शनिवार, 2 मई 2015

भटकना बेसबब, रिपोर्ट काठमांडू से


एयर इंडिया की जिस फ्लाईट में मैं हूं, उसमें तीन तरह के लोग हैं – अपने घर की ओर जा रहे नेपाली नागरिक, देशी-विदेशी राहत एजेंसियों के लोग और पत्रकार। काठमांडू जाने की कोई और चौथी वजह नहीं हो सकती। काठमांडू के रनवे पर क्रैक की ख़बर आई है, इसलिए विमान में बिठा दिए जाने के बाद भी हमें रोक दिया गया है। हम ये भी नहीं जानते कि अगले दो घंटे में हम काठमांडू में होंगे या नहीं।

मेरी बगल की सीट पर बैठे बुज़ुर्ग की आँखें जितनी ही ख़ामोशी से दुआ में बंद हैं, उतना ही ऊंचा शोर उंगलियां प्रेयर बीड्स पर मचा रही हैं। हिम्मत नहीं हो रही पूछने की, सब भूकंप में चला गया या बाकी भी है कुछ?


काठमांडू में उतरते ही जो बाकी रह गया, वो दिखने लगता है। चारों ओर राहत का सामान बिखरा पड़ा है। एक कार्गो विमान अभी-अभी उतरा है। कोई नाम नहीं लिखा, इसलिए बताना मुश्किल है, लेकिन राहत सामग्री पर रेड क्रॉस के लेबल चिपके हैं। अलग-अलग देशों की सेना के विमान हैं। भारतीय वायुसेना के भी। सब अपने-अपने घेरों में सामान उतार रहे हैं। कन्वेयर बेल्ट पर भी काग़ज़ के गत्तों और कार्टूनों में लिपटे सामान दिखाई देते हैं – दवाएं, मच्छरदानियां, स्लीपिंग बैग्स। चार दिन पहले आए भूकंप की वीरानी हर कोने में पसरी है। एयरपोर्ट पर नेपाली कस्टम अधिकारी कम हैं, अलग-अलग देशों और राहत एजेंसियों के डेस्क ज़्यादा हैं।


आज काम पर लौटा हूं। कहीं मन नहीं लग रहा। मेरा घर भक्तापुर में है। उधर सब खतम हो गया। पूरा घर गिर गया। मां बीमार है। बेटी उधर तराई में है। बार-बार फोन करके पूछती है कि कैसा है हमलोग। उसको क्या बोलेंगे? क्या बताएंगे? समझ में ही नहीं आ रहा करें क्या... सब खतम हो गया, मुझे लेने पहुँचे ड्राईवर कुमार भगत ने मेरे एक सवाल के जवाब में इतनी लंबी बात कह डाली है।


एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही धँसी हुई सड़क है। भूकंप की वजह से, ड्राईवर बताता है। शहर की तासीर में एक अजीब-सी बेचैनी घुली है। गाड़ियों पर लदे ढेर सारे लोग हैं। मुमकिन है मेरा वहम है, लेकिन सब भागते दिखाई दे रहे हैं।


न्यू बानेश्वर तक पहुंचते-पहुंचते वहम यकीन में बदल जाता है। कई किलोमीटर लंबी कतार में अपने अपने सामान के साथ खड़े लोग वाकई काठमांडू से भाग रहे हैं – तराई की ओर, अपने गांवों की ओर, हिंदुस्तान की ओर... अख़बारों में छपे आंकड़े बताते हैं कि तकरीबन चार लाख लोग राजधानी छोड़कर जा चुके हैं।


शहर में जगह जगह गिरी इमारतों को देखकर लगता है कि इंसानों के साथ-साथ इंसानों की बनाई दुनिया की भी अपनी-अपनी किस्मत होती है। एक जगह एक घर पूरा का पूरा ढहा पड़ा है तो उसके ठीक बगल वाली इमारत साबुत खड़ी है। यूं लगता है कि जैसे कुदरत ने बच्चों का खेल खेला। जहां गिर पड़ा, वहां अपना हथौड़ा चलने दिया।


आर्मी बेस रिलीफ़ कैंप


शहर के ठीक बीचोंबीच बने इस राहत शिविर में घुसते ही एक वैन दिखाई देता है। प्लास्टिक बोतलों में पीने का पानी बांटा जा रहा है। कॉलेज के कुछ बच्चे हाथों में केले और पानी बोतलें लिए तंबुओं के बाहर खेलते बच्चों को बांट रहे हैं। किरण गौतम अपने पूरे परिवार के साथ यहां है। लगन में जिस तीन-मंज़िला मकान को बनाने में दो पीढ़ियां लग गईं, उस मकान को ढहने में ठीक एक मिनट का वक्त लगा। टेंट के बाहर किरण का चार साल का पोता खेल रहा है। घर के बाकी लोग यूं ही इधर-उधर लेटे हुए हैं। किसी से कुछ भी पूछना बेकार है। वो बताएंगे क्या, मैं पूछूंगी क्या। भूकंप ने जान बख़्श दी तो रही-सही उम्मीद ज़िन्दगी बख़्श ही देगी।       


धरहरा स्मारक


विकास शर्मा की दुकान है धरहरा से दस कदम दूर। हिलती हुई इमारत गिरी तो दूसरी ओर। जिन घरों और दुकानों पर इमारत गिरी, उनका क्या हुआ होगा, ये विकास न भी बताएं तो इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं। धरहरा के आस-पास की दुकानें खुल गई हैं। जो मकान बच गए हैं, उनमें ज़िन्दगी का कारोबार शुरू हो गया है। पांच दिन पहले तक सैलानी दो सौ दस फ़ीट ऊँचे इस टावर पर चढ़कर काठमांडू घाटी का नज़ारा देखने आया करते थे। अब गिरे हुए टावर को देखने के लिए भीड़ जमा है, वो भी इस कदर कि बाहर तक की सड़कों पर जाम लग गया है।   


काष्टमंडप और बसंतपुर दरबार स्कावयर  


लकड़ी के बने जिस मंडप के नाम पर काठमांडू का नाम पड़ा, वो मंडप, राजा के पुराने महल और मंदिर धराशायी पड़े हैं। काष्टमंडप के आंगन में धंसी हुई इमारत से थोड़ी दूर लोग तंबुओं में रह रहे हैं। इलाके की सफाई करने के लिए नेपाली पुलिस और सेना की मदद के लिए सैंकड़ों वॉलेंटियर जुट गए हैं। ईटें और लकड़ी के टुकड़े साफ किए जा रहे हैं। धीरे-धीरे जगह साफ करना मुमकिन है, इन ऐतिहासिक इमारतों को वापस खड़ा करना नामुमकिन।  


गन्गाभू


न्यू बस पार्क से थोड़ी दूर एक गली में गेस्ट हाउस के बाहर भारी भीड़ जमा है। अमेरिकी बचावकर्मी नेपाली सेना के साथ अभी भी कुछ खोज रहे हैं। भीड़ हटने के नाम नहीं लेती। उम्मीद बाकी है कि पांच दिन के बाद भी मलबे में फँसा एक आदमी ज़िंदा निकाला जा सकेगा। उम्मीद नामुमिकन पर भारी पड़ी है। १४४ घंटे के बाद भी ज़िंदा निकला है एक आदमी यहां से। भीड़ तालियों से उसका स्वागत करती है। दूर से इस चमत्कार की तस्वीर नहीं खिंची जा सकती, लेकिन एंबुलेंस की तस्वीर सैंकड़ों लोग अपने अपने मोबाइल कैमरों में क़ैद कर रहे हैं। 


स्वयंभू मंदिर  


पहाड़ के ऊपर बने इस बौद्ध मंदिर से पूरा काठमांडू दिखता है। मंदिर में विदेशी सैलानियों की एक छोटी सी टुकड़ी अभी भी मौजूद है। वे मंदिर देखने नहीं आए, मंदिर को पहुंची क्षति को देखने आए हैं। ऊपर पहाड़ पर मंदिर के आस-पास दो सौ से ज़्यादा लोग रहते थे। उनकी आमदनी का ज़रिया मंदिर ही था। उर्मिला का मकान और दुकान – दोनों मंदिर के पास था। दोनों में से कुछ भी नहीं बचा। जिस ईश्वर ने कहर ढाया, उसी ईश्वर के टूटे-फूटे आंगन में उर्मिला और उसके बच्चों ने शरण ली है। ऊपर से बोरों में भरकर ज़रूरत का सामान टूटे हुए घर से नीचे लाने की नामुमकिन कोशिश जारी है। खाना सब साथ मिलकर मंदिर में ही बना रहे हैं। पेट किसी तरह भर रहा है, भरा हुआ दिल भर किसी सूरत में खाली नहीं होता।  


सीतापायला


स्वंयभू से आते हुए मेन रोड पर ही गिरे हुए मकान दिखते हैं। उधर से गुज़रने वाली बसें और गाड़ियां भी अपनी रफ़्तार धीमी कर लेती हैं, जैसे शोक में हों। दूसरी ओर नेपाली सेना की एक टुकड़ी का जमावड़ा लगा है, लेकिन जवान किनारे खड़े हैं। और जगहों की तरह कोई मलबे में से कुछ भी खोजने की कोशिश नहीं कर रहा। कुछ लोग ज़रूर सामान ढूंढने की नाकाम कोशिश कर रहे हैं। कहीं से टूटा हुए चूल्हा झांक रहा है तो कहीं से टूटी हुई चप्पलें। मलबे से इतनी तीखी दुर्गंध आ रही है कि एक पल के लिए भी खड़े रहना मुश्किल है। इन चार मंज़िला इमारतों में से ३९ लाशें निकाली गईं। जो ज़िंदा बचा रह गया, उसके लिए कुछ भी बाकी नहीं रहा। 


पशुपति मंदिर


बागमती के किनारे जलती लाशों को देखकर ज़िन्दगी के सारे दुख छोटे लगते हैं। तीन दिन पहले तक यहां सैंकड़ों लाशें एक साथ जल रही थीं। आठ चिताएं अभी भी सुलग रही हैं। मरने वाले शायद भूकंप पीड़ित न हों, लेकिन उनकी मौत का मुकर्रर वक्त मुश्किल साबित हुआ है। लकड़ियां अभी भी मुश्किल से मिलती हैं। जो मिलती भी हैं, बारिश की वजह से गीली पड़ी हैं। जो शरीर बेजान हो गया, उसे किसी सूरत में संभाला नहीं जा सकता। इसलिए हर हाल में चिताएं सजा ही जाती हैं। मौत किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं करती। जो ज़िंदा हैं, वे करते हैं। यहां घाट भी दो हैं – एक वीआईपी घाट और दूसरा आम जनता के लिए। कौन जाने कि भूकंप ने पूछकर जानें लीं या नहीं। मंदिर में भीड़ नहीं है। अपने ही तांडव से पाशुपति अपने घर के कुछ हिस्से भी नहीं बचा पाए वैसे। मुख्य मंदिर सुरक्षित है, लेकिन भूकंप का असर वृद्धाश्रम और बाहर की इमारतों पर साफ दिखाई पड़ रहा है।    


सड़क पर स्टूडियो


कांतिपुर टीवी का न्यूज़रूम इन दिनों सड़क पर से चल रहा है। पूछताछ करने पर मालूम चलता है कि दफ्तर की इमारत के गिरने का डर था, इसलिए स्टूडियो और न्यूज़रूम सड़क पर एक तंबू में डाल दिया गया। हालांकि कांतिपुर पब्लिकेशन्स के लोग अभी भी उसी दफ्तर से काम कर रहे हैं। टीवी ड्रामा ढूंढता है, और सड़क पर स्टूडियो ले आने से बड़ा ड्रामा और क्या होता? इंसान हर सूरत में तिजारत के बहाने निकाल ही लेता है। 


जीना यहां, मरना यहां


नेपाल रेड क्रॉस के दफ्तर में गाड़ियों और लोगों का हुजूम जुट रहा है। पूरी दुनिया से रेड क्रॉस प्रतिनिधि पहुंच रहे हैं यहां। दफ्तर के भीतर एक रजिस्ट्रेशन डेस्क पर वॉलेंटियर की भीड़ जुटी है। अशोक महरजान अपने परिवार के २२ लोगों को लेकर पहुँचे हैं यहां, वॉलेंटियर करने के लिए। सोलह से लेकर पचास तक की उम्र के लोग हैं। सबके घर टूट गए। शुरू के चार दिन अपने आप को संभालने में लग गए। घर का ज़रूरी सामान जमाकर राहत शिविर में पहुंचाया जा चुका है तो अब परिवार निश्चिंत होकर दूसरों की मदद के लिए यहां पहुंचा है। मानवता के नाते यहां आए हैं। आखिर तो हम सब मुसीबत में हैं। पूरा देश मुसीबत में है, अशोक इतना ही कहते हैं और वापस अपनी बेटी और भांजे के साथ कतार में लगकर ट्रकों में से राहत सामग्री के डिब्बे उतारने में लग जाते हैं। जो ज़िन्दगी बची रह गई, वो किसी के काम आ सके – बस इसी की ख़ातिर।


नोट – काठमांडू में भूकंप से कुल 1,039 मौत हुई है। पिछले पांच दिनों में चार लाख से ज़्यादा लोग काठमांडू छोड़कर जा चुके हैं। पानी की बोतल अब भी दस रुपए में ही मिल रही है, और होटलों में जो भी खाने को मिलता है, उसकी कीमत अभी तक नहीं बढ़ी। जब भूकंप ने पक्षपात किया, तो इंसान भी कैसे बाज़ आता? ये काठमांडू का सुरक्षित इलाका है, जहां ज़िन्दगी अपनी गति पकड़ने लगी है। काठमांडू में कई प्रभावित इलाके ऐसे हैं जहां पीने के पानी, खाने, टॉयलेट और मूलभूत स्वास्थ्य सुविधाओं की सख़्त ज़रूरत है।    


( ये रिपोर्ट सबसे पहले www.satyagrah.com पर प्रकाशित हुई।)