रविवार, 2 अप्रैल 2017

कभी भूला, कभी याद किया

'बॉस बेबी' को रॉटेन टोमैटोज़ पर बमुश्किल पचास फ़ीसदी वोट्स मिले हैं। आईएमडीबी पर तो दस में छह। वैसे भी ब्रीफ़केस लिए नवजात की ज़ुबान से मैनेजमेंट ज्ञान हम कितना पचा पाएँगे?

गूगल पर 'बॉस बेबी' के ख़िलाफ़ हासिल की गई मेरी कोई दलील काम नहीं आती, और हम शाम का शो देखने को निकल पड़ते हैं। सच कहूँ तो ये रिश्वत है। मैं उन्हें उनकी मर्ज़ी से दो फ़िल्में दिखा दूँ तो बच्चे मुझे मेरी मर्ज़ी की दो फ़िल्में देखने के लिए जाने देंगे।

ऐसे ही ट्रांज़ैक्शन्स और बार्टर पर इन दिनों मेरी ज़िन्दगी टिकी हुई है। मैं डेढ़ घंटे का वक्त फ़िजियोथेरेपिस्ट को देती हूँ तो मुझे तीन घंटे की पेनलेस दिनचर्या मिल पाती है। दिन में पंद्रह-पंद्रह के सेट वाले चार आइसोमेट्रिक एक्सरसाइज़ करती हूँ तब जाकर रात में बिना तकलीफ़ करवट बदल पाती हूँ।

ख़ैर, इस बार भी बार्टर में सही सौदा नहीं मिला। 'बॉस बेबी' बहुत ख़राब फ़िल्म है। बच्चे मुख्य किरदार हैं, और बच्चों की सोच, हकीक़त और यहाँ तक कि उनकी कॉमेडी से कितनी दूर है इस फ़िल्म की कहानी! यकीन नहीं होता कि ये फ़िल्म उसी डायरेक्टर की फ़िल्म है जिसने 'मैडागास्कर' सीरीज़ की फ़िल्में बनाई, 'पुस इन द बूट्स' बनाई।

बाकी के सौदों की तरह इस सौदे की विफलता का दोष भी मैं अपनी उम्र पर मढ़ देती हूँ।

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मैंने 'फिलौरी' नहीं देखी। मैं न 'सेल्समैन' देख पाई और न 'रंगून' देखने का मौक़ा मिला।

देखने को तो मैं कुछ भी नहीं देखा। कुछ भी नहीं पढ़ पाई। बहुत सारी फ़िल्में छूट गईं और बहुत सारी किताबें सिरहाने वैसे ही अनछुई पड़ी हैं।

फ़िल्म देखने के बाद मैं एक कॉफ़ी शॉप में ले आई हूँ बच्चों को। मैं एक खाली घर में वापस नहीं जाना चाहती। कहीं कुछ है जो होकर भी नहीं है।

अपने लिए मसाला चाय-टोस्ट और बच्चों के लिए हॉट चॉकलेट और कुकीज़ का ऑर्डर देने के बाद मैं वापस फ़ोन पर लग गई हूँ। बच्चों के पास कुछ और करने को नहीं, इसलिए दोनों मेन्यू कार्ड पढ़ने लगे हैं। हम तीनों आपस में कुछ नहीं बोल रहे।

इन दिनों लिखने-पढ़ने में मेरा मन नहीं लगता।मैं कहीं आना-जाना नहीं चाहती। मुझे याद नहीं आ रहा कि मैं आख़िरी बार सेक्टर अठारह के इस मार्केट में आख़िरी बार कब आई थी। इसलिए तो मुझे न बीच की सड़कों के वन-वे हो जाने की ख़बर थी न नए डाइवर्ज़न का पता था।

फ़ोन पर भी देखने को कुछ नहीं है। तीन ईमेल हैं, जिनके मैं मोनोसिलेबल्स में जवाब दे देती हूँ।

और कुछ करने को नहीं इसलिए मैं एक नाम गूगल करती हूँ। भानुमती के पिटारे की तरह इंटरनेट भी साँप, बिच्छू, कीड़े-मकोड़ों सी ज़हरीली बातें उगलने लगता है। मैं घबराकर फ़ोन बंद कर देती हूँ।

इंटरनेट के संस्कारों में सिर्फ़ सियापा और अधूरी, एकतरफ़ा जानकारियाँ ही है क्या? जिस इंटरनेट और सोशल मीडिया की बनाई हुई हूँ मैं, उसी से ऐसा वैराग्य क्यों? मैं 'सर्फ़र' से 'सफ़रर' कब बन गई?

मेरा ही नहीं, आदित का भी ध्यान कहीं और है। मेरे देखते-देखते, मेरे सामने उसके हाथ से चॉकलेट मिल्क का पूरा कप छलक उठता है और गर्म लिक्विड से उसकी टी-शर्ट और जींस सराबोर है। वो घबराकर मुझे देखता है।

मैं बिल्कुल रिएक्ट नहीं करती। कुछ नहीं बोलती। सिर्फ़ उसको देखती रहती हूँ।

आदित भी बिल्कुल रिएक्ट नहीं करता। हाथ में कप लिए मुझे देखता रह जाता है।

हमारे बगल वाली मेज़ से एक लड़का उछलकर आदित तक आ गया है। उसके हाथ में बहुत सारे पेपर नैपकिन्स हैं। अचानक हमारे आस-पास बहुत सारी हलचल है। हमारी टेबल वेट कर रहा लड़का पोंछा लिए लपक आता है। दो लड़के आदित के कपड़े पोंछते हुए उससे पूछ रहे हैं कि कहीं उसके हाथ-पैर जले तो नहीं?

अपने आस-पास की इतनी हलचल से शर्मिंदा मैं और आदित बाथरूम का रास्ता ढूँढते हैं।

आदित को दूध गिराने की आदत है। बचपन से। मैंने इसी ब्लॉग पर लिखा भी है उसके बारे में कभी।लेकिन उसे कुछ कहते नहीं बनता। मेरी बेख़्याली जितना मुझे नुकसान पहुँचाती है, उससे कहीं ज़्यादा तकलीफ़ बच्चों को होती है।

हम फिर भी फ़ोन के स्क्रीन से नज़रें नहीं हटा पाते।

***

मैं कई हफ़्तों के बाद आज ड्राईविंग सीट पर हूँ। बाहर का शहर संडे के कोलाहल में डूबा हुआ है। सामने मल्टीस्टोरीड पार्किंग के हर फ्लोर पर कंस्ट्रक्शन लाईट्स चमचमा रही हैं। ये शहर मेरे देखते-देखते बदल गया। जिस नोएडा को हम गाँव समझा करते थे, जिस अट्टा में पहली बार एक मल्टीप्लेक्स खुलने का जश्न हमने 'हैदराबाद ब्लूज़' जैसी एक फ़िल्म देखकर मनाया था, उस नोएडा की आब-ओ-हवा, ज़मीन-ओ-आसमान पर अब नाज़ेबा समृद्धि के प्रतीक-चिन्ह काबिज़ हैं।

हम बहुत देर तक सेक्टर अठारह से निकलने की कोशिश में ट्रैफ़िक में फँसे रह जाते हैं।

एफ़एम पर अनिरुद्ध एलएलबी का इंटरव्यू राहुल बोस का साथ चल रहा है, जो 'पूर्णा' की फिल्मिंग के बारे में बता रहे हैं। मेरा मन अफ़सोस से भर जाता है। काश मैंने 'बॉस बेबी' जैसी फ़िल्म के बदले 'पूर्णा' देखी होती। ड्रीमवर्क्स एनिमेशन को हम जैसे दर्शकों के हजार रुपए से बहुत फ़र्क नहीं पड़ेगा, एक इन्डिपेन्डेंट हिंदुस्तानी सिनेमा को ज़रूर पड़ेगा।

राहुल बोस बता रहे हैं कि कैसे सिक्किम में पंद्रह हजार फ़ुट की ऊँचाई पर शूटिंग के दौरान जब सड़कें भी बर्फ़ हो गई थीं तो जान की बाज़ी लगाकर क्रू ने फ़िल्म की शूटिंग की थी। मैं उसी वक़्त राहुल बोस को गले लगाना चाहती हूँ। जिन दिनों राहुल बोस ने अपनी पहली निर्देशित फ़िल्म (एवरीवन सेज़ आई एम फ़ाइन) रिलीज़ की थी उन दिनों मैं मुंबई में रह रही थी। मुझे याद है कि मैंने तकरीबन सोलह साल पहले वो फ़िल्म अंधेरी के फ़ेम ऐडलैब्स में जाकर देखी थी। राहेजा टावर के बगल में। फ़ेम ऐडलैब्स अब पीवीआर है शायद।

हम अभी भी जाम में फँसे हुए हैं। बच्चे पीछे की सीट पर खुसफुसाते हुए बात कर रहे हैं कि क्या मम्मा उन्हें ये फ़िल्म दिखाने ले जाएगी? मैं अपने जवाब से कोई दख़लअंदाज़ी नहीं करती। हम चींटियों की रफ़्तार से आगे बढ़ रहे हैं। अनिरुद्ध एलएलबी ने एक सॉन्ग ब्रेक ले लिया है।

ऊँचे नीचे रास्ते और मंज़िल तेरी दूर... गाना बजने लगता है और इस धीमी ट्रैफ़िक में भी मेरी याददाश्त सुपरसॉनिक स्पीड से कई साल पहले पहुँच जाती है।

***

मैंने दसवीं तक की पढ़ाई उर्सुलाइन कॉन्वेंट में की। एक हिंदी मीडियम स्कूल में, जो कहने को एक कॉन्वेंट था। दरअसल था तो कॉन्वेंट ही। मिशनरी स्कूल था हमारा, लेकिन गौतम बुद्ध के मध्यम मार्ग पर बख़ूबी चलते हुए सरकारी और मिशनरी - दोनों किस्म के वैल्यू सिस्टम को बड़े कारगर तरीके से ढोया करता था। इसलिए हम स्कूल में मेला (जिसे 'फ़ेट' कहते हैं) लगाकर अपने ऑडिटोरियम के लिए चंदा भी जमा किया करते थे और तीन सौ सताईस रुपए की सालाना स्कूल फ़ीस का मज़ा भी लिया करते थे। इसलिए हम थीं तो बिहार बोर्ड की लायक छात्राएँ, लेकिन मिसेज़ नाम्बियार और सिस्टर ग्लोरिया जैसी अंग्रेज़ी टीचर्स ने ब्रॉन्टे सिस्टर्स और जेन ऑस्टीन के लिए उतनी ही मुहब्बत पैदा की जितनी शिद्दत से चिड़ीमार सर ने (उनका असली नाम अब याद नहीं) सुभाषितानी के श्लोक रटवाए।

बहरहाल, उर्सुलाइन कॉन्वेंट की एक और मज़ेदार बात थी। हमें गाहे-बगाहे हमारे ऑडिटोरियम में पर्दा लगाकर उसपर हिंदी फ़िल्में दिखाई जाती थीं। 'रजनीगंधा', 'छोटी-सी बात', 'मुकद्दर का सिकंदर', 'नमक हराम', 'आनंद'... ये वो फ़िल्में हैं जो मुझे स्कूल में पर्दे पर देखना याद है। हमसे शायद दो या डेढ़ रुपए लिए जाते थे फ़िल्म दिखाने के, और अक्सर शनिवार को हाफ़ डे के स्कूल के बाद फ़िल्म दिखाया जाता था।

'खुद्दार' भी वो फ़िल्म है जो स्कूल में देखना याद है।

ऊँचे नीचे रास्ते 
और मंज़िल तेरी दूर 
राह में राही रुक न जाना 
होकर के मजबूर 

किशोर कुमार गा रहे हैं और अपने सेक्टर के मोड़ तक पहुँचने से पहले मैं स्कूल के ऑडिटोरियम में पहुँच चुकी हूँ।

एक और 'खुद्दार' वीसीआर पर देखना याद है। गोविंदा और करिश्मा कपूर वाली। सेक्सी सेक्सी सेक्सी मुझे लोग बोलें... इसी फ़िल्म का तो गाना था वो! 'सेक्सी' टर्म इन दिनों नौजवान फ़ेमिनिस्टों की बहस में एक नया आयाम जोड़ रहा है।

ये हमारी ज़िन्दगी 
एक लंबा सफर ही तो है 
चलते हैं जिसपे हम 
अनजानी डगर ही तो है 
देख संभलना, बचके निकलना 
जो नहीं चलते देख के आगे  
ठोकर से हैं चूर

हम कॉलोनी के गेट में घुस चुके हैं। मेरे मल्टीट्रैक दिमाग़ का एक ट्रैक शब्द-दर-शब्द साथ-साथ गुनगुना रहा है। मैं हैरान हूँ कि मुझे ये गाना अभी तक याद है।

फिर ये भी याद आया है कि मैं फ़िल्म देखने के बाद घर में बिना बताए अपनी एक सहेली रिंकू पटोदिया के घर चली गई थी। रिंकू डिप्टी पाड़ा में रहती थी। उसकी माँ लॉयर थी, और वो पहली ऐसी लड़की थी जिसकी माँ के बारे में मैंने सुना था कि वे काम पर जाया करती हैं। मुझे ये भी याद आया कि रिंकू पटोदिया ने छठी क्लास में अपना नाम बदलकर नेहा पटोदिया कर लिया था। मैं रिंकू की अच्छी दोस्त बन गई थी, लेकिन नेहा की दोस्त कभी नहीं बन पाई। पता नहीं क्यों।

यानी 'खुद्दार' मैंने छठी क्लास से पहले देखी होगी।

अब तो मेरे बच्चे छठी क्लास में हैं।

हमने गाड़ी पार्क कर दी है, और मैं फिर भी बैठकर पूरा गाना ख़त्म होने का इंतज़ार कर रही हूँ। या शायद इस बात का इंतज़ार कर रही हूँ कि राहुल बोस किस हीरोइन पर बायोपिक बनाना चाहते हैं, जिसके बारे में अनिरुद्ध ने सॉन्ग ब्रेक में जाने से पहले टीज़ किया था।

बच्चे गाड़ी से उतर चुके हैं, इसलिए मुझे भी मजबूरी में इंजन ऑफ़ करना पड़ता है। मुझे मालूम नहीं चल पाया कि राहुल किसी हीरोइन की कहानी पर अगली फ़िल्म बनाने जा रहे हैं।

मैं सीढ़ियाँ चढ़ रही हूँ। बच्चे गीत गुनगुना रहे हैं। ऊँचे नीचे रास्ते और मंज़िल तेरी दूर...

ये हीरोइनप्रधान फ़िल्मों का दौर है। ये 'अनारकली', 'पूर्णा', 'शबाना', 'फिलौरी', 'नूर', 'मातृ', 'मॉम', 'बेग़म जान' का दौर है।

मैं घर का ताला खोलते हुए सोच रही हूँ कि मेरे दोस्त अरिंदम सिल की नई फ़िल्म भी तो 'दुर्गा सहाय' है, और मैंने भी बनाया तो क्या - 'द गुड गर्ल शो'!

'बॉस बेबी' देखकर वक़्त बर्बाद करने का अफ़सोस थोड़ा और बढ़ गया है।

फिर याद आता है कि कभी कुछ ज़ाया नहीं होता। जब मेरे लिए अमिताभ बच्चन की 'ख़ुद्दार' देखना ज़ाया नहीं हुआ तो आज की शाम भी क्यों ज़ाया मान ली जाए?

मुझे मालूम है कि 'खुद्दार' का गीत मजरूह सुल्तानपुरी ने लिखा और म्यूज़िक आर डी बर्मन ने दिया।मुझे ये भी याद है कि अमिताभ बच्चन वाली 'खुद्दार' कादर ख़ान ने लिखी और गोविंदा वाली इक़बाल दुर्रानी ने। मुझे ये भी याद है कि अमिताभ बच्चन वाली 'खुद्दार' में एक और गाना था - अंग्रेज़ी में कहते हैं कि आई लव यू... और मुझे ये भी याद है कि गोविंदा वाली 'खुद्दार' का मशहूर गाना तुमसा कोई प्यारा कोई मासूम नहीं है था।

सिनेमा कैसे-कैसे हमसे रिश्ता बनाता है न? यही अजीब-सा रिश्ता फ़िल्मकारों के लिए पहला और आख़िरी ग्रैटिफ़िकेशन होता है। सिनेमा जीते-भोगते-समझते-सराहते-दुत्कारते हुए हम यादें गढ़ रहे होते हैं। ऑल काइन्ड्स ऑफ़ मेमोरिज़, जिस पर लिखते हुए नोरा एफ़्रॉन बड़ी सहजता से लिख देती हैं - आई रिमेम्बर नथिंग - मुझे कुछ याद नहीं!

और ये याद भी बड़ी ग़ज़ब चीज़ है। कुछ भी बर्बाद जाने नहीं देती। बच्चों के ग्यारहवें और मेरे अड़तीसवें का अफ़सोस भी अचानक पिघल गया है। :)