एटीआर में मेरी जान वैसे भी सूख जाती है। छोटी सी डगमगाती हुई प्लेन में एयर इंडिया की बदसूरत और बेहद अक्खड़ एयर होस्टेस ने सफ़र का ज़ायका और भी बिगाड़ दिया है। यूं भी हम ऐसी जगह जा रहे हैं जहां के बारे में जानने-समझने के लिए गूगल करने का भी मौका नहीं मिला है। इम्फाल... बस नाम ही काफी है, मैंने हंसते हुए सासू मां को फोन पर बताया है। साथ में कहा है, फोन ना लगे तो चिंता ना करें। नो न्यूज़ इज गुड न्यूज़। हम पिछले कुछ दिनों से लगातार सफ़र कर रहे हैं, एक शहर से दूसरे शहर, एक राज्य से दूसरे राज्य। इतना भी वक़्त नहीं मिला कि मणिपुर का कोई स्केच ज़ेहन में खींच सकूं। कॉलेज में पढ़नेवाली मणिपुरी दोस्तों के नाम के अलावा इस राज्य से अबतक कोई वास्ता नहीं पड़ा।
गुवाहाटी में अपने पुराने सहयोगी किशलय भट्टाचार्य से मणिपुर के बारे में टेढ़े-मेढ़े सवाल किए हैं तो इतना जवाब मिला है, 'Just be careful. Make sure you have enough protection. You may witness ambush towards the border, but that's all.' दैट्स ऑल?! इज़ दैट ऑल, रियली?
प्रोटेक्शन का मतलब इम्फाल एयरपोर्ट पर उतरते ही समझ में आया है। हम पांच मुसाफिरों को रिसिव करने के लिए सुरक्षाकर्मियों का मजमा लगा है जैसे। ऊपर से हम उतरे भी बड़े से कैमरे, ट्राईपॉड और मॉनिटर के साथ हैं। सुरक्षाकर्मी भी ऐसे-वैसे नहीं। ब्लैक कमांडोज़। मैं पतिदेव के कान में धीरे से फुसफुसाती हूं, "हमारे लिए? आर यू श्योर वी वॉन्ट टू डू दिस?"
कमिश्नर साहिबा भी पहली बार इम्फाल आई हैं। नॉर्थईस्ट की होते हुए भी। हमारे आगे-पीछे सफेद जिप्सियों में काले लिबासों, काले साफों और मशीनगनों के साथ लटकते ब्लैक कमांडोज़ को देखकर मेरे मन में पुख़्ता यकीन हो गया है, अब किसी एम्बुश से हमें कोई माई का लाल बचा नहीं सकता। तुम भी क्या याद करोगे सनम, कहां आकर जान दी तुम्हारी ख़ातिर... पतिदेव को कह देती, लेकिन याद आया है, नॉर्थईस्ट आने की ज़िद तो मैंने ही की थी।
इम्फाल एक उजड़ा हुआ शहर लगता है। टूटी-फूटी सड़कों पर अजीब-सी वीरानी पसरी है। राहगीर कम, पुलिसवाले अधिक दिखाई देते हैं यहां। पुलिसवालों और कमांडोज़ को देखकर सोचती हूं कि मणिपुर से जुड़ी ख़बरों में थोड़ा-बहुत कुछ पढ़ा भी है तो वो या तो मुठभेड़ से जुड़ी होती हैं या AFSPA के विरोध से। सड़क के दोनों ओर बिलबोर्ड्स लगे हैं और उनपर मणिपुरी फिल्मों के पोस्टर्स लगे हैं। हमारे साथ चल रहे एक मणिपुरी अफसर बताते हैं कि मणिपुर में बॉलीवुड फिल्मों, हिंदी गानों और यहां तक कि सैटेलाइट चैनलों पर भी उग्रवादी संगठनों ने प्रतिबंध लगा रखा है। इस प्रतिबंध का एक बड़ा फायदा मणिपुरी फिल्म इंडस्ट्री को मिला है और निर्माता-निर्देशकों, कलाकारों, लेखकों, कॉरियोग्राफरों और टेक्निशिन्स की पूरी एक जमात मणिपुर में तैयार हो गई है। एन्टरटेन्मेंट इंडस्ट्री ने कई लोगों को रोज़गार दिया है। ज़रूर दिया होगा, मैं सोचती हूं, लेकिन दीवारों के पीछे बंद कर अभिव्यक्ति को किस तरह की आज़ादी दी जा सकेगी? बहरहाल, ये अलग बहस का मुद्दा है, क्योंकि मणिपुरी फिल्में लगातार राष्ट्रीय अवॉर्ड भी जीतती रही हैं।
हम इम्फाल में नहीं रुकते, सीधे मोरे के लिए निकल जाते हैं। मोरे म्यान्मार की सीमा पर मणिपुर से लगा एक छोटा-सा शहर है। मोरे से म्यान्मार होते हुए थाईलैंड और चीन तक रेल लिंक जोड़ने की योजना बड़ी पुरानी है। हो सकता है चीन इस योजना के अपनी ओर के हिस्से को अमली जामा पहना चुका हो, लेकिन हमारे यहां ये योजना कई सालों से कागज़ों पर है। फिलहाल ये शहर भारत और म्यान्मार के बीच के व्यापारिक संबंधों की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। हम वहां के लैंड कस्टम स्टेशन पर शूट करने जा रहे हैं।
इम्फाल तेज़ी से पीछे छूट रहा है। धान के खेत, बांस के जंगलों और सुपारी के पेड़ों से ज़्यादा मेरा ध्यान खुली जिप्सी पर लटके कमांडोज़ पर है, जो हर दिशा में मुंह करके खड़े हैं। सड़क पर कहीं लैंडमाईन बिछा ही हो तो ये हमें क्या बचा पाएंगे? हम खाना खाने के लिए चंडेल के कस्टम ऑफिस में रुकते हैं। सड़क के किनारे कहीं और खाना खाना बिल्कुल सुरक्षित नहीं। ऑफिस के चारों ओर, बाज़ार में इधर-उधर कमांडोज़ पसर जाते हैं। ना, मैं वीआईपी नहीं होना चाहती। आम नागरिक होने में कितना सुख और सुकून है।
मोरे गज़ब का ख़ूबसूरत कस्बा है। शाम चार बजे ही ढलने लगी है और हमारी खिड़की की बाहर पहाड़ी पर एक सफेद इमारत, शायद चर्च, पर सुनहरा रंग ऐसा लग रहा है जैसे ऑयल पेंटिंग करते-करते किसी पेंटर ने कैनवस पर वाटर कलर डाल दिया हो। सब बेमेल है। हरियाली, डूबता हुआ सूरज, गेस्ट हाउस की वीरानी और ब्लैक कैट कमांडोज़। कमिश्नर साहिबा मुझे नीचे आने का न्योता देती हैं। हम सिर्फ नीचे लॉन तक जा सकते हैं, बाज़ार तक जाना सही नहीं होगा। पतिदेव स्टोरी की तलाश में दो-चार कमांडोज़ के साथ बाज़ार की ओर जा चुके हैं। मेरा ध्यान ढलती शाम और ब्लैक टी पर कम, घड़ी पर ज़्यादा है। हमने वापस लौटकर मोमबत्तियां जला ली हैं। यहां बिजली नहीं आती। कस्बे में भी ऐसे ही घुप्प अंधेरा हो शायद। सामने पहाड़ी पर कहीं-कहीं रौशनी टिमटिमाती है। मनीष अब भी नहीं लौटे हैं।
सात बजे ही लगता है, आधी रात हो गई हो जैसे और अपनी फ़ितरत के मुताबिक ठीक तभी पतिदेव लौट आते हैं। कई दिलचस्प स्टोरिज़ मिल गई हैं, और हमारे लिए सरहद पार कर म्यान्मार के शहर तामू जाने की इजाज़त भी। खाने की मेज़ पर कल का दिन तय हो गया है। मणिपुर में भी लोग चावल-दाल-सब्ज़ी ही खाते हैं या हमारे लिए ख़ासतौर पर तैयार किया गया है ये डिनर, मैं ऐसा कुछ बेहूदा सवाल बगल में बैठी कमिश्नर साहिबा से पूछ बैठती हूं।
'दाल, चावल और हरी सब्ज़ियां हम खाते हैं। मछली खाते हैं, लेकिन मांस नहीं। मणिपुर के हिंदू तो प्याज़-लहसुन भी नहीं खाते', हमें कस्टम कांस्टेबल एम उमा सिंह अगले दिन खाने के दौरान बताती हैं। उमा हमारे लिए फल लेकर आई हैं जो बनारसी बेर जैसा है। बेर ही है, लेकिन बहुत मीठा और इतना स्वादिष्ट कि मैं बाज़ार से दो किलो बेर मंगवाने की गुज़ारिश कर बैठती हूं। तामू और मोरे - सरहद के आर-पार के शहरों में कैसे संस्कृतियां और परिवेश बदल जाता है, इस बारे में फिर कभी विस्तार से लिखूंगी, लेकिन फिलहाल मुझे उमा की याद आ रही है।
पति की मौत के बाद सरकारी नौकरी करती है उमा। मोरे में पोस्टेड है, लेकिन बच्चों को इम्फाल में अपनी मां के पास छोड़ रखा है। दो बच्चे तमाम हड़तालों और बंद के बावजूद स्कूल जाते हैं। उमा उन चालीस से ज़्यादा उग्रवादी संगठनों के बारे में बहुत मामूली-सी जानकारी रखती है जिनके कब्ज़े में मणिपुर है और अपने राज्य के मैती-नागा-कुकी संघर्षों के बारे में बात नहीं करना चाहती। उनकी आंखों में अपने दो बच्चों के लिए कई ख्वाब हैं जो जाने कैसे पूरे होंगे। मणिपुर से बाहर भेजने के लिए ढेर सारे पैसे चाहिए और एक सरकारी नौकरी की वजह से सिर पर मंडराते हज़ार खतरों और अलग-अलग संगठनों की उगाही की मांगों के बीच जी लेना ही अपने आप में एक चुनौती है।
हो सकता है उमा अब मोरे में नहीं, कहीं और पोस्टेड हो। लेकिन पिछले सौ दिनों से चली आ रही आर्थिक नाकेबंदी में वो और उसके जैसे 20 लाख परिवार कैसे जी रहे होंगे? देश का कोई और हिस्सा होता तो चंद घंटों के राष्ट्रीय राजमार्गों पर किए जानेवाले चक्का जामों ने नेशनल हेडलाइन्स बनाई होती। लेकिन एक अलग ज़िले की मांग को लेकर पूरे राज्य की व्यवस्था तहस-नहस भी हो जाए तो दिल्ली में किसी को क्या फर्क पड़ता है? मणिपुर देश के नक्शे में कहां पड़ता है, इसकी जानकारी भी है हमको? तो क्या हुआ अगर उमा को अपनी आधी तनख्वाह गैस सिलेंडर खरीदने में लगानी पड़ी होगी इस महीने? दोषी कौन है, उन दो समुदायों के नेता जो अपने अहं में उलझे हुए हैं या सरकार, जो इस गतिरोध को दूर करने में पिछले सौ दिनों से तो क्या, सालों से नाकामयाब रही है? चार महीने में चुनाव होने हैं। हैरान हूं कि आम मणिपुरियों ने अबतक बड़ा विद्रोह कैसे नहीं कर दिया?
जान का डर सबसे बड़ा डर होता है, ये मणिपुर में रहते हुए ही समझा जा सकता है, इम्फाल के ख्वैरम बाज़ार में दुपट्टे, पीतल और कांसे का सामान देखते-दिखाते हुए बातचीत के दौरान जिस टूटी-फूटी हिंदी में उमा बात करती हैं उसका अभिप्राय मैं यही लगा सकी हूं। लेकिन डर की भी एक हद होती होगी और जिस दिन वो डर ना रहा, उस दिन क़यामत आएगी।
क्या ये डर अब नहीं चूक गया होगा? ब्लैकमेलिंग की भी सीमा तो होगी ही और जब दवाओं, ज़रूरत की तमाम चीज़ों और खाने के सामानों की कमी के बीच मरने की नौबत आ ही जाए तो जान का डर क्या बचेगा फिर? लेकिन मैं इस उम्मीद में हूं कि इरोम शर्मिला की भूख हड़ताल, मुठभेड़ों, आर्थिक नाकेबंदियों और सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून हटाने की तमाम मांगों के संघर्ष के बीच उमा जहां हो, अपने दो बच्चों के साथ सही-सलामत हो और उसका सब्र ना चूके। दुआ ही कर सकती हूं क्योंकि यूं भी मणिपुर से मेरा क्या वास्ता और टीवी पर एक आर्थिक नाकेबंदी से हैरान-परेशान लोगों की ख़बरों के बजाए मैं स्वामी अग्निवेश की बिग बॉस में एन्ट्री के बाद टीम अण्णा की चुगलियां सुनना ज़्यादा पसंद करूंगी।
मणिपुर में सैटेलाइट चैनलों पर प्रतिबंध है। शुक्र है!