गुरुवार, 30 सितंबर 2010

Between Mum and twins


Adit, you have to colour within the lines of the circle."

"But why Mamma?"


"Because it will look nice and tidy if you do so."


The kid looks up, looks down and then colours all over the sheet.


"But this also looks nice and beautiful. There are so many colours all over the sheet Mamma!"


I look at the holiday homework spreadsheet, speechless.

रविवार, 19 सितंबर 2010

हाथ की लकीरें

"ऐ रनिया उठ। आंख के सामने से हटे नहीं कि पैर पसारकर सो जाती है। नौकर जात की यही खराब आदत है, जब देखो निगरानी करनी पड़ती है। अब उठेगी भी कि गोल-गोल आंख कर हमको ऐसे ही घूरती रहेगी।"

मालकिन की एक फटकार ने रनिया को बिल्कुल सीधा खड़ा कर दिया। वैसे कहीं भी सो रहने की पुरानी आदत थी उसकी। वक्त मिला नहीं कि ऊंघने लगती और कैसे-कैसे सपने आते थे उसको! पहले मिठाई-पकवान के सपने देखती थी, अब भाभीजी की सितारे लगी साड़ियों के सपने देखती है।

"अभी आंखें खोलकर सपने देखेंगे तो मालकिन हमारा यहीं भुर्ता बना देंगी," रनिया ने सोचा और सिर झुकाए अगले हुक्म का इंतजार करने लगी। लेकिन मालकिन का भुनभुनाना कम नहीं हुआ। रनिया के सोने से शुरू हुए गुस्से की चपेट में घर के बाकी नौकर भी आ गए। मालकिन एक-एक कर सबकी किसी ना किसी पुरानी गलती की बघिया उधेड़ती रहीं। तभी उन्हें रनिया के लिए नया काम याद आया।

"तुम लोगों के चक्कर में हम एक दिन पगला जाएंगे। भूल ही गए थे कि तुमको क्या कहना है। बिजली नहीं है और भाभीजी को प्यास लगी होगी। रे रनिया, जा भागकर चापाकल से एक जग ठंडा पानी लेकर भाभीजी के कमरे में दे आ।" यहां एक कर्कशा बड़ी मालकिनऔर घर पर दूसरी मेरी मां। ये सोचते हुए रनिया ने तेज़ी से चापाकल चलाते हुए पानी भरा और भाभीजी के कमरे की ओर बढ़ गई।

ठाकुर परिवार की इस हवेली में उसे भाभीजी की सेवा-सुश्रुषा की दिनभर की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी। यहां काम करनेवाला ड्राइवर कमेसर उसी के टोले का था। बड़ी मिन्नतों के बाद उसे हवेली के अहाते में काम मिला था। रनिया की मां भी तीन घरों में झाड़ू-पोंछे का काम करती थी। बाप गिरिजा चौक पर सब्ज़ियों की दुकान लगाता था। तीन बड़े भाई थे। रनिया दो बहनों के बीच की थी। लेकिन मां को सुबह-सुबह आनेवाली उल्टियों के दौर से लगता, अभी परिवार के सदस्यों की संख्या पर पूर्ण विराम नहीं लगा था।

मां जैसा ही हाल यहां भाभीजी का था। अंतर बस इतना था कि आठ सालों के इंतज़ार के बाद भाभीजी पहली बार मां बननेवाली थीं। पूरा परिवार जैसे उन्हें सिर आंखों पर रखता। वैसे इस परिवार में लोग ही कितने थे। मालकिन, खूब गुस्सा करनेवाले मालिक और भैयाजी, जो काम के सिलसिले में जाने किस नगरी-नगरी घूमा करते थे। नौकरों की एक पलटन इन्हीं चार लोगों के लिए तैनात रहती थी।

रनिया भाभीजी के कमरे में पानी रख आई। लगे हाथों उनका बिस्तर ठीक कर मच्छरदानी भी लगा दी। भाभी जी शाम होते-होते छत पर चली आती और यहीं तबतक बैठी रहतीं जबतक शाम ढ़लकर रात में ना बदल जाती और चांद चढ़कर ठीक मुंडेर पर ना चला आता। लेकिन तबतक रनिया के घर लौटने का समय हो जाता।

घर लौटकर भी वो अक्सर भाभी जी के बारे में सोचती रहती। आखिर उनकी आंखों में इतनी उदासी क्यों रहती थी। उस दिन मालकिन ने कहा कि भाभीजी झुक नहीं पातीं, इसलिए उनके पैर साफ कर दे। रनिया बड़ी देर तक गर्म पानी से भरी बाल्टी में डूबीं भाभीजी की गोरी एड़ियों को देखती रही।

"क्या देख रही है रनिया?" भाभी जी ने पूछा।

"आपके पांव भाभीजी। कितने सुंदर हैं..."

भाभी जी हंसकर बोलीं, "हाथ की लकीरें हैं रनिया कि ये पांव फूलों पर चलते हैं।" फिर एक पल की चुप्पी के बाद बोलीं, "मुझे चलने के लिए इत्ती-सी ही फूलों की बगिया मिली है रनिया। तेरी तरह खुला आसमान नहीं मिला उड़ने के लिए।"

अपना काम खत्म करने के बाद घर आकर जब वो हाथ-पैर धोने के लिए कुंए के पास गई तो फिर भाभीजी के पांवों का ख्याल आया। हाथ की लकीरों का ही तो दोष रहा होगा कि उसे ये बिवाइयों से भरे कटी-फटी लकीरोंवाले पांव विरासत में मिले और उन्हें मेहंदी लगे गोरे, सुंदर पांव। लेकिन बहुत दिमाग लगाने पर भी फूल और आसमान वाली बात उसे समझ ना आई...

उधर भाभीजी का पेट गुब्बारे की तरह फूलता जा रहा था और इधर मां का। दोनों के बीच रहकर रनिया का काम बढ़ता चला गया। मालकिन तो भाभीजी को तिनका भी नहीं उठाने देती थीं। उनका खाना भी बिस्तर तक पहुंचा दिया जाता। रनिया को मालकिन ने सख्त हिदायत दे रखी थी कि भाभीजी जब बाथरूम में भी हों तो वो दरवाज़े के बाहर उनका इंतज़ार करती रहे। काम तो क्या था, लेकिन भाभीजी की बोरियत देखकर रनिया भी ऊब जाती।

और मां का काम खत्म होने का नाम ही नहीं लेता था। मां अभी भी तीनों घरों में सफाई का काम करने जाती। इसलिए घर लौटकर रनिया और उसकी बहन चौके में जुट जाते ताकि मां को थोड़ा आराम मिल सके। थकी-मांदी लौटी मां को जब रनिया आराम करने को कहती तो मां कहती, "अरे घबरा मत। मुझे तो आदत है ऐसे काम करने की।" कभी-कभी बातों में भाभीजी का ज़िक्र चला आता। "मेरे हाथों में आराम की लकीरें ही नहीं रनिया। तेरी भाभीजी-सी किस्मत नहीं है मेरी कि नौ महीने बिस्तर तोड़ सकूं।" मां कहती और वापस रोटियां बनाने में जुट जाती।

भाभीजी के लिए शहर के सबसे बड़े डॉक्टर के अस्पताल में कमरा किराए पर लिया गया। आठवें महीने में ही उन्हें अस्पताल में भर्ती करा दिया गया और रनिया की ड्यूटी यहां लगा दी गई। जाने कौन सा डर था मालकिन को कि सारा दिन पूजा-पाठ और मन्नतें मांगने में निकाल देतीं और शाम को भाभीजी के पास प्रसाद का पूरा टोकरा लेकर चली आतीं। बच्चा होना इतनी बड़ी बात तो नहीं थी। उसकी मां को तो हर साल एक हो जाता था। भैयाजी काम से छुट्टी लेकर घर लौट आए। वो भी पूरे दिन भाभीजी के सिरहाने बैठे रहते। उसने दोनों को अपने मां-बाप की तरह कभी लड़ते नहीं देखा था, खूब बातें करते भी नहीं देखा था। दोनों एक कमरे में रहकर भी कितने दूर-दूर लगते थे।

एक शाम रनिया अस्पताल से घर लौटी तो मां का अजीब-सा खिंचा हुआ चेहरा देखकर डर गई। दीदी बगल से गुड़िया की दादी को बुलाने के लिए गई थी। मां का चेहरा दर्द से काला पड़ गया। रनिया को समझ में ना आए कि भागकर बाहर से किसी को बुला लाए या मां के बगल में बैठी उसे ढांढस बंधाती रहे। इससे पहले कभी उसने बच्चा होते देखा भी नहीं था। हां, दीदी से कुछ ऊटपटांग किस्से ज़रूर सुने थे। रनिया मां की दाहिनी हथेली अपनी मुट्ठियों में दबाए उसे साहस देती रही। मां बेहोशी के आलम में भी कुछ बड़बड़ा रही थी। "संदूक में नीचे धुली हुई धोती है, निकाल लेना... छोटेवाले पतीले में ही गर्म पानी करके देना... तेरा बाबू नहीं लौटा क्या और सोनी कहां मर गई, अभी तक लौटी क्यों नहीं..." तभी पीछे से उसकी बहन गुड़िया की दादी और पड़ोस की दुलारी काकी को लेकर घुसी। औरतों ने दोनों लड़कियों को कमरे से निकाल दिया और खुद मां को संभालने में लग गईं। बाहर बैठी रनिया कुछ देर तो अंदर की अजीब-अजीब आवाज़ें सुनती रही और फिर जाने कब ऊंघते-ऊंघते वहीं दरवाज़े के पास लुढ़क गई।

अभी मीठी-सी झपकी आ ही रही थी कि दुलारी काकी ने चोटी खींचकर जगाया। "कितना सोती है रे तू रनिया। कुंभकर्ण की सगी बहन है रे तू तो। एक घंटे से चिल्ला रहे हैं। अभी चल अंदर जा। भाई हुआ है तेरा। खूब सुंदर है, माथे पर काले-काले बाल और रंग तो एकदम लाट साब वाला... क्या? समझ में नहीं आ रहा क्या बोल रहे हैं? जा, अंदर जा। मां का ख्याल रख, समझी?"

हक्की-बक्की रनिया उठकर भीतर चली आई। मां सो रही थी और उसके बगल में सफेद धोती में लिपटा उसका भाई गोल-गोल आंखें किए टुकुर-टुकुर ताक रहा था। रनिया ने झुककर उसे देखा और फिर बगल में लेट गई।

नींद खुली तो मां को वापस चौके में चूल्हा जलाते देखा। नया भाई सो रहा था, बाबू काम पर जाने के लिए सब्ज़ी की टोकरियां निकाल रहा था और उसकी बहन सोनी छोटकी को गोद में लिए दरवाज़े पर झाड़ू दे रही थी। हाथ-मुंह धोकर रनिया भाभीजी के पास अस्पताल जाने की तैयारी करने लगी। डेढ़ महीने हो गए थे भाभीजी को अस्पताल में। ये डॉक्टर भी कैसा पागल था। मां को देखकर तो डॉक्टर के पागल होने का शक और पुख्ता हो गया। भाभीजी बीमार थोड़े थीं, बच्चा ही तो होना था उनको। फिर ये ताम-झाम क्यों?

अस्पताल पहुंची तो दरवाज़े पर कमेसर काका दिखे... चेहरा सूखा हुआ, आंखें लाल। उसको देखकर बोले, "घर जा रनिया। तेरी ज़रूरत नहीं अब भाभीजी को।" रनिया हैरान उन्हें देखती रही और फिर बिना कुछ कहे भाभीजी के कमरे की ओर बढ़ गई। कमरे के बाहर सन्नाटा था। अंदर भाभीजी लेटी हुई थीं, बिना पेट के। भैयाजी गलियारे में डॉक्टर साहब से कुछ बात कर रहे थे और मालकिन बगल में कुर्सी पर आंखें बंद किए बैठी थीं। किसी ने उसकी तरफ नहीं देखा। ये भी नहीं पूछा कि उसे आने में इतनी देर क्यों हो गई।

पीछे से कमेसर काका आए और उसका हाथ पकड़कर नीचे ले गए। "लेकिन हुआ क्या है काका? भाभीजी तो कमरे में सो रही हैं। फिर सब इतने परेशान क्यों हैं? और उनको बेटी हुई या बेटा? मैंने पेट देखा उनका..."

"भाभीजी के पेट से मरा हुआ बच्चा निकला रनिया। इतने दिन से इसी मरे हुए बच्चे की सेवा कर रही थी तू। बेचारी... कैसी किस्मत लेकर आई है ये बहू।"

मूक खड़ी रनिया कमेसर काका के शब्दों के अर्थ टटोलने में लगी रही। "मरा हुआ बच्चा पेट से थोड़ी निकलता है किसी के? ये कमेसर काका कुछ भी बकते हैं। मां के पेट से तो किन्ना सुंदर भाई निकला उसका। भाभीजी से ही पूछेंगे बाद में। अभी तो ये बुढ्ढा हमको अंदर जाने भी नहीं देगा।" ये सोचकर रनिया दरवाज़े से बाहर निकल आई।

दोपहर को जब कमेसर काका भैयाजी और मालकिन को लेकर घर की ओर निकले तो रनिया सीढ़ियां फांदती-कूदती भागती हुई भाभीजी के कमरे में पहुंची। रनिया को देखकर भाभीजी ठंडे स्वर में बोली, "जा रनिया। मुझे तेरी ज़रूरत नहीं अब। मुझे तो अपनी भी ज़रूरत नहीं रही... "

रनिया घर लौट गई। किसी से कुछ कहा नहीं, बस छोटे भाई को गोद में लिए बैठी रही। इस रात भी रनिया को नींद आई और नींद में सपने भी। लाल सितारोंवाली साड़ी में भाभीजी, उनकी गोद में सफेद कपड़े में लिपटा बेजान बच्चा, उसके भाई की गोल-गोल आंखें, मां का बढ़ा हुआ पेट, भाभीजी के मेहंदी लगे पांव, फूलों की क्यारी, हाथों की कटी-फटी उलझी हुई लकीरें... नींद में सब गड्ड-मड्ड हो गए थे।


(रविवारी जनसत्ता में 18 सितंबर 2010 को प्रकाशित)

शनिवार, 18 सितंबर 2010

ऐसी हो एक चादर

एक चादर ऐसी लाओ मम्मा
जो सूरज का चेहरा ढंक दे।
धूप को बांधे अपने अंदर,
और थोड़ी-सी छाया रख दे।

ऐसी हो वो चादर मम्मा
जो बरसाए मोती नभ से।
रोशन कर दे अपनी दुनिया,
और खुशियां ही खुशियां बरसे।

ऐसी हो वो चादर मम्मा
जिससे कभी ना पांव निकले।
जब चाहें, जैसा भी चाहें
अपने जीवन को हम जी लें।

ऐसी हो वो चादर मम्मा
घर जैसा सुख दे देती हो।
जब चलती हो हवा बर्फ-सी
आंचल में मुझको भरती हो।

ऐसी हो वो चादर मम्मा
कभी ना जो मैली पड़ती हो।
जिसका वितान आसमां सा हो,
धरती पर वो आ गिरती हो।

ऐसी हो वो चादर मम्मा
मज़हब, भाषा को ना जाने
जब सिर पर देनी हो छांव
सबको अपना-सा ही माने।

बुन दो ऐसी चादर मम्मा
हमको भी थोड़ा जीने दो।
बूंद-बूंद जो जीवन-रस है
बिना डरे हमको पीने दो।