मेरी एक दोस्त ने सुबह-सुबह मुझे व्हॉट्सएप्प पर एक लिंक भेजा। यहां पूर्णियां में अंग्रेज़ी का अख़बार नहीं आता। इसलिए क्योंकि कोई पढ़नेवाला नहीं, और दूसरे दिन अख़बार पढ़ने का कोई मतलब नहीं है। मैं यूं भी अख़बार ख़बर के लिए कम, बीच के पन्नों और कॉलमों के लिए अधिक पढ़ती हूं। अख़बार है नहीं, तो आज सुबह इंडियन एक्सप्रेस में छपा एक दिलचस्प कॉलम पढ़ने से रह गई। आप भी पढ़िए इसे - लहर काला ने ओवरशेयरिंग द स्टोरी ऑफ़ मी के नाम से लिखा है इसे।
हां, हम सब आजकल अपने बारे में लिख रहे हैं, पोस्ट कर रहे हैं, बात कर रहे हैं। हां, ये भी सच है कि हममें से कुछ लोग इसलिए यहां हैं क्योंकि हम लगातार अपने बच्चों के बारे में, उनकी परवरिश के बारे में लिख रहे हैं। हां, ये भी सच है कि हमारे फ़ेसबुक अपडेट्स, हमारे ब्लॉग्स तक इसी एक पेरेन्टिंग के इर्द-गिर्द घूमा करते हैं। और अगर प्रिंट मीडिया हमारे विचारों को छाप रहा है तो इसलिए नहीं क्योंकि पेरेन्टिंग अचानक 'द इन थिंग' हो गया, बल्कि इसलिए क्योंकि 'मदरहुड' या 'पेरेन्टिंग' को कभी तवज्जो दी नहीं गई, कभी इस बारे में बात भी नहीं की गई।
मैं आमतौर पर किसी पोस्ट या किसी कॉलम पर तीखी प्रतिक्रिया ज़ाहिर नहीं करती। मैं हर लिहाज़ से सबकी आवाज़ों के होने और सबकी अभिव्यक्ति के तरीकों की इज्ज़त करने में यकीन करती हूं। हम सबको अपनी-अपनी बात पब्लिक स्पेस में आकर रखने का हक़ है, और एक पाठक को उस विचार से इत्तिफ़ाक़ रखने या उसे सिरे से ख़ारिज़ कर देने का हक़ है।
मैं इस कॉलम को पढ़कर इसलिए परेशान हुई क्योंकि लेखिका ने उन सभी लिखने वालों की धज्जियां उड़ाई हैं जो मां हैं, या मदरहुड पर, ज़िन्दगी के, समाज के छोटे-बड़े मसलों पर अपनी राय लिख रही हैं, अपने विचार पेश कर रही हैं। मेरा सवाल इतना-सा है कि जर्नलिज़्म सिर्फ़ फ्रंटलाईन वॉर अनुभव के बारे में लिखना, सिर्फ़ राजनैतिक उठापटक की बेमानी ख़बरें परोसना और सिर्फ़ विदेश मामलों और स्पॉट फिक्सिंग पर अपनी 'ओरिजनल' राय रखना होता है?
चलिए समाज की बेसिक संरचना पर एक नज़र डालते हैं जिसे समझने के लिए न आपको समाजशास्त्री होने की ज़रूरत है न 'जर्नलिस्ट' या लेखक ही। दुनिया कैसे बनती है? कई देशों से। देश कैसे बने? कई तरह के समाजों से। समाज की धुरी क्या? परिवार। और परिवार की नींव कहां पर? हममें-आपमें। इसी मूलभूत संरचना के तहत अगर हम-आप अपने परिवार को बनाने-बचाए रखने, ख़ुश रखने, उनकी परवरिश करने और देखभाल करने में कोताही करेंगे तो फिर किस तरह के समाज का निर्माण करेंगे हम? हमने अपने बच्चों को एक ख़ुशमिज़ाज, आत्मविश्वासी, ईमानदार इंसान नहीं बनाया तो देश को क्या दिया? और अपना काम करते हुए हमने उस प्रक्रिया के बारे में पब्लिक स्पेस में आकर अपने अनुभव बांटे, अपनी चुनौतियों पर चर्चा की, पेरेन्टिंग के तरीकों की बात की, बच्चों के बारे में बताया तो इसे आत्म-श्लाघा का नाम दे दिया गया?
पब्लिक स्पेस में आकर अपनी ज़िन्दगियों के बारे में बात करने का मकसद सहानुभूति जुटाना कतई नहीं होता। यहां आकर अपने बारे में बात करने का मकसद उन गलत-सही सीखों को बांटना होता है जो ज़िन्दगी जीते हुए हमारे रास्ते में पड़ते हैं। ये छोटे-छोटे लम्हे विदेशी नीतियां तय नहीं करेंगे, लेकिन ये छोटे-छोटे लम्हे उस समाज के प्रतिरूप को रिकॉर्ड करने का, उन्हें डॉक्युमेंट करने का काम उतनी ही ईमानदारी से करेंगे जितनी ईमानदारी से एक मशहूर पत्रकार की किताब करती है।
हम लम्हों में जीने वाले लोग हैं। हम हर दिन कुछ नया देखने का जज्बा देखने वाले लोग हैं। हम बुद्धिजीवी या ज़हीन होने का दावा नहीं करते। हम तो वो औरतें, वो मांएं हैं जिनमें साधारण को, ऑर्डिनरी को ख़ास बना देने का हुनर है। हमने जो अपने नज़रिए से देखा, वो बांटा। हमारी रसोई, हमारा घर, हमारे बच्चे, हमारी दुनिया बेशक बेहद निजी हैं - लेकिन इस निजता में जो सार्वभौमिक हो सकता है, हम वो बांटने आते हैं। और यदि किसी को ये लगता है कि खलबली ही ग्रेट राइटिंग हो सकती है, ठहराव नहीं, तो फिर... आई रेस्ट माई केस योर ऑनर।
मगर जाते-जाते जांनिसार अख़्तर का ये शेर पढ़ते जाएं...
हम से इस दरजा तग़ाफुल भी न बरतो साहब
हम भी कुछ अपनी दुआओं में असर रखते हैं
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शनिवार, 15 जून 2013
बुधवार, 6 फ़रवरी 2013
शुरुआत एक ‘सॉरी’ से तो हो ही सकती है
नोट - मेरी क़रीबी दोस्त और लेखिका नताशा बधवार के बारे में मैंने पहले भी यहां लिखा है, कुछ निजी लम्हे बांटें हैं यहां। नताशा की स्पष्ट सोच, हिम्मत और उसके ईमानदार लेखन की मैं तबसे मुरीद हूं जबसे मुझे ये भी ठीक-ठीक नहीं मालूम था कि मैं या मेरे जैसे कई लोग उसके लिखे हुए में अपने वजूद का कौन-सा हिस्सा तलाश करते हैं। पिछले दिनों नताशा ने न्यूज़्लॉन्ड्री पर एक लेख लिखा। आउटलुक में शाह रुख के छपे लेख Being Khan को केन्द्र में रखकर लिखा गया नताशा का ये लेख identity, पहचान को एक नए नज़रिए से देखता है। सवाल पूछता है कि अपनी पहचान को लेकर वो क्या बेचैनी होती है कि जिसे हम बांटना चाहते हैं? वो कौन-सी ज़रूरत है कि जो अपने घर, अपने देश, अपने समाज में एक सुपरस्टार को अपने नाम, अपनी पहचान को लेकर सबके सामने आने पर मजबूर करती है? क्या इसलिए क्योंकि हम एक ऐसा असहनशील समाज बनाने पर आमादा हैं जहां हब्बा ख़ातून की ज़मीन की बेटियों को गाने की, अपना संगीत बनाने की आज़ादी नहीं दी जा सकती; जहां धर्म अहसहिष्णु है; जहां श्लील-अश्लील के पैमाने गड्ड-मड्ड हैं।
अनुवाद लेख के क़रीब रखने की कोशिश की है मैंने। कहीं कोई त्रुटि हो तो क्षमाप्रार्थी हूं। लेकिन वक्त निकालकर लेख पढ़िएगा ज़रूर। और दो मिनट के लिए सोचिएगा कि हम अपने इतने सारे पूर्वाग्रहों के साथ कैसे एक स्वस्थ समाज बना पाएंगे।
****************
फिल्म चक दे! इंडिया में एक गाना है जिसका मुझपर अजीब-सा असर
हुआ।
पहली बार इसे
मैंने गाड़ी में महसूस किया था। अपनी तीन साल की बेटी के साथ मैं तीस हज़ारी ज़िला
अदालत के रास्ते में थी। हम मेरी एक दोस्त का साथ देने जा रहे थे जो एक पारिवारिक
अदालत में अपनी बेटी का संरक्षण हासिल करने के लिए एक दुखद अदालती लड़ाई लड़ रही
थी। मैं यूं भी बहुत भावुक थी। उस बच्ची के मां-बाप, दोनों मेरे अच्छे दोस्त थे और मैंने दोनों
को उसी शिद्दत से प्यार किया था। मुझे बहुत बुरा लग रहा था कि मैं बेटी के पापा को
दूर से देख रही थी, और एक दोस्त की तरह उसको हिम्मत नहीं दे पा रही थी।
नोएडा से दिल्ली
की ओर जाते हुए गाड़ी में चक दे! इंडिया का गाना बजता रहा।
तीजा तेरा रंग
था मैं तो – 2
जिया तेरे ढंग से मैं तो,
तू ही था मौला तू ही आन,
मौला मेरे ले ले मेरी जान …
जिया तेरे ढंग से मैं तो,
तू ही था मौला तू ही आन,
मौला मेरे ले ले मेरी जान …
जाने क्यों मेरी
आंखों से बेसाख़्ता आंसू गिरने लगे। मुझे समझ ही नहीं आया कि क्यों। हम कोर्ट
पहुंच गए और हमारा पूरा दिन हैरान-परेशान कर देने वाली हमारी न्याय-व्यवस्था से
जूझने और उससे समझौते करने में बीता। बाद में दिन में वही गाना फिर से कार स्टीरियो
में बजता रहा, मेरी आंखों में फिर से आंसू भर आए।
मिट्टी मेरी भी
तू ही
वोही मेरे घी और चूरी
वोही रांझे मेरे वो हीर
वोही सेवईयां वही खीर
वोही मेरे घी और चूरी
वोही रांझे मेरे वो हीर
वोही सेवईयां वही खीर
तुझसे ही रूठना
तुझे ही मनाना
तेरा मेरा नाता कोई दूजा ना जाना
ये मौला कौन है, मैं सोचती रही। ये गाना किसकी यादों को इस तरह कचोट रहा है? वो कौन है जिसने मुझे गलत समझा? जिससे मैं कुछ कहना चाहती हूं और ना कह पाने का मुझे मलाल है? मैं किसके साथ ये सुलह कर लेना चाहती हूं? मेरे ज़ेहन में जवाबों ने आने से पहले एक लंबा वक़्त लिया।
तेरा मेरा नाता कोई दूजा ना जाना
ये मौला कौन है, मैं सोचती रही। ये गाना किसकी यादों को इस तरह कचोट रहा है? वो कौन है जिसने मुझे गलत समझा? जिससे मैं कुछ कहना चाहती हूं और ना कह पाने का मुझे मलाल है? मैं किसके साथ ये सुलह कर लेना चाहती हूं? मेरे ज़ेहन में जवाबों ने आने से पहले एक लंबा वक़्त लिया।
मेरे मां-बाप
पंजाबी हैं। बंटवारे से पहले मेरी मां लाहौर में पैदा हुई। अमृतसर में स्वर्ण
मंदिर के पास बड़ी हुई। उनके लिए मंदिर जाने का मतलब गुरुद्वारे जाना था। मां की
हनुमान चालीसा और सुखमनी साहिब अभी भी एक साथ रखी होती हैं। दोनों के आजू-बाजू में
काफ़ी जगह बाकी है। जब हम अपने बचपन में रांची से दिल्ली और
पंजाब अपने रिश्तेदारों से मिलने आया करते थे तो हमें बिहारी कहकर छेड़ा जाता था।
मेरी मामी कहतीं, “ये लो आ गए एक ठो, दो ठो, तीन ठो गिनने
वाले और चावल खाने वाले बिहारी।” तो हम अपने-आप को हिंदू-सिख-बिहारी भी महसूस करते थे।
मैं जब बड़ी हुई
और पहली बार लाहौर गई तो मैंने सोचा कि मैं एक “मुसलमान” संस्कृति के बीच जा रही हूं। वहां
पहुंचकर ख़ुद को कमाल के जोशीले पंजाब में पाकर मैं हैरान थी। मैं वहां पहली बार
अपनी पंजाबी पहचान से रूबरू हुई। लाहौर में सब मेरे मामाजी की तरह बात करते थे। और
क्यों नहीं! मेरे ननिहाल के लोग तो लाहौरी ही थे। तब मैं एक हिंदू-सिख-बिहारी-पंजाबी की तरह महसूस करने लगी।
लाहौर में हमें
एक टैक्सी ड्राईवर मिला – जावेद। जावेद हमें पर्ल कॉन्टिनेन्टल से पिक अप करता, हमारे टीवी कैमरे से जुड़े ताम-झाम को हैरत से देखता और हमें कई ख़ास
लोगों का इंटरव्यू करते देखता। जावेद हमें खाने की सबसे अच्छी जगहों पर लेकर गया,
मुझे अपने इश्क के किस्से सुनाए और ज़ाहिर है, इस महाद्वीप की राजनैतिक हलचल पर अपनी बेबाक राय भी बांटी। जब मेरे लौटने
का वक्त हुआ तो उसने मुझे मेरे भविष्य के लिए एक सलाह भी दी।
“ख़्याल रखिएगा कि आप शादी किससे कर रही
हैं”, उसने कहा। “ज़्यादातर आदमी आपके पैसों के पीछे होंगे, आपके नहीं। फिर मैंने ये
भी सुना है कि हिंदुस्तानी आदमी लोग अपनी बीवियों को मारते-पीटते हैं। अपना ख़्याल
रखिएगा।”
मैं ज़ोर से हंस
पड़ी। उसकी बात से मुझे मिलने वाला झटका मेरे साथ एक लंबे वक्त तक रहा। ख़ासतौर पर
इसलिए क्योंकि इससे वो अदृश्य पूर्वाग्रह सामने आता था जिसके साथ मैं बड़ी हुई थी – कि ज्यादातर मुसलमान
आदमी अपनी बीवियों के साथ दुर्व्यवहार करते हैं। हमें ये लगता है कि हम सबकुछ
जानते-समझते हैं, लेकिन ठीक से गहरे देखो तो समझ में आता है
कि हमारी ज्यादातर जानकारियां पूर्वाग्रहों पर आधारित है। अपने भीतर की हलचल से
ध्यान केन्द्रित करने से बचने का ये और तरीका है, कि “दूसरे” से ही नफ़रत
करते रहो।
मेरे पति उत्तर
प्रदेश के मुसलमान हैं और हमारे बच्चों को हिंदू-मुस्लिम-पंजाबी-यूपी-दिल्ली की साझा पहचान विरासत में मिली है। मेरे दादाजी उर्दू लहज़े
में पंजाबी बोलते हैं और हर रोज़ उर्दू में ही गीता पढ़ते हैं। मेरे ससुर फ़ारसी
शेर-ओ-शायरी सुनाते हैं। मेरे पिता पंजाबी लहज़े में हिंदी बोलते हैं और हमारे
बच्चे वॉल्ट डिज़नी फिल्मों के लहज़े में अंग्रेज़ी बोलते हैं। एक तरीके से देखा
जाए तो ये ख़ास है लगता है लेकिन इसमें कुछ भी असाधारण नहीं है।
हमारे अपने फ़ैसलों
के साथ हमारी समेकित, घुली-मिली जड़ें हमें एक वो बहुआयामी पहचान देती है जो हमारी ज़िन्दगी की
रोज़मर्रा की हक़ीकत बन चुका है। एक रचनात्मक और सृजनशील ज़िन्दगी जीने के लिए हम
कई बार कहीं के ना होने का, किसी प्रबल और प्रभावशाली वैल्यू
सिस्टम को पूरी तरह स्वीकार ना करने का एक अहम चुनाव करते हैं।
ऐसी किसी एक या
कई पहचानों के लिए अलग-थलग कर दिया जाना और भेदभाव से सामना भी हम सबके लिए एक आम
अनुभव है। हममें से कुछ इसको नकार कर इसका सामना करते हैं तो कुछ इसके बारे में
बात करते हैं, अपने अनुभव बांटते हैं, उसे अभिव्यक्त करते हैं। कुछ
इसका सामने से मुक़ाबला करते हैं तो कुछ तबतक छुप जाना पसंद करते हैं जबतक महफ़ूज़
होकर बाहर आने का रास्ता ना हो। हम कई बार अपने आप को बेघर महसूस करते हैं, और
इसके लिए ज़रूरी नहीं कि हम अपनी जड़ों से उखाड़े ही गए हों। घर एक फिज़िकल स्पेस,
एक जगह भर ही नहीं होता। घर वो होता है जहां हम नपा-तुला हुआ महसूस नहीं करते,
जहां हमें किसी की राय का डर नहीं सताता, जहां हम वो हो पाते हैं जो हम हैं।
कहीं के होने की, अपनी किसी पहचान से
जुड़ाव की हसरत होना लाज़िमी है – अपनी निजी और बाहर की
दुनिया से कुछ ऐसे जुड़े होने की हसरत होना कि जिसमें दोनों का बराबरी का योग हो।
अपनी ज़िन्दगी
पर लिखे एक प्रकाशित लेख में सुपरस्टार शाह रुख खान ने लिखा है:
“मैं कई बार नेताओं द्वारा बेपरवाही से
चुनी हुई चीज़ हो जाता हूं जिसे भारत में मुसलमानों के ग़लत या देशद्रोही होने का
प्रतीक बना दिया जाता है। मुझपर अपने देश से ज़्यादा पड़ोसी देश का वफ़ादार होने
के आरोप लगाए गए हैं। तब, जबकि मैं ऐसा एक भारतीय हूं जिसके पिता ने आज़ादी की लड़ाई
में हिस्सा लिया।”
उसी लेख में शाह
रुख ने अपने मां-बाप से मिली पठान पहचान और गौरी से अपनी शादी की बात लिखी है। ये
भी लिखा है कि अपनी पहचान से जुड़े बच्चों के सवालों का वो कैसे जवाब देते हैं, जिसके जवाब में वो या तो
“तुम पहले हिंदुस्तानी हो और तुम्हारा
धर्म इंसानियत है” कहते हैं या फिर गंगनम स्टाईल में “तू हिंदू बनेगा ना मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान
बनेगा” गाकर सुनाते हैं।
एक पत्रिका में
शाह रुख के लिखे हुए लेख पर बवाल तब शुरू हुआ जब वेंकी वेंबु ने एक लेख में उनपर
कृतघ्न और नाशुक्रा होने के तोहमत लगाए। लेखक ने शाह रुख के लिए मेडियॉकर (औसत) और
असभ्य जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया, और लिखा, “इसलिए बड़े हो जाए शाह रुख, और एक पुरुष की तरह इसका
सामना करना सीखो (So, grow up, Shah Rukh, and learn to take it on the chin like a man)”.ये भी लिखा कि किसी विदेशी पत्रिका के पास जाकर शाह रुख उन
हाथों को ना काट डालें जो उन्हें खाना खिला रहे हैं, जिससे हाफ़िज़ सईद जैसे आतंकवादियों को
हिंदुस्तान की खिल्ली उड़ाने का मौका मिले।
कुल मिलाकर उनका
तात्पर्य ये है कि अगर हिंदुस्तान में रहते हुए आप मुसलमान होने की बात करते हैं
तो आपका मज़ाक उड़ाया जाएगा, और आपको देशद्रोही होने का तमगा दे दिया जाएगा। आतंक के
ख़िलाफ़ खड़े होने की बजाए हम अपना ज़हर अपनों के ऊपर ही उगलेंगे। हममें वाकई अपने
विचारों और मतभेदों को अभिव्यक्त करने की हिम्मत नहीं है।
इस लेख ने एक
बार फिर मुझे चक दे! इंडिया के उस गाने की याद दिला दी। मेरे दिमाग में
एक बार फिर इसको लेकर उठी हलचल ने सवाल खड़ा किया कि वो कौन-सा शख्स है कि जिसकी
स्वीकृति मेरे लिए इतनी अहम है? मैं किसके लिए
मरने तक को तैयार हूं?
मेरे सामने
आनेवाले जवाब किसी पहेली के जवाबों की तरह एक साथ सामने आने लगे। इन शब्दों में
अपने देश, अपनी ज़मीन, अपने घर, अपने समाज, अपनी संस्कृति का हो जाने की चाहत छुपी है। उन रसूखवाले सत्ताधारियों और
हमारी भावनाओं और फ़ैसलों पर अख्तियार रखनेवाले लोगों की, कठमुल्लाओं की स्वीकृति की चाहत छुपी है
जिन्होंने हमें हमारे चुनावों की वजह से ठुकरा दिया। जो हम थे वो होने की वजह से
ठुकरा दिया।
हम आज़ाद होने
की मांग करते हैं और सबके द्वारा स्वीकार कर लिए जाने की अपनी ज़िद पर क़ायम हैं। किसी
भी उत्तम संबंधों में यही कारगर होता है। हम अपने आस-पास की ज़िन्दगी के अनुरूप
ख़ुद को ढालते चले जाते हैं, बावजूद इसके हमें कई बार अलग कर दिया जाता है और उन्हीं बातों
का मज़ाक उड़ाया जाता है जो हमें ख़ास बनाते हैं।
आउटलुक पत्रिका
के टर्निंग प्वाइंट में अपने लेख को स्पष्ट करते हुए एक प्रेस रिलीज़ में
शाह रुख ने लिखा है,
“मैं एक अभिनेता हूं और मुझे शायद उन्हीं
सारी बातों तक खुद को सीमित रखना चाहिए जिनपर आप मेरी राय सुनना चाहते हैं। बाकी
सब... हो सकता है मीडिया का ऐसा उपयुक्त वातावरण ही ना हो कि राय ज़ाहिर की जा
सके। इसलिए मैं इससे (राय ज़ाहिर करने से) दूर रहूंगा।.
ये सही नहीं होगा। शाह रुख खान, आपको और कहानियां कहनी होंगी। कई और बातों पर दिल से अपनी राय देनी होगी। जो कायर होते हैं, वो धौंस दिखाते हैं। उनके शब्द अक्सर खोखले होते हैं।
जब एनडीटीवी के
एक कार्यक्रम द सोशल नेटवर्क में वेंकी वेंबू से बातचीत की गई तो उन्होंने
स्वीकार किया कि जब उन्होंने शाह रुख के लेख पर अपने विचार ज़ाहिर किए थे तो उससे
पहले शाह रुख के लेख को पूरा पढ़ा तक नहीं था। हो सकता है, ऐसा वो अपने बचाव में कह
रहे हों, लेकिन इससे उनकी कमज़ोरी ही ज़ाहिर होती है। मीडिया
में इस तरह बिना पढ़े राय ज़ाहिर करने की जगह कब से बनने लगी?
ज़िन्दगी बहुत
जटिल है। कहानियों के भी कई चेहरे हुआ करते हैं। फिल्में कहानियों को सरल बनाने की
कोशिश ज़रूर करती है, लेकिन असल ज़िन्दगी में इस तरह की कोशिश की कोई आवश्यकता नहीं। हम सबमें
अपनी कल्पना के आधार पर अपने खोए हुए हिस्सों को पुनर्जीवित करने का, दुबारा हासिल करने का अधिकार है। हमें खुद को हासिल करने और दूसरों को दी
गई तकलीफ़ों के लिए क्षमा मांगने - दोनों का अधिकार है।
शुरूआत एक “सॉरी” से तो हो ही सकती है।

बुधवार, 20 जून 2012
Building the connection, bit by bit
It is
a proposition that doesn’t make any business sense. So, we don’t have a B-plan.
We don’t have fancy presentations. We don’t even have pitch notes for funding.
We are a start-up alright, but we barely understand how sweat equity works
vis-a-vis financial equity. Venture capital financing and private equity are
alien terms for us, and we know nothing about bootstrap funding. (We wouldn’t
mind an ‘Angel Investor’ though!).
The other reason why we want to carry on are our village reporters like Archana and Rekha Gautam, who have endless stories to tell, and the drive to share it with the world. These two girls come all the way to our modest office in Lucknow from a village about 50 kms away. They are now getting hands-on training in rural reporting, and beam with pride when they receive compliments on the story they have just filed. This story was their own idea. “People in our villages have got smart cards made. But they don’t know what to do with it. CHCs are more or less defunct. There is no awareness on health schemes in the villages. We had to talk about this with our people,” they say, filling in details for each-other when either one is at loss of words. They actually traveled across seven villages, traversing several kilometers on their cycles in this sweltering heat; talking to men and women from over 70 families; questioning Asha workers and the ANMs and other community health workers reporting to the nearby CHCs. Rekha sits on the computer and diligently keys in her story word by word while Archana looks on, pointing out typos then and there.
We found a stronger reason in our other set of reporters, who are out and out city-bred kids. Most of them had never been to a village before, like most of the urban youth of this generation, and had no idea about the real picture of the villages. It will take time before they start understanding the policies that are of hardly any worth to the 65% population of the country. But we are hoping that once we get rolling, they will eventually start writing uninhibitedly about discrimination, mismanaged resources and apathy, and everything else they should be writing about; including stories of change, good Samaritans, innovations and development. Getting these stories to you through them is one solid reason why we want to succeed.
The way these reporters are working with very limited resources are another source of inspiration for us. Our photojournalists Shipra and Ishaan use their own DSLR cameras to get some outstanding photos of the ‘gaon’ for the newspaper. Their photographs from the villages are true reflections of their amused astonishment, something I hope they never get over. Bhaskar is trying to figure out how something like a ‘Total Sanitation Campaign’ can be a reason of a 2900 crore scam in Uttar Pradesh even though he has a solid proof in his hands – a fake list of beneficiaries who never got the money to build toilets! While the state government is forcing and withdrawing ‘mall and market’ early closure in order to address the prevailing power crisis, Prashant and Saroj are gathering proof of power theft that has become a common, yet conveniently ignored practice across villages and cities.
And they are putting their stories together in an office which is battling with power fluctuations; where work-stations mean a few donated computers assembled in a true ‘jugaad’ style; which is now proudly equipped with an electric kettle, fridge and furniture, all brought in from the Editor-in-chief’s house. The reporters and editors, by the way, also double up as office assistants, drivers, riders and helpers.
Some of the other reasons why we are doing this are - conviction, insanity and an obsessive compulsive disorder of story-telling. We also have a few vacancies for the post of ‘Angel Investors’! Some of the prerequisites for the same have been listed above.
All we
have is a dream, and quite a few reasons to believe in it. The dream has aptly
been named as “Gaon Connection”; the rural newspaper envisaged as the voice of
rural people which will soon reach far and wide (weekly 12-page broadsheet to
be launched initially in three districts of UP and will also be available
online).
As for
the reasons, the first one is the bare need of creating a system that will
hopefully bridge the information gap that exists between the rural India and
the urban India; between the laboratories and the land; between the
manufacturers and the consumers; and between the policy-makers and the common
man. A far-fetched dream, yes, and we are also working towards creating a news
wire service that will supply news stories from the villages to the mainstream
newspapers across the country to address that need. That’s the true objective
of journalism that we want to work for. The other reason why we want to carry on are our village reporters like Archana and Rekha Gautam, who have endless stories to tell, and the drive to share it with the world. These two girls come all the way to our modest office in Lucknow from a village about 50 kms away. They are now getting hands-on training in rural reporting, and beam with pride when they receive compliments on the story they have just filed. This story was their own idea. “People in our villages have got smart cards made. But they don’t know what to do with it. CHCs are more or less defunct. There is no awareness on health schemes in the villages. We had to talk about this with our people,” they say, filling in details for each-other when either one is at loss of words. They actually traveled across seven villages, traversing several kilometers on their cycles in this sweltering heat; talking to men and women from over 70 families; questioning Asha workers and the ANMs and other community health workers reporting to the nearby CHCs. Rekha sits on the computer and diligently keys in her story word by word while Archana looks on, pointing out typos then and there.
We found a stronger reason in our other set of reporters, who are out and out city-bred kids. Most of them had never been to a village before, like most of the urban youth of this generation, and had no idea about the real picture of the villages. It will take time before they start understanding the policies that are of hardly any worth to the 65% population of the country. But we are hoping that once we get rolling, they will eventually start writing uninhibitedly about discrimination, mismanaged resources and apathy, and everything else they should be writing about; including stories of change, good Samaritans, innovations and development. Getting these stories to you through them is one solid reason why we want to succeed.
The way these reporters are working with very limited resources are another source of inspiration for us. Our photojournalists Shipra and Ishaan use their own DSLR cameras to get some outstanding photos of the ‘gaon’ for the newspaper. Their photographs from the villages are true reflections of their amused astonishment, something I hope they never get over. Bhaskar is trying to figure out how something like a ‘Total Sanitation Campaign’ can be a reason of a 2900 crore scam in Uttar Pradesh even though he has a solid proof in his hands – a fake list of beneficiaries who never got the money to build toilets! While the state government is forcing and withdrawing ‘mall and market’ early closure in order to address the prevailing power crisis, Prashant and Saroj are gathering proof of power theft that has become a common, yet conveniently ignored practice across villages and cities.
And they are putting their stories together in an office which is battling with power fluctuations; where work-stations mean a few donated computers assembled in a true ‘jugaad’ style; which is now proudly equipped with an electric kettle, fridge and furniture, all brought in from the Editor-in-chief’s house. The reporters and editors, by the way, also double up as office assistants, drivers, riders and helpers.
Some of the other reasons why we are doing this are - conviction, insanity and an obsessive compulsive disorder of story-telling. We also have a few vacancies for the post of ‘Angel Investors’! Some of the prerequisites for the same have been listed above.
शनिवार, 30 अक्टूबर 2010
जिसने चैनलों की शक्ल (और अक्ल) बदल डाली
मुझे टीवी प्रो़डक्शन पढ़ाने के लिए बुलाया गया है। दस क्लासेज़ के दस मो़ड्युल्स में वो सबकुछ समेटना है (और सिखाना भी है) जो आप टीवी में दस सालों तक रहकर भी नहीं सीख पाते। मैं एक छोटे-से अभ्यास के साथ क्लास शुरू करती हूं। ब्रॉ़डकास्ट में अपना भविष्य तलाश कर रहे छात्रों को उनके पसंदीदा कार्यक्रम के बारे में लिखने को कहती हूं, 100 शब्दों में। 23 में से 8 एनडीटीवी इंडिया के 'रवीश की रिपोर्ट' पर अपनी टिप्पणी देते हैं, 3 आजतक पर आनेवाली 'सीधी बात' को अपना पसंदीदा कार्यक्रम बताते हैं, दो ने 'बिग बॉस' के बारे में लिखा है तो ज़्यादातर लड़कियां आईबीएन 7 पर ऋचा अनिरुद्ध के कार्यक्रम 'ज़िन्दगी लाइव' जैसे कार्यक्रम पसंद करती हैं और वैसा ही कुछ बनाना चाहती हैं। लेकिन एक और कार्यक्रम है जो क्लास में भी टीआरपी के लिहाज़ से इन सभी को मात दिए है - इंडिया टीवी पर आनेवाला 'आपकी अदालत'।
आख़िर ऐसी क्या बात है रजत शर्मा के इस कॉन्सेप्ट में, जो सोलह-सत्रह सालों बाद भी ये कार्यक्रम इतना लोकप्रिय है? नेता हों या अभिनेता, बाबा रामदेव हों या राखी सावंत, रजत शर्मा की अदालत में सब कठघरे में घिरते नज़र आते हैं। ऐसा क्या है इस शख्स में जिसने भारतीय टेलीविज़न की शक्ल बदल डाली? मुझे एक बड़ा दिलचस्प वाकया याद आ रहा है। 1997-98 की बात रही होगी, 'आपकी अदालत' ज़ी पर ख़ासा लोकप्रिय हो चला था। मैं तब लेडी श्रीराम कॉलेज में थी, ग्रैजुएशन का दूसरा साल था। कॉलेज में तब एक "Academic Forum" हुआ करता था जो हर गुरुवार को किसी भी क्षेत्र की जानी-पहचानी हस्ती को छात्राओं से रूबरू होने के लिए बुलाया करता था। फोरम के चार कन्वीनरों में से एक मैं भी थी। मुझे याद नहीं कि रजत शर्मा को बुलाने का आइडिया किसके दिमाग में आया। लेकिन मैं झूठ नहीं बोलूंगी। मुझे पूरा यकीन था कि एक निजी चैनल पर इस तरह का कार्यक्रम (वो भी हिंदी में! ) पेश करनेवाले किसी पत्रकार को सुनने के लिए लड़कियां तो नहीं ही जमा होंगी, कम-से-कम एलएसआर में तो बिल्कुल नहीं। बुलाना था तो स्टार न्यूज़ से किसी को बुलाते (एनडीटीवी तब स्टार न्यूज़ के लिए कॉन्टेन्ट बनाया करता था)। राजदीप सरदेसाई को बुलाया होता। वीर संघवी आ सकते थे। अंग्रेज़ी अख़बार के किसी और संपादक को बुलाते। रजत शर्मा को सुनने कौन आएगा?
बहरहाल, हमने पूरे कॉलेज में पोस्टर लगा दिए। जहां-जहां नोटिस डालना था, डाल दिया गया। किसी एक कन्वीनर को वक्ता का परिचय देने की और दूसरे कन्वीनर को धन्यवाद ज्ञापन की ज़िम्मेदारी दी जाती। मुझे दोनों में से कोई काम नहीं मिला था और मैं इत्मीनान से ऑडिटोरियम में बैठकर कार्यक्रम शुरू होने का इंतज़ार करती रही। रजत शर्मा आए, हमारे बीच से एक कन्वीनर ने चिकनी-चुपड़ी भाषा में उनका परिचय देना शुरू किया। श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स से पढ़ाई की, 'ऑनलुकर', 'द संडे ऑबज़र्वर' और 'द डेली' के साथ जुड़े रहे, देश के सबसे कम उम्र के संपादकों में से एक, और अब टीवी पत्रकार हैं। 'आपकी अदालत' का हल्का-फुल्का ज़िक्र ही आया। ये शायद तब का समय रहा होगा जब उन्होंने ज़ीटीवी छोड़कर अपना प्रोडक्शन हाउस शुरू ही किया था।
रजत शर्मा ने अंग्रेज़ी में बात करना शुरू किया, सधी हुई भाषा, लेकिन लहज़े में अंग्रेज़ियत नहीं। और अचानक उन्होंने खुद ही अपने बारे में बताना शुरू किया। मुझे याद है कि अंग्रेज़ी बोलते-बोलते उन्होंने हिंदी में बोलना शुरू कर दिया - शायद अपने बचपने की तंगहाली के बारे में कुछ बता रहे थे। दिल्ली में रहे, दिल्ली में पढ़े, लेकिन कई भाई-बहनों के बीच दिल्ली में हर दिन एक संघर्ष था, कुछ ऐसा कहा था उन्होंने। कुछ लाइनें तो मुझे वैसी की वैसी ही याद हैं - "ये जो मोटा चश्मा देख रहे हैं ना मेरी आंखों पर, दरअसल ये रेलवे स्टेशन की स्ट्रीट लाईट के नीचे पढ़-पढ़कर इम्तिहान देने का नतीजा है।" उनकी कहानी सुनते हुए कॉलेज ऑडिटोरियम में गहरा सन्नाटा था। "अंग्रेज़ी तो मुझे आती ही नहीं थी, वो तो कॉलेज के दोस्तों ने सिखाई। मैं आप लोगों की तरह किसी पब्लिक स्कूल, किसी कॉन्वेंट में नहीं पढ़ा।" और इतना कहते-कहते रजत शर्मा फिर अंग्रेज़ी में अपनी बात कहने लगे। कैसे कॉलेज में अरुण जेटली, विजय गोयल जैसे छात्र नेताओं से दोस्ती हुई, कैसे इमरजेंसी के दौरान उनमें भारतीय राजनीति की गहरी समझ और रुचि पैदा हुई, कैसे पत्रकारिता में रिसर्चर बनकर आए, कैसे रिपोर्टर बने और कैसे प्रीतिश नंदी जैसे पत्रकारों के साथ चंद्रास्वामी का सच उजागर किया। लेकिन ये कहना पड़ेगा कि पूरे चालीस मिनट रजत शर्मा ने दर्शकों को बांधे रखा और जीवन के कुछ अनमोल संदेश (Do what you believe in.) के साथ जब उन्होंने बोलना ख़त्म किया तो लड़कियां ज़ोर-ज़ोर से तालियां बजा रही थीं। बिना किसी तैयारी के मुझे धन्यवाद ज्ञापन के लिए भेज दिया गया - In Hindi and English, both, मुझसे किसी ने कहा और मैं जाने क्या बोलकर मंच से उतर आई। शायद विपरीत परिस्थितयों से जूझने और प्रेरणा-स्रोत होने जैसा कोई घिसा-पिटा जुमला इस्तेमाल किया था मैंने। रजत शर्मा से पत्रकारिता का गुर सीखने के लिए कई लड़कियां उनके पीछे-पीछे विज़िटर्स रूम तक गई थी। झूठ नहीं बोलूंगी, उनमें से एक मैं भी थी। मुझे हिंदी और अंग्रेज़ी पर उनकी ज़बर्दस्त पकड़ ने बेहद प्रभावित किया था और स्ट्रीट लैंप वाली बात तो ज़ेहन में कई दिनों तक रही थी।
इसी रजत शर्मा को हमने बाद में जीभर कर कोसा भी। इंडिया टीवी का कॉन्टेन्ट हमारी कई औपचारिक-अनौपचारिक चर्चाओं में मज़ाक का विषय बना। इंडिया टीवी टाइप के सुपर्स, हेडलाइन्स पर हम हंसते भी थे (ये 2004-2005 की बात है)। लेकिन इसी इंडिया टीवी ने न्यूज़ के मायने बदले, टीआरपी की नई परिभाषा तय की और टीवी के दिग्गजों को ठेंगा दिखाते हुए शीर्ष पर ऐसा कायम हुआ कि खिसकाना मुश्किल।
पढ़ाने के दौरान ही हमने एक और अभ्यास किया क्लास में - कॉन्सेप्ट नोट लिखने का। कुछ छात्रों के कॉन्सेप्ट कुछ ऐसे थे - 'एलियन्स, सच या फ़साना', 'योग भगाए रोग', 'फ़ैशन के पीछे का सच'। मैं मन-ही-मन इन्हें इंडिया टीवी लायक कॉन्टेन्ट करार देती रही, लेकिन सच तो ये ही कि अब तकरीबन सभी टीवी चैनल इसी ढर्रे पर चल पड़े हैं। जो शख़्स अगली पीढ़ी को भी इस क़दर प्रभावित कर रहा है उसमें कोई बात तो होगी ही!
आख़िर ऐसी क्या बात है रजत शर्मा के इस कॉन्सेप्ट में, जो सोलह-सत्रह सालों बाद भी ये कार्यक्रम इतना लोकप्रिय है? नेता हों या अभिनेता, बाबा रामदेव हों या राखी सावंत, रजत शर्मा की अदालत में सब कठघरे में घिरते नज़र आते हैं। ऐसा क्या है इस शख्स में जिसने भारतीय टेलीविज़न की शक्ल बदल डाली? मुझे एक बड़ा दिलचस्प वाकया याद आ रहा है। 1997-98 की बात रही होगी, 'आपकी अदालत' ज़ी पर ख़ासा लोकप्रिय हो चला था। मैं तब लेडी श्रीराम कॉलेज में थी, ग्रैजुएशन का दूसरा साल था। कॉलेज में तब एक "Academic Forum" हुआ करता था जो हर गुरुवार को किसी भी क्षेत्र की जानी-पहचानी हस्ती को छात्राओं से रूबरू होने के लिए बुलाया करता था। फोरम के चार कन्वीनरों में से एक मैं भी थी। मुझे याद नहीं कि रजत शर्मा को बुलाने का आइडिया किसके दिमाग में आया। लेकिन मैं झूठ नहीं बोलूंगी। मुझे पूरा यकीन था कि एक निजी चैनल पर इस तरह का कार्यक्रम (वो भी हिंदी में! ) पेश करनेवाले किसी पत्रकार को सुनने के लिए लड़कियां तो नहीं ही जमा होंगी, कम-से-कम एलएसआर में तो बिल्कुल नहीं। बुलाना था तो स्टार न्यूज़ से किसी को बुलाते (एनडीटीवी तब स्टार न्यूज़ के लिए कॉन्टेन्ट बनाया करता था)। राजदीप सरदेसाई को बुलाया होता। वीर संघवी आ सकते थे। अंग्रेज़ी अख़बार के किसी और संपादक को बुलाते। रजत शर्मा को सुनने कौन आएगा?
बहरहाल, हमने पूरे कॉलेज में पोस्टर लगा दिए। जहां-जहां नोटिस डालना था, डाल दिया गया। किसी एक कन्वीनर को वक्ता का परिचय देने की और दूसरे कन्वीनर को धन्यवाद ज्ञापन की ज़िम्मेदारी दी जाती। मुझे दोनों में से कोई काम नहीं मिला था और मैं इत्मीनान से ऑडिटोरियम में बैठकर कार्यक्रम शुरू होने का इंतज़ार करती रही। रजत शर्मा आए, हमारे बीच से एक कन्वीनर ने चिकनी-चुपड़ी भाषा में उनका परिचय देना शुरू किया। श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स से पढ़ाई की, 'ऑनलुकर', 'द संडे ऑबज़र्वर' और 'द डेली' के साथ जुड़े रहे, देश के सबसे कम उम्र के संपादकों में से एक, और अब टीवी पत्रकार हैं। 'आपकी अदालत' का हल्का-फुल्का ज़िक्र ही आया। ये शायद तब का समय रहा होगा जब उन्होंने ज़ीटीवी छोड़कर अपना प्रोडक्शन हाउस शुरू ही किया था।
रजत शर्मा ने अंग्रेज़ी में बात करना शुरू किया, सधी हुई भाषा, लेकिन लहज़े में अंग्रेज़ियत नहीं। और अचानक उन्होंने खुद ही अपने बारे में बताना शुरू किया। मुझे याद है कि अंग्रेज़ी बोलते-बोलते उन्होंने हिंदी में बोलना शुरू कर दिया - शायद अपने बचपने की तंगहाली के बारे में कुछ बता रहे थे। दिल्ली में रहे, दिल्ली में पढ़े, लेकिन कई भाई-बहनों के बीच दिल्ली में हर दिन एक संघर्ष था, कुछ ऐसा कहा था उन्होंने। कुछ लाइनें तो मुझे वैसी की वैसी ही याद हैं - "ये जो मोटा चश्मा देख रहे हैं ना मेरी आंखों पर, दरअसल ये रेलवे स्टेशन की स्ट्रीट लाईट के नीचे पढ़-पढ़कर इम्तिहान देने का नतीजा है।" उनकी कहानी सुनते हुए कॉलेज ऑडिटोरियम में गहरा सन्नाटा था। "अंग्रेज़ी तो मुझे आती ही नहीं थी, वो तो कॉलेज के दोस्तों ने सिखाई। मैं आप लोगों की तरह किसी पब्लिक स्कूल, किसी कॉन्वेंट में नहीं पढ़ा।" और इतना कहते-कहते रजत शर्मा फिर अंग्रेज़ी में अपनी बात कहने लगे। कैसे कॉलेज में अरुण जेटली, विजय गोयल जैसे छात्र नेताओं से दोस्ती हुई, कैसे इमरजेंसी के दौरान उनमें भारतीय राजनीति की गहरी समझ और रुचि पैदा हुई, कैसे पत्रकारिता में रिसर्चर बनकर आए, कैसे रिपोर्टर बने और कैसे प्रीतिश नंदी जैसे पत्रकारों के साथ चंद्रास्वामी का सच उजागर किया। लेकिन ये कहना पड़ेगा कि पूरे चालीस मिनट रजत शर्मा ने दर्शकों को बांधे रखा और जीवन के कुछ अनमोल संदेश (Do what you believe in.) के साथ जब उन्होंने बोलना ख़त्म किया तो लड़कियां ज़ोर-ज़ोर से तालियां बजा रही थीं। बिना किसी तैयारी के मुझे धन्यवाद ज्ञापन के लिए भेज दिया गया - In Hindi and English, both, मुझसे किसी ने कहा और मैं जाने क्या बोलकर मंच से उतर आई। शायद विपरीत परिस्थितयों से जूझने और प्रेरणा-स्रोत होने जैसा कोई घिसा-पिटा जुमला इस्तेमाल किया था मैंने। रजत शर्मा से पत्रकारिता का गुर सीखने के लिए कई लड़कियां उनके पीछे-पीछे विज़िटर्स रूम तक गई थी। झूठ नहीं बोलूंगी, उनमें से एक मैं भी थी। मुझे हिंदी और अंग्रेज़ी पर उनकी ज़बर्दस्त पकड़ ने बेहद प्रभावित किया था और स्ट्रीट लैंप वाली बात तो ज़ेहन में कई दिनों तक रही थी।
इसी रजत शर्मा को हमने बाद में जीभर कर कोसा भी। इंडिया टीवी का कॉन्टेन्ट हमारी कई औपचारिक-अनौपचारिक चर्चाओं में मज़ाक का विषय बना। इंडिया टीवी टाइप के सुपर्स, हेडलाइन्स पर हम हंसते भी थे (ये 2004-2005 की बात है)। लेकिन इसी इंडिया टीवी ने न्यूज़ के मायने बदले, टीआरपी की नई परिभाषा तय की और टीवी के दिग्गजों को ठेंगा दिखाते हुए शीर्ष पर ऐसा कायम हुआ कि खिसकाना मुश्किल।
पढ़ाने के दौरान ही हमने एक और अभ्यास किया क्लास में - कॉन्सेप्ट नोट लिखने का। कुछ छात्रों के कॉन्सेप्ट कुछ ऐसे थे - 'एलियन्स, सच या फ़साना', 'योग भगाए रोग', 'फ़ैशन के पीछे का सच'। मैं मन-ही-मन इन्हें इंडिया टीवी लायक कॉन्टेन्ट करार देती रही, लेकिन सच तो ये ही कि अब तकरीबन सभी टीवी चैनल इसी ढर्रे पर चल पड़े हैं। जो शख़्स अगली पीढ़ी को भी इस क़दर प्रभावित कर रहा है उसमें कोई बात तो होगी ही!
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