शुक्रवार, 27 जनवरी 2012

जिन खोजा तिन पाईयां...

एक जगह बैठकर मैं सोच नहीं सकती, मेरा दिमाग ही काम नहीं करता। पैरों में पहियों के साथ दिमाग के भी दर-दर की ठोकरें खाने को अभिशप्त पैदा हुई हूं। आज फिर से सोचना होगा, आज फिर से डेडलॉक से आगे कोई रास्ता तलाश करना होगा। सो, ब्लैक लेबल है और है ब्लैक लेबल की स्टीयरिंग व्हील। एफएम पर उमड़ आई देशभक्ति में कोई दिलचस्पी नहीं और 'रॉकस्टार' अब घिसने लगा है। इसलिए नादान परिंदों को चुप रहने की हिदायत देनी होगी और चलना होगा घर से थोड़ी दूर। रास्ते में आए मोड़ों और मंज़िलों पर से ध्यान हटाते हुए ज़िन्दगी के कुछ अहम फ़ैसले लिए जा सकते हैं, कुछ उलझे हुए रेशम के धागों को सुलझाने की हिम्मत जुटाई जा सकती है, उनकी गिरहें खोलने के बारे में सोचा जा सकता है।

धूप मेहरबान है और हरे-पीले पत्तों के गुलदस्तों से होकर गुज़रती हवा पुरवाई-सी लगती है। दो-चार दिनों में बसंत के आने का उत्सव मना रहे होंगे हम। सरसों के पीले फूल खिले होंगे कहीं, मटर की फलियों में दाने मीठे हो गए होंगे, बेर के पेड़ों ने छोड़ दिया होगा फलों को उन्मुक्त और साइबेरियन क्रेन्स के घर लौट जाने का वक्त आने लगा होगा क़रीब। 

डीएनडी फ्लाईओवर पर चढ़ने से पहले ऐसे ही कुछ बेमानी ख़्यालों में डूबी एक लड़की मिलती है। उम्र उसकी कोई बारह साल की होगी। तरुणायी अभी दूर है उससे, कि माह-दर-माह आनेवाली बेचारगी और लड़की होने के अहसास से वो अभी वाकिफ़ नहीं। 'द मिल ऑन द फ्लॉस' की मैगी से हिम्मत लेकर उसने भी एक विलक्षण काम किया है। अपने काले घने घूंघराले बालों के माथे पर बेतरतीबी से आ जाने से परेशान उसने शीशे के सामने खड़े होकर सामने की कुछ लटें काट ली हैं। अब बाल आंखों पर नहीं आया करेंगे, कोई उसके माथे को चिड़िया का खोता नहीं बुलाएगा और जो किसी ने चिढ़ाया भी तो वो सिर और लट झटककर आगे बढ़ जाएगी। वो लड़की नज़रों से ओझल हो गई अचानक। मैं फ्लाईओवर से नीचे उतर आई हूं।

आश्रम से महारानी बाग़ की ओर जाते हुए मिलनेवाली लड़की पर अभी-अभी सोलहवें की ख़ुमारी आई है। उसकी आंखों से उतकर ख़्वाबों ने पूरी की पूरी न्यू फ्रेन्ड्स कॉलोनी जैसी बस्ती बसा ली है यहां। इस बस्ती में कुछ भी नामुमकिन नहीं। यहां सपनों के वितान के नीचे राग है, विराग है, गीत हैं और बादलों में उडते फिरने की बेचैनी है। उसका छोटा-सा शहर उसे ऐसी अनोखी बस्ती बसाने की इजाज़त नहीं देता, इसलिए उसने सबसे छुपाकर नए ठिकानों का पता अपनी डायरी में नोट कर रखा है। यकीन है कि वो पते एक दिन अजनबी नहीं होंगे, यकीन है कि कोई तो ऐसा शहर होगा जहां उड़ने की आज़ादी होगी। वो लड़की इस महानगर में आकर कहीं गुम हो गई है।

बीस-इक्कीस की जो लड़की मोदी मिल फ्लाईओवर पर साथ ऑटो में चलती है उसने विद्रोह की तमाम सीमाओं के भीतर हर वो नामुमकिन काम कर लिया है जिससे थोड़ी-सी भी आज़ादी की खुशबू आती हो। कमर तक लटकनेवाले घूंघर कटते-कटते कान तक आ गए हैं, कानों में रुई के फाहों को भी जगह मिल गई है इन दिनों। मैं हॉर्न बजाती हूं, वो मुड़कर फिर भी देखती नहीं मुझे। उसे मीडियोक्रिटी से, सेकेंड रेटर्स से और हार मान लेनेवालों से सख़्त नफ़रत है, ऐसा कुछ याद आया है मुझको।

जीके वन की तरफ़ एसी कैब में गाने सुनते हुए जाती लड़की आज़ादी की पराकाष्ठा है। यहां से दो मोड़ दूर शहर के इलिट बाबालोगों का दफ़्तर है, सिगरेट का धुंआ है, मोका की क़ॉफ़ी है, फ़ैब इंडिया के वेजिटबल डाई वाले हरे-नीले कुर्ते हैं। ये दफ़्तर और ये नौकरी भी उसकी मंज़िल नहीं। उसकी बेचैनी कोई रनडाउन नहीं बांध पाता। किसी एविड न्यूज़कटर पर सपनों को टाईमलाइन पर डालकर एडिट करने की कला चार सालों में भी नहीं आई उसे। किसी वॉयसओवर से वो अपने सपनों को आवाज़ नहीं लगा पाती। वो लड़की अपने ऑफ़िस से निकलकर मेरी गाड़ी में बैठ जाती है।

सपनों का जो डिज़ाईनर बैग उसने गाड़ी की पिछली सीट पर डाला है उसमें उसके नाम का कुछ भी नहीं। यहां से निकलते हुए घर-परिवार-दोस्त-यार-प्यार की उम्मीदों का खोयचा बनाकर उसे सौंप दिया गया है। यहां से रिंग रोड की ओर जानेवाला रास्ता सीधा-सपाट है। सरपट भागती गाड़ियों की दौड़ में शामिल होकर दरअसल किसी मंज़िल पर नहीं पहुंचा जा सकता। रिंग रोड की तरह ही वो रास्ता गोल-गोल घूमता रहता है - साउथ एक्स, एम्स, धौला कुंआ, नारायणा, सराय काले खां और फिर साउथ एक्स। जहां ज़रूरत पड़ी, रुककर पेट्रोल डलवा लो, लेकिन मुद्रिका का रास्ता वही है - गोल गोल, गोल गोल। 

मैंने गाड़ी एक ओर खड़ी कर दी है। रास्ता बदलना होगा। ज़रूरत पड़ी तो जल-थल-नभ-पाताल में उतरना होगा। पिछले पंद्रह सालों में गुम हो गई लड़कियों की तलाश करनी होगी। उनसे हिम्मत का कर्ज़ लेना होगा, सपने उधार मांगने होंगे। बहुत शोक मना चुकी उनके छूट जाने का, उनकी उम्र के चूक जाने का विलाप भी बहुत हुआ। अपने बगल में बैठी इस 'भली' लड़की को उतारना होगा कहीं, उसे खुदकुशी के लिए उकसाना होगा, उसके बैग की तिलांजलि यमुना में देनी होगी, उसकी हर पहचान मिटानी होगी। 

बहुत हुआ आंखों का बहना कि ख़्यालों की ज़मीन जो बंजर दिखती थी, अब गीली हो चली है। सही वक्त है कि बीज डाल दें। 

अब सही वक़्त है कि कूदकर देखें। जब तैरना नहीं आता था तो बच गए थे। अब तो पानी की गहराई की अंदाज़ भी हो चला है, सर्वाइवल जैकेट्स साथ लिए चलते हैं। गहरे पानी में उतरकर सीपियों में दम तोड़ते मोतियों की तलाश के लिए इससे बेहतर वक्त और क्या होगा?

गुरुवार, 26 जनवरी 2012

एक कविता, एक अनुवाद: 2


Winter wind
roams the sky
And the starlit night conspires
For she is veil-bound tonight,
Guarded and watched.
Walk past her
And don't look back
Let her wait
Behind the veil.

Let this be the night
Of shedding all the tears
Allocated for a lifetime
Let this be the night
Of parting and fears.
When she gets tired
of standing alone
Of the scent of her sweat
and beat of her heart

When she pushes her veil back
Ambush her,
kill her,
But don't hold her
And don't ever let her go.

सर्द पवन
नभ की भटकन।
सितारों से ढंकी साज़िश की रात
कि आज है उसके घूंघट
के सतर्क पहरों में बंद होने की बात। 

किनारे से जाओ
और न देखो मुड़कर।
रहने दो इंतज़ार
उस घूंघट के पार।

जीवन भर संचित आँसुओं को
बह जाने दो आज।
कि है ये विरह
और ख़ौफ़ की रात।

थक जाए जब वह
अकेली राह तकते 
थक जाए जब वह
निज स्वेद की गन्ध और
हृदय की धड़कन से।


जो झटके वो घूंघट
लगाए रहना घात,
ले लेना उसकी जान,
लेकिन न थामो उसे
और न जाने दो उसे कभी भी,
कहीं भी।

बुधवार, 25 जनवरी 2012

एक कविता, एक अनुवाद

Hometown no more 

Various silences
She is acquainted with
And noises 
that aren't unknown
The applause 
which has died down
And the sniggers some more
An ache and
minnows packed in 
a bag with a pair of wheels,
She leaves the hometown
like a stealthy lover
For beloved seems so far away
Tonight
And so does home.


शहर अब अपना नहीं

कई चुप्पियां
जिनसे वाकिफ है वो,
और आवाज़ें
जो अनजान भी नहीं,
वाहवाहियां
जो होने लगी हैं ख़ामोश,
और पीठ पीछे उड़ाए गए
कुछ भद्दे मज़ाक,
एक दर्द 
और कुछ तुच्छ-सी चीज़ें
बंद हो गई हैं एक 
पहियोंवाले बैग में।

वो शहर छोड़ देती है अपना
छुप के आई महबूबा की तरह
कि महबूब बहुत दूर है 
आज की रात,
घर भी तो है उतनी ही दूर।


रविवार, 22 जनवरी 2012

रांची डायरी 4: इस अंजुमन में हम मेहमां ही अच्छे

दर्द की पराकाष्ठा क्या होती होगी, ये पिछली रात जान गई थी। घुटनों में पेट दबाए बिस्तर पर पड़े हुए दर्द के एपिसेंटर को समझने की पूरी रात की कोशिश नाकाम गई। पीठ था या पेट, पैर या कमर, या दर्द से फटता सिर, अबतक समझ नहीं पाई। ये घर है मेरा, यहां ज़िन्दगी के सत्रह साल गुज़ारे। इस कमरे की गंध से वाक़िफ़ हूं, लेकिन सूझता नहीं कि इस दर्द में आवाज़ किसको दूं, सुकून कहां ढूंढू, किससे कहूं कि मुझसे अब उठा नहीं जाएगा और मेरा जिस्म थाम लो। उसपर बाबा को जीभर कर याद करना मेरी सुबह को ख़ास खुशनुमा नहीं बना रहा। फोनबुक में नंबर स्क्रोल करती रही हूं। रांची में कितने लोग हैं जिन्हें आवाज़ दे सकूंगी? घबराकर मैंने दिल्ली अपनी दोस्त को फोन लगाया है जो डॉक्टर है। उसकी आवाज़ सुनते ही मैं रो पड़ती हूं।

यू ओके?”

पेनकिलर बताओ जो ओवर द काउंटर ले सकूं, और ट्रैंक्वलाइज़र भी। आंसुओं में घुली गुज़ारिश से भी वो संगदिल नहीं पिघलती।

मर जाओगी दवा फांकते फांकते। मैं कोई दवा नहीं बता रही। गो फॉर एन अल्ट्रासाउंड।

आई कान्ट, आई वोन्ट। अगर चाहती हो कि तुम्हारे पड़ोस में लौट सकूं तो अभी बताओ कि क्या फांक लूं?”

ज़हर, ज़हर मिलता है कहीं आस-पास? वो ले लो।

ओवर द काउंटर लूं या तुम्हारे नाम के फोर्ज्ड प्रेसक्रिप्शन पर?”

तुम नहीं सुधरोगी। मैं मनीष को फोन करूं?”

नहीं, किसी को भी नहीं। मैं कर लूंगी। तुम दवा बताओगी या मैं ब्रूफेन की दो गोलियां ले लूं?”

मेरी कोई पेशेन्ट ऐसी नहीं जो मुझे इमोशनली ब्लैकमेल भी करती हो।

अभी लौट आने और आते ही मिलने की हिदायत के बाद वो फोन रख देती है। मेरा दिमाग फिर खाली है। मैं ऑफिस जा सकती हूं, इसी हालत में। कम-से-कम वक्त कटेगा। अपोलो पास है, ज़रूरत पड़ी तो मेरे क्लायन्ट्स मुझे अस्पताल तक पहुंचाने की ज़हमत भी उठा ही लेंगे। उनका अपना लो कॉस्ट हाई क्वालिटी अस्पताल है जिसके लिए मुझे होर्डिंग डिज़ाईन करने को कहा है। कहूंगी, मेरी डिज़ाईनिंग फ़ीस मत दो, डॉक्टर को ही दिखा दो। मुझे इस वक़्त किसी के साथ की सख़्त ज़रूरत है। कमाल है कि मेरे ही शहर में ऐसा कोई नहीं जिसके पास बैठा जा सके, जिससे बत्ती बुझा देने के अनुरोध के साथ सिर में तेल लगा देने को भी कहा जा सके। जिन लोगों के पास भागकर जाना चाहती हूं, वो दो लोग भी दिल्ली के हैं। मेरी ज़िन्दगी से मेरा शहर इस क़दर अजनबी हो जाएगा, सोचा ना था। मैं कबसे अपने शहर में भी दिल्ली ढूंढने लगी?

दर्द के रेशे चुनकर लैपटॉप बैग में पैक कर लिया है और गाड़ी के आने के इंतज़ार में दो पेनकिलर्स भी खा चुकी हूं। एक मेसेज है मोबाइल में, मुझे रुलाने का एक और सबब। हाय, वेन आर यू बैक? मिसिंग यू टेरिबली। मेरी पड़ोसन है। दोस्त भी कह सकती हूं अब तो, कि मेरी गैरहाजिरी में याद करती है मुझको।

मुझे लौट आने की ऐसी बेचैनी कभी नहीं हुई। दिल्ली की ज़मीन छूते ही हड्डियों को छेदनेवाली कंटीली हवा स्वागत करती है, मैं फिर भी परेशान नहीं हुई। रात के साढ़े दस बजे टैक्सी में बैठते हुए डर नहीं लगा कि यहां से नोएडा तक के हर मोड़ को पहचानती हूं अब। टैक्सी की खिड़की से बाहर साठ की रफ्तार से सरपट भागता शहर हैरान नहीं करता कि अब मैं भी वैसी ही तेज़चाल चलती हूं आजकल। फोन फिर से बजता है। डॉक्टर है।

आई या नहीं वापस?”

अभी अभी।

कोई पिकअप करने गया था।

सभी ईज़ीकैब्स वाले ड्राइवर दोस्त हैं मेरे, चिंता मत करो।

मुझे कहा होता। तुम आओगी मिलने या मैं आऊं?”

सुबह। इस वक्त नहीं।

आर यू ओके?”

हां, नाउ दैट आई नो आई एम होम...

घर के पते बदले हैं, शहर बदला है लेकिन सबसे ज़्यादा मैं बदल गई हूं।  
   

गुरुवार, 19 जनवरी 2012

रांची डायरी 3: मनु मुंडा के साथ एक दोपहर

ऐसा नहीं कि पहली बार किसी गांव आई हूं लेकिन हर बार आना पहली बार-सा ही लगता है। हर गांव का चरित्र अलग होता है, सभी गांवों की पहचान का तरीका भी अलग होता हो शायद। हालांकि पाकुड़ से लेकर लोहरदगा तक झारखंड के गांवों में एक गंध है जो कॉमन होती है – हंड़िया की। हंड़िया यहां का स्टेट ड्रिंक है और इस एक गंध की वजह से मुझे कभी आउटसाइडर होने का या अजनबीपन का अहसास नहीं होता।
डेवलपमेंट सेक्टर और स्वयंसेवी संस्थानों के ख़िलाफ़ तमाम भाषण देने और बहस-मुबाहिसों में शामिल होने के बावजूद मैं ये एक बात दावे के साथ कह सकती हूं कि विकास का जो भी थोड़ा-बहुत काम गांवों में नज़र आता है, वो इसलिए है क्योंकि डोनर और इम्पिलिमेंटिंग एजेंसी, दोनों गैर-सरकारी संस्थाएं हैं। वरना यहां दुनियाभर के टैक्सपेयर्स की गाढ़ी कमाई बड़े लोग हजम कर जाते हैं और डकार भी सुनाई नहीं देती।

दोपहर का वक्त है और गांव में शांति पसरी है। क्रॉयलर मुर्गों की कुक्डूकू से कभी-कभी हवा में हलचल होती है या फिर बगल की पगडंडी से साइकिल पर गुज़रता हुआ कोई युवक मोबाइल पर ‘मोय चलातो रे धन सालो’ सुनते हुए जाता है तो लगता है, आवाज़ों में ज़िन्दगी बाकी है। हम प्राइमरी स्कूल पर खड़े हैं। मैं दीवारों पर बने टीचिंग और लर्निंग टूल्स देख रही हूं। राइट टू एडुकेशन एक्ट के तहत हर गांव में एक विलेज एडुकेशन कमिटी (वीईसी) होती है आजकल। गांव के कुछ अभिभावकों को भी इस कमिटी का सदस्य बनाया जाता है। मनु मुंडा वीईसी के चेयरमैन हैँ।

“ड़ेखिए न मैड़म, हम्मी लिखवा ड़हे थे – एबीसीडी लिखवाए हैं,” मुंह खोलते हुए लटपटाई ज़ुबान और हंडिया की तेज़ गंध अपना कमाल दिखाती है। मैं दो कदम पीछे हट जाती हूं।

“ड़ेखिए न…” डोलते हुए झुककर वो एक बच्ची की कॉपी हमें दिखाते हैं। “अच्छा है” से ज़्यादा हम कुछ कह नहीं पाते। “मेड़ा नाम मनु मुंडा है, हम... क्या बोळते हैं उउउउसको... हम अथी के चेयरमैन हैं, कमिटी के।” “अच्छा।” मैं आगे बढ़ जाना चाहती हूं। भरी दोपहर में पीकर झूमते शख्स को संभाल पाना किसी के बस की बात हो ना हो, मेरे वश की तो नहीं है।

“पाइप बिछवा दीजिए ना मैड़म... अथी... पाइप से अथी हो जाएगा।”

“क्या हो जाएगा?”

“अथी, अच्छा हो जाएगा, खेत अच्छा हो जाएगा। नदी से खेत तक पाइप बिछ जाएगा फिड़.... फिड़ देखिएगा हम कइसा खेती कड़ के दिखाएंगे।”

क्या हम इनसे पीछा छुड़ा सकते हैं? मैं बड़ी हसरत भरी नज़रों से अपने सहयोगियों की ओर देखती हूं। गांव का ही कोई एक वाशिंदा मनुजी को पकड़कर वापस स्कूल की ओर पहुंचा देता है और कच्चे बेर चुनने और गांव की डेमोग्राफी समझने के बीच मेरा डायरी में लिखना बदस्तूर जारी रहता है।

धान के खेत कट चुके हैं, कहीं गेहूं लगा है कहीं सब्ज़ियां। गेहूं की एसआरआई तकनीक को समझने के लिए हम ठीक खेतों के बीच खड़े हैं। वसु के हाथ में कैमरा है और उसे पहाड़, खेत, गांव, जंगल, पेड़, नदी के पैनोरमिक शॉट्स लेने हैं।

“मैड़म... मैड़म...,” मनु जी यहां भी धमक आते हैं, ठीक खेतों के बीचोंबीच। मैं किनारे आ जाती हूं। लेकिन वसु परेशान है, इन्हें फ्रेम से बाहर कैसे निकाला जाए। मैं चंद अच्छी तस्वीरों के लिए कुर्बानी देने के लिए तैयार हो जाती हूं और वसु से मनु को मेरे पास भेजने के लिए कहती हूं। अब बैठने की जगह तलाशनी होगी। या इसके मुंह से आती बास मुझे बेहोश करेगी या इसकी बकबक। खेत के किनारे मेड़ पर मनु मुंडा मेरे बगल में आकर बैठ जाते हैं।

“ये साड़ा हमड़ा ही खेत है, मैड़म।”

“हूं...”

“हमको अच्छा अथी दीजिए... अथी... बीज आ खाद... तो हम इधर सोलहआना का बत्तीस आना कड़ेगे...”

“हूं...”

“ये मटड़ देख ड़रे हैं मैडम... विकलांग हो गया है विकलांग... विकलांग समझते हैं ना?”

“हां? हूं...”

“अब विकलांग बड़ा भी होगा तो क्या कड़ेगा... घाटा है... साफे घाटा है...”

सोचती हूं, किसी और डेवलमेंट सेक्टर वाले के सामने मत बोलना, हंगामा मच जाएगा। इस बीच बेर खाना, एसएमएस करना और फोन पर मेल चेक करने का काम उसी धाराप्रवाह गति से चल रहा है, जितनी तेज़ी से मनु बोल रहे हैं।

“हम खूब तड़क्की कड़ेंगे मैडम... खूब अच्छा बीजा भेजवा दीजिएगा... खूब अच्छा फसल होगा...”

“हूं...”

“एक ठो बेटा है मेड़ा... कौन दो क्लास में है यादे नहीं आ ड़रा है... का बोलते हैं... उधड़ पढ़ता है... स्साला नामे नहीं याद आ ड़हा है...”

“कोई बात नहीं दादा, आप टाईम लेकर सोचकर मुझे बताइएगा।”

“ड़ुकिए ना मैडम... बूढ़ा रहे हैं ना, सो भूलने लगते हैं... अड़े नौवां में है... उधर बूंडू में... आप अपने साथ ड़ख लीजिए... कुछ काम-धाम सीखेगा...”

“गांव में इतना काम तो है दादा, आपकी मदद कौन करेगा? खेत कौन देखेगा? आपकी बकरी? मुर्गे?”

“मैड़म, आप नहीं समझते हैं... इधड़ क्या ड़खा है... क्या कड़ेगा इधड़.... बर्बाद हो जाएगा... हमड़ा जइसा हंड़िया पिएगा औड़ दिनभड़ इधड़ से उधड़ कड़ेगा। वहां आपलोग के पास ड़हेगा तो आदमी बनेगा।”

“आदमी इधर भी बनेगा दादा। सब शहर चले जाएंगे तो गांव में कौन रहेगा?”

“गांव तो शहड़े हो गया है मैड़म। खाली नाम के लिए गांव है। लेकिन नौकड़ी नहीं है इधड़, पइसा भी नहीं है...”

“दादा, शांति है इधर, शहर में तो कितनी भागमभाग है।”

“क्या मैड़म... नहीं ले जाएगी उधड़ तो कौनो बात नहीं। इधड़ हम उसको अथी भेजेंगे, अथी... कॉळेज...”

“हां दादा, लेकिन उसके लिए खेती करनी होगी, काम करना होगा, पैसा कमाना होगा और हंड़िया पीना कम करना होगा।”

“एकदम स्सही... एकदम स्सही मैड़म... बीजा दीजिएगा... पाइप दीजिएगा... खाद दीजिएगा... अथी दीजिएगा... अथी... घास निकालनेवाला वीडड़... इधर खेत में मटड़ लगाएंगे... बड़का बड़का होगा, ऐसा विकलांग नहीं... मटड़ बेचेंगे... सोलह आना का बत्ती आना कड़ेंगे... खूब पइसा आएगा...”

“पइसा का क्या कीजिएगा दादा?”

“हंड़िया पिएंगे दीदी, हंड़िया... हें हें हें...”

बुधवार, 18 जनवरी 2012

रांची डायरी 2: बकरी के मेमनों-सा उजला दिन

मुझे अपने बेसलीका, बेतरतीब, बेढ़ब, बिना किसी लीक के होनेवाले काम से बेइंतहा मोहब्बत है। कोई पूछता है कि क्या करती हो तो मैं ठीक-ठीक बता नहीं पाती। फिल्ममेकर, राइटर, कम्युनिकेशन्स कन्सलटेंट और गेस्ट फैकल्टी के बीच कुछ हूं, और इसे किसी एक ख़ास टर्म में बांधना मुश्किल है। अच्छा, फ्रीलांसर हो? हम्म... ये सबसे आसान तरीका हो सकता है मेरे काम को बांधने का, लेकिन ना, वो भी नहीं हूं।

बहरहाल, काम से मोहब्बत इसलिए है कि ऐसे उजले दिन कई बार इसी की बदौलत नसीब होते हैं। रुक्का, बूंडू या पतरातू के आस-पास बसे गांवों में आने की कोई और वजह ज़िन्दगी में कभी बन पाती, मुझे लगता नहीं। मैं यहां झारखंड की एक बड़ी स्वंयसेवी संस्था को लिखने का सलीका सिखाने आई हूं। फैंसी शब्दों में इसे कॉन्टेन्ट स्ट्रैटेजी कह सकते हैं। कितना लिख पाऊंगी, और कॉन्टेन्ट कैसे जेनरेट होगा, ये तो बाद की बात है। फिलहाल इस कैंपस से प्यार कर बैठी हूं।

साल, सागवान और सखुआ के जंगलों के बीच से एक कच्चा रास्ता यहां तक आता है। दूर से रुक्का डैम का ठहरा हुआ पानी धान के कटे हुए खेतों के बीच आराम फ़रमाता नज़र आता है। कहीं हलचल है तो सरसों के खेतों में है। हवा का रुख बदला है और मदमस्त सरसों के सिक्के हसीन मौसम पर फिदा इठला-इठलाकर रह जाते हैं। मैं गाड़ी रुकवा सकती हूं, लेकिन नज़रों के आगे से किसी वृत्तचित्र की तरह सरकते ये नज़ारे ऐसा करने नहीं देते। कैंपस में उतरते ही मौसमी फूलों की क्यारियों ने गुड मॉर्निंग कहा है। बगल में एकड़ों में पसरे बेबीकॉर्न, ब्रॉकोली, मटर, टमाटर के खेत हैं। मुझे ग्रीनहाउस में लगाया गया बेलपेपर सबसे ज़्यादा लुभाता है। हरे पत्तों के बीच से येलो बेलपेपर ने एक परफेक्ट कॉन्ट्रास्ट दिया है। फोटो खींचो तो फोटोशॉप की ज़रूरत नहीं होगी।

मुझे  टीम के एक-एक सदस्य से मिलना है और मैं सबको छत पर धूप में बैठकर बात करने का न्यौता देती हूं। कुछ मान जाते हैं, कुछ भौंहें चढ़ाते हैं लेकिन मैं बाज़ नहीं आती। एनआरएम और विलेज डेवलपमेंट जैसे विषयों पर भारी-भरकम जार्गन्स को रिकॉर्ड करते हुए भी मेरा ध्यान सामनेवाले के कंधे के पार दूर टीक के पेड़ पर फुदकती कोयल की ओर है। बया है, तोते भी। मैंने नीलकंठ और कठफोड़वे की भी पहचान कर ली है। वूमेन इमैन्सिपेशन और ओवरऑल चाइल्ड डेवलपमेंट पर बातचीत बदस्तूर जारी है। यहां ऐसा एक लम्हा जी लेने के लिए तो मैं किसी भी एक्सटेम्पॉर में हिस्सा लेने के लिए तैयार हो जाऊंगी।

हम खेतों तक नहीं  जा सकते? क्यों नहीं? वो भी आपके फील्ड विज़िट का हिस्सा है। डेयरी, प्रोसेसिंग प्लांट, ग्रीनहाउस और हाइब्रिड टमाटरों की और बेहतर नस्ल के लिए किया जा रहा पॉलिनेशन, सब दिखाया जाएगा। लेकिन सबसे पहले डेयरी और बायोगैस प्लांट। आपको गंध से कोई उलझन तो नहीं? है तो, मैं गंध को लेकर हाइपरसेंसिटिव हूं, लेकिन कुछ ख़ास तरह की खुशबुओं को लेकर। मन में सोचती हूं कि गोबर उनमें से एक नहीं है, शुक्र है। दोपहर का ये वक्त गायों के क्लासिकल संगीत सुनने के लिए मुकर्रर है। आर यू सीरियस? ऑफ कोर्स। गौशाला में खंभों से बंधे स्पीकरों से वाकई ज़ाकिर हुसैन तबला बजाते सुनाई देते हैं। क्या मैंने वाकई गायों को झूमते देखा?  मेरे ख़्याल का एक टुकड़ा कहीं दूसरी दुनिया में घुंघराले बालों के साथ झूमते, तबले पर अपनी उंगलियां थिरकाते ज़ाकिर मियां तक पहुंच गया है और वहीं टुकड़ा स्कॉटलैंड के किसी मेडो में नाचती उजली, काली, धूसर, धवल, चितकबरी गायों के बारे में सोच-सोचकर प्रफुल्लित है।

तेज़पत्ता, दालचीनी, ऐलो वेरा, गेंदे और जाने कितनी औषधियों के बगीचे से होकर हम  अमरूद, पपीते, आम और लीची की सीधी पंक्तियों को पार करते हैं। फलों के बगानों से पार टमाटर के खेत हैं। झुंड की झुंड महिलाएं पॉलिनेशन का काम कर रहीं हैं। मैं उछलते-कूदते एक महिला पर सवालों का टोकरा उलीच देती हूं। बड़े सब्र के साथ वो मुझे पॉलिनेशन की प्रक्रिया समझा रही हैं। बेख्याली में मैंने टोकरी में रखे कुछ फूल उठा लिए हैं। ऐसे नहीं दीदी, पराग झर जाएगा, फूल बेकार हो जाएंगे, वो मुझे थोड़ी सख़्ती से कहती है। मैंने उससे चिमटी मांग ली है और फूल को चश्मे के आगे लाकर देखती हूं। या ख़ुदा, तेरी दुनिया मुझे हैरान कर देना कब बंद करेगी?

टमाटर के खेतों से निकलकर हम कैंपस की चहारदीवारी के पार डैम की ओर बढ़ जाते हैं। झुंड के झुंड साइबेरियन क्रेन्स ठहरे हुए पानी को सताने पर आमादा हैं। मछलियां तैरकर खुद ही ऊपर आतीं तो कितना अच्छा था। नीले अंबर के नीचे नीला पानी लेटे-लेटे अपनी महबूबा से मिलने के ख़्वाब सजा सकता था। कमबख्त क्रेन इसे जीने नहीं देंगी, हलचल मचाती ही रहेंगी। अचानक मैं साइबेरियन क्रेन होना चाहती हूं अगली ज़िन्दगी में। कुछ ताउम्र साइबेरिया से गर्म देशों की ओर सफ़र  करने का लालच है, कुछ ठहरे हुए पानी में हलचल मचाने की तमन्ना।

दूर बकरी के साथ दो रुई-से सफेद मेमने नज़र आते हैं। मैंने ऐसे बच्चे कभी नहीं देखे। जाकर पूछते हैं तो पता चलता है, एक घंटे पहले पैदा हुए हैं। मुझे अचानक अपने जुड़वां बच्चे याद आते हैं। यहां होते तो बौरा जाते, अपनी मां की तरह। मेरे साथ आई वसु बच्चों को गोद में लेने लगती है और मां डरकर मिट्टी उड़ाने लगती है। मैं उसे बच्चे को वापस देने को कहती हूं। आई नो द फीलिंग। दे लुक लाइक माई ट्विन्स। मेरा इतना कहना है कि अगले दो घंटे तक सबके सामने मेरा मज़ाक बनता रहता है।

लेकिन उजले मेमनों के ख़्याल और उन जैसे उजले एक दिन ने मेरा होना सार्थक कर दिया है।

मंगलवार, 17 जनवरी 2012

रांची डायरी: ये घर और शहर बहुत हसीन था!

जिस शहर में बड़े हुए हों, वहां लौटकर आने के बहाने खोजते हैं हम। आने के बाद हर बार भ्रम टूटते हैं क्योंकि शहर भी उसी रफ़्तार से उम्रदराज़ हुआ है जितनी तेज़ी से आपके कानों के पीछे से सफ़ेदी झांकने लगी होगी। लेकिन जैसे हम मूल रूप से नहीं बदलते, शहर का मौलिक चरित्र भी नहीं बदलता। फिर भी समीकरण वो नहीं रहते जिन्हें पाइथोगोरस थ्योरम की तरह प्रूव करने का एक तरीका मुकर्रर कर दिया जाए – ना लोगों से, ना शहर से, ना शहर की गलियों से। हर बार नए सिरे से अपने आपसी रिश्तों को समझने की कोशिश करनी होती है। हर बार कुछ टूटता, कुछ बनता-बिखरता है।
मैं पूरे एक साल बाद रांची लौटी हूं। घर के रास्ते नहीं बदले, गलियों के मोड़ वही हैं और मोड़ों पर खड़े दुकानों की जमात भी वैसी ही है। लेकिन रास्तों पर खड़े घर बदल गए हैं, खेतों की जगह अपार्टमेंट्स ने ले ली है और अब सड़कों के किनारे पेड़ कम, गाड़ियां अधिक दिखाई देती हैं। ये बात और है कि लिट्टी-चोखा वाले का ठेला अब भी दुर्गा मंदिर के सामने वहीं लगता है जहां हमारे बचपन में होता था, प्लास्टिक सेंटर अब भी वहीं हैं और रेडियो स्टेशन के पास एक दूसरे से सटकर खड़ी सेकेंड हैंड किताबों की तीन दुकानें अब भी वहीं से नई पीढ़ी के एस्पायरिंग डॉक्टर्स और इंजीनियर्स की ज़रूरतें पूरी कर रही हैं। कुछ मॉल्स और ज़रूर खुल गए हैं, उपहार नाम का सिंगल स्क्रीन डाउनमार्केट थिएटर जल्दी ही मल्टीप्लेक्स कम मॉल हो जाएगा और हम रातू रोड वालों के पास भी एक इलिट पता होगा बताने को।

हमारे कुछ बैचमेट्स अब नई शोहरत, पैसे, रुतबे, बढ़ी हुई तोंद और जिमखाना क्लब की मेंबरशिप वाले प्रतिष्ठित डॉक्टर हैं तो कुछ के चेहरों पर उम्र और मातृत्व की थोपी हुई गरिमा ने कोई मोटा लेप चढ़ा रखा है। अपनी गली में उतरते ही जाने-पहचाने चेहरे ऐसे आपके चेहरे पर उम्र की परछाईयां तलाश करने लगते हैं कि मैं अपनी आंखें नीची किए घर में घुस जाना ज़्यादा मुनासिब समझती हूं।

घर में घुसने के बाद भी सुकून नहीं। आंखें वो लॉन खोजती हैं जिन्हें कंक्रीट में तब्दील कर दिया गया। गमलों में कैक्टस ज़्यादा हैं, फूलों का कहीं नामोनिशान नहीं। जिस किचन गार्डन पर नाज़ हुआ करता था वहां सरसों के थके हुए कुछ सिक्के गिरकर शहीद हो जाने पर आमादा हैं। अमरूद का पेड़ शीत में जल गया है, आंवला धराशायी होने की कगार पर है। आम ने जाने किस शोक में जान दे दी है और केले के पेड़ नहीं, बृहस्पति देव नाराज़ हैं हमसे। गुलाबी पर्दों की जगह कौन-से रंग ने ली है, देखना भी नहीं चाहती। आए हुए कई घंटे गुज़र गए हैं, मैं पहली मंज़िल पर अपने और मम्मी के कमरों की ओर गई तक नहीं। सामान भी नीचे मेहमानों वाले कमरे में रखा है। तीस के इस पार हम कितनी आसानी से अपनी जगह तय कर लिया करते हैं!

घर में ख़बरों का पिटारा खुल गया है। गली के बाहर का मछली बाज़ार वही है, लेकिन अवधा अब भी अंडे और मुर्गे बेचकर पचास करोड़ की संपत्ति के इज़ाफ़े में लगा हुआ है। मनु मौसी की भतीजी उसी कॉलेज में लेक्चरार हो गई है जहां मुझे पढ़ाना चाहिए था और सीमा बुआ का बेटा मुंबई में नाम रौशन कर रहा है। पड़ोसवाले शर्माजी की बेटी की शादी बारह लाख कैश का दहेज ना दे पाने की मजबूरी की वजह से इस साल भी नहीं हुई और मेरी बचपन की दोस्त ने शादी के दस साल और आठ साल की बेटी के बाद अपने भलमानस पति को डिवोर्स देकर दूसरी शादी कर ली। उसके पिता अब नहीं रहे और कैसी दोस्त हूं कि ये ज़रूरी ख़बरें मुझे मालूम तक नहीं। तीस के इस पार हम कितनी आसानी से अपनी ख़बरें भी चुन लिया करते हैं!

रुक्का डैम के किनारे बसे गांवों में फील्ड विज़िट करने और टेसू के जंगलों में दोपहर गुज़ारने का सारा उत्साह फिलहाल काफ़ूर हो गया है। शहद जैसी गाढ़ी और मीठी नींद का टुकड़ा मैं अक्सर मम्मी के तकिए के नीचे संभालकर रख जाया करती थी। इस बात का गुमान था कि इस एक घर में, इस एक बिस्तर पर, इस एक तकिए पर, इस एक रज़ाई को ओढ़कर सोते हुए मुझे नौ घंटों तक वो चैन की नींद मिलती है जो जन्नत में भी नसीब ना हो शायद। आज की रात एक और इम्तिहान की रात होगी। तीस के इस पार हम कितनी आसानी से इम्तिहानों में फेल हो जाना भी स्वीकार कर लिया करते हैं!

(15 फरवरी, 8:30 PM)

रविवार, 15 जनवरी 2012

द बैड एंड क्रेज़ी वन

उसकी आवाज़ सुनते ही मेरे हाथ रुक जाते हैं और चैनल बदल देने का इरादा मैं त्याग देती हूं। स्टीयरिंग व्हील पर हाथ और रास्ते पर नज़र, लेकिन सोच रही हूं कुछ और। इस आवाज़ से मेरा क्या रिश्ता है? इतना सा ही कि ग्यारह साल की थी जब उसे पहली बार स्क्रीन पर गाते देखा था और प्लेबैक इस एक आवाज़ में था। ग्यारह साल की थी तब क्रश हुआ था, सलमान खान पर और ये एक क्रश है जो इतने सालों में ख़त्म नहीं हुआ।

जिस गीत को सुनने के लिए मैंने चैनल बदला नहीं उस गाने में आउटस्टैंडिंग कुछ भी नहीं। नदीम श्रवण के बेहद प्रेडिक्टेबल संगीत की इतनी ही हद है कि इस फिल्म के संगीत के लिए उन्हें फिल्मफेयर अवॉर्ड मिल जाता है। लेकिन मैंने गाना सुनने के लिए चैनल नहीं बदला हो, ऐसा नहीं है। मैं आकाश वर्मा के कैरेक्टर के बारे में सोच रही हूं। एसपी बाला ने कैसेनोवा टाईप के आकाश के फ्लिंग्स को कोई नया डाईमेंशन नहीं दिया। मैंने 12 साल की उम्र में ये फिल्म देखी थी और याद है कि लॉरेन्स डिसूज़ा के किए अन्याय पर ख़ासा दुखी हुई थी। अमन तो सुलझा हुआ, भला इंसान था। उसे प्यार भी मिल जाता, प्यार करनेवाले भी। पूजा तो आकाश की ही होनी चाहिए थी। उस बिगड़े हुए, कंफ्यूज़्ड, हैरान-परेशान साहबज़ादे को उस प्यार की ज़्यादा ज़रूरत थी जो उसे स्टेबल और ज़िन्दगी पर भरोसा करने लायक बनाता। डिसूज़ा साहब को इतनी सी बात नहीं समझ आई?

भंसाली भी ये नहीं समझे। समीर फिर अगले जन्म के इंतज़ार में रह गया कि कोई तो दूसरा, तीसरा, सातवां आसमान होगा जहां नंदिनी उसके पास लौटेगी। एक लंबे और थका देनेवाले इंतज़ार के बाद 'कुछ कुछ होता है' में अमन को फिर से अपने प्यार की कुर्बानी देनी पड़ती है। इन गिनी-चुनी फिल्मों की तुलना में दसियों ऐसी फिल्में होंगी जिनमें हीरो को आख़िर अपनी महबूबा मिल ही जाती है। लेकिन मैं इन्हीं तीन कैरेक्टर्स के बारे में सोच रही हूं जो असल सलमान के बहुत करीब हैं।

रैश, वल्नरेबल, स्पॉन्टेनियस, इम्पलसिव, इमोशनल, ट्रस्टवर्दी - कुछ ये विशेषण दिमाग में घूम रहे हैं और फिल्म सिटी के बाद का मोड़ आ गया है। मैं अगले आठ मिनट में घर पहुंच जाऊंगी। सलमान के बारे में क्या सोचती हूं, तय करने के लिए आठ मिनट हैं अब। तमाम मुश्किल दौर से गुज़रते हुए भी जिस इंसान का कैरेक्टर छिन्न-भिन्न ना हुआ हो, जो ईमानदार और स्ट्रेटफॉर्वर्ड हो और जो मोहब्बत में अंजाम की परवाह किए बिना महबूबा के लिए सबकुछ कर गुज़रने पर आमादा हो, वो शख्स एक फेशियल नर्व डिसॉर्डर और ज़िन्दगी में किसी तरह के ऑर्डर से ज़्यादा ढेर सारा प्यार डिज़र्व करता है।

भाई, एक फिल्म हम सलमान को लेकर बनाएंगे जिसमें पूरी दुनिया को लात मारकर दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत लड़की द बैड मैन एंड द क्रेज़ी वन के पास आएगी। हम उस फिल्म के दो-चार सिक्वल भी बनाएंगे। कहो तो स्क्रिप्ट पर काम करना शुरू कर दूं।

फिलहाल, वो एक गाना सुनो जिसे देखते हुए मेरा कलेजा मुंह को आ जाता है। उसकी आंखों से टपके हर आंसू के कतरे की कसम, सलमान खान से बढ़कर किसी खान, कपूर, कुमार को नहीं माना। धीरज धरो सल्लू मियां, तुम्हारे दिन भी फिरेंगे।


मंगलवार, 10 जनवरी 2012

कैसे जाएं महबूब की गलियां छोड़कर

आज मौसम मेहरबान है। पूरे चांद की रात है और समंदर अपने शबाब पर होगा। हम बैंडस्टैंड तक जा सकते हैं और पत्थरों पर बैठकर आकंठ मोहब्बत में डूबे लोगों से आंखें चुराते सेवपूरी से अपनी मोहब्बत निभाई जा सकती है। ये भी हो सकता है कि डूबते सूरज के पार समंदर के किनारे कुछ ज़हीन, कुछ बेमानी सवाल छोड़ आएं, और सुबह की रौशनी में ताज़ा, शबनमी आंखों से उनके जवाब ढूंढ लिए जाए। ये भी ना हो तो टकटकी लगाकर गैलेक्सी की खिड़कियों को देख लिया जाए, क्या पता किस्मत मेहरबान हो और सलमान खान को हमारी बेचैन आंखों पर तरस ही आ जाए! 

लेकिन आज का दिन बैंडस्टैंड के लिए नहीं बना। आज की शाम बांद्रा की गलियों के नाम है। मुंबई से इश्क होने की पहली वजह है बांद्रा, जिसे अपटाउन भाषा में बैंड्रा कहा जाता है। किसी महानगर का कोई रिहायशी इलाका अपनी तमाम भीड़ और जगह की तंगी के बावजूद इस कदर लुभा सकता है, यकीन करना मुश्किल है। हम माउंट मेरी रोड के घुमावदार रास्तों पर हैं और मुझे ऑटो से उतरकर जॉग करने की इच्छा हो रही है। बगल से गुज़रती विशाल इमारतों का भी अपना एक कैरेक्टर है। सेलेस्टियल, सेरेनिटी और जेड जैसे नामों वाली ये इमारतें यथा नाम तथा रूप हैं। इनके बीच कहीं कोई 'दिलखुश' बंगला है तो कहीं डिसूज़ा विला। हाईराइज़ और बंगलों का ये विरोधाभास बांद्रा की ख़ास पहचान है। 

यूं ही एक बंगले के सामने से गुज़रते हुए खिड़की के भीतर से सलीब पर लटके येशु झांक रहे हैं। उनके चारों ओर लटकती गुलाबी रौशनी की परछाई में एक बूढ़ी महिला बैठकर सब्ज़ियां काट रही हैं। सोचती हूं, क्या मुझे इस घर में जाने की इजाज़त होगी? अगर उनसे कहूं कि सब्ज़ियां मुझे काटने दो और अपनी कहानियों का तड़का लगाकर आज की रात का डिनर भी यादगार बना दो तो क्या वो मान लेंगी? अगर पूछूं कि करोड़ों की ज़मीन पर इस टूटे-फूटे, पुराने जर्जर बंगले को बचाए रखने की सज़ा यहां के प्रॉपर्टी डीलर कैसे देते हैं तो क्या वो रो पडेंगी? उनके महबूब बैंड्रा को ये किसकी काली नज़र लगी है?

हिल रोड से होकर गुज़रते हुए अगल-बगल नज़र आनेवाली तंग गलियों से झांकते घर ख़ास कैथोलिक स्टाईल में बने हैं। ऐसे घर कम ही बाकी रह गए हैं, लेकिन उनकी यहां मौजूदगी इस इलाके को एक ख़ास पहचान देती है। बैंड्रा की ख़ास पहचान यहां के चर्च भी हैं। माउंट मेरी सैंकड़ों साल पुराना चर्च है और उसके बाहर खड़े होते ही लगता है, तीर्थ कर लिया। सैंट एन्ड्रू़ज़ चर्च के सामने फूल और नारियल बिकते देखकर मैं थोड़ी हैरान हो गई। बेटे ने ध्यान दिलाया, सामने साई बाबा मंदिर था। यहां जामा मस्जिद भी है, फायर टेंपल भी। सड़क के कई मोड़ों पर गणपति के मंदिर भी बने हैं। ऐसे ही एक मंदिर में कुछ महीने पहले हम तीज का चढ़ावा रखकर आए थे, पैसे और नई साड़ियों के साथ। अगले दिन गणेश चतुर्थी की पूजा के लिए गए तो टोकरी वैसे के वैसे ही रखी थी। पंडित से पूछा तो उन्होंने कहा, आपने कब कहा कि ये उठाकर रख दिया जाना है। तो पैसे भी किसी ने नहीं उठाए? ये भगवान का मंदिर है, यहां चोरी नहीं होती। वाकई? बांद्रा में ही ऐसा होता होगा, वरना हमने तो सारी चोरियां मंदिरों के नाम पर ही होते देखी हैं।

फैशन की तो मैं बात भी नहीं करना चाहती। लिंकिंग रोड या हिल रोड पर खड़ी होती हूं तो आउटडेटेड होने का अहसास होने लगता है। फैशन हर रोज़ नए रंग बदलती है। इमरान हाशमी, जिनेलिया डीसूज़ा और अदिति गोवात्रिकर साथ शॉपिंग करते मिल जाएं तो यकीन हो जाता है, फ़ैशन के मामले में हम इतने भी पीछे नहीं। कॉफी शॉप, टोटोज़ और पापा पैंचोज़ जैसे रेस्त्रां के बारे में अलग से पोस्ट लिखूंगी कभी। हर नुक्कड़ पर मौजूद इटरी की ख़ासियत पर एन्साइक्लोपीडिया तैयार किया जा सकता है। एक बात और। जितने रेस्त्रां नहीं हैं यहां उतने ब्यूटी पार्लर और स्पा हैं। मतलब, जठरानल के साथ आंखों की प्यास बुझाने के सारे इंतज़ाम।

हाय बैंड्रा, तुझे छोड़कर जाना मुश्किल है। यहां के सब्ज़ी और फल मार्केट से भी जब प्यार हो गया है तो फिर गलियों, कूचों की कौन पूछे। मैं यहां से जाना नहीं चाहती, लेकिन यहां बसना भी तो नहीं चाहती। बड़ी मुश्किल है!

रविवार, 8 जनवरी 2012

प्लीज़ डू नॉट डिस्टर्ब

"तू रोज़ इधर ही सोता है?"

ये पहला सवाल तो नहीं हो सकता जो कोई किसी से पूछता हो। लेकिन ये मुंबई है और यहां इतना वक्त नहीं कि लंबी-चौड़ी भूमिका के साथ कोई बातचीत शुरू की जाए।

स्टूडियो के रिसेप्शन पर कोने में लगे लाल रंग के सोफे पर करीब-करीब पसरती हुई रोहिणी ने अपनी आंखें बंद कर लीं, बिना जवाब का इंतज़ार किए। रोहित को सूझा नहीं कि क्या कहे। तंग जीन्स और आधी कटी बाजू वाली टॉप से झांकती रोहिणी की उम्र की ओर ठीक से ताका भी नहीं जा रहा था। बॉस ने उसे नाइट शिफ्ट लगाने की हिदायत दी थी, मंगल-बुध की डबल छुट्टी के वादे के साथ। वादा पूरा होना ना था, लेकिन स्टूडियो में रुके रहने का कोई मौका वो खोना नहीं चाहता था। एक तो जुलाई की उमस भरी गर्मी से निजात और दूसरा, नाइट शिफ्ट की आदत तो उसे पड़नी ही चाहिए। दो साल में एसिस्टेंट एडिटर बन जाना है और पांच साल में एडिटर। बिना दिन-रात स्टूडियो में मेहनत किए ये मुमकिन ना था।

"तू जाग रहा है अबतक?" रोहिणी फिर जाग गई थी। "मेरा एडिटर तो सो गया रे। अपन के पास कोई काम भी नहीं। चल लोखंडवाला क्रॉसिंग से और सिगरेट लेकर आते हैं।"

रोहित की नज़रें अपनेआप दूर दीवार पर टिक-टिक करती चौकोर घड़ी की ओर घूम गईं।

"नया है क्या इधर? जानता नहीं, इधर रात नहीं होती? तेरे को डर लगता है तो मैं लेकर आती है। तू इधर ही बैठ, डरपोक कहीं का। मेरा एडिटर उठ जाए तो उसको बोलना मैं पंद्रह मिनट में आएगी।"

"नहीं मैम, मैं चलता हूं ना साथ में। आप अकेले ऐसे कैसे जाएंगी?"

"तू कोई सलमान खान है जो मेरा बॉडीगार्ड बनेगा?"

"नहीं मैम।"

"कुछ खाया कि ऐसे ही पड़ा है इधर? ढाई बज रहे हैं। भूख लगी हो तो नीचे वटाटा-पाव भी मिलेगा।"

"खाया मैम।"

"ऊपर जाकर उस घोड़े को बोलकर आ, हम दस मिनट में लौटेंगे। ये फालतू में नाईट लगाते हैं हम। काम तो होता नहीं कुछ, स्साली नींद की भी वाट लगती है।"

"जी।"

"तू क्या सीधा लखनऊ से आया इधर? ऐसे बात करेगा तो इधर सब तेरा कीमा बनाकर डीप फ्रीज़र में डाल देंगे और टाईम टाईम पर स्वाद ले-लेकर खाएंगे। चल अब, बोलकर आ ऊपर। फिर हम तफ़री मारकर आते हैं थोड़ी।" रोहिणी फिर सोफे पर लुढ़क गई थी।

सीढ़ियों से चढ़ते हुए उसने रोहिणी की ओर देखा, इतनी रात गए वाकई ये बाहर जाएगी? एडिटर अस्तबल के सारे घोड़े बेचने में लगा था। बोलियां ऐसी लग रही थीं कि खर्राटों की आवाज़ साउंडप्रूफ रूम के बाहर तक सुनाई दे। एफसीपी पर टाईमलाईन सुस्त लेटी पड़ी थी, जैसे उसे भी सिंकारा की ज़रूरत हो, या फिर शायद स्मोक की। ये फिल्म स्मोक पर जाएगी, ऐसा बॉस कल ही बोल रहे थे। ज़रूरत भी है, पहला ही शॉट कितना डल है। उसने टाईमलाईन को प्ले करके देखा। अभी तो चार सीन्स भी एडिट नहीं हुए थे कल के बाद। ये नाईट लगाकर करते क्या हैं आखिर? इतना टाईम एक सीन एडिट करने में लगता है? शॉट्स की बेतरतीबी देखकर वो कुछ देर उन्हें करीने से सजाने के लिए मचलता रहा, फिर किसी के काम में दखलअंदाज़ी ना करने की बॉस की हिदायत को  याद करके वो वापस एक किनारे खड़ा हो गया। देर तक खड़े रहने के बाद भी वो तय नहीं कर पाया कि एडिटर को जगाए या वापस लौट जाए। वैसे स्टूडियो की चाभी निकाल कर बाहर से लॉक करने का भी एक विकल्प था। जो एडिटर उठ भी गया तो रोहिणी को फोन तो करेगा ही। वैसे उसकी नींद देखकर लगता नहीं था कि अगले दो घंटे गहरे शोरवाली सांसों को छोड़कर उसका बदन कोई और हरकत भी करता। जो यमराज भी आते तो डरकर लौट जाते।

स्टूडियो को बंद करके रोहित रोहिणी के पीछे-पीछे चलता रहा। एक तो सिगरेट के धुंए से परेशानी होती, फिर उसके साथ चलते हुए बातचीत करने की अतिरिक्त सज़ा कौन भुगतता। चौथे माले से सीढ़ियों से उतरकर दोनों लोखंडवाला क्रॉसिंग की ओर मु़ड़ते, उससे पहले रोहिणी सड़क के किनारे फुटपाथ पर बैठ गई। रोहित खड़ा रहा और उसके शरीर की हरकतों को अनिश्चित आंखों से पढ़ता रहा। पहले रोहिणी ने दाहिने हाथ से बाईं ओर का स्लीव खींचकर कंधे तक चढ़ाया, फिर बाएं हथेली में रखे सिगरेट के डिब्बे को देर तक देखती रही। दाहिने हाथ की उंगलियों से एक सिगरेट निकाला, डिब्बे पर उसे तीन बार ठोंका, जीन्स की जेब में हाथ डालकर लाइटर निकाली और एक गहरे कश के साथ सिगरेट जलाकर वापस बैठ गई... सिगरेट कम फूंकती हुई, किसी गहरे ख़्याल में डूबी हुई।

"तू कहां से आया रे इधर?" रोहिणी के अप्रत्याशित सवाल से रोहित की तंद्रा टूटी और वो घबराकर वापस सड़क की ओर देखने लगा।

"मैं पूछ रही हूं कि तू आया किधर से। बंबई का तो नहीं लगता।"

"जी, इलाहाबाद से।"

"भागकर आया?"

"जी? जी नहीं।"

"फिर लड़कर आया होगा।"

रोहित ने नज़रें झुका ली।

"अरे इसमें गिल्टी फील करने का क्या है। बंबई भागकर आओ तभी लाईफ बनती है इधर। सिगरेट पिएगा?"

रोहित ने सिर हिलाकर मना कर दिया। कोई लत लगे, इसके लिए चंद लम्हे बहुत होते हैं। खुद को बुरी आदतों से बचाया रखा जा सके, इसके लिए पूरी ज़िन्दगी भी कम पड़ जाती है।

"मैं भी भागकर आई। ज्यादा दूर से नहीं। इधर ही, रतलाम से। वेस्टर्न रेलवे की सीधी ट्रेन आती थी इधर। आई थी हीरोइन बनने, और देख क्या बन गई।"

"वैसे दीदी, आप करती क्या हैं?"

"तूने तो दस मिनट में रिश्ता भी बना लिया। बड़ी तेज़ चीज़ है। खाली रिश्ते गलत बनाता है," रोहिणी की बात सुनकर रोहित झेंप गया और दो कदम पीछे हटकर वापस सड़क किनारे पेट्रोल पंप पर खड़ी गाड़ियों के मॉडल पहचानने की कोशिश करने लगा।

"गर्लफ्रेंड है?"

"जी?"

"गर्लफ्रेंड? उधर इलाहाबाद में?"

"जी। है।"

"गुड। जीने की वजह है तेरे पास फिर तो। क्या पूछा तूने, क्या करती हूं? पूछ क्या नहीं करती।"

"जी?"

"सब स्साले कंगना रनाउत की किस्मत लेकर थोड़े आते हैं इधर? मैं देखने में कैसी लगती हूं रे?"

"जी?"

"एच... आई... जे... के... अंग्रेज़ी इतनी ही आती है तुझको?"

"जी नहीं। जी, मतलब... इससे ज्यादा आती है।"

"तो अंग्रेज़ी में बोल, कैसी दिखती हूं मैं?"

"जी, ब्यूटीफुल।"

"बस? दो-चार वर्ड और गिरा मार्केट में।"

"प्रीटी... अम्म... लवली... अम्म..."

"अबे, सेक्सी बोल सेक्सी। शर्म आती है बोलने में? बोल, सेक्सी दिखती हूं, बॉम टाईप।"

"जी, वही।"

"तेरा कुछ नहीं हो सकता। गर्लफ्रेंड को कैसे पटाया रे?"

"वो तो अपने आप प्यार हो गया," लतिका का सोचकर रोहित अपने आप मुस्कुराने लगता था।

रोहिणी के ठहाके ने उसे फिर एक बार लिंक रोड की सख़्त सड़क पर पटक दिया।

"नया मुर्गा है। तेरे हलाल होने में टाईम लगेगा अभी। एनीवे, मैं इधर हीरोईन बनने को आई लेकिन अब जो करा ले, सब करती हूं। प्री प्रोडक्शन, पोस्ट प्रोडक्शन, प्रोडक्शन कंट्रोल और ज़रूरत पड़ी तो कास्टिंग काउच की सेटिंग भी। ये प्रोडक्शन वालों ने इतना बेवकूफ बनाया कि सोच लिया, प्रोडक्शन करूंगी और सबकी मां-बहन करूंगी। अब पूरा बदला लेती हूं। तू मेरी गालियों से डरता तो नहीं?"

"जी नहीं। हमारे यहां भी बोलते हैं लोग ये सब। हमारे घर में अच्छा नहीं मानते।"

"मेरे यहां भी नहीं मानते थे। घर छोड़ा तो तमीज़ भी छोड़ आई। तू भी स्साला सुधर जाएगा। चल अभी, तेरे को बरिस्ता में कॉफी पिलाती है।"

"जी, मैं कॉफी नहीं पीता।"

"तो ज़िन्दगी में करता क्या है, प्यार करने के अलावा?"

"एडिटिंग सीख रहा हूं।"

"सीख ले। फिर बताना। काम दिलाऊंगी तेरे को। बिना किसी फेवर के। तू अच्छा लगा मुझे।"

"अभी तो टाईम लगेगा। बेसिक्स पर हाथ साफ कर रहा हूं।"

"कॉन्फिडेंस से बोल, सब कर लूंगा। तब काम मिलेगा। मेरे एडिटर को नहीं देखा? स्साला एक शॉट अपनी अक्ल से नहीं लगाता। छोड़ दो तो दो शिफ्ट की एडिट में पंद्रह दिन लगाएगा। माथे पर चढ़कर काम कराती हूं। कमबख्त शक्ल अच्छी है उसकी, वरना रात में नींद खराब करने का कोई और मतलब ही नहीं बनता था।"

"जी?"

"जी क्या? नहीं जानता वो मेरा नया बॉयफ्रेंड है? प्रोडक्शनवालों को एडिट पर बैठे देखा कभी? तूझे वाकई टाईम लगेगा। तेरे तो बेसिक्स भी क्लियर नहीं रे।"

बॉयफ्रेंड की बात सुनकर रोहित के कानों में दमदार खर्राटों की आवाज़ लौट आई थी। वो अब ऐसे गहरे सदमे में था कि उसकी ज़ुबान तालू से चिपक गई थी शायद और उसकी आंखों के आगे एडिट सुईट के बाहर लटकता 'प्लीज़ डू नॉट डिस्टर्ब' का बोर्ड झूल गया था।

आवाज़ दो हमको

इस शहर से मुझे बेइंतहा मोहब्बत है। यहां आते ही सपनों को पर लग जाते हैं, हर नामुमकिन ख्वाब पूरा होता दिखाई देता है। इस मायानगरी की सारी माया के बीच सबसे बड़ा सच एक ही है – माद्दा रखो, मुश्किल ज़रूर है लेकिन किसी ख्वाब, किसी फंतासी, किसी परिकथा, कैसे भी अफ़साने को यहां रंग-रूप दिया जा सकता है। आवाज़ लगाओ तो सपने बोलेंगे, सुर डालो तो गीतों की बारिश होगी और रंग भरो तो स्क्रीन जगमगा उठेगा। 

पिछले कुछ दिन एक सपने को एडिट मशीन की टाईमलाईन पर सहेजने में बीते हैं। ये पहली कड़ी है क्योंकि यहां से आगे के रास्ते का कुछ पता नहीं। लेकिन दिल-ओ-दिमाग के एक कोने में सब्र के साथ पिछले डेढ़ साल से बिठाकर रखे ख्वाब ने रंग दिखाना क्या शुरू किया है, कई अनचीन्हे सपनों ने आवाज़ लगा दी है फिर से। सो, आज शाम फिर से हमने दाल, रोटी और ऑमलेट का ज़ायका उन्हीं सपनों से बातें करते हुए बढ़ाया ।

हम भोजपुरी फिल्में बनाना चाहते हैं, गर्दा उड़ा देब और उठाईल घूंघटा चांद देख ल टाईप की। बहकल बा नजर आ बिगड़ल बा चाल, तू ही त बनवले बाड़ू हमार ई हाल और करिया चश्मा लगईबू त नज़रिया कैसे लड़ी राजा टाईप के गानों की लिरिक्स हाथ के हाथ लिख ली जाती है। हम भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री के रामगोपाल वर्मा बनकर शिवा और रंगीला का भोजपुरी एडैप्टेशन बना देना चाहते हैं। हर निवाले और हंसी के ठहाकों के साथ पिक्चर के हिट होने का पुख्ता यकीन होता है, जो बात पचती नहीं उसे पानी पीकर हलक के नीचे ठेल दिया जाता है। सब मुमकिन है, एवरीथिंग इज़ पॉसिबल, मैं कान से कान तक मुस्कुराते हुए खुद को यकीन दिलाती हूं।

ये पोस्ट एक साउंड स्टूडियो में रतजगे के बाद बैठकर लिख रही हूं। सुबह के इस वक्त पूरब में सूरज की पहली किरण फूट रही होगी कहीं। यकीन करना अब भी मुश्किल है कि बैकग्राउंड में चलनेवाला गाना ऐसी ही किसी सुबह बच्चों के बीच सोते हुए से उठकर लिख दिया था। ये भी यकीन दिला रही हूं खुद को कि हम वाकई मुंबई में हैं, उस एक कॉन्सेप्ट को अमली जामा पहनाने के लिए, जो एक शाम व्हिसकी की ख़ुमारी में पतिदेव और भाई के बीच हुई बातचीत का नतीजा है। यानि रोटी-दाल के साथ होश में की गई बातचीत इतनी रंगीन ना हो ना सही, पौष्टिक और सुपाच्य ज़रूर निकलेगी।

अपने बच्चों को लेकर समंदर घुमाने के लिए निकली थी एक शाम। दोनों मेरे दोनों बाजुओं से चिपके हुए अपनी हैरत भरी आंखों से शहर को अपने सामने तेज़ी से गुज़रता हुआ देखते रहे। उनसे ज़्यादा हैरत में मैं थी। ऐसा नहीं कि जगमगाते मॉल नहीं देखे, ऑडी और मर्क जैसी चमचमाती गाड़ियां नहीं देखीं। ऐसा भी नहीं कि ग्लैमर या पैसे या रुतबे की कोई ख्वाहिश भी है। लेकिन पाली हिल के बंगलों के भीतर से आती रौशनी, बगल से गुज़रती फ़रारी के काले शीशे के पीछे बैठा सुपरस्टार या मन्नत, प्रतीक्षा और गैलेक्सी के सामने हाथ हिलाती भीड़ मुझे रेस कोर्स रोड और राजपथ से ज़्यादा मंत्रमुग्ध करते हैं। उससे कहीं ज़्यादा फैसिनेट पर्दे के पीछे लाइटमैन, स्पॉट बॉयज़, मेकअप दादा, साउंड इंजीनियर और जूनियर आर्टिस्ट की दुनिया करती है।   

मुंबई मुझपर हावी होने लगी है, ऐसे कि मैं यहां से जाना नहीं चाहती। लेकिन यहां बसना भी नहीं चाहती। आवाज़ दो हमको दोस्त, कि ख़्वाबों ने आंखों के आगे सतरंगी झीने पर्दे डाल दिए हैं। आवाज़ दो हमको क्योंकि सूझता नहीं कि पलकें नींद से बोझल हैं या ख़्वाबों के बोझ से। आवाज़ दो हमको, कि रंगों का कारोबार कहीं उलझा ना ले, ख़्वाब देखते-देखते वहम ना पालने लगूं, किसी हीलियम बैलून की सवारी के लिए ना निकल पडूं कहीं।

भाई, ख्वाब तुम अपने फिर भी बचाए रखना। जो मुकद्दर के मरम्मत के लिए कहीं गुहार लगानी हो तब मुझे आवाज़ दे देना। हम साथ मिलकर मिसरों से काफिया मिलाएंगे, आसमांवालों को ज़मीं पर बुलाएंगे।    

बुधवार, 4 जनवरी 2012

This too shall pass

"Then it doesn't matter which way you walk," said the Cat.

"So long as I get somewhere,"

Alice added as an explanation.


"Oh, you're sure to do that," said the Cat,


"If you only walk long enough."


So what if the long walk never seems to end. It will take me somewhere, someday. I would want to believe that, Lewis Carroll. And I would want to thoroughly enjoy my journey.


But I am not an optimist. On the contrary, I have an inborn talent of being in this perennial state of discontentment. More often than not, I will look hassled, and I am mostly snappy. I didn't earn a title of "Pareshan Aatma" for no reasons!


So it comes as a pleasant surprise when people recognise my voice or face even after a decade in a place like Mumbai. A warm handshake, a close hug and it doesn't take anytime to fill the years lying in the middle. The years gone by lie dormant anyway. What matters is the moment I lived with them, or the moment which is now - the "this" moment, which I am living with them again. Why haven't I learnt to live in the "this" moment then?


The twins are the happiest when we are traveling. The "ghumantu" streak is but natural, they are my twins after all. I should be happy too, when I am traveling. But the travel anxiety mostly brings in a couple of sleepless nights, and this extreme anxiety of "what will happen if the plane crashes" or "the train derails".


While I am worrying about such useless things, the twins are busy saying hello to the strangers, savoring every detail with their inquisitive eyes. The stocky air-hostess with a bun is getting a compliment from my daughter and my son is happily joking with the steward. And I am busy thinking about everything that went wrong with the journey. I shouldn't have paid this much to the taxiwallah... I haven't packed enough warm clothes... I shouldn't have traveled in a frenzy... I shouldn't have traveled at all. 


Relax Mommy. Can we just be in this moment? This too shall pass. 


Sigh. Yes it will.


It is a bright and sunny day in Mumbai, just the kind I love. I am in this city to live the dreams I had 10 years ago, as a fresh graduate out of college. I had a partner in crime. My brother, who was probably in his 3rd year of Engineering in Kharagpur. We were day dreamers. We still are. We only thought of stories and music. We still do. We wanted to create a magnum opus which would shake the world. We still want to do that. But we had very few means, and no idea of where this road less traveled would take us. We then bought time.  Right across where Bhai lives now is the McDonald's where Bhai and I promised to each-other, "We will come back to Mumbai exactly after 10 years, and we will make it big. We will do just the kind of work we wanted to do." 


Yes, we are here to do just that. No dream is big enough, nothing is impossible.


We lived that moment of despair and hopelessness. We are living this moment of hope and belief. This too shall pass, as the other did. So, we better live both, and well.


So why do I worry about tits-bits which are not under my control? Where is my mind when I am chopping the onions or making parathas? Who cares what will happen ten years hence? Will I live that long? Today is a beautiful day. I have a family by my side, two beautiful kids who are my most influential teachers, friends who worry over my status updates and acquaintances who are willing to help even if I haven't bothered to call them for 10 long years.   This too will pass, if I don't live it. This too will be taken away if I don't  show my gratitude. 


So, worry not, for this day is one of its kind.


Oh, by the way did I share another quote by Lewis Carroll? "She generally gave herself very good advice, (though she very seldom followed it)." Good one, no?