शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2014

ज़िन्दगी के गीतों पर भारी पड़ी मौत की ख़ामोश पुकार

मुझे याद नहीं कि वो कौन-सा उदास दिन था कि मैंने ख़ुद को दिलासा देने के लिए एक गीत को लूप पर लगाकर छोड़ दिया था बस। तुतली-तुतली भोर सुनाती उजले-उजले बोल... न जाने कितनी बार रिवाइंड कर-करके सुनती रही थी ये गीत। फिल्म थी शोर, और शोर का दूसरा गीत ज़्यादा मशहूर है - एक प्यार का नग़मा है, मौजों की रवानी है / ज़िन्दगी और कुछ भी नहीं, तेरी मेरी कहानी है।

उस दिन पहली बार मैंने ढूंढकर देखा कि वो कौन-सा गीतकार था, जिसने ज़िन्दगी को बचाए रखने के हौसलों से भरे ये दो गीत लिखे थे। संतोष आनंद। संतोष आनंद का नाम बड़े गीतकारों में नहीं आता, इसलिए विविध भारती पर इस नाम के दो-एक बार सुनने के अलावा कोई और जानकारी थी नहीं इस गीतकार के बारे में। लेकिन गूगल ने संतोष आनंद के नाम कुछ और पसंदीदा गीतों को जोड़ने में मेरी मदद की। 'रोटी,कपड़ा और मकान' की गीत, फिल्म 'प्यासा सावन' का गीत ('मेघा रे, मेघा रे मत परदेस जा रे' और 'तेरा साथ है तो मुझे क्या कमी है')। इसके अलावा फिल्म क्रांति के गीत (ज़िन्दगी की न टूटे लड़ी)... सारे के सारे गीत इश्क के भरोसे और ज़िन्दगी की उम्मीदों से सराबोर। सारे के सारे विविध भारती के भरोसे किसी डूबती हुई दोपहर को बचा लेने वाले गीत।    

संतोष आनंद जी से कोई और वास्ता न था - उस तरह का तो बिल्कुल न था जैसे किसी कवि प्रदीप, मजरूह, साहिर, जांनिसार, कै़फ़ी, गुलज़ार, जावेद, आनंद बख्शी या फिर अमित खन्ना, इरशाद, स्वानन्द, नीलेश, प्रसून के साथ होता है। इन गीतकारों की नज़्में और कविताएं मैंने ढूंढ-ढूंढकर पढ़ी हैं। किताबें खरीद-खरीदकर पढ़ी हैं। लेकिन मैंने संतोष आनंद जी की कविताएं नहीं पढ़ी हैं।

पहली बार सोशल मीडिया पर ही ख़बर देखी कि मथुरा में एक दंपत्ति ने ट्रेन के आगे कूदकर खुदकुशी कर ली। ऐसी ख़बरों से बचकर निकल जाने में ही समझदारी लगती है। अपनी ज़िन्दगी की आपाधापी में ऐसे कई लम्हे आते हैं जब हमें उस धार पर चलने का गुमां होता है जहाँ कट जाने के अलावा कोई और ख़्याल नहीं आता। ज़िन्दगी संघर्षों का नाम है। हर बार एक नई चुनौती - ऐसी कि लगता है अब ज़िन्दगी ख़त्म कर देने में ही आसानियाँ हों।

खुदकुशी की ख़बर पढ़कर आगे बढ़ गई थी।

और फिर अचानकर सोशल मीडिया पर ही कहीं देखा कि ख़ुदकुशी कवि और गीतकार संतोष आनंद के बेटे संकल्प आनंद और उनकी पत्नी ने की, वो भी मानसिक प्रताड़ना से आज़िज आकर।

संतोष आनंद! उस संतोष आनंद के बेटे ने, जिस संतोष आनंद ने ज़िन्दगी पर ज़िन्दगी भर गीत बाँटे - वो भी उम्मीदों के,  प्यार के, यकीन के,रूह और वजूद की ताक़त के। जिसने लिखा, जो जीवन से हार मान जाए, उसकी हो जाए छुट्टी... नाक चढ़ाकर कहे ज़िन्दगी तेरी-मेरी हो गई कुट्टी। जिसने खेल-खेल में ज़िन्दगी के सबसे बड़े फ़लसफ़े को बड़ी आसानी से समझा दिया, और लिखा... ज़िन्दगी की न टूटे लड़ी, प्यार कर ले घड़ी दो घड़ी...

मैं नहीं जानती क्यों, लेकिन मैं फूट-फूटकर रोना चाहती हूँ। वो कैसा बदकिस्मत शायर निकला कि जिसने पूरी ज़िन्दगी अपने अल्फ़ाज़ों से उम्मीदें बाँटीं उसके हिस्से ऐसी त्रासदी आई है। वो कैसा बदकिस्मत शायर निकला कि उसी की अपनी संतान ने मौत की ख़ामोश पुकार को इतनी बेरहमी से गले लगाते हुए अपने ही पिता के अमर को गए शब्दों को कई तरजीह नहीं दी। वो कैसा बदकिस्मत शायर निकला कि जिसने ज़िन्दगी के दर्शन को गीतों-कविताओं में हमारे लिए सरल तो कर दिया लेकिन अपनी किस्मत की जटिलताओं से बच न सका।

संकल्प और उसकी इतनी प्यारी बीवी ने अपनी पाँच साल की मासूम बच्ची के साथ मर जाने का इतना बड़ा फ़ैसला क्यों लिया, इसके पीछे के राज़ बहुत गहरे हैं ज़रूर। हो सकता है कि मौत के उस रहस्यमयी कुंए में से नक्कारखाने की तूती की तरह कई और आवाज़े निकलें। लेकिन जो बच्ची बची रह गई और जो पिता बची हुई उम्र की ज़िंदा लाश को अपने कंधे पर ढोने के लिए बचा रह गया उन दोनों में से कोई अब गीत नहीं लिख पाएंगे कभी।

 

बुधवार, 15 अक्तूबर 2014

चाँद से चमक उठोगे एक दिन...

फ़िल्म अंखियों के झरोखे से का ये गीत (एक दिन, तुम बहुत बड़े बनोगे एक दिन) गुनगुनाते हुए सोच रही हूं कि वो एक दिन आता कब है?

जानते हो, वो एक दिन कभी नहीं आता।

वो एक दिन नहीं होता कि जिस दिन तुम्हारा कोई ख़्वाब अचानक पूरा हो जाता है। वो एक दिन कई रातों को जाग-जागकर ज़र्रा-ज़र्रा आबाद करने और ख़ुद को लम्हा-लम्हा बर्बाद करने से होता है।

वो एक दिन नहीं होता कि जिस दिन दुनिया को अचानक दूर उफ़्फक में तुम्हारे नाम का परचम लहराता हुआ दिखता है। वो एक दिन कई प्रकाश वर्षों तक धीमे-धीमे ख़ुद को मुसलसल जलाते-बुझाते रहने से होता है।

वो एक दिन नहीं होता कि जिस दिन तुम्हारी गुल्लक में ख़ुशियों के साथ-साथ सोने की गिन्नियाँ भी खनकने लगें। वो एक दिन अपने आंसुओं से मिट्टी को गीला कर-करके ज़िन्दगी की चाक पर कई बार उसे चढ़ाने, उसके टूट जाने का अफ़सोस बग़ैर मनाए नई मिट्टी को फिर से चढ़ाते रहने की लगातार कोशिशों से आता है। गुल्लक भी वैसे ही बनती है, और मिट्टी भी तभी सोना बनता है - कई सदियों-सी लंबी शामों के अथक इंतज़ार के बाद।

वो एक दिन नहीं होता कि जिस दिन ख़ुशियों की तितलियाँ कांधे पर उछलती-फिरती तुम्हारी मुट्ठियों में आ जाने को बेताब हो जाएँ। वो एक दिन वसंत के रूप में कई-कई सालों तक दिल के खेत में सरसों उगाने की मेहनत के बाद आता है। वरना दिल जब चाहे संग हो जाए, जब चाहे आंसुओं से बह जाए!

वो एक दिन नहीं होता कि जिस दिन तुम्हारी हैप्पी फ़ैमिली की तस्वीरें तुम्हारे घर की दीवारों पर मुस्कुराने लगती हैं। वो एक दिन कई सालों का लम्हा-लम्हा सब्र, क़तरा-क़तरा बलिदान, साँस-साँस भरोसे से आता है। उस दीवार में जुड़नेवाली ईंटें भी कई जन्मों की बचाई हुई उम्मीदों का प्रतिफल होती है।

जानाँ, वो एक दिन नहीं होता कि जिस दिन तुम्हारी किताब छप जाती है। तुम्हारी  फ़िल्म बन जाती है। वो एक दिन कई-कई सालों तक भीतर हर लम्हा पकते तजुर्बे से आता है। कई-कई सालों तक जिए हुए किसी रिसते हुए दर्द से आता है। जाने कितने जन्मों तक न कह पाने, न बता पाने, न बाँट पाने की बेचैनी से आता है।

वो एक दिन आएगा फिर भी, एक दिन!