सोमवार, 31 दिसंबर 2012

साल की आख़िरी चिट्ठी, बच्चों के नाम

मेरे प्यारे बच्चों,

कल पहली बार तुम दोनों को साथ मिलकर आपस में जोड़-जोड़कर अख़बार की सुर्ख़ियां पढ़ते हुए देखा। मुझे खुश होना चाहिए था, लेकिन कोई गहरी उदासी अंदर तक उतर गई थी। मैं तुम दोनों के हाथों से अख़बार ले लेना चाहती थी क्योंकि मैं नहीं चाहती कि तुम एक-दूसरे को ज़ोर-ज़ोर से ये पढ़कर सुनाओ - 'कड़ी सुरक्षा में पीड़िता का अंतिम संस्कार'।

जिसका डर था, वही हुआ। मम्मा पीड़िता मतलब क्या? मम्मा अंतिम संस्कार क्या होता है? मम्मा, इतने सारे लोग खड़े होकर क्या कर रहे हैं? मम्मा आर-ए-पी-ई यानि रेप? इसका मतलब क्या?

ऐसे मुश्किल सवाल तुम दोनों को परिकथाओं और पंचतंत्र में उलझाए रखने की मेरी दिनभर की जद्दोजेहद पर पानी फेर दिया करते हैं। मैं तुम दोनों से कुछ छुपाना नहीं चाहती, लेकिन ये भी कैसे बताऊं कि जिस भरोसे की नींव पर तुम्हारे इर्द-गिर्द प्यार और इंसानियत की जो दुनिया खड़ी करने की कोशिश करती रहती हूं, वो सब दरअसल छलावा है।

तो सुनो बच्चों, इस साल की आख़िरी चिट्ठी में दुनिया के वो घिनौने और मुंह जला देनेवाले सच सुनो जिनसे एक-ना-एक दिन तुम्हारा पाला पड़ना ही था। मैं कबतक, आख़िर कबतक तुमको अपने पंखों में छुपाए सोचती रहूंगी कि आज नहीं, कल कहूंगी कि वो सामने दिखाई देनेवाले अंधेरे डरावाने जंगल में ही तुम्हें उड़ान भरनी होगी, वहीं अपने हिस्से का आसमान भी तलाश करना होगा। मैं कबतक नहीं बताऊंगी कि पीड़िता कौन और अंतिम संस्कार क्या?

आदित, पहले तुम सुनो बेटा।

हनी सिंह के गानों को हर एफएम, हर पार्टी में सुनोगे तुम। फिल्मी गाने तुम्हें सिखाएंगे कि लड़कियां चमेली और जलेबी होती हैं। कार्टून चैनलों पर दिखाई देनेवाले पॉपिन्स के विज्ञापन में तुमसे ज़रा-सा ही बड़ा बच्चा 'लेने' और बच्ची घूमकर 'देने' की बात करेगी। फिर और बड़े होगे तो तुम्हारे साथ के दोस्त लड़कियों के जोक्स बनाएंगे। मुमकिन है कि हर गांव, हर शहर, हर कस्बे की दीवारों पर तुम्हें मर्दानगी की चमत्कारी दवाओं के विज्ञापन नज़र आएं। मर्दानगी की जो परिभाषा मीडिया या बाहर की दुनिया तुम्हारे सामने परोसेगी, उसका बिल्कुल यकीन मत करना। तुम देखोगे कि हर समाज में अपनी शक्ति और पौरुष के प्रदर्शन का रास्ता औरत के जिस्म से होकर जाता है।  

आओ एक वो बात बताती हूं तुमको जो तुम्हें बाद में तुम्हारी प्रेयसी या बीवी भी बताएगी शायद। लड़की या औरत के जिस्म को रौंदकर, ज़ख़्मी कर मर्दानगी कभी साबित नहीं होती, हैवानियत सिद्ध होती है। जिस्म को ज़ख्मी कर भले किसी शरीर पर काबिज हुआ जा सकता है, लेकिन रूह सिर्फ एक भाषा समझती है - प्यार की। मैं तुम्हें यही प्यार और सम्मान की भाषा सिखाना चाहती हूं, आदित। इंसानियत के पक्ष में खड़ा होना सिखाना चाहती हूं। हाथ जोड़कर अपनी परवरिश का वास्ता देते हुए कहना चाहती हूं कि कभी किसी ज़ख़्मी इंसान को सड़क पर पड़े हुए देखो तो अपनी गाड़ी से उतरने की ज़ेहमत उठाओ। मैं चाहती हूं कि तुम ख़ुद से ये वायदा करो कि लड़की को भोग की चीज़ नहीं समझोगे। उसे वही इज़्जत दोगे, जिस इज्ज़त की तुम्हें अपेक्षा होगी। उससे वैसे ही पेश आओगे जिस बर्ताव की तुम उम्मीद रखते हो।आदित, तुम अपने आस-पास की पांच लड़कियों और औरतों को मान दोगे तो अपने आस-पास जीने लायक माहौल तैयार कर सकोगे।

रही बात पीड़िता की, तो सुनो - एक लड़की थी जो अपने दोस्त के साथ फिल्म देखकर निकली थी, वैसे ही जैसे तुम्हारी मम्मा कई सालों से करती रही है। फिर उसने एक बस स्टैंड से अपने घर तक जाने के लिए बस ली, अपने उसी दोस्त के साथ, वैसे ही जैसे तुम्हारी मम्मा, तुम्हारी मौसी अपने दोस्तों के साथ कई सालों से करती रही हैं। उस बस में सवार कुछ लोगों ने लड़की के जिस्म को इस तरह छलनी किया कि शायद काग़ज़ की लुगदी को भी पिटते हुए थोड़ी-सी रहम दिखाई जाती होगी। मैं और कोई डिटेल नहीं दे सकती आदित, मुझमें हिम्मत नहीं है सोचने की। लेकिन ये बात ज़रूर बताना चाहती हूं तुमको कि जितने बड़े अपराधी और हैवान लड़की का बलात्कार करने वाले थे, उससे कम बड़े अपराधी वो लोग नहीं जो उस सड़क से गुज़रे होंगे लेकिन सड़क पर ज़ख़मी पड़े दो लोगों को देखकर रुकने की ज़रूरत नहीं समझी होगी।

आदित, हिम्मत सलमान खान और अक्षय कुमार की तरह एक्शन और स्टंट सीन्स करने में नहीं होती। हिम्मत अपने आस-पास हर रोज़, हर लम्हे लिए जाने वाले 'एक्शन' में होती है, जिसमें दूसरों की मदद करना, दूसरों का सम्मान करना और सही-गलत की पहचान करना होता है।

आद्या, तुम्हारे लिए ज़िन्दगी तो बहुत मुश्किल होगी बेटा।

लड़की होकर पैदा होना किसी दुनिया में, किसी देशकाल में, किसी तरह के वातावरण में आसान नहीं रहा। लेकिन अगर देश और समाज बदलाव की किसी गहरी और तेज़ प्रक्रिया से होकर गुज़र रहा होता है तो उसका सबसे बड़ा ख़ामियाज़ा लड़कियों को ही भुगतना पड़ता है। तुम जितनी तेज़ रफ़्तार से अपनी आज़ादी की ओर बढ़ोगी, अपने हक़ में आवाज़ उठाओगी उतनी ही तेज़ी से तुम्हें अपमानित किए जाने के रास्ते ईजाद किए जाएंगे। इनमें से सबसे आसान तरीका तुम्हारे जिस्म पर, तुम्हारी अस्मिता पर हमला करना होता है। कुछ ऐसा कर दो कि तुम्हारे आस-पास भी कोई तुम्हारी तरह हो पाने की हिम्मत ना कर सके।

फिर भी आद्या, अपना भरोसा बचाए रखना। हिम्मत रखना क्योंकि तुम्हारे घर में बैठ जाने से, बस में नहीं बैठने से कोई समस्या हल नहीं होगी। हमला होना ही होगा तो घर में भी तुम, मेरी बेटी, महफ़ूज़ हो, कहना मुश्किल है।

आद्या, फिर भी झूठा ही सही, यकीन रखना कि तुम्हारी गहरी सांसों की जुंबिश समझनेवाला कोई होगा कि दुनिया में हर दस दरिंदे पर एक इंसान है, मैं भी ऐसी ही किसी बात पर पुख़्ता यकीन करना चाहती हूं। यकीन रखना कि तुम्हें गले लगाने की ख़्वाहिश रखनेवाला हर वक्त नज़र से तुम्हारे शरीर को तौल रहा हो, ये ज़रूरी नहीं। यकीन रखना क्योंकि मेरे भीतर भी ये यकीन किसी ना किसी तरह फिर भी बाकी है, मेरी बेटी। दुनिया जो टिकी हुई है, उसकी कोई ना कोई वजह तो होगी ही, नहीं?

इसके साथ ही, आद्या, नज़र से जिस्म को तौलनेवालों की आंखें निकाल लेने का हुनर तुम्हें सिखा पाऊंगी, अभी इसका भरोसा नहीं है। लेकिन उनकी आंखों में वापस आंखें डालकर घूर देने का तरीका तो तुम्हें हम लोग सीखा ही देंगे।

वो 'पीड़िता' मर गई आद्या, इसलिए अंतिम संस्कार की ख़बर पढ़ रहे थे तुम दोनों। और अंतिम संस्कार का मतलब संस्कारों का वो अंतिम जनाज़ा है जिनपर हम ताज़िन्दगी अमल तो कर नहीं पाते, मरने के बाद मरनेवालों के लिए अंतिम संस्कार के नाम पर कुछ ढकोसले ज़रूर करते हैं। इस मामले में, बेटा, ये ढकोसला राजनीतिक और सार्वजनिक तौर पर हुआ है जिससे परिवारवालों का कोई वास्ता नहीं रहा।


आद्या और आदित, तुम्हारे लिए एक महफ़ूज़ दुनिया का दुआ मांगूंगी, लेकिन फिर भी इस दुनिया के सच को याद रखना कि वो महफ़ूज़ दुनिया भी एक छलावा ही होगी। ऐसी एक दुनिया में तुम जी सको और बिना रोज़-रोज़ तबाह हुए बच सको, इसके लिए वही तीन चीज़ें मांगूगी तुम्हारे लिए, जो अक्सर अपने लिए मांगा करती हूं - साहस (courage), समझदारी (wisdom) और संवेदना (compassion)। अगर कोई ईश्वर है कहीं तो वो तुम्हारी हिफ़ाज़त करे!
 

गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

कश्मीर डायरिज़ पार्ट 1

19 दिसंबर 2012

दुछत्ती तो होती नहीं हमारे घरों में इन दिनों। लॉफ्ट्स हुआ करते हैं, जिनकी सफ़ाई का मुहूर्त दो-एक साल में एक बार निकल आया करता है। ऐसे ही एक शुभ मुहूर्त में सफाई करने के क्रम में वो सूटकेस उतारा गया जिसे लेकर मैं पहली बार दिल्ली आई थी। एरिस्टोक्रैट का ये सूटकेस मेरा वो पक्का यार है जिसे भूल भी जाओ तो शिकायत नहीं करता, जिसे जितनी बार खटखटाओ उतनी बार मीठी-मीठी यादों की बेसुरी तान छेड़ता है। इस बेसुरी तान से अपिरष्कृत, बेरपवाह, बेसलीका लेकिन ईमानदार होने की खुशबू आती है। अपनी ही वो खुशूबू आती है जो डायरी में बंद सूखे फूलों की हो गई। इस बार सूटकेस से याद के कई रंग-बिरंगे टुकड़ों के साथ 2004 की डायरी निकली।

साल 2004 मेरी ज़िन्दगी का सबसे हसीन साल था। उस साल मैंने जीभर कर जिया, टूटकर प्यार किया और प्यार लुटाया, खूब घुमक्कड़ी की और रिश्तों के सबसे उम्दा रूप देखे। 2004 वो साल था कि जिस साल ज़िन्दगी पर मेरा यकीन पुख़्ता हो गया था। उसी साल मैं मनीष से मिली थी। उसी साल मैंने ख़ूब प्यार से एनडीटीवी की नौकरी की, पैसे कमाए, बचाए और उड़ाए। खुद से प्यार किया और अपने आस-पास हर शख्स से प्यार किया। उस साल की डायरी में अपना अक्स देखकर खुद पर गुमान हो आया है कि जितना मिला है, वाकई खूब है।

यहां उसी साल अगस्त में की गई कश्मीर यात्रा के पन्ने बांट रही हूं। मेरी रूममेट, बल्कि फ्लैटमेट मेरी जिगरी दोस्त सबा थी, जो कश्मीर से है। उसी के साथ मैं पहली बार उसके घर गई थी - कश्मीर, और कई यकीन टूटे थे, कई और मज़बूत हुए थे। यहां डायरी का अनएडिटेड वर्ज़न है, और ये भी मुमकिन है कि पिछले आठ सालों में मेरी कई धारणाएं उम्र और सोच के लिहाज़ से बदल गई हों। फिर भी एक सच नहीं बदला - फ़िरदौस हमीन अस्तो।
     
15 अगस्त 2004

सुबह के चार बजे सोने जा रही हूं। उठूंगी कब और एयरपोर्ट पहुंचूंगी कब! देखो सबा को! कैसे चैन से सो रही हैं, जैसे जन्नत पहुंच गई हैं। मैडम घर जा रही हैं। अपनी जान हथेली पर लिए दोज़ख़ (हाय, ये क्या सोच रही हूं!!!) तो मैं जा रही हूं।

तो ये कश्मीर है!

16 अगस्त 2004

 It is a different world altogether!!! ऐसा लग रहा है कि जैसे किसी दूसरे जहां में हूं। कल की भाग-दौड़, परेशानी, दफ़्तर, काम, थकान के चक्कर में ये फीलिंग सिंक इन ही नहीं कर पाई थी कि मैं वाकई कश्मीर जा रही हूं। आज एयरपोर्ट तक, बैग्स को चार बार आईडेन्टिफाई करने तक, प्लेन में बैठने तक, 'श्रीनगर में आपका स्वागत है' लिखा देखने तक अहसास नहीं हुआ कि एक सपना सच हो रहा है।

श्रीनगर की सड़कों पर ऐसा कुछ नहीं दिखा जो इतने सालों में टीवी पर देखती आ रही हूं। लाल चौक पर हुए धमाकों के वीओवीटी काटते वक्त दिखने वाले विज़ुअल्स जैसा कुछ भी नहीं। लेकिन सतह के नीचे कोई डिसॉर्डर ज़रूर है जो गलियों, सड़कों पर थोड़ी देर खड़े रहने से नज़र आने लगता है। किसी आम हिंदुस्तानी शहर के बनिस्बत सैनिक  ज़्यादा हैं, हर कुछ मीटर की दूरी पर सीआरपीएफ के जवानों के झुंड, बीएसएफ की इक्का-दुक्का गाड़ियां, टूटे-फूटे बंकर, कैंप्स... फिर भी श्रीनगर सामान्य दिखता है। दिखना चाहता है।

घर बहुत ख़ूबसूरत हैं यहां के। दोनों ओर टीन की गिरती छतें, आयताकार खिड़कियां और खिड़कियों से आती मद्धिम रौशनी और थोड़ी-सी गर्माहट जो हर घर में फर्श पर बिछे कालीनों से टकराकर आती हुई बाहर तक छलक आती है। सबा का घर जिस कॉलोनी में है, वो शायद यहां की कोई पॉश कॉलोनी होगी।

सबा का घर। श्रीनगर में मेरा घर। :-)
यहां सभी घर एक से दिखते हैं। बस घरों के रंग अलग-अलग हैं, लेकिन रंग और बनावट एक ही। वैसे घरों की खिड़की से झांकती दीवारों के रंग भी घर में रहनेवालों के बारे में काफी कुछ कह देते हैं। फिर भी, ऐसे घर मैंने नहीं देखे नहीं कभी। सबा के घर का बड़ा सा गेट एक ग़ज़ब के सुंदर लॉन में खुलता है। वेल-मेनिक्योर्ड लॉन का ख़ातिरदार लॉनमोअर एक कोने में खड़ा है। करीने से रखे गए गमलों में रंग-बिरंगे फूल हैं। नर्गिस भी शर्माती हुई दिखी है दूर से। मुझे फूलों के नाम तो नहीं मालूम, लेकिन जिनको पहचान सकी हूं उसमें गुलदाउदी, पैंजी, गुलाब और सूरजमुखीनुमा कोई फूल है।
लॉन में खिले हुए रंग


अंदर की ओर घुसते ही चप्पलों को रखने के लिए सीढ़ियों के नीचे शू रैक बनाया गया है। अंदर का दरवाज़ा सामने रसोई की ओर खुलता है, जिसके ठीक बगल में एक बेहद परिष्कृत ड्राईंग रूम है। पिस्ते रंग की कालीन पर चमकती हुई बादामी रंग की मेज़ अखरोट की लकड़ी की बनी है। कहीं कुछ भी आउट ऑफ प्लेस नहीं है - कोई रंग, कोई सामान, कोई फर्नीचर, कोई तस्वीर नहीं... सब तरतीब में, ऐसे जैसे हर चीज़ एक-दूसरे के लिए बने हों। ये और बात है कि ऐसी तरतीबी में मेरा दम घुटता है।

रसोई की दूसरी तरफ़ हमाम है, वो कमरा जो असली बैठक है। कश्मीर की ठंड में हमाम के बिना घरों में गुज़ारा नहीं हो सकता। सबा बताती है, इस कमरे में नीचे एक खोखली जगह है जहां लकड़ियां जलाकर रखी जाती हैं। उसी गर्मी से ये कमरा बर्फीले दिनों में भी गर्म रहता है। कश्मीर में बिजली ना के बराबर होती है, और ऐसे में रूम हीटरों का ख़्याल भी बेमानी है। हमाम से लगी हुई टंकी है - ख़ज़ान - गर्म पानी इसी तांबे की टंकी में जमा होता है। ये कमरा मेरे मन लायक है। फर्श पर बिछी ऊनी कालीन, कालीन पर इधर-उधर रखे हुए रंग-बिरंगे मसनद और यहां-वहां बिखरे ग्रेटर कश्मीर, कश्मीर टाईम्स और एक उर्दू अख़बार के पन्ने।


हमारे कमरे ऊपर की ओर हैं। ज़ीने पर आते ही फिर तरतीबी। सीढ़ियों पर रखे अखरोट की लड़की के छोटे-छोटे शोपीस, चिनार के पत्तों और कलम-गुलाब के डिज़ाईन वाले पेपरमैशे आईटम्स, दीवारों पर लगी कश्मीर की ब्लैक एंड व्हाईट तस्वीरें... सब परफेक्ट। सबसे पहला कमरा गेस्ट रूम है। मेरा सामान यहां रख दिया गया है। कमरे में दो सिंगल फुतॉन हैं और फ्रेंच विंडो पर पड़ी चिनार की पत्तियों की कढ़ाईवाले पर्दे हटाने के बाद सामने लॉन की ओर खुलती हैं। पीछे की खिड़की से दूर-दूर तक पसरे धान के खेत नज़र आते हैं, और उनसे थोड़ी दूर हटकर कुछ पहाड़ियां।
मेरे कमरे की खिड़की का नज़ारा


गेस्ट रूम मेज़नाईन फ्लोर पर है और वहां से निकलकर ऊपर की ओर तीन और कमरे हैं - पहला मास्टर बेडरूम और दो और कमरे - सबा और हफ्सा, दोनों बहनों के। सब सलीके से रखा हुआ है। कहीं कुछ अतिरिक्त नहीं, कुछ एक्स्ट्रा नहीं। अपनी रूममेट के क्लेलीनेस मेनियैक होने का राज़ अब समझ में आया है। शाम को मम्मी से फोन पर बात करते हुए मैंने हंसकर कहा है उनसे, "इस घर में इतनी सफाई है कि फर्श से अंगूर उठाकर खा सकते हैं आप!" मम्मी को शायद थोड़ी तसल्ली हुई है, लेकिन फिर भी खाना तो मुझे चीनी मिट्टी की उन्हीं प्लेटों में मिलेगा जिनमें नॉन-वेज सर्व होता है। मम्मी की इस बात का मैं कोई जवाब नहीं देना चाहती। मम्मी के लिए अंडा छू गया बर्तन तक 'करवाईन' होता है - अशुद्ध, निरामिष।

वैसे अब्बास, यहां का ख़ानसामा हैरान है कि मैं सिर्फ और सिर्फ वेजिटेरियन खाना खाऊंगी। "ऐसे कैसे? मेहमान को हम बिना गोश्त के खाना कैसे परोसेंगे? राजमा और हाक साग?"

"तो पनीर बना दीजिए ना अब्बास।" एक शाकाहारी के लिए उत्कृष्ट भोजन की यही पराकाष्ठा है।

खाना खाने के बाद हम श्रीनगर घूमने निकल गए हैं - तीन लड़कियां, एक लाल बत्ती, एक ड्राईवर और एक बॉडीगार्ड, और पीछे एक एस्कॉर्ट गाड़ी। हमीद बहनों की भुनभुनाहट जारी है... हम खुद भी तो अपनी गाड़ी लेकर जा सकते थे। ताम-झाम मतलब एटेन्शन। लेकिन उनकी चलती नहीं और सफेद गाड़ी निकल चलती है। हमें बीएसएनएल नंबर भी थमा दिया गया है। कश्मीर में निजी ऑपरेटरों की सर्विस नहीं है।

सड़क-गलियां-लाल चौक-बुलेवर्ड-डल का किनारा-चश्मे शाही-चश्मे-साहिबा और फिर परी महल। यहां-वहां दिखाई देने वाले बंकरों के बीच हम तीन लड़कियां हैं परी महल में, कभी इस सीढ़ी कभी उस सीढ़ी फुदकती हुई। फिर एक ऊंची जगह पर खड़ी होकर दोनों कश्मीरी लड़कियां मुझे डल, गोल्फ कोर्स, गर्वनर का घर वगैरह वगैरह दिखा रही हैं।

परी महल और परियों के मन के इर्द-गिर्द कंटीले तार
हम चश्मे-शाही पर भी रुके हैं थोड़ी देर। चश्मे-शाही का पानी इतना ही मीठा है कि यहां से नेहरू-गांधी परिवार के लिए पानी ख़ास तौर पर दिल्ली भिजवाया जाता था, हर रोज़। अभी-अभी बड़े-बड़े साहबों के अर्दली चश्मों में भरकर ले जाते हैं पानी यहां से। मैंने भी झुककर अंजुरी में पानी भर लिया है। लेकिन प्यास हो तब तो पानी की मिठास की भी कद्र हो। हम तो पहले से ही तृप्त लोग हैं!
निशात बाग़ और डल झील

निशात बाग़ में कभी इस फव्वारे, कभी उस फव्वारे, कभी इस फूल और कभी उस फूल के सामने खड़े होकर कैमरे के लिए पोज़ करते-करते हम तीनों ने शिद्दत से शम्मी कपूर को याद किया है। मुसाफ़िर बदले, ज़रूरतें बदलीं, सदी बदली, लोग बदले, माहौल बदला लेकिन कुदरत ने अपना रूप नहीं बदला।
गोल्फ कोर्स और डल


उस सावन की एक शाम
अब थकने लगी हूं। बाकी बातें कल। हाथ भी दुखने लगा है। वो मशीन कब आएगी जो दिमाग में चल रहे ख़्यालों को उसी तेज़ी से लफ़्ज़ों में रिकॉर्ड करके पन्नों पर उतार दे? अच्छा अब तख़लिया, मेरी डायरी। 





मंगलवार, 18 दिसंबर 2012

दिल की थोड़ी-सी सुन लूं!

"ना जाने मेरे दिल को क्या हो गया..."

एक गा रहा है, दूसरा बजा रहा है,,, सामने रखी मेज़।

"ये दिल क्या होता है मम्मा?"

"दिल मतलब हार्ट बुद्धू। दिल यहां होता है, धक-धक करता है।"

"मम्मा, इसको बोलो मैं इससे नहीं पूछ रहा। मुंह बंद रखे अपना।"

"मम्मा इसको बोलो मेरा दिल कर रहा है कि मैं बोलूं... तो मैं बोलूंगी।"

"और मेरा दिल कर रहा है मैं इसके बाल खींच लूं।"

दो दिलों की इस जंग में धराशायी मम्मा हुई है। दिल और दिमाग जैसे जुड़वां बच्चों की तरह आद्या और आदित का झगड़ा भी नहीं सुलझता, लेकिन इस बहाने हमने भूले हुए दिल को लेकर भारी-भरकम चर्चाएं की हैं।

"मम्मा, दिल बोल सकता है?"

"बोलता है लेकिन हम सुनते नहीं," मैंने भारी दिल से ये स्वीकार किया है। मैं ही कहां सुन पाती हूं अपने दिल की? अक्ल आड़े आ जाती है। दिल तो बर्गलाता है। लीक से हटकर चलने को उकसाता है। ठोकर खाने के रास्तों पर ले जाता है। मेरी मानो तो ये दिल रात को बिस्तर के नीचे से चुपके से निकलकर थोड़ी देर के लिए जगमगाने वाला एक बेचारा जुगनू ही ठीक, जिसकी दिन की दुनियादारी में ज़रूरत नहीं पड़ती। यूं भी इन दिनों मैं अपने अक्ल के पंजों में हूं।

"मम्मा, शाह रुख़ खान के दिल को क्या हो गया था? हमारे भीतर रहनेवाला दिल खो कैसे जाता है?"

ब्रिलिएंट क्वेश्चन! बच्चों के पेचीदा सवालों के टेढ़े-मेढ़े जवाबों में उलझी हुई मैं अपनी अक्ल का दरवाज़ा खटखटाती हूं। अक्ल ने जवाब दे दिया है। कहती है, दिल का मामला है। दिल से ही पूछ लो! दिल की थोड़ी-सी सुनने के लिए बड़ी मेहनत करनी होती है इन दिनों, फिर भी दिल से पूछती हूं, बच्चों को क्या बताऊं कि दिल खो कैसे जाता है।

मैं तो बात-बात पर दिल को भुला दिया करती हूं! भूले हुए दिल की गुहार लगाने में शर्म आती है अब। मगर बच्चों ने भूले हुए दिल के बारे में पूछ कर उसकी ओर देखने को मजबूर किया है। पूछती हूं दिल से, दिल की करने देना और दिल की सुनना सिखाना तो आसान है, दिल को ये कैसे पता चले कि सही क्या है और गलत क्या?

बच्चों को ज़िन्दगी के ये अहम लाइफ़-स्किल्स सिखाने के बारे में सोचती हूं तो घबरा जाती हूं। यूं लगता है हम तीनों को किसी ऐसे कमरे में बंद कर दिया गया है जहां से बाहर निकलने का राज़ सिर्फ़ मुझे मालूम है और बाहर के रास्तों पर नीम अंधेरा पसरा हुआ है। मैं खुद को टटोलती हूं, अपने दिल से पूछती हूं कि ठीक तो है। शुक्र है कि इस सिहरती ठंड में भी हथेलियों में गर्माहट बाकी है अभी। चलो, दिल का ये मसला साथ मिलकर सुलझाते हैं।

 दरअसल बच्चों, तुम्हारी निश्छलता अभी दिल की आवाज़ों से दोशीज़ा है। लेकिन धीरे-धीरे समझ में आएगा कि इस पूरे जिस्म में एक दिल ही है जिसके ज़ख़्म दिखाई नहीं देते; जो सबसे ज़्यादा तकलीफ़ें बर्दाश्त करते हुए भी उसी शिद्दत से धड़कता रहता है और अपना काम बख़ूबी करता रहता है जिसे सिन्सियरिटी की उससे अपेक्षा होती है। दिल की ठीक-ठीक सुनो तो उसकी सरहदें भी वो खुद ही बताता है। एक दिल है जो दूसरों की तकलीफ़ों से तकलीफ़ज़दा होता है। एक दिल है जो अपने फ़ायदे बटोरते हुए दूसरे के अधिकारों का हनन करने पर कचोटता है। एक दिल है जिसके लिए 'स्व' के दायरे में 'सब' आते हैं। हमें फिर भी दिल पर यकीन करना नहीं सिखाया जाता क्योंकि दिल कमबख़्त दुनियादारी से अलहदा होता है। 

आद्या-आदित, जो पूरी ज़िन्दगी ना समझ सकी, अब तु्म्हें समझाते हुए समझने लगी हूं। आओ बताती हूं कि सही क्या है और गलत क्या, और दिल किसका साथ दे क्योंकि ज़िन्दगी अक्सर दोराहे-चौराहे-बहुराहे पर खड़ी कर दिया करती है हमें। दिल की आवाज़ सुनने की आदत बनी रही तो फ़ैसले लेने में आसानी होती है। दिल अक्सर नए रास्ते दिखाता है, उन सुनसान रास्तों पर दीया जलाता है जहां से कोई नहीं गुज़रता। दिल एहतियातों के खोल उतारकर नसों में नई रवानियां भरने की हिम्मत देता है। और ये भी याद रखना कि सही वक्त पर दिल को साधा नहीं तो दिल खूंखार भी हो जाता है। इसी दिल की आड़ में जो दिल में आए वो करने वाले दूसरों के लिए नफ़रतें बोते-उगाते-काटते हैं। इसी दिल की आड़ में गुनाहों का बाज़ार पनपता है। दिल को साधने का काम रूह करती है और रूह को साधने के लिए असीम साधना चाहिए।

समाज के बनाए हर क़ायदे-कानून को तुम्हारा दिल गवाही दे, ये भी ज़रूरी नहीं। लेकिन बेक़ायदा होकर हैवान हो जाने की छूट भी दिल के नाम पर नहीं दी जा सकती।

तो बच्चों, पूरी ज़िन्दगी एक टाईट रोपवॉक ही समझ लो। हम पेंडुलम की तरह सही और गलत, ग्राह्य और त्याज्य, मान्य और अमान्य के बीच में झूलते रहते हैं और अपनी-अपनी समझ से खुद का संतुलन भी तलाश लेते हैं। संतुलन का कोण ज़रूर बदलता रहता है लेकिन ज़िन्दगी के मूलभूत सिद्धांतों पर फिर भी कोई समझौता नहीं किया जा सकता। एक इंसान के दिल में दूसरों के लिए प्यार और संवेदना और अपने लिए विवेक और हौसला, बस यही चार चीज़ें बची रहनी चाहिए। बाकी, थोड़ा कम थोड़ा ज़्यादा देर-सबेर दौलत, शोहरत और ऐसी ग़ैर-ज़रूरी चीज़ें सबको एक ना एक दिन मिल ही जाती हैं। दिल भी ताउम्र खोया और पाया के गीत गुनगुनाता हुआ फ़िट रहता है और एक दिन तमाम दुनियादारियों के बीच दिल दरवेश हो जाता है।

शुक्रवार, 14 दिसंबर 2012

तुम काबिल हो, काबिल-ए-तारीफ़ हो

बेहद बेतकल्लुफ़ी वाली शाम थी वो... एक हल्की-सी सर्दी वाली शाम कि जब माहौल का तक़ाज़ा होता है उम्र और अनुभव के अंतर को भुलाकर उस बेतक़ल्लुफ़ी, उस अनौपचारिकता की रौ में बहते हुए वो कहना और सुनना, जो कभी कहा नहीं... या जिसपर हम कभी चर्चा करते नहीं। उस बेहद उम्दा लेखक और कवि ने ये बताते हुए कि मुझसे पाला कैसे पड़ा, मेरे ब्लॉग की चर्चा की और कहा, "ब्लॉग पढ़ा तो लगा, लड़की तो काबिल है!"

मुझे खुश होना चाहिए था, इसे कॉम्प्लिमेंट की तरह लेना चाहिए था, और देर तक मन-ही-मन इस बात पर इतराना चाहिए था... लेकिन जाने क्यों मैं बहुत भीतर तक उदास हो गई थी। अगले कई घंटों तक मैं इस बारे में सोचती रही थी, कि मैं इस बात को लेकर इतनी परेशान क्यों हूं, और इतनी उदास क्यों। किसी को काबिल कहना गाली थोड़े ना होती है?

पिछले कुछ दिनों में अपने बीमार बेटे के सिरहाने बैठे हुए मुझे उस उदासी का सबब समझ में आया है। ये समझ आया है कि काबिलियत अभिशाप क्यों बन जाती है कभी-कभी।

***

सुबह मैं फिर भी अपने लिए थोड़ा-सा वक्त निकालकर पीठ की मरम्मती के लिए अपनी फिज़ियोथेरेपिस्ट और योगा इंस्ट्रक्टर के पास चली आई हूं। वो ट्रैक्शन मुझे दे रही हैं, लेकिन बात बगल वाले बिस्तर पर लेटी शालिनी से कर रही हैं।

शालिनी ग़ज़ब की ख़ूबसूरत है। मुझे हाल ही में पता चला कि वो फै़शन डिज़ाईनर और कोरियोग्राफर रही है। थी, अब नहीं है। अब सिर्फ़ एक बीवी, एक मां है। पति को दफ़्तर भेजने, बाई के आने और बच्चों को स्कूल से लाने के बीच का समय अपने सुनहरे दिनों का मातम मनाते हुए काटती है।

हमारी 67 साल की इंस्ट्रक्टर मेरी पीठ की मालिश करते हुए उसके कुचले हुए आत्मविश्वास पर मरहम लगा रही हैं।

"हम औरतें ग़ज़ब की एडैप्टेबल होती हैं, हर हालत में अपने लिए रास्ता बना लेती हैं। तुम चाहोगी तो अपने लिए रास्ता निकाल ही लोगी कुछ ना कुछ। और फिर शिकायत किससे है? ये सब तुमपर थोपा तो नहीं गया था? या तो समझौते करना सीखो, खुश होकर हर हाल में ज़िन्दगी जियो; या फिर तुम्हारे वजूद पर आ पड़ी है तब अपने हालात बदलो। इन दोनों स्थितियों में शिकायतें फिर भी ऐक्सेपटेबल नहीं है।"

फिर रुककर मिसेज सिंह कहती हैं, "कभी पूछना ख़ुद से ईमानदारी से... तुम एम्बिशस तो नहीं हो रही?"

हो सकता है दर्द स्लिप्ड डिस्क का ही रहा हो, लेकिन उसके चेहरे पर मैं कुछ और पसरते हुए देखती हूं।

***

बालकनी में उल्टियां किए हुई बेडशीट्स को धोकर, निचोड़कर, झाड़कर पसारते हुए सामने वाले अपार्टमेंट की शिखा से नज़रें मिलती हैं। हम एक-दूसरे को देखकर हाथ हिला देते हैं। वो भी ऐसी ठंड में चादर ही धोकर पसार रही है।

शिखा ने मैथ्स में एम.एससी. किया है, और एम.एड. भी। हो सकता है मुझे गलत याद हो, लेकिन शायद उसने यही बताया था कि जीबी पंत यूनिवर्सिटी में टॉप किया था उसने। उसका बेटा मेरे बच्चों से ठीक एक दिन बड़ा है। एक लकवाग्रस्त सास और एक बेहद बूढ़ी ननिया सास की देखभाल करने के बाद जो वक्त मिलता है, शिखा उस वक्त में खाना बनाती है, पांच दिन पति को अलग-अलग किस्म का लंच पैक करके देती है, बच्चे को स्कूल छोड़ने और लाने जाती है, उसे कराटे सिखाने ले जाती है और बीच में सब्ज़ियां, दूध और राशन भी ले आती है। बाकी समय कपड़े धोने और वहीं बालकनी में बैठकर बेटे को होमवर्क कराने में निकलता है।

मैं आठ सालों में कुल तीन बार उसके घर गई हूं, दसियों बार बुलाने के बाद। उसके घर का भारीपन मुझे बेचैन कर देता है।

रात-रातभर जागकर जब उसने इम्तिहानों की तैयारी की होगी तो ऐसी ही किसी ज़िन्दगी का ख़्वाब देखा होगा? वो किसे दोष दे? उसकी काबिलियत का क्या मोल है?

***

रुचि आर्टिस्ट है। थी। है नहीं। उसकी जागरूकता, वाक्पटुता और प्रेज़ेन्स ऑफ माइंड मुझे हैरान करता है। हर मुद्दे पर वो स्पष्ट राय रखती है और किसी बहस में उसकी तर्कशक्ति कई बार हैरान करती है। हर बार सोचती हूं, अपनी बेटियों को पढ़ाते हुए ये औरत खुद कितना पढ़ती होगी!

लेकिन रुचि फिर भी वो आर्टिस्ट थी जो अब नहीं है। उसकी कलात्मकता घर के बजट का टाईटरोप वॉक है। उसने अपनी बेचैनी को बड़ी सलीके से बांध रखा है। उसमें ग़ज़ब का ठहराव है। लेकिन उस ठहरी हुई झील के ऊपर अक्सर कोई-ना-कोई कंकड़ फेंक जाता है, इतनी काबिल हो तो कुछ क्रिएटिव क्यों नहीं करती? जो काबिलियत इस्तेमाल में ना आए, उसका क्या मोल?


***

उर्मिला को मैं सोलह सालों से जानती हूं - कॉलेज में थी तब से। अपने रहन-सहन की बेतरतीबी को वो अपनी सलीकेदार पढाई-लिखाई और काम से ढंकती रही है। गृहस्थी ने उसे आखिरकार घर भी सलीके से रखना सिखा ही दिया। जिस उर्मिला से हमें अव्वल दर्ज़े की पब्लिशर बनने की उम्मीद थी, वो धीरे से मुझसे कहती है, "इट्स अ टफ़ बैटल दैट वी आर फाइटिंग।" है ही। दो नावों पर सवार होना, एक ख़्वाब देखना और एक हकीक़त जीना... दोनों फ़ैसले तेरे ही तो थे। फिर भी, तू काबिल है उर्मिला। कोई ना कोई रास्ता बना ही लेगी। ज़िन्दगी की जंग में रोज़-रोज़ के एम्बुश को कोई याद नहीं रखता, तू भी भूल जाएगी।

***

बच्चों को वक्त पर दवा देते हुए... बिस्तर पर बैठे हुए उनका होमवर्क कराते हुए... मटर-पनीर बनाते हुए... अपना हाथ जलाते हुए... वॉशिंग मशीन चलाते हुए... आलू छीलते-छीलते लफ्ज़ों की तरतबी समझने की कोशिश करते हुए... डस्टिंग करते-करते कई काबिल लड़कियों और औरतों को याद करते हुए मैं सोचती हूं कि काबिलियत भी शायद हालात का शिकार होती है। काबिलियत पर हमारा नेकदिल होना, हमारा दूसरों के बारे में सोचते जाना, घर-संसार सलीके से बचाए रखने के लिए खुद को तोड़ते जाना भारी पड़ जाता है।

इसलिए सोचती हूं, मैं काबिल होऊं या ना होऊं, काबिल-ए-तारीफ़ ज़रूर हूं। मैं काबिल इसलिए नहीं कि चार आड़े-तिरछे शब्दों को सलीके से रखने का हुनर आता है। मैं और रुचि, शिखा और उर्मिला, शालिनी और मिसेज सिंह... सब काबिल इसलिए हैं क्योंकि हमने घर और बाहर का, ख्वाब और हकीक़त का, रंग और खुशबू का, सब्र और हिम्मत का संतुलन साधना सीख लिया है। हम घर भी बचाए हुए हैं, अपने ख्वाबों को भी मरने नहीं दिया है अभी। मुझे अपनी दोस्त वर्षा मिर्ज़ा का कहा याद किया है, "उम्मीद अभी ज़िंदा है क्योंकि संवेदनाओं से भरा ये मन ज़िंदा है अभी।"

ये लिखते हुए कहीं भीतर तक धंसी हुई तवील उदासी छंट गई है और इस भीड़ में देर से ही सही, अपने लौट आने की उम्मीद रौशन हुई है कहीं।   


 पोस्टस्क्रिप्ट: ये पोस्ट लिखते-लिखते मेरे इन्बॉक्स में एक अटैचमेंट आया - दो महीने पुरानी एक तस्वीर, जिसमें मेरी जैसी कुछ और काबिल औरतें हैं और एक वर्कशॉप में हिस्सा लेने आई थीं... बाएं से अनु जैन, जो दो बच्चों की मां है और जब कहानियां सुनाती हैं तो हम तालियां बजा-बजाकर उसका मज़ा लेते हैं; जिमली बोरा जो प्रोफेशनल फोटोग्राफर है और जब बच्चों से फुर्सत में होती है तो रेकी हीलिंग देती हैं, अंग्रेज़ी की बेहद उम्दा कवयित्री हैं; योर्स ट्रूली; अलका शर्मा, जिसकी आवाज़ आपके बच्चे छोटा भीम और डोरेमॉन समेत कई कार्टून कार्यक्रमों में सुनते होंगे; मिसेज़ अनूपा लाल जिन्होंने तकरीबन पच्चीस किताबों का अनुवाद किया है और मशहूर चिल्ड्रेन्स राईटर हैं; और गुल, जो प्रोफेशनल स्टोरीटेलर हैं, कहीं भी पांच-सात बच्चों को बिठाकर कहानियां सुनाना शुरू करना इनका प्रिय शगल है और इनके हाथ का खाना खाकर वाकई उंगलियां चबाने का मन करता है। काबिल औरतें, जिनकी काबिलियत एक-ना-एक दिन अपना मुकाम पाएगी। ढेर सारा मुस्कुराते हुए ये तस्वीर मैं यहां लगा रही हूं। 

शनिवार, 8 दिसंबर 2012

ये रुत इस बरस भी अकारथ जाएगी

सब खोद डालो, जो ख़्वाब रोपे थे
उखाड़ दो बिना जल के सूखती तुलसी
नोच लो गुलदाऊदी की बेआब क्यारी
टहनियों पर भी मत छोड़ो
चमेली कोई एक बिलखती-सी
कि अब के बेनूर रहेगा बाग़ उम्मीदों का
ये रुत इस बरस भी अकारथ जाएगी।

मैं सख़्त ज़मीन पर चलता हूं
उड़ते फिरना नहीं है फ़ितरत में
उम्र ने दी है जो हिस्से में समझ
उसके दम पर ही मैं ये कहता हूं
देखो, हवा का रुख़ देखो
बर्फ में दबकर कहां कुछ बचता है? 
क्यों ज़ाया करोगी अपनी मेहनत
वही मिलता है, जो वो बख़्शता है
मत उलझो अपनी इन लकीरों से
नहीं काम आएगी ये अज़्म-ओ-हिम्मत
चमन को जो लिखी हो बर्बादी
तुम कहां उसे बचा पाओगी? 
  
फिर भी जानता हूं, बड़ी ज़िद्दी हो
अगले साल फिर से चली आओगी
क्यारियां फिर से तुम बनाओगी
बीज भी कहीं से लाओगी
फिर सींचोगी आंसुओं से उनको
फूल तुम ज़रूर लगाओगी
फिर एक दिन शायद ऐसा होगा
पहाड़ पर फ़र्श-ए-गुल तुम बिछाओगी
साल-दर-साल की तुम्हारी दिल्लगी
एक दिन मेरी वाबस्तगी बन जाएगी। 

बुधवार, 5 दिसंबर 2012

कहानी से कमीनी ये ज़िन्दगी

ट्रेन की खिड़की से बाहर देखते हुए पिछले तीन दिनों की खुशनुमा यादों की जुगाली करनी थी, नए ख़्वाबों और इरादों का च्विंग गम बनाना था और दिमाग में कच्चे-पक्के रोडमैप तैयार करने थे। ज़िन्दगी आख़िर इन्हीं इरादों की इमारतों में जाकर डेरा बनाती होगी। इरादों की हवाई इमारतों को धराशायी करने के लिए हवा का एक झोंका, किसी बददिमाग लम्हे की एक फूंक काफ़ी होती है।

वही हुआ।

ट्रेन छूटने के ऐन पहले मेरे बगल की सीट पर बैठने आए शख्स को देखकर मैं मन-ही-मन सोचती हूं, हुई छुट्टी इरादों की। यहां तो अगले सात घंटे खुद को संभालने में लग जाएंगे। कहते हुए शर्मिंदगी भी होती है कि आधी ज़िन्दगी गुज़ार लेने के बाद भी बात-बात पर दिल दफ्फ़तन धोखा दे देता है। तुम्हें दानिश्ता महफ़िल में जो देखा हो तो मुजरिम... बेइरादा उठ जानेवाली नज़र को जी भर के कोसते हुए मौका-ए-वारदात पर दिमाग हमेशा की तरह प्लेबैक सिंगिग करने लगा है।

अगले पंद्रह मिनट फेसबुक पर मज़ा लेते हुए कटे हैं। मन ही मन मुस्कुराने और अपने दिमाग से रंग-बिरंगे किस्से उपजाने का अलग ही मज़ा होता है। बातचीत शुरू होने की तो कोई गुंजाईश ही नहीं है। मैं बोलूंगी नहीं, और किसी अजनबी से कुछ बुलवा लूं, ये हुनर है नहीं। हाथ में अपना अख़बार है। मैंने कुछ और अख़बार निकालकर अपनी बगल वाली सीटों के पाउच में घुसा दिया है, इंडियन एक्सप्रेस के ऊपर। कनखियों से देखती हूं कि मिस्टर एक्स ने अख़बार निकाल लिया है और आगे-पीछे पलट रहे हैं। मेरे भीतर किसी ने बड़ी ज़ोर से बत्तीसी दिखाते हुए दांत निपोड़ा है। लेकिन मिस्टर एक्स ने बिना अंदर के पन्ने देखे अख़बार को वापस पाउच में क्या घुसाया है, मेरे अंदर से कुछ फूट पड़ा है, "मुझे लगता है आपको भीतर के पन्ने भी देखने चाहिए।"

मेरे इस अप्रत्याशित हमले से सकपकाए मिस्टर एक्स ने अख़बार वापस हाथ में ले तो लिया है, लेकिन उनकी निर्लिप्तता से मुझे कोफ़्त हो रही है। अजीब आदमी है। हाथ में इतनी इंटरेस्टिंग चीज़ है, लेकिन खोलकर देखना तक नहीं चाहता। आई हैव डिसाईडेड... आई डोन्ट लाईक हिम। पीरियड।

मैंने झल्लाहट में अख़बार की अपनी कॉपी खोल ली है और मन-ही-मन प्रूफिंग की गलतियां मार्क कर रही हूं। हम पूरी तरह एरर-फ्री अख़बार कब निकाल पाएंगे? फिर लाल स्याही वाली अपनी कलम निकाल कर गलतियों को घेरों में बंद करने लगी हूं।

"कैन आई बॉरो योर पेन प्लीज़?"

मिस्टर एक्स फोन पर हैं और नंबर नोट करने के लिए मुझसे कलम मांग रहे हैं।

"यू हैव वन पीपिंग आउट ऑफ योर पॉकेट," उस आदमी को लीड भर स्याही में डूब मरने का ताना सौंप कर मैं वापस अपने काम में लग गई हूं। अब तक फेसबुक पर आनेवाले सारे कमेन्ट्स का जवाब दे दिया है और अब कोई बात नहीं बढ़ाना चाहती।

आई शुडन्ट किल अदर्स फन, जस्ट बिकॉज़ आई वॉज़ लेफ्ट डिस्प्वाईंटेड। आत्मालाप चालू आहे।

"दिस वन डजन्ट वर्क। सिर्फ दिखने के लिए क्रॉस का पेन है। क्वायट यूज़लेस, दिस वन। कैन आई स्टिल बॉरो योर पेन?"

इज़ दिस द न्यू पिक अप लाईन, सोचती तो यही हूं, लेकिन कहती नहीं। पेन चुपचाप आगे बढ़ा दिया है। पर्स में पेन लेकर घूमने का अपना नफ़ा-नुकसान है।

"थैंक यू। आर यू ए टीचर?" पेन लौटाते हुए मिस्टर एक्स कहते हैं और मैं ज़रा भी हैरान नहीं होती। मुझसे ये बात बीसियों अजनबी पच्चिसियों बार पूछ चुके हैं। चेहरे पर गंभीरता और स्यूडो अक्लमंदी चिपकाए फिरने का भी अपना नफ़ा-नुकसान है।

"नहीं। द न्यूज़पेपर दैट यू जस्ट केप्ट अवे... मैं उसके लिए काम करती हूं।"

"ओह! मेरी हिंदी बहुत खराब है और कॉन्सेन्ट्रेशन तो उससे भी खराब। मैं लंबे-लंबे आर्टिकल्स नहीं पढ़ पाता।"

आई डेफिनेटली डू नॉट लाईक दिस मैन, मेरे भीतर से फिर कोई आवाज़ आती है। तो क्या हुआ अगर सॉल्ट एंड पेपर बाल हैं? तो क्या हुआ अगर इसकी आवाज़ बंटी जैसी है? तो क्या हुआ अगर इसकी लंबाई पापा जैसी है? तो क्या हुआ अगर इसका रंग मनीष जैसा है? तो क्या हुआ अगर गिफ्टी की तरह इसकी आंखें बात करती हैं? तो क्या हुआ अगर ये ठीक मेरे लेटेस्ट क्रश आदिल हुसैन जैसा दिखता है? और अगर ये आदिल हुसैन ही हुआ तो? मेरे भीतर की आवाज़ और ऊंची ना हो जाए, इस डर से मैं खिड़की के बाहर देखने लगती हूं। फोन पर हो रही बातचीत से तो लगता है, डॉक्टर है या फिर दवाओं की एजेंसी है इसकी। इतने प्यार से इतनी सारी दवाओं के नाम कोई और क्या लेता होगा?

दवा के नाम पर अपनी दवा याद आई है जो पिछले चार दिनों से मैं खाना भूलती रही हूं। सीट पर बैठे-बैठे मेरी पीठ अकड़ गई है और अब बैठा नहीं जा रहा। बेल्ट लगाना भी तो भूल गई। बेल्ट निकालने के लिए खड़ी हुई हूं और किसी तरह सूटकेस खींचकर उसमें से लम्बर बेल्ट निकाल लिया है। एक सूटकेस से जूझती महिला को देखकर मिस्टर एक्स के भीतर का क्षात्रधर्म जाग गया है और वो उठकर सूटकेस वापस रखने में मेरी मदद करते हैं।

"इफ यू डोन्ट माइंड... कैन आई सी योर बेल्ट?"

हद है यार! ये आदमी तो पीछे ही पड़ गया। जी में आया है, कह दूं, नन ऑफ योर बिज़नेस... लेकिन चुप रह गई हूं। शायद ये उसका 'बिज़नेस' हो... ठीक वैसे ही जैसे अख़बार मेरा था।

"आपको किसी ने ये बेल्ट प्रेस्क्राईब किया था?"

"ज़ाहिर है। वरना आठ सौ रुपए मुझपर भारी थोड़े ना पड़ रहे थे?"  

"किसने प्रेस्क्राईब किया था?"

"मेरे ऑर्थोपिडिक ने।"

"ऐन्ड हू इज़ दैट?"

यार, ये आदमी इतने सवाल क्यों पूछ रहा है?

"डॉ ए एन मिश्रा", मैंने फिर भी जवाब दे दिया है।

"सो यू लिव इन नोएडा?"

"जी, और डॉक्टर मिश्रा का क्लिनिल सेक्टर उन्नीस में है।"

"जानता हूं। इन्सिडेन्टली आई ऐम ऐन ऑर्थोपीडिक सर्जन ऐज़ वेल। आई लिव इन गुड़गांव।"

एल फाई-एस वन डिस्क प्रोलैप्स पर मुफ़्त में मिलने वाली कन्सलटेन्सी से शुरू हुआ किस्सा अगले तीन घंटे चलता रहा है।

"आई हैव नेवर टॉक्ड टू ए स्ट्रेंजर सो मच", ये मिस्टर, या रादर, डॉक्टर एक्स की नई पिक-अप लाईन हो सकती है, लेकिन मैं उन्हें यकीन दिलाती हूं कि ट्रेन में दोस्तियां करने और उन्हें सालों तक सहेज कर रखने में मुझे वो महारत हासिल है जिसपर मैं एक यात्रा-वृत्तांतनुमा संस्मरण लिखना चाहती हूं।

 इस संस्मरण में डॉक्टर एक्स को अहम जगह दी जाएगी क्योंकि मुझे किसी सहयात्री से हुई बातचीत के हिस्सों ने इतना बेचैन नहीं छोड़ा। तीन घंटे की बातचीत में ड़ॉक्टर एक्स अपनी उस बेटी के बारे में बताते रहे हैं जो स्पेशल चाइल्ड है। कड़वे शब्दों में कहें मानसिक रूप से विकलांग। डॉक्टर एक्स की पत्नी एम्स से पढ़ीं डॉक्टर हैं जिन्होंने अपनी बेटी की परवरिश और उसकी देखभाल के लिए अच्छे-ख़ासे करियर को छोड़ दिया। अब देखभाल की ज़रूरत बेटी को कम, मां को ज़्यादा है। डिप्रेशन ने नींद की गोलियों पर उनकी निर्भरता इस क़दर बढ़ा दी है कि कई बार वो रोज़-रोज़ के संघर्षों से आज़िज होकर नींद की गोलियों की शरण में चली जाती हैं। बारह साल हुए... प्रैक्टिस छूटी, दोस्त-यार छूटे, जीने के मायने बदले और मुट्ठी में जो आया, लाइलाज था - घर में कई डॉक्टरों के होते हुए भी।

 टुकड़ों-टुकड़ों में डॉक्टर एक्स की दर्दभरी व्यथा सुनकर इतनी परेशान हो गई हूं कि अब और कुछ सुनना नहीं चाहती। मुंह घुमाकर मैंने कानों में ईयरप्लग्स लगा लिए हैं। इनके पास अपनी ज़िन्दगी से भागने का कोई रास्ता नहीं, मेरे पास तो है। आई डोन्ट ओ एनीथिंग टू एनीवन। नॉट इवेन अ मोमेन्ट ऑफ पेन। फिर मुझे इतनी रुलाई क्यों आ रही है? प्लेलिस्ट में बजते एक गाने ने मुझे अधीर कर दिया है। अब आंसू छुपाने के लिए बाथरूम में जाना होगा।

मैं बहुत देर तक दरवाज़े के पास खड़ी रही हूं - बीबीएम और वॉट्सएप पर बेमतलब के संदेश भेजते हुए वक्त काटने की बेजां कोशिश में। शुक्र है प्लैटफॉर्म पर मुझे मेरी ज़िन्दगी मेरा बोझ थामकर मुझे घर ले जाने के लिए तैयार खड़ी होगी। शुक्र है मेरे पास भाग जाने की कोई ठोस वजह नहीं। अजनबियों की तकलीफ़ का सोचकर क्या दिल जलाऊं और क्या सोचूं कि कोई हल होगा इन परेशानियों का। क्या सोचूं कि बड़े अरमानों के साथ दो डॉक्टर बैचमेट्स ने शादी की होगी, परिवार बसाया होगा और फिर धीरे-धीरे सब बिखरता चला गया होगा। किसके लिए अफ़सोस करूं - उस पति के लिए जिसने अपनी बीवी को प्यार तो किया होगा लेकिन वक़्त और हिम्मत ना दे सकने के गिल्ट को अस्पताल में सोलह घंटों की नौकरी से कम करता होगा... या फिर उस बीवी के लिए, जिसके लिए कोई दुआ काम आएगी, इसका मुझे यकीन नहीं।

मैं सीट पर लौट आई हूं और डॉक्टर एक्स ने फिर से मेरी लाल कलम उधार मांगी है। काग़ज़ के एक टुकड़े पर कोई नंबर लिख रहे हैं। गॉड! आई डोन्ट वॉन्ट दिस!

"सुदेशना का है ये नंबर। आई डोन्ट नो वाई आई फेल्ट यू शुड स्पीक टू हर। यू आर सो सॉर्टेड आउट।"

सॉर्टेड आउट! Sorted out?

हंसूं या रोऊं, समझ में नहीं आता। मेरे साथ ही ऐसा क्यों होता है?

ट्रेन दिल्ली प्लेटफॉर्म पर लग गई है। डॉक्टर एक्स ने मेरा सामान उतार दिया है और जाते-जाते कहा है, "डोन्ट डिपेंड ऑन द बेल्ट टू मच। आपके मसल्स को वीक कर देगा। इट वॉज़ अ प्लेज़र मीटिंग यू।"

मेरे हथेलियों में जो बची रह गई है, दिसंबर के पहले हफ़्ते की मीठी-सी ठंडक है और है एक पु्र्जा - सुदेशना के नंबर के साथ।

मनीष को आते देखकर मैंने वो पुर्जा वहीं किनारे ऐसे फेंका है कि जैसे किसी चोरी के पकड़ लिए जाने का डर हो। मनीष को तो मैं आज का वाकया बता ही दूंगी, लेकिन सुदेशना को कैसा लगेगा जानकर कि उसके पति ने किसी अजनबी को उसके स्पेस में घुसपैठ की इजाज़त दे दी? उसकी तकलीफ़ों का कच्चा-चिट्ठा खोल दिया? मैं भी तो इस पाप की भागीदार बनी हूं।

सॉरी, सुदेशना। समझ लेना कि तुम्हारे पति ने कुछ कहा नहीं और मैंने कुछ सुना नहीं... कि तुम भी फट पड़ना सीख ही जाओगी एक दिन, और कोई ना कोई रास्ता तैयार कर ही लोगी। हम सब अपने भीतर यूं भी आतिश-फिशां लिए चलते हैं। कोई क़तरा-क़तरा पिघलता है, कोई एक बार में फटता है। बर्बाद हम हर हाल में हो जाते हैं।

पोस्टस्क्रिप्ट: काश कि ये कोई कहानी ही होती, और याद शहर की कहानियों की तरह इसका रुख तय करना मेरे हाथ में होता। ये स्साली ज़िन्दगी, वाकई, कहानियों से ज़्यादा कमीनी होती है। मेरी प्लेलिस्ट कहां है यार?



   




बुधवार, 28 नवंबर 2012

फिर से पढ़ी है एक दुआ

उससे मैं कई सालों बाद मिली। हमने अपनी ज़िन्दगी के सबसे मुश्किल लम्हे गुज़ारे हैं एक साथ। जिन दोस्तों के साथ कॉफी, मुस्कुराहटों और ऐश के दिनों का साथ रहा हो उनके साथ का रिश्ता ख़ास होता ज़रूर है, लेकिन जिन दोस्तों ने मुश्किल दिनों में साथ दिया हो उनसे एक ज़िन्दगी का ही नहीं, कई ज़िन्दगियों का वास्ता होता है। साथ बहाए जाने वाले आंसू बहते नहीं हैं, कहीं भीतर समंदर बनकर हिलोरें खाते रहते हैं। अपनी गहराई का अंदाज़ा भीतर उमड़ने-घुमड़ने वाले उसी समंदर से लगता है, और उस गहराई का अंदाज़ा दिलाने वाले दोस्त कभी विस्मृत हो ही नहीं सकते।

इसलिए हमने भी एक-दूसरे को याद रखा, दो अलग-अलग देशों में होते हुए भी, कई सालों में सिर्फ चार बार मिल पाने के बावजूद भी, एक-दूसरे की शादियों, एक-दूसरे के बच्चों के आने के लम्हों की खुशियां सिर्फ फोन पर बांट सकने की मजबूरी के बाद भी।

मैं उसके साथ गुज़ारे दिनों को याद करती हूं तो हैरत से भर जाती हूं। ज़िन्दगी में हर मोड़ पर चौराहे मिल जाया करते हैं, लेकिन कुछ मोड़ वाकई दुरूह हुआ करते हैं। ज़िन्दगी नाम की सड़क पर से वापस जाने का कोई रास्ता नहीं होता, और आगे की चोटियों और खाई से निकलने का लाइफ स्किल कोई सिखा नहीं सकता। गलत-सही ही सही, हम खुद ही अपने लिए रास्ते बनाना सीख जाते हैं। मैंने और उसने भी सीख लिया था। अगर हम लड़खड़ा गए होते तो? अगर कोई रास्ता ना निकल पाता तो?

उसकी मुश्किलें मुझसे बहुत भारी थीं। उसके पास घर नहीं था, वो शौहर नहीं था जिससे उसने टूटकर प्यार किया। मेरे पास एक नौकरी-भर ही तो नहीं थी। एक अजनबी शहर में एक अजनबी घर में बहुत सारी अजनबियत के बीच हम अजनबी से दोस्त हो गए - कुल पांच महीने के लिए। उस पांच महीने की दोस्ती में हमने कई ज़िन्दगी जी ली थीं, और अपने-अपने रास्ते चले गए। दस साल पहले उसके साथ मैंने अपनी सालगिरह कैसे मनाई, ठीक-ठीक याद भी नहीं। जुहू चौपाटी पर समंदर किनारे रेत पर नंगे पांव चलते हुए शायद, कई सारी नाउम्मीदियों के बीच बहुत सारे हौसले जुटाते हुए शायद... या अकेले-अकेले रोते हुए शायद।

ये कैसा इत्तिफ़ाक था कि ठीक दस साल बाद मेरी ही सालगिरह पर हम फिर आमने-सामने थे - हंसते, खिलखिलाते और एक-दूसरे को जीभर के गले लगाते हुए। हमारे पास गिनने को कुदरत और किस्मत की कितनी ही सारी कृपाएं तो थीं! हम फिर ढेर सारे आंसू बहा रहे थे। इस बार आंसू खुशी और कृतज्ञता के थे।

हिंदुस्तान में लाइफ एक्सपेक्टेन्सी सुना है कि 68 हो गई है। उस लिहाज़ से मैंने अपनी उम्र का करीब-करीब आधा सफ़र तय कर लिया है। इस आधे से मुझे कोई शिकायत नहीं। बल्कि, इससे बेहतर तो कुछ हो ही नहीं सकता था। अपनी ब्लेसिंग्स गिनने बैठूं तो गिनती भूल जाऊंगी कि इतना प्यार बहुत किस्मत से मयस्सर होता है। बहुत-बहुत सारा दुलार करने वाला मायका, बहुत-बहुत सारा प्यार करने वाली ससुराल, बहुत-बहुत सारा प्यार करने वाले भाई-बंधु-ननद-भौजाई और कम-से-कम ऐसे बीस दोस्त जिनके बारे में मैं इतनी ही संजीदा होकर घंटों बात कर सकती हूं और बेमतलब डायरी के पन्ने भर सकती हूं... फोन सुबह से बजना बंद नहीं हुआ, फेसबुक ने उन दोस्तों को भी मेरे लिए शुभकामनाएं भेजने की याद दिला दी जिनसे मेरा रिश्ता सिर्फ ब्लॉग और स्टेटस अपडेट पढ़ने का है। पिछली दो शामों से घर उन ख़ास दोस्तों के कहकहों से भरा है जिनके बच्चों को मैं बड़े होते देखना चाहती हूं, जिनके साथ बुढ़ापे का रिश्ता निभाना चाहती हूं। इतनी सारी मोहब्बत का वसीयतनामा किया जा सकता तो सबके बीच बांटकर जाती। प्यार भी तो आखिर बांटने से बढ़ता है।

ना जाने कौन-सी ऐसी ताक़त है जो हमारा मिलना-बिछड़ना, खोना-पाना, सुख-दुख, मरना-जीना तय करती है। लेकिन वो जो भी ताक़त है, उसका शुक्रान। दुआ बस इतनी है कि जो हासिल हुआ, बचा रहे। इसके सहारे बाकी का रास्ता बड़े मज़े में कट जाएगा। वो सारे दोस्त बचे रहें, जिनसे मेरा आंसुओं का रिश्ता है। वो बचे रहेंगे तो ज़िन्दगी में आस्था बची रहेगी।

मैं बहुत खराब गाती हूं, फिर भी ख़ुद को गुनगुनाने से रोक नहीं पाई, इस उम्मीद में कि ऐसी ऊटपटांग नज़्मों-गीतों को भी कभी को आवाज़ मिलेगी, कभी कोई सुर में पिरोएगा। और नहीं, तो दस साल बाद मेरे बच्चे ही सही। :-)


फिर से पढ़ी है एक दुआ
फिर से कहा है एक बार

ऐसी रहे जो हर सुबह
ऐसी मिले जो फिर से शाम
कह दूं तुझे ऐ ज़िन्दगी
फिर से लगी दिलचस्प है
किस्मत ने जो भी है लिखा
जो भी मिला, सब ख़ूब है
ये प्यार के जलते दीए
ये रौशनी के सिलसिले,
मेरे दिल ओ घर-बार पर
मेरे विसाल-ए-यार पर


फिर से पढ़ी है एक दुआ
फिर से कहा है एक बार


वो बचपन था जो कमाल था
जो थी जवानी, मस्त थी
ये ज़ुल्फ जब सर हो चले
फिर भी रहे अलमस्त-सी
बाकी रहें ये कहकहे,
गिरते रहें आंसू कहीं
मिलता रहे ऐसा चमन
बाकी रहे एक शुक्रिया
मेरे दिल ओ घर-बार पर
मेरे विसाल-ए-यार पर


फिर से पढ़ी है एक दुआ
फिर से कहा है एक बार



सोमवार, 19 नवंबर 2012

दिल तो पागल है कि हियवा त पगलाईल बा!


वो पूरे खानदान की सबसे बड़ी संतान है। सोलह महीने की उम्र में पीठ पर भाई लेकर आई है, सो दीदी बन जाने का बोझ तब से उठाए फिरती है जब से ठीक से अपने पैरों पर खड़ा होना भी नहीं आता था। यहीं, इस घर के एक अंधेरे कमरे में एक सर्द रात को उसे दुनिया में चले आने की ऐसी बेचैनी हुई कि मां के अस्पताल पहुंच जाने के लिए जीप निकलवाने तक ना दिया। दाई को भी ख़बर ना जा सकी और अपने वक्त से कई हफ्ते पहले घर की सबसे बड़ी बेटी की सबसे बड़ी बेटी, वो लड़की, पैदा हो गई। तीन बेटियों के बाप, उसके नाना ने फिर भी हवा में तीन गोलियां दागकर गांव-जवार को नातिन होने की ख़बर सुनाई थी। साथ ही पैदा होते ही उसपर परिवार की मान-मर्यादा जैसे भारी-भरकम शब्दों को निभाने का दारोमदार डाल दिया था।

वो बीच वाला भाई है। अक्खड़ है, ज़िद्दी है, अड़ियल है, चिड़चिड़ा है लेकिन दिल का अच्छा है और जिसे प्यार करता है, टूटकर करता है। उसे छल-कपट से कोई वास्ता नहीं। वो दीन-दुनिया से बेख़बर अपने ख़्वाब सजाने और उन्हें मूसल से कूचने में लगा रहता है। उसकी शैतानियां खत्म ही नहीं होतीं। वो अपनी शैतानियां छुपाता भी नहीं, बल्कि सबके सामने बेशर्मी से उनकी प्रदर्शनियां लगाता है। मां थककर हाथ उठाती है तो कहता है, और मारो ना। अभी तो चूड़ियां भी नहीं टूटीं तुम्हारी
!

फिर एक और लड़की है। जानती है कि क्या हासिल करना है। फिलहाल परिवार में बेटे को मिलनेवाले उस ओहदे से इतना ही प्यार है कि वो हाफ निकर और आधे स्लीव की शर्ट पहनकर बॉयकट कटवाए गांवभर में साइकिल चलाने और दरवाज़े पर बैडमिंटन खेलने में ही सारे रूढ़ियों के टूट जाने का चरम मानती है। उससे जो उलझता है, वो उसका सिर फोड़ देती है – अपनी सैंडिल से वार करके। उससे सब डरते हैं। उससे सब प्यार भी तो करते हैं।

एक छोटा भाई है उस लड़की का। ग़ज़ब का शरारती। मां आंखों से ओझल हुई नहीं कि हवाई चप्पलें कैंची से कतरने लगता है। घर में कोई चीज़ सलामत नहीं मिलती। सब चीज़ों का पोस्टमार्टम करना उसका वो शगल है कि जिसके लिए रोज़-दर-रोज़ सज़ायाफ्ता होने के बावजूद उसका काटने-पीटने-चीरने-तोड़ने का शौक ज़रा कम नहीं पड़ा। 

एक सबसे छोटा भाई है। उसकी आंखों से मासूमियत टपकती है। उसे इतनी ही भूख लगती है और वो इतना ही खाता है कि सब उसे भीम कहकर पुकारते हैं। वो चुपचाप मां से दो रोटी के बीच एक रोटी और छुपाकर देने को कहता है कि जिससे कोई उसकी खुराक का मज़ाक ना उड़ाए। उसे गुड़ की डली के साथ चूड़ा फांकना पसंद है। वो भैंस दुहने वाले के आगे अपना ग्लास लगा देता है कि बाल्टी से पहले उसकी ग्लास भर दी जाए। उसे कच्ची भिंडियां कुतरना पसंद है, मटर की हरी फलियां फांकना रुचता है और यही वजह है कि वो पेट से बेचारा कमज़ोर है।

पीछे के दो छोटे भाई कभी-कभी खुद को नकुल-सहदेव कहते हैं, कभी ना जुदा होने की कसमें खाते हैं - अस्सी के दशक के फिल्मों के उन नायकों की तरह जिन्हें लगता है, सबकुछ बदलने के लिए कमांडो बनना होता है, ज़लज़ला लाते हैं तभी जीते हैं शान से। इसलिए तो इनका प्यार झुकता नहीं’!

कट टू २०१२

बड़ी बेटी के छह साल के जुड़वां बच्चे हैं। उससे छोटा और सबसे शरारती अपनी बीवी के साथ ट्रेन से इटली नाप रहा है। दूसरी लड़की अब भी वैसी ही बग़ावती है। रहती गांव में है लेकिन चलाती स्कोर्पियो है। एक ही अंतर आया है उसमें – अब बग़ावती तेवर रूढ़ियों को तोड़ने भर का सबब नहीं, व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन करने का जज़्बा है। उसकी बातें कम ही लोग समझ पाते हैं लेकिन। उससे छोटे ने अपने दो साल के बेटे को हर वो छूट दे रखी है जो उसे बचपन में नहीं मिली। बच्चों को आज़ाद, उन्मुक्त छोड़ देने के लिए वो आपसे झगड़ भी सकता है। ढेर सारी संपत्ति का उत्तराधिकारी है, प्रॉपर्टी के व्यवसाय में है और एक ही मोह नहीं है उसको – ज़मीन-जायदाद का। सबसे छोटे वाले को अभी भी घी-दही से उतना ही प्यार है। उसकी आंखें अभी भी उतनी ही निर्दोष और निश्छल हैं। फ़ितरत भी। हालांकि नकुल-सहदेव के ख्याल इतने ही परिपक्व हो गए हैं कि वो बेसलीका बातें नहीं करते, सालों सालों तक एक-दूसरे से नहीं मिलते।

इन पांचों के बाद पैदा हुए सात भाई-बहन अभी स्कूल-कॉलेज में हैं। नहीं जानती कि गांव से जुड़ी उनकी यादें इतनी ही सघन और इतनी ही तरल है या नहीं जितनी हमारी है। और फिर पच्चीस सालों में हम बहुत बदल गए हैं, ननिहाल बदल गया है, पहचान बदल गई है, दुआर पर बैठनेवाली पीढ़ियां बदल गई हैं।

बचपन सबका गुज़र जाता है, टीस की तरह ही बचा रहा जाता है उम्र भर के लिए। सो, हमारा भी गुज़रा और नोस्टालजिया में टीस बनकर रह गया तो नया क्या है? क्यों तीन बजे सुबह उठकर खेत में जाकर काम करनेवाले चिकने और गठे हुए बदन के नानाजी को लाठी का सहारा लेकर चलते देखते हुए जी में आता है कि वहीं दरवाज़े पर बैठकर जी भर के रो लूं? क्यों नानी की झुर्रियां मम्मी में खोजती हूं, क्यों मां की झांईंयां अपने चेहरे पर तलाश करती हूं, क्यों बेटी के घूंघर में उंगली फंसाकर देखती हूं कि मेरा इसमें क्या बाकी रह जाएगा? क्यों धान की पकी बालियों और चने के साग के खेतों से घिरे बड़े से घर के बाहर हम अजनबी लगते हैं? क्यों घर-गांव-खेत-खलिहान-बाग-बगीचे किसी छुट्टी में थोड़ी देर के लिए जी बहलाने के साधन से ज़्यादा कुछ हो नहीं पाते?

मैं कहां पैदा हुई? मैं कहां बड़ी हुई? मैं कहां चली आई? मैं कहां चली जाऊंगी? मेरे बच्चों की पहचान क्या होगी? वो कहां के कहे जाएंगे? हम किस शहर के वाशिंदे हैं? हम कहां के रहनेवाले हैं? नौकरी-चाकरी, पढ़ाई-लिखाई, शादी-ब्याह और करियर की धुन ने ना जाने हमसे क्या-क्या छुड़वाया है, हमें कहां का कहां पहुंचाया है! इस बस्ती, इस मोहल्ले, गांव, इस जवार से बाहर के गांवों, हर कस्बे, हर शहर के हर घर की यही तकलीफ़ है। जो जहां का है, वहां का नहीं है। जो जहां का नहीं है, वहां का कैसे हो सकेगा कभी? हर घर में बूढ़ी, जर्जर होती इमारतें हैं। हर घर में जर्जर होती पीढ़ियां हैं जिनको संभालने वाला अपने पंख कतर दिए जाने का रोना रोता है। जो यहां रह गया, वो भी खुश नहीं। जो बाहर चला गया, उसकी तो ख़ैर अनंत तकलीफ़ें हैं।

नानाजी को नींद नहीं आती रातभर। अजीब-अजीब से सपने आते हैं। मम्मी कहती है, उनके जाने का दिन नज़दीक आने लगा है। उन्हें चले ही जाना चाहिए अब। कोई अपने पिता को ऐसे निर्मम होकर विदा कैसे कर पाता होगा भला? नानी की चौकी पर तोशक-तकिए नहीं हैं अब। आंगन वाले दीयरखा पर फोन चार्ज होने के लिए रख दिया जाता है, वहां हरी-लाल स्याही में दाहिनी तरफ़ झुके हुए अक्षरों में लिखी हुई डायरियां नहीं मिलतीं। अलमारियों में रखे बच्चों की सौ कहानियां, बारह नाटक और दस उपन्यास जैसे संग्रहों को दीमक चाट गए। इंद्रजाल कॉमिक्स, चाचा चौधरी, नंदन-चंपक-बालहंस की सैकड़ों प्रतियां बोरों में बंद करके रद्दी में बेच दी गई होंगी। हमारे बच्चे तो आईपैड और स्मार्टफोन्स से खेलेंगे, किंडल पर फिक्शन-नॉन फिक्शन पढ़ेंगे, चीनी कार्टून देखेंगे। मिडल स्कूल का नाम नानी के नाम पर रख देंगे और जूनियर स्कूल का नानाजी के नाम पर। वो देखो खेत के बीच में खड़ी हो रही है स्कूल की इमारत। कुल साढ़े चार सौ बच्चे पढ़ते हैं यहां। जिस डाल पर हम झूला झूलते थे ना दीदी, वो कट गई। वहां घर बन रहा है अब। ये श्रीफल के पेड़ लगाए नहीं हमने। देखो ना कैसे पके हुए फलों के बीज से निकल आए हैं ये पेड़! वो गौरैया खिड़की के शीशे पर इतना बेचैन होकर अपनी चोंच क्यों मार रही थी? माल वाला दुआरा तुड़वाकर अच्छा सा नया घर बनवा लेंगे यहां। वहां तक जो दिख रही है ना, सारी ज़मीन अपनी है। बिहार टेनेन्सी एक्ट। बटाईदारी कानून। सीलिंग। दूर-दूर तक पसरे खेत। खेतों में अरहर के सिट्टे।

ढलता हुआ सूरज। डूबती हुई शाम। एक लक्ज़री गाड़ी। गाड़ी में थककर सो चुके दो बच्चे। गाड़ी के भीतर चलता एयरकंडीशनर। दिमाग के भीतर मची उथल-पुथल। स्मृतियों का कोलाज। हम कहां के हैं? हम कहां के होना चाहते हैं?

सिवान शहर की सीमा में घुसते हुए छोटी भाभी ने जो पूछा है उससे तंद्रा टूटी है।

दिल तो पागल है को भोजपुरी में कैसे कहेंगे? वो पूछती है।

हियवा त पगलाईल बा, गाड़ी चलाते हुए भाई जवाब देता है।

That’s it then. मैं खुद से कहती हूं।  

This heart, तो, is mad.

दिल तो पागल है। हियवा त पगलाईल बा। का जाने कबसे बौराईल बा! न जाने कब से बौराया है।
हर एक बात पर नुक्ताचीनी की आदत ही नहीं जाती इसकी। सवाल पूछने बंद ही नहीं करता। अभी आधी रात को भी शोर मचाए है और पूछे जा रहा है वही सवाल - हम किस शहर के वाशिंदे हैं? हम कहां के रहनेवाले हैं? हम कहां के होना चाहते हैं? परिवार, कुल, मान-मर्यादा, सम्मान, नियम-धर्म, रीति-रिवाज़ – इन धरोहरों की कटी हुई कलमें हम कहां-कहां रोपते फिरेंगे? उनको खाद-पानी देने की शक्ति कहां से आएगी? क्या बचेगा? क्या छूटेगा?

तू क्यों रोती है बेसाख़्ता बेसबब? दिल को बचाए रखेगी तो सब बच जाएगा। और कुछ नहीं तो जड़ से जुदा हो जाने का ये दुख तो बचा रह ही जाएगा।    

(अपने ननिहाल और जन्म स्थान मुबारकपुर से १८ नवंबर २०१२ लौटकर, रात के डेढ़ बजे का आत्मालाप)

शनिवार, 17 नवंबर 2012

भाई-भाई ही लेते हैं एक-दूसरे की जान


दोनों एक साथ बड़े हुए थे। सहोदर थे, एक ही आंगन में चलना सीखा था, और एक को देखकर दूसरे ने एक ही तालाब में तैरना भी सीख लिया था। कई ब्लैक एंड व्हाईट तस्वीरें में दोनों को एक ही जैसी शर्ट में देखा है कई बार। स्ट्राईप्स का रंग तो मालूम चलता नहीं, लेकिन पैटर्न देखकर लगता है कि एक ही थान का कपड़ा रहा होगा। बड़े वाले की शादी में छोटे ने ऐसी आतिशबाज़ी की कि पूरा शहर उस बारात को सालों तक याद करता रहा। दोनों को राम-लक्ष्मण की जोड़ी कहते थे। ये जब की बात थी, तब की बात थी। अब की हक़ीकत कुछ और है। दोनों कौन हैं? कोई भी वो दो भाई हो सकते हैं जिन्हें आप जानते हैं। एक-दूसरे पर मरने वाले, एक-दूसरे के लिए जीने वाले कब और कैसे एक-दूसरे की जान के दुश्मन हो जाएंगे ठीक-ठीक कहा नहीं जा सकता।

बड़े हो जाने, वयस्क और समझदार हो जाने के क्रम में सीखी और समझी हुई कई तकलीफदेह सच्चाईयों में से एक सबसे बड़ा सच जो मैंने सीखा वो ये था कि कोई परिवार ऐसा नहीं होता कि जहां भाई-भाई का झगड़ा नहीं होता, जहां परिवार का विघटन नहीं होता और जहां पैसे और संपत्ति, घर और ज़मीन के लिए आपस में टकराव नहीं होता। ज़मीन चाहे एक बित्ता हो या फिर करोड़ों की हो, लड़ाई उतनी ही तीक्ष्ण, उतनी ही गहरी और उतनी ही लंबी होती है।

मैं इस बारे में बिल्कुल नहीं लिखना चाहती थी। अगर आपका ब्लॉग आपकी ऑनलाइन डायरी है और डायरी पब्लिक डोमेन में है तो उसके ज़रिए अपने डर्टी लिनेन कौन सबके सामने धोना चाहेगा? कुछ बातें इस कदर सच्ची होती हैं कि उनका सच होना चुभता है। कुछ बातें इस क़दर तकलीफ़देह होती हैं कि उन्हें भुला देने में, उनके बारे में ना बात करने में ही सुकून आता है। लेकिन हम अगर किसी ख़ास मुद्दे पर चुप्पी साध लेना चाहते हैं तो इसका मतलब ये है कि वही बात सबसे ज़्यादा खलती है।

ये किस्सा मेरे घर का भी है। मैं उस परिवार की बड़ी बेटी थी जहां का संयुक्त परिवार मिसाल माना जाता था, जहां बच्चों को जन्म देने की बारी आई तो मायके के नाम पर मैं अपने चाचा-चाची के शहर गई, जहां बच्चों से पूछा जाता था कि तुम कितने भाई-बहन हो तो उसका जवाब पांच-सात-बारह-चौदह होता था कि कज़िन्स का, चचेरे भाई-बहनों के होने का कॉन्सेप्ट तो हमने सीखा ही नहीं था।

कुछ महीने हुए कि परिवार टूट गया। जिस चाची को हर रोज़ ये पूछे बिना चैन नहीं आता था कि मेरे घर खाने में क्या पका है और मैं अभी भी रात को सोने से पहले हॉर्लिक्स पीती हूं या नहीं, उस चाची ने कई महीने हुए, हमसे बात नहीं की। सुना है कि चाचा ने हमारे नंबर्स अपने फोन में से डिलीट कर दिए हैं और किसी का किसी से कोई वास्ता ना होने की कसमें खाई जा रही हैं। यही हाल ससुराल का है। यहां भी झगड़े की मूल जड़ में संपत्ति थी, और एक-दूसरे के लिए सालों तक पाल कर रखी गई ऐसी शिकायतें थीं जिनका निदान बातचीत से मुमकिन हो सकता था। पापा और बड़े पापा कई सालों से मिले नहीं, एक-दूसरे को फोन नहीं किया। कोई बातचीत हो भी तो उसके सिरे कहां से पकड़े जाएं, अब समझना मुश्किल है। इसलिए दोनों ने कई सालों से एक-दूसरे से बात नहीं की है। उम्र के जिस मोड़ पर दोनों खड़े हैं, वहां समझौते की गुंजाईश नहीं होती क्योंकि बालों के साथ-साथ नफ़रत भी पक जाया करती है और कोई किसी को माफ़ करने को तैयार नहीं होता।

कुछ भी शाश्वत नहीं होता। रिश्ते भी स्थायी नहीं होते होंगे। मौसमों की तरह रिश्तों की तासीर भी बदलती होगी, और ख़ून भी शायद पानी ही हो जाता होगा। वरना ऐसा भी क्या कि रुपए-पैसों और ज़मीन-जायदाद के आगे सारे रिश्ते बेमानी हो जाएं? ऐसा भी क्या कि हर आंगन एक कुरुक्षेत्र बन जाए और हर ज़मीन का टुकड़ा एक हस्तिनापुर? ऐसा भी क्या कि हर भाई को धृतराष्ट्र की तरह लगता रहे कि उसके साथ नाइंसाफ़ी हुई और इस नाइंसाफ़ी का बदला अगली पीढ़ियों का चुकाना ही चाहिए? शेक्सपियर ने किंग लियर की प्रेरणा आखिर कहां से ली होगी? वाल्मिकी ने राम-राज्य के चारों भाईयों की परिकल्पना की होगी तो वहीं किसलिए रावण के लिए एक विभीषण रच दिया होगा, बाली के लिए एक सुग्रीव? 

ख़ून पानी ही होता होगा शायद, तभी तो चड्ढा भाईयों ने एक-दूसरे पर रिवॉल्वर तानते हुए एक बार भी नहीं सोचा होगा। ख़ून पानी ही होता होगा शायद कि अपनी जान से बढ़कर ज़मीन के कुछ टुकड़े लगे होंगे। सोचती हूं कि दूसरी-चौथी-सातवीं दुनिया में फिर से जब आमने-सामने होंगे दोनों तो क्या एक-दूसरे के लिए इतनी ही नफ़रत होगी? और ऊपरवाले ने सज़ा देने के लिए दोनों को फिर एक बार भाई बनाकर दुनिया नाम के दोज़ख़ में प्रायश्चित करने के लिए भेज दिया तो? भाई फिर एक-दूसरे के ख़ून के प्यासे होंगे शायद कि ख़ून पानी ही होता होगा। तो फिर चड्ढा भाईयों ने एक-दूसरे की जान ली तो नया क्या था?  

सच ही तो है कि सारे भाई लड़ते हैं। 

ज़मीन की लड़ाई लड़ते हैं, पैसों की लड़ाई लड़ते हैं, द्वेष और ईर्ष्या की वजह से लड़ाई होती है, ताक़त और कुर्सी की लड़ाई लड़ते हैं। अपने अहंकार और स्वार्थ में ये भूल जाते हैं कि एक दिन सब ख़त्म हो ही जाएगा। घर-परिवार-रिश्ते-नाते-दौलत-शोहरत... सब। जो बाकी रह जाएगा, वो नफ़रत होगी जो किसी ना किसी रूप में हमारे मन में एक-दूसरे के लिए बाकी रह ही जाती है।

शुक्रवार, 16 नवंबर 2012

चली बिहारन थोड़ी और बिहारी बनने!


मैं दिल्ली में रहनेवाले बिहारियों के उस तबके में शामिल नहीं जो साल में सिर्फ दो ही बार घर जाता है – छठ पर और होली में। मैं उन लोगों में से भी नहीं जो अपने परिजन, कुल-बिरादर, लोग-समाज, दोस्त-यार, अड़ोसी-पड़ोसियों से साल में दो-एक बार ही मिल पाते हैं। मैं उन लोगों में से भी नहीं जो छह महीने खटकर घर जाएंगे तभी जेब में इतना रुपया आएगा कि जिससे परिवार के छठव्रतियों के लिए सूती धोतियां, सूप, अर्घ्य देने के लिए केतारी, नारियल, नींबू और फल-फूल खरीदा जा सके।

बल्कि मैं बिहारी तो हूं, लेकिन उन फैंसी शहरी लोगों में से हूं जो बचपन से शहर में पले-बढ़े, जिनके लिए गांव गर्मी छुट्टियां होती थीं, या फिर फुलवारी की आम-लीची। हम गांव को दूर से हैरत भरी नज़रों से देखने वालों में से थे जो वहां के होते हुए भी वहां के कभी हो नहीं पाए। हम अपनी मां से अपनी मातृभाषा में बात नहीं करते। हम अभी भी बिहार आते हैं, अपने गांव, लेकिन उसी नॉन रेज़िडेंट बिहारी की तरह, जो अपने गांव-कस्बे लौटकर एक ख़ास फ़ील के लिए आते हैं, या फिर सिर्फ अपने बच्चों को ये दिखाने के लिए कि जगमगाते मॉलों, चमचमाते फ्लाईओवरों और पूरी होने को कसमसाती असंख्य ख़्वाहिशों के परे भी एक दुनिया है जो अलग-सी है, जहां हमारी जड़ें तो हैं लेकिन जहां हमारा नामोनिशां नहीं।

बस इसी बिहारी होने के ख़ास फ़ील के लिए हम छठ में घर आ जाया करते हैं दो-चार साल पर। पिछली बार मैं छठ में जब गांव आई थी तो बच्चे दो साल के थे। अब आई हूं तो छह साल के हैं। जाने अगली बार सालों का ये फ़ासला किस आरोही क्रम में बढ़ेगा!

बहरहाल, जब अनुभव ही लेना है तो कहीं कोई कटौती नहीं होनी चाहिए। अब जब छठ में घर ही जाना है तो छठ के लिए चलनेवाली स्पेशल ट्रेन क्या बुरी है? बुरी तो नहीं, लेकिन आनंद विहार टर्मिनल से खुलनेवाली इस ट्रेन का नाम सुनकर ही एक दूसरे एनआरबी यानि नॉन-रेज़िडेंट बिहारी पतिदेव का दिल बैठ गया है। (यूं तो हम दोनों बिहारी हैं, लेकिन हमारे इलाकों के बीच पूरे सूबे का फ़ासला है। मैं यूपी के सरहद से जुड़े शहर वाली, वो बंगाल जुड़े हुए शहर से। इसलिए हम दोनों बिहारी तो हैं, लेकिन पूर्व और पश्चिम का अंतर यहां भी हावी है।)

पतिदेव अक्सर सोचते हैं कि मेरी पागल बीवी अपने साथ-साथ बच्चों का भी कचूमर बनाने पर क्यों आमादा रहती है? पैरों में पहिए लगा रखे हैं, और ख़्वाहिशों को स्केट्स पर फिसलाती चलती है! उसपर उसके भाई-बंधु भी एक से बढ़कर एक। अरे सब हो जाएगा जीजाजी कहकर अपने कंधे से चिंताओं का भार झाड़कर मेरे पति के नाज़ुक कंधे पर डाल देनेवाले!

स्टेशन के लिए आते हुए दल्लूपुरा की गलियों से होकर गुज़रते ही पतिदेव का बीपी हाई होने लगा है। ये कौन-सा टर्मिनल है, और ये कैसी ट्रेन है? उसपर कमाल ये कि मेरे पास टिकट नहीं। मैं जानती नहीं कि ट्रेन नंबर क्या है। मैं ये तक नहीं जानती कि ट्रेन के खुलने का सही वक्त क्या है और हमारा रिज़र्वेशन किस बोगी में है। सोने पर सुहागा कि ट्रेन खुलने में चंद मिनट बाकी हैं और उस भाई-भौजाई का फोन लगना मुश्किल जिनके पास मेरी टिकटें हैं और जिनके साथ मैंने गाते-बजाते सीवान उतर जाने की मन-ही-मन धांसू कल्पनाएं भी कर डाली हैं। सफर करने के मामले में हम कमाल की बेपरवाह, बिंदास, डिसॉर्गेनाइज्‍ड फैमिली हैं। हम सिर्फ अपने सफ़र के अनुभवों की ही दास्तानगोई करने बैठें तो बेस्टसेलर निकाल डालेंगे! उसपर तुर्रा ये कि हर पंद्रह दिन पर फिर भी आईआरसीटीसी का कर्ज़ उतारने बैठ जाते हैं!

कुंभ का मेला तो मैंने कभी देखा नहीं, लेकिन स्टेशन पर की भीड़ को देखकर लगता है, ऐसे ही किसी मेले में लोग बिछड़ जाया करते होंगे। लगता है जैसे पूरा का पूरा भोजपुर अंचल आनंद विहार पर इकट्ठा हो गया है। मन में इस भीड़ में गुम हो जाने का अपशकुनी ख़्याल आते ही मैंने दोनों हाथों में कसकर दोनों बच्चों की हथेलियां थाम ली हैं, और उनसे झुककर कान में पूछा है, मम्मा का फोन नंबर याद है ना? अगर भीड़ में कहीं गुम हो जाओ तो किसी आंटी को कहना, मम्मा का नंबर लगा दो।

इतना कहने के बाद मैंने होठों पर इनकी और इनके जैसे बच्चों की हिफ़ाज़त के कई नि:शब्द कलमा पढ़ डाला है। दुआ का कोई रंग-रूप, शक्ल-सूरत, कोई भाषा, धर्म नहीं होता। मंगलकामना किसी अंचल विशेष की अमानत भी नहीं होती। मंगलकामनाओं के मौके ज़रूर हम अपनी-अपनी सहूलियत से मुकर्रर कर दिया करते हैं।

दिल्ली में लाखों की तादाद में बिहार से लोग रोज़ी-रोटी की तलाश में आते हैं। मेरी ही तरह यहीं रहने लग जाते हैं, और मेरी ही तरह यहां के हो भी नहीं पाते। नई बन रही इमारतों के बगल में रहनेवाले कामगर हों या चांदनी चौक की दुकानों में मोटिया या कुली का दिहाड़ी पर काम करने वाले मज़दूर, कोई रिक्शावाला हो या कोई पानवाला, या फिर किसी हिंदी न्यूज़ चैनल के दफ़्तर में बैठकर रनडाउन में अपनी ख़बर लगवाने में अपनी उम्र गंवा देनेवाला पत्रकार, कोई सरकारी मुलाज़िम या फिर किसी स्टार्टअप के साथ अपनी किस्मत के पलटी खाने का इंतज़ार करता कोई सॉफ्टवेयर इंजीनियर – सब उम्मीद यही रखते हैं कि एक दिन गांव लौट जाएंगे और अपने हिस्से आनेवाली ज़मीन पर खेती करके बुढ़ापा काट लेंगे। अपने गांव, अपने शहर लौट जाने की उम्मीद हर बिहारी के घर मिलनेवाली सत्तू की पोटली की तरह स्थायी होती है। घर, पते, मोहल्ले, पहचान भले बदल जाए, सत्तू का स्वाद वही रहता है।

सत्तू खाने वाले, पान-खैनी चबानेवाले, पीला सिंदूर लगानेवाले, बोरों में बांधकर अपनी कमाई घर ले जानेवाले बिहारियों के बीच थोड़े कम बिहारी ही सही, हम भी स्टेशन पर खड़े हो गए हैं – ट्रेन के इंतज़ार में। प्लेटफॉर्म पर पहुंचने भर की कीमत दो सौ रुपए है जो बिहार का ही एक कुली हमसे लेता है, अपने ठेले पर हमारा सामान और हमारे बच्चे लादकर सही-सलामत बोगी के सामने तक पहुंचा देने के एवज़ में। उस ठेले का ये फ़ायदा होता है कि हमें प्लेटफॉर्म तक पहुंच जाने के लिए रास्ता मिल गया है और बच्चे भीड़ की धक्का-मुक्की से बच जाते हैं। आद्या और आदित के साथ उनका एक भाई भी है – दो साल का अद्वय। तीन बच्चों की सुरक्षा के लिए हम तीन वयस्क तैयार हैं – भाई-भौजाई और मैं। पतिदेव ने प्लेटफॉर्म पर हमारे साथ खड़े होकर एक अनिश्चितकाल के लिए लेटलतीफ़ ट्रेन का हमारे साथ इंतज़ार करने से बेहतर घर लौटकर कुछ काम निपटा लेना समझा है। उनकी बिहारियत इस बात से तय नहीं होती कि वो इस भेड़ियाधसान में छठ मनाने के लिए घर पहुंच पाते हैं या नहीं।

ट्रेन पर सिर्फ चढ़ भर पाने की मशक्कत शैल चतुर्वेदी की हास्य कविता रेलयात्राको मात दे देती है। पूरी ट्रेन में एसी की एक ही बोगी है और छह लोगों के कंपार्टमेंट में कुल ग्यारह लोग हैं – पांच वयस्क और छह बच्चे। ये तो वाकई शुभ यात्रा हो गई है जी!

सब बिहारी एक ही मकसद से सफ़र कर रहे हैं। सब बिहारी एक ही भाषा में बात कर रहे हैं। सब बिहारियों का गंतव्य एक ही है। सब बिहारियों की पहचान एक जैसी ही है कि सब देस में होते हुए भी परदेसी हैं। सब यहां के होते हुए भी कहीं के नहीं हैं। ये सारे बिहारी मुसाफ़िर हैं और रहते कहीं और हैं, लेकिन इनका घर कहीं और है। सबने अपने उस घर लौट जाने का अपना सपना बचाए रखा है। सब छठ के घाट पर डूबते-उगते सूरज के सामने नतमस्तक होकर आशीर्वाद में मंगलकामना ही करेंगे – सुख-संपत्ति, स्वास्थ्य, सफलता और घर-परिवार, संतान की सुरक्षा। सबके दुखों का रंग-रूप भी एक सा ही होता होगा, लेकिन सब बिहारी फिर भी एक-दूसरे से कितने जुदा से हैं!

और मैंने घर पहुंचकर पूरी बिहारन बन जाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। पैरों में आलता लग गया है, धूप में बैठकर गेहूं सुखाने की प्रक्रिया शुरू हो गई है और मोबाईल पर शारदा सिन्हा छठ के गीत सुने जाने लगे हैं।
      
PS: 4 जी के डेटाकार्ड पर तस्वीरें डालने की कोशिशें नाकाम रहीं, और ब्लॉग पर पोस्ट करने की भी। एफबी पर किस्मत आज़मा रही हूं। :(    
     

बुधवार, 7 नवंबर 2012

...कि मर जाना इकलौता सच है

बयालीस साल... बयालीस साल कोई गुज़ारता है साथ-साथ। और फिर एक दिन दोनों में से कोई एक चला जाता है चुपचाप। जो रह जाता है, उसकी तन्हाई और तकलीफ़ के बारे में चाहे जितना चाह लें, कुछ भी लिखा नहीं जा सकता। सब दिखता है, फिर भी नहीं दिखता। सब समझ में आता है, फिर भी समझना नहीं चाहते हम।

मृत्यु - ज़िन्दगी के इस सबसे बड़े, सबसे कठोर और इकलौते शाश्वत सत्य से क्यों फिर भी स्वीकार नहीं कर पाते हम? क्यों लिखने से डर रही हूं कि अब धीरे-धीरे हमारे आस-पास मौजूद मां-पापा, चाचा-चाची, अंकल-आटी, मामा-मामी, मौसी-मौसा, बुआ-फूफा की जोड़ियां बिखरेंगी और फिर एक दिन हम भी इसी दहलीज़ पर होंगे जहां आगे घनघोर तन्हाई दिखती है, जहां होते हुए ना खुलकर रोया जा सकता है ना ख़ामोश रहा जा सकता है... जहां से सरकते हुए वक्त में पिछले कई दशकों की परछाईयां देखते हुए अपनी ज़िन्दगी के कट जाने का इंतज़ार ही किया जा सकता है बस।

सच है कि हम भी मरनेवालों का शोक मनाएंगे एक दिन। हम भी बिना अलविदा कहे चले जाएंगे एक दिन।

और चले जाएंगे आस-पास के लोग धीरे-धीरे, कि मर जाना इस ज़िन्दगी का इकलौता सच है। ।



बड़ा मुश्किल है
कुछ चीज़ों के बारे में सोच पाना

जैसे कि पहले पापा गुज़र जाएंगे, या मम्मी।



उस दिन भी रख दिया था
आपका चश्मा पोंछकर मेज़ पर

आपने लेकिन अपनी आंखें फिर ना खोलीं।



नहीं लौटेंगे बाबा
ये तो कई सालों से जानती हूं

उनके नकली दांत अभी भी हंसते हैं इस बात पर।



अब भी वैसे ही है
हैंगर में टंगा हुआ नीला सफ़ारी-सूट

बस मेरी साड़ियों के रंग उतार लिए गए हैं।



सब कट ही जाता है,
घंटे, दिन, रात, हफ्ते, महीने, साल, उम्र

एक चाय की सुड़कियों वाला लम्हा नहीं कटता।