वो पूरे खानदान की
सबसे बड़ी संतान है। सोलह महीने की उम्र में पीठ पर भाई लेकर आई है, सो दीदी बन
जाने का बोझ तब से उठाए फिरती है जब से ठीक से अपने पैरों पर खड़ा होना भी नहीं
आता था। यहीं, इस घर के एक अंधेरे कमरे में एक सर्द रात को उसे दुनिया में चले आने
की ऐसी बेचैनी हुई कि मां के अस्पताल पहुंच जाने के लिए जीप निकलवाने तक ना दिया।
दाई को भी ख़बर ना जा सकी और अपने वक्त से कई हफ्ते पहले घर की सबसे बड़ी बेटी की
सबसे बड़ी बेटी, वो लड़की, पैदा हो गई। तीन बेटियों के बाप, उसके नाना ने फिर भी
हवा में तीन गोलियां दागकर गांव-जवार को नातिन होने की ख़बर सुनाई थी। साथ ही पैदा
होते ही उसपर परिवार की मान-मर्यादा जैसे भारी-भरकम शब्दों को निभाने का दारोमदार
डाल दिया था।
वो बीच वाला भाई है। अक्खड़ है, ज़िद्दी है, अड़ियल है, चिड़चिड़ा है लेकिन दिल का
अच्छा है और जिसे प्यार करता है, टूटकर करता है। उसे छल-कपट से कोई वास्ता नहीं।
वो दीन-दुनिया से बेख़बर अपने ख़्वाब सजाने और उन्हें मूसल से कूचने में लगा रहता
है। उसकी शैतानियां खत्म ही नहीं होतीं। वो अपनी शैतानियां छुपाता भी नहीं, बल्कि
सबके सामने बेशर्मी से उनकी प्रदर्शनियां लगाता है। मां थककर हाथ उठाती है तो कहता
है, और मारो ना। अभी तो चूड़ियां भी नहीं टूटीं तुम्हारी!
फिर एक और लड़की है।
जानती है कि क्या हासिल करना है। फिलहाल परिवार में बेटे को मिलनेवाले उस ओहदे से
इतना ही प्यार है कि वो हाफ निकर और आधे स्लीव की शर्ट पहनकर बॉयकट कटवाए गांवभर
में साइकिल चलाने और दरवाज़े पर बैडमिंटन खेलने में ही सारे रूढ़ियों के टूट जाने
का चरम मानती है। उससे जो उलझता है, वो उसका सिर फोड़ देती है – अपनी सैंडिल से
वार करके। उससे सब डरते हैं। उससे सब प्यार भी तो करते हैं।
एक छोटा भाई है उस
लड़की का। ग़ज़ब का शरारती। मां आंखों से ओझल हुई नहीं कि हवाई चप्पलें कैंची से
कतरने लगता है। घर में कोई चीज़ सलामत नहीं मिलती। सब चीज़ों का पोस्टमार्टम करना
उसका वो शगल है कि जिसके लिए रोज़-दर-रोज़ सज़ायाफ्ता होने के बावजूद उसका
काटने-पीटने-चीरने-तोड़ने का शौक ज़रा कम नहीं पड़ा।
एक सबसे छोटा भाई
है। उसकी आंखों से मासूमियत टपकती है। उसे इतनी ही भूख लगती है और वो इतना ही खाता
है कि सब उसे भीम कहकर पुकारते हैं। वो चुपचाप मां से दो रोटी के बीच एक रोटी और
छुपाकर देने को कहता है कि जिससे कोई उसकी खुराक का मज़ाक ना उड़ाए। उसे गुड़ की
डली के साथ चूड़ा फांकना पसंद है। वो भैंस दुहने वाले के आगे अपना ग्लास लगा देता
है कि बाल्टी से पहले उसकी ग्लास भर दी जाए। उसे कच्ची भिंडियां कुतरना पसंद है,
मटर की हरी फलियां फांकना रुचता है और यही वजह है कि वो पेट से बेचारा कमज़ोर है।
पीछे के दो छोटे भाई
कभी-कभी खुद को नकुल-सहदेव कहते हैं, कभी ना जुदा होने की कसमें खाते हैं - अस्सी के दशक के फिल्मों
के उन नायकों की तरह जिन्हें लगता है, सबकुछ बदलने के लिए ‘कमांडो’ बनना होता है, ‘ज़लज़ला’ लाते हैं तभी ‘जीते हैं शान से’। इसलिए तो इनका ‘प्यार झुकता नहीं’!
कट टू २०१२
बड़ी बेटी के छह साल
के जुड़वां बच्चे हैं। उससे छोटा और सबसे शरारती अपनी बीवी के साथ ट्रेन से इटली
नाप रहा है। दूसरी लड़की अब भी वैसी ही बग़ावती है। रहती गांव में है लेकिन चलाती
स्कोर्पियो है। एक ही अंतर आया है उसमें – अब बग़ावती तेवर रूढ़ियों को तोड़ने भर
का सबब नहीं, व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन करने का जज़्बा है। उसकी बातें कम ही
लोग समझ पाते हैं लेकिन। उससे छोटे ने अपने दो साल के बेटे को हर वो छूट दे रखी है
जो उसे बचपन में नहीं मिली। बच्चों को आज़ाद, उन्मुक्त छोड़ देने के लिए वो आपसे झगड़
भी सकता है। ढेर सारी संपत्ति का उत्तराधिकारी है, प्रॉपर्टी के व्यवसाय में है और
एक ही मोह नहीं है उसको – ज़मीन-जायदाद का। सबसे छोटे वाले को अभी भी घी-दही से
उतना ही प्यार है। उसकी आंखें अभी भी उतनी ही निर्दोष और निश्छल हैं। फ़ितरत भी। हालांकि
नकुल-सहदेव के ख्याल इतने ही परिपक्व हो गए हैं कि वो बेसलीका बातें नहीं करते,
सालों सालों तक एक-दूसरे से नहीं मिलते।
इन पांचों के बाद
पैदा हुए सात भाई-बहन अभी स्कूल-कॉलेज में हैं। नहीं जानती कि गांव से जुड़ी उनकी
यादें इतनी ही सघन और इतनी ही तरल है या नहीं जितनी हमारी है। और फिर पच्चीस सालों
में हम बहुत बदल गए हैं, ननिहाल बदल गया है, पहचान बदल गई है, दुआर पर बैठनेवाली
पीढ़ियां बदल गई हैं।
बचपन सबका गुज़र
जाता है, टीस की तरह ही बचा रहा जाता है उम्र भर के लिए। सो, हमारा भी गुज़रा और
नोस्टालजिया में टीस बनकर रह गया तो नया क्या है? क्यों तीन बजे सुबह उठकर खेत में
जाकर काम करनेवाले चिकने और गठे हुए बदन के नानाजी को लाठी का सहारा लेकर चलते
देखते हुए जी में आता है कि वहीं दरवाज़े पर बैठकर जी भर के रो लूं? क्यों नानी की
झुर्रियां मम्मी में खोजती हूं, क्यों मां की झांईंयां अपने चेहरे पर तलाश करती
हूं, क्यों बेटी के घूंघर में उंगली फंसाकर देखती हूं कि मेरा इसमें क्या बाकी रह
जाएगा? क्यों धान की पकी बालियों और चने के साग के खेतों से घिरे बड़े से घर के
बाहर हम अजनबी लगते हैं? क्यों घर-गांव-खेत-खलिहान-बाग-बगीचे किसी छुट्टी में थोड़ी
देर के लिए जी बहलाने के साधन से ज़्यादा कुछ हो नहीं पाते?
मैं कहां पैदा हुई?
मैं कहां बड़ी हुई? मैं कहां चली आई? मैं कहां चली जाऊंगी? मेरे बच्चों की पहचान
क्या होगी? वो कहां के कहे जाएंगे? हम किस शहर के वाशिंदे हैं? हम कहां के
रहनेवाले हैं? नौकरी-चाकरी, पढ़ाई-लिखाई, शादी-ब्याह और करियर की धुन ने ना जाने
हमसे क्या-क्या छुड़वाया है, हमें कहां का कहां पहुंचाया है! इस बस्ती, इस मोहल्ले,
गांव, इस जवार से बाहर के गांवों, हर कस्बे, हर शहर के हर घर की यही तकलीफ़ है। जो
जहां का है, वहां का नहीं है। जो जहां का नहीं है, वहां का कैसे हो सकेगा कभी? हर
घर में बूढ़ी, जर्जर होती इमारतें हैं। हर घर में जर्जर होती पीढ़ियां हैं जिनको
संभालने वाला अपने पंख कतर दिए जाने का रोना रोता है। जो यहां रह गया, वो भी खुश
नहीं। जो बाहर चला गया, उसकी तो ख़ैर अनंत तकलीफ़ें हैं।
नानाजी को नींद नहीं
आती रातभर। अजीब-अजीब से सपने आते हैं। मम्मी कहती है, उनके जाने का दिन नज़दीक
आने लगा है। उन्हें चले ही जाना चाहिए अब। कोई अपने पिता को ऐसे निर्मम होकर विदा
कैसे कर पाता होगा भला? नानी की चौकी पर तोशक-तकिए नहीं हैं अब। आंगन वाले दीयरखा
पर फोन चार्ज होने के लिए रख दिया जाता है, वहां हरी-लाल स्याही में दाहिनी तरफ़
झुके हुए अक्षरों में लिखी हुई डायरियां नहीं मिलतीं। अलमारियों में रखे बच्चों की
सौ कहानियां, बारह नाटक और दस उपन्यास जैसे संग्रहों को दीमक चाट गए। इंद्रजाल
कॉमिक्स, चाचा चौधरी, नंदन-चंपक-बालहंस की सैकड़ों प्रतियां बोरों में बंद करके
रद्दी में बेच दी गई होंगी। हमारे बच्चे तो आईपैड और स्मार्टफोन्स से खेलेंगे,
किंडल पर फिक्शन-नॉन फिक्शन पढ़ेंगे, चीनी कार्टून देखेंगे। मिडल स्कूल का नाम
नानी के नाम पर रख देंगे और जूनियर स्कूल का नानाजी के नाम पर। वो देखो खेत के बीच
में खड़ी हो रही है स्कूल की इमारत। कुल साढ़े चार सौ बच्चे पढ़ते हैं यहां। जिस
डाल पर हम झूला झूलते थे ना दीदी, वो कट गई। वहां घर बन रहा है अब। ये श्रीफल के
पेड़ लगाए नहीं हमने। देखो ना कैसे पके हुए फलों के बीज से निकल आए हैं ये पेड़! वो गौरैया खिड़की के शीशे
पर इतना बेचैन होकर अपनी चोंच क्यों मार रही थी? माल वाला दुआरा तुड़वाकर अच्छा सा
नया घर बनवा लेंगे यहां। वहां तक जो दिख रही है ना, सारी ज़मीन अपनी है। बिहार
टेनेन्सी एक्ट। बटाईदारी कानून। सीलिंग। दूर-दूर तक पसरे खेत। खेतों में अरहर के
सिट्टे।
ढलता हुआ सूरज।
डूबती हुई शाम। एक लक्ज़री गाड़ी। गाड़ी में थककर सो चुके दो बच्चे। गाड़ी के भीतर
चलता एयरकंडीशनर। दिमाग के भीतर मची उथल-पुथल। स्मृतियों का कोलाज। हम कहां के
हैं? हम कहां के होना चाहते हैं?
सिवान शहर की सीमा
में घुसते हुए छोटी भाभी ने जो पूछा है उससे तंद्रा टूटी है।
“दिल तो पागल है को भोजपुरी में कैसे कहेंगे?” वो पूछती है।
“हियवा त पगलाईल बा,” गाड़ी चलाते हुए भाई जवाब
देता है।
That’s it then. मैं खुद से कहती हूं।
This heart, तो, is mad.
दिल तो पागल है।
हियवा त पगलाईल बा। का जाने कबसे बौराईल बा! न जाने कब से बौराया है।
हर एक बात पर
नुक्ताचीनी की आदत ही नहीं जाती इसकी। सवाल पूछने बंद ही नहीं करता। अभी आधी रात
को भी शोर मचाए है और पूछे जा रहा है वही सवाल - हम किस शहर के वाशिंदे हैं? हम
कहां के रहनेवाले हैं? हम कहां के होना चाहते हैं? परिवार, कुल, मान-मर्यादा,
सम्मान, नियम-धर्म, रीति-रिवाज़ – इन धरोहरों की कटी हुई कलमें हम कहां-कहां रोपते
फिरेंगे? उनको खाद-पानी देने की शक्ति कहां से आएगी? क्या बचेगा? क्या छूटेगा?
तू क्यों रोती है
बेसाख़्ता बेसबब? दिल को बचाए रखेगी तो सब बच जाएगा। और कुछ नहीं तो जड़ से जुदा हो
जाने का ये दुख तो बचा रह ही जाएगा।
(अपने ननिहाल और जन्म स्थान मुबारकपुर से १८ नवंबर २०१२ लौटकर, रात के डेढ़ बजे का आत्मालाप)