सोमवार, 22 जुलाई 2013

कभी खाना खाकर मरेंगे, कभी भूखे

मेरे सामने जो प्लेट परोसी गई थी उसमें खिचड़ी थी और आधा अंडा था। पनियल खिचड़ी में हल्दी के रंग की बहार ज़्यादा थी, दाल की कम। अंडा शायद आख़िरी लम्हे में मांग दिए गए खाने की वजह से मेज़बान को हुई शर्मिंदगी से बचाने के लिए दिया गया था। ये भी मुमकिन है कि बच्चों को अंडा दिया ही जाता हो। रोज़ न सही, साप्ताहिक तालिका के हिसाब से हफ्ते में दो दिन ही सही। बावजूद इसके वो खाना देखकर मेरे हौसले पस्त हो गए और मैंने खाना लौटा दिया। बच्चों के मिडे डे मील में से पहले खाना मांगने, और बाद में उसे लौटा देने की शर्मिंदगी काफी दिनों तक सालती रही थी। लेकिन वो खाना खाने की हिम्मत मैं जुटा नहीं पाई।

मैं टीचर नहीं हूं। मैं कोई जांच अधिकारी भी नहीं हूं। मैं सामाजिक कार्यकर्ता भी नहीं। एक पत्रकार हूं, और लिखने-पढ़ने की ख़्वाहिश सामाजिक सरोकारों के क़रीब ले जाया करती है। सतहों को खुरचकर मुश्किल सवाल पूछने और फिर उन सवालों के जवाब सुनकर तकलीफ़ में बने रहने की बुरी आदत है। एक मुश्किल सवाल झारखंड में एक स्कूल का दौरा करते हुए पूछा था, स्कूल का खाना ठीक लगता है? उलझे बालों, लंबे नाखूनों और दो बटन के बग़ैर मटमैली कमीज़ में किसी तरह स्कूल चले आए दस-ग्यारह साल के उस आदिवासी बच्चे ने इतनी ही धीमी आवाज़ में जवाब दिया कि सुनने के लिए उसकी ज़ुबान के पास कान लगाना पड़ा। बाद में लगा कि जवाब न ही सुना होता तो अच्छा था। उसने कहा था, हमन मन के कम-स-कम खाना त मिलत है।

मिडे डे मील एक बड़ी वजह थी कि पिछड़े हुए गांवों और शहर के पिछड़े इलाकों के सरकारी स्कूलों के गरीब बच्चों को बाल मज़दूरी के दुष्चक्र से निकाल कर स्कूलों में वापस लाया जा सका। भुखमरी और कुपोषण का शिकार बच्चे और उनके मां-बाप बच्चों को मिलने वाले इसी एक वक्त के खाने के नाम पर आंगनबाड़ी या स्कूल भेज दिया करते हैं। लेकिन हमारे यहां किसी भी व्यवस्था में भ्रष्टाचार और लालच का ज़हर घुलते देर नहीं लगती। बच्चों का खाना बनाने वाले, उन्हें अनाज सप्लाई करने वाले, उन्हें पढ़ाने का ज़िम्मा उठाने वाले उनके अपने लोग ज़हरखुरान बन गए। किस गांव, किस स्कूल का उदाहरण लूं कि एक नहीं, ऐसा हर गांव के हर सरकारी स्कूल का हाल है। 

मिड डे मील ने नाम पर सबसे ज़्यादा भ्रष्टाचार होता है। खाद्यान्न वितरण का टेंडर निकले तो काम नेता जी या रसूखदारों के रिश्तेदारों को जाता है। पहली चोरी वहीं से शुरू हो जाती है। दाल अरहर की आनी है, खरीद ली जाएगी खेसारी (उत्तर प्रदेश में तो खेसारी दाल की बिक्री पर भी प्रतिबंध था)। चावल बासमाती आना हो तो आएगा ज़रूर, लेकिन लंबे दानों वाला अच्छा चावल आंगनबाड़ी वाली मैडम या फिर स्कूल में आपूर्ति का ज़िम्मा संभालने वाले टीचर के घरों में बोरों में मिलेगा। स्कूल में तो सस्ते से सस्ता उसना चावल ही मिलेगा। जाने तेल और रिफाइंड में क्या मिला होता है कि मधुबनी के बीमार बच्चों के आमाशय में ज़हरीले रसायन ऑर्गेनिक फॉस्फोरस के अंश मिले।

बच्चों की हाज़िरी और खाने की मात्रा का घालमेल कर हर रोज़ घोटाला होता है। हो सकता है, स्कूल के स्तर पर होने वाला ये घोटाले बहुत छोटे घोटाले हों। लेकिन अगर एक ही राज्य में एक ही दिन के भीतर दो अलग-अलग शहरों के दो अलग-अलग स्कूलों में मिड डे मील खाकर बच्चों की मौत हो जाए या बच्चे बीमार पड़ जाएं तो मामला कहीं ज़्यादा सरकश और गंभीर है। यानी ज़हरखुरान स्कूलों में ही नहीं, उससे भी कहीं ऊपर बैठे हैं जिन्हें बड़े-बड़ों का वरदहस्त प्राप्त है। जाने वो कैसे लोग होंगे जो इतने सारे बच्चों की जानों पर खेलकर अपनी तिजोरियां भर रहे हैं, बड़ी-छोटी चोरियां कर रहे हैं। जाने वो कैसे लोग होंगे जिन्हें बच्चों की जानों के साथ लापरवाही बरतते हुए अपने घर के बच्चों का ख़्याल भी नहीं आता। रही आंकड़ों की बात तो सुनिए – हमारे देश में हर साल सात से साढ़े सात लाख बच्चे कुपोषण की वजह से होने वाली अलग-अलग बीमारियों से मर जाते हैं। जो बच जाएंगे, उन्हें हम स्कूलों में मिड डे मील खिला दिया करेंगे।

(गांव कनेक्शन में मेरा कॉलम - 'मन की बात')