मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

एक 'ऑलमोस्ट सक्सेसफुल' मां की डायरी

इस शहर में सुबहें बड़ी खाली होती हैं। सड़कें खाली, रास्ते खाली, पार्क खाली, बसें खाली, लोकल ट्रेन खाली। खाली सड़कों पर बहुत देर तक तेज़-तेज़ चलते रहने के बाद भी आराम नहीं आता।

मैं इतनी बेचैन क्यों हूं?

जॉगिंग शूज़ पहनकर निकले इतनी सुबह निकले इतने सारे लोग बेचैनी कम करने के लिए बाहर निकले हैं या अपना वज़न कम करने के लिए?

ये शहर बेचैन लोगों का शहर है। सब बैचैन हैं। या मुझे ही बेचैन दिखते हैं लोग।

एक और बीमारी हो गई है आजकल। जिस औरत को काम पर जाते देखती हूं, उसके पीछे छूट गए घर के बारे में सोचती हूं। कब लौटती होगी वो? उसके बच्चे होंगे क्या? उनका होमवर्क कौन कराता होगा? सुबह कितने बजे उठकर खाना बनाया होगा? पार्क में बच्चों के साथ चलती मांओं को देखती रहती हूं। बच्चे को बड़ा करने के अलावा कोई और मकसद होगा क्या इनकी ज़िन्दगी का?

मैं पार्क के कोने में बेंच पर बैठने लगती हूं तो देखती हूं एक बुज़ुर्ग महिला अपने से भी कहीं ज़्यादा उम्रदराज़ शख़्स को धीरे-धीरे हाथ पकड़कर टहला रही हैं। जाने कौन किसको टहला रहे है, लेकिन इन दोनों को देखकर मैं बहुत बेचैन हो जाती हूं। इनका खाना कौन बनाता होगा? कैसे रहते होंगे इतने बड़े शहर में दोनों? दो लाचार लोग क्या साथ दे पाते होंगे एक-दूसरे का? इनका परिवार नहीं है? बच्चे होंगे या नहीं? इसी अकेलेपन और लाचारी से बचने के लिए तो हिंदुस्तान में लोग परिवार बनाते हैं, बच्चे पैदा करते हैं। बच्चे - बुढ़ापे का सहारा। बेटा - बुढ़ापे की लाठी। फिर भी अकेले रह जाते हैं लोग। बुढ़ापा किसी पर दया नहीं दिखाता। बीमारी किसी को नहीं बख़्शती। बेचारगी और अकेलापन अकाट्य सत्य है। अवश्यंभावी। किसी मां के लिए भी, और पिता के लिए भी।

गले में कुछ अटककर रह जाता है। ऐसे ही किसी लम्हे ने युवराज सिद्धार्थ को घर छोड़ने पर मजबूर कर दिया होगा।

शाम की हवा भी सुकून नहीं लाती। मन है कि मधुमक्खियों का छत्ता हो गया है। कोई एक लम्हा फेंको नहीं इधर कि सवालों के झुंड डंक मारने को दौड़ते हैं।

हम किस तलाश में हैं?

ज़िन्दगी का हासिल क्या हो?

अगर यही लाचारी आख़िरी सच है तो फिर इतनी भागमभाग क्यों?

वक़्त मेरे नाम का बहीखाता खोलेगा तो क्या-क्या निकलेगा बाहर? बच्चों के बड़े होने जाने पर ऐसी ही तन्हाई मिलती है क्या? मैंने अपनी मां को कहां छोड़ दिया? मेरे बच्चे मुझे कहां छोड़ देंगे? मैं ंकिसके लिए कर रही हूं ये सब? ज़िन्दगी में आसानी चुनने से इतना परहेज़ क्यों?

मुझे इतनी घबराहट हो रही है कि लग रहा है कि जैसे पार्क की बेंच पर, यहीं बैठे-बैठे उल्टी हो जाएगी। अंदर कुछ है जो निकल पड़ने को व्याकुल है। ये नॉसिया उसी साइकोसोमैटिक डिसॉर्डर का नतीजा है। मैं इस लम्हे, ठीक इसी लम्हे, लौट जाना चाहती हूं। पता नहीं कहां, लेकिन लौट जाना चाहती हूं कहीं।

घबराकर फोन देखती हूं। किसको फोन करूं? किससे बात करूं? इन बेचैनियों को यूं भी शब्द नहीं दिए जा सकते। क्या कहूंगी, कि बच्चों को घर पर छोड़ आई और बाहर इसलिए भटक रही हूं क्योंकि सवालों की मधुमक्खियां पीछा कर रही हैं?

सोलह साल में ऐसी बेचैनी होती थी। इस उम्र में भी होगी? सोलह साल में भी इतने ही सवाल थे। बड़े होकर करना क्या है? ज़िन्दगी का मक़सद क्या हो? कमबख़्त ये सवाल ऐसा है कि अब भी पीछा नहीं छोड़ता। मेरी ज़िन्दगी का मक़सद क्या था? मैं कहां भटक गई?

फिर ताज़िन्दगी जवाब मिलते क्यों नहीं, कि हम किस चीज़ का पीछा कर रहे होते हैं। मर ही जाना है तो जीने के आरज़ू क्योंकर हो?

ये मैं नहीं, मेरे भीतर से कोई और बोल रहा है। मेरा उस आवाज़ पर कोई बस नहीं चलता और मेरी तमाम समझदारियों को वो एक आवाज़ अक्सर बेक़ाबू कर देती है।

फोन पर गूगल खुल गया है और मैं वर्किंग मदर्स गूगल करती हूं। पता नहीं क्यों? मेरे भीतर की सारी लड़ाई ही यही है। मां होने और प्रोफेशनल होने के बीच की। दोनों होने की कोशिश कई कुर्बानियां मांगती है। जब इतना ही मुश्किल है सबकुछ तो हार क्यों नहीं मान जाती मैं? आसानियों की राह चुन लेना मेरी भी ज़िन्दगी आसान कर देगा, और मेरे बच्चों की भी। शाम को उन्हें सुलाने के बाद देर रात तक लैपटॉप पर आंखें फोड़ने से मुझे निजात मिलेगा, और सुबह तक जलती बत्ती में सोने की मजबूरी से बच्चों को। उन्हें स्कूल से लौटते हुए ये डर नहीं सताएगा कि बस स्टॉप पर उन्हें लेने के लिए कोई होगा या नहीं। मुझे इस तनाव से छुट्टी मिल जाएगी कि बच्चे जिस दिन घर पर हों उस दिन मीटिंग के लिए कैसे जाऊंगी मैं?

मैं क्यों उलझ रही हूं इतना? क्यों ज़रूरी है काम करना?

जवाब ढूंढने के लिए मैं फोन पर फिर से सक्सेसफुल मदर्स टाईप करती हूं।

फिर पावर वूमैन।

मुझे आजकल उन तमाम औरतों की कहानियां आकर्षित करती हैं जो अपने-अपने स्तर पर अपनी-अपनी किस्मतों से अलग-अलग तरीके से संघर्ष कर रही हैं। अपने सपनों का पीछा करते हुए कड़ी आलोचनाओं और समाज के पूर्वाग्रहों को दरकिनार करते हुए कैसे बनाई जाती होंगी राहें? मां तो वो है न जो दूसरों के ख़्वाबों को पालती-पोसती हो - मेरी मां की तरह - ताकि उनके पति-बच्चे-परिवार अपनी ज़िन्दगियां, अपने ख़्वाब जी सकें।

अपनी मां के ज़रिए मैंने दूसरों का ख़्वाब जीने वालों को बहुत देखा है।

मैं औरतों के लिए गाली जैसा लगने वाला शब्द - 'ambitious' - महत्वाकांक्षी औरतों के बारे में जानना चाहती हूं।

कैसी औरतें होंगी जो घर और बाहर, सबपर काबिज़ दिखाई देती हैं? उनकी बेचैनियों के बारे में किसी ने तो लिखा होगा कहीं।

जवाब फिर भी नहीं मिलते, और नाम वही गिने-चुने - सिंडी क्रॉफर्ड, माधुरी दीक्षित, फराह खान, नैना लाल किदवई, लीला सेठ, सुष्मिता सेन, एंजेलिना जोली और बीच-बीच में कहीं मेरी कॉम, गीता गोपीनाथ...

मैं कई और बहुत सारी औरतों के बारे में सोचती हूं। अपनी मां के बारे में सोचती हूं।

गूगल ही मुझे टॉनी मॉरिसन के एक इंटरव्यू की ओर लेकर चला जाता है।

टोनी मॉरिसन। एक और मां। एक और वो मां, औरत, जिसने अपनी लेखनी के ज़रिए मदरहुड को नए सिरे से परिभाषित किया। टोनी की रची हुई मांएं मातृत्व के सारे स्टीरियोटाईप्स तोड़ती हैं। टोनी की रची हुई औरतें के परिवार समाज के तय किए हुए सभी मापदंडों की अ"द ब्लुएस्ट आई" टोनी मॉरिसन की पहली किताब थी जो मैंने आद्या और आदित के आने के दौरान पढ़ा था, जब मैटरनिटी लीव पर थी। फिर 'Beloved' पढ़ी, और फिर 'Sula'. दोनों नॉवेल्स के ज़रिए मातृत्व पर - मां होने पर - मां की भूमिका पर इन दोनों किताबों ने मेरे भीतर कई पैमाने तय किए थे।

टोनी मॉरिसन की रची हुई मांएं भी अलग-अलग किस्मों की होती हैं। उनमें सेथे जैसी मां होती है जो अपने बच्चों को इस हद तक प्यार करती है कि उन्हें अपनी निजी जागीर समझती है। उनमें बेबी जैसी मां भी होती है जो नाप-तौल कर अपने हिस्से के प्यार इस डर से अपने बच्चों को देती है कि कहीं उसके अपने ही बच्चे उसे बहुत कमज़ोर और बेचारी न बना दें। ये रंगभेद और नस्लभेद, गरीबी और गुलामी के बीच अपने बच्चों को पालने वाली मांएं हैं। ये वो मांएं हैं जो अपने बच्चों को बेचने की बजाए उन्हें मार डालना ज़्यादा उचित समझती हैं। ये वो मांएं हैं जो रचती भी हैं, विनाश भी करती हैं।

और इन सब किरदारों को रचनेवाली मां है टोनी मॉरिसन। टोनी ने जब अपनी पहली किताब - द ब्लुएस्ट आई - शुरू की, वो एक नौकरी करने के साथ-साथ दो बेटों को अकेले पाल रही थीं। नौकरी पर जाने से पहले हर सुबह चार बजे लिखने के लिए उठती थीं। बकौल टोनी, जब भी उनकी हिम्मत जवाब देने लगती, वो अपनी दादी के बारे में सोचतीं जो ग़ुलामी और बेइज़्जती की ज़िन्दगी से बचने के लिए एक दिन अपने सात बच्चों के साथ दक्षिण से भाग आई थी। तब पेट भरने का भी कोई साधन नहीं था उनके पास। लेकिन मां का एक रूप ये भी होता है कि वो हर हाल में अपने बच्चों के पेट भरने का इंतज़ाम कर ही लेती है, चाहे उसे कृपी की तरह दूध के नाम पर पानी में आटा ही घोलकर क्यों न पिलाना पड़े।

टोनी का इंटरव्यू पढ़ते हुए लगता है कि कोई तीसरी आंख है जो खुल गई है भीतर। मैं हर रोज़ तो देखती हूं ये, फिर इस बात का यकीन क्यों नहीं होता कि बच्चों की ज़रूरतें बहुत कम होती हैं। बच्चों की ज़रूरतों से ज़्यादा मां के ज़ेहन में उसे ही काट खाने को बैठा गिल्ट होता है। उससे भी बड़ी रोज़-रोज़ की जद्दोज़ेहद होती है।

जो मां कामकाजी या 'ambitious' होती है, उसके लिए ये संघर्ष और भी बड़ा हो जाता है क्योंकि मां के तौर पर आपके सिर पर रोल मॉडल बन जाने का दबाव भी होता है।

चाहे जो भी हो, मां हैं आप तो अपने बच्चों के सामने बिखर नहीं सकते। उनके सामने कमज़ोर नहीं पड़ सकते। आपको हारते-टूटते हुए देखना आपके बच्चों के लिए सबसे बड़ा सदमा होता है। आपके बच्चे आपको एक adult, एक समझदार adult के तौर पर देखना चाहते हैं। और बच्चों को याद नहीं रहता कि उनकी मां के बाल कैसे हुआ करते थे। उन्हें ये ज़रूर याद रहता है कि हर हाल में मां ने सेंस ऑफ ह्यूमर कैसे बचाए रखा था अपना। ये याद रहता है कि अपनी विपरीत परिस्थितियों से हंसते हुए कैसे जूझा करती थी मां।

बच्चे अगर मां की ज़िन्दगी के दिए हुए लम्हों का योग हैं, तो फिर उनकी ख़ातिर अपने सपनों को बचाए रखना और ज़रूरी हो जाता है। टुकड़ों-टुकड़ों में अपने सपने जीकर दिखाएंगे बच्चों को, तो उन्हें अपने नामुमकिन सपनों पर यकीन होगा। इसके एवज में कई छोटे-छोटे लम्हों की क़ुर्बानियां देनी होती हैं, जिनमें उनके लिए हर शाम ठीक पांच बजे आटे का हलवा बना पाने का संतोष भी होता है।

इसलिए, सारे सवाल बेमानी हैं।

मैं टोनी मॉरिसन को थैंक यू बोलने को उठने को ही हूं कि देखती हूं, वो बुज़ुर्ग महिला फोन पर हंस-हंसकर बात कर रही है। फिर वो फोन अपने साथ बैठे अपने पति की ओर बढ़ा देती है। उनके चेहरों पर आई चमक गौतम सिद्धार्थ ने देखी होती न, तो सिद्धि यहीं मिल गई होती। जरा, मरण और दुखों से मुक्ति दिलाने के लिए जिस मार्ग की खोज में सिद्धार्थ ने घर छोड़ा, उसी घर में अपने नवजात शिशु को बड़ा करते हुए, अपने वृद्ध सास-ससुर की सेवा करते हुए, अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए, अपनी परिस्थितियों के ठीक बीचों-बीच ज़िन्दगी से जूझते हुए साध्वी यशोधरा ने निर्वाण की राह ढूंढ ली। गृहत्याग तभी किया जब कर्तव्यों को पूरा कर लिया. अपने कर्मों को जी लिया।

अभी कुछ देर पहले तक जिसकी लाचारी ने भीतर तक परेशान किया था, उसी कर्मठ बुज़ुर्ग औरत के लिए बहुत सारा प्यार उमड़ आया मन में। बेचैनी और सुकून के बीच एक नैनोसेकेंड की दूरी होती है। सब खेल मन का है।

जवाब मिल गया है। अपने कर्मों को हर दिन जीने में। अपने हालातों को बदलने के लिए बेचैन होने से ज़्यादा उसी के बीच से रास्ता निकालने में।

अब मैं किसी सुपर सक्सेसफुल मदर के बारे में नहीं जानना चाहती।

ज़िन्दगी की जंग का फ़ैसला एक दिन, एक हफ्ते, एक महीने, एक साल में नहीं होता। ज़िन्दगी की जंग आख़िरी सांस तक लड़ी जाती है और ये जो जीत और हार का अहसास है न, वो व्यक्ति सापेक्ष होता है - सफलता की परिभाषा की तरह। और ये पैमाने हम तय करते हैं अपने लिए। कोई और नहीं करता।

मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

रौंद दिए जाने का सुख

1.

उड़ उड़ जाने दो
और फिसल जाने दो  
रोक कर थाम कर जो रक्खे हैं क़दम
थोड़ी ठोकर लगे 
थोड़े घुटने छिलें 
तब तो मानेंगे कि हम थे चले दो क़दम 

हर हमेशा संभाला है चलते हुए 
फ़िक्र की है कि कोई भी जाने नहीं 
कोई देखे नहीं हमको गिरते हुए 

गिन लिए फॉर्मूले, तय किए रास्ते 
पढ़ लिए क़ामयाबी के कुछ फ़लसफ़े
कभी ढूंढा नहीं 
कभी पूछा नहीं
इनमें क्या सच रहा और क्या था वहम 

मैं भी डरती रही, तुम भी डरते रहे 
जो न देखा सुना वो नया ही रहा 
ख़ौफ़ खाते रहे हर नई दुनिया से हम 

हर बदलते हुए को बेमुरव्वत कहा 
चुन लीं कुछ गालियां, हाथ पत्थर लिए 
जो बदलने चला वो ज़हर ही पिए  
मैं तो फिर भी कहूं 
कि चलो कुछ करें 
कुछ बदलने का बाकी रहे इक भरम 

उड़ उड़ जाने दो
और फिसल जाने दो  
रोक कर थाम कर जो रक्खे हैं क़दम

2. 

गुल्लक में बचाकर रखे 
छोटी ईया के दिए हुए पैसे
उनसे खरीदी हुई पेंसिलें,
चुकाई हुई फ़ीस 
रिक्शेवाले के चार रुपए
पानी में घुली हॉर्लिक्स 
और सबके हिस्से में आया 
दो मिल्क बिकिस 

एस्बेस्टस की छत से 
छनकर आती धूप 
टूटी हुई प्लास्टर वाली 
एक कच्ची-पक्की दीवार 
और रफू की हुई फ्रॉक में 
चमकता कच्चा रूप 
एक अंतर्देशीय में आया
नानी का 'शुभासीस'

कोनों पर लटकते जाले 
सोफे पर गिरे हल्दी के दाग़
बूंद-बूंद रिसता 
वॉश बेसिन का नल 
बेमौसम उजड़ गया 
एक बदकिस्मत बाग़
धूल खाती साइकिल
मुंह चिढ़ाता अलीगढ़ी ताला 
घर बंद कर शहर-शहर 
भटकने की कोई एक टीस

कविता नहीं होती 
सुंदर, शीतल शब्दों, भावों,
बिंबों का मायाजाल
कविता नहीं होती 
सिर्फ प्रेम की ऊष्णता
कविता होती है 
नोस्टालजिया के प्रति कृतज्ञता 
और कभी-कभी रौंद दिए जाने का
सुख भी होती है कविता!










  


शनिवार, 14 दिसंबर 2013

कई कामों के बीच एक काम

ये कहने की बात नहीं है कि मैं अपने बाबा के बारे में सबसे ज़्यादा सोचती हूं। ये भी कहने की बात नहीं है कि मेरी ज़िन्दगी के फ़लसफ़ों, सही और ग़लत, जीने के तरीकों, निस्बत निभाने और तोड़ने की रस्मों का आधार रहे हैं बाबा।

दो दिन से मैं बिस्तर का एक कोना और एक लैपटॉप पकड़े बैठी हूं। गले से आवाज़ नहीं निकल रही, जिसका फ़ायदा ये है कि बोलना - बच्चों से, या किसी और से - आपकी मजबूरी नहीं। आप किसी से फ़ोन पर बात नहीं कर सकते। आप किसी से न मिलने जा सकते हैं, न बुलाने आ सकते हैं। तबीयत ठीक न होने का बहाना है, इसलिए नहाना, खाना, कपड़े धोना, दूध और सब्ज़ियों की चिंता करना, बच्चों के पीटीएम के बारे में याद रखना, होमवर्क कराना - ये सारे काम यकायक बेमानी और ग़ैर-ज़रूरी हो जाते हैं। जब ज़रूरी काम बेमानी हो जाएं तो ज़ाहिर है, ग़ैर-ज़रूरी कामों को तवज्जो दिया जाना चाहिए। इन ग़ैर-ज़रूरी कामों में ये सोचना कि मुझे कई महीनों से पार्क में बैठने की फ़ुर्सत नहीं मिली, भी एक है। इन्हीं ग़ैर-ज़रूरी कामों में बेवजह अपनी ज़िन्दगी के बारे में सोचना, चिंतन करना भी एक है।

मैं आजकल बहुत काम करने लगी हूं। बहुत सारे काम। ऐसे कि जैसे उन गुज़रे हुए सालों की भरपाई करनी है जब बच्चों को बड़ा करते हुए काम से ख़ुद को बहुत दूर रखा था। ऐसा लगता है जैसे सिर पर जुनून सवार है कोई। इतनी मेहनत का हासिल क्या है, ये सोच ही रही हूं कि अचानक बाबा का ख़्याल आता है। बाबा का, और मम्मी का क्योंकि मेरी ज़िन्दगी पर इन्हीं दो लोगों का सबसे गहरा असर रहा है।

मुझे एक वाकया याद आ रहा है। मेरे बाबा को गठिया की बीमारी थी, इतनी ही भयंकर कि सूजे हुए पांवों की तकलीफ़ चलना-फिरना तक मुश्किल कर दिया करती थी। उनकी सुबहें पांवों की सिंकाई से होती और उनका इतवार शहर के दूर-दराज़ कोनों में जाकर वैद्य-हकीमों से दवाईयां लाने में गुज़रता। लेकिन इतने दर्द के बावजूद मुझे कम से कम अपने होश में तो याद नहीं कि बाबा ने छुट्टी ली हो, या काम पर नहीं गए हों। उनमें ग़ज़ब की सहनशक्ति थी।

ख़ैर, हुआ यूं कि बाबा के बाएं पांव में फ्रैक्चर आ गया, बस ऐसे ही चलते-चलते। डॉक्टरों ने प्लास्टर लगा दिया और कहा कि गठिया की वजह से हड्डी कमज़ोर हो गई होगी, इसलिए फ्रैक्चर हो गया। फ्रैक्चर था जो छह हफ्ते उन्हें आराम करना चाहिए था। बाबा फिर भी काम पर, अपनी फैक्टरी जाते रहे। एक दिन तो हद ही हो गई। बाबा ठीक साढ़े सात बजे ऑफिस के लिए निकल जाया करते थे। आंधी-तूफान, जाड़ा-गर्मी, ईद-दीवाली - कोई भी बहाना साढ़े सात का पौने आठ नहीं कर सका। उस दिन बाबा का ड्राईवर वक़्त पर नहीं आया। प्लास्टर लगे हुए पांव से लंगड़ाते हुए बाबा गाड़ी तक पहुंचे, और उन्होंने वैसे ही गाड़ी निकाल ली। सब बदल सकता था, काम पर जाने का वक़्त नहीं बदल सकता था।

पूरी ज़िन्दगी हमने बाबा को ऐसे ही काम करते देखा है। वो धुनी थे, जुनूनी। जो ठान लेते थे, करते थे। बातें बहुत कम करते थे, काम बहुत ज़्यादा करते थे। बारह सौ लोगों के कारखाने में लगी असेम्बली लाइन्स की मशीनें नाम और मैन्युफैक्चरिंग डेट से याद दी उन्हें। ख़राब, बंद पड़ी मशीनें उन्हें नापसंद थीं। हर मशीन का सुचारु रुप से चलते रहना अपनी नैतिक ज़िम्मेदारी मानते थे।

कमाल है कि वर्कॉहोलिक होते हुए भी हमें अपनी ज़िन्दगी के जो सबसे ख़ुशनुमा लम्हे मिले, वो बाबा से ही मिले। पिकनिक्स, रोड-ट्रिप्स, छुट्टियां, होली-दीवाली की शॉपिंग, पार्टियां, स्कूल फंक्शन्स में बाबा की उपस्थिति, बीमार होने पर उनके पेट का तकिया... मेरी सारी यादों में बाबा ही हैं। ये भी याद है कि मुझे पहली बार चम्मच पकड़ना भी उन्होंने ही सिखाया और vowel-consonant में अंतर भी। मुझे ये भी याद है कि फैक्ट्री जाने से पहले बाबा अपनी चाय में बिस्कुट डुबो-डुबोकर खिलाते थे और उसके बाद मुझे नहलाकर, स्कूल के लिए तैयार कर काम पर जाते थे। ये भी याद है कि फैक्ट्री से आने के बाद एक उन्हीं के पास मेरे दिन का लेखा-जोखा सुनने के लिए वक्त होता था। ये भी याद है कि मैंने सबसे ज़्यादा फिल्में बाबा के साथ देखीं, और सबसे ज़्यादा लोगों से उन्हीं की बदौलत मिली।

कैसे करते थे ये सब बाबा? लेकिन करते थे। हर साल दिवाली पर घर की सफाई के बाद पहले फैक्ट्री जाते थे, फिर वापस लौटकर पंजाब स्वीट हाउस (और बाद में स्वीटको) से मिठाई पैक कराकर शहर के दूसरे कोनों में रहने वाले अपने करीबी दोस्तों के घर जाते थे और फिर लौटकर हमारे साथ पटाखे भी खरीद आते थे, दिए भी लगा दिया करते थे। बाबा के जितने दोस्त, जानकार, चाहने वाले थे उनके लिए उन्हें वक़्त कैसे मिलता था, पता नहीं। लेकिन हर शादियों का न्यौता कर आते थे। किसी का आमंत्रण नज़रअंदाज़ नहीं करते थे कभी। और ये सब पंद्रह-सोलह घंटे काम करने के बाद! घर में सब्ज़ी है या नहीं, किसे डॉक्टर के पास जाना है और किसके जूते छोटे हो गए हैं, ये भी एक बाबा को ही पता रहता था। मेरी सहेलियों के नाम और उनके घरों के पते भी एक उन्हीं को मालूम थे।

अब ऐसे किसी सुपर-ह्युमन ने आपको पाल-पोस कर बड़ा किया हो, ऐसा कोई इंसान आपका वजूद हो, ऐसे किसी इंसान की पहचान आपकी रगों में बहता हो तो आप ख़ुद उतने ही जुनूनी, फ़ितूरी, पागल नहीं होंगे?

मैं अक्सर सोचती हूं कि इतनी मेहनत करने का क्या फ़ायदा होता है? आख़िर एक दिन सबकुछ छोड़कर चला तो जाता है इंसान। क्या रख जाता है पीछे? ये इतनी हाय-तौबा किसलिए है? इस हाय-तौबा का हासिल क्या है? मैं क्यों पागलों की तरह अपने सिर पर लादे रहती हूं एक हज़ार काम? रोज़ी-रोटी तो कतई वजह नहीं है।

फिर बाबा का ही जवाब याद आता है जो एक दिन छत पर धूप सेंकते हुए, तिलकुट का टुकड़ा मुंह में डालते हुए कहा था उन्होंने, "ये दुनिया वैसी की वैसी ही रहेगी चाहे हम काम करें या कामचोरी, चाहे हम अपनी ज़िन्दगियों को बदलें या जैसे थे, वैसे ही रहें। बदलता कुछ और थोड़े है? हम किसी और के लिए काम थोड़े न करते हैं? हम अपने लिए काम करते हैं। हम यहां इस नश्वर दुनिया में कुछ जोड़ना चाहते हैं, इसलिए काम करते हैं। मरना तो हर हाल में है। ज़रूरी ये है कि आपने ज़िन्दगी जी किस तरह। तुम तय कर लो कि तुम कैसे जीना चाहती हो।" मुश्किल ये है कि मैंने बड़ी छोटी उम्र में ही बाबा की तरह जीना तय कर लिया था अपने लिए।

काम तो एक बहाना है। ख़ुद को कारगर बनाए रखने का एक सबब भर है। अहम बात ये है कि आपने क्या-क्या बदला। अपने इर्द-गिर्द ही नहीं, अपने भीतर भी। आपने कौन-कौन सी चुनौतियां स्वीकार कीं। आपने हर रोज़ ख़ुद को ज़ाया होने से कैसे बचाया। आप ख़ुद के प्रति कितने ईमानदार रहे।

ये भी नहीं कि जीने का यही एक तरीका सही है और बाकी सारे ग़लत। मुश्किल ये है कि मैंने जीने का यही एक तरीका सीखा है। और ये भी समझ गई हूं कि हम जब कुछ भी नहीं कर रहे होते न, तब भी कई ज़रूरी काम कर रहे होते हैं। बाबा के सिखाए हुए ज़िन्दगी के फ़लसफ़ों में से अपने काम की चीज़ें निकाल कर रख लेना भी तो एक बेहद ज़रूरी काम है!

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

मेरी बर्बादियों का वो आग़ाज़ था

स्कूल रिक्शे से जाया करती थी। चौथी या पांचवीं में पढ़ती थी तब। न जाने कैसे कविताएं लिखने का शौक सवार हो गया। आड़ी-तिरछी, बेतुकी लेकिन तुकवाली कविताओं से स्कूल की कॉपियों के पिछले पन्ने भरने लगे। कुछ अपनी कविताएं होतीं, कुछ नंदन-चंपक में छपी कविताओं की नकल होती। लेकिन शौक़ था और ख़ूब था। घर में किसी को मेरा ये फ़ितूर समझ में नहीं आता था। या शायद समझ में आता भी हो तो इसका क्या किया जाए, ये समझ में नहीं आता होगा। बहरहाल, मैं आड़ा-तिरछा लिखती रही।

एक दिन रेडियो पर संडे की सुबह 'बाल सभा' के नाम का कार्यक्रम क्या सुन लिया, शौक़ को तो पंख ही लग गए। अगले ही दिन स्कूल से घर लौटते हुए रास्ते में रिक्शा रुकवाया, सड़क पार करके रेडियो स्टेशन के गेट के पास पहुंच गई। चौकीदार से कहा, बाल सभा वालों से मिलना है। चौकीदार ने वापस लौटा दिया और मैं अगले दिन फिर लौटने का अनकहा वादा करके रिक्शे पर बैठकर घर लौट आई। तीन दिन में ही चौकीदार ने हथियार डाल दिए और मुझे बाल सभा की प्रोड्युसर से मिलने के लिए भीतर भेज दिया। अगले संडे मैं रेडियो पर थी, अपनी वही आड़ी-तिरछी कविताएं पढ़ती हुई और फिर वो सिलसिला चल पड़ा।

मुद्दा ये नहीं कि मैं कविताएं लिखती थी और रेडियो स्टेशन पर पढ़ती थी। (मैं तब भी बहुत ख़राब कविताएं लिखती थी और अब तो उससे भी ख़राब लिखती हूं) मुद्दा ये है कि पहले महीने मुझे साठ रुपए का एक चेक मिला था। उस चेक को घर लाते हुए जितनी ख़ुशी हुई थी, उतनी इतने सालों बाद उसके बारे में सोचकर अब भी होती है। उससे ज़्यादा ख़ुशी इस बात की हुई थी कि बाबा ने तुरंत मम्मी को कहा था कि मुझे बैंक लेकर जाएं और एक ज्वाइंट अकाउंट खुलावाएं मेरा और मम्मी का। अब तो ये हर महीने साठ रुपए लेकर आया करेगी, उनके चेहरे पर फख़्र था।

जिस दिन बाबा के चेहरे पर, मम्मी की आंखों की चमक को मैंने फ़ख्र का नाम दे दिया था, ठीक उसी दिन मेरी बर्बादी शुरू हो गई थी, जो आज तक रुकी नहीं।

कल पूरी शाम परेशान रही। मैं कहीं और थी, ध्यान कहीं और। दस साल की उम्र में कैसी बेचैनी थी ये? मैं क्या बदलना चाहती थी, और क्यों? मेरी उम्र के बाकी बच्चे तो कुछ और कर रहे थे मेरे आस-पास। मैं नॉर्मल क्यों नहीं थी? हर बार अपने हालात बदलते जाने की ये कैसी बेतुकी ज़िद थी? नियति स्वीकार क्यों नहीं कर लिया करती थी? सवाल क्यों पूछती थी इतना? क्या बदलना चाहती थी? किसे बदलना चाहती थी?

शांति से न बैठने की ज़िद दस साल के बाद भी कम नहीं हुई, बढ़ती चली गई। मैं हिंदी मीडियम स्कूल में पढ़ती थी, और दोनों भाई इंग्लिश मीडियम में। पता नहीं किससे स्पर्धा थी, लेकिन मैं सुबह नौ बजे से पांच बजे तक स्कूल में होने से पहले साढ़े सात से साढ़े आठ अंग्रेज़ी सीख रही होती थी - बक़ायदा क्लास में बैठकर। उस क्लास में सबसे छोटी थी - दस साल की। बाकी सारे कॉलेज में पढ़ रहे थे। स्कूल से लौटने के बाद होमवर्क और अपनी पढ़ाई करने के बाद मैं भाई की किताबें पढ़कर, लाइब्रेरी से किताबें लाकर अंग्रेज़ी पढ़ा रही होती ख़ुद को। मेरे लिए हर रोज़ एक चुनौती होता था। मैं हर रोज़ ख़ुद से बेहतर होना चाहती थी।

मेरी बर्बादी का ग्राफ ऊंचा चढ़ता रहा, और ऊंचा...

दसवीं के इम्तिहानों के बाद मेरे आस-पास के लोग छुट्टियां मना रहे थे और मैं सुबह साढ़े आठ से साढ़े बारह एक नर्सरी स्कूल में पढ़ा रही थी - ढाई सौ रुपए की तनख़्वाह पर। बारहवीं के बाद सब आराम फ़रमा रहे थे। मैं बेवकूफ़ कलकत्ते जाकर अमेरिकन लाइब्रेरी की खाक छान रही थी और पता करने की कोशिश कर रही थी कि सैट या टोफ़ल - बाहर की यूनिवर्सिटी में दाख़िले का रास्ता क्या होता है।

कॉलेज फर्स्ट ईयर के बाद की गर्मी छुट्टियों में आराम नहीं किया, रांची एक्सप्रेस में डेढ़ महीने डेस्क की नौकरी की। सेकेंड ईयर के बाद उसी इंस्टीट्यूट में कॉलेज के बच्चों को अंग्रेज़ी पढ़ायी, जहां से ख़ुद अंग्रेज़ी सीखी और पढ़ी थी। थर्ड ईयर के बाद रांची से कलकत्ता इसलिए चली गई क्योंकि मुझे हर हाल में आईआईएमसी और टिस का एंट्रेंस एक्ज़ाम क्लियर करना था। आईआईएमसी के बाद मुंबई चली गई, बाईस साल की उम्र में, क्योंकि तब तक फिल्में कैसे बनती हैं, ये जानने का भूत सवार हो गया था सिर पर।

मेरी बर्बादी उस समय चरम पर थी।

फिर कई सारे छल मिले, कई बार औंधे मुंह गिरी। हर बार पता नहीं कौन सी ज़िद आगे का रास्ता ख़ुद ही तलाश करने के लिए ले जाती रही, वो भी मेरे कान पकड़कर। मुझे हार में भी चैन नहीं था। काश कि तब हार मान ही ली होती। बर्बादियां यहां तक तो लेकर न आई होतीं मुझे!

कल बच्चों और पति के साथ बाज़ार में थी। सामने नारंगी रंग की साड़ी में एक महिला अपने पति और बच्चों के साथ जूते खरीद रही थी। उस महिला को देखकर बड़ी देर तक सोचती रही कि ये मेरी तरह जी से बर्बाद है या आबाद? कितने औरतें हैं इस दुनिया में जिन्होंने मेरी तरह बर्बादी का रास्ता अख़्तियार कर लिया और हमेशा ख़ुद से उलझती रहती हैं? कितनी औरतें हैं जिन्हें अपने हालात पर संतोष नहीं, और उन हालातों को बदलने की कोशिश में ख़ुद को घिसती चली जा रही हैं वो?  पितृ-सत्तात्मक समाज ने कितनी तो आसान सीमा-रेखाएं खींच रखी हैं। उन्हें क्यों नहीं मान लेती ये बर्बाद महिलाएं? अपनी सीमाओं में रहतीं तो ज़्यादा ख़ुश न रहतीं? ये किस तरह का पागलपन है, जो चैन से रहने नहीं देता? मैं भी हाथ में कॉलिन लिए घर की सफ़ाई करते हुए ख़ुश क्यों नहीं रह सकती?

लेकिन नहीं। ज़िद है कि अपनी कविताएं रेडियो स्टेशन में ही सुनाएंगे। अपने हुनर का सदुपयोग करेंगे। हालात से कभी समझौता नहीं करेंगे और हालात की बेहतरी के लिए लड़ते रहेंगे, हाथ पर हाथ धरे बैठेंगे नहीं। बेचैन रहेंगे और बेचैन रखेंगे। बस यूं समझ लीजिए कि बर्बाद होंगे और होते रहेंगे।

मुझे बिगाड़ने और बर्बाद करने में मेरे घरवालों का भी ख़ूब हाथ रहा। उन्होंने तभी पंख कतर दिए होते तो यहां तक पहुंची न होती। यहां तक पहुंची न होती तो अपने साथ-साथ अपने आस-पास कई लोगों का जीना आसान कर दिया होता। लेकिन मुझ जैसे बर्बाद लोगों को आसानियों से ही उलझन है।

कल रात से सोच रही हूं कि बर्बाद न होती तो क्या होती? लम्हा-लम्हा संघर्ष करने का ये जुनून न होता तो कैसा होता? हर रोज़ ख़्वाबों को पाला-पोसा न होता और पहली बार में ही उनका गला घोंटकर आसानी से अपनी किस्मत स्वीकार कर लेती तो कितना अच्छा होता। इतनी मेहनत, इतना संघर्ष किसलिए है आख़िर? मैं किसके लिए लड़ रही हूं, और किससे? ये जुनून और दीवानगी क्या है कि कल कुछ और बेहतर हो। मैं क्या बदलना चाहती हूं? इसी एक ज़िन्दगी में क्या-क्या बदलूंगी?

लेकिन बर्बादी जब शुरू ही हो गई तो संतोष कैसे हो? जिसका दस साल की उम्र में आग़ाज़ हुआ था, उसे मुकम्मल अंजाम तक पहुंचाना भी तो होगा। इसलिए पूरी तरह से बर्बाद हो जाओ अनु सिंह। रुको मत। करती रहो। उलझती रहो ख़ुद से। जो ठहर गई तो नदी कैसी? याद रखना कि बहता हुआ पानी ही साफ़ और प्यास बुझाने लायक होता है। याद रखना कि एक पीढ़ी को आबाद करने के लिए एक पीढ़ी को पूरी तरह बर्बाद होना पड़ता है।

शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

सिरफिरों की मंडली, ख़्वाबमंदों की टोली



लोदी गार्डन में पिछले इतवार की दुपहर एक बजे का वक़्त मुक़र्रर था मंडली के लिए। सच कहूं तो इतवार की दोपहर कितने लोग आएंगे, इसका ठीक-ठीक अंदाज़ा मुझे भी नहीं था। ख़ासकर तब, जब आने वालों में कईयों को अपने घर के काम समेटने होंगे शायद, अपने बच्चों को सॉकर, म्यूज़िक या बैडमिंटन क्लास के लिए लेकर जाना होगा, या फिर जाड़े की एक नर्म दुपहर अपनी नींद ही पूरी करनी हो शायद... लेकिन मेरी आशंका के ठीक विपरीत लोगों ने एक बजे से पहले ही मुझे फोन करना शुरू कर दिया। डेढ़ बजते-बजते पूरी मंडली इकट्ठा हो चुकी थी, और कुल बारह-पंद्रह लोग एक घेरे में बैठे थे। इनमें से कम-से-कम दस अपनी कहानियां लेकर आए थे सुनाने के लिए, और कई इस उम्मीद में आए थे यहां से लिख सकने की प्रेरणा मिल सके।

शाम के गिरते-गिरते तक, ठंड के बढ़ते रहने तक, अंधेरा और गहरा होते जाने तक हम वैसे ही बैठे रहे थे - एक-दूसरे की कहानियां सुनने और उसपर अपनी प्रतिक्रियाएं देने के लिए। वक़्त तेज़ी से भागने की अपनी लत से मजबूर न होता तो हम कई और घंटे वैसे ही बैठे रहने को तैयार थे।

अब 'मंडली' के बारे में कुछ बताती चलूं। बाकी और लोगों की तरह मैंने भी मंडली के बारे में पहली बार फ़ेसबुक पर ही पढ़ा था और कुछ तस्वीरें देखीं थी वहीं। वो तब का दौर था जब बच्चों को प्ले-स्कूल भेज देने के बाद अपने मन का गुबार निकालने के लिए मैंने इसी ब्लॉग का सहारा ले लिया था। कई और लिखने वालों की तरह मैं भी सात या आठ साल की उम्र से लिखती रही हूं, और दस साल की उम्र से लिखते हुए मैंने अपनी जेबखर्च का इंतज़ाम भी शुरू कर दिया था। तब साठ रुपए बहुत होते थे और एआईआर, रांची या दूरदर्शन रांची में बच्चों के कार्यक्रम में कविताएं पढ़ने वाले बहुत सारे बच्चे थे नहीं। लेकिन लिखना एक शगल भर था - एक फ़ितूर - जिसपर आईआईएमसी जाकर फुल स्टॉप लग गया। उसके बाद का लिखना सिर्फ और सिर्फ रनडाउन भरने और एंकर लिंक्स लिखने तक ही सीमित रह गया। नौकरी छोड़ी तो लिखना शुरु किया - बड़ी बेतरतीबी से।

मैं ये बात इसलिए बता रही हूं क्योंकि मंडली के लिए जमा हुए अमूमन सभी लोगों की कहानी कुछ ऐसी ही थी - कम से कम लड़कियों और महिलाओं की तो थी ही। इनमें से कुछ ने डायरी के पन्ने भरे और उन पन्नों को या तो फाड़कर फेंक दिया या फिर तकियों के नीचे छुपाए रखा। कुछ नौकरी-गृहस्थी में इतने मशगूल हो गए कि लिखना बेमानी लगने लगा और फिर धीरे-धीरे कुछ कहने, बांटने की ज़रूरत भी मरने लगी। कुछ थे जो बेचैन रहे मेरी तरह। इसलिए फ़ेसबुक स्टेटस अपडेट्स में कविताएं लिखते हुए ख़ुद को जिलाए रखने का काम करते रहे। जो भी था, लिखना सब चाहते थे। चाहते हैं, उतनी ही शिद्दत से जितनी शिद्दत से मैं चाहती रही हूं, लेकिन कई सवाल रास्ता रोके रहते हैं।

मसलन, इस लिखने का हासिल क्या हो? ये दीवानगी, लिखने का ये जुनून कौन-सी दुनिया बदल देगा कमबख़्त? कितने लोग कालजयी लिख पाते हैं? कितने लोगों की पहचान बन पाती है लिखकर? लिखकर क्या करेंगे?

मैंने भी ये सवाल कई बार पूछे हैं ख़ुद से, और इसी ब्लॉग को कई बार उन सवालों के आड़े-तिरछे, बेमानी जवाबों से भर भी दिया है।
किसी ने लिखकर दुनिया न बदली है, न बदल पाएगा कोई। लेकिन लिखना ख़ुद को ज़रूर बदल देता है भीतर से। इसे एक क्लेनज़िंग प्रोसेस भी मान लिया जाए तो इस सफाई की ज़रूरत हर रूह को किसी न किसी रूप में होती ही है। वैसे लिखना इतना ही ग़ैर-ज़रूरी काम होता तो वाल्मिकी ने क्यों रची थी रामायण? स्वयं सिद्धिविनायक को क्यों बैठना पड़ा था एक महाकाव्य लिखने के लिए? एक पल को इन एपिक्स के बारे में भूल भी जाएं तो हम क्यों बेचैन होकर लिखते हैं चिट्ठियां? लव लेटर्स ही प्यार के इज़हार का ज़रिया क्यों बनते हैं? बहरहाल, ये विमर्श का एक अलग मुद्दा है और मैं तो कोई एक्सपर्ट भी नहीं।

अपने अनुभव से इतना ज़रूर जानती हूं कि लिखने की ख़्वाहिश रखने वाले हर इंसान को संबल ज़रूर दिया जाना चाहिए, उसे पढ़ा बेशक न जाया जाए, एक बार सुना ज़रूर जाना चाहिए। कोई कितना भी ख़राब क्यों न लिखता हो, हम सबके भीतर बैठे किस्सागो को थोड़ी-सी इज़्जत बख़्शने का मतलब दूसरे इंसान की कद्र करना होता है और हर इंसान उस थोड़ी-सी इज़्जत का हक़दार है - लिखनेवाले के तौर पर न सही, इंसान के तौर पर सही और मेरे लिए लिखना-पढ़ना इंसानियत बचाए रखने का एक्सटेंशन है।

सच कहूं तो शुरू में मुझे लगता था कि क़ाबिल लेखकों की एक मंडली एक स्मार्ट बिज़नेस मूव है (और यहां पब्लिक स्पेस में ये स्वीकार करते हुए मुझे बेहद हिचकिचाहट हो रही है) और कमर्शियल राइटिंग स्पेस में इससे बेहतर कोई बिज़नेस आईडिया शायद ही हो (सॉरी नीलेश! मैं पहले ऐसा सोचती थी। अब नहीं सोचती।)

लेकिन मैं जैसे-जैसे ख़ुद मंडली से गहराई और ईमानदारी से जुड़ती गई, वैसे-वैसे समझ में आने लगा कि ये एक पागलपन है - एक किस्म का सिरफिरापन, जिसका कोई रिटर्न, कम-से-कम वक़्त और ऊर्जा के अनुपात में आने वाला फाइनैन्शियल रिटर्न बहुत कम है। इस तरह का पागलपन उसी किस्म का कोई इंसान कर सकता है जिसने अपने लिखने और सीखने के क्रम में कई सारी गलतियां की हों, और बड़ी गहराई से ये महसूस किया हो कि इन गलतियों से हासिल सबक को इकट्ठा करके उन्हें अपने जैसे कई और सिरफिरे लोगों के साथ बांटा जाना चाहिए।

लिखनेवालों की एक टोली जुटाने की हिम्मत वैसा ही कोई शख़्स कर सकता है जिसने अपना ईगो, अपना दंभ एक हद तक क़ाबू में कर लिया हो। वरना ये आसान नहीं होता कि आप बड़ी ईमानदारी से ये स्वीकार कर सकें कि जो लोग आपसे सीखने आए हैं, वो दरअसल आपसे कहीं बेहतर हैं। ये भी आसान नहीं कि अपना लिखना छोड़कर आप बाकी लोगों को लिखने के लिए प्रेरित करते रहें, उनके लिए अवसर ढूंढते रहें।

लेखक या आर्टिस्ट या किसी किस्म का कलाकार अपने एकाकीपन में ही सबसे बेहतर रच पाता है - अपनी उदासियों में। उसकी उलझनें ही दूसरों को बांधती हैं। ये वो सूक्ष्म तंतु होते हैं जिनसे लेखक जितना कस कर  ख़ुद को घेरे रखता है, उतनी ही ज़ोर से पढ़नेवालों को, सुननेवालों को बांध पाता है। आर्टिस्ट का सिरफिरापन, उसका अवसाद, उसके दुख उसकी सबसे बड़ी ताक़त होते हैं - उसके हथियार होते हैं। वो दुनिया को जितनी शिद्दत से नकारता है, उतना ही अच्छा और नया लिख पाता है।

और हम मंडली में क्या कर रहे हैं? लिखनेवालों (या खुद को लेखक समझनेवालों) की फ़ितरत के ठीक विपरीत हम भीड़ जुटा रहे हैं। हम कह रहे हैं कि लिखो, और कुछ सकारात्मक लिखो। हम कह रहे हैं कि तुम्हारे पास जो ताक़त है न लिखने की, उसमें दुनिया को तो नहीं, लेकिन कुछ लोगों की सोच को बदलने का माद्दा ज़रूर है। इसलिए अच्छा लिखो। बदलो तो कुछ बदलो बेहतरी के लिए। बांटों तो उम्मीदें। लफ़्ज़ गिरें तो हौसलों के हों। अपनी टूटन का फ़साना बयां भी हो तो किसी और के टूटे हुए दिल को जोड़ पाने के लिए।

धत्त तेरे की!!! एक और सिरफ़िरी बात।

लेकिन ये मंडली है ही इसी के लिए। सिरफ़िरों की टोली है, जो अभी और बड़ी होगी। मुंबई और दिल्ली से देश के कई और शहरों में जाएगी। अगले कई सालों तक कई सारे लोगों को लिख पाने का भरोसा देगी।

अपने प्यार का इज़हार कर पाने के लिए जो चिट्ठी किसी ने कभी न लिखी, उसे वो चिट्ठी लिख पाने का हौसला देने के लिए।

अपने बॉस को assertive होकर जो ई-मेल कभी हम लिख न पाए, वो polite assertiveness बाहर लेकर आने के लिए।

अपनी मां की सालगिरह पर एक कविता लिख पाने के लिए। अपने भाई को राखी पर एक गीत सुना पाने के लिए।

अपने दोस्तों के बीच बैठकर कहानियां रच पाने के लिए।

अपने बच्चों को सुलाते हुए नई-नई कहानियां बुन पाने के लिए।

मंडली इसी के लिए तो है। रेडियो, टीवी या फिर किताबों-पत्र-पत्रिकाओं में अपना लिखा हुआ देख पाना तो सेकेंडरी है। कम-से-कम मंडली के लिए। दो क़दम आगे और एक क़दम पीछे चलते हुए हम अपना नया रास्ता तय कर ही लेंगे। मंडली के बारे में और बताऊंगी लौटकर। अभी के लिए इतना बता दूं कि दिल्ली में हुई चार मंडली बैठकों से होकर पांच नए (और बेहतरीन) writers निकले हैं, जिनकी कहानियां आप आनेवाले हफ्तों में बिग एफएम पर सुन सकेंगे। इनके अलावा एक मां (जो नानी भी हैं) ने बीस-पच्चीस साल पहले बंद की गई कविताओं और कहानियों की डायरी एक बार फिर निकाल ली है। अंबुज खरे नाम के साथी ने पंद्रह साल के बाद कलम उठाने का वायदा किया है। कॉरपोरेट नौकरियों और ज़िन्दगी की आपाधापी के बीच चार लेखिकाओं ने (जो मां भी हैं, और कामकाजी भी) अपनी कहानियां बांटी हैं।

अब और क्या कहूं कि ये मंडली  आख़िर है क्या?

गुरुवार, 21 नवंबर 2013

दिलासों को छूके, उम्मीदों से मिलके

एक छोटी सी बच्ची ट्रेन की पटरियों के ठीक बीचों-बीच बेफ़िक्री से चलती है। उसके दाएं हाथ में लाल फूलों का गुच्छा है। लाल नहीं, गहरे गुलाबी-नारंगी फूलों का। बुगेनवेलिया के फूलों का गुच्छा लिए वो लड़की इस तरह अकेली कहां जा रही होगी, मैं घबराकर सोचती हूं। तभी देखती हूं कि लड़की सुबक रही है - गहरी उदासियों वाली सिसकियों के साथ। मैं उस लड़की को गले लगाना चाहती हूं। Big hug - मन में सोचती हूं, सामने बढ़कर दे नहीं पाती।

किसी अनजान शहर में मुसलसल बर्फ गिरती रहती है। कई साल पहले बिछड़ गई एक सहेली को बर्फ़ में ठिठुरते देखती हूं बंद गाड़ी की खिड़की के पीछे से आते-जाते। हर बार सोचती हूं, उतरकर गले लगाऊंगी और हाथ थामकर गाड़ी में बिठा लूंगी। गाड़ी रुकती नहीं, बर्फ थमती नहीं, सहेली का ठिठुरना बंद नहीं होता। Big hug देने का ख़्याल धरा का धरा रह जाता है। मैं फिर एक पत्थर-सा भारी अफ़सोस लिए उठती हूं सुबह-सुबह।

उसके ठंडे बेजान पैरों पर एक बार फिर गहरा आलता लगाए देती हूं। उसकी सूजी हुई उंगलियों में शादी की अंगूठी नहीं है, एक दाग़ रह गया है बस। सफ़ेद कपड़े के पीछे से रंग-बिरंगे पत्थरों वाले ताबीज़ झांकते हैं। उसे इस हाल में देखकर पत्थरों पर से भी यकीन उठ गया है, ईश्वर पर से भी। ग़लती से मेरा हाथ आलते की शीशी पर लग जाता है और पूरा रंग उसके पैरों के पास बिखर जाता है। मैं डर कर रोने लगती हूं। यहां भी कोई नहीं आता, Big hug लिए। भीतर कुछ है जो फिर एक बार डूब जाता है। गले में रुलाई अटकी रहती है नींद में भी।

शुक्र है सुबहों का वजूद रातों से आज़ाद होता है।

आड़े-तिरछे बेतरतीब बेमानी सपनों में ही नहीं... मेट्रो में आते-जाते हुए, मेट्रो कंस्ट्रक्शन की वजह से दिल्ली की और तंग हो गई सड़कों पर गाड़ी चलाते हुए, किसी प्लश से दफ़्तर में किसी का इंतज़ार करते हुए, बिना इंटरनेट के नए फ़ोन में सिर घुसाए मसरूफ़ दिखने का झूठा दिखावा करते हुए, बस स्टॉप पर बच्चों का इंतज़ार करते हुए, मॉर्निंग वॉक से लौटते हुए... एक ही ख़्याल तारी रहता है आजकल - किसी को गले लगाने का बेतुका ख़्याल, और गले लगकर जीभर कर रो लेना का बेतुका ख़्याल।

फिर मम्मी के पास होना चाहती हूं मैं अचानक। पूछना चाहती हूं कि ऐसी बेचैनियां कितनी पीढ़ियों को शाप में मिलती हैं? किस महर्षि का ध्यान भंग किया था किस जन्म में हमने कि पूरी ज़िन्दगी की तपस्या सज़ा के तौर में मिली? तीसरी पीढ़ी तक तो चैन नहीं है। आद्या को क्या सौंपूंगी? उसे शाप से बचाए जाने का कोई तो प्रायश्चित होगा मम्मी...

सुबह फिर रात की पूंछ थामे आई है। मुझे जाड़ों की सुबहें ज़रा भी नहीं भाती। धूप की नरमी न हो तो सुबह का मतलब ही क्या? रात गुज़र जाए और नींद न आए तो उससे बड़ी सज़ा क्या? डरावने सपनों को ख़्वाबों से रिप्लेस न किया तो फिर जिएं कैसे? विरह न हो तो प्रेम की परिभाषा कैसे समझ में आए? टूटन सताए न तो समेटने का ख़्याल कहां से लाएं?

ऐसी ही है तो ऐसा ही हो। मुझे डॉ कुमार से मिलने की सख़्त ज़रूरत है।

मैं जानती हूं डॉ कुमार क्या कहेंगी। उनकी समझदारी और डॉक्टरी पर, उनके हीलिंग पावर पर मेरी सोचने-समझने की शक्ति कई बार भारी पड़ती है। ठीक उसी तरह, जिस तरह उनके दिए हुए संबल पर मेरा परिताप भी भारी पड़ता है कई बार। बहुत सूक्ष्म हैं ये परिताप। बांधते भी नहीं, लेकिन इनसे ख़ुद को आज़ाद करना भी मुश्किल लगता है। इन सूक्ष्म तंतुओं को तोड़ने की ज़िद में कहीं कुछ बड़ा नष्ट न हो जाए, इस डर से मैं डॉ कुमार से भी अपना एक हिस्सा बचाए रखती हूं। कुछ ज़ख़्म हरे रहें तो ही ठीक।

लेकिन ज़िन्दगी में ऐसे विरोधाभास कई बार नितांत आवश्यक होते हैं। डर आता है तो हिम्मत ढूंढने का सबब मिलता है। प्यार होता है तो परिताप भी, क्लेश भी। देवताओं के माथे गुनाहों का कलंक सबसे गहरा होता है।  जो सबसे ज़्यादा प्यार बांटता है, वही सबसे ज़्यादा खाली होता है भीतर से। शब्द अधूरे होते हैं तभी उच्चारण मांगते हैं। चाराग़र अपनी ही जानलेवा बीमारी का इलाज नहीं कर पाता।

कुछ डर, कोई आशंका, कोई तिश्नगी, कोई उद्विगनता, किसी के प्रति अबूझ स्नेह, कहीं अटकी हुई बेजां श्रद्धा और कहीं पीछे रह गया किसी किस्म का एक अफ़सोस - ज़िन्दगी ऐसे ही बनती है शायद। उम्मीदें और दिलासे, प्यार और big hug इसी विरोधाभास को बचाए रखते हैं।

ये सब सोचते हुए उठती हूं एक कठिन रतजगे के बाद बिस्तर आख़िर छोड़ ही देती हूं और बच्चों को आवाज़ लगाती हूं। 6.45 के बाद उठने का मतलब है बस के छूट जाने की पूरी गुंजाईश बन जाना।

बच्चे नींद में भी शायद मां की बेकली पहचानते होंगे। मैंने मांगा नहीं - बिग हग - बड़ी सी झप्पी, और बेटा अपने आप बिस्तर से सरकते-सरकते मेरी गर्दन के आस-पास कहीं जगह बनाते हुए अपना बासी मुंह मेरी गर्दन के भीतर घुसेड़ देता है। बेटी भाई की देखा-देखी पीठ से लटक जाती है।

मेरे इर्द-गिर्द दो सुरक्षा चक्र हैं, और कई तरह के विरोधाभास। बच्चों का प्यार न चाहते हुए भी खलिश भर ही देता है कई बार।

मैं गुलज़ार और पंचम को आवाज़ देती हूं अपने लैपटॉप पर फिर एक बार, और ख़ुद को एक बार और याद दिलाती हूं कि खुशी उस तितली का नाम है जिसे पंखों से पकड़ना होता है और इंसान उस बच्चे का नाम जिसे खुशी नाम की तितली को पंखों से पकड़कर जेब में घुसेड़ लेना का हुनर आ ही जाता है अपने आप - ज़िन्दगी के तमाम विरोधाभासों के बीच भी।

बाकी, दिलासों को छूते हुए, उम्मीदों से मिलते हुए ज़िन्दगी ठीक उसी तरह कट जाती है जैसे आज का दिन कट जाएगा।

***

कभी पास बैठो,
किसी फूल के पास
सुनो जब महकता है
बहुत कुछ ये कहता है

कभी गुनगुना के
कभी मुस्कुरा के
कभी चुपके चुपके
कभी खिलखिला के

जहां पे सवेरा हो, बसेरा वहीं है

कभी छोटे-छोटे
शबनम के कतरे
देखे तो होंगे
सुबह-ओ-सवेरे
ये नन्हीं-सी आंखें
जागी हैं शबभर
बहुत कुछ है दिल में
बस इतना है लब पर

जहां पे सवेरा है, बसेरा वहीं है

न मिट्टी न गारा
न सोना सजाना
जहां प्यार देखो
वहीं घर बनाना
ये दिल की इमारत
बनती है दिल से
दिलासों को छूके,
उम्मीदों से मिलके

जहां पे बसेरा हो, सवेरा वहीं है




शुक्रवार, 15 नवंबर 2013

बच्चे नहीं, हम बिगड़े हुए हैं


कौटिल्य पंडित को टीवी पर देखकर दिमाग में जो पहली बात आई थी, उसके बारे में सोचकर मझे कई बार अफ़सोस हो चुका है। मैंने सोचा, कौटिल्य नाम का ये जीनियस मेरे बच्चों से तो सिर्फ एक साल छोटा है!” जितनी तेज़ी से ये ख़्याल मेरे मन में आया, उतनी ही संजीदगी से ये बात भी ज़ेहन में आई कि ख़ुद को जागरुक और संवेदनशील बताने वाले हम मां-बाप भी आख़िर किस हद तक ढोंगी हो सकते हैं! हम सब तमगे चाहते हैं, ट्रॉफी किड्स चाहते हैं – उस तरह के बच्चे जिनका घर, बाहर, समाज और यहां तक कि सोशल मीडिया पर दिखावा करने का मौका मिल सके।

बच्चों को लेकर हमारी प्रतिस्पर्धा उनके पैदा होते ही शुरू हो जाती है। बच्चे किस अस्पताल में पैदा हुए, और कितने बड़े पेडियाट्रिशियन के पास से हमने टीके लगवाए - यहां से शुरू हुई ये स्पर्धा उनके बैठने, बोलने, चलने और कब कितना क्या-क्या कहा के हिसाब के तौर पर स्क्रैप-बुक्स, एलबम्स और लाइव स्टेटस अपडेट्स में जमा होने लगी है। मैं मानती हूं कि अपने बच्चों को बड़ा करना एक किस्म का सेलीब्रेशन होना चाहिए - एक किस्म का जश्न-ए-बचपन - क्योंकि बच्चों को बड़ा करने के साथ-साथ हम भी न सिर्फ अपना बचपन जी रहे होते हैं, बल्कि उनके साथ-साथ ख़ुद भी बड़े हो रहे होते हैं। बच्चे हमें सब्र का पाठ पढ़ाते हैं। बच्चे हमें प्यार करना सीखाते हैं। बच्चे हमें जीने का सलीका बताते हैं। लेकिन इसका मतलब बच्चों के साथ हमेशा परफेक्ट होने की ज़्यादती करना कतई नहीं हो सकता।

लेकिन बदकिस्मती से हमने एक ऐसा समाज बना लिया है जो बच्चों की मासूमियत और उनका बचपन छीनने का काम बख़ूबी और सीना ठोक कर करता है। ये वो समाज है जहां हमारे बच्चों की आंखों पर पट्टियां लगाकर उन्हें ज़िन्दगी की रेस में तभी छोड़ दिया जाता है जब उनकी उम्र अपनी सीधे खड़े होने की भी नहीं हुई होती। इसके पीछे बड़ा कारण एक ही है – हमें पेरेन्ट्स या अभिभावक के तौर पर खुद को अव्वल साबित करना है। इसलिए बच्चों की परवरिश हमारे लिए वो प्रोजेक्ट हो जाती है जिसमें ए-प्लस हासिल करना ज़िन्दगी का सबसे बड़ा लक्ष्य बन जाता है। 

हमारे बच्चे किस स्कूल में पढ़ते हैं, स्कूल से आने के बाद कितनी तरह की हॉबी क्लासेस में जाते हैं, क्लासिकल संगीत के साथ-साथ टेनिस क्लासेस के लिए जाते हैं या नहीं, स्कूल में ग्रेड्स कैसे लेकर आते हैं, उनका बर्ताव कैसा है, उनकी शख़्सियत कैसी है – इन सारी बातों पर हमारी लम्हा-लम्हा नज़र होती है। हम अपने काम में चाहे कितने ही फिसड्डी क्यों न हों, जाड़े की सुबह दफ़्तर जाने के लिए रजाई को छोड़ने से पहले बॉस को कितनी ही गालियां क्यों न दे दें, ख़ुद दूसरों से किस तरह पेश आते हैं उसके बारे में भले कभी न सोचा है, लेकिन बच्चे हमें परफेक्ट चाहिए। अपनी अपेक्षाओं का भार अपने बच्चों को कोमल कंधों पर रखते हुए हमें ज़रा भी हिचक नहीं होती। क्यों भला?

मैं एक और वाकया सुनाती हूं। गर्मी की छुट्टियां काटने के लिए दोपहर में अपने पांच साल के जुड़वां बच्चों को मैंने ड्राईंग कॉपी और वॉटर कलर के डिब्बे पकड़ा दिए थे। बच्चों को भी बड़ा ज़ा आ रहा था। जब तक बच्चे मेरे अपेक्षा के मुताबिक ब्रश को कलर में डुबो के आराम से पेंटिंग करते रहे, मैं उनकी तस्वीरें खींचती रही, वीडियो लेती रही। इन सभ्य और कलाकार बच्चों पर नाज़ करती रही। बच्चे तो बच्चे ठहरे। थोड़ी देर में उनका मन ड्राईंग बुक से ऊब गया और उन्हें रंगों के साथ खेलने में इतना मज़ा आने लगा कि उनके शरीर, चेहरे और हथेलियां पर देखते ही देखते मॉडर्न आर्ट के कई डिज़ाईन उतर गए। पूरा रंग कमरे में और फर्श पर बिखर चुका था। खेल-खेल में सूरत ऐसी बिगड़ी कि मुझे तेज़ गुस्सा आ गया। अभी दस मिनट पहले मैं जिन सभ्य और परिष्कृत बच्चों पर फ़ख्र कर रही थी, वही बच्चे अब मेरी नाराज़गी की चपेट में आ चुके थे।

किसने तय किया कि बच्चे कैसे पेंटिंग करेंगे? उनके हमेशा बच्चों के तरीके से काम करने की अपेक्षा क्यों की जाती है? हम इतनी सारी बंदिशों में क्यों रखते हैं उनको? उन्हें उनके तरीके से जीने देने में हमें इतनी तकलीफ़ क्यों होती है? सच तो ये है कि उन्हें उनके तरीके से हम तभी जीने देते हैं जब हमारी सहूलियत की बात आती है। हमारे पास वक़्त नहीं है तो उन्हें टीवी देखने दिया। हम शाम को वक्त पर घर नहीं लौट पाए तो उनके लिए खिलौने ले आए। हमारे पास उनके दोस्तों से मिलने और उन्हें जानने का वक्त नहीं है तो उन्हें मॉल ले गए। हमारे पास उनकी पसंद का खाना बनाने की फ़ुर्सत नहीं है तो उन्हें पिज़्जा और बर्गर खिला दिया। अपनी सहूलियत के हिसाब से सब ठीक, लेकिन जब बच्चों ने इनमें से कुछ भी अपनी मर्ज़ी से मांगा तो हमने बड़ी आसानी से कह दिया, आजकल के बच्चे ही बिगड़े हुए हैं।

बच्चे बिगड़े हुए नहीं हैं। हम बिगड़ चुके हैं। हमारे बच्चे हमारा ही प्रतिबिंब होते हैं। उनकी सोच, उनके रहन-सहन, उनके तौर-तरीकों में हमारी शख़्सियत ही झलकती है और ये बात वैज्ञानिक रूप से साबित भी हो चुकी है। एक बेहतर समाज बन सके, इसके लिए बहुत ज़रूरी है कि हम बच्चों के लिए एक अच्छा माहौल बनाएं। इस गलाकाट और बेरहम दुनिया में बच्चों का तो क्या, हमारा भी गुज़ारा मुश्किल से हो रहा है। बच्चों की ज़रूरतें सुविधाएं, विलासिता, आईपैड और मोबाइल फोन नहीं, हमारा वक्त और हमारा प्यार है। अपने बच्चों का प्यार से पालन-पोषण करना अपने भीतर प्यार और इंसानियत बचाए रखने का सबसे कारगर तरीका है और बच्चों को उनके हिस्से का प्यार और सम्मान मिले, इसके लिए हर बच्चे का कौटिल्य पंडित होना भी कतई ज़रूरी नहीं।          

('खुशबू' में प्रकाशित कवर स्टोरी - लिंक है http://dailynewsnetwork.epapr.in/184374/khushboo/13-11-2013#page/1/1)

बुधवार, 13 नवंबर 2013

... कि सब ठीक ही है आज कल

मुझसे मत पूछना कि कहां गुम ही इन दिनों।

जब कहने के लिए कई बातें होती हैं, तो सबसे ज़्यादा सन्नाटा यहीं इसी जगह पर, यहीं मेरे ब्लॉग पर होता है।

बस इतना यकीन दिला सकती हूं आपको कि टुकड़ों-टुकड़ों में बिखरे वजूद को समेटने की कोशिश में लगी हुई हूं ताकि एक भरपूर और मुकम्मल शक्ल में आप सबके सामने आ सकूं।

तब तक दुआएं भेजिए क्योंकि कुछ और काम नहीं आता। सिर्फ़ दुआएं और सकारात्मक ऊर्जा, पॉज़िटिव एनर्जी, ही कुछ बदल पाने का माद्दा रखती हैं।

इन पन्नों पर फिर से लौट आने को बेचैन,

आपकी ही
अनु

शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

'सच' बनाम 'मज़ा' यानी लव ऑफ़ कॉमन पीपुल

मुझे ठीक-ठीक याद नहीं वो वाकया। लेकिन भाई की ज़ुबानी कई बार सुन चुकी हूं ये किस्सा, इसलिए यहां दुहरा सकती हूं। हम सातवीं-आठवीं में थे तो हमें ब्रिटिश लाइब्रेरी की मेंबरशिप दिलाई गई। पापा हमें वो अंग्रेज़ी पढ़ाक बनाना चाहते थे जो वो ख़ुद चाहकर भी नहीं बन सके होंगे। इसलिए, हमें उस उम्र में हार्डी बॉयज़, फ़ेमस फाइव और  सीक्रेट सेवेन की दुनिया में उलझा दिया गया और रांची की अपनी बेहद मिडल क्लास, बेहद साधारण ज़िन्दगी से परे हमने धीरे-धीरे एक और दुनिया बना ली। (राज़ की बात है कि अंग्रेज़ी किताबों में छुपाकर मैं शिवानी के उपन्यास पढ़ती थी और भाई अपनी टेबल के नीचे पिस्का मोड़ से एक रुपए देकर किराए पर लाई हुई नागराज की चार कॉमिक्स रखता था।) भाई का तो नहीं मालूम, लेकिन मैंने मजबूरी में ही सही, अपनी पीढ़ी के बाकी लोगों की तरह जितना एनिड ब्लाइटन पढ़ा, उतना किसी और को पढ़ा होगा, मुझे नहीं लगता। ख़ैर, मुद्दा ये नहीं कि हमने ब्रिटिश लाइब्रेरी के समंदर में से कितने मोती चुने और कितनी रेत जेबों में भरी। मुद्दा ये है कि उस समंदर के किनारे बैठने की क़ीमत कितनी बड़ी हुआ करती थी।

ब्रिटिश लाइब्रेरी घर से कुछ दसेक किलोमीटर दूर था। सालाना मेंबरशिप दो सौ रुपए की और हर चार हफ्ते पर किताबें लौटाने जाने का खर्च रिक्शे के भाड़े के तौर पर। हम या तो रिक्शा करते या फिर ऑटो लेते। हम यानी मैं और मेरा छोटा भाई। हम तीनों में सबसे छोटा अभी चौथी या पांचवीं में था, लेकिन सबसे स्मार्ट था। उसने किताबों के प्रति अपनी उदासीनता बहुत पहले ही साफ़ कर दी थी, इसलिए उससे अख़बार पढ़ने (और फिर अंग्रेज़ी और हिंदी में ख़बर पर टिप्पणी लिखने) को भी नहीं कहा जाता था।  हंस लीजिए हमपर, लेकिन हमने ये कसरत हर इकतीस दिसंबर को कई सालों तक की, पापा के डर से। भाई ने स्मार्टली, और मैंने बेवकूफ़-ली।

ख़ैर, हमें कुल मिलाकर तीस रुपए मिला करते - पंद्रह आने के, पंद्रह जाने के। ऑटोरिक्शा से जाना सस्ता पड़ता था, लेकिन हम रिक्शा लेना इसलिए पसंद करते थे क्योंकि रिक्शा हमारी निजी सवारी टाईप का फ़ील देता था। फिर रिक्शे पर गप मारने का बहुत सारा टाईम भी मिलता था। वैसे ऑटो से जाने का मतलब होता, सीधे दस रुपए की बचत। तो ऐसे ही दस-पांच रुपए बचाते हुए हमने बीस रुपए इकट्ठा किए। मैं बड़ी थी, इसलिए ज़ाहिर है पैसा मेरे हाथ में होता। पैसे बचे तो हमने एक दिन जोश-जोश में कावेरी जाने का फ़ैसला किया।

कावेरी तब रांची के महंगे रेस्टुरेन्ट्स में से एक था। वहां तब भी लंबी कतार लगती थी, अब भी शायद लगती है। हम जैसे बारह-तेरह साल के पिद्दियों के लिए कावेरी जाना मूनवॉक कर आने के बराबर था। ख़ैर, हम कावेरी में घुस गए और मेन्यू कार्ड देखा तो समझ गए पिद्दी को पिद्दी का शोरबा ही मिल सकता है। जितने पैसे हमारे पास थे, उसमें एक ही मसाला डोसा और एक ही नींबू पानी ऑर्डर किया जा सकता है, वेटर को टिप देने का तो ख़ैर कोई सवाल ही नहीं है (जो हमारी शान के ख़िलाफ़ था)। बकौल भाई, डोसे के लिए आतुर (और भुक्खड़) भाई की प्लेट से निवाला बांट लेने का मन बहन का हुआ नहीं और नींबू पानी में से भी मैंने उसका हिस्सा निकाल दिया (ये मैं नहीं, भाई बताता है सबको। मैं तो सिर्फ़ उसे कोट कर रही हूं)।

हम 'गरीब' नहीं थे, सत्तर और अस्सी का स्टाईल स्टेटमेंट बन गई 'गरीबी' के हिसाब से तो बिल्कुल नहीं। लेकिन फिर भी ज़िन्दगी क़तरा-क़तरा नसीब होती थी, कई सारी कटौतियों के बाद। एक बड़े परिवार को चलाने का दारोमदार एक कंधे पर। गांव और शहर के बीच का संतुलन बनाए रखने का भार एक कंधे पर - बाबा के कंधे पर। इसलिए हम तीसरी पीढ़ी तक जो आता, बहुत सारी राशनिंग के साथ आता। बस ख़्वाब प्रचुर मिले विरासत में। बड़े-बड़े ख़्वाब। अपनी क्षमता की सीमाओं को तोड़ते हुए नई सीमाएं सुनिश्चित  करने का ख़्वाब। पैरों में पहिए डालकर अथक चलते रहने का ख़्वाब। नए शहर, नए गांव देखने का ख़्वाब। एक गाड़ी खरीदने का ख़्वाब। एक घर खरीदने का ख़्वाब। एक पहचान बना लेने का ख़्वाब। बाबा का दिया ख़्वाब। पापा का दिया ख़्वाब। मम्मी का दिया ख़्वाब। आईआईटी का ख़्वाब। लाल बत्ती का ख़्वाब। दौलत-शोहरत का ख़्वाब। और किसी कावेरी में कभी वेटर को टिप न दे पाने के गिल्ट से हमेशा के लिए निजात पा सकने लायक हैसियत रखने का ख़्वाब। जो ज़िन्दगी पापा न जी सके, वो उन्हें दे सकने का ख़्वाब। जो मम्मी को न मिला, वो छीनकर हासिल करने का ख़्वाब।  

पैसे नहीं होते थे, लेकिन उन ख़्वाबों के बारे में रात-रात पर बात करते रहने का जुनून था। छत पर सर्दी की धूप सेंकते हुए, गर्मी की छुट्टी में गांव के लिए बस में सफ़र करते हुए, कावेरी में खाने के लिए कई हफ्तों तक पैसे बचाते हुए, और एक मसाला डोसा के टुकड़े बांटकर खाते हुए हम सिर्फ ख़्वाब में जीते। वो ख़्वाब अजीब-से थे। सफलता का मतलब ठीक-ठीक मालूम नहीं था, लेकिन बस सफल होना था - सक्सेसफुल, एक्सिट्रिमली सक्सेसफुल एंड रिच। ख़्वाब को 'सच' में बदलने और उस सच का 'मज़ा' ले पाने का जोश था।

मैं जिस कॉलेज में थी, वो रईसों का कॉलेज था। 'मज़ा' वहां भी था लेकिन 'सच' कुछ और निकला। कॉलेज के बैंक से सौ रुपए निकालने के लिए दस बार सोचना पड़ता और फिर हिम्मत बांधकर लंबी लाइन लगानी पड़ती। उस उम्र में वैसे तो एक-दूसरे को बहुत सारा प्यार करने के लिए किसी ख़ास सरनेम की ज़रूरत नहीं पड़ती क्योंकि तितली बाद में जैसी भी बनकर निकले, कैटरपिलर से प्यूपा बनने के स्टेज पर तो सभी रंगों की तितलियां एक-सी ही होती हैं। लेकिन फिर भी घर से चिट्ठी के साथ, सोच-समझकर खर्च करने की ताक़ीद के साथ आनेवाले ड्राफ्ट का बेसब्री से इंतज़ार रहता और अपना जेबखर्च निकालने के लिए कई बार जी-जान लगाकर इंटर-कॉलेज प्रतियोगिताएं भी जीतनी पड़ीं। अब का पता नहीं, लेकिन तब कॉलेज फेस्टिवल्स में विजेता टीम को २००० रुपए तक, और सर्वश्रेष्ठ वक्ता को १००० रुपए तक का नकद पुरस्कार मिलता था। २००० रुपए लाजपत-सरोजिनी में भटकने, पीवीआर साकेत जाकर सात रुपए की टिकट लेकर फिल्में देखने और मैकडॉनल्ड्स से सात रुपए का कोन खाने के लिए बहुत होते थे। यानी तब भी तंगी के कैक्टस पर ख़्वाबों के फूल खिलते रहे और 'सच' पर 'मज़ा' हावी रहा, और ज़िन्दगी कड़वे-तीखे सच के बावजूद मज़ेदार रही। लेकिन 'सच' अक्सर चुभता था। मैं तंगहाली नहीं चाहती थी। (और ये स्वीकार करते हुए मुझे इतनी ही  झिझक हुई कि ये लाईन तीन बार टाईप की और दो बार डिलीट।) 

फिर अपने मोमेन्ट ऑफ एपिफ़नी के बारे में बताती हूं। कॉलेज थर्ड ईयर में थी। दिसंबर के एक सर्द और उदास वीकेंड पर मैंने अपनी दोस्त राशि का म्यूज़िक सिस्टम उधार मांगा था और रांची से रिकॉर्ड कराकर लाए अंग्रेज़ी गानों का एक कैसेट सुन रही थी। पॉल यंग को पहले भी सुना था, लेकिन उस दिन कुछ हो गया था मुझे 'लव ऑफ कॉमन पीपल' सुनते हुए। 

Living on a dream ain't easy
but the closer the knit, the tighter the fit
and the chills stay away.
Just to take 'em in stride for family pride.
You know that faith is in your foundation
and with a whole lot of love and a warm conversation
but don't forget to pray.
Making it strong where you belong

and we're living in the love of the common people,
smile's from the heart of a family man.
Daddy's gonna buy you a dream to cling to,
Mama's gonna love you just as much as she can
and she can.

मैं रिवाइंड कर-करके गाने का ये हिस्सा सुनती रही थी। उस समय अंग्रेज़ी गाने ठीक से समझ आते नहीं थे और गूगल था नहीं कि मदद मिलती। लेकिन कम-से-कम सत्तर बार मैंने ये अंतरा सुना और कॉपी में एक-एक शब्द लिखती रही। मुझे नहीं मालूम किसी और के साथ कभी हुआ होगा या नहीं, लेकिन मेरे साथ हुआ और इस एक शाम सुने हुए इस एक गाने ने मुझे ज़िन्दगी का सार सीखा दिया। मैं अकेले कमरे में बैठकर यूं रोई कि जैसे आंसुओं ने रूह का कोई हिस्सा पोंछ-पाछ कर साफ़ कर दिया है। उस दिन समझ में आया कि ड्राफ्ट से ज़्यादा ज़रूरी वो चिट्ठियां हैं जो मम्मी लिखा करती हैं। समझ में आया कि ईनाम में मिले पैसों से ज़्यादा बड़ी बात ये है कि मैं ईनाम जीत पाने के क़ाबिल थी। समझ में आया कि बंगला-गाड़ी-शोहरत से घर नहीं बनता। घर उस प्यार से बनता है जो प्यार हर सुबह बाबा फोन करके जताते हैं, तीन सौ लड़कियों के बीच के perpetually engaged इकलौते लैंडलाईन पर आधे-आधे घंटे तक फोन मिलाने की जद्दोज़ेहद और खीझ के बावजूद। समझ में आया कि ख़्वाबों का क्या है? हसरतों के पंखों पर सवार होकर ये आपको कहीं भी लेकर जा सकते हैं। लेकिन faith, भरोसा, यकीन, विश्वास आपको ख़ुद से जोड़े रखता है और ये भरोसा उनसे आता है, जो आपको प्यार करते हैं। ये भरोसा ख़ुद से आता है। हसरतों के पंखों को आपका अपना हौसला ही हवा दे सकता है और फिर ज़मीन पर गिरने या उतरने के लिए एक मुकम्मल पैड faith देता है।

इस एक गाने ने भी 'सच' और 'मज़ा' - इन दो दुश्मनों में समझौता कराने का तरीका सिखा दिया।   

आख़िर सच क्या है?

सच ईएमआई और फ़ीस चुकाने की चिंता है। सच शाम को आनेवाली सब्ज़ियों के न्यूट्रिएंटरहित होने की नाराज़गी है। सच एक किलो प्याज़ के डॉलर से महंगे हो जाने का गुस्सा है। सच धीरे-धीरे गिरता बैंक बैलेंस है। सच भविष्य का ख़ौफ़ है। सच वो डर है कि अगर कल को हमारे पास कुछ न बचा तो क्या होगा? सच अपने सपनों का दारोमदार अपने बच्चों के नाज़ुक कंधों पर डालते हुए उनके लिए बड़े-बड़े नामुमकिन ख़्वाब देखने की ढीठई है। सच कई-कई सालों तक कई-कई पीढ़ियों से वास्ता रखते हुए भी एक दिन भुला दिए जाने, रिडन्टेंट, अनावश्यक, बेकार हो जाने का शाश्वत सत्य है। सच गुल्लक में बचाए जाते रहने वाला यही डर है। सच मोदी है। सच आसाराम है। सच परमाणु हथियारों पर होने वाली लड़ाई के डर के ख़िलाफ़ लिखे जा रहे शांति प्रस्ताव हैं।

और मज़ा?

मज़ा जेब को रफू किए जाने की हाजत को जीभ चिढ़ा पाने का हौसला है। मज़ा मूलचंद फ्लाईओवर के नीचे आलू के परांठे दस रुपए में खा लेने और पचा लेने की शक्ति है। मज़ा बारिश के पानी से बनाई गई चाय की चुस्की है। मज़ा वो बेफ़िक्री, वो तटस्थता है जो जेब की गर्मी नहीं तय कर पाती। मज़ा मर जाने से पहले बहुत सारे लोगों को बहुत सारा प्यार दे पाने की शक्ति है। मज़ा दो मीठे बोल हैं, किसी को अपना समझकर गले लगा लेने से मिली उष्णता है, किसी के कंधे पर सिर टिकाकर रोने का सुख है। मज़ा अपनी हथेली पर किसी दोस्त की उंगलियों की नरमी की याद है। मज़ा सांस में अपने बच्चों के पसीने की खुशबू होने का सुख है। मज़ा उन्हीं बच्चों को बाद में उड़ने देने का विश्वास है। मज़ा इस बात पर यकीन है कि ज़िन्दगी में हसरतें बची रहें तो आस्था भी बची रहती है। मज़ा एक गाने में डिफ़ाईनिंग मोमेन्ट ढूंढ लेने का दीवानापन है। मज़ा कॉमन पीपुल के बीच का एक होते हुए भी एक्स्ट्राऑर्डिनरी हौसला रखना है। मज़ा इस नश्वर दुनिया में होते हुए भी ख़ुशी का वो एक लम्हा जी लेना है जो उस लम्हे का इकलौता शाश्वत सत्य है।

अब कहिए कि सच चाहिए या मज़ा? :-)

पोस्टस्क्रिप्ट: और अगर मेरी डायरी पढ़ते हुए भी इमोशनल नहीं हुए तो पॉल यंग का ये गाना सुनिए। (कवितानुमा गीत के बोल http://www.metrolyrics.com/love-of-the-common-people-lyrics-young-paul.html पर पढ़े जा सकते हैं)





शुक्रवार, 23 अगस्त 2013

इस कहानी को कौन रोकेगा?

दो हफ्ते भी नहीं हुए इस बात को। आपको सुनाती हूं ये वाकया। मैं अलवर में थी, दो दिनों के एक फील्ड विज़िट के लिए। मैं फील्ड विज़िट के दौरान गांवों में किसी महिला के घर में, किसी महिला छात्रावास में या किसी महिला सहयोगी के घर पर रहना ज़्यादा पसंद करती हूं। वजहें कई हैं। शहर से आने-जाने में वक़्त बचता है और आप अपने काम और प्रोजेक्ट को बेहतर तरीके से समझ पाते हैं - ये एक बात है। दूसरी बड़ी बात है कि आप किसी महिला के घर में और जगहों की अपेक्षा ख़ुद को ज़्यादा सुरक्षित महसूस करते हैं। मेरी उम्र चौतीस साल है और मैं दो बच्चों की मां हूं। बाहर से निडर हूं और कहीं जाने में नहीं डरती। डरती हूं, लेकिन फिर भी निकलती हूं। रात में कई बार अकेले स्टूडियो लौटी हूं। देर रात की ट्रेनें, बसें या फ्लाइट्स ली हैं। कई बार मेरे पास कोई विकल्प नहीं होता, कई बार ख़ुद को याद दिलाना पड़ा है कि डर कर कैसे जीएंगे।

लेकिन यकीन मानिए, अंदर का डर वही है जो छह साल की एक बच्ची के भीतर होता होगा।

ख़ैर, इस बार अलवर में मेरे लिए एक होटल में रुकने का इंतज़ाम किया गया। मैं दिल्ली से अकेली गई थी, एक टैक्सी में। (यूं तो मैं पब्लिक ट्रांसपोर्ट लेने में यकीन करती हूं, लेकिन यहां पब्लिक ट्रांसपोर्ट में भी 'safety' है?) दिन का काम खत्म करने के बाद बेमन से होटल में चेक-इन किया। मुझे अकेले होटलों में रहने से सख़्त नफ़रत है। फैंसी होटल था - सुना कि अलवर के सबसे बड़े होटलों में से एक। कार्ड लेकर कमरे में गई। पीछे से एक हेल्पर ने आकर मेरा सामान रखा। मैंने दरवाज़ा खोला और दरवाज़े पर ही खड़ी रही, तब तक जब तक वो हेल्पर मेरा सामान और टिप लेकर बाहर नहीं चला गया (मैं कमरे में अंदर किसी अनजान इंसान के साथ खड़ी होने का ख़तरा भी नहीं मोल लेती)। तब तक सहायक कार्ड लेकर उसे जैक में डालकर कमरे की बत्तियां जला चुका था।

अंदर आई। सबसे पहले दरवाज़ा देखा। दरवाज़े में भीतर कोई कुंडी, कोई चिटकनी नहीं थी। लोहे की एक ज़ंजीर थी बस, जिसके ज़रिए आप दरवाज़े को हल्का-सा खोलकर बाहर देख सकते थे। सेफ्टी के नाम पर बस इतना ही। वो ज़ंजीर भी बाहर से खोली जा सकती थी। वैसा दरवाज़ा बाहर से किसी भी डुप्लीकेट कार्ड से खोला जा सकता था।

मैंने रिसेप्शन पर फोन किया। पूछा, "भीतर से दरवाज़ा बंद कैसे होता है?" एक आदमी आया और कमरे में घुसते ही उसने सबसे पहले कार्ड निकाल लिया, "इसी कार्ड से बंद होगा कमरा", उसने कहा और कार्ड निकालकर मोबाइल की रौशनी में दरवाज़ा बंद करने का तरीका बताने लगा। कमरे में घुप्प अंधेरा, मोबाइल की हल्की रौशनी के अलावा। मैं इतनी ज़ोर से डर गई थी कि मुझे पक्का यकीन है, उस आदमी को मेरे मुंह में आ गई जान और मेरी धड़कनें साफ़ सुनाई दे गई होंगी। (विडंबना ये कि मैं अभी-अभी गांव में लड़कियों के स्कूल में सेल्फ-डिफेंस की ज़रूरत पर बक-बक करके आई थी)

मैंने ज़ोर से चिल्लाकर कहा, "लाइट जलाइए आप पहले।"

उसने मुझे घूमकर देखा और कहा, "मैडम मैं तो..."

"मैं समझ गई हूं कि दरवाज़ा कैसे बंद होता है। पुट द डैम थिंग बैक एंड स्विच ऑन द लाईट्स", मैंने चिल्लाकर कहा, उस आदमी को कमरे के बाहर भेजा, रिसेप्शन पर फोन करके उन्हें कमरे में चिटकनियों की ज़रूरत पर भाषण दिया (जो महिला रिसेप्शनिस्ट को समझ में आया हो, इसपर मुझे शक़ है) और फिर दरवाज़ा अंदर से बंद कर दिया। उसके बाद मैंने जो किया वो हर उस कमरे और नई जगह पर करती हूं जहां सोने में मुझे घबड़ाहट होती है। मैंने कमरे के स्टडी टेबल को खींचकर दरवाज़े के पीछे लगाया। फिर उसके ऊपर भारी-भरकम बेडसाईड टेबल रखा। फिर उसके ऊपर अपना सूटकेस रखा।

नहीं, उस रात मुझे नींद नहीं आई थी और वो रात कई उन रातों में से थी जिस रात मुझे अकेले (या अपने बच्चों के साथ अकेले) सफ़र करते हुए नींद नहीं आती। क्यों? मैंने ट्रेन में अपनी बर्थ पर सो रही एक अकेली लड़की के साथ रात में बदतमीज़ी होते देखा है। वो लड़की डर के मारे नहीं चिल्लाई थी। मैं चिल्लाई थी। हर हिंदुस्तानी लड़की की तरह मैंने अपने बचपन में एक भरे-पूरे घर में छोटी बच्चियों तो क्या, बड़ी लड़कियों और छोटे लड़कों के साथ होती गंदी हरकतें देखी हैं जिसे सेक्सुअल अस़ल्ट कहा जाता है। देखा है कि उन्हें कहां-कहां और कैसे छुआ जाता है। ये भी बताती हूं आपको कि इनमें से कई बातें मुझे आजतक किसी को भी बताने की हिम्मत नहीं हुई, मां को भी नहीं और मुझे पक्का यकीन है कि उन लड़कियों ने भी किसी से कहा नहीं होगा। चुप रह गई होंगी। क्यों, वो एक अलग बहस और विमर्श का मुद्दा है। उस दिन भी मैंने गांव के स्कूल की बच्चियों की ज़ुबान में उनके अनुभव सुने थे। आप सुनेंगे तो आपको शर्म आ जाएगी।

उस दिन मेरा हौसला पूरी तरह पस्त हो गया जिस दिन मेरी साढ़े छह साल की बेटी ने स्कूल ड्रेस पहनते हुए कहा, "मम्मा, स्कर्ट के नीचे साइकलिंग शॉर्ट्स पहना दो।" "क्यों", मैंने उसे तैयार करते हुए एक किस्म की बेफ़िक्री के साथ पूछा, "आज हॉर्स-राइडिंग है?" "नहीं मम्मा। कुछ भी नहीं है। स्कूल में लड़के नीचे से देखते हैं। सीढ़ी चढ़ते हुए, चेयर पर बैठते हुए। मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता।"

मैं शब्दों में अपना शॉक बयां नहीं कर सकती। मैंने उसे मैम और मम्मा को बताने की दो-चार बेतुकी हिदायतों के बाद साइकलिंग शॉर्ट्स पहना दिया और पूरे दिन परेशान होकर सोचती रही। छह साल की बच्ची को अच्छी और बुरी नज़र का अंदाज़ा लग गया। हम अपनी बेटियों की कैसे समाज में परवरिश कर रहे  हैं! उसे विरासत में क्या सौंप रहे हैं? डर?

आद्या अभी भी पार्क में साइकलिंग शॉर्ट्स में जाती है, या फिर वैसे कपड़ों में जिससे उसकी टांगें ढंकी रहें। यकीन मानिए, मैंने उसे कभी नहीं बताया कि उसे क्या पहनना चाहिए। इस एक घटना ने मुझपर एक बेटे की मां होने के नाते भी ज़िम्मेदारी कई गुणा बढ़ा दी है। मैं रिवर्स जेंडर डिस्क्रिमिनेशन करने लगती हूं कभी-कभी, न चाहते हुए भी। बेटे को संवेदनशील बनाने की ज़िम्मेदारी बहुत बड़ी है। बेटा पालना ज़्यादा मुश्किल है, ज़्यादा बड़ी ज़िम्मेदारी है।

फिर भी 'रेप' या यौन हिंसा को रोकने के लिए ये काफ़ी नहीं है। जब तक छोटे से छोटे यौन अपराधों (ईवटीज़िंग, छेड़छाड़) को लेकर कानून को अमल करने के स्तर पर ज़ीरो टॉलेरेन्स यानी पूर्ण असहिष्णुता का रास्ता अख़्तियार नहीं किया जाएगा, महिलाओं, लड़कियों, बच्चियों के ख़िलाफ़ हिंसा को लेकर बड़े बदलाव की उम्मीद बेकार है। दरअसल, इतना भी काफ़ी नहीं। जब तक ज़्यादा से ज़्यादा लड़कियां और औरतें पब्लिक स्पेस में नहीं आएंगी, डिस्क्रिमिनेशन कम नहीं होगा। समस्या ये है कि एक समाज के तौर पर हम अभी भी लड़कियों और औरतों से घरों में रहने की अपेक्षा करते हैं। सार्वजनिक जगहों पर उनकी संख्या को लेकर हम कितने पूर्वाग्रह लिए चलते हैं, इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मेट्रो में, लोकल ट्रेनों में महिलाओं के नाम के एक ही कोच होते हैं। बाकी जनरल कोचों में गिनी-चुनी महिलाएं। अपने दफ्तरों, बाज़ारों, दुकानों, सड़कों, गलियों में देख लीजिए। क्या अनुपात होता है पुरुष और महिला का? को-एड स्कूलों में? कॉलेजों में? डीटीसी की बसों में महिलाओं के लिए कितनी सीटें आरक्षित होती हैं? शहर की सड़कों पर कितनी महिलाओं को गाड़ी चलाते देखा है आपने? ६६ सालों में सोलह राष्ट्रीय आम चुनाव, लेकिन देश की ४८ फ़ीसदी आबादी के प्रतिनिधित्व के लिए ३३ फ़ीसदी सीटों के आरक्षण को लेकर बहस ख़त्म ही नहीं होती। जो पुरुष औरतों को बराबरी का हक़दार मानते ही नहीं, वे उसे अपमानित, शोषित और पीड़ित करने का कोई मौका नहीं छोड़ेंगे। फिर हमारे यहां तो यूं भी पुरुषों के इस बर्ताव को मर्दानगी समझा जाता है। जब तक मर्दानगी की परिभाषा बदलेगी नहीं, मर्द नहीं बदलेंगे, बराबरी की बात फ़िज़ूल है। हम हर बलात्कार का मातम ही मना सकते हैं बस।   

रह गईं औरतें और लड़कियां तो सदमे में होते हुए भी, अपने डर से लड़ते हुए भी बाहर जाने और काम करने का हौसला रखेंगी ये। हमारे पास चारा क्या है? फिर भी मैं अकेले अनजान जगहों पर सफ़र करने की हिम्मत रखूंगी, चाहे इसके एवज़ में मुझे कमरे को भीतर से कई सारे फर्नीचर लगाकर ही क्यों न बंद करना पड़े। फिर भी मैं मर्दों पर, लड़कों पर भरोसा करती रहूंगी। पूरी ईमानदारी से इस भरोसे को बचाए रखने की कोशिश करूंगी और इसके ख़िलाफ़ उठने वाले हर शक़ का इलाज ढूंढने की कोशिश करूंगी।  मैं फिर भी अपने बच्चों को एहतियात बरतने के साथ-साथ भरोसा करना ही सिखाऊंगी। बेटी नज़र और 'टच' पहचानने ही लगी है। बेटा भी शायद धीरे-धीरे अपनी बहन की ख़ातिर और उसके जैसी कई लड़कियों की ख़ातिर ख़ुद को बदलना सीख जाए, मर्दानगी की परिभाषा बदलना सीख जाए। आमीन! 

रविवार, 11 अगस्त 2013

हज़ार दुश्वारियों के बीच

संडे का दिन संडे की तरह ही गुज़ारा जाए तो अच्छा। संडे का मतलब है देर से जागना, देर से नहाना, देर तक बिस्तर पर पड़े रहकर किताब और अख़बार पढ़ना, पूड़ी-भुजिया टाईप का कुछ नाश्ता करना और फिर से देर तक बिस्तर पर पड़े रहकर कोई थ्रिलर पढ़ना। मन हुआ तो बीच में अपनी पसंद के गाने सुनते जाना। ऐसा संडे बहुत दिनों के बाद लौटा है। आज जी लेते हैं कि कल से यूं भी डेडलाई्न्स की चिंता में जान गंवाना है। ज़िन्दगी की दुश्वारियां यूं भी कमबख़्त कहां कम होती हैं?

स्कूल में थी तो नया-नया बीटल्स सुनने का शौक़ चढ़ा था।  वो भी टार्गेट मैग़ज़ीन पढ़कर। जॉन लेनेन, पॉल मैककार्टने, जॉर्ज हैरिसन और रिंगो स्टार हमारे पोस्टर बॉयज़ थे जिनके पोस्टर्स मैगज़ीन से फाड़कर दीवारों पर लगाने की इजाज़त कभी नहीं मिली, लेकिन लव, लव मी डू/यू नो आई लव यू बजता तो लगता, जीवन का शाश्वत सत्य यही है। सत्य के चेहरे क्रश के हिसाब से बदलते रहते, लेकिन भावना उतनी ही शाश्वत रही। तब हमारी उम्र क्या थी, ये मत पूछिएगा। हम अस्सी के दशक में बड़े हो रहे बच्चे थे, लेकिन हमें मैडोना, माइकल जैक्सन और द पुलिस उस तरह पसंद नहीं आए जिस तरह अपने दादा-परदादा के ज़माने के क्लासिक्स भाए। हम पॉप, रॉक, मेटल के ज़माने में भी बीट और ब्लूज़ ढूंढते। या फिर क्लिफ रिचर्ड, नील डायमंड के अटरली होपलेसली रोमांटिक गाने। हां, बॉब डिलैन के गानों के बोलों की वजह से फोक रॉक ज़रूर सुनने लगे। मेटल और हार्ड रॉक से वास्ता बहुत बाद में पड़ा, इसलिए रोलिंग स्टोन्स, एरिक क्लैप्टन और लेड ज़ेपलिन भी अपने दौर के कुछ बीसेक साल बाद मेरी ज़िन्दगी में आएं। डायर स्ट्रेट्स के लिए तो अभी भी कानों को उस तरह तैयार नहीं कर पाई, जैसे घर में बाकी लड़कों को देखती हूं। जब मेरी अंग्रेज़ी की डिक्शनरी में साइकेडेलिक शब्द जुड़ा तब समझ में आया कि पिंक फ्लॉयड को कल्ट क्यों माना जाता है। 

आज एक-एक करके सब सुनती रही। बीटल्स, कार्पेन्टर्स, सीलिन डियॉन, मैरिया कैरे, साइमन एंड गारफंकल, एरिक क्लैप्टन और यहां तक कि मैडोना भी। फेसबुक पर बिना सोचे-समझे डाल दिए गए एक गाने पर मिली प्रतिक्रिया ने साबित कर दिया है कि अभिव्यक्त करने के तरीके, वाक्य-विन्यास बेशक अलग-अलग हों, लेकिन नोस्टालजिया की शब्दावली एक-सी होती है।

इस नोस्टालजिया को लिए-लिए पार्क आ गई हूं।

दूर कोने में एक-दूसरे की ओर पीठ किए खो-खो खेलने के लिए बैठ बच्चे, आस-पास के स्कूलों को लेखा-जोखा लेने निकली मम्मियां,रिसेशन के ज़माने में नाम भर के इन्क्रिमेंट को सिर धुनते पापा लोग, दूर विदेशों में अपने-अपने बेटे-बहुओं, बेटी-दामादों का बखान करती दादियां और करप्शन का रोना रोते दादाजी लोग, और फिर पुराने गानों पर शुरू हुई बातचीत में धीरे-धीरे जुड़ते, अपनी पसंद के गाने जोड़ते सभी उम्र के लोग - संडे की शाम पार्क कुछ ऐसे गुलज़ार हुआ है कि पूरे हफ्‍ते का टॉनिक मिल जाने का गुमां हुआ है।

टॉनिक ही टॉनिक है। ठीक सात से ठीक आठ बजे तक चलने वाले रंग-बिरंग फव्वारे से मिलने वाला विज़ुअल टॉनिक। आठ लोगों की ज़िन्दगियों के फ़साने के अठहत्तर रूपों के बारे में सोचते रहने के लिए ज़ेहन को टॉनिक। सोचते रहिए कि उनकी ज़िन्दगी में ये न होता तो क्या होता, यूं हुआ होता तो क्या हुआ होता।

कुल मिलाकर सबकी तकलीफ़ें एक-सी हैं। एक सी महंगाई। एक-सी बेवफाई। एक-से धोखे। एक-सा भ्रष्टाचार। एक-सी बीमारी। मर जाने का एक-सा डर। एक-सा प्यार। एक-सी उम्मीद। एक-सा नोस्टालजिया। नोस्टालजिया के लिए भी एक-सा नोस्टालजिया। सिर्फ बाहर का आवरण अलग है। खरोंचो तो भीतर सब एक-सा। हम फिर भी कितने अलग-अलग हैं!

इन एक-से लोगों की अलग-अलग कहानियां सुनते हुए ज़िन्दगी गुज़ार पाते तो क्या ही अच्छा होता। लेकिन ग़म-ए-रोज़गार भी है, ग़म-ए-इश्क भी। अब यही इकलौता जस्टिफिकेशन है इस बात का कि मैं बोलने बहुत लगी हूं आजकल, बात कम करती हूं। सुनती भी बहुत हूं, लेकिन ध्यान कम देती हूं। लिखती भी ख़ूब हूं आजकल, लेकिन सोचती नहीं। पढ़ती हूं, लेकिन मनन नहीं करती।

जब जीने को बहुत हो और वक्त की कमी हो तो ऐसा ही होता होगा शायद।

संडे ढलने लगा है और कल के डेडलाईन की चिंता सताने लगी है। लेकिन बीटल्स ने शाम को डूबने से बचा लिया है।

सोमवार, 5 अगस्त 2013

एक थी मनभर


अलवर शहर से कुछ साठेक किलोमीटर दूर एक सरकारी बालिका विद्यालय में मनभर देवी से मुलाक़ात होती है। मनभर मन भर हंसती हैं, मन भर हंसाती हैं। मन भर मन लायक बातें करती हैं - कुछ इस तरह कि उनके आस-पास गोल घेरे में बैठी लड़कियों का मन उनसे भरता ही नहीं। लड़कियों को उनसे और बातें करनी हैं, कुछ और कहानियां सुननी हैं। लड़कियों के पास सवालों का पिटारा है, मनभर किसी सवाल को नहीं टालतीं। 

स्कूल में सेल्फ-डिफेंस की क्लास लेने आईं मनभर देवी को देखकर लगता है कि किसी सशक्त महिला को ऐसा ही होना चाहिए। बल्कि हर महिला को ऐसा ही होना चाहिए। उनके चेहरे में अजीब-सी कशिश है। वे बातें कर रही हैं तो मैं ध्यान से उनकी बोली सुनकर ये समझने की कोशिश करती हूं कि दूध-सी गोरी और बेहद ख़ूबसूरत चेहरे वाली ये महिला कहां की होगी? कश्मीर की? या फिर पंजाब की? हालांकि मनभर पंजाबी नाम ज़्यादा लगता है, कश्मीरी कम। लेकिन उनमें कश्मीरी सौंदर्य ज़्यादा है, पंजाबी अल्हड़पन कम। 

हम बहुत देर तक बात नहीं करते। मैं उन्हें सिर्फ क्लास लेते हुए देखती हूं। उम्र का अंदाज़ लगाना मुश्किल है क्योंकि उनका छरहरा शरीर और मेहंदी रंगे बाल मेरे अंदाज़ के बीच का फ़ासला बन जाता है। ये महिला लड़कियों से हर तरह की बात करती हैं - सेक्स, यौन हिंसा, छेड़खानी, प्यार और समझौते, रिश्ते और नाते, शादी, बच्चे, घर में होने वाली मार-पीट और घर की चहारदीवारी के भीतर होनेवाला सेक्सुअल अब्युज़। मैं मनभर देवी की साफ़गोई और बात करने के तरीके की कायल होने लगी हूं। 
  
मनभर की कहानी जानने को बेचैन हूं। उम्र की समझदारी एक बात है, लेकिन ज़िन्दगी के अनुभव ही आपको इस क़दर 'वाइज़' (अंग्रेज़ी और उर्दू, दोनों) बना सकते हैं। 

मनभर देवी को क्लास के बाद खींचकर एक कोने में लेकर आई हूं। "अपने बारे में कुछ बताईए न", मेरी गुज़ारिश में बच्चों-सी ठुनक है लेकिन मैं उनसे इतनी लिबर्टी तो ले ही सकती हूं। 

"मेरे बारे में क्या सुनेंगी मैडम? मैं तो अंगूठा छाप। पढ़ना-लिखना भी नहीं जानती?"

"हैं, सच्ची?" मैं हैरान हूं। "आपको सुनकर और देखकर तो नहीं लगता।"

"वो तो सालों से घिस रही हूं न ख़ुद को, इसलिए ज़िन्दगी ने सब सिखा दिया। मेरी बेटी बहुत पढ़ी-लिखी है वैसे। एम ए किया है सोशल वर्क में। जयपुर में काम करती है। दामाद भी। दोनों बहुत ख़ुश हैं।"

"और आप? मैं उनसे पूछती हूं।"

"मेरे तो दिन ढल गए मैडम जी।"

"दिन के ढलने से पहले की कहानी सुनाईए न", मैं फिर एक बार कहती हूं। 


"हम जात के दर्ज़ी हैं - यहीं राजस्थान के (मेरा पहला अनुमान ग़लत साबित होता है)। मैं पांच बहनों के बीच की थी।"

"उम्र कितनी है आपकी?"

"साठ की होने वाली हूं।"

"रियली? आपको देखकर नहीं लगता।"

मनभर हंस देती हैं। अब देखती हूं कि उनके दाएं गाल पर गड्ढा बन जाता है हंसते हुए। 

"सास बहुत मानती होंगी", मैं गाल पर पड़ने वाले गड्ढे की ओर इशारा करती हूं। "मेरी सास ने मुझसे यही कहा था, और उनकी सास ने उनसे यही, एक अतिरिक्त जानकारी भी दे देती हूं उनको साथ में।"

"आप और आपकी सास खुशकिस्मत होंगे मैडम। मैं नहीं थी। छह साल की उम्र में शादी हो गई। दस साल बड़े लड़के से। मां-बाप के पास और बेटियां थीं, इसलिए गौना करने की जल्दी थी। शादी के बाद शरीर पर क्या-क्या गुज़री ये मत पूछो। बस इतना समझ लो कि कुछ समझ में भी नहीं आता था कि हो क्या रहा है। मैं छुपती तो सास बांह खींचकर पति के आगे कर देती। बारह साल की उम्र में पेट में बच्चा आ गया। मर भी गया पेट में ही। सुन पाएंगी अगर बताऊं तो कि क्या हुआ।"

"हूं? हां... बताईए न..." मैं हैरान हूं कि मनभर अपनी कहानी इतने मैटर-ऑफ-फैक्टली कैसे सुना सकती हैं! 

"पेट में बच्चा आया, ये तो तब पता चला जब पेट में ज़ोर से दर्द होने लगा। गांव की एक औरत आई। पेट में कान लगाया और बोला बच्चा तो मर गया। फिर दो-तीन औरतों ने मुझे लिटाकर मेरे पेट को दबा-दबाकर वो मरा हुआ बच्चा पेट से निकाल दिया। मैं एक हफ्ते तक खाट से नहीं उठ पाई।"

"अलवर की उमस में मेरे रोएं सिहरने लगे हैं। मैं अपनी दोनों हथेलियां ज़ोर से आपस में भींचकर खड़ी हो जाती हूं। मैंने ज़ख्‍म कुरेदा ही क्यों?"

"फिर पति पीछे और मैं भागती फिरूं। शादी का मतलब यही तो था, मेरी सास ने कहा मुझसे। अब मैं किससे क्या बोलती? अब सोच लो कि इतने साल पहले की बात है। तब मायके जाना भी पाप था। मैं तो कई साल अपने घरवालों से मिली ही नहीं थी। ख़ैर, फिर पेट में एक और बच्चा मर गया। चौदह साल की उम्र में पहला बेटा हुआ, फिर दो साल बाद दूसरा और फिर एक बेटी हुई। मैं नौ महीने पेट से होती और फिर बच्चा पैदा करने के बाद फिर से नौ महीने... पता नहीं कैसे जी रही थी। जी में आता था उस आदमी का गला घोंट दूं। लेकिन हिम्मत कभी नहीं हुई।"


"फिर आप ये..." मैं उनके नारीवादी रूप के बारे में पूछ रही हूं। 

"फिर एक दिन पति दो-चार मर्द ले आया। बोला, इनके साथ सो जा। तीन हजार रुपए मिलेंगे। उस ज़माने में तीन हज़ार बहुत होते थे। मैं तो बहुत रोई। बहुत हाथ-पैर जोड़े। मैं जितना रोती, वो मुझे उतना ही मारता। मैं किसी तरह पड़ोस में भागकर बच गई उस दिन। रात में कुंए में कूद गई लेकिन लोगों ने बचा लिया। ज़िन्दगी का रास्ता बदलना था, शायद इसलिए बचा लिया।"

"उस दिन मैंने कसम खा ली, ऐसे आदमी के पास दुबारा लौटने से रही। दो-एक दिन बाद मौका देखकर घर से भाग गई। सोचा, अपने लिए रोटी जुटा लूंगी तो बच्चों को ले जाऊंगी। वैसे सच कहूं तो बच्चों से बहुत लगाव था नहीं। बच्चे तो दुश्मन लगते। अब एक सोलह साल की लड़की पूरे दिन कुटती-पिटती हो और फिर बच्चे पैदा करती हो तो उसे बच्चों से क्या लगाव होगा?"

"मैंने झाडू-पोंछा किया। बर्तन मांजे। किसी तरह काम करके पेट पालती रही लेकिन उस आदमी के पास नहीं गई जो मुझे वैसे भी वेश्या बना देता। किस्मत से एक डॉक्टर मिल गईं, उन्होंने एक एनजीओ से जोड़ दिया मुझे। वहीं अपना नाम लिखना, जोड़-घटाव करना सीखा और वहीं काम करने लगी। कई साल काम किया। काम मालूम क्या था? अपने जैसी औरतों से जाकर मिलना... उनको हिम्मत देना... उनको पढ़ाना-लिखाना... बेटियों को मरने से बचाना... मैं जी गई। मुझे जीने का मकसद मिल गया। बच्चों को लेने के लिए लौटी तो आदमी ने बेटी को थमा दिया और भगा दिया घर से। खुद जैसी है, वैसी ही इसको बनाना। बोल के निकाल दिया घर से। मैंने भी कसम खाई - अपने जैसी तो बनाऊंगी लेकिन पढ़ाऊंगी। मेरे जैसी किस्मत ऊपरवाले ने दी भी हो उसको तो बदल दूंगी लड़कर। बेटी को स्कूल-कॉलेज भेजा। पैसा-पैसा जोड़कर पढ़ाया। उसकी नौकरी लगी और फिर उसने अपनी पसंद से शादी की - एक ब्राह्मण लड़के से। मैं शादी के ढकोसले नहीं मानती, लेकिन मुझे समाज के सामने साबित करना था कि एक अनपढ़ बेचारी औरत तय कर लो तो कुछ भी कर सकती है। हिम्मत है किसी की कि अब कोई बोल ले कुछ मुझसे? एक बात बोलूं? जयपुर में घर बनाया मैंने। बेटे-बहू वहीं आकर रहते हैं अब। आदमी भी। लेकिन उन सबको मैं किराएदार से ज्यादा कुछ नहीं समझती। अपना काम करती हूं। अपनी धुन में रहती हूं। मैं... मैं मदद करूंगी उनकी... उनसे मदद लेने से पहले ईश्वर उठा ले, यही बिनती करती हूं।"

मनभर की कहानी सुनते हुए मन भी भर गया है, आंखें भी। है किसी में इतनी हिम्मत?