकिन ये भी याद है कि कई-कई बार कई नज़्में पढ़ीं, फोन पर अपनी दोस्त मीनू को सुनाया भी, और अकेले बैठकर खूब रोई भी।
गुलज़ार के साथ हंसने-रोने का पुराना नाता है मेरा। ठीक-ठीक याद नहीं कि पहली बार कब और कहां उनकी कविताओं की पहचान या पसंद या समझ पैदा हुई। लेकिन कुछ ऐसे गीत हैं जिनके साथ कई यादों के टुकड़े अब भी ज़ेहन में लौट-लौटकर आते हैं। याद है कि अभी स्कूल में ही थी। जेठ की चिलचिलाती धूप में कहीं से लौटकर मैं मीनू के यहां आई थी दोपहर को। उसके म्यूज़िक सिस्टम पर "छोटी-सी कहानी से, बारिशों के पानी से (फिल्म - इजाज़त)" बज रहा था। उसके घर के ठंडे फर्श का अहसास, खिड़कियों पर गिरे हुए हरे पर्दे और कमरे में गूंजती आशा भोंसले की आवाज़ मेरे लिए बिन मौसम बरसात ले आई थी।
ये भी याद है कि सातवीं या आठवीं में ही थी जब अपनी सहेलियों के सामने बड़े गुरूर से पूछा था - "हमको मन की शक्ति देना गीत किसने लिखा है, मालूम है किसी को?" कोई नहीं जानता था, मुझे छोड़कर।
ये भी याद है कि चाचा की शादी 1990 में तय हुई तो उनके लिए गुलज़ार का ही गीत गाना चाहती थी - "एक बात सुनी है चाचाजी बतलानेवाली है"। डर के मारे सुनाया नहीं, ये बात अलग है।
कई बार अंत्याक्षरी में खुद से वायदा करती कि अगले पांच गाने सिर्फ गुलज़ार के गाऊंगी, एक तरह से खुद को चैलेंज भी करती - देखूं उनके कितने गीत याद हैं। "म" से मेरे लिए "मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने" पहला गाना होता। ये भी याद है कि तब पूरे-पूरे कैसेट खरीदने के पैसे नहीं होते थे। सो, हम विविध भारती, चित्रहार और रंगोली से सुनकर गीतों की लिस्ट बनाया करते और रांची के मखीजा टावर की एक दुकान से कैसेट रिकॉर्ड कराया करते। बीस रुपये में एक कैसेट! गुलज़ार के कई गीतों का कलेक्शन था हमारे पास, पंद्रह-सोलह साल की उम्र में ही। "हवाओं पे लिख दो हवाओं के नाम (दो दूना चार)", "दिन जा रहे हैं (दूसरी सीता)", "मुझे जां ना कहो मेरी जां (अनुभव)", "घर जाएगी तर जाएगी (खुशबू)", "धन्नो की आंखों में (किताब)", "सारे नियम तोड़ दो" (खूबसूरत) जैसे कई गीत हमने पहले सुने, फिल्म के बारे में बाद में जाना।
इंटरनेट तब नहीं था, ना हमारे घर-परिवार में कोई गुलज़ार का या ऑफबीट फिल्मों का फैन था। बल्कि हम तो वीसीआर पर "तोहफा", "ज़लज़ला", "कमांडो" जैसी मिथुन दा और जीतेन्द्र की फिल्में देखकर पले-बढ़े। लेकिन आज तक समझ नहीं पाई कि गुलज़ार के गाने हमतक कई बार फिल्म रिलीज़ होने के पहले कैसे पहुंच जाते थे। याद नहीं कि "मम्मो", "ग़ुलामी", "लेकिन", "दायरा", "जहां तुम ले चलो", "लिबास", "माया मेमसाब" जैसे फिल्मों के गीत कहां से और कब पहले वॉकमैन और फिर गाड़ी के टेप रिकॉर्डर पर बजे। हां, मेरा भाई ज़रूर मेरा partner-in-crime रहा। हम चुन-चुनकर नए-पुराने गाने लाते और सुनते-सुनाते।
मैं पहली बार रांची से छुट्टियां बिताकर दिल्ली कॉलेज हॉस्टल आ रही थी तो हमने "माचिस" का एक कैसेट लिया था और एक रिकॉर्ड करवाया था ताकि मैं एक कैसेट दिल्ली लेकर आ सकूं। "छोड़ आए हम वो गलियां" और "भेज कहार पिया जी बुला लो" सुनकर मुझपर पूरे रास्ते क्या असर रहा था, ये मैं आज भी शब्दों में बयां नहीं कर सकती।
ये भी याद है कि भाई को मैंने बड़ा हैरान होकर बताया था, "संजय दत्त वाली खूबसूरत का गाना गुलज़ार का है, मालूम है?" ये भी याद है कि कई दिनों तक छुप-छुपकर "आस्था" के गीत सुने थे। इस फिल्म की खूब चर्चा हो रही थी अख़बारों में और हम नहीं चाहते थे कि घर के बड़ों को पता चले कि इस फिल्म के बारे में भी ना सिर्फ हम जानते हैं, बल्कि गाने भी खूब सुनते हैं! "तुम्हीं से जन्मूं तो शायद मुझे पनाह मिले" का मतलब आज सालों बाद थोड़ा-थोड़ा समझ में आया है। ये भी याद है कि थर्ड इयर कॉलेज में हम "दिल से" के गाने खूब सुनते थे। सब "छय्या छय्या" पर नाचते और मैं "उंस" और "गुलबोश" जैसे शब्दों के मतलब तलाशती।
रूमानी हुई तो "सनसेट प्वाइंट" सुना, मस्ती में "गोली मार भेजे में" सुना, बारिश में "फिर से अइयो बदरा बिदेसी" सुना तो बच्चों के साथ "लकड़ी की काठी" सुना। लेकिन सिरहाने सपने तब भी जलाती थी, अब भी जलाती हूं। सीली हवा अब भी छूती है, सुरमई शाम अब भी आती है, वक्त अब भी जाता सुनाई देता है और खुशबू भी नज़र से छूती है। सोती हुई आंखों कैसे उड़ती हैं और आवाज़ की इक बूंद कैसे मिलती है, ये गुलज़ार के गीत सुन-सुनकर ही समझी हूं। दिल को पड़ोसी बनाना और चांद को गीतों में परोसना भी उन्हीं के नज़्मों से सीखा है। ये बात और है कि आज जब ब्रॉडबैंड भी है और ढेरों सीडी खरीदने के पैसे भी तो अब लफ्ज़ों की ये सारी हरकतें उस शिद्दत से महसूस नहीं करती।
लेकिन बच्चे जब "लकड़ी की काठी (मासूम)", "आकी चली बाकी चली (नमकीन)" और "पंगा ना ले (मकड़ी)" गाना सुनाने की फरमाइश करते हैं तो लगता है, हरकतें कहीं बाकी हैं। और जब मेरी ढाई साल की बेटी आधी नींद में मुझसे कहा - "चलो मम्मा चांद की मटकी तोड़ते हैं" तो लगा गुलज़ार के गीतों ने मुझे जो बनाया-बिगाड़ा, उसका मुकर्रर खिराज मैंने अदा कर दिया।
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9 टिप्पणियां:
You missed on the flaming red flowers during summers and us humming gulzar while we traverse the city in a rikshaw.
aww this has made me miss ranchi so much!
sabki yaadon ke rang kahin -kahin ek jaise hote hain :)
aur asli naam hum tumko bataye the...aur shaayad raavi paar bhi hum hi laake diye the...nahin? kuch to extra! :)
Minal: Ranchi has to come in another aide-memoire.
Parul: यादों के रंग एक जैसे-ही होते हैं - इंद्रधनुष जैसे।
Prashant: सारा क्रेडिट तुमको देते हैं भाई।
liked the idea of linking song with the moments in which they were heard or liked...this style of writing is something that i appreciate...har gaane ya movie ka apna context hota hai...ye kaafi dino baad main samjha tha...and when i did i started appreciating rajendra kumar's movie too (jsko pitaji dekha karte the aur hum machalte the ki mithun da ki nayi release dekhi jaaye)...
किसी दिन साथ बैठे अंत्राक्षरी को ,lol me too a big fan of Gulzar da
ओह तो आप भी गुलज़ार भक्त निकलीं....चलिए अच्छा है...गुलज़ार साहब तो अपने भी गुरु ही हैं...और पुखराज किताब मेरे पास नहीं...कुछ दिन पहले एक मित्र के पास देखा था...हाँ वैसे गुलज़ार साहब की नज्मों का अच्छा कलेक्सन है मेरे पास....
उनमे से कुछ नज्में उनकी मैंने अपने ब्लॉग के कुछ पोस्ट में पार्ट दर पार्ट शेयर की हैं...लिंक ये रहा...
गुलज़ार साहब के साथ कुछ लम्हे..
अच्छा लगा आपकी यादों को पढ़ना
आया था यहाँ आपकी दुर्गा पूजा वाली लिंक को देख कर। पर साइडबार में गुलज़ार पर पोस्ट देखी तो पहले यहाँ पहुँच गया। लगा कि गुलज़ार के प्रति अपनी भावनाओं को आपकी कलम के माध्यम से एक बार फिर पढ़ रहा हूँ। गुलज़ार के चहेते गीतों कतरा कतरा मिलती है, तन पर लगती काँच की बूँदे, घर जाएगी तर जाएगी और ना जाने कितने गीतों पर लिखता रहा हूँ। बड़ी खुशी हुई आपका भी उनके प्रति समान प्रेम देख कर।
गुलज़ार के नये पुराने गीत और नज़्मों को कभी सुनने गुनने का मन करे तो यहाँ आइएगा। आप जैसे गुलज़ार प्रेमी को अवश्य अच्छा लगेगा।
Hi Anu
Nice effort... too good... Just wondering whether have you read "Raavi Paar" or the book...
Cheers
Arun
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