बुधवार, 20 मार्च 2013

बोए जाते हैं बेटे, उग आती हैं बेटियां

बिरला तारामंडल, जयपुर के बाहर जमा हुई इन लड़कियों को मैं एकटक देखती रह जाती हूं। हल्के नीले कुर्ते और सफ़ेद दुपट्टे से ढंके सिर के बावजूद उम्र की बेपरवाही और बेबाकपन छुपाए नहीं छुपती। दुपट्टे के पीछे से एक लड़की के कानों के झुमके शाम की ढलती रौशनी में यूं चमक रहे हैं कि जैसे अंधेरा होने से पहले जुगनुओं के झुंड ने पहले से अपनी जगह मुकर्रर कर ली हो। बासठ लड़कियों के बीच मैं खड़ी अचानक कॉन्शस महसूस करने लगी हूं, ऐसे कि जैसे उन्हें मुझसे नहीं, मुझे उनसे बात करने में झिझक होने लगी है।

मैं सहज तब जाकर हुई हूं जब लड़कियां सामने नहीं हैं और मेरे साथ उनकी एक टीचर रह गई है। अलवर से मीलों दूर तिजारा नाम के गांव से आई ये लड़कियां कस्तूरबा गांधी विद्यालय यानी केजीबीवी की छात्राएं हैं। तिजारा मेवात इलाके में पड़ता है और आस-पास के गांवों की आबादी ज़्यादातर मुसलमानों की है। मेवात की मुसलमान मेव कहे जाते हैं।

गुड़गांव से मुश्किल से ६०-७० किलोमीटर दूर होने के बावजूद यहां महिला शिक्षा दर देश में सबसे कम है - चालीस फ़ीसदी से भी कम। लिंगानुपात ९०६ है यानी प्रति १००० पुरुष पर ९०६ महिलाएं। किसी किसी गांव में तो प्रति १००० लड़कों पर ८०० लड़कियां भी नहीं मिलतीं। ब्याह के लिए लड़कियों को मध्य प्रदेश, झारखंड, उड़ीसा, यहां तक कि असम से भी खरीदकर लाया जाता है।

तिजारा का केजीबीवी इस इलाके का इकलौता केजीबीवी स्कूल है। गरीबी रेखा के नीचे आनेवाले परिवारों की लड़कियों के लिए आवासीय स्कूलों के रूप में केजीबीवी स्कीम २००४ में लागू हुआ। उद्देश्य था वैसी लड़कियों को शिक्षा से जोड़ना जो या तो कभी स्कूल गई ही नहीं, या गरीबी या दूरी या किसी और सामाजिक कारणों से पढ़ाई बीच में  ही छोड़नी पड़ी। तिजारा के केजीबीवी में ज़्यादातर मुस्लिम लड़कियां हैं, जो कहने को तो हॉस्टल में रहती हैं, लेकिन हफ़्ते में मुश्किल से दो दिन स्कूल आती हैं। स्कूल आने से ज़्यादा मदरसा जाना ज़रूरी है। इनकी प्राथमिक शिक्षा मदरसों में ही हुई और उर्दू और अरबी के साथ-साथ ज़िन्दगी के अहम पाठ भी वहीं सीखना सही माना जाता है। इसलिए नाम के लिए स्कूल में दाख़िला हुआ भी तो इसलिए कि हर महीने केजीबीवी में मिलनेवाली ज़रूरत की चीज़ें हासिल हो जाएं - सलवार-कमीज़, तेल, साबुन, शैंपू, कंघी... बाकी मां के बच्चा होने के है तो बेटी को घर ले गए, ईद-त्यौहार आया तो बेटी को घर ले गए, कोई शादी-ब्याह हुआ तो बेटी को घर ले गए...  पढ़ाई करके क्या होगा? बारह-तेरह की उम्र में शादी और उसके बाद बच्चों के पैदा होने के सिलसिले जो ज़िन्दगी भर नहीं थमते। शिक्षा की ज़रूरत पर बहस भाषणबाज़ी समझी जाती है और स्कूलों को बच्चियों के बिगड़ जाने का सबब। मैं हैरान हूं कि ऐसे परिवारों की बेटियों को जयपुर तक आने की इजाज़त कैसे मिल गई मां-बाप से? मन में कहीं ना कहीं अपनी बच्चियों की बेहतरी की ख़्वाहिश तो होगी, इत्ती-सी ही सही।

तारामंडल से निकलकर लड़कियों ने चांद-सितारे-सूरज-आकाशगंगा सब यहीं लॉन में उतार दिया है। किसी को आठ ग्रह याद हैं तो किसी को चार। कोई उस ग्रह का नाम भूल गया जिसके चारों और वलय दिखाई दिया, तो कोई सूरज से धरती की दूरी के बारे में पूछ रहा है। हंसती-खिलखिलाती-चाय के लिए आवाज़ लगाती इन लड़कियों के सिर से दुपट्टा नहीं सरकता, और कुछ है जो बाहर निकल आने को बेताब है। चांद-तारों के बहाने हमारी बातचीत शुरू हो जाती है। अस्मां, तारा,शबनम,रुख़सार, मेहरुनिस्सा, फ़िरदौस और मोईना के बीच मोहिनी, आरती और सुशीला भी।

बस में बैठने तक हमारी इतनी दोस्ती तो हो ही गई है कि ये अपने नाच-गाने-कविता पाठ में मुझे शामिल करने को तैयार हो गए हैं। गीत है, भजन है, हौसले के कुछ टूटे-फूटे गीत हैं। जो भी है, बस में बैठी ये लड़कियां पंख फड़फड़ाती चिड़िया लग रही हैं। इतनी-सी जगह में इन्होंने घंटे-दो घंटे के लिए अपनी जो दुनिया बसाई है उसमें रोक-टोक नहीं, हिचक नहीं, डर नहीं और कोई बोझ नहीं। खुलकर गाती हैं, खुलकर नाचती हैं। इस बीच मैं फ़िरदौस के बारे में सोच रही हूं जिसके आठ भाई-बहन हैं। फ़िरदौस ने एक गीत सुनाया है जो मैं वैसे का वैसे नीचे डाल रही हूं।

बेटे पढ़ानेवाले, क्या तेरे मन में समाई
काहे ना बेटी पढ़ाई तूने...

बेटे को दिया तूने तख़्ती और बस्ता
बेटी ने गठरी उठाई

बेटा तो खेले तेरा गेंद और बल्ला
बेटी ने सरसों कटवाई

बेटा तो देखे तेरा फिल्म और पिक्चर
बेटी ने प्याज़ लगवाई

बेटा तो मांग अपना हक़ और हिस्सा
बेटी ना मांगे एक पाई

फ़िरदौस की आवाज़ कहीं गहरे उतर गई है और खिड़की के बाहर से जयपुर भागा जा रहा है - सफ़ेद शफ्‍फ़ाक बिड़ला मंदिर, राजस्थान यूनिवर्सिटी, पिंक स्कावयर मॉल, रामनिवास बाग़, रामबाग़ पैलेस, जल महल...शहर छूटता जा रहा है और हम अलवर की ओर जा रहे हैं। ट्रिप भी ख़त्म होने को है और फ़िरदौस और बाकी लड़कियों के लिए फिर वही कुंज-ए-कफ़स होगा, और फिर वही सैय्याद का घर।

मेरी तंद्रा मीना नाम की एक लड़की की नज़्म की पंक्तियां सो टूटती है...

"हंसकर कहती थी बीबी सुमैया, ज़ालिमों चाहे कितना सता लो
मैं ना छोड़ूंगी दामन नबी का, बेहया चाहे कितना सता लो... "





रविवार, 17 मार्च 2013

लौटकर जाता हुआ बसंत

अभी तो पिछले ही हफ्ते बच्चों को शहीद स्मारक पार्क लेकर गई थी। वहां सिर्फ टहलने की इजाज़त है, या फिर पार्क के किनारे-किनारे लगी हुई लोहे की हरी कुर्सियों पर बैठने कर प्राणायाम करने की। मेरी उम्र के कम ही लोग होते हैं वहां। ज़्यादातर इस डिफेंस कॉलोनी में रहनेवाले रिटायर्ड फौजियों और एक्स-मेमसाहबों की जमात होती है वहां। बच्चे को तो वहां जाने की बिल्कुल अनुमति नहीं है। पार्क चूंकि पार्क नहीं, शहीदों की स्मारक है, इसलिए वहां टहलते हुए भी एक डेकोरम मेन्टेन करना होता है।

शहीद कौन, फौज क्यों, देश क्या, सरहद कैसी और फाइटर प्लेन की ज़रूरत क्या के बच्चों के सवालों के जवाब देने की एक बार की नाकाम कोशिश के बाद मैं कई महीनों बाद उन्हें शहीद स्मारक ले गई थी उस दिन - इस सख़्त ताक़ीद के साथ कि पार्क का एक चक्कर लगाते हुए हम सिर्फ और सिर्फ फूलों को देखेंगे, और किसी तरह की कोई शरारत नहीं करेंगे, दौड़-भाग भी नहीं।

बच्चों को मां की ताक़ीद समझ में तो आ गई लेकिन बसंत को महसूस करते हुए बौरा जाने के बाद क्या किया जाता है, ये उन्हें क्या समझ में आता कि जब पंत सरीखे कवियों तक को समझ में ना आया! बहरहाल, हमने रंग गिने, फूल चुने, खुशबू पी ली और कचनार के पेड़ के नीचे खड़े होकर तबतक तोतों की जोड़ियां बनाते रहे जबतक कि टहलनेवालों ने क़रीब-क़रीब धकेलते हुए पार्क के बाहर नहीं पहुंचा दिया।

मैं यहां शहर के कोलाहल से छुपते-बचते हर रोज़ सुबह आते-जाते मौसमों के घटते-चढ़ते दिन की डूबती-उतराती सांसों की हरकत सुनने आती रही हूं, तबसे जबसे नोएडा में हूं। हर जाता हुआ मौसम बहुत उदास करता है और इस पार्क में मौसमें के जाने की आहटें ज़रा खुलकर सुनाई देती हैं। ओखला बर्ड सैंक्चुअरी से रास्ता भटकर आ पहुंचे साइबेरियन क्रेन्स सर्दियों के आने की ख़बर लाते हैं तो सूखता हुआ डालिया गर्मियों की दस्तक ले आता है।

बच्चों ने और मैंने बसंत को अपने चरम पर देखा था उस दिन। पॉपी के फूल अपने नशे में चूर थे। डालिया ने इस अदा से गमलों के बाहर अपनी गर्दन निकाल रखी थी कि उनमें मोच ना आती तो मुझे हैरानी होती। मोगरे की खुशबू अपने पूरे शबाब पर थी (अगर खुशबू की तस्वीर खींची जा सकती तो मैं वो भी कोशिश करती उस दिन)। हम लाइलैक का रंग देखकर हैरान थे, ऐसे हैरान कि आद्या घर लौटकर अपने क्रेयॉन्स के डिब्बे में बड़ी देर तक वो रंग ढूंढती रही थी। नीम के कुछ सूखे हुए पत्तों को आदित ने अपनी जेब में भर लिया था और हम सड़क के किनारे खड़े होकर अपनी मुट्ठियों में उन्हें मसलते हुए किस्म-किस्म की आवाज़ निकालकर खिलखिलाते रहे थे। वो बसंत का एक हसीन, ख़ुशमिज़ाज दिन था।

आज सब वीरान था, उजड़ने के कगार पर खड़ा। आपके शहर के बाहर पसरे रेगिस्तान से चल निकली धूलभरी आंधियां यहां भी पहुंचती ही होंगी, मैंने उदास होकर अपनी बड़ी ननद को फोन पर कहा था।

बसंत चुपचाप अपना साजो-सामान बांधने में लगा है। फूलों ने उदास होकर खिलना छोड़ दिया है। सेमल ने नाराज़ होकर अपने सैंकड़ों फूल ज़मीन पर फेंक दिए हैं। कचनार ने फूलों का गहना उतार दिया है। अब पत्तों से श्रृंगार की बारी है। कोने में खड़ा एक टेसू है जो गर्द-ओ-गुबार से निडर यूं ही खड़ा रहेगा, कम-से-कम तबतक कि जबतक अमलतास और गुलमोहर मोर्चा ना संभाल लें।

इस जाते हुए बसंत के लिए उदास होते-होते रह गई। इस कमबख़्त की तो फ़ितरत ही ऐसी है। मनमोहना आता ही दो-चार-दस दिनों के लिए है। आता भी इस अदा से है कि जैसे पूरी दुनिया को दीवाना बनाने में ही इसके अहं को तुष्टि मिलती हो। प्यास बढ़ाने आता है, प्यास बुझाने का कोई उपाय नहीं करता। आंखों पर रंगों के परत-दर-परत ऐसे पर्दे डालता है कि सच-फ़रेब, सही-गलत कुछ नज़र नहीं आता। ऋतुओं का राजा कहलाने भर के लिए हर तरह की चालबाज़ियां, हर तरह के छल-कपट करेगा। अगर इसकी बातों में आ गए तो ख़ुद को नाकाम समझ लीजिए। ऐसे दिलफेंक, आशिकमिज़ाज, किसी के ना हो सकनेवाले छलिया बसंत के लिए क्या उदास होना?

हम तो ख़ुद को गर्मी के लिए तैयार करेंगे। यूं भी विरह की आग में जलनेवालों को कुछ भी अब जला नहीं सकता। बिस्तर को रज़ाईयों और कंबलों से आज़ाद कर हल्का करेंगे। अलमारियों में हल्के रंगों के लिए ढेर सारी जगह बनाएंगे। धूप को आम की मिठास से बर्दाश्त करने लायक बनाएंगे। कोयल को गीत गाने के लिए आज़ाद करेंगे और कौऔं को उनपर औचक आन पड़ी कोयल के अंडों को सेने की ज़िम्मेदारी के लिए तैयार करेंगे। बालकनी में दो की बजाए चार रोटियां और पीने का थोड़ा-सा पानी डाल आएंगे। लंबे हो गए दिन का लुत्फ़ उठाएंगे और ख़ूब सारा बाकी काम निपटाएंगे।

जा जा बसंत, अपने घर जा। सुना नहीं कि जो तपता है, कुंदन होकर वही निखरता है?

शनिवार, 16 मार्च 2013

आओ एक बात मैं कहूं तुमसे

आद्या और आदित,

आज आपने मम्मा को कई बार हैरान किया है। मैंने गाड़ी रोकी तब नो स्टॉपिंग, नो पार्किंग के बोर्ड को पढ़कर... सामने गुज़रते ऑटो की पीठ पर छपी शायरी को पढ़ने की कोशिश करके... बिना रुके जैक एंड द बीनस्टॉक की कहानी पढ़कर... और मेरे फेसबुक पर आते ही "आप काम नहीं, फेसबुक कर रही हैं मम्मा" कहकर! मुझे आज एक लंबे सफ़र के सबसे मुश्किल माईलस्टोन्स में से एक तक पहुंच जाने का गुमां हो रहा है। ये भी मुमकिन है कि आप दोनों जल्द ही ममा की डायरी और उनकी लिखी हुई असंख्य चिट्ठियां भी पढ़ने लगो। तब, ए और ए, मेरा लिखना - मेरा ये सारा आत्मालाप सार्थक हो जाएगा।

आदू और आदि, इससे पहले कि तुम बाकी की चिट्ठियां पढ़ो, मैं तुम दोनों के लिए इस पन्ने पर कुछ बुलेट प्वाइंट्स छोड़ देना चाहती हूं। ये मेरे अपने गिरने-संभलने-चोट खाकर सीखने का निचोड़ कहा जा सकता है। इसे मेरी सीमित समझ का आईना भी मान सकते हो। फिर भी जो जानती हूं, तुम्हारे लिए यहां समेट रही हूं।

  • ज़िन्दगी की प्रयोगशाला में किए हुए सभी प्रयोगों का नतीजा सार्थक और कारगर ही हो, ज़रूरी नहीं। तुम्हारे किए हुए किसी प्रयोग से, तुम्हारी किसी गलती से प्रयोगशाला में आग भी लग जाए तो भी सच और फ़रेब, गायब और हाज़िर, दृश्य और अदृश्य, पाप और पुण्य, स्याह और सफ़ेद के साथ प्रयोग करना मत बंद करना।
  • प्यार कई बार होगा और हर बार जिससे भी प्यार करो, उतना ही टूटकर, उतनी ही ईमानदारी से प्यार करना। बाबा से प्यार करना। एक-दूसरे से प्यार करना। अपने दोस्तों से प्यार करना और उससे भी ज़रूरी, ख़ुद से प्यार करना। मोहब्बत लेकिन सिर्फ एक बार करना।
  • जो अगर मोहब्बत हो जाए, तो निभाने के लिए ख़ुद की भी सीमाएं तोड़ जाना। मोहब्बत होगी तो सुबह का अख़बार महबूब को पहले पढ़ने देने और आधी नींद में डूबे महबूब के सिरहाने चाय की प्याली रखने में कोई कोफ़्त नहीं होगी। मोहब्बत होगी तो शुद्ध शाकाहार में यकीन करते हुए भी चिकन बनाना आ जाएगा। गंदी ज़ुराबों की आदत होते हुए भी अलमारियां साफ़ रखना आ जाएगा। कम-से-कम कोशिश करना तो आ ही जाएगा।
  • महबूब तुम्हारे नाम की कद्र करेगा और तुम उसके नाम की। जिस दिन वो कद्रदानी मरने लगे, उस दिन किसी काउंसिलर से मिल लेना।
  • बेवजह मदद करना। हर बात के पीछे कोई वजह हो, ज़रूरी नहीं। हर रिश्ता स्वार्थ का होता हो, ये भी नहीं होता।
  • ज़रूरत पड़ने पर मदद मांगने से घबराना मत। रिश्तों की नींव गिव एंड टेक की होती है, और इसके साथ हमेशा नकारात्मक अर्थ ही जुड़ा हो, ये ज़रूरी नहीं।
     
  • हर मोड़ पर ऐसे लोग मिलेंगे जो तुम्हारा फ़ायदा उठाएंगे (और उठाएंगे ही। अच्छे लोगों का सब फ़ायदा उठाते हैं।) लोग तुम्हें धोखे भी देंगे। तुम्हारे साथ फ़रेब भी करेंगे। उनकी फ़ितरत तुम नहीं बदल सकते, लेकिन अपनी फ़ितरत भी मत बदलना। उन्हें ये सोचकर माफ़ कर देना कि तुमसे बड़ा फ़रेब वे खुद के साथ करते हैं। उन्हें अपनी दुआओं में ढेर सारी जगह देना और इस बात पर यकीन रखने की कोशिश करना कि दुनिया में इंसान ज़्यादा हैं और लोग कम।
     
  • किसी बात का अफ़सोस मत करना। फिर भी अफ़सोस हो तो वो काम दुबारा मत करना। ये तुम्हारी मुक्ति का इकलौता रास्ता है। 
  • प्यार बचाए रखना, हर क़ीमत पर। प्यार बचा रहेगा तो भरोसे और उम्मीद को भी जगह मिलती रहेगी।
  • किसी से नफ़रत मत करना। उदासीनता और बेरूख़ी ज़्यादा कारगर हथियार हैं।
     
  • ईश्वर पर यकीन रखना और अपने ईश्वर का स्वरूप ख़ुद तय करना।
  • मेरी किसी भी बात को याद मत रखना। किसी बात को भी नहीं। ज़िन्दगी की प्रयोगशाला में किसी और के प्रयोगों के आधार पर बनाए गए नोट्स थ्योरी में पास करा सकते हैं, प्रैक्टिल में नहीं। उसके लिए अपने रसायन, समीकरण और उत्प्रेरक खुद ही चुनने होंगे। उसके लिए प्रयोग भी खुद ही करने होंगे।  हां, हमारे प्रयोगों के नतीजों से शायद तुम्हें तत्वों के रासायनिक गुण समझने में मदद मिले।
बाकी अगली चिट्ठी के लिए।

बहुत बहुत सारे प्यार के साथ
तुम्हारी ममा