रविवार, 3 अक्टूबर 2010

बातों में कविता, कविता में बातें

1. "सोफे पर दूध किस बच्चे ने गिराया है?"

"आद्या ने मम्मा।" आदित ने जवाब देने में कोई देरी नहीं लगाई।

"नहीं मम्मा, आदित।"

"जो सच बोलेगा, मेरी ओर से चॉकलेट मिलेगा उसे," ये कहकर मैं बाहर निकल आती हूं।

दस मिनट बाद आदित मेरे पास आता है। शायद सोचता रहा होगा।

"दूध मैंने गिराया होगा।"

अभी मैंने अपना भाषण शुरू ही किया है। आदित थोड़ी देर मेरा बड़बड़ाना सुनता है और फिर बड़ी मासूमियत से मुझे याद दिलाता है, "लेकिन आपने तो सच बोलने पर चॉकलेट देने को कहा था!"


2. आद्या बिस्तर पर बैठकर मेरी व्यस्तता देखती है। मैं अपनी अलमारी साफ कर रही हूं। अलमारी में घुसती हूं, एक ढ़ेर कपड़े लिए बाहर निलकती हूं। कई तरह के रंग, प्रिंट और बनावट पूरे बिस्तर पर बिखरे पड़े हैं।

"ये सब किसका है मम्मा?"

"मेरा आद्या।"

"आपको कौन बताता है कि सुबह कौन-सी ड्रेस पहननी है?"

"मैं खुद तय करती हूं बेटा।"

"फिर मुझे खुद क्यों नहीं तय करने देती मम्मा?"

आद्या के इस सवाल से मैं हैरान हूं!


3. पूरे कमरे में काग़ज़ बिखरे पड़े हैं। दोनों बड़ी तन्मया से रंगने में जुटे हैं। कागज़ को कम, फर्श और दीवारों को ज़्यादा। आदित ने भी दीवार का एक कोना कई रंगों में रंगा है।

"ये क्या बन रहा है आदित?" मैं पूछती हूं।

"सारी दुनिया" उसका जवाब बस इतना-सा है।


4. दोनों को बिठाकर उनकी दादी के साथ मैं उन्हें मंदिर ले जा रही हूं। आदित सामने वाली सीट पर बैठा है, मेरे बगल में। मैं स्टीयरिंग व्हील पर हूं।

आदित की हिदायत - "मम्मा, आपकी गाड़ी इतना हिल क्यों रही है? गलत गियर में है क्या? और आप इतना हॉर्न क्यों बजाती हैं?"

आद्या की हिदायत - "मम्मा, गाड़ी में बैठते हैं तो एसी ऑन कर देते हैं। और म्यूज़िक भी!"


5. "पीछे हटो आदित, वरना मैं भालू को बुला दूंगी। मेरी चीज़ें मत छूओ।"

"मैं भी बघीरा को बुला दूंगा आद्या।"

"तो क्या हम दोनों मोगली हैं?"


और जब मैं इन यादों को समेटकर लिखने की कोशिश कर रही हूं, दोनों ने अपनी-अपनी कुर्सियां खींच ली हैं और खिड़की पर पहुंच गए हैं। आधे मिनट के भीतर दोनों खिड़की पर लटके हुए हैं, बंदरों की तरह। फिर सड़क पर देख-देखकर दोनों बोर हो जाते हैं और एक नया खेल शुरू हो जाता है। दोनों ने अपने रंगों के डिब्बे निकाल लिए हैं और वापस खिड़की पर जा पहुंचे हैं, एक नई प्रतियोगिता के लिए। देखें खिड़की से बाहर सड़क पर सबसे दूर किसके फेंके हुए रंग जाते हैं। "वो पीला मेरा आद्या", "लाल तो तुमसे दूर गया आदित", "अब देखो, हरा कहां गया..."। इनका खेल जारी रहता है, मेरे टोकने, मना करने के बावजूद। मेरा कीबोर्ड पर टाईप करना जारी रहता है, इनके खेल के बावजूद। ये सोचने के बीच कि रंगों को चुनकर लाऊंगी और उन्हें धोना भी पड़ेगा, मेरा लिखना जारी रहता है। और इस बीच ये कविता लिखी जाती है...


पेंटिंग

जो रंग बिखरे हैं दीवारों पर
जो तुमने फर्श को घर के कैनवस बनाया है
लाल गुलाबी-सा जो बिखरा हुआ है हर तरफ
नीला पीला, आड़ा-तिरछा सजाया है

कोने-कोने में बिखरे ये रंग दरअसल

मेरी तकदीर की सुनहरी रेखाएं हैं
जो घर की दीवारों, दरवाज़ों,
खिड़कियों को रौशन बनाए हैं।


5 टिप्‍पणियां:

गिरिजेश राव, Girijesh Rao ने कहा…

अत्युत्तम।
बचपन पर एक माँ रचे - सरल, प्रवाही, प्रभावी और हल्के बिम्बों के साथ तो कौन फैन नहीं हो जाएगा?

संजय @ मो सम कौन... ने कहा…

कविता, गज़ल, गीत वगैरह रच पाना क्योंकि हमारे बूते से बिल्कुल बाहर की बात है, जो ऐसा करते हैं उनसे बहुत रश्क होता है। आप बहुत अच्छा लिखती हैं।
आद्या और आदित बड़े होने पर जब जानेंगे कि एक पूरा महीना वो अपनी मां की कविताओं, लेखों का सब्जैक्ट रहे हैं, तो यकीनन बहुत अच्छा लगेगा उन्हें।

अजय कुमार ने कहा…

बच्चों की बातें वाकई मजेदार होती हैं । आपने उसे सुंदर पोस्ट बना दिया ।

explorers ने कहा…

वात्सल्य रस - सूर गा कर अमर हो गए ,और जिसे रोजमर्रा में यह सुख मिला रहा हो , साथ में ब्लॉग लिखने की सुविधा भी !

संजय भास्‍कर ने कहा…

मुझे आपका ब्लोग बहुत अच्छा लगा ! आप बहुत ही सुन्दर लिखते है ! मेरे ब्लोग मे आपका स्वागत है !