बुधवार, 1 अप्रैल 2020

कोरोना के दिनों में मॉर्निंग पेज भाग ४

मैंने कल रात कन्टेजियन नाम की एक फ़िल्म देखने की भयंकर ग़लती कर दी. असल ज़िन्दगी में वायरस की भयावहता कम है क्या कि उस पर किताबें पढ़ी जाएं, फ़िल्में देखी जाएं, वो भी लॉकडाउन के दिनों में! लेकिन अमेजॉन प्राइम की ट्रेन्डिंग फ़िल्मों में से है कन्टेजियन. उसी तरह नेटफ़्लिक्स पर भी डिस्टोपिया की फ़िल्में ट्रेन्ड कर रही हैं, सुना है. यानी, हम इंसान सही मायने में मैसोकिस्ट हैं. हमें स्वपीड़न में ही सुख मिलता है. 

सेल्फ़ आइसोलेशन का आलम ये है कि कचरा निकालने के अलावा पिछले चौदह दिनों में दरवाज़े से बाहर नहीं निकली. बाहर वैसे भी सन्नाटे के अलावा नज़र भी क्या आना है. सूनी सूनी आँखों से सन्नाटा तकते-सुनते लोगों को देखकर मिलेगा भी क्या. कितना लंबा वक़्त काटा होगा सोते हुए ऑटो-टैक्सीवालों ने? भूख लगी होगी तो कहां गए होंगे? फल और सब्ज़ियों के ठेलों पर तो लेटने की जगह भी नहीं होती. उनका पहाड़-सा दिन कैसे कटता होगा? २१ दिनों के पहले चरण के लॉकडाउन का आठवां दिन ही है आज. ऐसे न जाने और कितने दिन काटने होंगे. 

और नफ़रतें हैं कि कम ही नहीं होती. 

अपने शहर की एक प्रोबेशनरी आईएएस अफ़सर से बात हो रही थी. कह रही थी कि यहाँ (बिहार में) लोग झूठ बहुत बोलते हैं. ख़ासतौर पर अगड़े, रसूखवाले, ताक़तवर. थ्योरी में जिस तरह के वर्गभेद के बारे में पढ़ा था, ज़मीनी स्तर पर वह अपने सबसे भयानक रूप में दिखाई दे रहा है. अगर कोई ग़रीब पिछड़े वर्ग का इंसान कहीं बाहर से आया है तो उसके लिए दस फ़ोन आ जाएंगे. उसको गाँव से, मोहल्ले से निकालने की सिफ़ारिशें होंगी. लेकिन जिनके पास संसाधन हैं, वे चुपचाप अपने घरों में लुकाए बैठे हैं. मालूम भी नहीं कि वे वायरस के कैरियर हैं या नहीं. जाति और मज़हब के आधार पर वायरस को भी बांट देना कोई हमसे सीखे. 

ऐसे संकट के दौर में जितनी झूठ और फ़रेब की कहानियाँ हैं, उतने ही मदद के लिए बढ़े हाथ हैं. फंडरेज़िंग, अपने अपने पास के संसाधनों को ज़रूरतमंदों में बांटने की कोशिश, अपने अपने हुनर से दूसरों की मदद करने का जुगाड़, प्रो बोनो काउंसिलिंग, ऑनलाइन स्टैंडअप कॉमेडी, आर्ट, म्युज़िक - कितना कुछ है वहाँ जो उपलब्ध है. 

बचा रह गया है एक अरमान भी है. वापस घर लौट जाने का अरमान. 

मंगलवार, 31 मार्च 2020

कोरोना के दिनों में मॉर्निंग पेज भाग ३

कोई फ़ोन पर पूछ ले कि दिन कैसे काटती हो, तो मैं हँस देती हूँ।

ऐसे बेतुके सवाल आदमियों के दिमाग़ में आते कैसे हैं? दिन काटना कहाँ पड़ता है? दिन तो कट जाते हैं। अनदेखे कल को चमकाने में जितनी ऊर्जा लगती है, उसकी आधी ऊर्जा भी फ़र्श और सिंक में पड़े बर्तनों को चमकाने में लगा दिया जाए तो आधा दिन यूँ भी कट जाता है। बाकी का दिन मशीन से कपड़े निकालकर बालकनी में, फिर बालकनी से उतारकर, सोफे पर, फिर सोफे से उतारकर आयरनिंग टेबल पर, फिर आयरनिंग टेबल से अलमारियों में डालने में गुज़र जाता है। जिस लॉकडाउन के लंबे-लंबे ऊबे हुए दिनों को काटने की फ़िक्र में रातों की नींद जाने लगी है, उस लॉकडाउननुमा जीवन के लिए तो हाउसवाइफ़री औरतों को रोज़ तैयार करती रही है। 

'बहुत लिखती होगी इन दिनों के' के तंज़ पर माथा फोड़ लेने का जी करता है। सारी दुनिया के लिए राईटर बन जाने का यही सही समय है, और सारे राईटरों के लिए लिखना छोड़ देना का इससे माक़ूल कोई मौक़ा नहीं।

ये मौक़ा कई और आदतों को तोड़ देने का है। आस-पास की आदतें धराशायी होने लगी हैं अपनेआप।

माँ ने छठ का व्रत रखा, लेकिन घाट नहीं गई। बेटी-बेटे ने होमवर्क कर लिया लेकिन अपना बैग नहीं खोला, न उछल उछलकर इस बात की घोषणा की। तीन साल की भतीजी ने अपने जूते पहन लिए लेकिन बाहर निकलने की ज़िद नहीं की। मैंने अपनी कहानियाँ पूरी कर लीं लेकिन संपादक को नहीं भेजा। लोगों ने यात्राएँ शुरु कर दीं लेकिन घर नहीं पहुँचे। कोयल ने कूकना बंद कर दिया लेकिन दूर नीचे खिले बसंत के फूलों की रंगत नहीं उतरी। 

बुधवार, 25 मार्च 2020

कोरोना के दिनों में मॉर्निंग पेज भाग दो

प्ले लिस्ट तैयार हो गई है। साढ़े छह बजे से ही उठकर झाड़ू-पोंछा कर चुकी हूँ। नहाना-धोना, मेडिटेशन सब हो गया। 

और धूप है कि अभी बालकनी के एक ही कोने में टंगी हुई है, सिर पर चढ़ी ही नहीं। 

हम कुछ छह लोग हैं मुंबई में साढ़े तीन कमरों वाले इस अपार्टमेंट में। इस कमरे से उस कमरे भटकने की दर प्रति दो व्यक्ति प्रति पंद्रह मिनट की रहे तब भी कोई न कोई कोना खाली मिल ही जाता है। जानती हूँ कि ख़ुशकिस्मत हूँ। इसलिए भी कि मेरे अलावा इस लॉकडाउन में पाँच जने और हैं इस घर में। इसलिए भी कि एक ही कमरे में दसियों के बीच पैर फैलाने की मारामारी नहीं हो रही। इसलिए भी कि हमारे पास एक ठिया है, जहाँ से भागने की कोई ज़रूरत नहीं। वरना सुबह सुबह फ़ोन पर पतिदेव ने जयपुर से बिहार के लिए पैदल निकल पड़े दस बिहारी मजदूरों की स्टोरी फॉरवर्ड की तो दिमाग़ भन्ना गया। 

सच तो ये है कि इंसान को बीमारी से डर नहीं लगता। मरने से भी शायद ही लगता हो। डर तो ग़ैरयक़ीनी सूरत-ए-हाल से लगता है। डर तो अनिश्चितताओं से भरे इस काल से लगता है। 

चौदहवीं मंज़िल की बालकनी से टंगकर सामने दूर महिन्द्रा क्लब के बग़ल की थोड़ी सी खुली ज़मीन पर खिले बसंत रानी के गाछों को घूरने के बाद वापस लौट आती हूँ। इसी बालकनी से ठीक तेरह-चौदह माले ऊपर एक सुपरस्टार ने लटकर अपने इंस्टाग्राम पर एक तस्वीर के साथ टूटी-फूटी कविता पोस्ट की थी तो उसे एक मिलियन से ऊपर लाइक्स मिले थे। बग़ल के अपार्टमेंट की खिड़की पर एक बुज़ुर्ग रिटायर्डनुमा अंकल बैठकर धूप सेंक रहे हैं। उनकी टीवी से न्यूज़ चीख रहा है, जिसमें शायद न उनकी दिलचस्पी है न टीवी के सामने बैठकर आलू छीलती उनकी पत्नी को। उस शोर से बचने की कोशिश में उनकी बेटी बालकनी पर बैठी हुई ऑफ़िस के किसी कॉन कॉल पर बात कर रही है। हम सब बालकनी के बाशिंदे हो गए हैं। बालकनी हमारी आउटिंग है, बालकनी हमारी शरणस्थली। बालकनी हमारी तन्हाई का साथी, बालकनी हमारी कविताओं का म्यूज़। 

बालकनी की ओर बढ़ती हूँ क्योंकि आज के अनर्गल प्रलाप का कोई हासिल नहीं, और ये तो इक्कीस दिनों के लॉकडाउन का पहला ही दिन है। 




मंगलवार, 24 मार्च 2020

कोरोना के दिनों में मॉर्निंग पेज भाग १

यहाँ डायरी लिखने, औऱ फिर लिखकर पब्लिश करने की आदत तो कब की जाती रही। न जाने कौन से वे दिन थे जब मैं अपने दिल की सारी खट्टी-मीठी, अच्छी-बुरी बातें यहाँ लिख दिया करती थी। न किसी के कॉमेन्ट की चिंता थी, न पढ़े जाने का डर। 

उन दिनों मैं एक माँ की तरह, एक औरत की तरह लिख रही थी। अब मैं एक राईटर की तरह लिखने लगी हूँ। उंगलियाँ कीबोर्ड पर उतरीं नहीं कि कंधे पर ये डर सवार हो जाता है कि लोग न जाने क्या कहेंगे। पाठकों की प्रतिक्रिया न जाने कैसी होगी। 

लोग गूगल भी तो करने लगे हैं मुझे। ख़ुद की पहचान का इस तरह पब्लिक हो जाना कि आपको आपसे ज़्यादा दूसरे समझने, और उस बहाने आपके बारे में राय बनाने का दावा करने लगें तो समझ लीजिए कि राइट टू प्राइवेसी के हनन का जिस ख़तरनाक रास्ते पर हम जाने-अनजाने दस-बारह साल चल पड़े थे, वे रास्ते हमें ही लौट-लौटकर डराने लगे हैं। 

लेकिन आज की डायरी के इस पन्ने के यहाँ लिखे जाने का मसला ये नहीं है। आज यहाँ आकर डायरी लिखने की वजह बस ये है कि मुझे मेरे डर सताने लगे हैं। ठीक वही डर जिनकी वजह से एक दशक पहले मैंने यहाँ आकर अपनी बातें, अपने डर, अपनी उम्मीदों को रिकॉर्ड करना शुरू किया था। 

मर जाने का डर सबसे बड़ा होता है। उससे भी बड़ा डर होता है डरते-डरते मर जाने का डर। और सबसे बड़ा डर होता है नाख़ुश, नाराज़ मर जाने का डर। 

मुझे यही डर फिर से सताने लगा है। और इसलिए यहाँ आकर इन पन्नों पर ये डर दर्ज कर रही हूँ, इस उम्मीद में कि मेरे बच्चे, या मेरा कोई दोस्त, कोई अज़ीज़, या फिर बची हुई नस्ल में बचा रह गया हिंदी का कोई पाठक, मेरे बाद इन पन्नों में कुछ ढूँढने चले तो उसे इस वक़्त की उथल-पुथल और नाख़ुश मर जाने के डर के अलावा थोड़ी सी उम्मीद, थोड़ी सी इंसानियत, थोड़ी सी एक माँ और थोड़ी सी एक औरत भी नज़र आए। 

सुबह के सात बज रहे हैं और डायनिंग टेबल के जिस कोने पर बैठी मैं अपनी डायरी लिख रही हूँ, वहाँ तक सूरज की किरणें सीधी पहुंचती हैं। मेरी उनींदी आँखें अपने आप चुंधियाने सी लगी हैं। कई दिन हुए, मुझे सुबह की ऐसी धूप में बैठने की आदत नहीं रही। लेकिन अब विटामिन डी को इम्युनिटी के लिए ज़रूरी बताया जा रहा है, और इम्युनिटी न रही तो कोरोना कहाँ से कब धर ले, इसका ठीक-ठीक अंदाज़ा पूरी मेडिकल दुनिया को नहीं, इसलिए चुपचाप धूप में आ बैठना ही अच्छा है। 

बाहर कर्फ्यू लगा है। अंदर बेइंतहा डर क़ायम है। बेटी खाने के लिए योगर्ट माँगती है तो मैं उसे डाँट देती हूँ। जो है उसी में काम चलाओ। न जाने ये कल मिले न मिले। ये सच है कि हमारी रसोई में तो फिर भी दूध, सब्ज़ी, दाल, चावल, आटा बाक़ी है अभी। ये भी सच है कि अगर कुछ और हफ़्ते घर में बैठना पड़ा तो दाल-चावल के लाले नहीं पडेंगे। हम ख़ुशकिस्मत हैं, और अरियाना हफ़िंग्टन, ओपरा विनफ्रे और दीपक चोपड़ा जैसे इमोशन और स्पिरिचुअल गुरु हमें इसी ख़ुशकिस्मती पर बीस सेकेंड तक हाथ धोते हुए शुक्रगुज़ार होने की सलाह देते रहते हैं। 

लेकिन बाक़ी की दुनिया का क्या? जिनके डब्बे आने बंद हो गए उनका क्या? जिनकी रोज़ी पर अनिश्चितकाल के ताले पड़ गए,  उनका क्या? जिनकी दिहाड़ी से उनका घर चलता था, उनका क्या? जिन्होंने डर के बारे हज़ारों हज़ार की तादाद में अपने गाँव के लिए ट्रेनें लीं - उन गाँवों के लिए, जहाँ न अब खेती होती है, न मज़दूरी के अवसर मिलते हैं - उनका क्या? 

कहा जा रहा है कि कुदरत ने हमें स्लोडाउन करने के लिए ये रास्ता अपनाया। क्या कुदरत ये नहीं जानती कि सज़ा से भारी सज़ा की मियाद और सज़ा के नतीजे होते हैं? 

माँ ये भी कहती रहती है कि जिस अपार, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी ईश्वर ने हमें ये आपदा दी है, वही हमें हिम्मत भी देगा, और माफ़ी भी। मुझे अब उस सर्वशक्तिमान पर शंका होने लगी है। 

फिर कोई कहता है, सरकार की ज़िम्मेदारी है। प्रशासन की ज़िम्मेदारी है। इसलिए कर्फ्यू है, लॉकडाउन है। सरकार पर तो ख़ैर अभी ही नहीं, पहले भी विरले ही भरोसा था। 

बस एक ही भरोसा है जो क़ायम है। इंसानियत पर। एक-दूसरे पर। अपने आस-पास के लोगों पर। अपने परिवार पर। अपने आप पर। 

अपनी तमाम नाख़ुशियों और नाराज़गी, और ऐसे ही मर जाने के डर के बाद भी हम अपने सबक सीखकर अपने जीने के तौर-तरीके बदल देंगे, इस बात का भरोसा है। जब तक ज़िंदा हैं, हर रोज़ उठकर विटामिन डी लेते हुए टू-डू लिस्ट और योजनाओं की डायरी की चिंदियाँ उड़ाते हुए ख़ुद को भविष्य के बोझ से आज़ाद कर देंगे, इस बात का भरोसा है।