शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

एक दोपहर शनिवार की

हमने रुककर फूलों की खुशबू ली है,
आंखें बंद कर गुलाबी और
पीले फूलों को पहचाना है अलग से।
तैरती मछलियों के झुंड गिने हैं
पानी पर चलती लकीरों के बीचोंबीच।
देखा है तोते के जोड़े को
डालियों पर फुदकते हुए।
हमने फड़फड़ाते बतखों के पंख से
गिरती ठंडी बूंदों की सिहरन को
आंखों से छुआ है आज।
हमने गीली घास को
पैरों के तले देखा है कुचलते हुए,
फिरंगी दोस्तों के कैमरे में
करने दिया है कैद
हमने अपनी खुमारी को।
हम - मेरे बच्चे और मैं -
आज लोदी गार्डन में
दुपहर गुज़ार कर
लौटे हैं घर दोस्तों...

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

ख़्वाब और हक़ीकत

एक बेचैन-सा ख्वाब है,
जो सुबह होने पर भी
पलकों का साथ नहीं छोड़ता।

नींद टूटी है,
घूमकर देखा है मैंने तुमको।
हल्के हाथों से छुआ है माथा।
हां, सपना तो नहीं,
तुम ही हक़ीकत हो।

फिर कौन-सी भूली ख्वाहिश
आ जाती है यूं ही कभी
खटखटाने मेरा दरवाज़ा,
भरमाने मुझे मेरी नींद में
और कभी-कभी जागते हुए भी?

कुछ भूले-बिसरे लोग हैं,
और है पीछे छूटा हुआ शहर
जो मुझसे टूटे वायदों का
मोल पूछने चला आता है
यूं ही किसी दिन ख्वाब में।

और मैं नींद से जागकर
यूं ही छू लेती हूं तुम्हें।
ख्वाब तो नहीं,
हक़ीकत में ही जीना है मुझको।

रविवार, 6 फ़रवरी 2011

"क्या कहूं कि कहां गुम हूं मैं मुद्दत से,
मुझको ढूंढा करती हैं परछाईयां मेरी।"

कई दिनों के बाद ब्लॉग पर लौटी हूं। ऐसा लग रहा है जैसे पहले किसी साथी से मिलने के वायदे करती रही, फिर वायदा पूरा ना हो सका तो आंखें चुराती रही। लेकिन अपने ही साथी से बच-बचकर चलें भी तो कबतक? इतने हफ्तों की चुप्पी की कोई ऐसी वजह नहीं जो बताने लायक हो। बहरहाल, यहां अपनी लिखी एक कहानी से इस वापसी की शुरूआत करती हूं। ये कहानी जनवरी में "परिकथा" पत्रिका के नवलेखन अंक में प्रकाशित हुई है।


मुक्ति

वो फिर ग्रीन टी बनाकर ले आए थे। प्रमिला के लिए चाय का मग बिस्तर के बगलवाली मेज़ पर रखकर वे खिड़कियों की ओर मुड़ गए, पर्दे हटाने के लिए। ये पर्दे प्रमिला की पसंद के थे, हरे-नीले रंगों की छींट सफेद-जैसे दिखने वाले रंग पर। पिछली दीवाली पर आखिरी बार धुले थे ये पर्दे। पर्दों के हटते ही नवंबर की धूप का एक कोना फर्श पर छितरा गया। खिड़कियों पर लगे ग्रिल की चौकोर आकृतियां ज़मीन पर बड़ी सुलझी हुई लग रही थीं, परछाई का एक-एक हिस्सा जैसे बड़ी सावधानी से धीरे-धीरे उकेरा गया हो। उन्होंने अपनी कुर्सी बिस्तर के करीब खींच ली।

प्रमिला की आंखें बंद थीं। धीमी-धीमी चलती सांसों से लगता था जैसे गहरी नींद में हो। अचानक आंखें खोले वो पंखे की ओर देख रही थी। आंखों के नीचे गहरे धब्बे ज़रूर थे, लेकिन पुतलियों की चमक बिल्कुल वैसी ही थी जैसी उन्होंने बयालीस साल पहले देखी थी, शादी के बाद पहली बार। प्रमिला के साधारण से चेहरे की वो असाधारण आंखें! वो और नहीं सोचना चाहते थे, भावुक होने के लिए वक्त कहां था। अपना दाहिना हाथ आगे बढ़ाकर उन्होंने प्रमिला की बांह को छू लिया।

"चाय पियोगी ना?"

"हां, लेकिन ये चाय नहीं। दादी वाली चाय। वो ले आइए।"

"डॉक्टर ने यही चाय पीने के लिए कहा है प्रमिला। तुम्हारी तबीयत जल्दी ठीक हो जाएगी इससे।"

तबीयत का ज़िक्र आते ही प्रमिला उठकर बैठ गई। अब उन आंखों से उतरता हुआ गुस्सा पूरे चेहरे पर फैल गया। उसकी भौंहों के तनाव की लंबाई देखकर वो समझ जाते हैं कि गुस्से की तीव्रता कितनी है। अभी भौंहें इतनी ही तनी थीं कि आंखों का सिकुड़ना पता नहीं चल रहा था।

"तबीयत ठीक है। रामखेलावन की जोरू दूध और चीनी चुरा ले गई है। अब साड़ी चुराएगी।"

"ऐसी बात नहीं है प्रमिला। वाकई तुम्हें डॉक्टर ने यही चाय पीने की सलाह दी है। इसे ग्रीन टी कहते हैं।"

"तबीयत ठीक है। दूध, चीनी चुराई है, अब साड़ी चुराएगी।" बुदबुदाते हुए प्रमिला फिर तकिए पर लुढ़क गई। चाय का मग वहीं पड़ा रहा, अनछुआ। गहरे नीले रंग का ये मग प्रमिला ही लाई थी सरोजिनी नगर से। दो साल पहले तक ये कुर्सी, सुबह का अख़बार, चाय का यही मग और प्रमिला का साथ उनकी सुबह के अभिन्न हिस्से थे। अब ये हिस्से टुकड़ों-टुकड़ों में पूरे घर में ऐसे बिखरे पड़े थे कि उन्हें सहेजना नामुमकिन लगता था। 

वो थोड़ी देर प्रमिला को ऐसे ही देखते रहे, बिना कुछ कहे। फिर उठकर धीरे-धीरे ड्राइंग रूम में आ गए। पूरी ज़िन्दगी जिन घरेलू उलझनों से प्रमिला ने उन्हें बचाए रखा था, वे ही परेशानियां अब उम्र के इस मोड़ पर उनकी दिनचर्या का हिस्सा थीं। घर ठीक करना था, मशीन में गंदे कपड़े डालने थे, खाना बनवाना था, कामवाली के आने-जाने का, दूध, धोबी, अखबार और राशन की दुकान का हिसाब रखना था। इन सबके बीच प्रमिला को वक्त पर दवा देनी थी, उससे नहाने-धोने, खिलाने-पिलाने के लिए मनुहार करनी थी।

तभी फोन अपनी पूरी ताकत से घनघनाया था।

"कैसे हैं पापा?"

सुकृति की आवाज़ सुनते ही उन्हें लगा जैसे आंखों के आगे धुंआ बनकर रुके हुए आंसू पिघलकर अब चेहरे पर लुढ़क ही आएंगे। लेकिन उन्होंने खुद को संभाला। वैसे ही जैसे इतने महीनों से कतरा-कतरा खुद को संभालते आए थे।

"ठीक हूं। तुमलोग कैसे हो? मेहा का बुखार उतरा?"

"मेहा ठीक है पापा। कॉलेज गई है। मैं भी चार दिनों बाद ऑफिस आई हूं आज। मां कैसी हैं?"

"तीन दिन पहले जैसी थीं वैसी ही बेटा। क्या बदलेगा अब?"

"नहीं पापा। मैंने इंटरनेट पर एक नया रिसर्च पेपर पढ़ा कल रात में। आपको भी लिंक मेल किया है। कुछ हर्बल रेमेडिज़ आई हैं बाज़ार में जिससे अल्ज़ाइमर्स ठीक हो सकता है। मैं यहां पता करती हूं। आप भी डॉक्टर से पूछिएगा ना।"

"पूछ लूंगा।" नहीं चाहते हुए भी उनकी हताशा उनकी आवाज़ में उतर ही आई थी।

बेटी से कैसे कहते कि ऐसे कई रिसर्च पेपर पढ़-पढ़कर अब उनकी हिम्मत जवाब दे चुकी थी। कैसे कहते कि डॉक्टर ने उनसे कहा था कि उनके अवसाद के लिए इलाज की ज़रूरत उन्हें भी है। कैसे कहते कि उन्होंने ये भी पढ़ा था कि डिमेनशिया या अल्ज़ाइमर्स जैसी बीमारियां आनुवांशिक होती हैं, जेनेटिक।

"तुम भी अपना ख्याल रखना मेरी बच्ची।" बस इतना भर कह पाए थे फोन पर।

"आई एम सॉरी पापा। मैं आपकी कुछ भी मदद नहीं कर पाती। आई फील सो मिज़रेबल।" सुकृति फिर फोन पर रो पड़ी थी। उन्हें कभी-कभी लगता था कि प्रमिला को संभालने से ज़्यादा मुश्किल सुकृति को या खुद को संभालना था। उससे ज़्यादा मुश्किल उन दोस्तों, रिश्तेदारों, शुभचिंतकों की भीड़ को संभालना था जो गाहे-बगाहे अपनी विशेष टिप्पणियां बांटने उनके घर आ धमकते थे।

"सुकु बेटा, मेरी इतनी ही मदद करो बस कि मज़बूत रहो। तुम्हारी बेचारगी तुम्हारी मां की बीमारी से ज़्यादा भारी लगती है मुझे।"

"सॉरी पापा, आई विल बी योर ब्रेव गर्ल। मैं भूल जाती हूं कि मैं एयर कॉमोडोर वीडी कश्यप की बेटी हूं।"

"दैट्स लाइक इट। बाद में बातें होंगी। अभी बहुत काम है।" ये कहकर उन्होंने फोन रख दिया। दो मिनट सोचते रहे कि काम खुद को संभालने से शुरू करें या घर को संभालने से, लेकिन फिर चाय पिलाने की आखिरी कोशिश के लिए प्रमिला के कमरे की ओर बढ़ गए।

ये कमरा प्रमिला ने सबसे ज़्यादा मेहनत लगाकर सजाया था। "जब आप बूढ़े होने लगते हैं तो दिन का सत्तर फीसदी हिस्सा बेडरूम में, दस बाथरूम में, दस किचन और डाइनिंग हॉल में बिताते हैं। बाकी बचे दस फीसदी वक्त में ही आप घर के और हिस्सों में जा पाते हैं। ऐसा मैंने कहीं पढ़ा है और मेरे ख़्याल से एक लिहाज़ से ये सही भी है। इसलिए सबसे खुशनुमा यही कमरा होना चाहिए।" दोनों में से किसी को क्या मालूम था कि प्रमिला की दुनिया एक दिन इसी कमरे में सिमट जाएगी। बेडरूम की इस साजो-सज्जा के बीच प्रमिला अब एक प्रतिमा भर रह गई थी। बात करते-करते भूलना, चिड़चिड़ापन, बेवजह रोना, तनाव - ये सब लक्षण तो इस घर में आते ही नज़र आने लगे थे। लेकिन तब लगता था, नई जगह या फिर एक अत्यंत व्यस्त सामाजिक दिनचर्या से बाहर निकलकर आने की वजह से वो परेशान है।

लेकिन लक्षण बिगड़ते चले गए। एक शाम तो प्रमिला ने उन्हें पहचाना ही नहीं, लगातार कहती रही कि आप मेरे बाबूजी के दोस्त हैं जो बरेली से आए हैं। फिर डॉक्टरों और अस्पतालों का चक्कर शुरू हुआ। लेकिन एक पल के लिए भी उन्हें ऐसा नहीं लगा कि प्रमिला अब ठीक नहीं होगी।

एक दिन प्रमिला शाम को बैठे-बैठे रोने लगी। बहुत पूछने पर कहा, आप मेरे बाबूजी के दोस्त हैं इसलिए बता रही हूं। उस दिन प्रमिला के लिए पहली बार वे अजनबी थे, और उस दिन ऐसे अजनबी हुए कि इतने सालों तक तिनका-तिनका जोड़ा हुआ विश्वास एक झटके में धराशायी हो गया। प्रमिला ने उस दिन पहली बार किसी महेश का ज़िक्र किया था। कहती रही, "आप बाबूजी के दोस्त हैं इसलिए बता रही हूं। उन्हें समझाइए ना कि मैं महेश से शादी करना चाहती हूं। ऐसे किसी इंसान के साथ कैसे ज़िन्दगी गुज़ार दूं जिसे जानती तक नहीं। आप समझाइए ना बाबूजी को।"

वो एक शाम उनकी ज़िन्दगी की सबसे भारी शाम थी। प्रमिला अपनी बेखुदी में कई बातें बताती चली गई। उन्हें ऐसा लगता रहा जैसे सालों बाद आई बाढ़ ने सब्र के किसी बांध को तोड़ दिया है और ये बाढ़ किसी को नहीं बख्शेगा, कम-से-कम उनके और प्रमिला के बीच के रिश्ते को तो बिल्कुल नहीं। उस रात एक लम्हे के लिए भी उनकी पलक नहीं झपकी थी। कई तरह के भाव उनके मन में आते-जाते रहे। विश्वासघात, क्षोभ, गुस्सा, चोट।

अगली सुबह प्रमिला को कुछ याद ना था और उन्होंने कुछ पूछा भी नहीं। बड़े अनमने ढंग से दोनों अपने-अपने कामों में लगे रहे, साथ-साथ होते हुए भी दूर-दूर।  प्रमिला ने ही याद दिलाया कि आज 24 तारीख थी, 24 सितंबर - बिजली बिल जमा करने की आखिरी तारीख। कमाल तो ये था कि बीमारी के बीच जब प्रमिला ठीक होती तो इस तरह की तमाम छोटी और कई बार गैर-ज़रूरी बातें उसे याद रहतीं। रिश्तेदारों के शादी की सालगिरह, पड़ोसियों के जन्मदिन, सुनामी किस दिन आया और किसी दिन गुजरात में दंगे शुरू हुए...

लेकिन आज उन्हें इस तारीख से कुछ याद आया था। सुकृति बहुत छोटी थी, ढ़ाई साल की। उनकी पोस्टिंग सहारनपुर के पास सरवासा में अभी हुई ही थी। घर मिला नहीं था और तीनों एयर फोर्स स्टेशन के मेस में रह रहे थे। अभ्यास के दौरान एक दिन विंग कमांडर अखौरी के साथ उन्हें प्लेन उड़ाना था। एयरबेस से टेक-ऑफ के दौरान तो सबकुछ ठीक लगा, लेकिन ऊपर उठते ही दोनों को किसी तकनीकी खरबी का अहसास हो गया। विंग कमांडर ने ज़र्बदस्ती उन्हें कॉकपिट से इजेक्ट करवा दिया, लेकिन खुद क्रैश में मारे गए। ये सबकुछ सात मिनट के भीतर हो गया था - उड़ना, एयर बेस से संपर्क टूटना, विंग कमांडर अखौरी से इजेक्ट करने-ना करने के लिए बहस, उनका कॉकपिट से निकल आना, प्लेन का सौ मीटर की दूरी पर गिरकर आग लग जाना... जब उन्हें होश आया तो वे अस्पताल में थे। होश में आने से लेकर अगले छह महीने तक वे अस्पताल के उसी बिस्तर पर पड़े रहे - मल्टीपल फ्रैक्चर्स के साथ। लेकिन प्रमिला ने हिम्मत नहीं हारी। सुकृति के साथ तीनों वक्त का खाना लेकर हर रोज़ बेस स्टेशन से अस्पताल आती रही।

एक दिन सुबह आने में देर हो गई थी। उनके पूछने से पहले खुद ही बताया, "रोज़-रोज़ अच्छा नहीं लगता था कि अस्पताल पहुंचाने के लिए मैं किसी की बाट जोहती रहती। तो मैंने आज खुद अम्बैसडर निकाल ली। आज पहले गियर पर चलाकर लाई हूं, कल दूसरा डालूंगी और परसों तीसरा। ठीक है ना?"

उन छह महीनों में प्रमिला के चेहरे पर निराशा और परेशानी की एक भी लकीर नज़र नहीं आई। सुकृति का स्कूल में दाखिला खुद कराया, उनकी देख-रेख खुद करती रही और साथ ही घर-बार, नाते-रिश्तेदार भी संभालती रही। तब तो ये भी नहीं लगता था कि वे अपने पैरों पर खड़े भी हो पाएंगे, लेकिन कई बार उन्हें लगता प्रमिला ही उनके लिए सावित्री बन गई थी। इतना ही नहीं, जब क्रैश में जीवित बच जाने के बदले उनका कोर्ट मार्शल हुआ तो प्रमिला ही उनकी हिम्मत बनी रही। 24 सितंबर को याद आई उन भूली बातों के बाद फिर उन्हें प्रमिला पर कभी गुस्सा नहीं आया।
 
लेकिन प्रमिला की तबीयत धीरे-धीरे और बिगड़ने लगी। पहले भूलना शुरू हुआ, फिर भाषा और सोचने-समझने की शक्ति प्रभावित हुई और कई बार ऐसा हुआ कि आंखों के आगे अंधेरा छाने की वजह से वो कभी घर में, कभी बाहर बेहोश होने लगी। पिछले एक महीने में अस्पताल जाने के अलावा प्रमिला घर से बाहर तक ना निकली थी।

शाम को वो ही ज़िद करके प्रमिला को बाहर लॉन में ले आए थे। पहले प्रमिला दशहरे के बाद ही कई तरह के फूलों के बीज बगीचे में डलवा देती थी। गुलदाऊदी, गेंदा, डालिया, जिनीया, पैन्जी, पेट्युनिया और कई ऐसे रंग-बिरंगे फूल जिनके नाम उन्होंने प्रमिला से ही सुने थे। लेकिन इस साल लॉन उजाड़ पड़ा था। माली क्या काम करके जाता, उन्हें ना देखने की हिम्मत होती ना बाग-बगीचे की समझ थी उनमें। दोनों इसी उजड़े हुए लॉन में चांद निकलने तक बैठे रहे। अचानक प्रमिला को जैसे कुछ याद आया।

"अंदर जाती हूं। साड़ी चुरा लेगी।"

"कौन पम्मी? कोई नहीं है यहां, मैं और तुम हैं बस। देखो, मुझे देखो। मुझे पहचानती हो या नहीं?"

प्रमिला ने उन्हें ऐसे देखा जैसे पाइथगोरस थ्योरम पढ़ाते-पढ़ाते क्लास में टीचर ने उनसे दस का पहाड़ा पढ़ने को कहा हो। "आप विक्रम हैं, सुकृति के पिता। मेरे  पति।" "सुकृति से बात करोगी?" "नहीं, उसे सोने दीजिए। पूरी रात रोई है। रिंकी उसकी गुड़िया चुराकर ले गई। अब मेरी साड़ी चुराएगी।"

उन्हें बहुत झल्लाहट हुई। लेकिन अपनी खीझ पर काबू किए वे प्रमिला को उसके कमरे की ओर ले गए। खाना लेने के लिए रसोई की तरफ मुड़े ही थे कि फिर फोन बजा। सुकृति ही थी।

"तुम्हें आज मां बहुत याद कर रही थी सुकु।"

"सचमुच पापा? उन्हें याद था? मेहा और समीर के बारे में भी पूछ रही थीं?"

"नहीं बेटा। तुम्हारा बचपन याद कर रही थीं।"

"ओ। लॉन्ग टर्म मेमोरी लैप्स। नहीं पापा?"

"हां, लेकिन कम-से-कम वो चल-फिर पा रही है। मैं तो सोचता हूं धीरे-धीरे जब पूरी तरह बिस्तर पर पड़ जाएगी तो क्या होगा?"

"मैं आ जाऊंगी पापा। बस कुछ दिन और। मेहा को हॉस्टल में डाल दूंगी। समीर और मैं दिल्ली शिफ्ट कर जाएंगे। बट पापा, यू अमेज़ मी। आपने कितनी लगन से मां की सेवा की है। कर भी रहे हैं। आप कितना थक जाते होंगे।"

"थकता तो हूं बेटा। कभी-कभी तुम औरतों की तरह जीभर कर रो भी लेना चाहता हूं। लेकिन मेरे टूटने से क्या संभलेगा? जब टूटने लगता हूं, वो चालीस साल याद करता हूं जो तुम्हारी मां ने हमें दिए। बिना शिकायत। मैं फील्ड में रहा तो वो सबकुछ अकेले संभालते रही। तुम्हें, मेरी मां के कैंसर को, खुद को। उसने एक दिन भी मुझसे शिकायत नहीं की। जब बिना बताए मैं दोस्तों की भीड़ को पार्टी के लिए अपने घर लाता रहा, वो मुस्कुराकर सबका स्वागत करती रही। मुझे कई ऐसे दिन अब याद आते हैं जब मैंने उसे तकलीफ पहुंचाई होगी, उससे ऐसी अपेक्षाएं की होंगी जो उचित नहीं थीं। तो ये समझ लो बेटा कि उसकी बीमारी में मेरी ये सेवा मेरा प्रायश्चित है, बल्कि मेरे लिए मेरे रि़डेम्पशन, मेरी मुक्ति का एक रास्ता है।"

"आई लव यू पापा। आई रियली डू। ईश्वर आपको शक्ति दें।"

"और तुम्हें भी। बाय बेटा।"

फोन रखकर वे फिर बेडरूम में आ गए, दो प्लेटों में खाना डालकर। प्रमिला सो चुकी थी। खिड़की के पर्दे अब भी समेटकर एक कोने में डाले हुए थे। बाहर से आती चांदनी पूरे कमरे को हल्की-हल्की खुशनुमा रौशनी से भर रही थी। प्लेट में डाले हुए राजमे की खुशबू उनकी भूख को औऱ बढ़ा रही थी लेकिन प्रमिला को गहरी नींद में देखकर वो प्लेट लेकर वापस रसोई की ओर चले गए। कुछ ना सूझा तो टहलने के इरादे से पैरों में जूते डालकर वो पिछले दरवाज़े से सर्वेन्ट क्वार्टर की ओर निकल आए। ड्राइवर मुकेश के क्वार्टर के बाहर से ही प्रमिला की आवाज़ पर ध्यान देने के लिए बोलकर वे मेन गेट से बाहर निकलकर सड़क पर आ गए। जलवायु विहार के इन सारे बंग्लों और अपार्टमेंटों में फौजी अफसर और उनके परिवार ही रहते थे जिनमें ज्यादातर रिटायर हो चुके थे। बाईं ओर रहनेवाले ग्रुप कैप्टन माथुर, दाईं ओर कॉमोडोर मिश्रा, सड़क के दूसरी ओर विंग कमांडर जोशी और कैप्टन परेरा - ये सब उनके साथी थे। शाम को क्लब में ब्रिज खेलना, सुबह टहलने के लिए निकलना, दोपहर में गप-शप के दौरान 1965 और 1971 युद्ध के किस्से बांटना - रिटारमेंट के बाद की इस ज़िन्दगी से उन्हें कोई शिकायत नहीं थी।

प्रमिला की बीमारी के बाद साथियों से मिलना-जुलना कम होता गया और फिर तो वे उनसे मिलने से पूरी तरह बचने लगे। कई बार सवालों का जवाब देना मुश्किल हो जाता। क्या मिसेज कश्यप आपको भी नहीं पहचानतीं, अल्ज़ाइमर्स के क्या-क्या लक्षण हैं, खाना कौन बनाता होगा, कपड़े कौन धोता होगा, आप बेटी के पास क्यों नहीं चले जाते, बेटी क्यों नहीं आती, वगैरह वगैरह। आज भी दूर से ही उन्होंने कॉमोडोर मिश्रा को अपनी पत्नी के साथ सामने से आता देख लिया और बिना सोचे-समझे वापस मुड़ गए। बेवजह वे अपना मूड और खराब नहीं करना चाहते थे। जितनी तेज़ी से वे मेन गेट से निकले थे, उतनी ही तेज़ी से अंदर घुसकर उन्होंने खट से कुंडी बंद कर ली और पिछले दरवाज़े से ही घर के अंदर चले आए।
सर्वेन्ट्स क्वार्टर के दरवाज़े पर ही मुकेश की बीवी अपने ढाई साल के बेटे के साथ बैठी थी। बड़ी जल्दी आ गए पापाजी?” मुकेश और मुकेश की बीवी उन्हें शुरू से ही पापाजी और प्रमिला को मम्मीजी बुलाते थे। बाकी रिटायर्ड अफसरों की तरह उनके यहां साहब-मेमसाहब बुलाने का चलन नहीं था। प्रमिला का जोड़ा हुआ यही अपनापन उनके मुश्किल दिनों का इकलौता सहारा था। अपने साथियों से बच के लौट आने के मकसद से अंदर आए तो थे, लेकिन दिल का बोझ बांटने के लिए वो वहीं बैठ गए, मुकेश के कमरे के बाहर।
पापजी, खाना खाए थे? हम राजमा बना दिए थे, मुकेश की बीवी को इसके अलावा कुछ पूछना नहीं सूझा। 
खा लेंगे बेटा। तुम्हारी मम्मीजी सो रही हैं, ये कहते हुए उन्होंने मुकेश के बेटे को गोद में लेने के लिए हाथ बढ़ा दिया। बच्चा गोद में आकर जेब में लगी उनकी कलम से खेलने लगा। इसको डॉक्टर बनाना बिटिया। जाने क्यों उन्होंने मुकेश की बीवी से ये कह दिया। वो बेचारी अपने दाहिने पैर के अंगूठे से फर्श पर चांद-जैसा कुछ बनाती रही। उन्हें तुरंत अपनी गलती का अहसास हो गया। वो किसपर अपनी अपेक्षाओं का बोझ डालने चले थे! फिर भी उन्होंने कहा, चंदू को तो डॉक्टर हम बनाएंगे। जब हमारे दांत झड़ जाएंगे और हम थोड़े और बूढ़े हो जाएंगे तो चंदू हमें सूई देकर ठीक करेगा, है ना चंदू?” उनकी इस बात पर बच्चा खिलखिलाकर हंस पड़ा। मुकेश की बीवी के चेहरे पर भी एक हल्की-सी मुस्कुराहट तैर गई। मुकेश को सुबह उनके पास भेजने की बात कर वे घर के भीतर चले गए।
प्रमिला अब भी सो रही थी लेकिन उन्होंने आगे बढ़कर जगाने के लिए आवाज़ दी। एक आवाज़ में ही प्रमिला की आंखें खुल गईं। "खाना लाता हूं, फिर मत सो जाना।" प्रमिला ने इस बात पर कोई प्रतिक्रिया ज़ाहिर नहीं की। वो गए, खाने की प्लेटें बारी-बारी से माइक्रोवेव में डालकर गरम किया, और गर्म तश्तरियां ही बेडरूम में ले आए।

"ये मुकेश की बीवी खाना ठीक-ठाक ही बना लेती है। लेकिन आजतक किसी ने वैसा राजमा नहीं खिलाया जैसा तुम बनाती हो।" उन्होंने हंसते हुए कहा।

प्रमिला को उनकी कोई बात समझ में नहीं आई। "चाय चुराई है, अब साड़ी चुराएगी" का रिकॉर्ड फिर शुरू हो गया। वे उठकर प्रमिला के बगल में आ गए, हाथ में खाने की प्लेट लिए हुए। रोटी और राजमा का एक-एक गस्सा धीरे-धीरे वे प्रमिला के मुंह में डालते रहे और उनसे बातें करते रहे। "मैंने तुमसे कभी नहीं कहा पम्मी, अब कहता हूं। तुममें बहुत धैर्य था। तुम मुझे झेलती कैसे थी? कैसे इतना अपमान सह लेती थी? याद है, एक बार तुमने इसी राजमे में नमक नहीं डाला था तो मैंने पूरा भगोन डाइनिंग हॉल की फर्श पर फेंक दिया था? लेकिन उस शाम फिर भी तुम मेरे साथ मुस्कुराती हुई क्लब आई थी। फिर भी तुमने मेरे वीएसएम के पदक मिलने का जश्न मनाया था। ये समझते हुए भी कि ये विशिष्ट व्यक्ति तुम्हें अपमानित करने के कोई बहाने नहीं छोड़ता।"

प्रमिला मुंह में आनेवाले खाने को धीरे-धीरे चबाती रही, उनकी ओर देखती रही, जैसे सब समझना चाहती हो। उन्होंने बोलना बंद नहीं किया। "हमारे बेटे को तुम डॉक्टर बनाना चाहती थी, मैंने फौज में भेजने की ज़िद की। तुमने फिर मेरे आगे हार मान ली। काश तुमने ज़िद की होती। काश तुम मुझसे लड़ती, झगड़ती। हमारा बेटा ज़िंदा होता शायद। मिग ने मुझे छोड़ दिया, लेकिन हमारे बेटे को नहीं  बख्शा। काश मैंने तुम्हारी बात मान ली होती। उस डॉक्टर बेटे की ज़रूरत आज सबसे ज़्यादा मुझे है पम्मी।" इतना कहकर वे फूट-फूटकर रोने लगे। इतने सालों में पहली बार वो कमज़ोर पड़े थे, वो भी प्रमिला के सामने।

शायद पति की बातों का असर था कि प्रमिला ने उनके सामने से प्लेट हटाकर बिस्तर के बगलवाली टेबल पर रख दिया। बिना पानी पिए ही वो आंखें मूंदकर लेट गई। वे भी वहीं प्रमिला के बगल में लेट गए। आज जाने क्यों उन्हें लगा कि उन्हें नींद इसी कमरे में आएगी, प्रमिला के बगल में। वरना तो दोनों के बेडरूम सालों पहले ही अलग हो गए थे। थोड़ी देर में उन्हें नींद आ गई थी।

सुबह देर तक जब उन्होंने पीछे का दरवाज़ा नहीं खोला तो मुकेश की बीवी बगल से ग्रुप कैप्टन माथुर को बुला लाई। मुकेश ने पिछले दरवाज़े का शीशा तोड़कर कुंडी भीतर से खोलने की कोशिश की। थोड़ी-सी मेहनत के बाद दरवाज़ा खुल गया। तबतक ग्रुप कैप्टन माथुर ने अपने दूसरे पड़ोसियों को भी फोन करके बुला लिया था। जब सब बेडरूम में पहुंचे तो कुछ नहीं बदला था - नबंबर की धूप वैसे ही पर्दों के पार से कमरे में आ रही थी, ग्रिल की काली-गहरी परछाई वैसे ही फर्श पर बिखरी हुई थी, प्रमिला खोई-खोई सी वैसे ही पंखे को देख रही थी। लेकिन एयर कॉमो़डोर वीडी कश्यप का रिडेम्पशन पूरा हो चुका था। उन्हें मुक्ति मिल गई थी।