शनिवार, 9 अक्टूबर 2010

बच्चों का आना - भाग 2

कोलकाता प्रवास खत्म करना होगा। बच्चों को जन्म देने के लिए मैं यहां आई थी। डॉ घोष पर ऐसा विश्वास था कि किसी और पर यकीन करना मुश्किल। सो, हमने छह महीनों के लिए कोलकाता में ही घर बसा लिया, और कई नए दोस्त, नाते-रिश्तेदार भी बनाए। लेकिन अब जाना होगा। लेकिन कहां? दिल्ली जाकर अकेले दो को कैसे संभालूंगी? मैटिरनिटी लीव का फायदा भी तो उठाना है। पूर्णियां? ससुराल है लेकिन सासु मां बेचारी खुद अपने बीमार पिता की देखभाल में लगी हैं। रांची के लिए सर्वसम्मति से फैसला लिया जाता है। दादाजी के घर में संयुक्त परिवार के बीच मेरी भी देखभाल हो सकेगी, बच्चों की भी।

अठाईस दिन के जुड़वां बच्चों को लेकर मैं रांची जाने की तैयारी कर रही हूं। मुझे रांची ले जाने के लिए मेरी दादी आई हैं और साथ आए हैं छोटे चाचा। कोलकाता में रहनेवाली बड़ी चाची भी रांची तक मुझे छोड़ आने के लिए तैयार हो गई हैं। कोलकाता में अपनी छह महीने के गृहस्थी हम उसी जल्दबाज़ी में समेट देते हैं जैसे आनन-फानन ये घर बसा लिया था।

स्टेशन पर भी लोग हमें घूम-घूमकर देखते हैं। जुड़वां बच्चे? कितने छोटे हैं! रातभर कूपे में हम सब इनको दूध पिलाने, चुप कराने, सुलाने के बीच जागते रहते हैं। सुबह रांची आए हैं। इस शहर की खुशबू कितनी अपनी-सी है। इन गलियों से कितनी ही बार हम जाने किन-किन कारनामों के लिए, जाने किन-किन वजहों से कई बार गुज़रे हैं। उन्हीं गलियों से अब मैं अपने छोटे बच्चों को लेकर गुज़र रही हूं।

मेरे लिए नीचे सीढ़ियों के पास का एक कमरा मुकर्रर है, एक आवाज़ पर ऊपर-नीचे किसी को भी बुला सकूंगी इसलिए। ऊपर हमारे कमरे से एक अलमारी नीचे पहुंचा दी जाती है, बच्चों के कपड़े इस्त्री करने के लिए बरामदे में ही एक मेज़ लग जाती है। कमाल की बात है कि बरामदे से गुज़रते हुए कोई भी मेज़ पर रखे छोटे कपड़ों को इस्त्री करना नहीं भूलता। दादी, पापा, चाचा, चाची, यहां तक कि आठ-नौ साल का भाई... सब आते-जाते बच्चों के कपड़ों को समेटते जाते हैं।

घर गुलज़ार हो गया है। मोहल्ले की नानियां भी बच्चों से मिलने आने लगी हैं। पूरे मोहल्ले में खबर फैल गई है कि अनु को हाथ के बुने स्वेटर पसंद है। सो, सबके हाथों में ऊन-कांटा है और भाई-बहन की इस नई जोड़ी के लिए स्वेटर बुनने को तत्पर हैं। जाड़े की धूप में हर सुबह आंगन में एक खाट डाल दी जाती है। सारा-सारा दिन बच्चे और बच्चों की मां धूप का मज़ा लेते हैं। मिलने आनेवालों के कहकहों से आंगन गुलज़ार होता है। किसी भी नानी को बच्चों के देखभाल की ज़िम्मेदारी सौंप मैं नींद के झोंकों का भरपूर मज़ा उठाती हूं।

मालिश और नहलाना-धुलाना नानी करती हैं, कपड़े मौसी निकालती हैं, बोतल पूरा परिवार मिलकर धोता और खौलाता है। बच्चे रात को रोते हैं तो सुबह उनकी तबीयत के बारे में पड़ोसी ज़रूर पूछने चले आते हैं। मेरे पति के एक दोस्त रीड दुबई से पहुंचे हैं बच्चों को देखने के लिए। रीड हैरान हैं कि बच्चे कैसे ना सिर्फ एक परिवार बल्कि एक मोहल्ले को जोड़ देते हैं। मेरे बच्चों ने रीड का हृदय-परिवर्तन कर दिया है।

(नए साल के मौके पर रीड ने ना सिर्फ महीनों से अलग हुई अपनी पत्नी को फोन किया बल्कि रांची से जाकर एक महीने के अंदर दोनों वापस साथ रहने लगे। अगले साल नए साल पर हम सब साथ नॉर्थ-इस्ट छुट्टियां मनाने गए, उसके अगले नए साल रीड अपने घर में छोटे मेहमान के स्वागत की तैयारी कर रहा था और अभी पिछले नए साल पर मेरे पति रीड के बेटे से मिलने गए!)

अब मायका छोड़ ससुराल जाने का वक्त हो चला है। तोहफे में मिले हाथ के बुने दस जोड़ी स्वेटर-टोपी-मोजों के बाद मैंने गिनना छोड़ दिया है। बैग में इन्हें ठूंसते-ठूंसते मन कैसा-कैसा हो रहा है। अगर बच्चों को दिल्ली में पैदा किया होता या वहीं रखा होता तो ये सुख कभी मयस्सर नहीं होता। मुझे और बच्चों को विदा करने पूरा मोहल्ला आया है। मेरे लिए कई जोड़ा खोयचा भी आया है, रूमाल में बंधा हुआ आशीर्वाद। मैं घूमन्तू अब चार महीने के बच्चों के साथ अगले पड़ाव के लिए निकल पड़ी हूं।

(तस्वीर में आद्या मेरी दादी के साथ है रांची के आंगन में और ये स्वेटर मेरी दादी ने बनाया है।)

1 टिप्पणी:

Manoj K ने कहा…

पार्ट ३ पढ़ने जा रहा हूँ