रविवार, 26 मई 2013

दिल तेरा ना जोगी बलिए, दिल तेरा संसारी

हम सुबह से पांच बार बात कर चुके हैं। ऐसा ही होता है हमारे बीच। या तो हम बीसियों दिन एक-दूसरे से बात नहीं करते या फिर हम एक घंटे में कई बार घंटों बतियाते हैं। छोटा भाई सिंह और मैं ऐसे ही हैं बस। (अब मैं यहां ये बता दूं कि एक तत्काल टिकट के चक्कर में हमने सुबह से पांच बार बात की, और उस बीच में पांच-आठ जोक्स भी बांट लिए तो भाई नाराज़ हो जाएगा। कहेगा, क्या दीदी, पब्लिक फ़ोरम में भी... अब तुम हमको अपना ऑफ़शियल टिकटिंग एजेंट डिक्लेयर कर ही दो।) 

मुद्दा ये नहीं कि भाई टिकट कराता है, या हर बार ऐसी किसी मुश्किल घड़ी में मैं उसे ही फ़ोन करती हूं। मुद्दा ये है कि एक उसी पर भरोसा है कि बिना धैर्य खोए वो बात सुनेगा, बिना सवाल पूछे हल ढूंढेगा और जब तक मांगो नहीं, मशविरा नहीं देगा। वो बोलता नहीं। सुनता है बस। सुनता रहता है। गुनता रहता है। ख़ून के रिश्तों में बोलने का कम और सुनने का रिश्ता ज़्यादा बाकी रहे तो ख़ून में कड़वाहट के घुलने की गुंजाईश कम रहती है।

बहरहाल, मुझे ये नहीं लिखना था। मुझे तो भाई की कहानी लिखनी थी।

आज सुबह-सुबह एक प्रॉब्लम दे मारा था उसके माथे। मैंने कहा उससे, मुझसे लिखा नहीं जा रहा। आई डोन्ट नो व्हॉट टू राईट।

तुम मेरी कहानी लिखो न, उसके पास हमेशा की तरह इस बार भी प्रॉब्लम का आसान-सा दिखने वाला सॉल्युशन था।

कहानी क्यों, तुम्हारे बारे में ही लिखती हूं न, मैंने कहा।

ये भाई की बात हो सकती है। ये किसी की भी बात हो सकती है जिसने अभी-अभी तीस के दशक में पहला क़दम रखा है।

भाई हर लिहाज़ से यूथ रोल मॉडल है। पूरे बचपन लफंगई की। जमकर टीवी देखा, शरारतें की, भागकर फिल्में देखी। क्रिकेट के मैदान पर दो-एक के हाथ-पैर भी तोड़ें हों तो मुझे हैरानी नहीं होगी। दसवीं के इम्तिहान दिए और उसके नंबर देखकर हमारा मुंह खुला का खुला रह गया। बिना एक अक्षर पढ़े भी कोई अस्सी के ऊपर जाता है भला? वो पढ़ता कब था? वो तो... ख़ैर...

पब्लिक ने कहा, साइंस लो, पैरवी से किसी न किसी इंजीनियरिंग कॉलेज में दाख़िला करवा देंगे।

भाई ने दिखाया अंगूठा और चुपचाप जाकर कॉमर्स में एडमिशन ले लिया।

पब्लिक ने कहा, बाबू पढ़ोगे-लिखोगे नहीं तो यहीं रांची में चौक पर बैठकर पान-बीड़ी बेचना।

भाई ने पूछा, कितने नंबर लाऊंगा तो रांची से बाहर भेजोगे?

पब्लिक ने कहा, कम-से-कम एटी पर्सेंट।

भाई ने बारहवीं में उतना ही लाकर दिखाया - न एक नंबर कम, न एक नंबर ज़्यादा। लो जी, तुम्हारी बात भी रह गई, हमारे इम्प्रेशन पर भी आंच न आई।

रांची से आधी जनता या तो दिल्ली आती है या फिर पुणे जाती है आर्ट्स या कॉमर्स पढ़ने। भाई ने कहा, जी हम तो बंगलोर जाएंगे। बंगलोर? वहां तक सीधी ट्रेन भी नहीं जाती। कोई बात नहीं, हम टेढ़ी ले लेंगे। सत्रह साल के छोटा भाई सिंह ने सामान बांधा और पहुंच गए चेन्नई होते हुए बंगलोर... वो भी अकेले, पता नहीं किस कॉलेज में बी.कॉम. में दाख़िला कराने। बड़ी बहन एलएसआर और बड़ा भाई आईआईटी के नाम की वाहवाहियां लूटते हैं तो लूटा करें। भाई सिंह ने किसी महावीर जैन कॉलेज में एडमिशन कराते हुए हमें हार्ट अटैक दिलवाया। ये और बात है कि उसके पास करते न करते तक जैन कॉलेज ने कम-से-कम इंडिया टुडे सर्वे में अपनी जगह बना ली थी। (हम सो-कॉल्ड स्यूडो इंस्टीट्यूशनलाइज्ड इलीट्स के लिए वो सर्वे एक ज़रूरी पैमाना हुआ करता था, यू सी)।

हम बड़े भाई-बहन अभी सोच ही रहे थे कि अभी नौकरी करें कि आगे की पढ़ाई तबतक छोटे भाई सिंह ने नौकरी कर ली। कॉलेज से प्लेसमेंट हुआ - बी.कॉम. का रिज़ल्ट निकलना बाकी था अभी और उम्र थी कुल बीस साल। (बाई द वे, भाई मुझसे चार साल दो महीने और अपने बड़े भाई से दो साल दस महीने छोटा है)

मैं सोच रही हूं और हैरान हो रही हूं कि बीस साल की उम्र से उसने कितनी मेहनत की होगी। वो हम तीनों में सबसे बेफ़िक्र था। छोटा था इसलिए उसमें बेपरवाही कूट-कूटकर भरी थी। उसमें सबसे पहले समझदारी आई। यूं तो हम दोनों भाई-बहन झक्की और पागल किस्म के हैं (मुझे आप यहां देख ही रहे हैं और मेरे दूसरे भाई का परिचय ये है कि वो आईआईटी का इंजीनियर होकर द वायरल फ़ीवर की टीम के साथ क्युटीयापा करता रहता है, जिसके बारे में कभी और लिखूंगी), लेकिन ज़िन्दगी को लेकर हमसे ज़्यादा ख़तरनाक प्रयोग हमारे सबसे छोटे भाई ने किए, वो भी उस उम्र में जब हम लोग सिगरेट के छल्लों और बीयर की बोतलों में घर से आए हुए पैसे उड़ाना अपनी शान समझते हैं।

हममें से कोई नहीं जानता कि उसने अपनी तरफ़ से नया बिज़नेस करने की कोशिश कैसे की, कर्ज़े कहां से लिए, मुंह के बल गिरा तो कर्ज़ चुकाए कैसे। हममें से कोई नहीं जानता कि धूप में घूम-घूमकर उसने बैंगलोर में सस्ती ज़मीन के बारे में कैसे पता किया, पापा को कैसे मनाया और कहां से लाकर उस ज़मीन में पैसे लगाए। हम ये भी नहीं जानते कि बाईस-तेईस साल की उम्र के नादान लड़के के साथ प्रॉपर्टी डीलर ने फ्रॉड किया या वाकई उस ज़मीन का अधिग्रहण रद्द हो गया। हम ये भी नहीं जानते कि उस डील में छोटा भाई सिंह के कितने रुपए डूबे। जब वो ये सब कर रहा था, हम अपने-अपने संघर्षों में व्यस्त थे। हालांकि कोई संघर्ष बड़ा या छोटा नहीं होता, लेकिन फिर भी हमारा संघर्ष हमारी उम्र के हिसाब से जायज़ रहा होगा, उसका नहीं था। हम ये भी नहीं जानते कि उसने रात-रात जगकर कैसे तैयारी की और आईआईएम में दाख़िला लिया कैसे, या फिर वो कोर्स कैसे ख़त्म किया। मुझे ये सोचकर हैरानी होती है कि जिसे पढ़ने की आदत थी नहीं, जिसे लिखने से सख़्त नफ़रत थे, वो कई पन्नों के प्रोपोज़ल्स और प्रेज़ेन्टेशन्स कैसे तैयार करता होगा।

मैं क्या लिखना चाहती थी, मैं क्या लिखने लगी हूं।

हम सब संघर्ष करते हैं और ज़िन्दगी किसी की आसान नहीं होती। ज़िन्दगी है तो जद्दोज़ेहद होगी ही, उतार-चढ़ाव होगा ही। इंसान के चरित्र की पहचान उसके मुश्किल दिनों में होती है। गिरते हुए, चोट खाते हुए, लगातार असफल होते हुए हमारा जज्बा कैसा रहता है, हमारा चरित्र उससे तय होता है।

गिफ्टी सिंह, ईएमआई का रोना सब रोते हैं। सबको महीने के आख़िर में बिल्स चुकाने होते हैं। सबकी ख़्वाहिशें सुरसा का मुंह होती हैं लेकिन हम पवनकुमार नहीं। सबके पास अपने सपने हैं। हम सब पहाड़ों पर जाकर उगती सुबहों और डूबती शामों की धुंध में मुंह छुपाने की ख़्वाहिश के दम पर महानगरों की कई तकलीफ़़देह गर्मियां, कई कंटीली सर्दियां काट देते हैं। कुरेदकर देखो तो हर रिश्ते की पर्तों पर गर्द जमी होती है। सोचो तो हर सपना मरता हुआ लगता है। इसलिए तुम्हारी कहानी में, तुम्हारी ज़िन्दगी में कुछ भी आउटस्टैंडिंग नहीं। बस तुम आउटस्टैंडिंग हो।

अपने घर की बालकनी पर खड़े होकर आउटर रिंग रोड को देखते हुए एक बार फास्ट-फॉरवर्ड मोड में पिछले एक दशक को फ्लैशबैक के रूप में आंखों के सामने से होकर गुज़र जाने देना। बहुत सारी बेचैनी कम हो जाएगी। मैं तीस की थी तो डेढ़ करोड़ का घर खरीदने की औकात नहीं रखती थी। साठ की हो जाऊंगी तब भी नहीं होगी। मैं तीस साल की थी तो तीन साल के भीतर बीस देशों के चालीस चक्कर लगाने का रुतबा मुझे हासिल नहीं हुआ था। अगले तीस जन्म में भी होगा, मुझे शक है। मैं तीस की थी तो ऑडी क्यू फाईव का नाम तक नहीं सुना था, इस टाईप की किसी गाड़ी की फोटो भी देखी हो कहीं, शक है मुझे। तुम तो ये गाड़ी खरीदने की बात कर रहे हो।

हम अपने लिए कई पैमाने तय कर लेते हैं। कंपार्ममेंट्स में डाल देते हैं ज़िन्दगी। बीस से तीस के बीच इतना। तीस से चालीस के बीच इतना और चालीस से पचास के बीच बाकी सबकुछ। हम ख़ुशकिस्मत हैं कि इतनी प्लानिंग कर सकते हैं। हम चिल्ड्रेन ऑफ ए बिगर गॉड हैं कि इनमें से कई प्लान्स पूरे भी हो जाते हैं। लेकिन प्लान पूरे न भी हों तो ज़िन्दगी पर यकीन कम नहीं होता। ज़िन्दगी जो भी रूख़ लेती है, हमारे हक़ में लेती है। ये तुमसे बेहतर कौन जानता होगा? ये ज़िन्दगी हमारी अपनी चुनी हुई है। ये फ़ैसले हमारे अपने किए हुए हैं, इसलिए इनपर फ़ख़्र करने का हक़ भी हम एक ख़ुद को ही देंगे। हम ज़िन्दगी को अपनी शर्तों में जिएंगे और याद रखना कि इस दुनिया के होते हुए भी इस दुनिया से बेज़ार लफंगों की तरह जीना वो तरीका है जो तुमने और हमने अपने लिए अपने बचपन में ही ईजाद कर लिया था। 

इसलिए इस संसारी दिल का रोना नहीं रोते हैं भाई, और ऊपरवाला जो दे रहा है, दोनों हाथों से लोक लेते हैं। (लोकना, यू रिमेम्बर? द लोकना एंड ऑल?) सपने कभी मरते नहीं हैं। सपने मन की मिट्टी में दबे हुए ख़ामोश पड़े रहते हैं। सिर्फ़ हिम्मत की फ़ुहार की तलाश में होते हैं - उस एक लम्हे की तलाश में कि जब हिम्मत की बारिश मन की मिट्टी को गीली करेगी, सपनों के बीज फूटेंगे और ईनोवेशन का पहला अंकुर फूटेगा। बीज बचाए रखो। बारिश होगी कभी न कभी। हम गंगा के मैदान के बाशिंदे हैं और मेहनत की उपज में यकीन करते हैँ।  बाकी, दुनिया की औनी-पौनी रस्में निभाते रहो और मस्त रहो। ये गाना सुनो मेरी तरफ़ से, प्रीतम के म्युज़िक को एन्जॉय करो और संसारी दिल के धड़कते रहने का जश्न मनाओ।


लव यू, छोटा भाई सिंह। 



 




 

मंगलवार, 21 मई 2013

तरक्की चाहे परिवार की हो या समाज की, कीमत वसूलती है


गर्मी की छुट्टी शुरू होते न होते हम गांव जाने की तैयारी करने लगते थे। हम रांची में रहते थे, बाबा-दादी के पास। पढ़ाई भी वहीं हुई और गांव था सीवान में, रांची से कुछ ५०० किलोमीटर दूर। गांव यानी पैतृक गांव। गांव यानी ननिहाल भी। ये और बात है कि हम वो चौथी पीढ़ी थे जो शहर में रह रहे थे (हमारा परदादा काम और रोज़ी की तलाश में पचास के दशक में ही कोलकाता जा चुके थे।) बावजूद इसके गांव से नाता नहीं छूटा। ये मानी हुई बात थी कि रिटायर होने के बाद हर पीढ़ी गांव ही आकर रहेगी – बड़े बाबा, बाबा, पापा, और फिर हम।

गांव तब सही मायने में गांव हुआ करता था। आम और लीची के बगीचे, खीरे और तरबूज के खेत, दाहा नदी का पानी और उसपर बना पुल, सुबह-सुबह दूर चक्की की आती आवाज़, तांगा, दुआर पर बंधे बैल और पशु-मवेशी, नेवले, सांप और मोर-मोरनियों वाला आंगन। तब सुबह का नाश्ता दही-चूड़ा होता, दिन का खाना दाल-भात और आलू-परवल की सब्ज़ी के साथ कच्चे आम की चटनी या फिर सतुआ और शाम को भुंजा या फिर गुड़-चना। गांव तब गांव ही होता था कि जब हम नदी से नहाकर घर लौटते तो उपधाईन काकी खाना बनाते-बनाते चार ठो उपदेश झाड़ देती – बबुनी, केस मुल्तानी माटी से धोअबू तो ढील ना होई (बाल मुल्तानी मिट्टी से धोने से जूं नहीं होगा) या फिर दही-बेसन के अबटन (उबटन) से रंग चिकन (साफ) होई। उपधाईन काकी को बोलने की आदत थी, हमको सुनकर अनसुना कर देने की। हम भर दुपहरिया जेठ की धूप में एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर बंदरों की तरह फांदते रहते। इस बात का पुख़्ता यकीन था कि कच्चा प्याज़ सतुआ के साथ खाए हैं, लू लगने का तो सवाल ही नहीं उठता।

गांव तब गांव ही था। रात होते न होते आंगन में खटिया डालकर भर रात ध्रुव तारा खोजते थे। तारे देखते हुए मन भर जाता था तो छोटी ईया कहानियां सुनाती थी – सात भाईयों की इकलौती बहन वाली, तोते में अपनी जान संभालकर रखने वाले भकऊआ (राक्षस) की, सिंदूर के पेड़ के नीचे अपने पति के विछोह में गीत गाती खिलमनिया की। कहानियों के मुकाबले गर्मी की रातें छोटी पड़तीं।
गांव तब गांव था कि टोला में शादी-बियाह होता तो लगता कि जैसे आंगन में बारात आई है। गाजा-खजुली, लड्डू-नमकीन के एक नाश्ते के डिब्बे के लिए कैसी-कैसी मशक्कत करनी पड़ती! तब घरातियों को नाश्ता थोड़े न मिलता था? गीत गाने वाली लड़कियां इस्पेसल थीं – एक्पेक्सन (एक्सेपश्न – अपवाद), सुनीता फुआ ने बताया था। उसी बहाने राम-जानकी बियाह के दो-चार गीत हम भी सीख लिए थे।

गांव तब गांव ही था, कसम से। मम्मी लोग गांव आने के चार किलोमीटर पहले से ही घूंघट काढ़ लेती थी। याद है हमको कि जून के महीने में किसी शादी में मटकोर के लिए जाना था और घर की सारी बहुओं ने बनारसी चादरें ओढ़ रखी थीं, घूंघट निकालने के लिए। तब बेटियों को दसवीं के बाद स्कूल जाने की इजाज़त नहीं थी, आस-पास कोई इंटर कॉलेज नहीं था इसलिए। और बेटियां पढ़कर करती भी क्या? पढ़ने का सौभाग्य सिर्फ हम जैसी शहरी लड़कियों को मिला – फ्रॉक और जीन्स पहनकर साइकिल चलाने का भी।

गांव बदल गया है, इतना कि पहचान में नहीं आता। अब बहुएं पर्दा नहीं करतीं (शुक्र है
!), बेटियां नज़दीक के गांवों में स्पोकेन इंग्लिश क्लास करने जाती हैं। जीन्स पहनना और साइकिल चलाना आम बात मानी जाती है। लेकिन दुआर पर पशु-पखेरू नहीं रहते। आंगन मिट्टी का नहीं रहा, सीमेंट का हो गया है। नदी का पानी सूख गया है। पास के चीनी मिल का सारा कचरा उसी में आता है, इसलिए। खेत बिक गए। बगीचे कट गए। अब रिटायरमेंट के बाद गांव जाकर बसने का इरादा भी कोई नहीं रखता। इतनी मेहनत कौन करे? शहरों में ज़िन्दगी आसान ठहरी। सच है कि तरक्की – चाहे परिवार की हो या पूरे समाज की – किसी न किसी रूप में कीमत वसूलती है। एक परिवार के रूप में हमारी तरक्की ने हमसे हमारा गांव छीन लिया है। 

(www.gaonconnection.com ke 25th edition ka column "Man ki baat" copied and pasted)