बुधवार, 28 नवंबर 2012

फिर से पढ़ी है एक दुआ

उससे मैं कई सालों बाद मिली। हमने अपनी ज़िन्दगी के सबसे मुश्किल लम्हे गुज़ारे हैं एक साथ। जिन दोस्तों के साथ कॉफी, मुस्कुराहटों और ऐश के दिनों का साथ रहा हो उनके साथ का रिश्ता ख़ास होता ज़रूर है, लेकिन जिन दोस्तों ने मुश्किल दिनों में साथ दिया हो उनसे एक ज़िन्दगी का ही नहीं, कई ज़िन्दगियों का वास्ता होता है। साथ बहाए जाने वाले आंसू बहते नहीं हैं, कहीं भीतर समंदर बनकर हिलोरें खाते रहते हैं। अपनी गहराई का अंदाज़ा भीतर उमड़ने-घुमड़ने वाले उसी समंदर से लगता है, और उस गहराई का अंदाज़ा दिलाने वाले दोस्त कभी विस्मृत हो ही नहीं सकते।

इसलिए हमने भी एक-दूसरे को याद रखा, दो अलग-अलग देशों में होते हुए भी, कई सालों में सिर्फ चार बार मिल पाने के बावजूद भी, एक-दूसरे की शादियों, एक-दूसरे के बच्चों के आने के लम्हों की खुशियां सिर्फ फोन पर बांट सकने की मजबूरी के बाद भी।

मैं उसके साथ गुज़ारे दिनों को याद करती हूं तो हैरत से भर जाती हूं। ज़िन्दगी में हर मोड़ पर चौराहे मिल जाया करते हैं, लेकिन कुछ मोड़ वाकई दुरूह हुआ करते हैं। ज़िन्दगी नाम की सड़क पर से वापस जाने का कोई रास्ता नहीं होता, और आगे की चोटियों और खाई से निकलने का लाइफ स्किल कोई सिखा नहीं सकता। गलत-सही ही सही, हम खुद ही अपने लिए रास्ते बनाना सीख जाते हैं। मैंने और उसने भी सीख लिया था। अगर हम लड़खड़ा गए होते तो? अगर कोई रास्ता ना निकल पाता तो?

उसकी मुश्किलें मुझसे बहुत भारी थीं। उसके पास घर नहीं था, वो शौहर नहीं था जिससे उसने टूटकर प्यार किया। मेरे पास एक नौकरी-भर ही तो नहीं थी। एक अजनबी शहर में एक अजनबी घर में बहुत सारी अजनबियत के बीच हम अजनबी से दोस्त हो गए - कुल पांच महीने के लिए। उस पांच महीने की दोस्ती में हमने कई ज़िन्दगी जी ली थीं, और अपने-अपने रास्ते चले गए। दस साल पहले उसके साथ मैंने अपनी सालगिरह कैसे मनाई, ठीक-ठीक याद भी नहीं। जुहू चौपाटी पर समंदर किनारे रेत पर नंगे पांव चलते हुए शायद, कई सारी नाउम्मीदियों के बीच बहुत सारे हौसले जुटाते हुए शायद... या अकेले-अकेले रोते हुए शायद।

ये कैसा इत्तिफ़ाक था कि ठीक दस साल बाद मेरी ही सालगिरह पर हम फिर आमने-सामने थे - हंसते, खिलखिलाते और एक-दूसरे को जीभर के गले लगाते हुए। हमारे पास गिनने को कुदरत और किस्मत की कितनी ही सारी कृपाएं तो थीं! हम फिर ढेर सारे आंसू बहा रहे थे। इस बार आंसू खुशी और कृतज्ञता के थे।

हिंदुस्तान में लाइफ एक्सपेक्टेन्सी सुना है कि 68 हो गई है। उस लिहाज़ से मैंने अपनी उम्र का करीब-करीब आधा सफ़र तय कर लिया है। इस आधे से मुझे कोई शिकायत नहीं। बल्कि, इससे बेहतर तो कुछ हो ही नहीं सकता था। अपनी ब्लेसिंग्स गिनने बैठूं तो गिनती भूल जाऊंगी कि इतना प्यार बहुत किस्मत से मयस्सर होता है। बहुत-बहुत सारा दुलार करने वाला मायका, बहुत-बहुत सारा प्यार करने वाली ससुराल, बहुत-बहुत सारा प्यार करने वाले भाई-बंधु-ननद-भौजाई और कम-से-कम ऐसे बीस दोस्त जिनके बारे में मैं इतनी ही संजीदा होकर घंटों बात कर सकती हूं और बेमतलब डायरी के पन्ने भर सकती हूं... फोन सुबह से बजना बंद नहीं हुआ, फेसबुक ने उन दोस्तों को भी मेरे लिए शुभकामनाएं भेजने की याद दिला दी जिनसे मेरा रिश्ता सिर्फ ब्लॉग और स्टेटस अपडेट पढ़ने का है। पिछली दो शामों से घर उन ख़ास दोस्तों के कहकहों से भरा है जिनके बच्चों को मैं बड़े होते देखना चाहती हूं, जिनके साथ बुढ़ापे का रिश्ता निभाना चाहती हूं। इतनी सारी मोहब्बत का वसीयतनामा किया जा सकता तो सबके बीच बांटकर जाती। प्यार भी तो आखिर बांटने से बढ़ता है।

ना जाने कौन-सी ऐसी ताक़त है जो हमारा मिलना-बिछड़ना, खोना-पाना, सुख-दुख, मरना-जीना तय करती है। लेकिन वो जो भी ताक़त है, उसका शुक्रान। दुआ बस इतनी है कि जो हासिल हुआ, बचा रहे। इसके सहारे बाकी का रास्ता बड़े मज़े में कट जाएगा। वो सारे दोस्त बचे रहें, जिनसे मेरा आंसुओं का रिश्ता है। वो बचे रहेंगे तो ज़िन्दगी में आस्था बची रहेगी।

मैं बहुत खराब गाती हूं, फिर भी ख़ुद को गुनगुनाने से रोक नहीं पाई, इस उम्मीद में कि ऐसी ऊटपटांग नज़्मों-गीतों को भी कभी को आवाज़ मिलेगी, कभी कोई सुर में पिरोएगा। और नहीं, तो दस साल बाद मेरे बच्चे ही सही। :-)


फिर से पढ़ी है एक दुआ
फिर से कहा है एक बार

ऐसी रहे जो हर सुबह
ऐसी मिले जो फिर से शाम
कह दूं तुझे ऐ ज़िन्दगी
फिर से लगी दिलचस्प है
किस्मत ने जो भी है लिखा
जो भी मिला, सब ख़ूब है
ये प्यार के जलते दीए
ये रौशनी के सिलसिले,
मेरे दिल ओ घर-बार पर
मेरे विसाल-ए-यार पर


फिर से पढ़ी है एक दुआ
फिर से कहा है एक बार


वो बचपन था जो कमाल था
जो थी जवानी, मस्त थी
ये ज़ुल्फ जब सर हो चले
फिर भी रहे अलमस्त-सी
बाकी रहें ये कहकहे,
गिरते रहें आंसू कहीं
मिलता रहे ऐसा चमन
बाकी रहे एक शुक्रिया
मेरे दिल ओ घर-बार पर
मेरे विसाल-ए-यार पर


फिर से पढ़ी है एक दुआ
फिर से कहा है एक बार



सोमवार, 19 नवंबर 2012

दिल तो पागल है कि हियवा त पगलाईल बा!


वो पूरे खानदान की सबसे बड़ी संतान है। सोलह महीने की उम्र में पीठ पर भाई लेकर आई है, सो दीदी बन जाने का बोझ तब से उठाए फिरती है जब से ठीक से अपने पैरों पर खड़ा होना भी नहीं आता था। यहीं, इस घर के एक अंधेरे कमरे में एक सर्द रात को उसे दुनिया में चले आने की ऐसी बेचैनी हुई कि मां के अस्पताल पहुंच जाने के लिए जीप निकलवाने तक ना दिया। दाई को भी ख़बर ना जा सकी और अपने वक्त से कई हफ्ते पहले घर की सबसे बड़ी बेटी की सबसे बड़ी बेटी, वो लड़की, पैदा हो गई। तीन बेटियों के बाप, उसके नाना ने फिर भी हवा में तीन गोलियां दागकर गांव-जवार को नातिन होने की ख़बर सुनाई थी। साथ ही पैदा होते ही उसपर परिवार की मान-मर्यादा जैसे भारी-भरकम शब्दों को निभाने का दारोमदार डाल दिया था।

वो बीच वाला भाई है। अक्खड़ है, ज़िद्दी है, अड़ियल है, चिड़चिड़ा है लेकिन दिल का अच्छा है और जिसे प्यार करता है, टूटकर करता है। उसे छल-कपट से कोई वास्ता नहीं। वो दीन-दुनिया से बेख़बर अपने ख़्वाब सजाने और उन्हें मूसल से कूचने में लगा रहता है। उसकी शैतानियां खत्म ही नहीं होतीं। वो अपनी शैतानियां छुपाता भी नहीं, बल्कि सबके सामने बेशर्मी से उनकी प्रदर्शनियां लगाता है। मां थककर हाथ उठाती है तो कहता है, और मारो ना। अभी तो चूड़ियां भी नहीं टूटीं तुम्हारी
!

फिर एक और लड़की है। जानती है कि क्या हासिल करना है। फिलहाल परिवार में बेटे को मिलनेवाले उस ओहदे से इतना ही प्यार है कि वो हाफ निकर और आधे स्लीव की शर्ट पहनकर बॉयकट कटवाए गांवभर में साइकिल चलाने और दरवाज़े पर बैडमिंटन खेलने में ही सारे रूढ़ियों के टूट जाने का चरम मानती है। उससे जो उलझता है, वो उसका सिर फोड़ देती है – अपनी सैंडिल से वार करके। उससे सब डरते हैं। उससे सब प्यार भी तो करते हैं।

एक छोटा भाई है उस लड़की का। ग़ज़ब का शरारती। मां आंखों से ओझल हुई नहीं कि हवाई चप्पलें कैंची से कतरने लगता है। घर में कोई चीज़ सलामत नहीं मिलती। सब चीज़ों का पोस्टमार्टम करना उसका वो शगल है कि जिसके लिए रोज़-दर-रोज़ सज़ायाफ्ता होने के बावजूद उसका काटने-पीटने-चीरने-तोड़ने का शौक ज़रा कम नहीं पड़ा। 

एक सबसे छोटा भाई है। उसकी आंखों से मासूमियत टपकती है। उसे इतनी ही भूख लगती है और वो इतना ही खाता है कि सब उसे भीम कहकर पुकारते हैं। वो चुपचाप मां से दो रोटी के बीच एक रोटी और छुपाकर देने को कहता है कि जिससे कोई उसकी खुराक का मज़ाक ना उड़ाए। उसे गुड़ की डली के साथ चूड़ा फांकना पसंद है। वो भैंस दुहने वाले के आगे अपना ग्लास लगा देता है कि बाल्टी से पहले उसकी ग्लास भर दी जाए। उसे कच्ची भिंडियां कुतरना पसंद है, मटर की हरी फलियां फांकना रुचता है और यही वजह है कि वो पेट से बेचारा कमज़ोर है।

पीछे के दो छोटे भाई कभी-कभी खुद को नकुल-सहदेव कहते हैं, कभी ना जुदा होने की कसमें खाते हैं - अस्सी के दशक के फिल्मों के उन नायकों की तरह जिन्हें लगता है, सबकुछ बदलने के लिए कमांडो बनना होता है, ज़लज़ला लाते हैं तभी जीते हैं शान से। इसलिए तो इनका प्यार झुकता नहीं’!

कट टू २०१२

बड़ी बेटी के छह साल के जुड़वां बच्चे हैं। उससे छोटा और सबसे शरारती अपनी बीवी के साथ ट्रेन से इटली नाप रहा है। दूसरी लड़की अब भी वैसी ही बग़ावती है। रहती गांव में है लेकिन चलाती स्कोर्पियो है। एक ही अंतर आया है उसमें – अब बग़ावती तेवर रूढ़ियों को तोड़ने भर का सबब नहीं, व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन करने का जज़्बा है। उसकी बातें कम ही लोग समझ पाते हैं लेकिन। उससे छोटे ने अपने दो साल के बेटे को हर वो छूट दे रखी है जो उसे बचपन में नहीं मिली। बच्चों को आज़ाद, उन्मुक्त छोड़ देने के लिए वो आपसे झगड़ भी सकता है। ढेर सारी संपत्ति का उत्तराधिकारी है, प्रॉपर्टी के व्यवसाय में है और एक ही मोह नहीं है उसको – ज़मीन-जायदाद का। सबसे छोटे वाले को अभी भी घी-दही से उतना ही प्यार है। उसकी आंखें अभी भी उतनी ही निर्दोष और निश्छल हैं। फ़ितरत भी। हालांकि नकुल-सहदेव के ख्याल इतने ही परिपक्व हो गए हैं कि वो बेसलीका बातें नहीं करते, सालों सालों तक एक-दूसरे से नहीं मिलते।

इन पांचों के बाद पैदा हुए सात भाई-बहन अभी स्कूल-कॉलेज में हैं। नहीं जानती कि गांव से जुड़ी उनकी यादें इतनी ही सघन और इतनी ही तरल है या नहीं जितनी हमारी है। और फिर पच्चीस सालों में हम बहुत बदल गए हैं, ननिहाल बदल गया है, पहचान बदल गई है, दुआर पर बैठनेवाली पीढ़ियां बदल गई हैं।

बचपन सबका गुज़र जाता है, टीस की तरह ही बचा रहा जाता है उम्र भर के लिए। सो, हमारा भी गुज़रा और नोस्टालजिया में टीस बनकर रह गया तो नया क्या है? क्यों तीन बजे सुबह उठकर खेत में जाकर काम करनेवाले चिकने और गठे हुए बदन के नानाजी को लाठी का सहारा लेकर चलते देखते हुए जी में आता है कि वहीं दरवाज़े पर बैठकर जी भर के रो लूं? क्यों नानी की झुर्रियां मम्मी में खोजती हूं, क्यों मां की झांईंयां अपने चेहरे पर तलाश करती हूं, क्यों बेटी के घूंघर में उंगली फंसाकर देखती हूं कि मेरा इसमें क्या बाकी रह जाएगा? क्यों धान की पकी बालियों और चने के साग के खेतों से घिरे बड़े से घर के बाहर हम अजनबी लगते हैं? क्यों घर-गांव-खेत-खलिहान-बाग-बगीचे किसी छुट्टी में थोड़ी देर के लिए जी बहलाने के साधन से ज़्यादा कुछ हो नहीं पाते?

मैं कहां पैदा हुई? मैं कहां बड़ी हुई? मैं कहां चली आई? मैं कहां चली जाऊंगी? मेरे बच्चों की पहचान क्या होगी? वो कहां के कहे जाएंगे? हम किस शहर के वाशिंदे हैं? हम कहां के रहनेवाले हैं? नौकरी-चाकरी, पढ़ाई-लिखाई, शादी-ब्याह और करियर की धुन ने ना जाने हमसे क्या-क्या छुड़वाया है, हमें कहां का कहां पहुंचाया है! इस बस्ती, इस मोहल्ले, गांव, इस जवार से बाहर के गांवों, हर कस्बे, हर शहर के हर घर की यही तकलीफ़ है। जो जहां का है, वहां का नहीं है। जो जहां का नहीं है, वहां का कैसे हो सकेगा कभी? हर घर में बूढ़ी, जर्जर होती इमारतें हैं। हर घर में जर्जर होती पीढ़ियां हैं जिनको संभालने वाला अपने पंख कतर दिए जाने का रोना रोता है। जो यहां रह गया, वो भी खुश नहीं। जो बाहर चला गया, उसकी तो ख़ैर अनंत तकलीफ़ें हैं।

नानाजी को नींद नहीं आती रातभर। अजीब-अजीब से सपने आते हैं। मम्मी कहती है, उनके जाने का दिन नज़दीक आने लगा है। उन्हें चले ही जाना चाहिए अब। कोई अपने पिता को ऐसे निर्मम होकर विदा कैसे कर पाता होगा भला? नानी की चौकी पर तोशक-तकिए नहीं हैं अब। आंगन वाले दीयरखा पर फोन चार्ज होने के लिए रख दिया जाता है, वहां हरी-लाल स्याही में दाहिनी तरफ़ झुके हुए अक्षरों में लिखी हुई डायरियां नहीं मिलतीं। अलमारियों में रखे बच्चों की सौ कहानियां, बारह नाटक और दस उपन्यास जैसे संग्रहों को दीमक चाट गए। इंद्रजाल कॉमिक्स, चाचा चौधरी, नंदन-चंपक-बालहंस की सैकड़ों प्रतियां बोरों में बंद करके रद्दी में बेच दी गई होंगी। हमारे बच्चे तो आईपैड और स्मार्टफोन्स से खेलेंगे, किंडल पर फिक्शन-नॉन फिक्शन पढ़ेंगे, चीनी कार्टून देखेंगे। मिडल स्कूल का नाम नानी के नाम पर रख देंगे और जूनियर स्कूल का नानाजी के नाम पर। वो देखो खेत के बीच में खड़ी हो रही है स्कूल की इमारत। कुल साढ़े चार सौ बच्चे पढ़ते हैं यहां। जिस डाल पर हम झूला झूलते थे ना दीदी, वो कट गई। वहां घर बन रहा है अब। ये श्रीफल के पेड़ लगाए नहीं हमने। देखो ना कैसे पके हुए फलों के बीज से निकल आए हैं ये पेड़! वो गौरैया खिड़की के शीशे पर इतना बेचैन होकर अपनी चोंच क्यों मार रही थी? माल वाला दुआरा तुड़वाकर अच्छा सा नया घर बनवा लेंगे यहां। वहां तक जो दिख रही है ना, सारी ज़मीन अपनी है। बिहार टेनेन्सी एक्ट। बटाईदारी कानून। सीलिंग। दूर-दूर तक पसरे खेत। खेतों में अरहर के सिट्टे।

ढलता हुआ सूरज। डूबती हुई शाम। एक लक्ज़री गाड़ी। गाड़ी में थककर सो चुके दो बच्चे। गाड़ी के भीतर चलता एयरकंडीशनर। दिमाग के भीतर मची उथल-पुथल। स्मृतियों का कोलाज। हम कहां के हैं? हम कहां के होना चाहते हैं?

सिवान शहर की सीमा में घुसते हुए छोटी भाभी ने जो पूछा है उससे तंद्रा टूटी है।

दिल तो पागल है को भोजपुरी में कैसे कहेंगे? वो पूछती है।

हियवा त पगलाईल बा, गाड़ी चलाते हुए भाई जवाब देता है।

That’s it then. मैं खुद से कहती हूं।  

This heart, तो, is mad.

दिल तो पागल है। हियवा त पगलाईल बा। का जाने कबसे बौराईल बा! न जाने कब से बौराया है।
हर एक बात पर नुक्ताचीनी की आदत ही नहीं जाती इसकी। सवाल पूछने बंद ही नहीं करता। अभी आधी रात को भी शोर मचाए है और पूछे जा रहा है वही सवाल - हम किस शहर के वाशिंदे हैं? हम कहां के रहनेवाले हैं? हम कहां के होना चाहते हैं? परिवार, कुल, मान-मर्यादा, सम्मान, नियम-धर्म, रीति-रिवाज़ – इन धरोहरों की कटी हुई कलमें हम कहां-कहां रोपते फिरेंगे? उनको खाद-पानी देने की शक्ति कहां से आएगी? क्या बचेगा? क्या छूटेगा?

तू क्यों रोती है बेसाख़्ता बेसबब? दिल को बचाए रखेगी तो सब बच जाएगा। और कुछ नहीं तो जड़ से जुदा हो जाने का ये दुख तो बचा रह ही जाएगा।    

(अपने ननिहाल और जन्म स्थान मुबारकपुर से १८ नवंबर २०१२ लौटकर, रात के डेढ़ बजे का आत्मालाप)

शनिवार, 17 नवंबर 2012

भाई-भाई ही लेते हैं एक-दूसरे की जान


दोनों एक साथ बड़े हुए थे। सहोदर थे, एक ही आंगन में चलना सीखा था, और एक को देखकर दूसरे ने एक ही तालाब में तैरना भी सीख लिया था। कई ब्लैक एंड व्हाईट तस्वीरें में दोनों को एक ही जैसी शर्ट में देखा है कई बार। स्ट्राईप्स का रंग तो मालूम चलता नहीं, लेकिन पैटर्न देखकर लगता है कि एक ही थान का कपड़ा रहा होगा। बड़े वाले की शादी में छोटे ने ऐसी आतिशबाज़ी की कि पूरा शहर उस बारात को सालों तक याद करता रहा। दोनों को राम-लक्ष्मण की जोड़ी कहते थे। ये जब की बात थी, तब की बात थी। अब की हक़ीकत कुछ और है। दोनों कौन हैं? कोई भी वो दो भाई हो सकते हैं जिन्हें आप जानते हैं। एक-दूसरे पर मरने वाले, एक-दूसरे के लिए जीने वाले कब और कैसे एक-दूसरे की जान के दुश्मन हो जाएंगे ठीक-ठीक कहा नहीं जा सकता।

बड़े हो जाने, वयस्क और समझदार हो जाने के क्रम में सीखी और समझी हुई कई तकलीफदेह सच्चाईयों में से एक सबसे बड़ा सच जो मैंने सीखा वो ये था कि कोई परिवार ऐसा नहीं होता कि जहां भाई-भाई का झगड़ा नहीं होता, जहां परिवार का विघटन नहीं होता और जहां पैसे और संपत्ति, घर और ज़मीन के लिए आपस में टकराव नहीं होता। ज़मीन चाहे एक बित्ता हो या फिर करोड़ों की हो, लड़ाई उतनी ही तीक्ष्ण, उतनी ही गहरी और उतनी ही लंबी होती है।

मैं इस बारे में बिल्कुल नहीं लिखना चाहती थी। अगर आपका ब्लॉग आपकी ऑनलाइन डायरी है और डायरी पब्लिक डोमेन में है तो उसके ज़रिए अपने डर्टी लिनेन कौन सबके सामने धोना चाहेगा? कुछ बातें इस कदर सच्ची होती हैं कि उनका सच होना चुभता है। कुछ बातें इस क़दर तकलीफ़देह होती हैं कि उन्हें भुला देने में, उनके बारे में ना बात करने में ही सुकून आता है। लेकिन हम अगर किसी ख़ास मुद्दे पर चुप्पी साध लेना चाहते हैं तो इसका मतलब ये है कि वही बात सबसे ज़्यादा खलती है।

ये किस्सा मेरे घर का भी है। मैं उस परिवार की बड़ी बेटी थी जहां का संयुक्त परिवार मिसाल माना जाता था, जहां बच्चों को जन्म देने की बारी आई तो मायके के नाम पर मैं अपने चाचा-चाची के शहर गई, जहां बच्चों से पूछा जाता था कि तुम कितने भाई-बहन हो तो उसका जवाब पांच-सात-बारह-चौदह होता था कि कज़िन्स का, चचेरे भाई-बहनों के होने का कॉन्सेप्ट तो हमने सीखा ही नहीं था।

कुछ महीने हुए कि परिवार टूट गया। जिस चाची को हर रोज़ ये पूछे बिना चैन नहीं आता था कि मेरे घर खाने में क्या पका है और मैं अभी भी रात को सोने से पहले हॉर्लिक्स पीती हूं या नहीं, उस चाची ने कई महीने हुए, हमसे बात नहीं की। सुना है कि चाचा ने हमारे नंबर्स अपने फोन में से डिलीट कर दिए हैं और किसी का किसी से कोई वास्ता ना होने की कसमें खाई जा रही हैं। यही हाल ससुराल का है। यहां भी झगड़े की मूल जड़ में संपत्ति थी, और एक-दूसरे के लिए सालों तक पाल कर रखी गई ऐसी शिकायतें थीं जिनका निदान बातचीत से मुमकिन हो सकता था। पापा और बड़े पापा कई सालों से मिले नहीं, एक-दूसरे को फोन नहीं किया। कोई बातचीत हो भी तो उसके सिरे कहां से पकड़े जाएं, अब समझना मुश्किल है। इसलिए दोनों ने कई सालों से एक-दूसरे से बात नहीं की है। उम्र के जिस मोड़ पर दोनों खड़े हैं, वहां समझौते की गुंजाईश नहीं होती क्योंकि बालों के साथ-साथ नफ़रत भी पक जाया करती है और कोई किसी को माफ़ करने को तैयार नहीं होता।

कुछ भी शाश्वत नहीं होता। रिश्ते भी स्थायी नहीं होते होंगे। मौसमों की तरह रिश्तों की तासीर भी बदलती होगी, और ख़ून भी शायद पानी ही हो जाता होगा। वरना ऐसा भी क्या कि रुपए-पैसों और ज़मीन-जायदाद के आगे सारे रिश्ते बेमानी हो जाएं? ऐसा भी क्या कि हर आंगन एक कुरुक्षेत्र बन जाए और हर ज़मीन का टुकड़ा एक हस्तिनापुर? ऐसा भी क्या कि हर भाई को धृतराष्ट्र की तरह लगता रहे कि उसके साथ नाइंसाफ़ी हुई और इस नाइंसाफ़ी का बदला अगली पीढ़ियों का चुकाना ही चाहिए? शेक्सपियर ने किंग लियर की प्रेरणा आखिर कहां से ली होगी? वाल्मिकी ने राम-राज्य के चारों भाईयों की परिकल्पना की होगी तो वहीं किसलिए रावण के लिए एक विभीषण रच दिया होगा, बाली के लिए एक सुग्रीव? 

ख़ून पानी ही होता होगा शायद, तभी तो चड्ढा भाईयों ने एक-दूसरे पर रिवॉल्वर तानते हुए एक बार भी नहीं सोचा होगा। ख़ून पानी ही होता होगा शायद कि अपनी जान से बढ़कर ज़मीन के कुछ टुकड़े लगे होंगे। सोचती हूं कि दूसरी-चौथी-सातवीं दुनिया में फिर से जब आमने-सामने होंगे दोनों तो क्या एक-दूसरे के लिए इतनी ही नफ़रत होगी? और ऊपरवाले ने सज़ा देने के लिए दोनों को फिर एक बार भाई बनाकर दुनिया नाम के दोज़ख़ में प्रायश्चित करने के लिए भेज दिया तो? भाई फिर एक-दूसरे के ख़ून के प्यासे होंगे शायद कि ख़ून पानी ही होता होगा। तो फिर चड्ढा भाईयों ने एक-दूसरे की जान ली तो नया क्या था?  

सच ही तो है कि सारे भाई लड़ते हैं। 

ज़मीन की लड़ाई लड़ते हैं, पैसों की लड़ाई लड़ते हैं, द्वेष और ईर्ष्या की वजह से लड़ाई होती है, ताक़त और कुर्सी की लड़ाई लड़ते हैं। अपने अहंकार और स्वार्थ में ये भूल जाते हैं कि एक दिन सब ख़त्म हो ही जाएगा। घर-परिवार-रिश्ते-नाते-दौलत-शोहरत... सब। जो बाकी रह जाएगा, वो नफ़रत होगी जो किसी ना किसी रूप में हमारे मन में एक-दूसरे के लिए बाकी रह ही जाती है।

शुक्रवार, 16 नवंबर 2012

चली बिहारन थोड़ी और बिहारी बनने!


मैं दिल्ली में रहनेवाले बिहारियों के उस तबके में शामिल नहीं जो साल में सिर्फ दो ही बार घर जाता है – छठ पर और होली में। मैं उन लोगों में से भी नहीं जो अपने परिजन, कुल-बिरादर, लोग-समाज, दोस्त-यार, अड़ोसी-पड़ोसियों से साल में दो-एक बार ही मिल पाते हैं। मैं उन लोगों में से भी नहीं जो छह महीने खटकर घर जाएंगे तभी जेब में इतना रुपया आएगा कि जिससे परिवार के छठव्रतियों के लिए सूती धोतियां, सूप, अर्घ्य देने के लिए केतारी, नारियल, नींबू और फल-फूल खरीदा जा सके।

बल्कि मैं बिहारी तो हूं, लेकिन उन फैंसी शहरी लोगों में से हूं जो बचपन से शहर में पले-बढ़े, जिनके लिए गांव गर्मी छुट्टियां होती थीं, या फिर फुलवारी की आम-लीची। हम गांव को दूर से हैरत भरी नज़रों से देखने वालों में से थे जो वहां के होते हुए भी वहां के कभी हो नहीं पाए। हम अपनी मां से अपनी मातृभाषा में बात नहीं करते। हम अभी भी बिहार आते हैं, अपने गांव, लेकिन उसी नॉन रेज़िडेंट बिहारी की तरह, जो अपने गांव-कस्बे लौटकर एक ख़ास फ़ील के लिए आते हैं, या फिर सिर्फ अपने बच्चों को ये दिखाने के लिए कि जगमगाते मॉलों, चमचमाते फ्लाईओवरों और पूरी होने को कसमसाती असंख्य ख़्वाहिशों के परे भी एक दुनिया है जो अलग-सी है, जहां हमारी जड़ें तो हैं लेकिन जहां हमारा नामोनिशां नहीं।

बस इसी बिहारी होने के ख़ास फ़ील के लिए हम छठ में घर आ जाया करते हैं दो-चार साल पर। पिछली बार मैं छठ में जब गांव आई थी तो बच्चे दो साल के थे। अब आई हूं तो छह साल के हैं। जाने अगली बार सालों का ये फ़ासला किस आरोही क्रम में बढ़ेगा!

बहरहाल, जब अनुभव ही लेना है तो कहीं कोई कटौती नहीं होनी चाहिए। अब जब छठ में घर ही जाना है तो छठ के लिए चलनेवाली स्पेशल ट्रेन क्या बुरी है? बुरी तो नहीं, लेकिन आनंद विहार टर्मिनल से खुलनेवाली इस ट्रेन का नाम सुनकर ही एक दूसरे एनआरबी यानि नॉन-रेज़िडेंट बिहारी पतिदेव का दिल बैठ गया है। (यूं तो हम दोनों बिहारी हैं, लेकिन हमारे इलाकों के बीच पूरे सूबे का फ़ासला है। मैं यूपी के सरहद से जुड़े शहर वाली, वो बंगाल जुड़े हुए शहर से। इसलिए हम दोनों बिहारी तो हैं, लेकिन पूर्व और पश्चिम का अंतर यहां भी हावी है।)

पतिदेव अक्सर सोचते हैं कि मेरी पागल बीवी अपने साथ-साथ बच्चों का भी कचूमर बनाने पर क्यों आमादा रहती है? पैरों में पहिए लगा रखे हैं, और ख़्वाहिशों को स्केट्स पर फिसलाती चलती है! उसपर उसके भाई-बंधु भी एक से बढ़कर एक। अरे सब हो जाएगा जीजाजी कहकर अपने कंधे से चिंताओं का भार झाड़कर मेरे पति के नाज़ुक कंधे पर डाल देनेवाले!

स्टेशन के लिए आते हुए दल्लूपुरा की गलियों से होकर गुज़रते ही पतिदेव का बीपी हाई होने लगा है। ये कौन-सा टर्मिनल है, और ये कैसी ट्रेन है? उसपर कमाल ये कि मेरे पास टिकट नहीं। मैं जानती नहीं कि ट्रेन नंबर क्या है। मैं ये तक नहीं जानती कि ट्रेन के खुलने का सही वक्त क्या है और हमारा रिज़र्वेशन किस बोगी में है। सोने पर सुहागा कि ट्रेन खुलने में चंद मिनट बाकी हैं और उस भाई-भौजाई का फोन लगना मुश्किल जिनके पास मेरी टिकटें हैं और जिनके साथ मैंने गाते-बजाते सीवान उतर जाने की मन-ही-मन धांसू कल्पनाएं भी कर डाली हैं। सफर करने के मामले में हम कमाल की बेपरवाह, बिंदास, डिसॉर्गेनाइज्‍ड फैमिली हैं। हम सिर्फ अपने सफ़र के अनुभवों की ही दास्तानगोई करने बैठें तो बेस्टसेलर निकाल डालेंगे! उसपर तुर्रा ये कि हर पंद्रह दिन पर फिर भी आईआरसीटीसी का कर्ज़ उतारने बैठ जाते हैं!

कुंभ का मेला तो मैंने कभी देखा नहीं, लेकिन स्टेशन पर की भीड़ को देखकर लगता है, ऐसे ही किसी मेले में लोग बिछड़ जाया करते होंगे। लगता है जैसे पूरा का पूरा भोजपुर अंचल आनंद विहार पर इकट्ठा हो गया है। मन में इस भीड़ में गुम हो जाने का अपशकुनी ख़्याल आते ही मैंने दोनों हाथों में कसकर दोनों बच्चों की हथेलियां थाम ली हैं, और उनसे झुककर कान में पूछा है, मम्मा का फोन नंबर याद है ना? अगर भीड़ में कहीं गुम हो जाओ तो किसी आंटी को कहना, मम्मा का नंबर लगा दो।

इतना कहने के बाद मैंने होठों पर इनकी और इनके जैसे बच्चों की हिफ़ाज़त के कई नि:शब्द कलमा पढ़ डाला है। दुआ का कोई रंग-रूप, शक्ल-सूरत, कोई भाषा, धर्म नहीं होता। मंगलकामना किसी अंचल विशेष की अमानत भी नहीं होती। मंगलकामनाओं के मौके ज़रूर हम अपनी-अपनी सहूलियत से मुकर्रर कर दिया करते हैं।

दिल्ली में लाखों की तादाद में बिहार से लोग रोज़ी-रोटी की तलाश में आते हैं। मेरी ही तरह यहीं रहने लग जाते हैं, और मेरी ही तरह यहां के हो भी नहीं पाते। नई बन रही इमारतों के बगल में रहनेवाले कामगर हों या चांदनी चौक की दुकानों में मोटिया या कुली का दिहाड़ी पर काम करने वाले मज़दूर, कोई रिक्शावाला हो या कोई पानवाला, या फिर किसी हिंदी न्यूज़ चैनल के दफ़्तर में बैठकर रनडाउन में अपनी ख़बर लगवाने में अपनी उम्र गंवा देनेवाला पत्रकार, कोई सरकारी मुलाज़िम या फिर किसी स्टार्टअप के साथ अपनी किस्मत के पलटी खाने का इंतज़ार करता कोई सॉफ्टवेयर इंजीनियर – सब उम्मीद यही रखते हैं कि एक दिन गांव लौट जाएंगे और अपने हिस्से आनेवाली ज़मीन पर खेती करके बुढ़ापा काट लेंगे। अपने गांव, अपने शहर लौट जाने की उम्मीद हर बिहारी के घर मिलनेवाली सत्तू की पोटली की तरह स्थायी होती है। घर, पते, मोहल्ले, पहचान भले बदल जाए, सत्तू का स्वाद वही रहता है।

सत्तू खाने वाले, पान-खैनी चबानेवाले, पीला सिंदूर लगानेवाले, बोरों में बांधकर अपनी कमाई घर ले जानेवाले बिहारियों के बीच थोड़े कम बिहारी ही सही, हम भी स्टेशन पर खड़े हो गए हैं – ट्रेन के इंतज़ार में। प्लेटफॉर्म पर पहुंचने भर की कीमत दो सौ रुपए है जो बिहार का ही एक कुली हमसे लेता है, अपने ठेले पर हमारा सामान और हमारे बच्चे लादकर सही-सलामत बोगी के सामने तक पहुंचा देने के एवज़ में। उस ठेले का ये फ़ायदा होता है कि हमें प्लेटफॉर्म तक पहुंच जाने के लिए रास्ता मिल गया है और बच्चे भीड़ की धक्का-मुक्की से बच जाते हैं। आद्या और आदित के साथ उनका एक भाई भी है – दो साल का अद्वय। तीन बच्चों की सुरक्षा के लिए हम तीन वयस्क तैयार हैं – भाई-भौजाई और मैं। पतिदेव ने प्लेटफॉर्म पर हमारे साथ खड़े होकर एक अनिश्चितकाल के लिए लेटलतीफ़ ट्रेन का हमारे साथ इंतज़ार करने से बेहतर घर लौटकर कुछ काम निपटा लेना समझा है। उनकी बिहारियत इस बात से तय नहीं होती कि वो इस भेड़ियाधसान में छठ मनाने के लिए घर पहुंच पाते हैं या नहीं।

ट्रेन पर सिर्फ चढ़ भर पाने की मशक्कत शैल चतुर्वेदी की हास्य कविता रेलयात्राको मात दे देती है। पूरी ट्रेन में एसी की एक ही बोगी है और छह लोगों के कंपार्टमेंट में कुल ग्यारह लोग हैं – पांच वयस्क और छह बच्चे। ये तो वाकई शुभ यात्रा हो गई है जी!

सब बिहारी एक ही मकसद से सफ़र कर रहे हैं। सब बिहारी एक ही भाषा में बात कर रहे हैं। सब बिहारियों का गंतव्य एक ही है। सब बिहारियों की पहचान एक जैसी ही है कि सब देस में होते हुए भी परदेसी हैं। सब यहां के होते हुए भी कहीं के नहीं हैं। ये सारे बिहारी मुसाफ़िर हैं और रहते कहीं और हैं, लेकिन इनका घर कहीं और है। सबने अपने उस घर लौट जाने का अपना सपना बचाए रखा है। सब छठ के घाट पर डूबते-उगते सूरज के सामने नतमस्तक होकर आशीर्वाद में मंगलकामना ही करेंगे – सुख-संपत्ति, स्वास्थ्य, सफलता और घर-परिवार, संतान की सुरक्षा। सबके दुखों का रंग-रूप भी एक सा ही होता होगा, लेकिन सब बिहारी फिर भी एक-दूसरे से कितने जुदा से हैं!

और मैंने घर पहुंचकर पूरी बिहारन बन जाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। पैरों में आलता लग गया है, धूप में बैठकर गेहूं सुखाने की प्रक्रिया शुरू हो गई है और मोबाईल पर शारदा सिन्हा छठ के गीत सुने जाने लगे हैं।
      
PS: 4 जी के डेटाकार्ड पर तस्वीरें डालने की कोशिशें नाकाम रहीं, और ब्लॉग पर पोस्ट करने की भी। एफबी पर किस्मत आज़मा रही हूं। :(    
     

बुधवार, 7 नवंबर 2012

...कि मर जाना इकलौता सच है

बयालीस साल... बयालीस साल कोई गुज़ारता है साथ-साथ। और फिर एक दिन दोनों में से कोई एक चला जाता है चुपचाप। जो रह जाता है, उसकी तन्हाई और तकलीफ़ के बारे में चाहे जितना चाह लें, कुछ भी लिखा नहीं जा सकता। सब दिखता है, फिर भी नहीं दिखता। सब समझ में आता है, फिर भी समझना नहीं चाहते हम।

मृत्यु - ज़िन्दगी के इस सबसे बड़े, सबसे कठोर और इकलौते शाश्वत सत्य से क्यों फिर भी स्वीकार नहीं कर पाते हम? क्यों लिखने से डर रही हूं कि अब धीरे-धीरे हमारे आस-पास मौजूद मां-पापा, चाचा-चाची, अंकल-आटी, मामा-मामी, मौसी-मौसा, बुआ-फूफा की जोड़ियां बिखरेंगी और फिर एक दिन हम भी इसी दहलीज़ पर होंगे जहां आगे घनघोर तन्हाई दिखती है, जहां होते हुए ना खुलकर रोया जा सकता है ना ख़ामोश रहा जा सकता है... जहां से सरकते हुए वक्त में पिछले कई दशकों की परछाईयां देखते हुए अपनी ज़िन्दगी के कट जाने का इंतज़ार ही किया जा सकता है बस।

सच है कि हम भी मरनेवालों का शोक मनाएंगे एक दिन। हम भी बिना अलविदा कहे चले जाएंगे एक दिन।

और चले जाएंगे आस-पास के लोग धीरे-धीरे, कि मर जाना इस ज़िन्दगी का इकलौता सच है। ।



बड़ा मुश्किल है
कुछ चीज़ों के बारे में सोच पाना

जैसे कि पहले पापा गुज़र जाएंगे, या मम्मी।



उस दिन भी रख दिया था
आपका चश्मा पोंछकर मेज़ पर

आपने लेकिन अपनी आंखें फिर ना खोलीं।



नहीं लौटेंगे बाबा
ये तो कई सालों से जानती हूं

उनके नकली दांत अभी भी हंसते हैं इस बात पर।



अब भी वैसे ही है
हैंगर में टंगा हुआ नीला सफ़ारी-सूट

बस मेरी साड़ियों के रंग उतार लिए गए हैं।



सब कट ही जाता है,
घंटे, दिन, रात, हफ्ते, महीने, साल, उम्र

एक चाय की सुड़कियों वाला लम्हा नहीं कटता।

सोमवार, 5 नवंबर 2012

तेरे मेरे बीच में

मैं बहुत सोच-समझकर उसके और मेरे रिश्तों के बारे में लिखना चाहती थी। अपने दिमाग के बंद दीवान को खोलकर उनमें तह लगाकर डाल दिए गए पुराने कपड़ों की तरह सहेज-संभालकर रखे गए, लेकिन किसी काम के नहीं रह गए पुराने कपड़ों की तरह पड़े कुछ कहानियों और उपन्यासों के पात्रों, कथानकों में से कोई मिसाल ढूंढकर लाना चाहती थी (ताकि मेरे भी कुछ पढ़े-लिखे होने का गुमां होता)।

लेकिन की फरक पैंदा या है यार? ये दिखावा किसके लिए? जिसके होने ना होने से फर्क़ पड़ता है उसे तो इससे बिल्कुल फर्क नहीं पड़ेगा कि मैंने मोपासां की कहानियां पढ़ी हैं या नहीं, गॉथे की कविताओं पर मेरी क्या राय है और गिरिश कर्नाड वर्सेस वीएस नायपॉल डिबेट पर मैंने कोई त्वरित टिप्पणी पेश की है या नहीं।

और चूंकि उसे इन सबमें से किसी भी चीज़ से कोई फ़र्क पड़ना नहीं है, इसलिए मैं बिंदास धाराप्रवाह अनएडिटेड अनसेन्सरर्ड अननेसेसरी बातें लिखने जा रही हूं।

मेरे अंग्रेज़ी के टीचर (जो अब अच्छे दोस्त भी हैं) ने एक बार कहा था मुझसे, एवरी रिलेशनशिप कम्स विथ एन एक्सपायरी डेट। मुमकिन है कि हर रिश्ता अपनी मियाद लिखवाकर आता हो। दुनिया की तमाम उलझनों और इतने सारे कामों के बीच कहां याद रहता है कि किस रिश्ते को कहां कहां कैसे इलाज की ज़रूरत है, कौन-से रिश्ते की डायगनॉसिस गलत हो गई, किसे अब ऑक्सीजन सिलेंडर की ज़रूरत है और कौन-सा रिश्ता वेंटिलेटर पर है अभी।

ज़्यादातर रिश्ते यूं भी मतलब के होते हैं। मेरा वक्त नहीं कटता, इसलिए अपनी खलिश भरने के लिए मैंने तुम्हें फोन लगा लिया; मेरे पास करने को कुछ नहीं था, इसलिए मैंने तुम्हें ई-मेल भेज दिया, तुमसे चैट कर लिया; मुझे बेवजह की रुलाई आ रही थी, इसलिए मैंने तुमसे तुम्हारी एक शाम उधार मांग ली; मैं लिखती हूं और तुम्हारे फेसबुक फ्रेंडलिस्ट में मैंने कई और अपने जैसे लिखनेवालों को देखा है, इसलिए मैंने दोस्ती का हाथ बढ़ा दिया... हर दोस्ती के पीछे कोई मतलब, हर रिश्ते का कोई मानी।

ऑल बट वन। हर रिश्ते का, लेकिन एक को छोड़कर।

मैं तुम्हारे पास क्यों आती हूं, नहीं जानती। लेकिन एक ऐसी क्रेविंग-सी होती है कि जिसमें तुम्हें जोर से गले लगा लेने के अलावा कुछ नहीं सूझता। तुम्हारे और मेरे बीच का फ़ासला ठीक-ठाक बड़ा है, उम्र के लिहाज़ से भी और मीलों की दृष्टि से भी। लेकिन तुम्हारी शक्ल में अपना चेहरा दिखता है - कुछ सालों बाद वाला। तुम्हारी ओर चलते हुए मीलों का जो फ़ासला घटता है,  वो अंदर किसी खाई को भर रहा होता है। जाने मैंने तुम्हें कभी बताया है या नहीं, बट इट इज़ थेरेपियॉटिक - तुम तक सिर्फ चल कर जाना, अपने फोन की स्क्रीन पर तुम्हारा नाम चमकते हुए देख लेना, तुम्हारी आवाज़ में 'हां जानू' सुन लेना...

कई ज़ख़्म ऐसे होते हैं जिनके भरने का कोई रास्ता नहीं होता। हम अपने-अपने हिस्सों की तकलीफ़ें लेकर पैदा हुए हैं। हम सब नक्कारखाने में पड़े हुए अपने-अपने राग अलापते बेसुरे लोग हैं, जिन्हें अपनी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी उपलब्धि इन्हीं दर्द के तिनकों-तिनकों से बनाया गया भानुमति का वो कुनबा लगता है जहां कोई किसी का नहीं। हम अपने-अपने ज्ञान, अपने-अपने अहं के तले दबे नाकारा लोग हैं जो अपने बगलवाले की भी बात सुनने को तैयार नहीँ। इतना शोर है अपने भीतर कि दूसरों की कौन सुने? इसी शोर से घबराकर मैं चली आती हूं तुम्हारे पास।

तुम्हारे पास आकर सब ठहर जाता है। ज़िन्दगी की हर मुश्किल आसान लगने लगती है। अपने औरत होने पर गुमान होने लगता है। मां होने की ज़िम्मेदारियां दिखने लगती हैं। बचपन में घुट्टी में घोलकर पिलाए गए नैतिक मूल्यों पर सवाल उठाने की हिम्मत जगती है। तुम्हारे साथ होती हूं तो लगता है कि अपने आस-पास की दुनिया को जीने लायक बनाया जा सकता है, क्योंकि ये दारोमदार हमीं पर तो है। तुम्हारे पास होती हूं तो लगता है कि जो नहीं है, उसका मलाल क्यों हो और जो है, सब बोनस है कि ज़िन्दगी अपनेआप में बड़ी नेमत है। तुम्हारे पास होती हूं तो याद रहता है कि अपनी ज़िन्दगी के सही-गलत फ़ैसलों को सिर उठाकर हिम्मत के साथ कैसे जिया जाता है, और ये भी याद रहता है कि उन फ़ैसलों को भी ग्रेसफुली कैसे जीना है जो हमपर थोप दिए जाते हैं।

ज़िन्दगी में मेरा भरोसा बचाए रखना दोस्त, पिछले कई सालों की तरह। ज़ख़्म भर ही जाएंगे, और फिर कुरेदे जाएंगे। हाय ज़िन्दगी, वाई ज़िन्दगी का रोना कभी बंद नहीं होगा। हर बार हर मोड़ पर एक नए इम्तिहान की तरह मिलेगी ज़िन्दगी। उसमें भी तुम्हारी वजह से बच गई नज़र और नुक़्ता-ए-नज़र यूं ही बची रहे तो मैं भी बच जाऊंगी।

और चूंकि तुम्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मैं कैसा लिखती हूं और एक दिन कैसी फिल्में बनाऊंगी, कैसी किताबें और टीवी प्रोग्राम्स लिखूंगी और कितने पैसे कमाऊंगी, इसलिए मुझे भी कोई फर्क नहीं पड़ता। चूंकि तुम्हें इससे फर्क पड़ता है कि मैं ज़िन्दगी कैसे जीऊंगी, अपने बच्चों को क्या देकर जाऊंगी और अपने परिवार को कैसे बचाऊंगी, इसलिए मुझे भी बस इसी बात से फर्क पड़ता है।

मुझे तुम्हारे सामने बैठकर हंसने और रोने से, तुम्हारे परिवार के लिए बेसन का हलवा बनाने से और तुम्हारे बिस्तर पर बेफिक्री से सो जाने से फर्क पड़ता है। मुझे तुम्हारे घर के सामने ईंटों से अपना घर बनाते, सूखे फूल-पत्तियां चुनते, क्रेयॉन्स के लिए लड़ते बच्चों की आवाज़ों से फर्क पड़ता है। मुझे तुम्हारे होने से फर्क पड़ता है।

मुझे तुम्हारे गले लगा लेने से फर्क पड़ता है, नताशा।

झाड़ू की सींक
और ऊन की कतरनों
बच्चों की फ्रॉक की फ्रिल से
निकालकर रखे गए
रेशमी धागों
गरारे के गोटों से
हम बनाएंगे
गुड़िया

एक गुड्डा भी
रूमाल की धोती
पहन लेगा

बची-खुची ईटों
और सूखे हुए पत्तों से
दोनों के लिए
बनाएंगे आठ कमरों
वाली मड़ैईया
लगाएंगे चांदनी,
चुनेंगे हरसिंगार
खाएंगे वो अंजीर
जिनके पत्तों पर
कल देखी थी
बैठी हुई एक इल्ली

गुड़िया गुड्डा ले जाएगी
इल्ली तितली बन जाएगी
वक़्त खाली हो जाएगा
घर मिट्टी मिल जाएगा

जो बाकी रह जाएगा
एक फ़ितना-सा दिल मेरा होगा
एक इतना-सा दिल तेरा होगा।

(नताशा का ब्लॉग है http://www.mydaughtersmum.blogspot.in/, और उसे मैं ब्लॉगिंग की वजह से नहीं जानती। मैं तो जानती भी नहीं कि मैं उसे कैसे जानती हूं? की फरक पैंदा है यार!)