बच्चों, मम्मा का ब्लॉग पढ़ोगे पांच साल बाद तो जीभर के हंस लेना। अभी मेरे कहने की बारी है।
मौजों से लड़ने का दम नहीं
फिर भी
जुबां पर बेवजह उम्मीद की रट है
जो साहिल दूर है तो क्या,
कुछ ऐसा कर मेरे ख़ुदा
दो-चार दिन की ख़ातिर
मुझे पतवार दे, मुझको
सफ़र में नाख़ुदा बना
उसका सांस पर हक़ है
कहे तो
रूह में लिपटी बदन की आग भी दे दूं
जो इश्क नाम है इसका
कुछ ऐसा कर मेरे ख़ुदा
वस्ल में हिज्र दे ऐसा
उसे बांधे रखूं फिर भी
मुझे उससे जुदा बना
मेरी इस बाग़ी आवाज़ में
क्या दम
ये शोर और चीखनेवालों की बस्ती है
अगर यही यहां होता
कुछ ऐसा कर मेरे ख़ुदा
मुझे ख़ामोश कर दे
और मेरी चुप्पी को
नर्म ख्यालों की सदा बना
7 टिप्पणियां:
कविता हो गयी है. बधाई :)
पिंगल शास्त्री और वैयाकरण कहते हैं कि वक्रोक्ति ही कविता है -वही मापदंड है और कविता लाजवाब है -क्या कहने! :)
सुन्दर रचना।
अच्छी खासी कविता लिख लेती है आप तो
प्रवाह कविता का मूल तत्व होना चाहिये।
बेहतरीन भाव ... बहुत सुंदर रचना प्रभावशाली प्रस्तुति..
कुछ चांद के टुकड़े हैं, ज़ईफों की जवानी है/कुछ रेत है मुट्ठी में, कुछ बहता पानी है।
Wah, kya bat he..Will keep visiting..Loved these lines..!
एक टिप्पणी भेजें