शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010
डायरी के पुराने पन्नों से
टुकड़े टुकड़ों में ख्याल...
१
"तुम अपने ख्वाब
बचाकर रखो
कि कल दुनिया
तुम्हारी आँखों में झांके
तो जिंदगी देखे!"
२
"बहाने और भी होते जो ज़िन्दगी के लिए
हम इक बार भी तेरी आरज़ू न करते"
३
"कहाँ ढूंढूं मैं,
कि गुम हूँ कई बरसों से/
मुझको ढूँढता फिरता है
अक्स मेरा"
४
"घेरकर मुझको खड़ी रुस्वाइयां चारों तरफ़/
और मेरे भीतर हैं तनहाइयां चारों तरफ़/
मुझको मैं ही नज़र आती नहीं अब, क्या कहूँ/
दिखती हैं मुझको परछाईंयां चारों तरफ़"
५
"जाने किस साये की तलाश रही मुझे उम्रभर/
जितना करीब आते गए, दूरियां बढती गयीं"
१९९६ की डायरी से
१
"तुम अपने ख्वाब
बचाकर रखो
कि कल दुनिया
तुम्हारी आँखों में झांके
तो जिंदगी देखे!"
२
"बहाने और भी होते जो ज़िन्दगी के लिए
हम इक बार भी तेरी आरज़ू न करते"
३
"कहाँ ढूंढूं मैं,
कि गुम हूँ कई बरसों से/
मुझको ढूँढता फिरता है
अक्स मेरा"
४
"घेरकर मुझको खड़ी रुस्वाइयां चारों तरफ़/
और मेरे भीतर हैं तनहाइयां चारों तरफ़/
मुझको मैं ही नज़र आती नहीं अब, क्या कहूँ/
दिखती हैं मुझको परछाईंयां चारों तरफ़"
५
"जाने किस साये की तलाश रही मुझे उम्रभर/
जितना करीब आते गए, दूरियां बढती गयीं"
१९९६ की डायरी से
सोमवार, 20 दिसंबर 2010
बच्चे। हम सबके बच्चे।
पिछले हफ्ते घूमती रही हूं। पहले अहमदाबाद, फिर पुणे, फिर औरंगाबाद होते हुए बुलढ़ाना, फिर नागपुर, और वापस दिल्ली। मकसद था उन बच्चों की ख्वाहिशों को जानना-समझना, जो मेरे अपने नहीं हैं। मेरे अपने नहीं हैं, कुछ तो किसी के भी अपने नहीं हैं शायद। गरीबी, आर्थिक तंगी और कई बार आस-पास का माहौल इन्हें बचपन जीने का मौका नहीं देता, देता भी है तो चंद लम्हों की मोहलत के तौर पर।
मेरा सफ़र अहमदाबाद से शुरू हुआ, जहां मैं एक जनसुनवाई (पब्लिक हियरिंग) देखने गई थी। इस जनसुनवाई की ख़ासियत ये थी कि मुद्दा भी बच्चों से जुड़ा था, वक्ता भी बच्चे थे, श्रोता भी। हां, एक ज्युरी अवश्य उपस्थित थी जिनमें से एक लेखक-पत्रकार थे, एक नामचीन अभिनेत्री, एक अर्थशास्त्री, एक रिटायर्ड पुलिस अधिकारी, और एक चीफ जस्टिस। रंग-बिरंगे होर्डिंग, साफ-सुथरे कपड़ों में उपस्थित 600 बच्चे। इनमें से तीस को सीखा-पढ़ाकर स्टेज पर भेज दिया होगा, मेरे दिमाग में यही ख्याल आया पहले।
अपनी-अपनी कहानियां बच्चों ने गुजराती में सुनानी शुरू की। मैं गुजराती नहीं समझती, लेकिन पहली बार अहसास हुआ कि कुछ भावनाएं भाषा से परे होती हैं। प्रेम की कोई भाषा नहीं तो दुख-तकलीफ की भी कोई भाषा नहीँ। मैं एक-एक बच्चे की कहानी लिखने बैठ जाऊं तो एक महीना लगेगा। लेकिन एक की कहानी सुनाती हूं। नाम-रेहाना मान लीजिए। उम्र-यही कोई ग्यारह-बारह साल। ठीक-ठीक पता नहीं। शिक्षा-चौथी तक पढ़ी। अब स्कूल क्यों नहीं जाती? फिर घर में छोटे भाई-बहनों को कौन देखेगा? काम-सुबह छह बजे से नौ बजे तक सफाई, चौका-चूल्हा। नौ बजे से एक बजे तक अगरबत्ती बनाना। एक से तीन बजे तक खिलाना-पिलाना, चौका-चूल्हा। फिर तीन से नौ बजे तक अगरबत्ती बनाना। नौ से ग्यारह चौका-चूल्हा। किसी ने पूछा-सपना क्या है तुम्हारा? रेहाना ने चिढ़कर कहा-सपना क्या? यही करती हूं, यही करते-करते मर जाऊंगी। कह दूं कि टीचर बनना चाहती हूं तो उससे क्या होगा? उसके साफगोई कानों में शीशे की तरह घुलती रही, कई बच्चे आंखों के कोने पोंछते रहे।
भारत में चौदह साल से कम उम्र के बच्चों से बाल मजदूरी कराना दंडनीय अपराध माना जाता है। हालांकि, ये कानून भी बमुश्किल तीन-चार साल पहले लागू हुआ है। लेकिन इस कानून के घेरे में कई काम नहीं आते। खेतों में काम करना भी उनमें से एक है। कमाल की बात ये है कि सत्तर फीसदी बाल मजदूरी तो दरअसल खेतों में होती है। मुझे ये सारी बातें महाराष्ट्र जाकर पता चलीं। इस वक्त वहां कपास को तोड़ने का काम चल रहा होता है, और यही वो समय है जब बच्चे पूरा-पूरा दिन खेतों में काम कर रहे होते हैं। अपनी नन्हीं-नन्हीं उंगलियां से कपास बीनते समय उनके हाथ लहूलुहान होते हैं, पैरों में छाले पड़ते हैं और धूल-धक्कड़ से फेफड़ों को नुकसान तो पहुंचता ही है। सवाल है कि ये बच्चे काम ना करें तो करें क्या? काम करना क्या बड़ों का "काम" नहीं होता? बच्चों को स्कूल में, गांव की गलियों में, दोस्तों-साथियों के साथ पेड़ों पर धमाचौकड़ी करते हुए अपना बचपन नहीं जीना चाहिए?
ये एक लंबी बहस है, एक लंबी लड़ाई। लेकिन मैं गौतम की कहानी सुनाती हूं आपको। गौतम सात साल का है। आंखें चमकीली, सांवला-सा भोला चेहरा, लेकिन चेहरे पर सबकुछ जानने-समझने की होड़। माथे पर झूल आए भूरे-काले बालों को परे हटाता गौतम भीड़ में अलग-से नज़र आता है। गौतम दलित है, पिता शराबी है, मां नहीं है। स्कूल जाने का तो कोई सवाल ही नहीं था। कभी इस खेत में, कभी उसकी मजदूरी कर गौतम चार पैसे कमाता था। लेकिन गांव के दूसरे बच्चों की पुरज़ोर और लगातार कोशिशों के दम पर गौतम का स्कूल में दाखिला करवाया गया। हर दिन स्कूल छोड़ खेत में भागने का लालच, सताए जाने का ख़तरा। लेकिन दूसरे बच्चे गौतम की हौसला-हफ्जाई करते रहे और गौतम पिछले कुछ महीनों से स्कूल में बना हुआ है। जब हम स्कूल में बाकी बच्चों से बात कर रहे थे तो उन्होंने ही गौतम को ठेलकर हमारे सामने कर दिया। पांच मिनट के भीतर गौतम हमसे बातें कर रहा था, कविता सुना रहा था, यहां तक कि हमारी मेज़बानी अपने घर पर करने की फरमाईश भी की। हम गौतम के घर गए भी, गौतम ने हमने चाय-नाश्ते के लिए भी पूछा। बातचीत और हंसी-मज़ाक के बाद जब हम बाहर निकलने लगे तो गौतम ने अपना दाहिना हाथ बढ़ाया और गर्मजोशी से हाथ मिलाते हुए कहा - "थैंक्यू!"
गौतम खुशकिस्मत था, उसे दोस्तों का साथ मिला। अपना बचपन वापस मिला। लेकिन एक अनुमान के मुताबिक भारत में दो करोड़ से ज़्यादा बच्चे मजदूरी करते हैं। इनकी कई और कहानियां फिर कभी। फिलहाल यही दुआ करूंगी कि सभी बच्चों को गौतम के दोस्तों जैसे साथी मिलें। बच्चे ही बच्चों को सबसे बड़े शुभचिन्तक होते हैं, ये जुड़वां बच्चों की मां से बेहतर कोई नहीं जानता। अपने साथ-साथ अपने साथियों को बचाए रखना, उनकी ज़रूरतों का ख्याल रखना, उनके अधिकारों को समझना, ये बच्चे ही कर सकते हैं दूसरे बच्चों के लिए। तो हम बड़े क्या करें? अपने बच्चों को उनके अपने ही साथियों के प्रति संवेदनशील बनाएं, उन्हें दूसरे बच्चों के साथ बड़ा होने दें, हमारे घेरे से भीतर उनका अपना सुरक्षित घेरा बने। मुझे तो फिलहाल एक सीख और मिली है। मेरे बच्चे मेरे लिए सबसे कीमती हैं। मेरे बच्चों जैसे बाकी बच्चे भी उतने ही कीमती हैं - हमारे लिए, हमारे समाज, हमारे देश के लिए।
मेरा सफ़र अहमदाबाद से शुरू हुआ, जहां मैं एक जनसुनवाई (पब्लिक हियरिंग) देखने गई थी। इस जनसुनवाई की ख़ासियत ये थी कि मुद्दा भी बच्चों से जुड़ा था, वक्ता भी बच्चे थे, श्रोता भी। हां, एक ज्युरी अवश्य उपस्थित थी जिनमें से एक लेखक-पत्रकार थे, एक नामचीन अभिनेत्री, एक अर्थशास्त्री, एक रिटायर्ड पुलिस अधिकारी, और एक चीफ जस्टिस। रंग-बिरंगे होर्डिंग, साफ-सुथरे कपड़ों में उपस्थित 600 बच्चे। इनमें से तीस को सीखा-पढ़ाकर स्टेज पर भेज दिया होगा, मेरे दिमाग में यही ख्याल आया पहले।
अपनी-अपनी कहानियां बच्चों ने गुजराती में सुनानी शुरू की। मैं गुजराती नहीं समझती, लेकिन पहली बार अहसास हुआ कि कुछ भावनाएं भाषा से परे होती हैं। प्रेम की कोई भाषा नहीं तो दुख-तकलीफ की भी कोई भाषा नहीँ। मैं एक-एक बच्चे की कहानी लिखने बैठ जाऊं तो एक महीना लगेगा। लेकिन एक की कहानी सुनाती हूं। नाम-रेहाना मान लीजिए। उम्र-यही कोई ग्यारह-बारह साल। ठीक-ठीक पता नहीं। शिक्षा-चौथी तक पढ़ी। अब स्कूल क्यों नहीं जाती? फिर घर में छोटे भाई-बहनों को कौन देखेगा? काम-सुबह छह बजे से नौ बजे तक सफाई, चौका-चूल्हा। नौ बजे से एक बजे तक अगरबत्ती बनाना। एक से तीन बजे तक खिलाना-पिलाना, चौका-चूल्हा। फिर तीन से नौ बजे तक अगरबत्ती बनाना। नौ से ग्यारह चौका-चूल्हा। किसी ने पूछा-सपना क्या है तुम्हारा? रेहाना ने चिढ़कर कहा-सपना क्या? यही करती हूं, यही करते-करते मर जाऊंगी। कह दूं कि टीचर बनना चाहती हूं तो उससे क्या होगा? उसके साफगोई कानों में शीशे की तरह घुलती रही, कई बच्चे आंखों के कोने पोंछते रहे।
भारत में चौदह साल से कम उम्र के बच्चों से बाल मजदूरी कराना दंडनीय अपराध माना जाता है। हालांकि, ये कानून भी बमुश्किल तीन-चार साल पहले लागू हुआ है। लेकिन इस कानून के घेरे में कई काम नहीं आते। खेतों में काम करना भी उनमें से एक है। कमाल की बात ये है कि सत्तर फीसदी बाल मजदूरी तो दरअसल खेतों में होती है। मुझे ये सारी बातें महाराष्ट्र जाकर पता चलीं। इस वक्त वहां कपास को तोड़ने का काम चल रहा होता है, और यही वो समय है जब बच्चे पूरा-पूरा दिन खेतों में काम कर रहे होते हैं। अपनी नन्हीं-नन्हीं उंगलियां से कपास बीनते समय उनके हाथ लहूलुहान होते हैं, पैरों में छाले पड़ते हैं और धूल-धक्कड़ से फेफड़ों को नुकसान तो पहुंचता ही है। सवाल है कि ये बच्चे काम ना करें तो करें क्या? काम करना क्या बड़ों का "काम" नहीं होता? बच्चों को स्कूल में, गांव की गलियों में, दोस्तों-साथियों के साथ पेड़ों पर धमाचौकड़ी करते हुए अपना बचपन नहीं जीना चाहिए?
ये एक लंबी बहस है, एक लंबी लड़ाई। लेकिन मैं गौतम की कहानी सुनाती हूं आपको। गौतम सात साल का है। आंखें चमकीली, सांवला-सा भोला चेहरा, लेकिन चेहरे पर सबकुछ जानने-समझने की होड़। माथे पर झूल आए भूरे-काले बालों को परे हटाता गौतम भीड़ में अलग-से नज़र आता है। गौतम दलित है, पिता शराबी है, मां नहीं है। स्कूल जाने का तो कोई सवाल ही नहीं था। कभी इस खेत में, कभी उसकी मजदूरी कर गौतम चार पैसे कमाता था। लेकिन गांव के दूसरे बच्चों की पुरज़ोर और लगातार कोशिशों के दम पर गौतम का स्कूल में दाखिला करवाया गया। हर दिन स्कूल छोड़ खेत में भागने का लालच, सताए जाने का ख़तरा। लेकिन दूसरे बच्चे गौतम की हौसला-हफ्जाई करते रहे और गौतम पिछले कुछ महीनों से स्कूल में बना हुआ है। जब हम स्कूल में बाकी बच्चों से बात कर रहे थे तो उन्होंने ही गौतम को ठेलकर हमारे सामने कर दिया। पांच मिनट के भीतर गौतम हमसे बातें कर रहा था, कविता सुना रहा था, यहां तक कि हमारी मेज़बानी अपने घर पर करने की फरमाईश भी की। हम गौतम के घर गए भी, गौतम ने हमने चाय-नाश्ते के लिए भी पूछा। बातचीत और हंसी-मज़ाक के बाद जब हम बाहर निकलने लगे तो गौतम ने अपना दाहिना हाथ बढ़ाया और गर्मजोशी से हाथ मिलाते हुए कहा - "थैंक्यू!"
गौतम खुशकिस्मत था, उसे दोस्तों का साथ मिला। अपना बचपन वापस मिला। लेकिन एक अनुमान के मुताबिक भारत में दो करोड़ से ज़्यादा बच्चे मजदूरी करते हैं। इनकी कई और कहानियां फिर कभी। फिलहाल यही दुआ करूंगी कि सभी बच्चों को गौतम के दोस्तों जैसे साथी मिलें। बच्चे ही बच्चों को सबसे बड़े शुभचिन्तक होते हैं, ये जुड़वां बच्चों की मां से बेहतर कोई नहीं जानता। अपने साथ-साथ अपने साथियों को बचाए रखना, उनकी ज़रूरतों का ख्याल रखना, उनके अधिकारों को समझना, ये बच्चे ही कर सकते हैं दूसरे बच्चों के लिए। तो हम बड़े क्या करें? अपने बच्चों को उनके अपने ही साथियों के प्रति संवेदनशील बनाएं, उन्हें दूसरे बच्चों के साथ बड़ा होने दें, हमारे घेरे से भीतर उनका अपना सुरक्षित घेरा बने। मुझे तो फिलहाल एक सीख और मिली है। मेरे बच्चे मेरे लिए सबसे कीमती हैं। मेरे बच्चों जैसे बाकी बच्चे भी उतने ही कीमती हैं - हमारे लिए, हमारे समाज, हमारे देश के लिए।
शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010
कहना क्यों नहीं सीखा?
चुप रहती हूं,
मन की कोई खलिश
तैरती रहती है
आंखों में पानी बनकर।
वो कहते हैं,
आंखें बोलती हैं
और चेहरा
खोल जाता है राज़।
मेरे अंदर का सब
जब यूं ही
छलक आता है
बार-बार,
तो फिर क्या कहूं मैं?
शिकवों का लफ्ज़ों में
बाहर आना
ज़हर उगलना ही तो है।
शिकवे आंखों से
बहते हुए ही
कोमल लगते हैं।
मन की कोई खलिश
तैरती रहती है
आंखों में पानी बनकर।
वो कहते हैं,
आंखें बोलती हैं
और चेहरा
खोल जाता है राज़।
मेरे अंदर का सब
जब यूं ही
छलक आता है
बार-बार,
तो फिर क्या कहूं मैं?
शिकवों का लफ्ज़ों में
बाहर आना
ज़हर उगलना ही तो है।
शिकवे आंखों से
बहते हुए ही
कोमल लगते हैं।
बुधवार, 8 दिसंबर 2010
आज का अख़बार
शीतला घाट पर
फटा है बम।
फिर बनारस पर
गिरे हैं ख़ून के छींटे।
चीख-चीखकर
रोती हैं
अख़बार में
पहले पन्ने की
लहूलुहान तस्वीरें।
फिर किसी नेता ने
खाए हैं रुपए।
उनहत्तर के बाद
लगे शून्य
गिनना भी तो
आता नहीं हमको।
अख़बार कहता है,
हज़ारों करोड़ का
घपला है।
फिर प्रेम की वेदी पर
बलि चढ़ी है
दो नौजवानों की।
फिर कुछ सपनों का
खून हुआ है।
अखबार कहता है,
जाती दुश्मनी थी।
जाति की भी।
फिर क्रिकेट में
बजा है डंका।
लेकिन पिटकर आए हैं
बाकी खेलों में हम।
आईपीएल के आगे
बीपीएल लगते हैं
बाकी के खेल।
मैं नहीं कहती,
अख़बार में छपा है।
फिर मेरे घर
रोता-धोता आया है
आज का अख़बार।
खून में लिपटी है
हेडलाईन।
फिर कुछ चुगलियां हैं,
कुछ बेमानी-सी टिप्पणियां,
फिर अखबार ने
हमको झुंझलाया है।
फटा है बम।
फिर बनारस पर
गिरे हैं ख़ून के छींटे।
चीख-चीखकर
रोती हैं
अख़बार में
पहले पन्ने की
लहूलुहान तस्वीरें।
फिर किसी नेता ने
खाए हैं रुपए।
उनहत्तर के बाद
लगे शून्य
गिनना भी तो
आता नहीं हमको।
अख़बार कहता है,
हज़ारों करोड़ का
घपला है।
फिर प्रेम की वेदी पर
बलि चढ़ी है
दो नौजवानों की।
फिर कुछ सपनों का
खून हुआ है।
अखबार कहता है,
जाती दुश्मनी थी।
जाति की भी।
फिर क्रिकेट में
बजा है डंका।
लेकिन पिटकर आए हैं
बाकी खेलों में हम।
आईपीएल के आगे
बीपीएल लगते हैं
बाकी के खेल।
मैं नहीं कहती,
अख़बार में छपा है।
फिर मेरे घर
रोता-धोता आया है
आज का अख़बार।
खून में लिपटी है
हेडलाईन।
फिर कुछ चुगलियां हैं,
कुछ बेमानी-सी टिप्पणियां,
फिर अखबार ने
हमको झुंझलाया है।
बुधवार, 1 दिसंबर 2010
शिकायतें, जो रहती नहीं
तुमने झांककर
कमरे में देखा है
कहा कुछ भी नहीं।
मेरा तपता माथा
तुम्हारी उंगलियों की
छांव ढूंढता है।
मेरी गर्म हथेली पर
क्यों नहीं उतरती
तुम्हारे पसीने की ठंडक?
मैं घूमकर बिस्तर पर से
खिड़की को देखती हूं।
दो हरे पर्दे हैं,
और है नीम की हरियाली।
आंखें तब क्यों
लाल-सी लगती हैं?
क्यों सब
मुरझाया लगता है?
तुम तेज़ चले जाते हो,
मैं भी तो
थमती, रुकती नहीं आजकल।
ये पछुआ हमको
और बहाए जाता है।
कुछ कोमल-सा जो
मन में था,
वो खुश्क बनाए जाता है।
मैं नींद में कुछ
डूबती-उतराती हूं,
आवाज़ों को
कभी पास बुलाती हूं,
कभी दूर भगाती हूं।
इसी खुमारी में मैंने
तुम्हारी सधी आवाज़ सुनी है।
उसमें घुलते सुना है
दो तोतली बोलियों को।
तीनों आवाज़ें अब
खिलखिलाती हैं,
कुछ गीत गाती हैं।
कभी फुसफुसाती हैं।
मेरे मन की रही-सही
शिकायतें
दो ठंडे मोती बनकर
तकिए पर लुढ़क आती हैं।
कमरे में देखा है
कहा कुछ भी नहीं।
मेरा तपता माथा
तुम्हारी उंगलियों की
छांव ढूंढता है।
मेरी गर्म हथेली पर
क्यों नहीं उतरती
तुम्हारे पसीने की ठंडक?
मैं घूमकर बिस्तर पर से
खिड़की को देखती हूं।
दो हरे पर्दे हैं,
और है नीम की हरियाली।
आंखें तब क्यों
लाल-सी लगती हैं?
क्यों सब
मुरझाया लगता है?
तुम तेज़ चले जाते हो,
मैं भी तो
थमती, रुकती नहीं आजकल।
ये पछुआ हमको
और बहाए जाता है।
कुछ कोमल-सा जो
मन में था,
वो खुश्क बनाए जाता है।
मैं नींद में कुछ
डूबती-उतराती हूं,
आवाज़ों को
कभी पास बुलाती हूं,
कभी दूर भगाती हूं।
इसी खुमारी में मैंने
तुम्हारी सधी आवाज़ सुनी है।
उसमें घुलते सुना है
दो तोतली बोलियों को।
तीनों आवाज़ें अब
खिलखिलाती हैं,
कुछ गीत गाती हैं।
कभी फुसफुसाती हैं।
मेरे मन की रही-सही
शिकायतें
दो ठंडे मोती बनकर
तकिए पर लुढ़क आती हैं।
शनिवार, 27 नवंबर 2010
मेरा होना... यूं होना!
नन्हीं उंगलियों में
उलझा है टूथब्रश।
पेस्ट लगे होठों पर
थिरकी मुस्कान को
बाबा उंगलियों से
छू लेते हैं।
हर्फों, गिनती,
पहाड़े, व्याकरण में
जीवन की सीख देते हैं।
मेरा होना
बाबा की पोती होना है।
अपनी बनारसी में लिपटी
सपनों की थाती
मां मुझे सौंपती है।
पापा मेरी सीढ़ियां
अपनी बचत में गिनते हैं।
मेरे गिरने-संभलने में
भी साथ चलते हैं।
मेरा होना
इनकी बेटी होना है।
ये मुझसे घी के परांठों,
किताबों की ज़िल्द,
मच्छरदानी खोलने,
लगाने पर लड़ते हैं।
रातों की नींद
मेरे दिवास्वपनों के
नाम करते हैं।
मेरे बंधन को ये
अपनी रक्षा कहते हैं।
मेरा होना
इनकी दीदी होना है।
मेरे बनाए घर को
ये जन्नत कहते हैं।
सात फेरों की कसमों पर
जीते-मरते हैं।
एक डोर हैं ये
जो मुझको मुझसे
आज़ाद करते हैं।
मेरा होना
इनकी पत्नी होना है।
तोतली बोली,
बहती नाक,
तेल की मालिश और
बेतुकी कहानियों से
ये मेरे दिन-रात भरते हैं।
मेरी गोद को अपनी
दुनिया कहते हैं।
मेरा होना
इनकी मां होना है।
कहते हैं,
मैं धरती जैसी हूं।
जीवन को रचती रहती हूं।
मेरे हाथों में नरमी है
जो पत्थर मोम बनाती है।
मेरा आंचल तो ऐसा है
सूरज को छांव बनाता है।
मैं पूजा हूं, और जोगन भी,
मैं रचना हूं, रचयिता है
संगीत हूं और कविता भी।
एक सपना हूं,
और सपने का सच होना भी।
मेरा होना
एक औरत होना है।
पुनश्च - और अपना यूं होना अपने जन्मदिन पर याद आए तो सिर नवाकर उस अलौकिक शक्ति को याद करती हूं जिसने मेरा होना, यूं होना बनाया।
उलझा है टूथब्रश।
पेस्ट लगे होठों पर
थिरकी मुस्कान को
बाबा उंगलियों से
छू लेते हैं।
हर्फों, गिनती,
पहाड़े, व्याकरण में
जीवन की सीख देते हैं।
मेरा होना
बाबा की पोती होना है।
अपनी बनारसी में लिपटी
सपनों की थाती
मां मुझे सौंपती है।
पापा मेरी सीढ़ियां
अपनी बचत में गिनते हैं।
मेरे गिरने-संभलने में
भी साथ चलते हैं।
मेरा होना
इनकी बेटी होना है।
ये मुझसे घी के परांठों,
किताबों की ज़िल्द,
मच्छरदानी खोलने,
लगाने पर लड़ते हैं।
रातों की नींद
मेरे दिवास्वपनों के
नाम करते हैं।
मेरे बंधन को ये
अपनी रक्षा कहते हैं।
मेरा होना
इनकी दीदी होना है।
मेरे बनाए घर को
ये जन्नत कहते हैं।
सात फेरों की कसमों पर
जीते-मरते हैं।
एक डोर हैं ये
जो मुझको मुझसे
आज़ाद करते हैं।
मेरा होना
इनकी पत्नी होना है।
तोतली बोली,
बहती नाक,
तेल की मालिश और
बेतुकी कहानियों से
ये मेरे दिन-रात भरते हैं।
मेरी गोद को अपनी
दुनिया कहते हैं।
मेरा होना
इनकी मां होना है।
कहते हैं,
मैं धरती जैसी हूं।
जीवन को रचती रहती हूं।
मेरे हाथों में नरमी है
जो पत्थर मोम बनाती है।
मेरा आंचल तो ऐसा है
सूरज को छांव बनाता है।
मैं पूजा हूं, और जोगन भी,
मैं रचना हूं, रचयिता है
संगीत हूं और कविता भी।
एक सपना हूं,
और सपने का सच होना भी।
मेरा होना
एक औरत होना है।
पुनश्च - और अपना यूं होना अपने जन्मदिन पर याद आए तो सिर नवाकर उस अलौकिक शक्ति को याद करती हूं जिसने मेरा होना, यूं होना बनाया।
गुरुवार, 25 नवंबर 2010
क्षणिकाएं
(1)
मेरी खिड़की पर चमका है सूरज बल्ब जैसा
इत्ती-सी रोशनी में
दिल्ली की सर्दी नहाई है।
(2)
ना चहक चिड़िया की ना गौरैया का फुदकना,
मेरी सुबह फिर भी गुलज़ार है
बच्चों के हंसने-रोने से।
(3)
ये कैसी आपाधापी है, ये कैसी भागमभाग मची,
एक बस्ते में हम सबने सुबह-सुबह
अपना पूरा दिन समेट लिया है।
(4)
पूरे दिन का टॉनिक चाहिए,
इसलिए मैं झुककर
बच्चों के बालों की खुशबू सांसों में भर लेती हूं।
(5)
भागती-दौड़ती सड़कों पर
इंसान की फितरत का पता चलता है।
मैं? मैं बाईं कतार में रुकती-चलती हूं।
(6)
दफ़्तर के कोलाहल में ही कई बार
अपने मन का शोर
काग़ज़ पर उतरने लगता है।
(7)
घर लौटी हूं।
कोलाहल में संगीत है, शोर भी लगता गीत है।
सोफे पर बच्चों ने पूरा रॉक बैंड सजाया है!
(8)
मेरे रूखे-उलझे बाल
उसकी नन्हीं उंगलियों से सुलझते हैं।
"तुम बेटी हो, मैं मम्मा हूं," कहती है छोटी आद्या!
(9)
मेरी गर्दन में झूल जाता है वो,
मेरे चश्मे पर उसकी सांसों का धुंआ है।
पूरे दिन में पहली बार मुझे कुछ साफ़ नज़र आया है!
(10)
हम तीनों पापा का स्वागत करते हैं,
ध्यान खींचने की पुरज़ोर कोशिश में
हमने उनको टीवी के सामने ले जा पटका है!
(11)
नवंबर की ठंड और बारिश को
मोरपंखी नीला कंबल और
हम तीनों के पैरों की गर्मी ऊष्म बनाए है।
(12)
कहानियां हैं, लोरियां हैं,
एक-दूसरे की उंगलियों में उलझे हाथ भी।
नींद में अब मैं सपने नहीं देखती!
(13)
सूरज आज नहीं निकला,
फिर भी दिल्ली की सर्दी रोशन है।
दिन भर के लिए हमने हथेलियों में गर्मी भर ली है...
बुधवार, 17 नवंबर 2010
ये घर बहुत हसीन है
पता नहीं किन-किन गलियों से होकर हम इस सफेद इमारत के सामने पहुंचे हैं। गणेश अपार्टमेंट्स - यही तो नाम था। सामने आसाराम बापू का आश्रम, उसके बगल में गंदा-सा खाली मैदान, मैदान में गायें-बकरियां-बैल-कुत्ते नवंबर की धूप सेंकते हुए। ये फरीदाबाद का दयाल बाग़ है। नाम अपमार्केट, लेकिन अपमार्केट जैसा कुछ भी नहीं। मैं एक हाथ से अपनी साड़ी और दूसरे से दोनों बच्चे संभालते हुए इमारत में घुसी ही हूं कि आदित को तेज़ उबकाई आई है और पूरा फर्श उसकी उल्टी से भर गया है। इसे क्या हो गया? घर से तो हम ठीक ही निकले थे। आद्या को पीछे हटाते हुए मैं पहले आदित को संभालती हूं। आद्या ने मेरे हाथ का बैग और पर्स अपने कमज़ोर कंधों पर ले लिया है। हम किसी तरह लदे-फदे से दूसरी मंज़िल पर चले आते हैं।
घर में घुसते ही मुझे पता ही नहीं चला कि किसने आदित को गोद ले लिया, कौन आद्या का हाथ पकड़कर भीतर ले गया। इन सभी लोगों को मैं पहचानती हूं, ये मेरी छोटी मौसी का घर है। घर बेशक नया है, लेकिन घर में मौजूद रहनेवाली ये भीड़ मैं 1995 से देख रही हूं, जबसे मौसी की शादी हुई। अपनी आवाज़ में क्षमा-याचना घोलकर मैं एक बाल्टी पानी मांगती हूं, उल्टी साफ करने के लिए। पैर छूने-छुआने, आर्शीवाद देने-लेने के बीच मैंने देखा ही नहीं कि इसी भीड़ में से किसी को आदित ने अपनी उल्टी की हुई जगह बालकनी से दिखा भी दी और सफाई हो भी चुकी।
ये एक संयुक्त परिवार है, फरीदाबाद में रहनेवाला एक संयुक्त बिहारी परिवार। यहां मेहमान नहीं आते। आते भी हैं तो घर के सदस्य कहलाते हैं। यहां आनेवाला अतिथि यहीं का होकर रह जाता है और ये कोई अतिशयोक्ति नहीं। जितनी बार मौसी के घर आई हूं, एक नया चेहरा देखा है। फलां बुआ के फलां देवर का फलां बेटा। दिल्ली कंप्यूटर कोर्स करने आया है। यहीं रह गया। फलां चाची की बेटी दिल्ली नौकरी ढूंढने आई। यहीं रह गई। कोई गांव से इलाज कराने आता है, कोई लड़का देखने। जो आता है, यहां अपनी निशानी छोड़ जाता है। शायद कुल बारह-तेरह बच्चे हैं जो किसी-ना-किसी मकसद के साथ यहां, मौसी के घर में रह रहे हैं। मौसाजी और उनके छोटे भाई इन बच्चों को सिर पर छत देते हैं, मार्गदर्शन देते हैं। उन दोनों की पत्नियां सबको प्यार से खिलाती-पिलाती हैं और अक्सर अपने घर के बजट में कटौती कर कभी उनके इम्तिहानों के फॉर्म भरती हैं तो कभी उन्हें फ्रेंच क्लास के लिए भेजती हैं। उम्र? मौसी मुझसे छह साल बड़ी हैं और उनकी देवरानी शायद मेरी उम्र की होंगी। लेकिन इतने सालों में मैंने उन्हें कभी परेशान नहीं देखा, कभी शिकायत करते नहीं देखा, और सच रह रही हूं, कभी परेशानी की लकीर नहीं देखी माथे पर।
इस घर के चूल्हे में अन्नपूर्णा विराजमान है, मैंने कई बार कहा है उन दोनों से। आज हम दो घंटे के लिए गए थे वहां, पूरे आठ घंटे बिताकर लौटे हैं। और शायद बच्चों का वश चलता तो कभी नहीं आते।
घर किसे कहते हैं? हम घर में अपना कोना तलाश करते हैं, बनाते भी हैं। उस स्पेस को हम एक घेरे के भीतर रखते हैं। टेबल का कोई कोना, बिस्तर, अपनी कोई अलमारी या फिर चौका-चूल्हा - सबपर अपनी छाप ढूंढते हैं, अपना वर्चस्व चाहते हैं। यहां किसी का कोई निजी स्पेस नहीं। तीन कमरों में नहीं जानती कितने लोग रहते हैं, एक साथ। दोनों मौसी लोगों के दो-दो बच्चे हैं। मौसी की बेटी अनन्या डाउन्स सिंड्रोम के साथ पैदा हुई थी। लेकिन इतने सारे लोगों के बीच में रहते हुए उसमें असाधारण कुछ भी नज़र नहीं आता अब। मेरे बच्चों को इतनी देर में ही कोई कीबोर्ड बजाना सीखा रहा था, कोई पेंटिंग करा रहा था। बच्चों के लिए सब मौसियां थीं, सब मामा लोग थे।
आठ घंटे कैसे बीते, पता ही नहीं चला। वहां से लौटी हूं तो लगता है हम कितने स्वार्थी हैं, कितनी शिकायतें रखते हैं ज़िन्दगी से! घर ईंट-गारे-पत्थर-बालू से नहीं बनता। घर रेशमी पर्दों, महंगी टाइलों और रंगीन दीवारों से भी नहीं बनता। घर प्यार से बनता है, सहिष्णुता, धैर्य से बनता है। अपनापन घर की सबसे बड़ी नेमत होती है। इतनी बड़ी भीड़ को खिलाते-पिलाते हुए भी मौसी और छोटी मौसी मेरी विदाई करते हुए छठ का प्रसाद डिब्बे में बंद करके देना नहीं भूलती। माथे पर सिंदूर लगाती हैं, नई बिंदी सजाती हैं और हाथ में एक-एक कड़ा डालती हैं। जितनी बार जाती हूं उतनी बार बच्चों को नए खिलौने मिलते हैं।
मैं मौसी और छोटी मौसी का आशीर्वाद लेने के लिए झुकी हूं। इतना कह पायी हूं कि अपने धैर्य और विश्वास, प्यार और संस्कार का दो फ़ीसदी दे दो मुझे मौसी। मैं इतने में सोना बन जाऊंगी। (देखा! अभी भी अपने बारे में सोच रही हूं...)
घर में घुसते ही मुझे पता ही नहीं चला कि किसने आदित को गोद ले लिया, कौन आद्या का हाथ पकड़कर भीतर ले गया। इन सभी लोगों को मैं पहचानती हूं, ये मेरी छोटी मौसी का घर है। घर बेशक नया है, लेकिन घर में मौजूद रहनेवाली ये भीड़ मैं 1995 से देख रही हूं, जबसे मौसी की शादी हुई। अपनी आवाज़ में क्षमा-याचना घोलकर मैं एक बाल्टी पानी मांगती हूं, उल्टी साफ करने के लिए। पैर छूने-छुआने, आर्शीवाद देने-लेने के बीच मैंने देखा ही नहीं कि इसी भीड़ में से किसी को आदित ने अपनी उल्टी की हुई जगह बालकनी से दिखा भी दी और सफाई हो भी चुकी।
ये एक संयुक्त परिवार है, फरीदाबाद में रहनेवाला एक संयुक्त बिहारी परिवार। यहां मेहमान नहीं आते। आते भी हैं तो घर के सदस्य कहलाते हैं। यहां आनेवाला अतिथि यहीं का होकर रह जाता है और ये कोई अतिशयोक्ति नहीं। जितनी बार मौसी के घर आई हूं, एक नया चेहरा देखा है। फलां बुआ के फलां देवर का फलां बेटा। दिल्ली कंप्यूटर कोर्स करने आया है। यहीं रह गया। फलां चाची की बेटी दिल्ली नौकरी ढूंढने आई। यहीं रह गई। कोई गांव से इलाज कराने आता है, कोई लड़का देखने। जो आता है, यहां अपनी निशानी छोड़ जाता है। शायद कुल बारह-तेरह बच्चे हैं जो किसी-ना-किसी मकसद के साथ यहां, मौसी के घर में रह रहे हैं। मौसाजी और उनके छोटे भाई इन बच्चों को सिर पर छत देते हैं, मार्गदर्शन देते हैं। उन दोनों की पत्नियां सबको प्यार से खिलाती-पिलाती हैं और अक्सर अपने घर के बजट में कटौती कर कभी उनके इम्तिहानों के फॉर्म भरती हैं तो कभी उन्हें फ्रेंच क्लास के लिए भेजती हैं। उम्र? मौसी मुझसे छह साल बड़ी हैं और उनकी देवरानी शायद मेरी उम्र की होंगी। लेकिन इतने सालों में मैंने उन्हें कभी परेशान नहीं देखा, कभी शिकायत करते नहीं देखा, और सच रह रही हूं, कभी परेशानी की लकीर नहीं देखी माथे पर।
इस घर के चूल्हे में अन्नपूर्णा विराजमान है, मैंने कई बार कहा है उन दोनों से। आज हम दो घंटे के लिए गए थे वहां, पूरे आठ घंटे बिताकर लौटे हैं। और शायद बच्चों का वश चलता तो कभी नहीं आते।
घर किसे कहते हैं? हम घर में अपना कोना तलाश करते हैं, बनाते भी हैं। उस स्पेस को हम एक घेरे के भीतर रखते हैं। टेबल का कोई कोना, बिस्तर, अपनी कोई अलमारी या फिर चौका-चूल्हा - सबपर अपनी छाप ढूंढते हैं, अपना वर्चस्व चाहते हैं। यहां किसी का कोई निजी स्पेस नहीं। तीन कमरों में नहीं जानती कितने लोग रहते हैं, एक साथ। दोनों मौसी लोगों के दो-दो बच्चे हैं। मौसी की बेटी अनन्या डाउन्स सिंड्रोम के साथ पैदा हुई थी। लेकिन इतने सारे लोगों के बीच में रहते हुए उसमें असाधारण कुछ भी नज़र नहीं आता अब। मेरे बच्चों को इतनी देर में ही कोई कीबोर्ड बजाना सीखा रहा था, कोई पेंटिंग करा रहा था। बच्चों के लिए सब मौसियां थीं, सब मामा लोग थे।
आठ घंटे कैसे बीते, पता ही नहीं चला। वहां से लौटी हूं तो लगता है हम कितने स्वार्थी हैं, कितनी शिकायतें रखते हैं ज़िन्दगी से! घर ईंट-गारे-पत्थर-बालू से नहीं बनता। घर रेशमी पर्दों, महंगी टाइलों और रंगीन दीवारों से भी नहीं बनता। घर प्यार से बनता है, सहिष्णुता, धैर्य से बनता है। अपनापन घर की सबसे बड़ी नेमत होती है। इतनी बड़ी भीड़ को खिलाते-पिलाते हुए भी मौसी और छोटी मौसी मेरी विदाई करते हुए छठ का प्रसाद डिब्बे में बंद करके देना नहीं भूलती। माथे पर सिंदूर लगाती हैं, नई बिंदी सजाती हैं और हाथ में एक-एक कड़ा डालती हैं। जितनी बार जाती हूं उतनी बार बच्चों को नए खिलौने मिलते हैं।
मैं मौसी और छोटी मौसी का आशीर्वाद लेने के लिए झुकी हूं। इतना कह पायी हूं कि अपने धैर्य और विश्वास, प्यार और संस्कार का दो फ़ीसदी दे दो मुझे मौसी। मैं इतने में सोना बन जाऊंगी। (देखा! अभी भी अपने बारे में सोच रही हूं...)
मंगलवार, 16 नवंबर 2010
Talk. Talk. TALK!!!
What I would like to do now is use the time that is coming now to talk about some things that have come to mind. We are in such a hurry most of the time, we never get much chance to TALK. The result is a kind of endless day-to-day shallowness, a monotony that leaves a person wondering years later where all the time went and sorry for that it's all gone.
So, here is your chance to TALK. What started with a monologue sometimes results into very meaningful dialogue, with ideas flowing in from all sides - sometimes inspirational, sometimes creative, intuitive, imaginative...
Talking doesn't necessarily proceed by laws or by reasons. Talking proceeds by feelings, intuition and conscience. Talking, I would say, is a representation of thoughts and behaviour.
Let's see what a talk can do. The "meaningful" one will be unadorned but emotional and it may not look inspirational immediately. But it surely brings order to the chaos of mind and makes the unknown known. If not that, it at least helps us acknowledge the unknown, and sometimes helps us accept it. I would measure "a meaningful talk" by the control it has managed to achieve over outbursts of emotions.
And then, there is a talk which just eases your mind, brightens up your day, brings a smile on your face. It may not have a purpose behind it, but it certainly holds as much significance in one's life. Why would you otherwise long for those nonsensical, high-spirited, aimless conversations with family and friends and friends of friends and people waiting to be your friends over endless number of coffee/tea/alcohol sessions?
Talking, however, is an art. You may not possess it inherently, but you train yourself bit-by-bit. You learn the aesthetics, you learn to restrain or to set yourself free. You learn when to become straightforward, and when to add that zing of humour and you learn how to sound diplomatic and subtle.
27th October 2002
PS: I haven't known the art yet, 8 years hence. And what am I doing here sharing this long-forgotten thought? Reminding myself of the importance of talking, which I most often forget. I am also starting a monologue here, hoping that it will result into dialogues which will hopefully be consequential and comprehensible.
सोमवार, 15 नवंबर 2010
पुराने पन्नों से - भाग चार
After reading "English, August" by Upamanyu Chatterjee
"It's very tempting to take the easy way out, to go on about how the people here are so dull, ignorant, smug and provincial. They are all that, but there's also something very wrong about my attitude to them".
"Do not choose the soft option just because it is the soft option. One cannot fulfill oneself by doing so. Yet it is also true that it is your life, and the decisions have to be yours."
"English, August" chronicles the life of a trainee civil servant, and I must say that this one character Agastya has made me feel terribly guilty of what I have been doing of my own life. I could identify with Agastya Sen some bit, because I feel that confusion and disorientation at this stage of my life. Life can be so unsettling at times, and so dull and prosaic. You do feel the yearning of wanting to break free too. The moment when you want to shrug off the responsibilities, when you would rather want to be worthless. That suits us sometimes, you see.
But having said that, you can be an escapist only momentarily. One has to come back to life. So, what you ought to do of your life should come naturally to you, not as a pressure or as a compulsion, as if you didn't have any other choice! I wonder if that was the feeling that made Agastya come back to the community of "Sahibs"!
I loved Chatterjee's punchy one-liners. They hit you so hard! I can't be so ruthlessly honest while communicating, I can't write without inhibitions. No, not yet. And well, I am glad there are some like me too, disoriented and disillusioned. I won't be so harsh on myself now.
7.30 PM
17th March, 2000
(IIMC hostel)
"Whatever you choose to do, you will regret everything or regret nothing. You are not James Bond, you only live once."
रविवार, 14 नवंबर 2010
पुराने पन्नों से - भाग तीन
Poetry
I celebrate
The glow of life,
Amidst tiny cracks of make-up,
Futile bickering,
Amidst hope of vanity.
I celebrate
When bubbles of exasperation bursts.
Amidst superfluous commotion.
Avoiding sharp,
Distressed eyes.
I celebrate,
Because I have found you,
Poetry.
You are not my portrayal of escape.
You remain prime justification
Of who I am,
Of my elements,
With all my impediments.
(2oth February 1999)
I celebrate
The glow of life,
Amidst tiny cracks of make-up,
Futile bickering,
Amidst hope of vanity.
I celebrate
When bubbles of exasperation bursts.
Amidst superfluous commotion.
Avoiding sharp,
Distressed eyes.
I celebrate,
Because I have found you,
Poetry.
You are not my portrayal of escape.
You remain prime justification
Of who I am,
Of my elements,
With all my impediments.
(2oth February 1999)
गुरुवार, 11 नवंबर 2010
पुराने पन्नों से - भाग दो
तन्हां
एक तन्हां वृक्ष,
कुछ पत्ते, थोड़े फूल,
लेकिन ना आबोहवा
ना नमी का निशां।
रेगिस्तान के बीच
चिलचिलाती धूप में खड़ा।
रेत पर ढूंढता रहेगा
वो वृक्ष कोई पदचिन्ह।
हज़ार बार बनाई होगी
हवाओं ने
कोई आकृति
सतह पर बिछी हुई मिट्टी पर।
मौन, चुपचाप, शांत
प्रतीक्षा करेगा वो वृक्ष,
अपनी थोड़ी-सी छांव
किसी पथिक से बांटने के लिए।
(10 फरवरी 1995)
प्रतिभा
शांत झील का किनारा,
झील में खिलता एक कमल
शायद बेचैन है
किसी प्रशंसक के लिए।
क्योंकि झील का किनारा
है बिल्कुल निर्जन।
तो क्या उस कमल का
कोई प्रशंसक नहीं आएगा?
क्या एक सुन्दर फूल
कहीं तक पहुंचने से पहले
मुरझा जाएगा?
फिर कोई एक प्रतिभा
खुद को सबके सामने
लाने से पहले
अपनी रोशनी खो चुकी होगी।
कमल कमज़ोर है,
असहाय।
झील के बीच
खिले उस कमल को
कौन पूछे?
(14 फरवरी 1995)
(ये कविता मैंने अपनी मां के लिए लिखी, जिनका नाम प्रतिभा है...)
दस्तूर
वक्त गुज़रता जा रहा है
और मैं तकाज़ा ले रही हूं वक्त का।
भूत, वर्तमान, भविष्य का।
सोचती हूं,
वक्त का पहिया घूमता जाएगा
घूमता जाएगा निरंतर।
क्या होगा भविष्य मेरा?
मेरे अपनों का?
मेरे देश का?
इस संसार का?
ये प्रश्न मेरा नहीं, सबका है।
सब भविष्य के लिए ही तो जीते हैं।
यही उम्मीद लेकर
कि वर्तमान से भविष्य बेहतर होगा।
समझती हूं,
जबतक हम हैं,
वक्त की चिंता है।
भविष्य की चिंता है।
यही तो है
वक्त का,
कुदरत का दस्तूर।
(16 फरवरी 1995)
(कमाल की बात है कि ठीक दस साल बाद इसी दिन मेरी शादी हुई। वक्त का, कुदरत का दस्तूर!)
उस क्षितिज के पार क्या है
तोड़कर दिखला दो मुझको
उस क्षितिज के पार क्या है
ढो रहे जिसको निरर्थक
उस जीवन का सार क्या है
हर तरफ निराश जन के
जीवन का आधार क्या है
रूढ़ियां ही तो बंधन हैं
और कारागार क्या है
जीवन से तो जीत ही गए
अब हमारी हार क्या है
मांग रहे दो पल मौत से
बाकी अब उधार क्या है
दुख-सुख तो सहते रहे
अब वक्त की मार क्या है
जीवन के बहते निर्झर में
अपनी बहती धार क्या है
इतनी लिप्साएं हैं अपनीं
उनका अब उद्गार क्या है
कोई मुझको ये बतला दे
आखिर ये संसार क्या है
उस क्षितिज के पार क्या है?
(18 फरवरी 1995)
(हो सकता है ये कविता महादेवी की कविता से प्रभावित रही हो)
सावन का आना
सावन आया पास तुम्हारे लेकर नई कहानी
देखो, आज पुनः उस अमराई में कोयल बोली।
लगी पपीहा शोर मचाने रूत है भीगी-भीगी सी
लगता मानो उठनेवाली है बिटिया की डोली
गिर गई बूंदें, शर्म से लाल हुए हैं बादल
किसने डाली उनपर कुमकुम और रोली?
छायी हरियाली बाग, खेत, खलिहानों में
खेल रहा है जग सारा हरे रंग की होली।
(15 अगस्त 1995)
(ये कविता मुझे जिस पन्ने पर मिली, उसमें फिजिक्स के सवाल हल करने की कोशिश जैसा भी कुछ नज़र आया मुझे। वो सवाल फिर कभी...)
एक तन्हां वृक्ष,
कुछ पत्ते, थोड़े फूल,
लेकिन ना आबोहवा
ना नमी का निशां।
रेगिस्तान के बीच
चिलचिलाती धूप में खड़ा।
रेत पर ढूंढता रहेगा
वो वृक्ष कोई पदचिन्ह।
हज़ार बार बनाई होगी
हवाओं ने
कोई आकृति
सतह पर बिछी हुई मिट्टी पर।
मौन, चुपचाप, शांत
प्रतीक्षा करेगा वो वृक्ष,
अपनी थोड़ी-सी छांव
किसी पथिक से बांटने के लिए।
(10 फरवरी 1995)
प्रतिभा
शांत झील का किनारा,
झील में खिलता एक कमल
शायद बेचैन है
किसी प्रशंसक के लिए।
क्योंकि झील का किनारा
है बिल्कुल निर्जन।
तो क्या उस कमल का
कोई प्रशंसक नहीं आएगा?
क्या एक सुन्दर फूल
कहीं तक पहुंचने से पहले
मुरझा जाएगा?
फिर कोई एक प्रतिभा
खुद को सबके सामने
लाने से पहले
अपनी रोशनी खो चुकी होगी।
कमल कमज़ोर है,
असहाय।
झील के बीच
खिले उस कमल को
कौन पूछे?
(14 फरवरी 1995)
(ये कविता मैंने अपनी मां के लिए लिखी, जिनका नाम प्रतिभा है...)
दस्तूर
वक्त गुज़रता जा रहा है
और मैं तकाज़ा ले रही हूं वक्त का।
भूत, वर्तमान, भविष्य का।
सोचती हूं,
वक्त का पहिया घूमता जाएगा
घूमता जाएगा निरंतर।
क्या होगा भविष्य मेरा?
मेरे अपनों का?
मेरे देश का?
इस संसार का?
ये प्रश्न मेरा नहीं, सबका है।
सब भविष्य के लिए ही तो जीते हैं।
यही उम्मीद लेकर
कि वर्तमान से भविष्य बेहतर होगा।
समझती हूं,
जबतक हम हैं,
वक्त की चिंता है।
भविष्य की चिंता है।
यही तो है
वक्त का,
कुदरत का दस्तूर।
(16 फरवरी 1995)
(कमाल की बात है कि ठीक दस साल बाद इसी दिन मेरी शादी हुई। वक्त का, कुदरत का दस्तूर!)
उस क्षितिज के पार क्या है
तोड़कर दिखला दो मुझको
उस क्षितिज के पार क्या है
ढो रहे जिसको निरर्थक
उस जीवन का सार क्या है
हर तरफ निराश जन के
जीवन का आधार क्या है
रूढ़ियां ही तो बंधन हैं
और कारागार क्या है
जीवन से तो जीत ही गए
अब हमारी हार क्या है
मांग रहे दो पल मौत से
बाकी अब उधार क्या है
दुख-सुख तो सहते रहे
अब वक्त की मार क्या है
जीवन के बहते निर्झर में
अपनी बहती धार क्या है
इतनी लिप्साएं हैं अपनीं
उनका अब उद्गार क्या है
कोई मुझको ये बतला दे
आखिर ये संसार क्या है
उस क्षितिज के पार क्या है?
(18 फरवरी 1995)
(हो सकता है ये कविता महादेवी की कविता से प्रभावित रही हो)
सावन का आना
सावन आया पास तुम्हारे लेकर नई कहानी
देखो, आज पुनः उस अमराई में कोयल बोली।
लगी पपीहा शोर मचाने रूत है भीगी-भीगी सी
लगता मानो उठनेवाली है बिटिया की डोली
गिर गई बूंदें, शर्म से लाल हुए हैं बादल
किसने डाली उनपर कुमकुम और रोली?
छायी हरियाली बाग, खेत, खलिहानों में
खेल रहा है जग सारा हरे रंग की होली।
(15 अगस्त 1995)
(ये कविता मुझे जिस पन्ने पर मिली, उसमें फिजिक्स के सवाल हल करने की कोशिश जैसा भी कुछ नज़र आया मुझे। वो सवाल फिर कभी...)
पुराने पन्नों से
लंबे समय से गायब हूं। बहाने कई होंगे। यहां बहाने या अपने आलस्य की सफाई देने नहीं आई। आई हूं वो बांटने जो दीपपर्व से पहले घर की सफाई के दौरान हाथ लगा। एक पुराना बक्सा, बक्से में बंद एक पीली-सी फटी हुई डायरी और एक फाइल जिसमें अख़बार की कई कतरनें मिलीं... ये डायरी, ये पन्ने 1994 से लेकर 1996 तक के हैं, जब मेरी उम्र 15 से 17 के बीच रही होगी। अब पढ़कर हंसी आ रही है, हैरान भी हूं कि ये सब लिखा कैसे होगा। क्या-क्या नहीं है इनमें? मेरी कविताएं जो छपीं, पुस्तक समीक्षाएं, वे पात्र जिन्होंने प्रभावित किया, quotes, उन किताबों के नाम जो मैंने पढ़ा होगा और पढ़ना चाहती थी, उन गानों की लिस्ट जो मैं हमेशा सुनना चाहती थी... इन पन्नों को उलटते हुए लगा जैसे खुद से एक साक्षात्कार हुआ है। ये ख़ुद पर यकीन पुख़्ता होने जैसा कुछ अनुभव है, जिन्हें यहां के यहां, अभी के अभी लिख लेना चाहती हूं। इसलिए क्योंकि किसी ऐसे क्षण, जब भरोसा डिगने लगे तो मैं वापस यहीं आ सकूं, reinforcement के लिए।
(नीचे आनेवाली कविताएं 'आज' में 'नए हस्ताक्षर' स्तंभ में छपीं, 1 फरवरी 1995 से 16 फरवरी 1995 के बीच)
भारत-वेदना
थककर चलते भारत पर एक गाज-सा गिरा है,
क्षुधित, पिपासु आंखों में आंसू का एक सिरा है।
एक दुख ही सहना हो, तब तो चुप रह जाऊं मैं,
भारत मां को रोते देखा, कैसे ये सह जाऊं मैं?
कहीं गरीबी, कहीं, अशिक्षा, कोई ना पीछा छोड़े,
इन कांटों को घेरों को बोलो तो कैसे तोड़ें?
भरपेट मिले ना भोजन, तन ढंकने को वस्त्र नहीं,
पूछूं आज मैं किससे, ये समाज क्या त्रस्त नहीं?
'कम हों बच्चे, कम हो जनता', कल था जिनका नारा,
आज उन्हीं लोगों को देखो, प्लेग ने है मारा।
पूरब चीख उठा है, पश्चिम भी रो रहा है,
उत्तर, दक्षिण में हाय ये क्या हो रहा है।
खुदा के लिए लड़े, बदनाम करें कभी राम को,
तरस जाते हैं वही लोग खुदाई के नाम को।
भ्रष्ट हो गए मां के बच्चे ले झूठ का सहारा,
कुछ ना बचा तो सज़ा देकर प्रकृति ने ही मारा।
मां भारती! कैसे पूछूं बोलो कब मुस्काओगी?
परतंत्रता के बाद के बंधन कैसे तोड़ पाओगी।
हाय! तुमको मेरी माता, कैसे-कैसे दिन हैं देखने,
इन पल्लवित अधरों को हंसी के बिन हैं देखने।
नहीं देख सकती मैं तुमको मां ऐसे ही रोते,
पर आंसू पोंछने को आगे लोग भी होते!
एकता का गीत गाऊं, साथ कोई दे दे।
कठिन डगर है, हाथों में हाथ कोई दे दे।
(1 फरवरी 1995)
उसे रोको
चंदा की शीतल चांदनी ने
मन में एक आशा-सी जगाई है।
आशा, रजनी के अंधेरे में
एक प्रकाश-पुंज की
जो उस तिमिर रात्रि को चीरता हुआ
मेरे समीप से गुज़रा है।
उसी धुंधली रोशनी में
एक परछाई को जाते देखा है।
मेरी निगाहें उसका पीछा करती हैं,
उसके ठहरते ही मेरी नज़रें ठहर जाती हैं।
मैं उसका परिचय जानने को उत्सुक हूं।
उसने बताया है,
वो सच्चाई है।
समाज के कोप, क्रोध से बचने के लिए
वो जा रही है, दूर कहीं।
वो जा रही है,
उसे रोको,
उसे रोको!
(2 फरवरी 1995)
तृषिता
पानी पर खींची हुई लकीरें
ज्यों खुद हो जाती हूं गुम।
क्या करोगी जब
गीली मिट्टी पर
पूरी लगन से
तुम्हारी उंगलियां
कल्पनाओं की लकीरें बनाएं
और निर्मम जल-धार
उन्हें बहाकर ले जाए।
अश्रुकणों से बोझिल पलकें
देखती रह जाएंगी जल-धार को।
कितना वैषम्य है यहां!
कितनी आशाएं
दम तोड़ देती हैं
फलीभूत होने से पहले।
शायद तुम्हारे कदम
फिर भी उठें,
उसी मृगतृष्णा की ओर।
और तृषिता हो जाओ तुम,
वहीं, जहां
आशा की किरणें फिर भी
नज़र आती हैं
पानी की लकीरों को छूते हुए!
(3 फरवरी 1995)
(नीचे आनेवाली कविताएं 'आज' में 'नए हस्ताक्षर' स्तंभ में छपीं, 1 फरवरी 1995 से 16 फरवरी 1995 के बीच)
भारत-वेदना
थककर चलते भारत पर एक गाज-सा गिरा है,
क्षुधित, पिपासु आंखों में आंसू का एक सिरा है।
एक दुख ही सहना हो, तब तो चुप रह जाऊं मैं,
भारत मां को रोते देखा, कैसे ये सह जाऊं मैं?
कहीं गरीबी, कहीं, अशिक्षा, कोई ना पीछा छोड़े,
इन कांटों को घेरों को बोलो तो कैसे तोड़ें?
भरपेट मिले ना भोजन, तन ढंकने को वस्त्र नहीं,
पूछूं आज मैं किससे, ये समाज क्या त्रस्त नहीं?
'कम हों बच्चे, कम हो जनता', कल था जिनका नारा,
आज उन्हीं लोगों को देखो, प्लेग ने है मारा।
पूरब चीख उठा है, पश्चिम भी रो रहा है,
उत्तर, दक्षिण में हाय ये क्या हो रहा है।
खुदा के लिए लड़े, बदनाम करें कभी राम को,
तरस जाते हैं वही लोग खुदाई के नाम को।
भ्रष्ट हो गए मां के बच्चे ले झूठ का सहारा,
कुछ ना बचा तो सज़ा देकर प्रकृति ने ही मारा।
मां भारती! कैसे पूछूं बोलो कब मुस्काओगी?
परतंत्रता के बाद के बंधन कैसे तोड़ पाओगी।
हाय! तुमको मेरी माता, कैसे-कैसे दिन हैं देखने,
इन पल्लवित अधरों को हंसी के बिन हैं देखने।
नहीं देख सकती मैं तुमको मां ऐसे ही रोते,
पर आंसू पोंछने को आगे लोग भी होते!
एकता का गीत गाऊं, साथ कोई दे दे।
कठिन डगर है, हाथों में हाथ कोई दे दे।
(1 फरवरी 1995)
उसे रोको
चंदा की शीतल चांदनी ने
मन में एक आशा-सी जगाई है।
आशा, रजनी के अंधेरे में
एक प्रकाश-पुंज की
जो उस तिमिर रात्रि को चीरता हुआ
मेरे समीप से गुज़रा है।
उसी धुंधली रोशनी में
एक परछाई को जाते देखा है।
मेरी निगाहें उसका पीछा करती हैं,
उसके ठहरते ही मेरी नज़रें ठहर जाती हैं।
मैं उसका परिचय जानने को उत्सुक हूं।
उसने बताया है,
वो सच्चाई है।
समाज के कोप, क्रोध से बचने के लिए
वो जा रही है, दूर कहीं।
वो जा रही है,
उसे रोको,
उसे रोको!
(2 फरवरी 1995)
तृषिता
पानी पर खींची हुई लकीरें
ज्यों खुद हो जाती हूं गुम।
क्या करोगी जब
गीली मिट्टी पर
पूरी लगन से
तुम्हारी उंगलियां
कल्पनाओं की लकीरें बनाएं
और निर्मम जल-धार
उन्हें बहाकर ले जाए।
अश्रुकणों से बोझिल पलकें
देखती रह जाएंगी जल-धार को।
कितना वैषम्य है यहां!
कितनी आशाएं
दम तोड़ देती हैं
फलीभूत होने से पहले।
शायद तुम्हारे कदम
फिर भी उठें,
उसी मृगतृष्णा की ओर।
और तृषिता हो जाओ तुम,
वहीं, जहां
आशा की किरणें फिर भी
नज़र आती हैं
पानी की लकीरों को छूते हुए!
(3 फरवरी 1995)
सोमवार, 1 नवंबर 2010
आऊंगी एक दिन। आज जाऊं?
मैं कहां हूं?
आज मिलूंगी मैं किधर?
अपनी ही तलाश में
निकली हूं घर से।
लौटूंगी फिर यहीं,
इसी चौखट पर।
मेरी ख़ुद से
एक जंग है आज।
निकलना है आगे,
ख़ुद से ही मुझको,
ये है ऐसा सफ़र।
जो लौटी तो ठीक,
ना लौटी तो
संभाले रखना
मुझे मेरे साथी,
यहीं, इसी जगह पर।
आज मिलूंगी मैं किधर?
अपनी ही तलाश में
निकली हूं घर से।
लौटूंगी फिर यहीं,
इसी चौखट पर।
मेरी ख़ुद से
एक जंग है आज।
निकलना है आगे,
ख़ुद से ही मुझको,
ये है ऐसा सफ़र।
जो लौटी तो ठीक,
ना लौटी तो
संभाले रखना
मुझे मेरे साथी,
यहीं, इसी जगह पर।
रविवार, 31 अक्टूबर 2010
Sanity sucks. Thank you very much.
"Hey girl, whassup on a Sunday?" That's my super sexy, super hot Gucci wearing globetrotter 'friend' calling.
"Hmmm... Well, multitasking. Cutting tori, looking for the spatula that Adit has pushed under the sofa, wiping Adya's bum, and thinking of when to have that much-needed haircut."
"Wow, multitasking indeed." Do I hear sarcasm?
I can almost imagine her walk into 1149. I can imagine her cringe while sitting on that milk-stained sofa. How is she to manoeuver her way to the loo with all these blocks, clothes, dupatta, picture books, crayons, bags, water bottles, toys spread all over the floor?
"How do you keep yourself sane Anu?"
Here comes the most dreaded question.
"I am in good company," I say. "Darn good company."
"For instance?"
"It was Coke Studio yesterday. Today is a date with AR Rehman. Sometimes it is Gulzar-RD together, otherwise Raahat, Abida, Kishore, they all come over. I have Kaifi's poetry that puts me to sleep, and then Prasoon Joshi writes just what I want to listen to. And then I have friends like you who help me discover that sense of humour I never had!"
Having said that, who wants to remain sane anyway. (And I type this at the cost of tori ki sabzi that burns on the stove...
"Hmmm... Well, multitasking. Cutting tori, looking for the spatula that Adit has pushed under the sofa, wiping Adya's bum, and thinking of when to have that much-needed haircut."
"Wow, multitasking indeed." Do I hear sarcasm?
I can almost imagine her walk into 1149. I can imagine her cringe while sitting on that milk-stained sofa. How is she to manoeuver her way to the loo with all these blocks, clothes, dupatta, picture books, crayons, bags, water bottles, toys spread all over the floor?
"How do you keep yourself sane Anu?"
Here comes the most dreaded question.
"I am in good company," I say. "Darn good company."
"For instance?"
"It was Coke Studio yesterday. Today is a date with AR Rehman. Sometimes it is Gulzar-RD together, otherwise Raahat, Abida, Kishore, they all come over. I have Kaifi's poetry that puts me to sleep, and then Prasoon Joshi writes just what I want to listen to. And then I have friends like you who help me discover that sense of humour I never had!"
Having said that, who wants to remain sane anyway. (And I type this at the cost of tori ki sabzi that burns on the stove...
शनिवार, 30 अक्टूबर 2010
जिसने चैनलों की शक्ल (और अक्ल) बदल डाली
मुझे टीवी प्रो़डक्शन पढ़ाने के लिए बुलाया गया है। दस क्लासेज़ के दस मो़ड्युल्स में वो सबकुछ समेटना है (और सिखाना भी है) जो आप टीवी में दस सालों तक रहकर भी नहीं सीख पाते। मैं एक छोटे-से अभ्यास के साथ क्लास शुरू करती हूं। ब्रॉ़डकास्ट में अपना भविष्य तलाश कर रहे छात्रों को उनके पसंदीदा कार्यक्रम के बारे में लिखने को कहती हूं, 100 शब्दों में। 23 में से 8 एनडीटीवी इंडिया के 'रवीश की रिपोर्ट' पर अपनी टिप्पणी देते हैं, 3 आजतक पर आनेवाली 'सीधी बात' को अपना पसंदीदा कार्यक्रम बताते हैं, दो ने 'बिग बॉस' के बारे में लिखा है तो ज़्यादातर लड़कियां आईबीएन 7 पर ऋचा अनिरुद्ध के कार्यक्रम 'ज़िन्दगी लाइव' जैसे कार्यक्रम पसंद करती हैं और वैसा ही कुछ बनाना चाहती हैं। लेकिन एक और कार्यक्रम है जो क्लास में भी टीआरपी के लिहाज़ से इन सभी को मात दिए है - इंडिया टीवी पर आनेवाला 'आपकी अदालत'।
आख़िर ऐसी क्या बात है रजत शर्मा के इस कॉन्सेप्ट में, जो सोलह-सत्रह सालों बाद भी ये कार्यक्रम इतना लोकप्रिय है? नेता हों या अभिनेता, बाबा रामदेव हों या राखी सावंत, रजत शर्मा की अदालत में सब कठघरे में घिरते नज़र आते हैं। ऐसा क्या है इस शख्स में जिसने भारतीय टेलीविज़न की शक्ल बदल डाली? मुझे एक बड़ा दिलचस्प वाकया याद आ रहा है। 1997-98 की बात रही होगी, 'आपकी अदालत' ज़ी पर ख़ासा लोकप्रिय हो चला था। मैं तब लेडी श्रीराम कॉलेज में थी, ग्रैजुएशन का दूसरा साल था। कॉलेज में तब एक "Academic Forum" हुआ करता था जो हर गुरुवार को किसी भी क्षेत्र की जानी-पहचानी हस्ती को छात्राओं से रूबरू होने के लिए बुलाया करता था। फोरम के चार कन्वीनरों में से एक मैं भी थी। मुझे याद नहीं कि रजत शर्मा को बुलाने का आइडिया किसके दिमाग में आया। लेकिन मैं झूठ नहीं बोलूंगी। मुझे पूरा यकीन था कि एक निजी चैनल पर इस तरह का कार्यक्रम (वो भी हिंदी में! ) पेश करनेवाले किसी पत्रकार को सुनने के लिए लड़कियां तो नहीं ही जमा होंगी, कम-से-कम एलएसआर में तो बिल्कुल नहीं। बुलाना था तो स्टार न्यूज़ से किसी को बुलाते (एनडीटीवी तब स्टार न्यूज़ के लिए कॉन्टेन्ट बनाया करता था)। राजदीप सरदेसाई को बुलाया होता। वीर संघवी आ सकते थे। अंग्रेज़ी अख़बार के किसी और संपादक को बुलाते। रजत शर्मा को सुनने कौन आएगा?
बहरहाल, हमने पूरे कॉलेज में पोस्टर लगा दिए। जहां-जहां नोटिस डालना था, डाल दिया गया। किसी एक कन्वीनर को वक्ता का परिचय देने की और दूसरे कन्वीनर को धन्यवाद ज्ञापन की ज़िम्मेदारी दी जाती। मुझे दोनों में से कोई काम नहीं मिला था और मैं इत्मीनान से ऑडिटोरियम में बैठकर कार्यक्रम शुरू होने का इंतज़ार करती रही। रजत शर्मा आए, हमारे बीच से एक कन्वीनर ने चिकनी-चुपड़ी भाषा में उनका परिचय देना शुरू किया। श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स से पढ़ाई की, 'ऑनलुकर', 'द संडे ऑबज़र्वर' और 'द डेली' के साथ जुड़े रहे, देश के सबसे कम उम्र के संपादकों में से एक, और अब टीवी पत्रकार हैं। 'आपकी अदालत' का हल्का-फुल्का ज़िक्र ही आया। ये शायद तब का समय रहा होगा जब उन्होंने ज़ीटीवी छोड़कर अपना प्रोडक्शन हाउस शुरू ही किया था।
रजत शर्मा ने अंग्रेज़ी में बात करना शुरू किया, सधी हुई भाषा, लेकिन लहज़े में अंग्रेज़ियत नहीं। और अचानक उन्होंने खुद ही अपने बारे में बताना शुरू किया। मुझे याद है कि अंग्रेज़ी बोलते-बोलते उन्होंने हिंदी में बोलना शुरू कर दिया - शायद अपने बचपने की तंगहाली के बारे में कुछ बता रहे थे। दिल्ली में रहे, दिल्ली में पढ़े, लेकिन कई भाई-बहनों के बीच दिल्ली में हर दिन एक संघर्ष था, कुछ ऐसा कहा था उन्होंने। कुछ लाइनें तो मुझे वैसी की वैसी ही याद हैं - "ये जो मोटा चश्मा देख रहे हैं ना मेरी आंखों पर, दरअसल ये रेलवे स्टेशन की स्ट्रीट लाईट के नीचे पढ़-पढ़कर इम्तिहान देने का नतीजा है।" उनकी कहानी सुनते हुए कॉलेज ऑडिटोरियम में गहरा सन्नाटा था। "अंग्रेज़ी तो मुझे आती ही नहीं थी, वो तो कॉलेज के दोस्तों ने सिखाई। मैं आप लोगों की तरह किसी पब्लिक स्कूल, किसी कॉन्वेंट में नहीं पढ़ा।" और इतना कहते-कहते रजत शर्मा फिर अंग्रेज़ी में अपनी बात कहने लगे। कैसे कॉलेज में अरुण जेटली, विजय गोयल जैसे छात्र नेताओं से दोस्ती हुई, कैसे इमरजेंसी के दौरान उनमें भारतीय राजनीति की गहरी समझ और रुचि पैदा हुई, कैसे पत्रकारिता में रिसर्चर बनकर आए, कैसे रिपोर्टर बने और कैसे प्रीतिश नंदी जैसे पत्रकारों के साथ चंद्रास्वामी का सच उजागर किया। लेकिन ये कहना पड़ेगा कि पूरे चालीस मिनट रजत शर्मा ने दर्शकों को बांधे रखा और जीवन के कुछ अनमोल संदेश (Do what you believe in.) के साथ जब उन्होंने बोलना ख़त्म किया तो लड़कियां ज़ोर-ज़ोर से तालियां बजा रही थीं। बिना किसी तैयारी के मुझे धन्यवाद ज्ञापन के लिए भेज दिया गया - In Hindi and English, both, मुझसे किसी ने कहा और मैं जाने क्या बोलकर मंच से उतर आई। शायद विपरीत परिस्थितयों से जूझने और प्रेरणा-स्रोत होने जैसा कोई घिसा-पिटा जुमला इस्तेमाल किया था मैंने। रजत शर्मा से पत्रकारिता का गुर सीखने के लिए कई लड़कियां उनके पीछे-पीछे विज़िटर्स रूम तक गई थी। झूठ नहीं बोलूंगी, उनमें से एक मैं भी थी। मुझे हिंदी और अंग्रेज़ी पर उनकी ज़बर्दस्त पकड़ ने बेहद प्रभावित किया था और स्ट्रीट लैंप वाली बात तो ज़ेहन में कई दिनों तक रही थी।
इसी रजत शर्मा को हमने बाद में जीभर कर कोसा भी। इंडिया टीवी का कॉन्टेन्ट हमारी कई औपचारिक-अनौपचारिक चर्चाओं में मज़ाक का विषय बना। इंडिया टीवी टाइप के सुपर्स, हेडलाइन्स पर हम हंसते भी थे (ये 2004-2005 की बात है)। लेकिन इसी इंडिया टीवी ने न्यूज़ के मायने बदले, टीआरपी की नई परिभाषा तय की और टीवी के दिग्गजों को ठेंगा दिखाते हुए शीर्ष पर ऐसा कायम हुआ कि खिसकाना मुश्किल।
पढ़ाने के दौरान ही हमने एक और अभ्यास किया क्लास में - कॉन्सेप्ट नोट लिखने का। कुछ छात्रों के कॉन्सेप्ट कुछ ऐसे थे - 'एलियन्स, सच या फ़साना', 'योग भगाए रोग', 'फ़ैशन के पीछे का सच'। मैं मन-ही-मन इन्हें इंडिया टीवी लायक कॉन्टेन्ट करार देती रही, लेकिन सच तो ये ही कि अब तकरीबन सभी टीवी चैनल इसी ढर्रे पर चल पड़े हैं। जो शख़्स अगली पीढ़ी को भी इस क़दर प्रभावित कर रहा है उसमें कोई बात तो होगी ही!
आख़िर ऐसी क्या बात है रजत शर्मा के इस कॉन्सेप्ट में, जो सोलह-सत्रह सालों बाद भी ये कार्यक्रम इतना लोकप्रिय है? नेता हों या अभिनेता, बाबा रामदेव हों या राखी सावंत, रजत शर्मा की अदालत में सब कठघरे में घिरते नज़र आते हैं। ऐसा क्या है इस शख्स में जिसने भारतीय टेलीविज़न की शक्ल बदल डाली? मुझे एक बड़ा दिलचस्प वाकया याद आ रहा है। 1997-98 की बात रही होगी, 'आपकी अदालत' ज़ी पर ख़ासा लोकप्रिय हो चला था। मैं तब लेडी श्रीराम कॉलेज में थी, ग्रैजुएशन का दूसरा साल था। कॉलेज में तब एक "Academic Forum" हुआ करता था जो हर गुरुवार को किसी भी क्षेत्र की जानी-पहचानी हस्ती को छात्राओं से रूबरू होने के लिए बुलाया करता था। फोरम के चार कन्वीनरों में से एक मैं भी थी। मुझे याद नहीं कि रजत शर्मा को बुलाने का आइडिया किसके दिमाग में आया। लेकिन मैं झूठ नहीं बोलूंगी। मुझे पूरा यकीन था कि एक निजी चैनल पर इस तरह का कार्यक्रम (वो भी हिंदी में! ) पेश करनेवाले किसी पत्रकार को सुनने के लिए लड़कियां तो नहीं ही जमा होंगी, कम-से-कम एलएसआर में तो बिल्कुल नहीं। बुलाना था तो स्टार न्यूज़ से किसी को बुलाते (एनडीटीवी तब स्टार न्यूज़ के लिए कॉन्टेन्ट बनाया करता था)। राजदीप सरदेसाई को बुलाया होता। वीर संघवी आ सकते थे। अंग्रेज़ी अख़बार के किसी और संपादक को बुलाते। रजत शर्मा को सुनने कौन आएगा?
बहरहाल, हमने पूरे कॉलेज में पोस्टर लगा दिए। जहां-जहां नोटिस डालना था, डाल दिया गया। किसी एक कन्वीनर को वक्ता का परिचय देने की और दूसरे कन्वीनर को धन्यवाद ज्ञापन की ज़िम्मेदारी दी जाती। मुझे दोनों में से कोई काम नहीं मिला था और मैं इत्मीनान से ऑडिटोरियम में बैठकर कार्यक्रम शुरू होने का इंतज़ार करती रही। रजत शर्मा आए, हमारे बीच से एक कन्वीनर ने चिकनी-चुपड़ी भाषा में उनका परिचय देना शुरू किया। श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स से पढ़ाई की, 'ऑनलुकर', 'द संडे ऑबज़र्वर' और 'द डेली' के साथ जुड़े रहे, देश के सबसे कम उम्र के संपादकों में से एक, और अब टीवी पत्रकार हैं। 'आपकी अदालत' का हल्का-फुल्का ज़िक्र ही आया। ये शायद तब का समय रहा होगा जब उन्होंने ज़ीटीवी छोड़कर अपना प्रोडक्शन हाउस शुरू ही किया था।
रजत शर्मा ने अंग्रेज़ी में बात करना शुरू किया, सधी हुई भाषा, लेकिन लहज़े में अंग्रेज़ियत नहीं। और अचानक उन्होंने खुद ही अपने बारे में बताना शुरू किया। मुझे याद है कि अंग्रेज़ी बोलते-बोलते उन्होंने हिंदी में बोलना शुरू कर दिया - शायद अपने बचपने की तंगहाली के बारे में कुछ बता रहे थे। दिल्ली में रहे, दिल्ली में पढ़े, लेकिन कई भाई-बहनों के बीच दिल्ली में हर दिन एक संघर्ष था, कुछ ऐसा कहा था उन्होंने। कुछ लाइनें तो मुझे वैसी की वैसी ही याद हैं - "ये जो मोटा चश्मा देख रहे हैं ना मेरी आंखों पर, दरअसल ये रेलवे स्टेशन की स्ट्रीट लाईट के नीचे पढ़-पढ़कर इम्तिहान देने का नतीजा है।" उनकी कहानी सुनते हुए कॉलेज ऑडिटोरियम में गहरा सन्नाटा था। "अंग्रेज़ी तो मुझे आती ही नहीं थी, वो तो कॉलेज के दोस्तों ने सिखाई। मैं आप लोगों की तरह किसी पब्लिक स्कूल, किसी कॉन्वेंट में नहीं पढ़ा।" और इतना कहते-कहते रजत शर्मा फिर अंग्रेज़ी में अपनी बात कहने लगे। कैसे कॉलेज में अरुण जेटली, विजय गोयल जैसे छात्र नेताओं से दोस्ती हुई, कैसे इमरजेंसी के दौरान उनमें भारतीय राजनीति की गहरी समझ और रुचि पैदा हुई, कैसे पत्रकारिता में रिसर्चर बनकर आए, कैसे रिपोर्टर बने और कैसे प्रीतिश नंदी जैसे पत्रकारों के साथ चंद्रास्वामी का सच उजागर किया। लेकिन ये कहना पड़ेगा कि पूरे चालीस मिनट रजत शर्मा ने दर्शकों को बांधे रखा और जीवन के कुछ अनमोल संदेश (Do what you believe in.) के साथ जब उन्होंने बोलना ख़त्म किया तो लड़कियां ज़ोर-ज़ोर से तालियां बजा रही थीं। बिना किसी तैयारी के मुझे धन्यवाद ज्ञापन के लिए भेज दिया गया - In Hindi and English, both, मुझसे किसी ने कहा और मैं जाने क्या बोलकर मंच से उतर आई। शायद विपरीत परिस्थितयों से जूझने और प्रेरणा-स्रोत होने जैसा कोई घिसा-पिटा जुमला इस्तेमाल किया था मैंने। रजत शर्मा से पत्रकारिता का गुर सीखने के लिए कई लड़कियां उनके पीछे-पीछे विज़िटर्स रूम तक गई थी। झूठ नहीं बोलूंगी, उनमें से एक मैं भी थी। मुझे हिंदी और अंग्रेज़ी पर उनकी ज़बर्दस्त पकड़ ने बेहद प्रभावित किया था और स्ट्रीट लैंप वाली बात तो ज़ेहन में कई दिनों तक रही थी।
इसी रजत शर्मा को हमने बाद में जीभर कर कोसा भी। इंडिया टीवी का कॉन्टेन्ट हमारी कई औपचारिक-अनौपचारिक चर्चाओं में मज़ाक का विषय बना। इंडिया टीवी टाइप के सुपर्स, हेडलाइन्स पर हम हंसते भी थे (ये 2004-2005 की बात है)। लेकिन इसी इंडिया टीवी ने न्यूज़ के मायने बदले, टीआरपी की नई परिभाषा तय की और टीवी के दिग्गजों को ठेंगा दिखाते हुए शीर्ष पर ऐसा कायम हुआ कि खिसकाना मुश्किल।
पढ़ाने के दौरान ही हमने एक और अभ्यास किया क्लास में - कॉन्सेप्ट नोट लिखने का। कुछ छात्रों के कॉन्सेप्ट कुछ ऐसे थे - 'एलियन्स, सच या फ़साना', 'योग भगाए रोग', 'फ़ैशन के पीछे का सच'। मैं मन-ही-मन इन्हें इंडिया टीवी लायक कॉन्टेन्ट करार देती रही, लेकिन सच तो ये ही कि अब तकरीबन सभी टीवी चैनल इसी ढर्रे पर चल पड़े हैं। जो शख़्स अगली पीढ़ी को भी इस क़दर प्रभावित कर रहा है उसमें कोई बात तो होगी ही!
शुक्रवार, 29 अक्टूबर 2010
बेज़ुबां ख़्वाब कुछ कहते हैं
सुबह-सुबह मिले ख़्वाब की
तासीर कैसी है,
कैसा है मिज़ाज तुम्हारा,
पूछती हूं ख़ुद से।
हंस देता है आईना,
उलझे-रूखे बालों,
सूखे होंठों पर
ठंड उतर आई है।
लेकिन नर्म हाथों की
गर्मी से आज मैंने
आंखों को सहलाया है ।
बांधा है फिर से
कुछ हर्फ़ों को
दुपट्टे के कोने में।
नुक़्तों को
माथे की बिंदिया बनाया है।
फिर बनी हूं
एक नज़्म आज मैं,
फिर कोई गीत
याद आया है।
I can hear my dreams talk
Dream, my dream!
How are we this morning,
I ask.
The mirror smiles at me
And the chapped lips,
Dry, coarse hair
Resemble new-found winter.
But I share the warmth
Of my palms
With my watery eyes.
I tie some phrases
At the far end of my dupatta,
And sprinkle some words
over my forehead.
I am a sonnet today,
I am looking out for a song.
तासीर कैसी है,
कैसा है मिज़ाज तुम्हारा,
पूछती हूं ख़ुद से।
हंस देता है आईना,
उलझे-रूखे बालों,
सूखे होंठों पर
ठंड उतर आई है।
लेकिन नर्म हाथों की
गर्मी से आज मैंने
आंखों को सहलाया है ।
बांधा है फिर से
कुछ हर्फ़ों को
दुपट्टे के कोने में।
नुक़्तों को
माथे की बिंदिया बनाया है।
फिर बनी हूं
एक नज़्म आज मैं,
फिर कोई गीत
याद आया है।
I can hear my dreams talk
Dream, my dream!
How are we this morning,
I ask.
The mirror smiles at me
And the chapped lips,
Dry, coarse hair
Resemble new-found winter.
But I share the warmth
Of my palms
With my watery eyes.
I tie some phrases
At the far end of my dupatta,
And sprinkle some words
over my forehead.
I am a sonnet today,
I am looking out for a song.
गुरुवार, 28 अक्टूबर 2010
इन बेज़ुबां ख़्वाबों का क्या करूं
एक ख़्बाब मिलता है सुबह सिरहाने,
कैसी बेचैनी है जो तकिए पर लेटी दिखती है।
जहां जाती हूं, घर में पीछे-पीछे चलती है।
लफ़्ज़ हैं कि तितलियों जैसे फड़फड़ाते हैं,
थाम भी लूं तो काग़ज़ पर उतरने से डरते हैं।
आंखों के कोने पर लटका एक आंसू
आज क्यों बाढ़-सा बहने को बेताब है?
क्या उलझन है जो मन में
एक गांठ-सी बनी बैठी है
किसे झकझोरूं, किसको खोलूं।
खिड़की से बाहर आसमां का कोई कोना
अपना नहीं लगता।
नीले-नीले बादलों की नाव
मुझे मंझधार में क्यों छोड़ जाती है
क्यों सब डूबता उतराता-सा लगता है।
सुबह सिरहाने मिला वो ख़्वाब
कुछ कहता ही नहीं,
बस साथ-साथ चलता है।
वो बेचैनी जैसे आंखों में उतर आई है
धूप में भी सब नमनाक दिखता है।
कैसी बेचैनी है जो तकिए पर लेटी दिखती है।
जहां जाती हूं, घर में पीछे-पीछे चलती है।
लफ़्ज़ हैं कि तितलियों जैसे फड़फड़ाते हैं,
थाम भी लूं तो काग़ज़ पर उतरने से डरते हैं।
आंखों के कोने पर लटका एक आंसू
आज क्यों बाढ़-सा बहने को बेताब है?
क्या उलझन है जो मन में
एक गांठ-सी बनी बैठी है
किसे झकझोरूं, किसको खोलूं।
खिड़की से बाहर आसमां का कोई कोना
अपना नहीं लगता।
नीले-नीले बादलों की नाव
मुझे मंझधार में क्यों छोड़ जाती है
क्यों सब डूबता उतराता-सा लगता है।
सुबह सिरहाने मिला वो ख़्वाब
कुछ कहता ही नहीं,
बस साथ-साथ चलता है।
वो बेचैनी जैसे आंखों में उतर आई है
धूप में भी सब नमनाक दिखता है।
Dreams, that don't speak
I find a dream kept on my bed
The restless one rests on my pillow.
It follows me in the house,
And wherever I go.
Words keep flying around,
Like butterflies.
And won't sit still on the paper,
Even when I hold them by their wings.
One teardrop hangs at one corner
Waiting to inundate my world.
What is that snarl in my heart,
Looks like a knot not willing to open.
What do I shake?
What do I open?
The sky hanging down on my window
Looks so far away.
Blue clouds are like boats,
Which refuse to move from here.
I can't take the plunge.
I can't sit still.
The dream that I found
Doesn't say anything.
Only walks around with me.
The dream has now walked into my eyes,
And the sun seems wet today.
मंगलवार, 26 अक्टूबर 2010
बच्चों का आना - भाग 4 (पहाड़ों पर उनके बगैर)
नौकरी छोड़ते ही एक शानदार प्रस्ताव मिला है, जिसे ठुकरा नहीं सकती। "क्या आप हमारे लिए एक डॉक्युमेंट्री बनाएंगी?" एक एनजीओ के डायरेक्टर जब मुझसे पूछते हैं तो मुझे यकीन नहीं होता। फिल्म और मैं? एक टूटी पीठ और दो छोटे बच्चों के साथ? लेकिन पूरा परिवार मेरी हौसलाअफ्ज़ाई में जुट जाता है। बच्चों की दादी और नानी ने गज़ब के तारतम्य के साथ घर का मोर्चा संभाल लिया है। मैं घर से दूर, पूर्वा एक्सप्रेस में बैठ अपने ही राज्य झारखंड के एक ऐसे शहर, ऐसे इलाके के लिए निकल पड़ती हूं जिसका नाम ही सुना है बस।
कई महीनों में ये पहला मौका है जब मैं अकेले सफ़र पर निकली हूं। फिल्म की शूटिंग के पहले रेक्की करनी है, इसलिए साथ में कोई नहीं। ब्रीफ के नाम पर इतना मालूम है कि झारखंड और पश्चिम बंगाल की राजमहल पहाड़ियों में एक प्रीमिटिव ट्राइबल ग्रुप (आदिम जाति) रहती है जिन्हें पहाड़िया कहते हैं। इनकी जीवन-शैली, इनकी समस्याओं और मुख्यधारा से दूर इनके रोज़-रोज़ के संघर्ष पर ना सिर्फ फिल्म बनानी है, बल्कि इसे तस्वीरों और कहानियों के ज़रिए शहरों में बसनेवाले "सभ्य समाज" तक भी पहुंचाना है। इस तरह का ये मेरा पहला असाइनमेंट है, इसलिए चिंता लाज़िमी है।
मैं सफ़र में पढ़ने की कोशिश करती हूं। मन बार-बार बच्चों की ओर लौटता है। क्या कर रहे होंगे? उन्हें लगता होगा मां कहां चली गई? रात में रोएंगे तो नहीं? जहां-जहां नेटवर्क मिलता है, मैं उनकी खोज-खबर के लिए फोन करती रहती हूं। फिर मेरी मां ही कहती है, "हमपर भरोसा करो और अपने फ़ैसले पर भी। जिस काम के लिए गई हो, वो ठीक से करके आओ।" फिर मैं घंटे-घंटे फोन करना बंद कर देती हूं।
मुझे जेसीडीह उतरना है। यहां से अस्सी किलोमीटर दूर गोड्डा जाना है, जहां से फिर साठ किलोमीटर अंदर राजमहल की पहाड़ियों पर बसे गांवों में मेरे पात्र होंगे, मेरी कहानियां होंगी। स्टेशन पर मुझे एक टूटी-फूटी से मार्शल लेने आई है। वैजनाथ जी ड्राईवर हैं। जेसीडीह से निकलते ही पूछते हैं, "मैम, गाना लगा दूं क्या?" हामी भरते ही घरघराता हुआ टेपरिकॉर्डर बज उठता है। मोहम्मद रफी के गानों की बेहद खराब नकल। नकल करनेवाले गायक की आवाज़ नहीं पकड़ पाती। बाबुल सुप्रियो? नहीं, वो तो किशोर दा के गानों की नकल करते हैं, और फिर उनकी आवाज़ ठीक ही है। ये महाशय कौन हैं? ना चाहते हुए भी मैं कैसेट का कवर मांग बैठती हूं। ऐश्वर्या की आंखें मुझे ऐसे घूर रही हैं जैसे पूछ रही हों, क्या जानना चाहती हो? चुपचाप कैसेट बजने दो और ज्ञान बघारने की कोशिश तो बिल्कुल मत करना। सो, घरघराता हुआ टेपरिकॉर्डर अपनी घिसी हुई आवाज़ में कैफ़ी आज़मी के लिखे गीत गाता चला जाता है - "ये दुनिया ये महफिल मेरे काम की नहीं..." मैं घबराकर आंखें बंद कर लेती हूं।
शाम होते-होते हम गोड्डा पहुंच गए हैं। मैं एनजीओ के स्थानीय दफ्तर गई हूं। सब घर निकलने की तैयारी में हैं। सुबह दस बजे का वक्त देकर सब अंधेरा होते-होते निकलने लगते हैं। पांच बजे? दिन इतना छोटा? दस बजे सुबह तक मैं क्या करूंगी इस सोए हुए कस्बे में? मैं बेहद परेशान हो जाती हूं। कुछ प्रोजेक्ट रिपोर्ट देखने के बहाने से एक घंटा निकल जाता है, लेकिन अब और नहीं। मुझे होटल पहुंचा दिया गया है। एक अकेली लड़की को होटल वाले भी घूम-घूमकर देख रहे हैं। ये कहां फंस गई मैं? जी में आता है, ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाकर कहूं, दो बच्चों की मां हूं मैं। मेरे पहनावे को देखकर लड़की मत समझना मुझे। ख़ैर, खाना कमरे में ही भेजने को कह मैं धाड़ से दरवाज़ा बंद कर लेती हूं। अचानक मुझे घर और बच्चों की याद बुरी तरह सताने लगी है। कमरे में अजीब-सी गंध है। खिड़की खोल नहीं सकती, जाली पर मच्छरों को दिमाग में ही गिन लिया है मैंने। अपनी क्रीम की आधी बोतल मैं अपने हाथों पर उंडेल लेती हूं। कुछ तो राहत मिलेगी। बाथरूम की ओर तो झांकने का भी मन नहीं करता। फिल्ममेकर भी बनोगी अनु सिंह और ज़िन्दगी के मज़े भी लूटोगी? मुमकिन ही नहीं।
रात सफ़ेद पन्नों पर कई तरह की योजनाएं बनाते गुज़रती है। लाल-नीले कलम में पूरी ज़िन्दगी की योजना पन्नों पर बिखरी पड़ी है, मैं फिर भी उतनी ही उलझी हुई और परेशान हूं। अकेलापन क्या बना देता है आपको? आठ बजे से ही ड्राईवर का इंतज़ार है। पौने दस बजे पहुंचता है वो। तबतक मैं गोड्डा से ही भाग निकलने को तत्पर हूं। ख़ैर, आज का दिन तो शहर में ही बीतना है। मैं दिनभर क्षेत्र में काम करनेवाले सामाजिक कार्यकर्ताओं से पहाड़िया लोगों के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा जानकारी इकट्ठी करना चाहती हूं। सुंदरपहाड़ी में रहनेवाले टीम लीडर कहते हैं, "आंकड़ें कुछ नहीं बताएंगे आपको। You will have to experience them to know them better." बिल्कुल। यही तो मैं कह रही हूं। सुंदरपहाड़ी ले चलिए ना मुझे। दफ्तर में रेक्की थोड़े करूंगी। मैं झल्ला उठती हूं।
अगली सुबह पांच बजे का वक्त मुकर्रर होता है निकलने के लिए। मुझे नींद तो आज भी नहीं आई है, लेकिन फिर भी खुश हूं कि कल फील्ड में तो रहूंगी। पीठ जवाब देने लगी है। डर से पेनकिलर नहीं खा रही। अगर सुबह नींद ना खुली तो? करवट बदलते रात निकलती है।
सुबह-सुबह मैं होटल के चौकीदार कम वेटर को आवाज़ देती हूं। "इतना भोरे-भोरे?" मैं बिना जवाब दिए सीढ़ियां उतर जाती हूं। थोड़ी ही देर में हम शहर के बाहर होते हैं। गाड़ी में अब भजन बज रहा है, फिल्मी गानों की तर्ज पर। "बहारों फूल बरसाओ" की पैरोडी भजन के रूप में! लेकिन आज मैं आंखें बंद नहीं करती। गोड्डा शहर से बाहर सड़क के किनारे के गांव अंगड़ाई लेते हुए बाहर निकल आए हैं। कहीं साथ-साथ मवेशी चलते हैं, कहीं नवंबर की हल्की ठंड में धूप का कोना पकड़े बड़े-बूढ़े सुस्ता रहे हैं। और बाकी भारत के गांवों के खेतों, सड़कों पर सुबह-सुबह जो नज़ारा दिखता है, उससे कहां बच सकते हैं आप! सुंदरपहाड़ी एक ब्लॉक है जहां मुझे टीमलीडर से मिलना है। यहां से गाड़ी में नहीं, मोटरसाइकिल पर जाना है। खु़दा रहम करे! मेरी पीठ का क्या होगा? जहां मोटरसाइकिल नहीं जाएगी वहां दो से तीन किलोमीटर पैदल चलना होगा। पहाड़ी रास्ते पर? नहले पर दहला! जब ओखली मे सिर दिया तो मूसलों से क्या डरूं। मैं बहादुर बच्चे की तरह हराधन साव की मोटरसाइकिल पर पीछे बैठ जाती हूं।
सुंदरपहाड़ी से निकलते ही दूसरी दुनिया में आ जाते हैं हम। दूर तक पसरी पहाड़ियां, पहाड़ पर झुका नीला आसमान, खेतों में कटने के लिए तैयार फसलें, और फिर हम अचानक जंगल में जा घुसे थे। अभी तक तो सड़कें मौजूद थीं। हराधन मुझे निचले इलाके के गांवों में ले जा रहा था।
टूटी-फूटी झोंपडियां, लेकिन सामने पसरे सरसों के पीले खेत। गांव के बाहर एक चापाकल और चापाकल पर झुक आया नीम। मैदान में फुटबॉल खेलते नंग-धडंग बच्चे। हराधन मुझे चापाकल के पास ही किसी पहाड़िया के घर ले आया है। "जामू पहाड़िया नाम है इनका", हराधन कहता है। मैं कुछ झिझकते हुए, कुछ अनिश्चितता के साथ हाथ जोड़कर लकड़ी काटते अधनंगे शख्स को 'नमस्ते' कहती हूं। इसी दुविधा में हूं कि क्या पूछूं, कहां से बातचीत शुरू करूं कि हराधन परेशानी और बढ़ा देता है। "दीदी, इन्हें हिंदी नहीं आती।" "तुम्हें इनकी भाषा तो आती है ना", मैं इतनी जल्दी हताश थोड़ी हो जाऊंगी। "थोड़ी-थोड़ी।" अब क्या करूं? मैं फिर भी जामू से उनका नाम पूछती हूं। जामू मुस्कुरा रहे हैं। मैं पूछती हूं कि परिवार में कितने सदस्य हैं? जामू अभी थोड़ा और मुस्कुरा रहे हैं। "हराधन, मैं कैसे बात करूंगी ऐसे?" मैं झल्ला उठती हूं। हराधन भागता हुआ गांव के भीतर से एक दुभाषिया पकड़ लाया है। जामेश्वर पहाड़िया स्वास्थ्य कर्मचारी हैं, इनकी पत्नी आंगनबाड़ी सेविका है। रांची तक हो आए हैं। गांव में सबसे पढ़ा-लिखा परिवार है इनका।
जामेश्वर की मदद से मैं गांव के लोगों के बारे में कुछ जानकारी चाहती हूं। इन पहाड़ों पर आजीविका के लिए शायद ही कोई ज़रिया यहां बसनेवालों के लिए उपलब्ध है। अमूमन हर पहाड़िया परिवार आज भी झूम खेती पर निर्भर है। पहाड़ों और पहाड़ों की ढ़लानों पर फिर किसी दूसरी जगह जंगल काटकर ये लोग लोबिया, मक्का, बाजरा और सरसों जैसी कुछ फसलें उगाते हैं। जिनके पास खेत नहीं, वे पत्ते चुनकर या लकड़ियां बेचकर अपना गुज़ारा करते हैं। आजीविका का कोई और साधन इन गांवों में मौजूद नहीं है।
ये तो फिर भी समृद्ध गांव है जिसके पास चापाकल है। यहां से और ऊपर जाते-जाते गांवों में पानी के साधन के नाम पर मीलों दूर मौजूद पहाड़ी झरने रह जाते हैं। एक मटका पानी के लिए कई किलोमीटर चलना पड़ता है। भूख-प्यास से जान बच गई तो मलेरिया नहीं छोड़ेगी, मलेरिया से भी बचे तो हैजा और डायरिया जैसी बीमारियां यहां जान लेती हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं इन गांवों में लक्ज़री है, विलास के साधन। जालेश्वर बड़ी उम्मीद से सबकुछ बता रहा है, जैसे मेरा यहां होना उनके लिए बदलाव का कोई रास्ता खोले शायद। मैं सफाई देती हूं, अपनी पहचान भी। लेकिन पूरा गांव जामू के दरवाज़े पर जुट गया है। बताते हैं, कुछ एनजीओ के लोगों को छोड़कर कोई सरकारी व्यक्ति दूर-दराज के पहाड़िया गांवों में कभी गया ही नहीं।
फिलहाल मेरे अंदर का फिल्ममेकर जाग चुका है। मैं सबकुछ कैमरे के पीछे से देख रही हूं। गांव, गांव के लोग, पानी के लिए पैदल चलती औरतें, हंडिया के लिए शाम को जमा हुए आदिवासी, उनके हाट-बाज़ार, उनका लोक-संगीत.... पिक्चर हिट है बॉस। अवार्ड विनिंग। क्या ज़बर्दस्त डॉक्युमेंट्री बनेगी।
जामू की सात-आठ साल की बेटी अचानक मेरे सामने खड़ी हो जाती है। हाथ में पत्ते के एक दोने में उबली हुई मकई के कुछ दाने हैं और दूसरे हाथ में पानी का एक लोटा। शरीर पर कपड़े के नाम पर एक चड्ढी है। गंदे बाल, बढ़े हुए नाखून। सोचती हूं, कितने दिनों से ये नहाई नहीं होगी। लेकिन उसकी आंखों में ऐसी आत्मीयता है कि मैं अपनेआप उसके हाथ से दोना और पानी, दोनों ले लेती हूं।
मुझे अब सबकुछ साफ-साफ दिखाई दे रहा है। जामू के चार बच्चे, जामू, उसकी पत्नी जिसके बढ़े हुए पेट को एक मैली-कुचली साड़ी किसी तरह ढंके हुए है बस, दरवाज़े की ओट से झांकते कुछ और बच्चे, जालेश्वर और उसके बगल में मोटरसाइकिल का सहारा लिए खड़ा हराधन। अचानक मुझे खुद को देखकर बड़ी शर्मिंदगी महसूस हो रही है। रिबॉक के जूते, लिवाइस की जीन्स, फैब इंडिया की कुर्ती, एडिडास की टोपी, एफसीयूके के सनग्लासेस... मेरा एक दिन के पहनावे का खर्च इनकी सालाना आमदनी से कहीं ज़्यादा है। मैं घबरा उठती हूं। यहां से जाना चाहती हूं। हराधन फिर आने की बात कह मोटरसाइकिल सड़क की ओर मोड़ लेता है।
मेरे पीछे बैठते-बैठते हराधन बस इतना कहता है, "दीदी, वो दाने शायद उनके अनाज के आखिरी दाने थे।" पीछे बैठते-बैठते मैं रो पड़ती हूं। रोती चली जाती हूं।
http://janatantra.com/2010/03/22/anu-singh-reportage-on-condition-of-tribals-of-jharkhand/
कई महीनों में ये पहला मौका है जब मैं अकेले सफ़र पर निकली हूं। फिल्म की शूटिंग के पहले रेक्की करनी है, इसलिए साथ में कोई नहीं। ब्रीफ के नाम पर इतना मालूम है कि झारखंड और पश्चिम बंगाल की राजमहल पहाड़ियों में एक प्रीमिटिव ट्राइबल ग्रुप (आदिम जाति) रहती है जिन्हें पहाड़िया कहते हैं। इनकी जीवन-शैली, इनकी समस्याओं और मुख्यधारा से दूर इनके रोज़-रोज़ के संघर्ष पर ना सिर्फ फिल्म बनानी है, बल्कि इसे तस्वीरों और कहानियों के ज़रिए शहरों में बसनेवाले "सभ्य समाज" तक भी पहुंचाना है। इस तरह का ये मेरा पहला असाइनमेंट है, इसलिए चिंता लाज़िमी है।
मैं सफ़र में पढ़ने की कोशिश करती हूं। मन बार-बार बच्चों की ओर लौटता है। क्या कर रहे होंगे? उन्हें लगता होगा मां कहां चली गई? रात में रोएंगे तो नहीं? जहां-जहां नेटवर्क मिलता है, मैं उनकी खोज-खबर के लिए फोन करती रहती हूं। फिर मेरी मां ही कहती है, "हमपर भरोसा करो और अपने फ़ैसले पर भी। जिस काम के लिए गई हो, वो ठीक से करके आओ।" फिर मैं घंटे-घंटे फोन करना बंद कर देती हूं।
मुझे जेसीडीह उतरना है। यहां से अस्सी किलोमीटर दूर गोड्डा जाना है, जहां से फिर साठ किलोमीटर अंदर राजमहल की पहाड़ियों पर बसे गांवों में मेरे पात्र होंगे, मेरी कहानियां होंगी। स्टेशन पर मुझे एक टूटी-फूटी से मार्शल लेने आई है। वैजनाथ जी ड्राईवर हैं। जेसीडीह से निकलते ही पूछते हैं, "मैम, गाना लगा दूं क्या?" हामी भरते ही घरघराता हुआ टेपरिकॉर्डर बज उठता है। मोहम्मद रफी के गानों की बेहद खराब नकल। नकल करनेवाले गायक की आवाज़ नहीं पकड़ पाती। बाबुल सुप्रियो? नहीं, वो तो किशोर दा के गानों की नकल करते हैं, और फिर उनकी आवाज़ ठीक ही है। ये महाशय कौन हैं? ना चाहते हुए भी मैं कैसेट का कवर मांग बैठती हूं। ऐश्वर्या की आंखें मुझे ऐसे घूर रही हैं जैसे पूछ रही हों, क्या जानना चाहती हो? चुपचाप कैसेट बजने दो और ज्ञान बघारने की कोशिश तो बिल्कुल मत करना। सो, घरघराता हुआ टेपरिकॉर्डर अपनी घिसी हुई आवाज़ में कैफ़ी आज़मी के लिखे गीत गाता चला जाता है - "ये दुनिया ये महफिल मेरे काम की नहीं..." मैं घबराकर आंखें बंद कर लेती हूं।
शाम होते-होते हम गोड्डा पहुंच गए हैं। मैं एनजीओ के स्थानीय दफ्तर गई हूं। सब घर निकलने की तैयारी में हैं। सुबह दस बजे का वक्त देकर सब अंधेरा होते-होते निकलने लगते हैं। पांच बजे? दिन इतना छोटा? दस बजे सुबह तक मैं क्या करूंगी इस सोए हुए कस्बे में? मैं बेहद परेशान हो जाती हूं। कुछ प्रोजेक्ट रिपोर्ट देखने के बहाने से एक घंटा निकल जाता है, लेकिन अब और नहीं। मुझे होटल पहुंचा दिया गया है। एक अकेली लड़की को होटल वाले भी घूम-घूमकर देख रहे हैं। ये कहां फंस गई मैं? जी में आता है, ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाकर कहूं, दो बच्चों की मां हूं मैं। मेरे पहनावे को देखकर लड़की मत समझना मुझे। ख़ैर, खाना कमरे में ही भेजने को कह मैं धाड़ से दरवाज़ा बंद कर लेती हूं। अचानक मुझे घर और बच्चों की याद बुरी तरह सताने लगी है। कमरे में अजीब-सी गंध है। खिड़की खोल नहीं सकती, जाली पर मच्छरों को दिमाग में ही गिन लिया है मैंने। अपनी क्रीम की आधी बोतल मैं अपने हाथों पर उंडेल लेती हूं। कुछ तो राहत मिलेगी। बाथरूम की ओर तो झांकने का भी मन नहीं करता। फिल्ममेकर भी बनोगी अनु सिंह और ज़िन्दगी के मज़े भी लूटोगी? मुमकिन ही नहीं।
रात सफ़ेद पन्नों पर कई तरह की योजनाएं बनाते गुज़रती है। लाल-नीले कलम में पूरी ज़िन्दगी की योजना पन्नों पर बिखरी पड़ी है, मैं फिर भी उतनी ही उलझी हुई और परेशान हूं। अकेलापन क्या बना देता है आपको? आठ बजे से ही ड्राईवर का इंतज़ार है। पौने दस बजे पहुंचता है वो। तबतक मैं गोड्डा से ही भाग निकलने को तत्पर हूं। ख़ैर, आज का दिन तो शहर में ही बीतना है। मैं दिनभर क्षेत्र में काम करनेवाले सामाजिक कार्यकर्ताओं से पहाड़िया लोगों के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा जानकारी इकट्ठी करना चाहती हूं। सुंदरपहाड़ी में रहनेवाले टीम लीडर कहते हैं, "आंकड़ें कुछ नहीं बताएंगे आपको। You will have to experience them to know them better." बिल्कुल। यही तो मैं कह रही हूं। सुंदरपहाड़ी ले चलिए ना मुझे। दफ्तर में रेक्की थोड़े करूंगी। मैं झल्ला उठती हूं।
अगली सुबह पांच बजे का वक्त मुकर्रर होता है निकलने के लिए। मुझे नींद तो आज भी नहीं आई है, लेकिन फिर भी खुश हूं कि कल फील्ड में तो रहूंगी। पीठ जवाब देने लगी है। डर से पेनकिलर नहीं खा रही। अगर सुबह नींद ना खुली तो? करवट बदलते रात निकलती है।
सुबह-सुबह मैं होटल के चौकीदार कम वेटर को आवाज़ देती हूं। "इतना भोरे-भोरे?" मैं बिना जवाब दिए सीढ़ियां उतर जाती हूं। थोड़ी ही देर में हम शहर के बाहर होते हैं। गाड़ी में अब भजन बज रहा है, फिल्मी गानों की तर्ज पर। "बहारों फूल बरसाओ" की पैरोडी भजन के रूप में! लेकिन आज मैं आंखें बंद नहीं करती। गोड्डा शहर से बाहर सड़क के किनारे के गांव अंगड़ाई लेते हुए बाहर निकल आए हैं। कहीं साथ-साथ मवेशी चलते हैं, कहीं नवंबर की हल्की ठंड में धूप का कोना पकड़े बड़े-बूढ़े सुस्ता रहे हैं। और बाकी भारत के गांवों के खेतों, सड़कों पर सुबह-सुबह जो नज़ारा दिखता है, उससे कहां बच सकते हैं आप! सुंदरपहाड़ी एक ब्लॉक है जहां मुझे टीमलीडर से मिलना है। यहां से गाड़ी में नहीं, मोटरसाइकिल पर जाना है। खु़दा रहम करे! मेरी पीठ का क्या होगा? जहां मोटरसाइकिल नहीं जाएगी वहां दो से तीन किलोमीटर पैदल चलना होगा। पहाड़ी रास्ते पर? नहले पर दहला! जब ओखली मे सिर दिया तो मूसलों से क्या डरूं। मैं बहादुर बच्चे की तरह हराधन साव की मोटरसाइकिल पर पीछे बैठ जाती हूं।
सुंदरपहाड़ी से निकलते ही दूसरी दुनिया में आ जाते हैं हम। दूर तक पसरी पहाड़ियां, पहाड़ पर झुका नीला आसमान, खेतों में कटने के लिए तैयार फसलें, और फिर हम अचानक जंगल में जा घुसे थे। अभी तक तो सड़कें मौजूद थीं। हराधन मुझे निचले इलाके के गांवों में ले जा रहा था।
टूटी-फूटी झोंपडियां, लेकिन सामने पसरे सरसों के पीले खेत। गांव के बाहर एक चापाकल और चापाकल पर झुक आया नीम। मैदान में फुटबॉल खेलते नंग-धडंग बच्चे। हराधन मुझे चापाकल के पास ही किसी पहाड़िया के घर ले आया है। "जामू पहाड़िया नाम है इनका", हराधन कहता है। मैं कुछ झिझकते हुए, कुछ अनिश्चितता के साथ हाथ जोड़कर लकड़ी काटते अधनंगे शख्स को 'नमस्ते' कहती हूं। इसी दुविधा में हूं कि क्या पूछूं, कहां से बातचीत शुरू करूं कि हराधन परेशानी और बढ़ा देता है। "दीदी, इन्हें हिंदी नहीं आती।" "तुम्हें इनकी भाषा तो आती है ना", मैं इतनी जल्दी हताश थोड़ी हो जाऊंगी। "थोड़ी-थोड़ी।" अब क्या करूं? मैं फिर भी जामू से उनका नाम पूछती हूं। जामू मुस्कुरा रहे हैं। मैं पूछती हूं कि परिवार में कितने सदस्य हैं? जामू अभी थोड़ा और मुस्कुरा रहे हैं। "हराधन, मैं कैसे बात करूंगी ऐसे?" मैं झल्ला उठती हूं। हराधन भागता हुआ गांव के भीतर से एक दुभाषिया पकड़ लाया है। जामेश्वर पहाड़िया स्वास्थ्य कर्मचारी हैं, इनकी पत्नी आंगनबाड़ी सेविका है। रांची तक हो आए हैं। गांव में सबसे पढ़ा-लिखा परिवार है इनका।
जामेश्वर की मदद से मैं गांव के लोगों के बारे में कुछ जानकारी चाहती हूं। इन पहाड़ों पर आजीविका के लिए शायद ही कोई ज़रिया यहां बसनेवालों के लिए उपलब्ध है। अमूमन हर पहाड़िया परिवार आज भी झूम खेती पर निर्भर है। पहाड़ों और पहाड़ों की ढ़लानों पर फिर किसी दूसरी जगह जंगल काटकर ये लोग लोबिया, मक्का, बाजरा और सरसों जैसी कुछ फसलें उगाते हैं। जिनके पास खेत नहीं, वे पत्ते चुनकर या लकड़ियां बेचकर अपना गुज़ारा करते हैं। आजीविका का कोई और साधन इन गांवों में मौजूद नहीं है।
ये तो फिर भी समृद्ध गांव है जिसके पास चापाकल है। यहां से और ऊपर जाते-जाते गांवों में पानी के साधन के नाम पर मीलों दूर मौजूद पहाड़ी झरने रह जाते हैं। एक मटका पानी के लिए कई किलोमीटर चलना पड़ता है। भूख-प्यास से जान बच गई तो मलेरिया नहीं छोड़ेगी, मलेरिया से भी बचे तो हैजा और डायरिया जैसी बीमारियां यहां जान लेती हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं इन गांवों में लक्ज़री है, विलास के साधन। जालेश्वर बड़ी उम्मीद से सबकुछ बता रहा है, जैसे मेरा यहां होना उनके लिए बदलाव का कोई रास्ता खोले शायद। मैं सफाई देती हूं, अपनी पहचान भी। लेकिन पूरा गांव जामू के दरवाज़े पर जुट गया है। बताते हैं, कुछ एनजीओ के लोगों को छोड़कर कोई सरकारी व्यक्ति दूर-दराज के पहाड़िया गांवों में कभी गया ही नहीं।
फिलहाल मेरे अंदर का फिल्ममेकर जाग चुका है। मैं सबकुछ कैमरे के पीछे से देख रही हूं। गांव, गांव के लोग, पानी के लिए पैदल चलती औरतें, हंडिया के लिए शाम को जमा हुए आदिवासी, उनके हाट-बाज़ार, उनका लोक-संगीत.... पिक्चर हिट है बॉस। अवार्ड विनिंग। क्या ज़बर्दस्त डॉक्युमेंट्री बनेगी।
जामू की सात-आठ साल की बेटी अचानक मेरे सामने खड़ी हो जाती है। हाथ में पत्ते के एक दोने में उबली हुई मकई के कुछ दाने हैं और दूसरे हाथ में पानी का एक लोटा। शरीर पर कपड़े के नाम पर एक चड्ढी है। गंदे बाल, बढ़े हुए नाखून। सोचती हूं, कितने दिनों से ये नहाई नहीं होगी। लेकिन उसकी आंखों में ऐसी आत्मीयता है कि मैं अपनेआप उसके हाथ से दोना और पानी, दोनों ले लेती हूं।
मुझे अब सबकुछ साफ-साफ दिखाई दे रहा है। जामू के चार बच्चे, जामू, उसकी पत्नी जिसके बढ़े हुए पेट को एक मैली-कुचली साड़ी किसी तरह ढंके हुए है बस, दरवाज़े की ओट से झांकते कुछ और बच्चे, जालेश्वर और उसके बगल में मोटरसाइकिल का सहारा लिए खड़ा हराधन। अचानक मुझे खुद को देखकर बड़ी शर्मिंदगी महसूस हो रही है। रिबॉक के जूते, लिवाइस की जीन्स, फैब इंडिया की कुर्ती, एडिडास की टोपी, एफसीयूके के सनग्लासेस... मेरा एक दिन के पहनावे का खर्च इनकी सालाना आमदनी से कहीं ज़्यादा है। मैं घबरा उठती हूं। यहां से जाना चाहती हूं। हराधन फिर आने की बात कह मोटरसाइकिल सड़क की ओर मोड़ लेता है।
मेरे पीछे बैठते-बैठते हराधन बस इतना कहता है, "दीदी, वो दाने शायद उनके अनाज के आखिरी दाने थे।" पीछे बैठते-बैठते मैं रो पड़ती हूं। रोती चली जाती हूं।
http://janatantra.com/2010/03/22/anu-singh-reportage-on-condition-of-tribals-of-jharkhand/
सोमवार, 25 अक्टूबर 2010
बच्चों का आना - भाग 3
रांची से मेरा बोरिया-बिस्तर बंध चुका है, चार महीनों के बच्चों के साथ। ननिहाल में वक्त गुज़ारने के बाद अब दादा-दादी की बारी है कि वो जुड़वां बच्चों के सुख उठाएं। मेरा मन भारी है। जानती हूं, अब ज़िन्दगी में कभी अपने ही घर में, अपने मायके में इतने लंबे वक्त के लिए नहीं आ सकूंगी। कैसी अजीब-सी स्थिति में होती हैं हम लड़कियां! कितनी जल्दी पहचान बदल जाती है, घर का पता बदल जाता है, प्राथमिकताएं बदल जाती हैं। और हमें बदलने की इस प्रक्रिया में भी संभला-संभला सा, बिना शिकायत के बहते चले जाने की सीख दी जाती है, बचपन से।
फिर कोलकाता होते हुए मैं पूर्णियां पहुंची हूं। इस बार छोटे चाचा-चाची और मेरा ग्यारह साल का चचेरा भाई मेरे हमसफ़र हैं, दादाजी के घर तक। फिर नए सिरे से बक्सों का खुलना, नए घर की दिनचर्या के साथ अपना, बच्चों का ढल जाना, फिर धूप के एक कोने को अपना साथी बनाना, शाम ढलते ही अपनी गोद में दोनों को लिए कमरों में दुबक जाना। बच्चों के अन्नप्राशन के बहाने बड़े स्तर पर उनका आने के समारोह की तैयारी की जा रही है। गांवों, शहरों, बच्चों के ननिहाल से आए मेहमान। बैंगलोर से आया मेरा भाई। असम से आए बच्चों के फुआ-फूफा। नाना-नानी, दादा-दादी, काका-चाचा, भैया। कई सारे लोगों के बीच साढ़े चार महीने के आद्या-आदित अपनी पहचान बना चुके हैं, गोद में लेने पर हंसकर अपनी पहचान जताते हैं, भीड़ से, लोगों से कतराते नहीं। आद्या फिर भी शर्मीली है, आदित तो सबसे रिश्ते जोड़ चुका है।
समारोहों के खत्म होने का वक्त है। यहां आए मुझे दो महीने हो चुके हैं। इनकी पहली होली भी शुभ-शुभ निकली है। मेरी मैटरनिटी लीव बस खत्म होने को है। दो बच्चों के साथ काम पर जाना कितनी मुमकिन होगा, इसको लेकर जद्दोज़ेहद शुरू हो गई है। हर रोज़ बहस छिड़ती है, हर रोज़ हम किसी नतीजे पर नहीं पहुंचते। मैं क्या चाहती हूं? कहना मुश्किल है। फिलहाल, मैं दिल्ली वापस जाना चाहती हूं। पिछले एक साल में बच्चों के आने के इंतज़ार के अलावा मैंने कुछ नहीं किया। अब मैं नए सिरे से, नई ज़िम्मेदारियों के साथ अपनी पहचान कायम करना चाहती हूं। सुनने में तो ये सब अच्छा लगता है, लेकिन क्या इतना आसान है?
हम बच्चों के दादा-दादी को लिए सिलीगुड़ी/बागडोरा होते हुए दिल्ली पहुंचते हैं। सोचती हूं, पांच महीने के बच्चों ने पांच शहर देख लिए। घूमन्तू मां की घूमन्तू संतानें!
एक साल से बंद पड़े घर में गृहस्थी फिर नई आवाज़ों के साथ शुरू होने लगी है। इस बार बच्चों की आवाज़ के इर्द-गिर्द पूरा घर घूमता है। मैं नौकरी पर वापस चली गई हूं। फिलहाल तय हुआ है कि बारी-बारी से नानी और दादी आकर बच्चों को संभालती रहेंगी। झूठ नहीं बोलूंगी। दफ्तर में वापस जाना ऐसा है जैसे मुझे मुद्दतों बाद खुली हवा का झोंका मिला हो। मैं दुगुने उत्साह के साथ काम में लग जाती हूं। न्यूज़ रूम की चिल्ल-पों कानों को संगीत समान लगती है, बुलेटिन ऑन-एयर होता है तो लगता है बाजबहादुर का किला फतह कर लिया।
लेकिन ये उत्साह बहुत दिनों तक नहीं चलता। बच्चों को छोड़कर आने के अपराध-बोध के बीच ये भी दुविधा परेशान करने लगी है कि मेरी वजह से बच्चों की दादी-नानी को अपना-अपना घर छोड़कर यहां, नोएडा प्रवास की सज़ा भुगतनी पड़ रही है।
काम का बोझ है या मेरे वज़न का, मेरी पीठ दोनों बर्दाश्त नहीं कर पाती और मैं बच्चों के नौ महीने का होते-होते स्लिप्ड डिस्क के साथ अस्पताल पहुंच जाती हूं। नए सिरे से परेशानी, नई चुनौतियां और आठ हफ्ते बिस्तर से ना उठने की हिदायत। बच्चों को संभालने में सब लग जाते हैं। अपनी-अपनी ज़िम्मेदारियों के साथ, अपनी-अपनी काबिलियत के मुताबिक।
तीन किलोमीटर दूर रहनेवाला मेरा भाई शाम को दफ्तर से पहले मेरे पास आता है। घंटा-दो घंटा बच्चों को देखता है। दो-चार दिन तो उनके दूध का डिब्बा, डायपर का बैग लिए एक बच्चे को रात-भर के लिए अपने घर भी ले जाता है। वो और उसका रूममेट बच्चे को रातभर सुलाते हैं, दूध पिलाते हैं, उसकी देखभाल करते हैं, और सुबह हमारे पास छोड़कर चले जाते हैं। लड़कों ने शादी से पहले ही बच्चे संभालने में महारत हासिल कर ली है, हम उन्हें चिढ़ाते हैं। लेकिन बच्चे अकेले तुम्हारे तो नहीं, भाई कहता है। मैं मामा हूं, मेरा हक़ बनता है। बच्चों पर सबके हक़ को मैं कभी चुनौती नहीं देती। इससे मेरी ज़िन्दगी आसान हो जाती है। कभी मन का एक कोना पोज़ेसिव होने की बात भी करे तो डांटकर चुप करा देती हूं। टूटी हुई पीठ वाली मां बच्चों की अकेले देखभाल तो बिल्कुल नहीं कर सकती। और सब मिलकर पालेंगे तो सबका हक़ होगा उनपर।
दो महीने बिस्तर पर पड़े रहने के बाद मैं फिर दफ़्तर जाती हूं। सबको मुझसे सहानुभूति है। यहां तक कि सफाई करनेवाली दीदी भी मुझसे मेरा और मेरे बच्चों का हाल पूछती है। मैं फिर दफ्तर और घर के बीच, बच्चों और अपने स्वास्थ्य के बीच का संतुलन कायम करने में जूझने लगती हूं। वक़्त गुज़र तो रहा है, तेज़ी से भी, लेकिन भारी पड़ता है।
एक दिन यूं ही बुलेटिन बनाते-बनाते मेरी पीठ में असह्य दर्द शुरू होता है। रनडाउन पर एंकर लिंक लिखने की बजाए अब मैं अपना इस्तीफ़ा लिख रही हूं। बिना किसी भूमिका, बिना किसी तैयारी, बिना किसी सलाह-मशविरे के मैं नौकरी से इस्तीफ़ा दे देती हूं। मैं वो नौकरी छोड़ देती हूं जिसने मुझे पहचान दी, मुझे आत्मविश्वास दिया, जिसने आर्थिक सुरक्षा दी। ये दफ्तर मेरे लिए घर के बाद सबसे पावन जगह लगती थी। यहां मैं करीब-करीब सबको जानती-पहचानती थी। यही नौकरी मिली थी तो मैंने पापा को कहा था कि बस यहीं से रिटायर होना है मुझे। और मैंने बिना सोचे-समझे इस नौकरी से इस्तीफा दे दिया।
मेल भेजकर मैं घर चली आई। पूरे रास्ते रोती रही। बीच में मैनेजिंग एडिटर का फोन आया। मैंने कहा, थोड़ी देर में संभल जाऊंगी तो फोन करूंगी। अगले दो दिन तक मुझे सब समझाते रहे, घर में, दफ्तर में, सब जगह। कहा गया कि मैं लंबी छुट्टी ले लूं पर नौकरी ना छोड़ूं। एचआर से फोन आए। लेकिन मैं ज़िद पर कायम थी। जानती थी कि अगले दो महीने में मुझे मुश्किल फैसला तो लेना ही होता। मां और मम्मी का ऐसे अपने घर छोड़-छोड़कर आने वाला इंतज़ाम ज़्यादा लंबा नहीं खिंचना था। मैं बच्चों को आया या क्रेश के भरोसे नहीं छोड़ना चाहती थी। नौकरी तो अब कहां मुमकिन हो पानी थी?
फिर कोलकाता होते हुए मैं पूर्णियां पहुंची हूं। इस बार छोटे चाचा-चाची और मेरा ग्यारह साल का चचेरा भाई मेरे हमसफ़र हैं, दादाजी के घर तक। फिर नए सिरे से बक्सों का खुलना, नए घर की दिनचर्या के साथ अपना, बच्चों का ढल जाना, फिर धूप के एक कोने को अपना साथी बनाना, शाम ढलते ही अपनी गोद में दोनों को लिए कमरों में दुबक जाना। बच्चों के अन्नप्राशन के बहाने बड़े स्तर पर उनका आने के समारोह की तैयारी की जा रही है। गांवों, शहरों, बच्चों के ननिहाल से आए मेहमान। बैंगलोर से आया मेरा भाई। असम से आए बच्चों के फुआ-फूफा। नाना-नानी, दादा-दादी, काका-चाचा, भैया। कई सारे लोगों के बीच साढ़े चार महीने के आद्या-आदित अपनी पहचान बना चुके हैं, गोद में लेने पर हंसकर अपनी पहचान जताते हैं, भीड़ से, लोगों से कतराते नहीं। आद्या फिर भी शर्मीली है, आदित तो सबसे रिश्ते जोड़ चुका है।
समारोहों के खत्म होने का वक्त है। यहां आए मुझे दो महीने हो चुके हैं। इनकी पहली होली भी शुभ-शुभ निकली है। मेरी मैटरनिटी लीव बस खत्म होने को है। दो बच्चों के साथ काम पर जाना कितनी मुमकिन होगा, इसको लेकर जद्दोज़ेहद शुरू हो गई है। हर रोज़ बहस छिड़ती है, हर रोज़ हम किसी नतीजे पर नहीं पहुंचते। मैं क्या चाहती हूं? कहना मुश्किल है। फिलहाल, मैं दिल्ली वापस जाना चाहती हूं। पिछले एक साल में बच्चों के आने के इंतज़ार के अलावा मैंने कुछ नहीं किया। अब मैं नए सिरे से, नई ज़िम्मेदारियों के साथ अपनी पहचान कायम करना चाहती हूं। सुनने में तो ये सब अच्छा लगता है, लेकिन क्या इतना आसान है?
हम बच्चों के दादा-दादी को लिए सिलीगुड़ी/बागडोरा होते हुए दिल्ली पहुंचते हैं। सोचती हूं, पांच महीने के बच्चों ने पांच शहर देख लिए। घूमन्तू मां की घूमन्तू संतानें!
एक साल से बंद पड़े घर में गृहस्थी फिर नई आवाज़ों के साथ शुरू होने लगी है। इस बार बच्चों की आवाज़ के इर्द-गिर्द पूरा घर घूमता है। मैं नौकरी पर वापस चली गई हूं। फिलहाल तय हुआ है कि बारी-बारी से नानी और दादी आकर बच्चों को संभालती रहेंगी। झूठ नहीं बोलूंगी। दफ्तर में वापस जाना ऐसा है जैसे मुझे मुद्दतों बाद खुली हवा का झोंका मिला हो। मैं दुगुने उत्साह के साथ काम में लग जाती हूं। न्यूज़ रूम की चिल्ल-पों कानों को संगीत समान लगती है, बुलेटिन ऑन-एयर होता है तो लगता है बाजबहादुर का किला फतह कर लिया।
लेकिन ये उत्साह बहुत दिनों तक नहीं चलता। बच्चों को छोड़कर आने के अपराध-बोध के बीच ये भी दुविधा परेशान करने लगी है कि मेरी वजह से बच्चों की दादी-नानी को अपना-अपना घर छोड़कर यहां, नोएडा प्रवास की सज़ा भुगतनी पड़ रही है।
काम का बोझ है या मेरे वज़न का, मेरी पीठ दोनों बर्दाश्त नहीं कर पाती और मैं बच्चों के नौ महीने का होते-होते स्लिप्ड डिस्क के साथ अस्पताल पहुंच जाती हूं। नए सिरे से परेशानी, नई चुनौतियां और आठ हफ्ते बिस्तर से ना उठने की हिदायत। बच्चों को संभालने में सब लग जाते हैं। अपनी-अपनी ज़िम्मेदारियों के साथ, अपनी-अपनी काबिलियत के मुताबिक।
तीन किलोमीटर दूर रहनेवाला मेरा भाई शाम को दफ्तर से पहले मेरे पास आता है। घंटा-दो घंटा बच्चों को देखता है। दो-चार दिन तो उनके दूध का डिब्बा, डायपर का बैग लिए एक बच्चे को रात-भर के लिए अपने घर भी ले जाता है। वो और उसका रूममेट बच्चे को रातभर सुलाते हैं, दूध पिलाते हैं, उसकी देखभाल करते हैं, और सुबह हमारे पास छोड़कर चले जाते हैं। लड़कों ने शादी से पहले ही बच्चे संभालने में महारत हासिल कर ली है, हम उन्हें चिढ़ाते हैं। लेकिन बच्चे अकेले तुम्हारे तो नहीं, भाई कहता है। मैं मामा हूं, मेरा हक़ बनता है। बच्चों पर सबके हक़ को मैं कभी चुनौती नहीं देती। इससे मेरी ज़िन्दगी आसान हो जाती है। कभी मन का एक कोना पोज़ेसिव होने की बात भी करे तो डांटकर चुप करा देती हूं। टूटी हुई पीठ वाली मां बच्चों की अकेले देखभाल तो बिल्कुल नहीं कर सकती। और सब मिलकर पालेंगे तो सबका हक़ होगा उनपर।
दो महीने बिस्तर पर पड़े रहने के बाद मैं फिर दफ़्तर जाती हूं। सबको मुझसे सहानुभूति है। यहां तक कि सफाई करनेवाली दीदी भी मुझसे मेरा और मेरे बच्चों का हाल पूछती है। मैं फिर दफ्तर और घर के बीच, बच्चों और अपने स्वास्थ्य के बीच का संतुलन कायम करने में जूझने लगती हूं। वक़्त गुज़र तो रहा है, तेज़ी से भी, लेकिन भारी पड़ता है।
एक दिन यूं ही बुलेटिन बनाते-बनाते मेरी पीठ में असह्य दर्द शुरू होता है। रनडाउन पर एंकर लिंक लिखने की बजाए अब मैं अपना इस्तीफ़ा लिख रही हूं। बिना किसी भूमिका, बिना किसी तैयारी, बिना किसी सलाह-मशविरे के मैं नौकरी से इस्तीफ़ा दे देती हूं। मैं वो नौकरी छोड़ देती हूं जिसने मुझे पहचान दी, मुझे आत्मविश्वास दिया, जिसने आर्थिक सुरक्षा दी। ये दफ्तर मेरे लिए घर के बाद सबसे पावन जगह लगती थी। यहां मैं करीब-करीब सबको जानती-पहचानती थी। यही नौकरी मिली थी तो मैंने पापा को कहा था कि बस यहीं से रिटायर होना है मुझे। और मैंने बिना सोचे-समझे इस नौकरी से इस्तीफा दे दिया।
मेल भेजकर मैं घर चली आई। पूरे रास्ते रोती रही। बीच में मैनेजिंग एडिटर का फोन आया। मैंने कहा, थोड़ी देर में संभल जाऊंगी तो फोन करूंगी। अगले दो दिन तक मुझे सब समझाते रहे, घर में, दफ्तर में, सब जगह। कहा गया कि मैं लंबी छुट्टी ले लूं पर नौकरी ना छोड़ूं। एचआर से फोन आए। लेकिन मैं ज़िद पर कायम थी। जानती थी कि अगले दो महीने में मुझे मुश्किल फैसला तो लेना ही होता। मां और मम्मी का ऐसे अपने घर छोड़-छोड़कर आने वाला इंतज़ाम ज़्यादा लंबा नहीं खिंचना था। मैं बच्चों को आया या क्रेश के भरोसे नहीं छोड़ना चाहती थी। नौकरी तो अब कहां मुमकिन हो पानी थी?
बुधवार, 20 अक्टूबर 2010
Excuse me, please!
He is not someone who is very fond of milk, unlike his twin sister. So, every morning is a tough morning for me, trying to make him gulp down that extra dose of calcium. But the lactophobic that he is, Adit will come up with one new excuse everyday.
As always, we are after him with that one glass of milk. Adit will start with his readymade excuses, which don't work anymore. "Only Mamma will hold the glass", "Too sweet", "Too hot", "Too cold", "Too much cream over it", "I can see a fly in my milk"... He has tried it all, albeit unsuccessfully.
So, today he holds the glass politely, completely surprising us. He takes one sip, and the other. Voila! We have won, after all. Just when I am getting completely euphoric over this new development, Adit looks angry and suddenly starts hitting his tummy.
"What Adit? What is it?" My husband looks worried.
"It's my tummy Papa."
"Hurting? You alright?"
"Tummy is acting rather funny you see. I want it to drink all the milk and it wants to throw up. Not me Papa, it's my tummy. So I am punishing him you see."
Adit, and his excuses.
As always, we are after him with that one glass of milk. Adit will start with his readymade excuses, which don't work anymore. "Only Mamma will hold the glass", "Too sweet", "Too hot", "Too cold", "Too much cream over it", "I can see a fly in my milk"... He has tried it all, albeit unsuccessfully.
So, today he holds the glass politely, completely surprising us. He takes one sip, and the other. Voila! We have won, after all. Just when I am getting completely euphoric over this new development, Adit looks angry and suddenly starts hitting his tummy.
"What Adit? What is it?" My husband looks worried.
"It's my tummy Papa."
"Hurting? You alright?"
"Tummy is acting rather funny you see. I want it to drink all the milk and it wants to throw up. Not me Papa, it's my tummy. So I am punishing him you see."
Adit, and his excuses.
लेबल:
English,
Motherhood
मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010
Dreams Sweet Dreams
I am trying to put the twins to sleep. And I am trying really hard. But nothing works. No lullabies, no stories, not even counting till 100. They just wouldn't sleep.
So we decide to play a game. "We close our eyes. All three of us. Nobody cheats. Now we have to think of the most wonderful things we want to dream about. So, who begins now?"
"Mamma. Mamma begins."
"Sure kids. So, Mamma's eyes are shut and she is dreaming of blue sky and blue waters, mountains and valleys. She is dreaming of a valley full of flowers. Adya next."
"Adya's eyes are closed. I am dreaming of moon and stars and the fairy who comes from the stars. I am dreaming of wonderful gifts fairy has got for me."
"Great. Adit's turn now."
"Adit's eyes are shut too. I am thinking of Santa Claus. And cars. Red cars, white cars, black cars, small cars, big cars. And motorcycles. And tractors and trucks. I am also dreaming of helicopters. And that big white plane."
Dreams sweet dreams I say.
So we decide to play a game. "We close our eyes. All three of us. Nobody cheats. Now we have to think of the most wonderful things we want to dream about. So, who begins now?"
"Mamma. Mamma begins."
"Sure kids. So, Mamma's eyes are shut and she is dreaming of blue sky and blue waters, mountains and valleys. She is dreaming of a valley full of flowers. Adya next."
"Adya's eyes are closed. I am dreaming of moon and stars and the fairy who comes from the stars. I am dreaming of wonderful gifts fairy has got for me."
"Great. Adit's turn now."
"Adit's eyes are shut too. I am thinking of Santa Claus. And cars. Red cars, white cars, black cars, small cars, big cars. And motorcycles. And tractors and trucks. I am also dreaming of helicopters. And that big white plane."
Dreams sweet dreams I say.
लेबल:
English,
Motherhood
Family matters
Adya pretends to be deep in her thoughts. "What is a family," she asks.
"Mmmmm.... A family... Let me think. A family is a unit, a set of people who love you dearly", I try to be as simple as possible.
"So Adya, do you know now what a family is?"
"Yes Mamma. Family is you, Papa, Adit, Adya, Dadi Maa, Baba, Nani Maa, Nanaji, Bhaiya Mamu, Chota Mamu, Ruchi Mausi, Bua, Phuphaji, Sharad Bhaiya, Riti Mami, Saumya Mami, Lakhi Bhaiya, Gauri Didi, Anand Bhaiya, Hari Bhaiya, Balram, Amresh Mamu, Priyanka Mami, Ravi Mamu, Manisha Mami, Om, Sushant Mamu, Guddu mamu, Choti mausi, Sabah-Hafsa Mausi, Buia Mausi, Vivaan, Abhishek Mamu, Pratik Mamu. Family is Purnea, Ranchi, Siwan, Calcutta. Family is..."
"Hold on Adya. Mamma is getting breathless now." I literally have to shut her up!
And that's the joint family Adya comes from. वसुधैव कुटुम्बकम। The entire world is a family, you see.
"Mmmmm.... A family... Let me think. A family is a unit, a set of people who love you dearly", I try to be as simple as possible.
"So Adya, do you know now what a family is?"
"Yes Mamma. Family is you, Papa, Adit, Adya, Dadi Maa, Baba, Nani Maa, Nanaji, Bhaiya Mamu, Chota Mamu, Ruchi Mausi, Bua, Phuphaji, Sharad Bhaiya, Riti Mami, Saumya Mami, Lakhi Bhaiya, Gauri Didi, Anand Bhaiya, Hari Bhaiya, Balram, Amresh Mamu, Priyanka Mami, Ravi Mamu, Manisha Mami, Om, Sushant Mamu, Guddu mamu, Choti mausi, Sabah-Hafsa Mausi, Buia Mausi, Vivaan, Abhishek Mamu, Pratik Mamu. Family is Purnea, Ranchi, Siwan, Calcutta. Family is..."
"Hold on Adya. Mamma is getting breathless now." I literally have to shut her up!
And that's the joint family Adya comes from. वसुधैव कुटुम्बकम। The entire world is a family, you see.
लेबल:
English,
Motherhood
रविवार, 17 अक्टूबर 2010
दुर्गा पूजा की यादें, बच्चों की ख़ातिर
आद्या और आदित,
आज विजयदशमी है। मम्मा आप लोगों के लिए अपने बचपन की कुछ यादें सहेजकर लिख ले रही है ताकि आप दोनों जब बड़े हो जाएं और मेरी भी यादें धुंधली पड़ने लगे तो मैं आपको फिर भी अपने बचपन के बारे में कुछ बता सकूं।
छुट्टी तो हमारी भी लंबी ही होती थी दुर्गा पूजा के लिए, लेकिन हम छुट्टियों का नहीं, पूजा के आने का इंतज़ार करते थे। क्या कहूं कि पूरा शहर कैसे अचानक एक नया रंग ले लेता था। मौसम बदलने लगता था, सुबह-शाम की हवा अच्छी लगती थी और हम भी समझ जाते थे कि मां दुर्गा ने अपने आने की आहट दे दी है। हमारे रांची वाले घर की गली तो देखी है ना आप दोनों ने? गली में घुसते ही बाईं तरफ जो बड़ी चहारदीवारी दिखती है ना, वहां दरअसल एक बड़ा-सा खाली मैदान था। पूरे साल हम उसी मैदान में धमाचौकड़ी करते, खो-खो, कबड्डी, पिट्ठू, क्रिकेट, गुल्ली डंडा खेलते। शाम तो हमारी वहीं निकला करती थी, उसी मैदान में। वहीं हमने साइकिल चलाना सीखा, वहीं भैया मामू से खूब उलझी भी, वहीं दोस्त बनाए और कुछ दुश्मन भी। पांच-छह कट्ठे का रहा होगा वो मैदान, लेकिन तब लगता था जैसे पूरी दुनिया उसी परिधि में सिमटती हो।
तो उसी मैदान में बारिश के बाद लंबी-लंबी घास निकल आया करती थी जिसपर पूरा-पूरा दिन हेलीकॉप्टर-सी तितलियां मंडरातीं और पूरा-पूरा दिन हम उन तितलियों के पीछे भागते। मैदान के किनारे-किनारे कास के फूल निकल आते थे। उजले, रूई से हल्के फूल। छुओ तो हाथ से फिसल जाएं। वो घास जब कपड़ों में चिपकती तो आपकी नानी मां हमपर गुस्सा करतीं। धोने में कितनी परेशानी होती होगी उनको!
जब घसियारिनें मैदान में घास काटने के लिए पहुंचतीं तो हम समझ जाते कि पू्जा की तैयारियां शुरू हो गई हैं। पूरे शनिवार-इतवार हम बहाने बना-बनाके मैदान में उनका घास काटना देखने के लिए पहुंच जाया करते। उस कटे हुए घास की खुशबू अबतक नहीं भूली हूं मैं, बारिश के बाद का गीलापन लिए हुए घास की वो खुशबू। तो घास कट जाती, मोहल्ले के चाचा-भैया लोग चंदे उठा लिया करते और उसी मैदान में बांस की बल्लियां गिरने लगतीं। सब उत्सुक होते कि इस साल मां दुर्गा सपरिवार किस रूप में उतरेंगी हमारे मोहल्ले में। हर साल नया रूप, हर साल पंडाल का नया रंग। नए कपड़े सिल जाते, चप्पलें बदल दी जातीं, चूड़ियों के नए डिब्बे निकल आते, माथे की बिंदियों पर पूर्णमासी का चांद उतर आता।
पूरे शहर में जगह-जगह पंडाल बन रहे होते। हम षष्ठी का इंतज़ार करते और मां की आंखें खुलते हीं पूरा शहर जैसे जश्न में डूब जाता। एक हरसिंगार का पेड़ था हमारे घर के पास ऑरोविन्दो आश्रम में। वहां फूल चुनने के लिए मार पड़ने लगती। सुबह चार बजे से ही लोग अपने-अपने हाथों में थैलियां लिए गली-गली फूल चुना करते। हरसिंगार के उन फूलों का पुष्पांजलि में बड़ा महत्व था। शायद अब भी होता होगा। खैर, हरसिंगार के अलावा चंपा, चमेली, जवा कुसुम के फूलों से पूजा की थालियां सज जाया करतीं। हमारे घर के आंगन में चांदनी का एक बड़ा-सा पेड़ था। हम भी फूल चुन-चुनकर चांदनी और जवाकुसुम की एक सुन्दर सी माला बनाया करते।
ढाक के बजते ही पूरा मोहल्ला जान जाता कि सुबह की आरती का वक्त हो गया है। गहरे, चटक रंगों की पाढ़ वाली साड़ियों में लिपटीं मोहल्ले की चाचियां, भाभियां लाल बिंदी लगाए, खुले घुंघराले बालों से पानी टपकाती हुई जब पूजा की थालियां लिए पंडाल में पहुंचतीं तो लगता साक्षात दुर्गा ऐसे ही कई रूपों में होती होगी शायद। धूप और अगरबत्ती की खुशबू हमारे घर के आंगन तक पहुंचती थी। मां के भोग के लिए जो खिचड़ी बनती उसका स्वाद छप्पन भोग से बेहतर होता। आज तक वैसी सोंधी खिचड़ी मैंने नहीं खाई। लकड़ियों के चूल्हे और मिट्टी की हांडी का स्वाद मिला होता था उसमें।
शाम ढलते ही फिर एक बार आरती होती। मेरी दोस्त सुवर्णा मुखर्जी के चाचा (नाम याद नहीं आ रहा अभी) धुनुची नाच करते। हाथ में आग लिए मुंह से भी धुंआ निकालते धूप का दिया पकड़े हुए उनके नाच को देखने के लिए अपना मोहल्ला क्या, आस-पास के इलाकों से भी लोग आया करते। ढाकवाला तो बर्दमान (पं. बंगाल) से आता था शायद।
अंधेरा होते ही पूरी सड़क लाइटों से जगमगा जाती। ऐसा लगता जैसे असंख्य तारे हमारी खुशी में शामिल होने की इच्छा से हमारे बीच ही उतर आए हैं। रात के खाने के बाद हम भी शहर के पंडालों के दर्शन के लिए निकलते। उन पंडालों की सज्जा पर तो एक पूरा थीसिस लिखा जा सकता है। किसी साल व्हाइट हाउस थीम होता, कहीं विक्टोरिया मेमोरियल, कहीं लोटस टेम्पल की थीम होती तो कहीं पूरा का पूरा पंडाल भूसे से बना दिया जाता। पूरी रात अपने दादाजी और घर के बाकी सदस्यों के साथ हम गली-कूचों के पंडाल देखते, दुर्गाबाड़ी में मां के दर्शन करते और रात के तीन बजे कहीं फुचके खाते, कहीं चाट पकौड़ियां। हमारे लिए मेलों से खिलौने भी खरीदे जाते, कभी किचन सेट, कभी डॉक्टर सेट, कभी नाचनेवाला बंदर, कभी घर्र-घर्र चलती गाड़ी।
नवमी के दिन हम रातू जाते, महल में रातू के राजा का मेला देखना। क्या कहूं कि उस बीस किलोमीटर के सफर का, शहर से दूर एक पुराने महल में जाने का हम पूरे साल कितनी बेसब्री से इंतज़ार करते। रातू की पूजा टुकड़ों-टुकड़ों में याद है। ये याद है कि वहां सौ से ज़्यादा बकरों की बलि चढ़ाई जाती, महल के बगीचे में एक बड़ा-सा मेला लगता और रातू के राजा की एक छवि पाने के लिए घंटों लोग इंतज़ार करते।
विजयदशमी की तो बात ही निराली थी। किसी साल हम मोराबादी मैदान में रावण दहन देखने जाते तो किसी साल धुर्वा चले जाते। एक एम्बैस्डर में पूरा मोहल्ला समा जाता और हम दो बजे से ही मैदान के किसी वान्टेज प्वाइंट पर अपनी गाड़ी लगा देते जहां से दहन का पूरा नज़ारा साफ दिखाई देता। दहन तो अंधेरा होने के बाद होता लेकिन वो तीन-चार घंटे आस-पास के लोगों से गप-शप में मूंगफली तोड़ते, चाट खाते, गुब्बारे फुलाते गुज़रता। हम बच्चों को गाड़ी के ऊपर बिठा दिया जाता। जो थोड़े छोटे होते, उनको बड़ों के कंधों पर जगह दे दी जाती। और हम खुश हो-होकर, तालियां बजा-बजाकर असत्य पर सत्य की, पाप पर पुण्य की विजय देखते। घर लौटकर आते तो हाथ में तीर-धनुष, डुगडुगी, गुब्बारे जैसी कई चीज़ें होतीं। विजयदशमी की कढ़ी-पकौड़ों का भी स्वाद नहीं भूली। वैसी कढ़ी तो कोई नहीं बना पाता अब।
विसर्जन के वक्त शहर में एक अलग-सा नज़ारा होता। मां की विदाई करते हुए सब क्यों भावुक हो जाते थे, क्यों रोते थे, अब समझ में आता है। उन चार-पांच दिनों में तो हम किसी और दुनिया में होते थे, कई रिश्ते बनाते थे, एक परिवार-सा रहते थे।
ये जश्न, ये उत्सव का माहौल तुम्हें सौंप नहीं पाई हूं, इसका मलाल हमेशा रहता है। लेकिन वायदा करती हूं, कोलकाता, रांची, जमशेदपुर, पूर्णियां - सब जगह की दुर्गा पूजा से तुम्हारी यादों को भी भर दूंगी। तबतक, मां दुर्गा तुम्हें खुश रखें, तुमपर अपनी कृपा-दृष्टि बनाए रखें।
तुम्हारी मां।
आज विजयदशमी है। मम्मा आप लोगों के लिए अपने बचपन की कुछ यादें सहेजकर लिख ले रही है ताकि आप दोनों जब बड़े हो जाएं और मेरी भी यादें धुंधली पड़ने लगे तो मैं आपको फिर भी अपने बचपन के बारे में कुछ बता सकूं।
छुट्टी तो हमारी भी लंबी ही होती थी दुर्गा पूजा के लिए, लेकिन हम छुट्टियों का नहीं, पूजा के आने का इंतज़ार करते थे। क्या कहूं कि पूरा शहर कैसे अचानक एक नया रंग ले लेता था। मौसम बदलने लगता था, सुबह-शाम की हवा अच्छी लगती थी और हम भी समझ जाते थे कि मां दुर्गा ने अपने आने की आहट दे दी है। हमारे रांची वाले घर की गली तो देखी है ना आप दोनों ने? गली में घुसते ही बाईं तरफ जो बड़ी चहारदीवारी दिखती है ना, वहां दरअसल एक बड़ा-सा खाली मैदान था। पूरे साल हम उसी मैदान में धमाचौकड़ी करते, खो-खो, कबड्डी, पिट्ठू, क्रिकेट, गुल्ली डंडा खेलते। शाम तो हमारी वहीं निकला करती थी, उसी मैदान में। वहीं हमने साइकिल चलाना सीखा, वहीं भैया मामू से खूब उलझी भी, वहीं दोस्त बनाए और कुछ दुश्मन भी। पांच-छह कट्ठे का रहा होगा वो मैदान, लेकिन तब लगता था जैसे पूरी दुनिया उसी परिधि में सिमटती हो।
तो उसी मैदान में बारिश के बाद लंबी-लंबी घास निकल आया करती थी जिसपर पूरा-पूरा दिन हेलीकॉप्टर-सी तितलियां मंडरातीं और पूरा-पूरा दिन हम उन तितलियों के पीछे भागते। मैदान के किनारे-किनारे कास के फूल निकल आते थे। उजले, रूई से हल्के फूल। छुओ तो हाथ से फिसल जाएं। वो घास जब कपड़ों में चिपकती तो आपकी नानी मां हमपर गुस्सा करतीं। धोने में कितनी परेशानी होती होगी उनको!
जब घसियारिनें मैदान में घास काटने के लिए पहुंचतीं तो हम समझ जाते कि पू्जा की तैयारियां शुरू हो गई हैं। पूरे शनिवार-इतवार हम बहाने बना-बनाके मैदान में उनका घास काटना देखने के लिए पहुंच जाया करते। उस कटे हुए घास की खुशबू अबतक नहीं भूली हूं मैं, बारिश के बाद का गीलापन लिए हुए घास की वो खुशबू। तो घास कट जाती, मोहल्ले के चाचा-भैया लोग चंदे उठा लिया करते और उसी मैदान में बांस की बल्लियां गिरने लगतीं। सब उत्सुक होते कि इस साल मां दुर्गा सपरिवार किस रूप में उतरेंगी हमारे मोहल्ले में। हर साल नया रूप, हर साल पंडाल का नया रंग। नए कपड़े सिल जाते, चप्पलें बदल दी जातीं, चूड़ियों के नए डिब्बे निकल आते, माथे की बिंदियों पर पूर्णमासी का चांद उतर आता।
पूरे शहर में जगह-जगह पंडाल बन रहे होते। हम षष्ठी का इंतज़ार करते और मां की आंखें खुलते हीं पूरा शहर जैसे जश्न में डूब जाता। एक हरसिंगार का पेड़ था हमारे घर के पास ऑरोविन्दो आश्रम में। वहां फूल चुनने के लिए मार पड़ने लगती। सुबह चार बजे से ही लोग अपने-अपने हाथों में थैलियां लिए गली-गली फूल चुना करते। हरसिंगार के उन फूलों का पुष्पांजलि में बड़ा महत्व था। शायद अब भी होता होगा। खैर, हरसिंगार के अलावा चंपा, चमेली, जवा कुसुम के फूलों से पूजा की थालियां सज जाया करतीं। हमारे घर के आंगन में चांदनी का एक बड़ा-सा पेड़ था। हम भी फूल चुन-चुनकर चांदनी और जवाकुसुम की एक सुन्दर सी माला बनाया करते।
ढाक के बजते ही पूरा मोहल्ला जान जाता कि सुबह की आरती का वक्त हो गया है। गहरे, चटक रंगों की पाढ़ वाली साड़ियों में लिपटीं मोहल्ले की चाचियां, भाभियां लाल बिंदी लगाए, खुले घुंघराले बालों से पानी टपकाती हुई जब पूजा की थालियां लिए पंडाल में पहुंचतीं तो लगता साक्षात दुर्गा ऐसे ही कई रूपों में होती होगी शायद। धूप और अगरबत्ती की खुशबू हमारे घर के आंगन तक पहुंचती थी। मां के भोग के लिए जो खिचड़ी बनती उसका स्वाद छप्पन भोग से बेहतर होता। आज तक वैसी सोंधी खिचड़ी मैंने नहीं खाई। लकड़ियों के चूल्हे और मिट्टी की हांडी का स्वाद मिला होता था उसमें।
शाम ढलते ही फिर एक बार आरती होती। मेरी दोस्त सुवर्णा मुखर्जी के चाचा (नाम याद नहीं आ रहा अभी) धुनुची नाच करते। हाथ में आग लिए मुंह से भी धुंआ निकालते धूप का दिया पकड़े हुए उनके नाच को देखने के लिए अपना मोहल्ला क्या, आस-पास के इलाकों से भी लोग आया करते। ढाकवाला तो बर्दमान (पं. बंगाल) से आता था शायद।
अंधेरा होते ही पूरी सड़क लाइटों से जगमगा जाती। ऐसा लगता जैसे असंख्य तारे हमारी खुशी में शामिल होने की इच्छा से हमारे बीच ही उतर आए हैं। रात के खाने के बाद हम भी शहर के पंडालों के दर्शन के लिए निकलते। उन पंडालों की सज्जा पर तो एक पूरा थीसिस लिखा जा सकता है। किसी साल व्हाइट हाउस थीम होता, कहीं विक्टोरिया मेमोरियल, कहीं लोटस टेम्पल की थीम होती तो कहीं पूरा का पूरा पंडाल भूसे से बना दिया जाता। पूरी रात अपने दादाजी और घर के बाकी सदस्यों के साथ हम गली-कूचों के पंडाल देखते, दुर्गाबाड़ी में मां के दर्शन करते और रात के तीन बजे कहीं फुचके खाते, कहीं चाट पकौड़ियां। हमारे लिए मेलों से खिलौने भी खरीदे जाते, कभी किचन सेट, कभी डॉक्टर सेट, कभी नाचनेवाला बंदर, कभी घर्र-घर्र चलती गाड़ी।
नवमी के दिन हम रातू जाते, महल में रातू के राजा का मेला देखना। क्या कहूं कि उस बीस किलोमीटर के सफर का, शहर से दूर एक पुराने महल में जाने का हम पूरे साल कितनी बेसब्री से इंतज़ार करते। रातू की पूजा टुकड़ों-टुकड़ों में याद है। ये याद है कि वहां सौ से ज़्यादा बकरों की बलि चढ़ाई जाती, महल के बगीचे में एक बड़ा-सा मेला लगता और रातू के राजा की एक छवि पाने के लिए घंटों लोग इंतज़ार करते।
विजयदशमी की तो बात ही निराली थी। किसी साल हम मोराबादी मैदान में रावण दहन देखने जाते तो किसी साल धुर्वा चले जाते। एक एम्बैस्डर में पूरा मोहल्ला समा जाता और हम दो बजे से ही मैदान के किसी वान्टेज प्वाइंट पर अपनी गाड़ी लगा देते जहां से दहन का पूरा नज़ारा साफ दिखाई देता। दहन तो अंधेरा होने के बाद होता लेकिन वो तीन-चार घंटे आस-पास के लोगों से गप-शप में मूंगफली तोड़ते, चाट खाते, गुब्बारे फुलाते गुज़रता। हम बच्चों को गाड़ी के ऊपर बिठा दिया जाता। जो थोड़े छोटे होते, उनको बड़ों के कंधों पर जगह दे दी जाती। और हम खुश हो-होकर, तालियां बजा-बजाकर असत्य पर सत्य की, पाप पर पुण्य की विजय देखते। घर लौटकर आते तो हाथ में तीर-धनुष, डुगडुगी, गुब्बारे जैसी कई चीज़ें होतीं। विजयदशमी की कढ़ी-पकौड़ों का भी स्वाद नहीं भूली। वैसी कढ़ी तो कोई नहीं बना पाता अब।
विसर्जन के वक्त शहर में एक अलग-सा नज़ारा होता। मां की विदाई करते हुए सब क्यों भावुक हो जाते थे, क्यों रोते थे, अब समझ में आता है। उन चार-पांच दिनों में तो हम किसी और दुनिया में होते थे, कई रिश्ते बनाते थे, एक परिवार-सा रहते थे।
ये जश्न, ये उत्सव का माहौल तुम्हें सौंप नहीं पाई हूं, इसका मलाल हमेशा रहता है। लेकिन वायदा करती हूं, कोलकाता, रांची, जमशेदपुर, पूर्णियां - सब जगह की दुर्गा पूजा से तुम्हारी यादों को भी भर दूंगी। तबतक, मां दुर्गा तुम्हें खुश रखें, तुमपर अपनी कृपा-दृष्टि बनाए रखें।
तुम्हारी मां।
शनिवार, 16 अक्टूबर 2010
ज़माने-ज़माने की बात
यही तो बच्चों का असली घर है
मां कहती हैं।
खुल जाते हैं चरमराते हुए दरवाज़े,
सीलन-भरे कमरों से
निकलते हैं गुज़रे ज़माने के पन्ने।
छत से लटकता कोई झाड़फानूस नहीं
लेकिन कोने में कांच के टूटे टुकड़े हैं।
सालों की धूल है कढ़ाई वाली चादर पर,
कुर्सी है कि खिसकाओ तो रो देती है।
दीवारों की नक्काशी पर जमी है काई,
एक पीपल कमरे में घुसपैठिया है।
इस आंगन में कभी बच्चे खिलखिलाते थे,
सूखे हुए आम की टहनी हमसे कहती है।
वो कोने में देखो, रसोई है जहां
सौ-सौ जनों के पेट की तपिश का थी इलाज।
मिट्टी के चूल्हे आग को तरसते हैं अब तो,
छत ढह गई है, फर्श भी तो धंस गई है।
खाली पड़ी हैं दूध की भी हांडियां,
कांसे-पीतल के बर्तनों की अब कौन सुने।
ठूंठ-से रह गए हैं पेड़ बगीचों के अब,
ना आम मीठे रह गए हैं और ना ही बोलियां।
ये पेड़ देखो, हरसिंगार-सा लगता है।
फूल खिलते थे, ये भी तो लहकता होगा।
यहां पीछे हुआ करती थी एक गौशाला,
दूध-दही से तो भंडार भरा रहता था।
शुद्ध घी में बना करते थे लड्डू बेटा,
पूरा गांव उस खुशबू से महकता होगा।
इन खेतों में लहलहाती थीं फ़सलें,
ज़मीन कहते हैं, हीरे उगाया करती थी।
इस पोखर से आती थीं सोने-सी मछलियां,
छठ में पूरा कुनबा यहां जमता था।
पोखर में नहीं है एक बूंद पानी,
आंखों के आंसू भी तो अब
बात-बात पर छलकते नहीं हैं।
इस दरवाज़े पर सजते थे घोड़े-हाथी,
हर रोज़ जैसे लगती थी एक बारात।
दुआर पर खड़ी बाबा की फीटन
टुकड़ों-टुकड़ों में खड़ी अब कबाड़ लगती है।
घर खंडहर लगता है, क्या कहूं तुमसे
ये पुश्तैनी जायदाद उजाड़ लगती है।
मैं अपने दिल की भी कैसे कहूं आपसे मां,
बच्चों को मैंने सौंपी है कैसी थाती।
एक दौड़ता-भागता शहर सौंपा है,
और बोझ डाला है अपेक्षाओं का कंधों पर।
आप माज़ी को लिए ढोती हैं, देखिए ना मां,
मैं भी तो कल को लिए फिरती हूं माथे पर।
ज़माने-ज़माने की बात है ये, क्या बोलूं,
हम दोनों की ही तो एक-सी दुखती रग है।
मां कहती हैं।
खुल जाते हैं चरमराते हुए दरवाज़े,
सीलन-भरे कमरों से
निकलते हैं गुज़रे ज़माने के पन्ने।
छत से लटकता कोई झाड़फानूस नहीं
लेकिन कोने में कांच के टूटे टुकड़े हैं।
सालों की धूल है कढ़ाई वाली चादर पर,
कुर्सी है कि खिसकाओ तो रो देती है।
दीवारों की नक्काशी पर जमी है काई,
एक पीपल कमरे में घुसपैठिया है।
इस आंगन में कभी बच्चे खिलखिलाते थे,
सूखे हुए आम की टहनी हमसे कहती है।
वो कोने में देखो, रसोई है जहां
सौ-सौ जनों के पेट की तपिश का थी इलाज।
मिट्टी के चूल्हे आग को तरसते हैं अब तो,
छत ढह गई है, फर्श भी तो धंस गई है।
खाली पड़ी हैं दूध की भी हांडियां,
कांसे-पीतल के बर्तनों की अब कौन सुने।
ठूंठ-से रह गए हैं पेड़ बगीचों के अब,
ना आम मीठे रह गए हैं और ना ही बोलियां।
ये पेड़ देखो, हरसिंगार-सा लगता है।
फूल खिलते थे, ये भी तो लहकता होगा।
यहां पीछे हुआ करती थी एक गौशाला,
दूध-दही से तो भंडार भरा रहता था।
शुद्ध घी में बना करते थे लड्डू बेटा,
पूरा गांव उस खुशबू से महकता होगा।
इन खेतों में लहलहाती थीं फ़सलें,
ज़मीन कहते हैं, हीरे उगाया करती थी।
इस पोखर से आती थीं सोने-सी मछलियां,
छठ में पूरा कुनबा यहां जमता था।
पोखर में नहीं है एक बूंद पानी,
आंखों के आंसू भी तो अब
बात-बात पर छलकते नहीं हैं।
इस दरवाज़े पर सजते थे घोड़े-हाथी,
हर रोज़ जैसे लगती थी एक बारात।
दुआर पर खड़ी बाबा की फीटन
टुकड़ों-टुकड़ों में खड़ी अब कबाड़ लगती है।
घर खंडहर लगता है, क्या कहूं तुमसे
ये पुश्तैनी जायदाद उजाड़ लगती है।
मैं अपने दिल की भी कैसे कहूं आपसे मां,
बच्चों को मैंने सौंपी है कैसी थाती।
एक दौड़ता-भागता शहर सौंपा है,
और बोझ डाला है अपेक्षाओं का कंधों पर।
आप माज़ी को लिए ढोती हैं, देखिए ना मां,
मैं भी तो कल को लिए फिरती हूं माथे पर।
ज़माने-ज़माने की बात है ये, क्या बोलूं,
हम दोनों की ही तो एक-सी दुखती रग है।
शुक्रवार, 15 अक्टूबर 2010
देवी तेरे रूप अनेक!
सुबह-सुबह बजी है दरवाज़े की घंटी,
बिटिया के लिए आमंत्रण है।
आद्या में विद्यमान हैं अन्नपूर्णा,
ऐसा उन्होंने मुझे याद दिलाया है।
सज जाती है कन्याएं, बिछ जाते हैं आसन,
धुलते हैं पैर, लगा दी जाती है थालियां।
कुमकुम, रोली, अक्षत, फूलों से
पूजीं जाती हैं नौ कन्याएं बार-बार,
साक्षात देवी का आशीर्वाद लिया है उन्होंने।
कल ही देखा था, चीख-चीखकर
कामवाली की बेटी को देते धमकियां,
पकड़ी थी चोटी, खिंचा था थप्पड़,
सूखे, सांवले गालों पर।
"पोते की साइकिल छूने का गुनाह क्यों किया?"
देवी, तू कितने रूपों में विराजमान है!
बिटिया के लिए आमंत्रण है।
आद्या में विद्यमान हैं अन्नपूर्णा,
ऐसा उन्होंने मुझे याद दिलाया है।
सज जाती है कन्याएं, बिछ जाते हैं आसन,
धुलते हैं पैर, लगा दी जाती है थालियां।
कुमकुम, रोली, अक्षत, फूलों से
पूजीं जाती हैं नौ कन्याएं बार-बार,
साक्षात देवी का आशीर्वाद लिया है उन्होंने।
कल ही देखा था, चीख-चीखकर
कामवाली की बेटी को देते धमकियां,
पकड़ी थी चोटी, खिंचा था थप्पड़,
सूखे, सांवले गालों पर।
"पोते की साइकिल छूने का गुनाह क्यों किया?"
देवी, तू कितने रूपों में विराजमान है!
मेरी मां जैसा मुझमें कुछ
बच्चों ने खेलते-खेलते अपनी उंगलियां
मेरी हथेलियों में फंसाई हैं।
तभी मेरे ज़ेहन में
एक बात कौंध आई है।
कैसे गुज़रे ये साल,
क्यों हो इसका मलाल।
जब बिटिया मेरी आंखों में झांक
बड़े प्यार से मुस्कुराई है।
कभी बांहों को मैंने
झूला बनाया है।
कभी दोनों को कंधों पर बिठाया है।
कभी मीठी-सी थपकी से
तेरे लिए नींदिया बुलाई है।
कभी खाने को मनुहार किया,
और शिद्दत से प्यार किया।
कभी टॉफियों की लालच में
मैंने तुम्हें कड़वी दवा पिलाई है।
तुम बुढ़ापे की उम्मीद भी,
कुछ कर गुज़रने की ज़िद भी।
तुम्हारे लिए कई बार मैंने
अपनों से की लड़ाई है।
मां की तरह मंदिर में जुड़ते हाथ,
व्रतों, त्यौहारों में तुम्हारी बात।
मेरी नसीहतों, हरकतों में भी तो
मेरी मां ही उतर आई है।
जैसे मां के घोंसलों से उड़े हम,
और एक नई दुनिया से जुड़े हम,
वैसे ही खाली होंगे हमारे भी घोंसले,
ये सोचकर जाने क्यों मेरी आंखें भर आईं हैं।
मेरी हथेलियों में फंसाई हैं।
तभी मेरे ज़ेहन में
एक बात कौंध आई है।
कैसे गुज़रे ये साल,
क्यों हो इसका मलाल।
जब बिटिया मेरी आंखों में झांक
बड़े प्यार से मुस्कुराई है।
कभी बांहों को मैंने
झूला बनाया है।
कभी दोनों को कंधों पर बिठाया है।
कभी मीठी-सी थपकी से
तेरे लिए नींदिया बुलाई है।
कभी खाने को मनुहार किया,
और शिद्दत से प्यार किया।
कभी टॉफियों की लालच में
मैंने तुम्हें कड़वी दवा पिलाई है।
तुम बुढ़ापे की उम्मीद भी,
कुछ कर गुज़रने की ज़िद भी।
तुम्हारे लिए कई बार मैंने
अपनों से की लड़ाई है।
मां की तरह मंदिर में जुड़ते हाथ,
व्रतों, त्यौहारों में तुम्हारी बात।
मेरी नसीहतों, हरकतों में भी तो
मेरी मां ही उतर आई है।
जैसे मां के घोंसलों से उड़े हम,
और एक नई दुनिया से जुड़े हम,
वैसे ही खाली होंगे हमारे भी घोंसले,
ये सोचकर जाने क्यों मेरी आंखें भर आईं हैं।
लेबल:
कविता,
Motherhood
सदस्यता लें
संदेश (Atom)