गुरुवार, 7 अक्टूबर 2010

कुछ यहां-वहां से

(1)

नींद में ही कविताएं बुनना
और थोड़े लफ़्ज़ों को चुनना
ख़्वाब इसे ही कहते हैं।

(2)

ये कास के फूलों का मौसम है,
और पत्तों के झड़ने का।
ये ढाक के बजने का मौसम है,
है तितलियां पकड़ने का।
ये मौसम बदलने का मौसम है।

(3)

मेरी ओक में पानी दे दो
पन्नों पर भी बारिश बिखरे
धुंधलें हों कुछ ख्वाब पुराने
नए सपनों का मौसम गुज़रे।

(4)

तुम्हें देखकर
यूं धुलता है गुस्सा
जैसे सावन की बारिश में
धुलती है दिल्ली।




11 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत उम्दा....शायद मेरी जानकारी में हाईकु की परिभाषा जो है, उसमें खरे नहीं उतरते मगर क्षणिका के हिसाब से उम्दा है.

Anu Singh Choudhary ने कहा…

शुक्रिया। मैंने परिभाषा के दायरे से बाहर कर दिया इन्हें। अब शायद ठीक लगे।

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत अच्छी लगी पोस्ट। बधाई।

गिरिजेश राव, Girijesh Rao ने कहा…

ओक क्या है? जरा बताइए।

Anu Singh Choudhary ने कहा…

दोनों हाथों को जोड़कर ओक बनता है।
"मेरे हाथों की ओक में
गिर रहा है सावन का पानी
बूंद-बूंद टपकता हुआ।"
शायद इससे स्पष्ट हो।

गिरिजेश राव, Girijesh Rao ने कहा…

धन्यवाद।

@
मेरी ओक में पानी दे दो
पन्नों पर भी बारिश बिखरे
धुंधलें हों कुछ ख्वाब पुराने
नए सपनों का मौसम गुज़रे।

अब समझ रहा हूँ। ये पंक्तियाँ बहुअर्थी हैं।
आभार।

Udan Tashtari ने कहा…

आभार आपका...

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

बहुत ही प्रभावी पंक्तियाँ.....

Akanksha Yadav ने कहा…

कम शब्दों में व्यापक फलक को समेटती रचनाएँ...साधुवाद.


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"शब्द-शिखर' पर जयंती पर दुर्गा भाभी का पुनीत स्मरण...

SATYA ने कहा…

बहुत अच्छी रचना,

यहाँ भी पधारें:-
ऐ कॉमनवेल्थ तेरे प्यार में

महेन्‍द्र वर्मा ने कहा…

तुम्हे देखकर
यूं धुलता है गुस्सा
जैसे सावन की बारिश में
धुलती है दिल्ली

गहन भावों के लिए सटीक बिम्बों का प्रयोग कविता को प्रभावशाली बना रहा है...बहुत सुंदर...बधाई।