शुक्रवार, 14 अगस्त 2015

मसान से उपजा हुआ दुख

एक भारीपन है जो गया ही नहीं कल से। एक इम्पल्स में स्क्रीन खोलकर बैठ गई हूं, एक राईटर के इन्बॉक्स तक अपना संदेश पहुंचाने के लिए। इसलिए क्योंकि संवाद के बाकी सारे पब्लिक प्लैटफॉर्म बेमानी लग रहे हैं। मुझे वाहवाहियां नहीं लिखनी। न समीक्षा लिखनी है कि किसी ब्लॉग, किसी मैगेज़ीन में डाल दूं। मुझे तो बस अपना दुख बांटना है। मसान से उपजा हुआ दुख।

ज़िन्दगी ऑटोपायलट मोड में है, जो चलती रहती है। बच्चों का होमवर्क, प्लेट में बचे सहजन के टुकड़े और दो-चार आलुओंं जूठन, दरवाज़े के बाहर जमा हो गए जूतों की भीड़, बिस्तर की सिलवटों, फर्श पर औचक चली आई फिसलन के बीच। ज़िन्दगी एक लीक पर चलती रहती है। अहसास पत्थर हो गए हैं, और ख़्याल भुरभुरी मिट्टी। लेकिन जो कल दोपहर से अटका हुआ है गले में, वो बाहर निकल आने की कोई सूरत नहीं पाता। हलक में अटके हुए उस भारीपन का रिश्ता 'मसान' से है।  

कल देखी मैंने मसान। अकेले। स्पाइस मॉल के सबसे छोटे ऑडी नंबर पांच में। सिर इतने थे कि गिने जा सकते थे, फुसफुसाहटें ऐसी कि कानों को चुभती थीं। फिल्म देखने से पहले मैंने मसान का कोई रिव्यू नहीं पढ़ा था। जानबूझकर। कुछ हैरतें अपने लिए एकदम महफ़ूज़ रखनी होती हैं - इस तरह महफूज़ कि किसी और के ख़्याल उसे करप्ट न कर सकें। मसान के लिए वो हैरत ऐसी ही थी बस। मैं फ़िल्म समीक्षक नहीं हूं। न आपके आम दर्शकों में से एक हूं। इन दोनों के बीच-बीच की हूँ। इसलिए, न समीक्षकों की ज़ुबां में बात करना आता है न किसी आम दर्शक की तरह वाहवाहियों का समां बांधने का शऊर है।

सिर्फ़ इतना बता सकती हूं कि मसान ने कुछ यादों की चीटियां हथेलियों पर छोड़ दी है। कल से बस वो यादें रेंगती जाती हैं, काटती जाती हैं। वो शहर बनारस नहीं था, इलाहाबाद नहीं था। डूबने को कोई गंगा नहीं थी, न वो घाट था जिस पर किसी को जलाते हुए ये यकीन हो कि जिस्म के साथ दुखों का बवंडर भी जल गया... कि आत्मा को मुक्ति मिली। न वो संगम था कहीं, कि उम्मीद बंधे दुबारा लौट आने की। इस बार किसी और के साथ।

मसान की कहानी किसकी रही होगी, इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। लेकिन उस कहानी में सबको अपने-अपने दुखों की परछाई ज़रूर दिखती होगी। दुख बड़ा या छोटा नहीं होता। दुख बस दुख होता है। इसलिए तो एक मृत्यु के दुख को हम चिता पर जली देह के साथ भूल जाते हैं, और लेकिन जीते-जागते इंसान के बिछोह का दुख राख की तरह सुलगता रहता है। दुख की तरह ही प्रेम भी बड़ा या छोटा नहीं होता। प्रेम बस प्रेम होता है। चेतन मन की सारी समझ को झुठलाता हुआ प्रेम। अजर, अमर प्यास वाला प्रेम। रूह को चीरकर जिस्म से होकर गुज़रता हुआ प्रेम। उस धड़धड़ाती रेल के नीचे कमज़ोर पुल-सा थरथराता प्रेम! दुख और प्रेम के इस गंगा-जमुनी संगम में जो अदृश्य सरस्वती दिखाई नहीं देती मसान में, वो उम्मीद है। धू-धू जलती चिताओं के बीच भी जिस्म और रूह, प्रेम और दुख के पुनर्जन्म की उम्मीद। एक जानलेवा-सी डुबकी में सिक्कों की बजाए एक अंगूठी निकाल लाने की उम्मीद। दो कमज़ोर चप्पुओं वाली उस डूबती-सी नाव के किनारे पर लौट आने की उम्मीद। घोर अपमान और सज़ा के साथ-साथ बची रह गई माफ़ी की उम्मीद। मसान में उम्मीद पुनर्जीवन की!  

कहानियां वो नहीं होतीं जो आप लिखते हैं। किरदार वो नहीं होते जो आप रचते हैं। कहानियां, और किरदार, वो होते हैं जिन्हें जीते हुए आप नए सिरे से रचे जाते हैं। जिनसे गुज़रते हुए आप फिर एक बार बनते हैं, बिगड़ते हैं, संवरते हैं, निखरते हैं। कहानियां वो होती हैं जो आपकी पत्थर होती जा रही ज़िन्दगी का सीना चीरकर वेदनाओं के अंकुर निकाल लाने का माद्दा रखती हैं। जिनसे होकर गुज़रते हुए आपके दुखों की चींटियां चमड़ी की खोल चीरकर बाहर निकलती हैं, और फिर रेंगती हुई कहीं किसी बिल में गुम होकर आश्रय पा जाती हैं। मसान ने बनानेवालों को कितना हील किया होगा, मालूम नहीं। मसान ने देखनेवालों को ज़रूर थोड़ा-थोड़ा हील किया है। 'मसान' से उपजा हुआ दुख यूनिवर्सल है, प्रेम और मृत्यु की तरह।

गुरुवार, 13 अगस्त 2015

कहना फिर कभी, सुनना फिर कभी

आज कल कुछ और बड़ी चिंताएं तारी हैं - सब्ज़ी बनने से पहले कम से कम दो बार  धुलती है नहीं, बिस्तर पर की चादरें हर हफ़्ते बदल तो दी जाती हैं न, घर में कहीं चलो तो पैरों के नीचे धूल तो नहीं आती? अच्छा है वक़्त पर सोना, और वक़्त पर जगना। ये भी अच्छा है कि ज़िन्दगी में कोई दुर्व्यसन नहीं। मैं सिगरेट-शराब नहीं पीती। आख़िरी बार वाइन कब पी थी, याद नहीं। सिगरेट के आख़िरी कश का स्वाद ज़ुबां से कब का उतर गया। दिन में कितने ग्लास पानी पीती हूं और कितनी देर योग-ध्यान करती हूं - इसका हिसाब ज़रूरी हो गया है।

और कितना ही अच्छा है कि सारे गुण भरे हुए हैं भीतर - संवेदना, समझ, सुकून। एक माँ, और एक औरत को बिल्कुल ऐसा ही होना चाहिए। रसोई के डिब्बों में समृद्धि अंटी पड़ी हो, बालकनी में शांति कोंपलों से फूट-फूट जाती हो, कमरों में कपूर-सी पवित्रता बांधती हो, फर्श पर अपने सुघड़ होने की परछाई मुस्कुराती हो, सुसंस्कृत बच्चे सिर पर मौजूद अदृश्य ताज हों। 

ज़िन्दगी का हासिल बस इतना ही होना चाहिए न? यही तो होना चाहिए - एक अच्छा-सा घर, दो गाड़ियां, बैंक अकाउंट में उतने पैसे जितने से ज़िन्दगी आराम से कटती रहे, अच्छे कपड़े-लत्ते, इज्ज़त, शोहरत, तीन कामवालियां जो आकर आपकी गृहस्थी बारी-बारी से संभाल जाती हों। ज़िन्दगी का हासिल बस इतना ही होना चाहिए। सच में। ज़िन्दगी का हासिल वाकई बस इतना ही होना चाहिए। 

मैं तुम्हें किस तरह के क़िस्से सुनाऊं दोस्त? तुमसे बात भी करूं तो क्या? कहूं तो क्या? सुनूं तो क्या? ये कि ग्रोफर्स पर सब्ज़ियां सैंतीस के मार्केट से थोड़ी सस्ती मिल जाएंगी? या फिर ये कि बिग बाज़ार में नॉन-स्टिक फ्राइंग पैन पर भारी डिस्काउंट था? या मैं तुम्हें ये बताऊं कि मल्टिप्लिकेशन की छह किस्म की स्ट्रैटेजी होती है - बाइनरी, लैटिस, एरिया मॉडल, ऐरे मेथड, रिपीटेड एडिशन और चिप मॉडल? या फिर ये बताऊं कि बादामरोगन में दही डालकर बाल में लगाओ, और एक घंटे छोड़ दो तो बाल एकदम सॉफ्ट हो जाते हैं? या फिर ये बताऊं कि पीठ दर्द का इकलौता इलाज नैचुरोपैथी में है, और आयुष के सेंटर्स दिल्ली के बेहतर हैं, नोएडा के नहीं? 
  
श्श्श्श्शशशश... शोर बिल्कुल मत मचाओ। मेरे भीतर का लफंगा मन फिलहाल योग निद्रा के अभ्यास में मसरूफ़ है। जिस रोज़ उठकर लुच्चापंती करेगा, उस रोज़ आऊंगी सुनाने क़िस्से। इन दिनों कहने के लिए वाकई कुछ नहीं है। 


बुधवार, 15 जुलाई 2015

अटकी हुई स्क्रिप्ट - डे थ्री

भीतर से भरने लगो तो बाहर से कटने लगते हैं। ये मेरी रचना-प्रक्रिया का हिस्सा है।

सारा वक़्त ख़ुद में उलझी-उलझी चलती हूँ। बात किसी से कर रही होती हूँ, सोच कहीं रही होती हूँ। किसी से मिलने-जुलने या बात करने का मन नहीं करता। नींद या तो बहुत आती है या बिल्कुल नहीं आती। सोचती हूँ कि बीमार पड़ जाऊँ - टायफॉय या मलेरिया या जॉन्डिस जैसा कुछ हो जाए तो ऑफ़िस न जाने की वजह मिल जाए, डेडलाइन से पिंड छूटे। झूठ बोल नहीं सकती, क्योंकि जानती हूँ बीमार पड़ने का बहाना किया तो चार कॉलीग या दोस्त और धमक आएंगे घर पर बीमार की मिज़ाजपुर्सी करने।

लेकिन अब तैयार होने लगी हूँ लिखने के लिए। इतने दिनों से जैसे भीतर का घड़ा भर रही थी। छोटे-छोटे काम रास्ते से हटाने ज़रूरी हैं। वो कॉलम जिन्हें लिख देने का वायदा किया था, और जिसके लिए एडिटर कई मेल कर चुकी है... वो अनुवाद जो बस आज के आज ही जाना है... वो किताब जो हर हाल में अब एडिट हो ही जानी चाहिए... तीन मिनट की फ़िल्म की स्क्रिप्ट भी लिखकर आज ही देनी है... सब ख़त्म करके अब अपनी स्क्रिप्ट, अपनी कहानी की ओर मुड़ने का वक़्त हो चला है।

किसी ने बताया था कि १५ जुलाई को सितारों की गति और उनकी जगहों में बहुत बदलाव होने वाला है। आनेवाला वक़्त हम सबके लिए, यहाँ तक कि देश के लिए भी अच्छा है। आज है १५ जुलाई। पता नहीं सितारों की गति बदली या नहीं। लेकिन एक ही वक़्त पूरी दुनिया के लिए अच्छा या बुरा कैसे हो सकता है? सबकी किस्मत एक-सी होती तो ये दुनिया एकरूप न होती? कहते हैं कि किस्मतें जुड़ी होती हैं सबकी। हम जहां कहीं भी होते हैं, जिस भी लम्हे, जिन भी हालातों में... वहाँ किसी न किसी वजह से होते हैं... इसलिए होते हैं क्योंकि यूनिवर्स एक बहुत ही महीन, बहुत ही सोफिस्टिकेटेड मैथेमैटिकल कैलकुलेशन पर चलता है। उस कैलकुलेशन में हम सब एनवेरिएबल फैक्टर्स हैं, और हमारे कर्म वेरिएबल फैक्टर्स। हर माइक्रो-लम्हे का गणित इन्हीं दो फैक्टर्स पर निर्भर है। मेरा बीजगणित बचपन से बहुत कमज़ोर है, इसलिए मुझे शायद ये कैलकुलेशन समझ न आए। जिसे समझ में आता है, उसकी बात पर यकीन कर लेने में भलाई है। यूँ भी क्या बुरा है ये सोचना कि आनेवाले दिनों में सब अच्छा-अच्छा होगा?

घड़ी तीन चालीस का वक़्त दिखा रही है और आँखों से अधूरी नींद बहे जा रही है निरंतर। पता नहीं क्या सूझा है कि पहले मन की भड़ास, अलाय-बलाय बाहर निकाल देने का इरादा बना लिया है मैंने। उसके बाद शायद काम पर लौटना आसान हो जाए। पूरे दिन के चक्कर हैं। इन चक्करों में कई लोगों से मिलना भी शामिल है। मैं एक ही दिन में इतने सारे कमिटमेंट करती ही क्यों हूँ? अपने ही चैन की दुश्मन आपे-आप हूँ!

बग़ल में रश्मि बंसल की किताब औंधे मुँह पड़ी हुई कह रही है - अराइज़, अवेक। स्वामी विवेकानंद को काहिलों से जाने कैसा बैर था कि एक जुमला छोड़ गए। सदी गुज़र गई लेकिन वो जुमला हज़ारों की मेज़ों के ऊपर चिपका पूरे देश को जगाने का ढोंग भरता रहता है। पता नहीं वो गोल क्या है, और वो रास्ते क्या जिन पर चलते चलनेवाले अंतहीन सफ़र पर रहते हैं। अराइज़! अवेक! एंड स्टॉप नॉ ट टिल द गोल इज़ रिच्ड। सोने मत दीजिए स्वामी जी। बिल्कुल सोने मत दीजिए। इसी किताब का अनुवाद करना है मुझे? हो गई छुट्टी। रात की जूठन में थोड़ा-सा चैन भी बचा होगा तो उसे डस्टबिन में फेंक देने का पूरा इंतज़ाम मैंने अपने ही हाथों कर लिया।

हआ बहुत अनु सिंह। लौटो काम पर। इंतज़ार है कि तुम्हारी एडिटर ने रात में तुम्हें इतना ही कोसा होगा कि सपने में भी जगाने आ गई वो नैन्सी!

शुक्र है कि शुक्रवार को बजरंगी भाई जान रिलीज़ होने को है। इस पागलपन में सैनिटी का थोड़ी-सी उम्मीद!    

मंगलवार, 14 जुलाई 2015

अटकी हुई फ़िल्म स्क्रिप्ट - डे टू

हमें इन्सटेंट ग्रै टिफिकेशन की आदत पड़ी हुई है। डेडलाइन माथे पर नाचने लगे तो किसी न किसी तरह कुछ लिख दिया। किसी तरह ख़्यालों को एक स्ट्रक्चर दिया, और हो गई कहानियाँ, कविताएँ, लेख, विचार, कॉलम, ब्लॉग, वगैरह वगैरह तैयार। जितनी तेज़ी से लिख लिया, उतनी ही तेज़ी से उस लिखे हुए पर प्रतिक्रियाएँ भी हासिल हो गईं। लिखना फेसबुक स्टेटस मेसेज पर लाइक की कामना से आगे जाता ही नहीं कमबख़्त। लिखना बस इसलिए, क्योंकि जल्दी से जल्दी कोई बात कह देनी है किसी तरह।

जब हम लॉन्ग फॉर्मै ट में लिखने बैठते हैं तो यही सबसे बड़ी समस्या होती है। काम जब तक पूरा नहीं हो जाता, तब तक किसी को दिखाना संभव नहीं होता। हमारी तरफ से पूरा हो भी गया तो भी उसमें स्ट्रक्चर के बिखरे हुए होने का डर सताता रहता है। फेसबुक के स्टेटस मेसेज की तरह उसको हाथ के हाथ लाइक नहीं मिलते।

लॉन्ग फॉर्मैट भीतर ही भीतर हमें तन्हां करता रहता है, दुनिया से काटता रहता है, ख़ामोश रहने पर मजबूर करता रहता है। लॉन्ग फॉर्मैट सीखाता है कि हर छोटी-छोटी बात कहकर और उस पर प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार कर अपनी ऊर्जा मत ज़ाया करो। ये ऊर्जा बचाए रखो, क्योंकि अभी कई और ड्राफ्ट्स लिखे जाने हैं। अभी बहुत सारा काम और होना है।

कल मैंने भाई को मॉर्निंग पेज या डायरी लिखने की सलाह दी तो उसने बहुत अच्छी एक बात कही। ज़रूरी नहीं कि जो लॉन्गहैंड लिखता हो, या शब्दों का खेल समझता हो, उसका थॉट प्रॉसेस बहुत साफ-सुथरा ही होगा। हम कई बार अच्छा लिखने की बदगुमानी में verbose होते चले जाते हैं। सटीक, साफ-सुथरे ख्यालों का पता नहीं होता, बस शब्दों को सजाने-सँवारने के चक्कर में लगे रहते हैं। कई बार शॉर्टहैंड लिखना टू-द-प्वाइंट सोचने के लिए ज़रूरी होता है। और अपनी बात अच्छी तरह कम्युनिकेट करने के लिए भी। मुझे अचानक उसकी बात में बहुत दम नज़र आया। वाकई ज़्यादा लिखने के चक्कर में हम ज़्यादा शब्द ज़ाया भी करते हैं, और जो कहना होता है वो कह नहीं बाते। बीटिंग द बुश मुहावरा किसी राईटर के कॉन्टेक्स्ट में ही पैदा किया गया होगा।

ख़ैर, लॉन्गहैंड फॉर्मैट लिखने की एक समस्या ये भी है कि ज़्यादा-ज़्यादा लिखा जाता है लेकिन काम का बहुत कम निकल पाता है। स्क्रिप्ट लिखते हुए भी ठीक यही हो रहा है। एक सीन इतना लंबा और बोरिंग हो जाता है कि ख़ुद ही कोफ़्त होने लगती है। वही बात इशारों में, या किसी एक छोटे से एक्शन के ज़रिए भी तो कही जा सकती है। कहानीकार होने और स्क्रिप्टराईटर होने में यही अंतर है।

मैं जिस चीज़ से परेशान हूं उसे अपने लर्निंग प्रोसेस की सीढ़ियां क्यों नहीं मान लेती? ऐसे कितने राईटर होंगे जिन्हें एक साथ कई किस्म की चीज़ें कई तरह के फॉर्मैट में लिखने का मौका मिल रहा होगा? मैं ख़ुशनसीब हूं कि मैं एक ही दिन में किसी बड़े उपन्यासकार की रचना एडिट कर रही होती हूँ, वेब के लिए कॉन्टेन्ट लिख रही होती हूँ, किसी किताब का अनुवाद कर रही होती हूं, किसी टीवी चैनल के प्रोमो के लिए स्क्रिप्ट लिख रही होती हूं, किसी अंग्रेज़ी वेबसाइट के लिए अगले कॉलम के आईडिया सोच रही होती हूँ और उसके साथ-साथ अपने लॉन्ग फॉर्मैट के साथ संघर्ष भी कर रही होती हूँ। हर बार लिखना - ख़राब या अच्छा, शॉर्ट या लॉन्ग, संभला हुआ या बिखरा हुआ, अपने लेखन को मांजने का ज़रिया क्यों नहीं हो सकता? लिखने के साथ इतना सारा रोमांस जोड़ देने की इजाज़त मुझे है क्या?

और अगर है, तो उस रोमांस को बचाए रखना भी मेरा ही काम है। लिखना अब मेरे लिए रोमांस रहा नहीं, वो कई सालों की शादी हो गई है जो बस है - दिन-रात, आजू-बाजू, भीतर-बाहर.... वजूद का एक अकाट्य हिस्सा, जिसके लिए लॉयल्टी में ही चैन है। अपनी तमाम उलझनों और कोफ़्त के बावजूद। उस रिश्ते में कुछ एक्साइटिंग करने की बेमानी और नाजायज़ ख़्वाहिश के बावजूद। इसलिए क्योंकि लॉयल्टी में सुख है। जिन्होंने लेखन को रोमांस बनाकर उसे बचाए रखा, जिलाए रखा और उसमें ज़िंग डालते रहे, वो ऊबते रहे, डूबते रहे। मेरे लिए लेखन शादी ही ठीक। टेढ़ा है, मगर मेरा है। बोरिंग है, लेकिन फिर भी मेरा है। एकरस है, फिर भी मेरा है। रुलाता है, थकाता है, मगर फिर भी मेरा है। इसलिए हर सुबह और शाम इस शादी के लिए ख़ुद को दुरुस्त बनाए रखना है, मेहनत करते रहनी है। जो कई सालों से शादी-शुदा है, वो जानता है कि एक रिश्ते को सुकूनदायक बनाए रखना कोई हँसी-ठठा नहीं। शादी लाइफलॉन्ग है। लिखना कई जन्मों के आर-पार से होते हुए हर जन्म में पाल लिया गया वही लाइफलॉन्ग फितूर है।

इसलिए निजात है नहीं अनु सिंह। किसी भी तरह से नहीं। रोकर-धोकर, तमाम सारी शिकायतें करके भी बस ये समझ लो कि लिखना रोमांस नहीं है। लिखना जीने की ज़रूरत है। इसलिए खाली पन्ने निहारते रहने और लिखने को रोमांटिसाइज़ करते रहने से अच्छा है कि हर रोज़ ख़राब या अच्छा, जैसा भी हो लिखा जाए।

आज की डेडलाइन क्या है, देखो तो ज़रा।

आज की चुनौतियां? ब्रिंग इट ऑन, वर्ल्ड!

सोमवार, 13 जुलाई 2015

अटकी हुई फ़िल्म स्क्रिप्ट - डे वन

दिनभर लिखती रहती हूँ - कभी किसी के लिए, कभी किसी के लिए। काम अब सिर्फ़ शब्दों का खेल हो गया है। इसलिए कहानियाँ गायब हो गई हैं, शब्द बचे रह गए हैं।

एक थकन सी तारी रहती है इन दिनों। टीएसएच लेवल बहुत बढ़ा हुआ है। जी में आता है, रोती रहूँ। लेकिन रोने की भी फ़ुर्सत नहीं। दिन हरसिंगार की डाल है तो डेडलाइन वो अजगर जो उस डाल की जान ही नहीं छोड़ता। माली को फिर भी उम्मीद है कि मौसम बदलेंगे। पेड़ों से पत्ते झर-झरकर गिरेंगे जिस रोज़, उस रोज़ अजगर किसी और डाल का रास्ता अख़्तियार करेगा। या कोई सँपेरा ही कहीं आ जाए कहीं से। काबू में अजगर भी होगा एक दिन, डेडलाइन का डर भी।

तब तक एक बोझिल गर्दन पर जलती आँखें और तपता माथा कायम रहे, यही उम्मीद है।

कोहिनूर की कहानी आंतों में जाकर अटक गई है कहीं। ग़म के क़िस्से लिखना आसान है। हँसी और मज़ाक से कहकहे ढूंढ निकालने के बहानों के लिए लिखना बहुत मुश्किल। वो भी, कहानी अगर बच्चों की ज़ुबां में कहनी हो तो...

इन दिनों यही सोचती रहती हूँ कि बच्चे अपने आस-पास के लोगों को किस तरह देखते हैं, उनके बारे में क्या सोचते हैं, उनके भीतर क्या डिस्ट्रक्टिव और क्या कन्सट्रक्टिव है, रिबेलियन की भावना पहली बार कब और क्यों आती है, वो कौन-सी वाइब होती है जो एक खूंखार दिखनेवाले इंसान की बेतरतीबी उन्हें बहुत आसानी से जोड़ देती है जबकि एक शांत दिखनेवाला, दुनिया की नज़र से सफल और क़ायदे का इंसान उन्हें बिल्कुल रास नहीं आता। बच्चों के लिए मुमकिन क्या है और असंभव की परिभाषा क्या है?

दस सीन के इर्द-गिर्द ही घूम रही हूं पिछले कितने दिनों से। कहानी आगे बढ़ने से इंकार कर रही है। कहती है, पहले जितना बनाया है, उसे अच्छी तरह तैयार तो करो, उससे संतुष्ट तो हो जाओ। भीतर का एडिटर नुक्ताचीं करता रहता है। बाहर का दबाव लिखने से रोके रहता है। अजीब सी हालत है। न हरसिंगार के पत्ते झड़ने का नाम ले रहे हैं, न अजगर किसी और चंदन की तलाश में निकलने को तैयार है।

फिर भी ये उम्मीद है कि कहानी एक न एक दिन ख़ुद को कह ही डालेगी। फ़िल्म की स्क्रिप्ट लिखने का हुनर भी एक न एक दिन आ ही जाएगा।

शनिवार, 2 मई 2015

भटकना बेसबब, रिपोर्ट काठमांडू से


एयर इंडिया की जिस फ्लाईट में मैं हूं, उसमें तीन तरह के लोग हैं – अपने घर की ओर जा रहे नेपाली नागरिक, देशी-विदेशी राहत एजेंसियों के लोग और पत्रकार। काठमांडू जाने की कोई और चौथी वजह नहीं हो सकती। काठमांडू के रनवे पर क्रैक की ख़बर आई है, इसलिए विमान में बिठा दिए जाने के बाद भी हमें रोक दिया गया है। हम ये भी नहीं जानते कि अगले दो घंटे में हम काठमांडू में होंगे या नहीं।

मेरी बगल की सीट पर बैठे बुज़ुर्ग की आँखें जितनी ही ख़ामोशी से दुआ में बंद हैं, उतना ही ऊंचा शोर उंगलियां प्रेयर बीड्स पर मचा रही हैं। हिम्मत नहीं हो रही पूछने की, सब भूकंप में चला गया या बाकी भी है कुछ?


काठमांडू में उतरते ही जो बाकी रह गया, वो दिखने लगता है। चारों ओर राहत का सामान बिखरा पड़ा है। एक कार्गो विमान अभी-अभी उतरा है। कोई नाम नहीं लिखा, इसलिए बताना मुश्किल है, लेकिन राहत सामग्री पर रेड क्रॉस के लेबल चिपके हैं। अलग-अलग देशों की सेना के विमान हैं। भारतीय वायुसेना के भी। सब अपने-अपने घेरों में सामान उतार रहे हैं। कन्वेयर बेल्ट पर भी काग़ज़ के गत्तों और कार्टूनों में लिपटे सामान दिखाई देते हैं – दवाएं, मच्छरदानियां, स्लीपिंग बैग्स। चार दिन पहले आए भूकंप की वीरानी हर कोने में पसरी है। एयरपोर्ट पर नेपाली कस्टम अधिकारी कम हैं, अलग-अलग देशों और राहत एजेंसियों के डेस्क ज़्यादा हैं।


आज काम पर लौटा हूं। कहीं मन नहीं लग रहा। मेरा घर भक्तापुर में है। उधर सब खतम हो गया। पूरा घर गिर गया। मां बीमार है। बेटी उधर तराई में है। बार-बार फोन करके पूछती है कि कैसा है हमलोग। उसको क्या बोलेंगे? क्या बताएंगे? समझ में ही नहीं आ रहा करें क्या... सब खतम हो गया, मुझे लेने पहुँचे ड्राईवर कुमार भगत ने मेरे एक सवाल के जवाब में इतनी लंबी बात कह डाली है।


एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही धँसी हुई सड़क है। भूकंप की वजह से, ड्राईवर बताता है। शहर की तासीर में एक अजीब-सी बेचैनी घुली है। गाड़ियों पर लदे ढेर सारे लोग हैं। मुमकिन है मेरा वहम है, लेकिन सब भागते दिखाई दे रहे हैं।


न्यू बानेश्वर तक पहुंचते-पहुंचते वहम यकीन में बदल जाता है। कई किलोमीटर लंबी कतार में अपने अपने सामान के साथ खड़े लोग वाकई काठमांडू से भाग रहे हैं – तराई की ओर, अपने गांवों की ओर, हिंदुस्तान की ओर... अख़बारों में छपे आंकड़े बताते हैं कि तकरीबन चार लाख लोग राजधानी छोड़कर जा चुके हैं।


शहर में जगह जगह गिरी इमारतों को देखकर लगता है कि इंसानों के साथ-साथ इंसानों की बनाई दुनिया की भी अपनी-अपनी किस्मत होती है। एक जगह एक घर पूरा का पूरा ढहा पड़ा है तो उसके ठीक बगल वाली इमारत साबुत खड़ी है। यूं लगता है कि जैसे कुदरत ने बच्चों का खेल खेला। जहां गिर पड़ा, वहां अपना हथौड़ा चलने दिया।


आर्मी बेस रिलीफ़ कैंप


शहर के ठीक बीचोंबीच बने इस राहत शिविर में घुसते ही एक वैन दिखाई देता है। प्लास्टिक बोतलों में पीने का पानी बांटा जा रहा है। कॉलेज के कुछ बच्चे हाथों में केले और पानी बोतलें लिए तंबुओं के बाहर खेलते बच्चों को बांट रहे हैं। किरण गौतम अपने पूरे परिवार के साथ यहां है। लगन में जिस तीन-मंज़िला मकान को बनाने में दो पीढ़ियां लग गईं, उस मकान को ढहने में ठीक एक मिनट का वक्त लगा। टेंट के बाहर किरण का चार साल का पोता खेल रहा है। घर के बाकी लोग यूं ही इधर-उधर लेटे हुए हैं। किसी से कुछ भी पूछना बेकार है। वो बताएंगे क्या, मैं पूछूंगी क्या। भूकंप ने जान बख़्श दी तो रही-सही उम्मीद ज़िन्दगी बख़्श ही देगी।       


धरहरा स्मारक


विकास शर्मा की दुकान है धरहरा से दस कदम दूर। हिलती हुई इमारत गिरी तो दूसरी ओर। जिन घरों और दुकानों पर इमारत गिरी, उनका क्या हुआ होगा, ये विकास न भी बताएं तो इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं। धरहरा के आस-पास की दुकानें खुल गई हैं। जो मकान बच गए हैं, उनमें ज़िन्दगी का कारोबार शुरू हो गया है। पांच दिन पहले तक सैलानी दो सौ दस फ़ीट ऊँचे इस टावर पर चढ़कर काठमांडू घाटी का नज़ारा देखने आया करते थे। अब गिरे हुए टावर को देखने के लिए भीड़ जमा है, वो भी इस कदर कि बाहर तक की सड़कों पर जाम लग गया है।   


काष्टमंडप और बसंतपुर दरबार स्कावयर  


लकड़ी के बने जिस मंडप के नाम पर काठमांडू का नाम पड़ा, वो मंडप, राजा के पुराने महल और मंदिर धराशायी पड़े हैं। काष्टमंडप के आंगन में धंसी हुई इमारत से थोड़ी दूर लोग तंबुओं में रह रहे हैं। इलाके की सफाई करने के लिए नेपाली पुलिस और सेना की मदद के लिए सैंकड़ों वॉलेंटियर जुट गए हैं। ईटें और लकड़ी के टुकड़े साफ किए जा रहे हैं। धीरे-धीरे जगह साफ करना मुमकिन है, इन ऐतिहासिक इमारतों को वापस खड़ा करना नामुमकिन।  


गन्गाभू


न्यू बस पार्क से थोड़ी दूर एक गली में गेस्ट हाउस के बाहर भारी भीड़ जमा है। अमेरिकी बचावकर्मी नेपाली सेना के साथ अभी भी कुछ खोज रहे हैं। भीड़ हटने के नाम नहीं लेती। उम्मीद बाकी है कि पांच दिन के बाद भी मलबे में फँसा एक आदमी ज़िंदा निकाला जा सकेगा। उम्मीद नामुमिकन पर भारी पड़ी है। १४४ घंटे के बाद भी ज़िंदा निकला है एक आदमी यहां से। भीड़ तालियों से उसका स्वागत करती है। दूर से इस चमत्कार की तस्वीर नहीं खिंची जा सकती, लेकिन एंबुलेंस की तस्वीर सैंकड़ों लोग अपने अपने मोबाइल कैमरों में क़ैद कर रहे हैं। 


स्वयंभू मंदिर  


पहाड़ के ऊपर बने इस बौद्ध मंदिर से पूरा काठमांडू दिखता है। मंदिर में विदेशी सैलानियों की एक छोटी सी टुकड़ी अभी भी मौजूद है। वे मंदिर देखने नहीं आए, मंदिर को पहुंची क्षति को देखने आए हैं। ऊपर पहाड़ पर मंदिर के आस-पास दो सौ से ज़्यादा लोग रहते थे। उनकी आमदनी का ज़रिया मंदिर ही था। उर्मिला का मकान और दुकान – दोनों मंदिर के पास था। दोनों में से कुछ भी नहीं बचा। जिस ईश्वर ने कहर ढाया, उसी ईश्वर के टूटे-फूटे आंगन में उर्मिला और उसके बच्चों ने शरण ली है। ऊपर से बोरों में भरकर ज़रूरत का सामान टूटे हुए घर से नीचे लाने की नामुमकिन कोशिश जारी है। खाना सब साथ मिलकर मंदिर में ही बना रहे हैं। पेट किसी तरह भर रहा है, भरा हुआ दिल भर किसी सूरत में खाली नहीं होता।  


सीतापायला


स्वंयभू से आते हुए मेन रोड पर ही गिरे हुए मकान दिखते हैं। उधर से गुज़रने वाली बसें और गाड़ियां भी अपनी रफ़्तार धीमी कर लेती हैं, जैसे शोक में हों। दूसरी ओर नेपाली सेना की एक टुकड़ी का जमावड़ा लगा है, लेकिन जवान किनारे खड़े हैं। और जगहों की तरह कोई मलबे में से कुछ भी खोजने की कोशिश नहीं कर रहा। कुछ लोग ज़रूर सामान ढूंढने की नाकाम कोशिश कर रहे हैं। कहीं से टूटा हुए चूल्हा झांक रहा है तो कहीं से टूटी हुई चप्पलें। मलबे से इतनी तीखी दुर्गंध आ रही है कि एक पल के लिए भी खड़े रहना मुश्किल है। इन चार मंज़िला इमारतों में से ३९ लाशें निकाली गईं। जो ज़िंदा बचा रह गया, उसके लिए कुछ भी बाकी नहीं रहा। 


पशुपति मंदिर


बागमती के किनारे जलती लाशों को देखकर ज़िन्दगी के सारे दुख छोटे लगते हैं। तीन दिन पहले तक यहां सैंकड़ों लाशें एक साथ जल रही थीं। आठ चिताएं अभी भी सुलग रही हैं। मरने वाले शायद भूकंप पीड़ित न हों, लेकिन उनकी मौत का मुकर्रर वक्त मुश्किल साबित हुआ है। लकड़ियां अभी भी मुश्किल से मिलती हैं। जो मिलती भी हैं, बारिश की वजह से गीली पड़ी हैं। जो शरीर बेजान हो गया, उसे किसी सूरत में संभाला नहीं जा सकता। इसलिए हर हाल में चिताएं सजा ही जाती हैं। मौत किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं करती। जो ज़िंदा हैं, वे करते हैं। यहां घाट भी दो हैं – एक वीआईपी घाट और दूसरा आम जनता के लिए। कौन जाने कि भूकंप ने पूछकर जानें लीं या नहीं। मंदिर में भीड़ नहीं है। अपने ही तांडव से पाशुपति अपने घर के कुछ हिस्से भी नहीं बचा पाए वैसे। मुख्य मंदिर सुरक्षित है, लेकिन भूकंप का असर वृद्धाश्रम और बाहर की इमारतों पर साफ दिखाई पड़ रहा है।    


सड़क पर स्टूडियो


कांतिपुर टीवी का न्यूज़रूम इन दिनों सड़क पर से चल रहा है। पूछताछ करने पर मालूम चलता है कि दफ्तर की इमारत के गिरने का डर था, इसलिए स्टूडियो और न्यूज़रूम सड़क पर एक तंबू में डाल दिया गया। हालांकि कांतिपुर पब्लिकेशन्स के लोग अभी भी उसी दफ्तर से काम कर रहे हैं। टीवी ड्रामा ढूंढता है, और सड़क पर स्टूडियो ले आने से बड़ा ड्रामा और क्या होता? इंसान हर सूरत में तिजारत के बहाने निकाल ही लेता है। 


जीना यहां, मरना यहां


नेपाल रेड क्रॉस के दफ्तर में गाड़ियों और लोगों का हुजूम जुट रहा है। पूरी दुनिया से रेड क्रॉस प्रतिनिधि पहुंच रहे हैं यहां। दफ्तर के भीतर एक रजिस्ट्रेशन डेस्क पर वॉलेंटियर की भीड़ जुटी है। अशोक महरजान अपने परिवार के २२ लोगों को लेकर पहुँचे हैं यहां, वॉलेंटियर करने के लिए। सोलह से लेकर पचास तक की उम्र के लोग हैं। सबके घर टूट गए। शुरू के चार दिन अपने आप को संभालने में लग गए। घर का ज़रूरी सामान जमाकर राहत शिविर में पहुंचाया जा चुका है तो अब परिवार निश्चिंत होकर दूसरों की मदद के लिए यहां पहुंचा है। मानवता के नाते यहां आए हैं। आखिर तो हम सब मुसीबत में हैं। पूरा देश मुसीबत में है, अशोक इतना ही कहते हैं और वापस अपनी बेटी और भांजे के साथ कतार में लगकर ट्रकों में से राहत सामग्री के डिब्बे उतारने में लग जाते हैं। जो ज़िन्दगी बची रह गई, वो किसी के काम आ सके – बस इसी की ख़ातिर।


नोट – काठमांडू में भूकंप से कुल 1,039 मौत हुई है। पिछले पांच दिनों में चार लाख से ज़्यादा लोग काठमांडू छोड़कर जा चुके हैं। पानी की बोतल अब भी दस रुपए में ही मिल रही है, और होटलों में जो भी खाने को मिलता है, उसकी कीमत अभी तक नहीं बढ़ी। जब भूकंप ने पक्षपात किया, तो इंसान भी कैसे बाज़ आता? ये काठमांडू का सुरक्षित इलाका है, जहां ज़िन्दगी अपनी गति पकड़ने लगी है। काठमांडू में कई प्रभावित इलाके ऐसे हैं जहां पीने के पानी, खाने, टॉयलेट और मूलभूत स्वास्थ्य सुविधाओं की सख़्त ज़रूरत है।    


( ये रिपोर्ट सबसे पहले www.satyagrah.com पर प्रकाशित हुई।) 

मंगलवार, 31 मार्च 2015

घर छोड़कर चल देना एक दिन

(मॉर्निंग पेज ३९)

हम कई साल एक ही घर में रहे - पूरे बचपन। परिवार के आकार के हिसाब से घर बनता गया, फैलता गया। लेकिन ज़मीन-जगह वही रही। आस-पड़ोस वही रहा। ख़ुशबुएं, बदबू वही रहीं।

फिर दिल्ली आई और हर तीन-छह महीने में ठिकाना बदलता गया। पहले मामाजी का घर, फिर किसी दोस्त का घर, फिर पीजी, फिर हॉस्टल, फिर हॉस्टल के इस कमरे से उस कमरे में भटकना, फिर पीजी, फिर हॉस्टल... कई साल ये सिलसिला चलता रहा। सामान था नहीं मेरे पास। एक गद्दा, एक रजाई, एक तकिया, दो सूटकेस,दो एयरबैग, एक बाल्टी, एक मग और तीन कार्टूनों में गृहस्थी सिमट जाया करती थी। फिर जहां-जहां से होकर गुज़रते, वहां-वहां अपने हिस्से का थोड़ा-सा कुछ वहीं छोड़ देते।

कई साल बाद एक किस्म की स्थिरता एकअदद-सी नौकरी और अपनी सबसे पुरानी सहेली के फ्लैटमेट बन जाने पर आई। मयूर विहार वो ठिकाना था जो ढाई-तीन साल तक बना रहा। फिर से वही घर, वही आस-पड़ोस, वही ख़ुशबुएं...

शादी हुई तो कुल दस साल में ये चौथी बार है कि हम ठिकाना बदल रहे हैं, इस उम्मीद में कि ये आख़िरी बार है कि सामान बंध रहा है, यादें सिमट रही हैं और घर-दिमाग़ से कचरा बाहर किया जा रहा है।

घर क्या था, और क्या हो गया है, ये भी सोचने की बात है। नींद में अपने बच्चों से पूछा मैंने, घर कहां है तुम्हारा? आधी नींद में ही जवाब आया उनका, २७६, नोएडा। यानी जिस घर में अभी तक हम गए भी नहीं वो उनका नया घर, नया पता बन गया। बाकी के जिन दो घरों में उन्होंने अपना बचपन निकाला वो भी मायने नहीं रखता। ये भी मायने नहीं रखता कि उनके पिता के लिए घर पूर्णियां है, और उनकी मां को तो ख़ैर मालूम ही नहीं कि घर कहां था और कहां खो गया। घर कहां बनेगा और कहां घूमता रहेगा साथ-साथ।

सही कह रहे थे बच्चे। घर वही है जहां हम सामान खोलकर बसेरा डाल देते हैं। जहां प्यार रसोई के डिब्बों में बंद होकर खानों में सजा दिया जाता है, जहां उम्मीदें तस्वीरों में ढालकर दीवारों पर टांग दी जाती हैं, जहां सलीका बिस्तर पर बेडकवर बन जाता है, जहां खलबलियां और बेचैनियां इधर-उधर, यहां-वहां चोरी-छुपे कोनों में पड़ी रहती हैं।

घर कई चीज़ों का कुल जमा योग होता है। थोड़ी यादें, थोड़ी पहचान, थोड़े ख्वाब, थोड़े शिकवे, थोड़ी नाराज़गियां.... घर में थोड़ा-थोड़ा सब होता है। और घर में होता है कि यादों का जमावड़ा। जहां सबसे ज़्यादा यादें बना डालीं, वो घर सबसे ज़्यादा हसीन था।

मैं घर के फिज़िकल स्पेस को लेकर निर्मम हूं। जो छोड़ देती हूं, बस छोड़ देती हूं। लौटकर नहीं जाती वहां। आठ साल जिस घर में गुज़रे, और जहां मेरे बच्चों ने चलना-दौड़ना, हंसना-बोलना सिखा, उस घर को छोड़ा तो दुबारा उस गली से गुज़री तो भी मुड़कर उस घर को नहीं देखा। मोह नहीं बसता दिल में। यादें बसती हैं, वो भी अत्यंत निर्विकार भाव से। इतना ही कि उन यादों की मुस्कुराहटें और तकलीफ़ें दोनों अब विह्वल नहीं करतीं।

हम बक्सों में फिर से एक बार सामान बंद करने लगे हैं। फिर से घर से ढेर सारा कचरा निकलने लगा है। मैं हैरान हूं कि जिन खिड़की, दीवारों को अपनी पसंद के पर्दों, तस्वीरों से सजाया उनसे कितनी आसानी से मोह टूट गया। हम जहां होंगे, फिर वहां घर बनेगा।

इसलिए शायद मेरे लिए घर कई जगहों पर है, और घर कहीं नहीं है। जितनी देर जहां होते हैं, उतनी देर ईमानदारी से लगाव बना रहे, बस इतना बहुत है।

वरना तो स्थायी घर ये दुनिया भी नहीं। हम सब सफर में हैं। हम सबको अभी कई घर बनाने हैं, कई डेरों में उखड़ना-बसना है।उन घरों में कुछ काम पूरे करने हैं, कुछ सेवाएं देनी हैं, कुछ ख्वाब जीने हैं। मेरे होने के सबब बस इतना सा है।

मैं इतनी निर्विकार क्यों होती जा रही हूं? या फिर निर्मोही?

सोमवार, 30 मार्च 2015

जवाब जिनके नहीं, वो सवाल होते हैं

(मॉर्निंग पेज ३८)

उसने अपने बाल पीठ पर बिखेर रखे थे। पीठ सिसकियों की वजह से हिचकोले लेती थी। जितनी बार पीठ में कंपन होती, कैंची टेढ़ी पड़ जाती। मैं पीठ को झकझोर के कहना चाहती थी कि खुलकर रो ले। जैसे बाल बिखेरे हैं, वैसे दुख को बिखर जाने दे।

शुक्र है कि ख़्वाब था कोई।

पूरी शाम ऑपरेशन ब्लू स्टार के बारे में पढ़ते हुए निकाल दी थी, और जानती थी कि सपने में दिखाई देने वाला ये लंबे बालों वाला पुरुष उसी सोचे हुए का नतीजा है, जो मेरे अवचेतन में ठहर गया था कहीं।

मैं स्वर्ण मंदिर कभी नहीं गई। पहले जाती तो दीवारों पर इतिहास के निशान नहीं ढूंढती। लेकिन अब जाऊंगी तो न भी ढूंढू तो इतिहास की रूहें भटकती हुई नज़र आएंगी।

ये अजीब बात है कि इस दुनिया में सत्ता और सत्ता की राजनीति इतनी ही बलवान होती है कि एक-दूसरे की जड़ें उखाड़ फेंकने के लिए, और कुर्सी के ज़रिए दौलत और रसूख जिए जाने के लिए कोई किसी भी हद तक, किसी भी किस्म की साज़िशें कर सकता है। अब ये भी समझ में आने लगा है कि धर्म और जाति के झगड़े भी दरअसल सत्ता के झगड़ों की उपज हैं। सत्ता के ये झगड़े उतने ही प्राचीन हैं, जितना पुरातन मानव इतिहास है।

सत्ता की बिसात पर चालें बदल जाती हैं, और है अगर ये खेल ही तो फिर शह और मात के इस खेल में वजीर और बादशाह बाद में जाते हैं, उनसे पहले सैकड़ों मासूमों की जान चली जाती है। ये दुनिया के हर कॉन्फ्लिक्ट का सत्य है।

मैं कई सारे सवालों से उलझी हुई जगी हूं। वो कौन सा वैज्ञानिक या गणितीय समीकरण है जिसके आधार पर यूनिवर्स चलता है? हमारी किस्मतें कौन तय करता है? ये कौन तय करता है कि हम पैदा कहां होंगे, और मरेंगे कैसे? मौत इतने इतने तरीकों की क्यों होती है? हमारी किस्मतें साझा कैसे होती हैं? हम जिस वक्त जहां होते हैं, वहां क्यों है? एक इंदिरा गांधी की मौत से साढ़े तीन हजार लोगों की मौत कैसे जुड़ गई? क्या ये साझा किस्मतें नहीं थीं?

अगर ये कायनात क्रिया और प्रतिक्रिया के सरल से समीकरण पर चलती हैं तो फिर क्या कुछ ऐसे कर्म नहीं किए जा सकते जिससे साझा किस्मतें बदलें? इस कायनात की किस्मत बदले?  क्या इंसानों के गुनाहों का बोझ इतना भारी है कि उसकी चोट रह-रहकर पहुंचती रहती है? जब गुनहगारों की भीड़ पैदा होती जा रही है तो मसीहा कहां गए?

न्यूटन ने प्रकृति के तीन नियम दे दिया तो फिर वही साइंसदानउसे दुरुस्त बनाए रखना क्यों नहीं सिखा पाया? हम धर्म के पाठ तोतों की तरह रटते हैं,अपने कर्मों को और उसके असर को समझने के पाठ क्यों नहीं पढ़ते?
हमारा वक्त एक-दूसरे की जड़ें खोदने, एक-दूसरे की शिकायतें करने, दुखों का अंबार बढ़ाए रखने में क्यों जाता है? 

जिस सुकून की तलाश में भटकती रहती हूं, उस सुकून को तबाह करने के लिए सवाल बहुत हैं।











रविवार, 29 मार्च 2015

करो बस इतना कि करम धुल जाए

(मॉर्निंग पेज ३७) 

लोग शायद सुबह-सुबह उठकर अपने अपने ईश को पुकारते होंगे।

लोग शायद सुबह-सुबह उठकर योग, ध्यान, कसरत, सैर करते होंगे।

ये भी मुमकिन है कि लोग सुबह-सुबह उठकर फोन देखते हों, फेसबुक खोलते हों या फिर मेल पढ़ते हैं।

मैं सुबह उठते ही सबसे पहली बात ये सोचती हूं कि सुजाता नहीं आई अब तक, और अगर उसने आज छुट्टी ले ली तो मेरा क्या होगा!

सुजाता मेरे घर में कई सालों से काम करती है। बहुत कम बोलती है, और जितना हो सके, उतनी ख़ामोशी से काम निपटाकर चली जाती है। एक घंटे में मेरी वो दुनिया संभाल जाती है वो जिसको वापस बिखेरने में मेरे बच्चों को एक मिनट भी नहीं लगता। घर के कामों में मेरा बिल्कुल मन नहीं लगता। खाना बनाना दुनिया की सबसे बड़ी सज़ा - बल्कि सबसे अनप्रोडक्टिव काम लगता है। अगर सफाई करने की मजबूरी आ जाए तो ये सोचकर कुढ़ती रहती हूँ कि इतनी देर में कोई और काम किया होता। बच्चों के साथ वक्त बिताती। कहीं घूम आती। कोई किताब पढ़ लेती। कोई और काम ही कर लेती। और कुछ नहीं तो सो ही जाती।

घर के कामों के पीछे मेरी घोर घृणा का कारण इतिहास के पन्नों में छुपा है। मेरी मां घर में रहती थी और सुबह चार बजे से घर के काम में लग जाती थी। उन्हें तवे और कढ़ाही की किनारियों पर चिपकी कालिख से ऐसी ही नफरत थी जितनी मुझे उस कालिख को साफ करने की मजबूरी से है। मैंने मां को जितना रसोई में उलझते हुए देखा, उतनी ही रसोई से दूर होती गई। संयुक्त परिवार के इतने काम होते थे कि मां हमेशा थकी हुई रहती थी।

मैं उस थकन से बचना चाहती थी। मैं उन कामों से भी बचना चाहती थी जिनका कोई पारिश्रमिक नहीं मिलता, कोई क्रेडिट भी नहीं मिलता। ये और बात है कि बाद में ऐसे काम करती रही, करती रही, करती रही...

 इसलिए क्योंकि कर्म से बचकर कोई कहां जाएगा? जिस घर में आप रह रहे हों उसे यूं ही नहीं छोड़ा जा सकता। जिन बच्चों को आप इस दुनिया में लेकर आए, और उनकी परवरिश की ज़िम्मेदारी उठाई, उनकी खातिर घर को वक्त देना होता है। जो घर में बिखरा-बिखरा हैरान-परेशान और उलझा हुआ है, वो समाज क्या बनाएगा?

बस, अपनी तमाम नफरतों को परे रखकर घर को घर बनाने की कवायद हर रोज़ चलती रहती है।

और जब ये कवायद करनी ही है तो फिर कुढ़ना-चिढ़ना क्या?

मैं कल ईशा फाउंडेशन की वेबसाईट पर पढ़ रही थी कि जिस काम को आप सबसे ज़्यादा नापसंद करते हैं, वही काम अपना मन और ध्यान लगाकर करना चाहिए। कर्म (जिसे कर्मा कहा जाता है आजकल) के रास्ते की अड़चनों को दूर करने का ये सबसे अच्छा तरीका है। जो काम मुझे पसंद है, वो तो मैं हर हाल में करूंगी ही। मुझे पढ़ना पसंद है तो मैं रात में देर तक पढ़ने के बहाने ढूंढ ही लूंगी। मुझे लोगों से मिलना-जुलना पसंद है तो उसके लिए वक्त भी निकल आएगा और शरीर भी साथ देगा। मुझे लिखना पसंद है तो वो मैं पीठ के दर्द और टेढ़ी गर्दन के साथ भी कर लूंगी। मुझे सफर करना पसंद है तो शहर से बाहर जाने के तमाम बहानों के आगे ब्लड प्रेशर और हाइपरटेन्शन तेल लेने चला जाएगा।

लेकिन मुझे घर के कामों में उलझन होती है (और बिना सुजाता मेरा काम नहीं चलता) तो एक दिन काम करना पड़ेगा तो मैं थक जाऊंगी, बीमार पड़ जाऊंगी, नाराज़ रहूंगी।

अपनी ज़िन्दगी की स्लेट पर बार-बार लिखी जा रही किसी भी अनर्गल चुनौती को तोड़ना है, और उसके बीच से रास्ता निकालना है, तो वो करना होगा जो मुझे सख्त नापसंद है। घर के कोने-कोने की सफाई नहीं है ये, अपने मन के कोनों में पड़ी धूल-मिट्टी को साफ करने की प्रक्रिया है। कपड़े नहीं धुल रहे, करम के मैले कपड़ों की सफाई हो रही है। रसोई और फ्रिज नहीं साफ हो रहा, बीमारियां साफ हो रही हैं ताकि अच्छी सेहत के लिए जगह बनाई जा सके। अलमारियां कहां ठीक हो रही हैं, ठीक तो अपनी हथेली पर बिखरी हुई टेढी-मेढ़ी लकीरें हो रही हैं।

जिस काम को जितने प्यार से किया जाएगा, उस काम में मन उतना ही लगेगा। मन जहां लगेगा, वहां खुश रहेगा। मन खुश रहेगा तो घर खुश रहेगा।

और अनु सिंह, तुमने ये सोच लिया कि घर के काम अनप्रो़क्टिव होते हैं? 


सोमवार, 23 मार्च 2015

रॉबिन्सन क्रूसो, फिर चलने का वक्त आ गया है!

(मॉर्निंग पेज ३१)

ऐसा भी होता है कि इत्ते बड़े शहर में आप किसी चिड़िया की आवाज़ से उठें?

पहले लगा कि फ़ोन पर का अलार्म है जो बच्चों ने बदल दिया होगा। फिर खिड़की के पास गई, इस यकीन के लिए कि आवाज़ वाकई बाहर से ही आ रही थी या नहीं। चैत का ये महीना ख़ास होता है। मेरे जैसे सांप-बिच्छू-मेंढक, जिन्हें ठंड बहुत लगती है और जो पूरे जाड़े खिसियाए हुए ज़मीन के नीचे सुस्त पड़े रहते हैं,  उनके बाहर निकलने का वक़्त होता है ये। अगले छह-आठ महीने सुबह उठने में तकलीफ़ नहीं होगी। अगले छह-आठ महीने दिन लंबे होंगे और कोई भी काम करने का मन करेगा।

सुबह इसलिए भी अच्छी लग रही है क्योंकि किसी डेडलाईन के दबाव में नहीं उठी। मॉर्निंग पेज लगातार लिखते रहने का कम से कम ये फ़ायदा तो हुआ है कि जितने ज़्यादा डर नहीं होते, उनसे कहीं ज़्यादा डर से निपटने के रास्ते सूझने लगे हैं।

डर और तन्हाई में एक अलग किस्म का रोमांस होता है वैसे। इश्क़ में टूटा हुआ दिल सबसे शायराना होता है। हम अपनी रंज़िशें, अपने ग़म, अपनी तकलीफ़ें बचाए रखते हैं क्योंकि उससे ख़ुराक हासिल है। मुझसे किसी क़िस्सागो ने कहा था कभी कि जब भीतर-भीतर बिखरा रहता हूं तो बाहर-बाहर निकलनेवाले शब्द बहुत सहेजे हुए निकलते हैं। मेरे भीतर के शब्द ख़त्म ने हो जाएं, इसलिए मैं हमेशा बिखरा-बिखरा रहना चाहता हूँ। मुझे आज तक उस क़िस्सागो की समझ पर तरह आता है। अपनी कहानियों और अपनी कविताओं, अपनी रंगों और अपने किरदारों के लिए हम ख़ुद को किस क़दर तकलीफ़ज़दा बनाए रखते हैं! एक म्यूज़ हमेशा होता है भीतर, जिससे लड़ते रहते हैं और फिर रूठ जाते हैं उससे तो लिखना आसान हो जाता है।

कविताएं सुकून में नहीं लिखी जातीं। कहानियां लिखने हुए कोई शांतमना कैसे हो सकता है? जब कोई कॉन्फ़्लिक्ट ही नहीं है भीतर, तो कोई किस तरह से लिखे और क्या लिखे।

मैंने अपने भीतर के अपने उस म्यूज़ से समझौता कर लिया है। मुझे उसके साथ की दोस्ती रास आने लगी है।

लेकिन 'मम्मा की डायरी' को पूरा करते हुए ये क़दम उठाना ज़रूरी था। मैं अपने सबसे बेशक़ीमती रिश्तों के बारे में कैज़ुअली नहीं लिख सकती थी। भीतर के उस म्यूज़ से लगातार संवाद करना था, उससे सही और ग़लत के विषय में बातें करती रहनी थी, इसलिए मैं बिखरने का ख़तरा नहीं उठा सकती थी। जब अपने घरों और अपने परिवारों, अपने रिश्तों और अपनी मोहब्बतों को सही मायने में निभाने का वक्त आता है तब हम गिरहों को खोलने के रास्ते ढूंढते रहते हैं।

बच्चों को एक उलझी-उलझी मां नहीं चाहिए। पति जब एक सुलझी हुई, समझदार पत्नी के पास लौटता है तो घर की सुख-शांति उसे चैन से जीने की वजहें देती है। पिछले तीन महीने में अगर मैंने अपने भीतर के म्यूज़ को कुछ भी याद दिलाया है, तो यही दो बातें हैं। इसलिए म्यूज़ ख़ामोश रहा भीतर। मुझसे उसने वफ़ादारी निभाई।

क्रिएट करने की प्रक्रिया भी कितनी अजीब होती है! हम पता नहीं कब और कैसे वो होने लगते हैं जो अपने शब्दों के ज़रिए कहना चाहते हैं।

'नीला स्कार्फ़' की रचना के दौरान मैं भीतर से बग़ावती हो गई थी। और पूरी तरह ख़ामोश। मुझे रिश्तों में कमियां दिखती थीं क्योंकि मैं वही देखना चाहती थी। मेरे पास सारी कहानियाँ ख़ामोशी की थीं, ख़ामोश क्रांतियों की थीं। अब 'नीला स्कार्फ़' के किरदारों के बारे में सोचती हूँ तो लगता है कि हर किरदार कितना जटिल था, कितना उलझा हुआ, और कितना बेचैन!

'मम्मा की डायरी' में बेचैनियाँ हैं, लेकिन ठहरी हुई। 'मम्मा की डायरी' में सिर्फ़ मैं और मैं हूँ हर जगह। किसी और की कहानी सुनाते हुए भी। मैं शुरू से जानती थी कि इस किताब के रास्ते मुझे क्या हासिल करना है। मुझे मालूम था कि इस किताब के ज़रिए मुझे अपनी ज़िन्दगी के रिश्ते टटोलने हैं और उनसे साथ शांति वार्ता शुरू करनी है। मुझे सीज़ फ़ायर चाहिए था, पीस। वो हासिल हो गई है। और तो नहीं मालूम कि क्या हुआ है, लेकिन किताब के ख़त्म होते ही मैं ख़ुद को पूरी तरह healed महसूस कर रही हूँ।

आज से किताब का ऑनलाइन प्रोमोशन शुरू हो जाएगा। मैं अपना ही लिखा हुआ पब्लिक स्पेस में डालती रहूँगी और बार-बार डालती रहूँगी। आज से अपने लिखे हुए से डिटैच हो जाना बहुत ज़रूरी है। वरना जिन ज़ख्मों को भरने के लिए इतने महीने पता नहीं कितनी बार एक-एक चैप्टर के ड्राफ्ट लिखती रही, उन्हें सोते-जागते-हँसते-रोते-खाते-पीते जीती रही, उन्हीं ज़ख्‍मों के वापस कुरेदे जाने की संभावना बहुत बड़ी है।

अगर लिखना आपको सुकून देता है तो छपना आपको वल्नरेबल बनाता है। (इसलिए कई बार डायरी और मॉर्निंग पेज अलमारियों में बंद रखे जाने चाहिए।) यहां से वो सिलसिला शुरू होता है जहाँ लगातार आपको जज किया जाएगा, आपकी सोच और आपके लेखन पर कई तरह की प्रतिक्रियाएं आएंगी। छपते ही लिखा हुआ आपका नहीं, दुनिया का हो जाता है।

अब जब आपने शब्दों की गठरी बांधकर उन्हें एक किताब के तौर पर वक़्त के समंदर में फेंक देने की हिम्मत दिखा ही दी है तो फिर उससे ख़ुद को जुदा कर लेने में ही अपना और अपने म्यूज़, दोनों का हित है।

समंदर अंतहीन है। गहरा है। सुनो रॉबिनस क्रूसो, जो गठरी फेंककर तुम हल्के हो गए उसके डूबने-उतराने की फ़िक्र से आज़ाद होकर अब जहाज़ को किसी नए रास्ते ले चलने की तैयारी करो। मौसम खुल गया है। म्यूज़ को उठाकर उससे और नई-नई बातें करने का वक्त आ गया है।








बुधवार, 11 मार्च 2015

मॉर्निंग पेज २१: बददुआ

जो बात कहना नहीं चाहते, उससे बचने के लिए हम दुनिया भर के वाहियात काम करते फिरते हैं।

मैं भी कर रही हूं। सुबह से इधर-उधर, यहां-वहां। मॉर्निंग पेज से बचती हूं कि चोरी पकड़ ली जाएगी। ईमानदारी का वायदा है तो बच नहीं पाऊंगी कहने से। इसलिए चुप रहना ही बेहतर...

मैं पढ़ने में हमेशा ठीक-ठाक थी, औसत से बेहतर। लेकिन ग्यारहवीं औऱ बारहवीं में पूरी तरह चौपट निकली। पढ़ने में उन दो साल बिल्कुल मन नहीं लगा। आस-पास के सारे बच्चे इंजीनियरिंग और मेडिकल जैसे भारी-भरकम इम्तिहानों की तैयारी करते थे। मैं भी इंजिनियरिंग की तैयारी कर रही थी, कम से कम ढोंग तो कर ही रही थी। बिलिएंट ट्यूटोरियल्स के क्लास करने जाती। स्कूल से आकर कभी काँके, कभी डोरंडा ट्यूशन पढ़ने जाती। शहर को कोई कोना नहीं छोड़ा था मैंने। बस अपने भीतर का कौना देखने की हिम्मत नहीं मिली। किसी ने सिखाया ही नहीं। किसी ने बताया ही नहीं। भेड़चाल थी। सब चलते थे भीड़ में। मैं भी चलती थी। भीड़ से जुदा क्या वजूद होता है? उस उम्र में किसी का क्या वजूद होता है?

लेकिन फिर भी एक बेचैनी थी। ट्यूशनों और क्लासों में मन नहीं लगता। छूटने के लिए बेचैन रहती। दूर ट्यूशन पढ़ने इसलिए जाती थी क्योंकि रास्ते भर लोग दिखते थे, वक्त कटता था। शहर में घूमना-भटकना उसी उम्र में शुरु हुआ। मैं खूब भटकती थी। कभी अकेली, कभी किसी दोस्त के साथ। रांची का कोई कोना नहीं छोड़ा - कोई बाज़ार नहीं, कोई मोहल्ला नहीं, कोई डैम, किसी डैम का किनारा नहीं।

सिर्फ़ दो ही सब्जेक्टस में मन लगता था - हिंदी और अंग्रेज़ी, जब मैं वाकई क्लास में होना चाहती थी। अंग्रेज़ी के कई टीचर आते और जाते। लेकिन क्लास के भीतर टीचर वही रहते - केकी दारुवाला, टैगोर, ईलियट, शेक्सपियर, वर्ड्सवर्थ, एमिली ब्रॉन्ट, जेन ऑस्टिन। क्लास के बाहर ऐगथा क्रिस्टी, शिडनी शेल्डन, जेफ्री आर्चर, मिल्स एंड बून्स, आयन रैंड, टू किल अ मॉकिंग बर्ड। अंग्रेज़ी के उपन्यास मुझे उस दुनिया में ले जाते जहाँ मैं कभी हो नहीं सकती थी। कभी मैडिसन काउंटी, कभी फ्रांस का कोई गांव तो कभी बर्फ़ीली झील का कोई किनारा। कभी कॉन्सनट्रेशन कैंप तो कभी पांच सौ यूएस मिलियन डॉलर की कंपनी का कोई बोर्ड रूम! हर दुनिया अद्भुत थी - अनदेखी, अनजानी। हर किरदार मज़ेदार था - सनकी, पागल, कन्फ़्यूज़ड, बेवकूफ़, शातिर, ख़तरनाक, जटिल... हिंदी की कहानियाँ और उपन्यासों की ख़ुशबू जानी-पहचानी होती। दुनिया देखी-देखी सी लगती। एक भाषा का मोह था जो जोड़े रखता, पकड़े रखता।

मैं नहीं जानती मैं ऑर्गैनिक केमिस्ट्री पढ़ कैसे रही थी। मुझे पीरियॉडिक टेबल कभी याद नहीं हुआ। फ़िज़िक्स ठीक उसी तरह माथे के ऊपर से गुज़रता जैसे किसी वृत्त के ऊपर से टैन्जेन्ट गुज़रता है कोई। वेक्टर किस बला का नाम है, और क्यों है, मुझे आजतक समझ में नहीं आया।  

उन दो सालों का और कुछ भी याद नहीं, सिर्फ और सिर्फ़ भटकना याद है। और पढ़ना याद है। वो अजीब किस्म का जुनून था, इश्क-सा जुनून। इश्क में मैं अगर कोई शहर हुई हूँ कभी, तो वो रांची हुई हूँ। इश्क़ में और कोई शहर बन ही नहीं पाऊँगी उस तरह। इश्क़ में कहीं सबसे ज़्यादा गई हूँ तो वो है रांची क्लब के पीछे की ब्रिटिश लाइब्रेरी जो अब इंटरनेशनल लाइब्रेरी कही जाती है। इश्क़ या तो सड़कों पर बहुत बहुत बहुत भटकाता था या किताबों की गंध में डूबकर ठहर जाता था।

दो साल की उस भटकन और बेचैनी का नतीजा था बारहवीं का रिज़ल्ट।

जिस दिन रिज़ल्ट निकला उस दिन मैं सदमे में रही। मैं हो गई थी, हिंदी और अंग्रेज़ी में आए अंकों की मेहरबानी से बाइज्ज़त पास हो गई थी। लेकिन मैं टॉपर नहीं रही। मैं वो नहीं रही जो मुझे होना चाहिए था, जो मुझे बन जाना चाहिए था। अब मैं इंजीनियर तो किसी क़ीमत पर नहीं बन सकती थी।

उस रोज़ मैंने कुछ नींद की गोलियाँ बाबा की दराज़ से निकाली और कुछ अपनी परदादी के कमरे से, जिन्हें हाई बीपी की वजह से सोने की दवाई दी जा रही थी। कुल मिलाकर पच्चीस गोलियां रही होंगी। मैंने वो सारी गोलियां फांक लीं।

बस फांक ली। बिना सोचे-समझे। किसी ने कुछ कहा नहीं था, लेकिन किसी से कुछ सुनने की हिम्मत नहीं थी मुझमें। न कोई शिकायत, न कोई ताना। ऐसा भी नहीं था कि मेरे एक्ज़ाम के रिज़ल्ट को लेकर लोग बहुत शॉक में हों। मेरे परिवार के बच्चे जैसा रिज़ल्ट लेकर आते हैं, उससे बेहतर ही था जो भी था। किसी के मन में मेरे लिए बड़ी ख़्वाहिशें रही हों, ऐसा भी नहीं था। किसी को कुछ कहने की ज़रूरत नहीं थी।

ये अंधेरे मेरे चुने हुए थे। इन अंधेरों से बाहर निकलने का रास्ता मेरा देखा हुआ था। ये फ़ितूर मेरे पाले हुए थे। इनसे निजात भी मुझे ही पाना था। सोलह साल की उम्र में वैसे भी अपनी रची दुनिया में सिर्फ़ हम होते हैं। सिर्फ़ हम। अकेले। भटके हुए। परेशान।

नींद की गोलियां खा लेने से आसान मरने का कोई और तरीका नहीं था। घर में इतने सारे लोग थे कि कोई कमरा और कोई पंखा दस मिनट के लिए भी खाली मिले, सवाल ही नहीं था। बाथरूम में घुसकर अपने दुपट्टे से अपना ही गला घोंटने की कोशिश की। दो मिनट के बाद हिम्मत जवाब दे गई। बाथरूम में इतनी जगह भी नहीं थी कि ठीक से गिर सकूं। फ़िनायल की दुर्गंध मुझसे बर्दाश्त होती नहीं थी, इसलिए कोने में रखे फ़िनायल को उठाकर पी लेने का कोई मतलब नहीं था। चूहे मारने की दवा चूहों को मुक्ति दिलाने के काम आ गई थी। तीन मंज़िला छत से कूदती भी तो चौधरी नर्सिंग होम पहुंचती। नर्सिंग होम के बगीचे से हमारी दीवार लगी थी। बस नींद की गोलियां थी, वो भी ०.२५ एमजी की। वो भी इतनी ही जितनी एक हफ्ते में किसी को ज़रूरत पड़ती हो। लेकिन घर में तीन जगह थीं।

पच्चीस गोलियां। कुल मिलाकर पच्चीस गोलियां। ०.२५ एमजी की २५ गोलियां। बस इतना ही। मेरे भीतर उतनी ही स्ट्रेंथ में हिम्मत थी, जितनी गोलियां की मेडिकली स्ट्रेंथ थी। कुछ पेट में गईं गोलियाँ और कुछ उल्टियों में निकल गई।

मर जाने के लिए इतने से क्या होता? लेकिन बेहोशी के लिए उतनी गोलियां काफी थीं। मैं अगले कई घंटे बेसुध सोती रही। पूरा दिन। पूरी शाम। पूरी रात।

अगली सुबह पापा उठाकर ले गए थे अपने कमरे में। पापा कभी प्यार जताते नहीं हैं, सिर पर हाथ रखकर या गले लगाकर तो बिल्कुल नहीं। लेकिन उस दिन पापा ने दोनों किया। कहा कि अच्छा हुआ तुम्हारे रिज़ल्ट अच्छे नहीं आए। तुम्हें अपनी ताक़त और कमज़ोरी, दोनों का अंदाज़ा लग गया।

पापा बिल्कुल नॉर्मल थे। उन्होंने मुझसे गोलियों के बारे में पूछा नहीं तो मैंने बताया नहीं। किसी ने नहीं पूछा। मैंने किसी से नहीं बताया।

ऐसा नहीं कि उस दिन के बाद ज़िन्दगी नई हो गई। लेकिन उस दिन के बाद मर जाने जैसा बेवकूफ़ी भरा ख़्याल उतनी तीव्रता से कभी नहीं आया।

मैं ज़िंदा बच गई थी और बाद में अपने हिस्से का बहुत सारा अपमान भी झेलना पड़ा। गोलियाँ खाने का कोई अफ़सोस भी नहीं रहा। सिर्फ़ साइड इफेक्ट कई महीनों तक रहे - चेहरे पर निकल आए बहुत सारे मुँहासों के रूप में। टीनेज का वो धब्बा न अब मेरे चेहरे पर है न रूह पर। टीनेज कितना ख़तरनाक और बेहूदा, सिरफ़िरा और बेतुका हो सकता है - इसकी याद ज़रूर बाकी रह गई है।

परसों सुबह हमारे एक पारिवारिक दोस्त की बेटी ने छत से कूदकर खुदकुशी कर ली। उसकी उम्र ठीक वही रही होगी जिस उम्र में मैंने नींद की गोलियाँ फाँक ली थी। उसने न इम्तिहान देने का इंतज़ार किया, न रिज़ल्ट देखने का। उसके लिए टॉपर न बने रहने का डर इतना बड़ा था कि उस बदतमीज़ लड़की ने छत से कूद जाने में चैन समझा। उसके माँ-बाप ने उससे कभी कुछ नहीं कहा था। सारे अंधेरे उसके चुने हुए थे। सारा फ़ितूर उसका पाला हुआ था। टीनेज उससे न संभला।

दो दिन से ठीक से सोई नहीं हूँ और बार-बार उसके माँ-बाप का चेहरा आँखों के आगे घूमता है। घरों की दीवार पर लगी उसकी तस्वीरें, उसकी स्टडी टेबल पर रखा एडमिट कार्ड और लंच का डिब्बा जो उसकी माँ ने सुबह तैयार किया होगा, बहुत सारे स्टिक ऑन्स पर बहुत ख़ूबसूरत हैंडराईटिंग में लिखे गए फॉर्मूले, दीवारों से ऊँचा बुक रैक, बुक रैक से भारी उम्मीदों का बोझ... सब छोड़कर कूद गई लड़की छत से। एक मिनट भी न लगाया। उसको अंदाज़ा भी था कि वो लौटकर आ नहीं पाएगी? या खेल लगा कोई? कूदे-फांदे-रोए-धोए-लौट आए?

मैं दो दिन से सोच रही हूं कि टीनेज की कौन सी तकलीफ़ इतनी बड़ी और असह्य होती है कि एक मिनट में अपनी ही जान लेने पर उतारू हो जाए इंसान। इसमें मां-बाप का कसूर कहां होता है? इसमें किसका कसूर होता है आख़िर? ये किस तरह का पागलपन है जिससे मैं-आप सब गुज़रते हैं, फिर भी एक-दूसरे को ठीक से बचा नहीं पाते। समझ नहीं पाते। कह नहीं पाते। सुन नहीं पाते।

वो लड़की और कुछ डिज़र्व नहीं करती, सिवाय इसके कि कहीं किसी आसमान पर कोई फ़रिश्ता उसे मिले और उसके चेहरे पर खींचकर दो थप्पड़ मारे। फिर वापस उसे इसी दुनिया में मरने-जीने के लिए भेज दे और तब तक उसे बार-बार इस ज़मीन पर भेजता रहे जब तक उसे ज़िन्दगी की अहमियत का अंदाज़ा न लग जाए, जब तक उसे ये समझ न आ जाए कि एक सिपाही के मैदान से भाग जाने पर न सिपाही को जंग से आज़ादी मिलती है और न जंग ख़त्म होती है।

तुम बार-बार पैदा होती रहो इसी दुनिया में लड़की, तुम्हें मैं यही बददुआ देती हूँ।

 



सोमवार, 9 मार्च 2015

मॉर्निंग पेज २० और लौटना इलाहाबाद से

सुबह-सुबह इस पेज पर लौटने की ख़ुशी अद्भुत है। चार दिन लिख नहीं सकी, और चार दिन सबसे ज़्यादा अपनी डायरी को मिस करती रही।

हम इलाहाबाद में थे। हाई कोर्ट के पास, ओल्ड कैंट एरिया में। होली की हुड़दंग के बीच हमें जो इलाहाबाद दिखाई दिया उसमें एक पुराने शहर की ख़ूबसूरती और चार्म है। जब तक आप एक बार इलाहाबाद से होकर न गुज़रें, तब तक ये वाकई समझना मुश्किल है कि कैसे एक शहर किसी का म्यूज़ बन सकता है। ये इलाहाबाद चंदर और सुधा का शहर है। यही वो शहर है जहाँ प्यार दोनों की रूहों में पिघले हुए लोहे की तरह बचा रह गया था। यही वो शहर है जिसके वर्णन से खुलता है गुनाहों का देवता... इस शहर में ही हो सकती है रोम-रोम चुभती मोहब्बत। धर्मवीर भारती का म्यूज़ इलाहाबाद। महादेवी वर्मा का शहर इलाहाबाद। बच्चन का ये शहर - इलाहाबाद।

अगर पुराने जमाने की नगर-देवता की और ग्राम-देवता की कल्पनाएँ आज भी मान्य होतीं तो मैं कहता कि इलाहाबाद का नगर-देवता जरूर कोई रोमैण्टिक कलाकार है। ऐसा लगता है कि इस शहर की बनावट, गठन, जिंदगी और रहन-सहन में कोई बँधे-बँधाये नियम नहीं, कहीं कोई कसाव नहीं, हर जगह एक स्वच्छन्द खुलाव, एक बिखरी हुई-सी अनियमितता। बनारस की गलियों से भी पतली गलियाँ और लखनऊ की सडक़ों से चौड़ी सडक़ें। यार्कशायर और ब्राइटन के उपनगरों का मुकाबला करने वाले सिविल लाइन्स और दलदलों की गन्दगी को मात करने वाले मुहल्ले। मौसम में भी कहीं कोई सम नहीं, कोई सन्तुलन नहीं। सुबहें मलयजी, दोपहरें अंगारी, तो शामें रेशमी! धरती ऐसी कि सहारा के रेगिस्तान की तरह बालू भी मिले, मालवा की तरह हरे-भरे खेत भी मिलें और ऊसर और परती की भी कमी नहीं। सचमुच लगता है कि प्रयाग का नगर-देवता स्वर्ग-कुंजों से निर्वासित कोई मनमौजी कलाकार है जिसके सृजन में हर रंग के डोरे हैं।

और चाहे जो हो, मगर इधर क्वार, कार्तिक तथा उधर वसन्त के बाद और होली के बीच के मौसम से इलाहाबाद का वातावरण नैस्टर्शियम और पैंजी के फूलों से भी ज्यादा खूबसूरत और आम के बौरों की खुशबू से भी ज्यादा महकदार होता है। सिविल लाइन्स हो या अल्फ्रेड पार्क, गंगातट हो या खुसरूबाग, लगता है कि हवा एक नटखट दोशीजा की तरह कलियों के आँचल और लहरों के मिजाज से छेडख़ानी करती चलती है। और अगर आप सर्दी से बहुत नहीं डरते तो आप जरा एक ओवरकोट डालकर सुबह-सुबह घूमने निकल जाएँ तो इन खुली हुई जगहों की फिजाँ इठलाकर आपको अपने जादू में बाँध लेगी। खासतौर से पौ फटने के पहले तो आपको एक बिल्कुल नयी अनुभूति होगी। वसन्त के नये-नये मौसमी फूलों के रंग से मुकाबला करने वाली हल्की सुनहली, बाल-सूर्य की अँगुलियाँ सुबह की राजकुमारी के गुलाबी वक्ष पर बिखरे हुए भौंराले गेसुओं को धीरे-धीरे हटाती जाती हैं और क्षितिज पर सुनहली तरुणाई बिखर पड़ती है।

'गुनाहों का देवता' की शुरुआत ही इलाहाबाद के कुछ इस तरह के वर्णन से होती है। इतने सालों बाद भी इलाहाबाद कम, बहुत कम बदला है। वो तो भला हो आद्या का, कि होली पर लहंगा खरीदने की ज़िद की उसने। वरना मुझे शहर उस तरह नज़र ही न आता जैसा होली के एक दिन पहले दिखाई दे गया था।  सिविल लाइन्स बाज़ार एक महानगर और किसी छोटे शहर का मिक्स्ड ब्रीड है। कटरा की गलियों में घुसकर थोक दुकानों पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराना मेरे जैसे नोस्टालजिस्ट लोगों का परम धर्म है।

लोग होली की दोपहरी रंग खेलकर आराम फ़रमा रहे थे। हम पतिदेव के भांग के नशे का इलाज कराने मिलिट्री अस्पताल की ओर दौड़ रहे थे। वक़्त ने इजाज़त दी तो उस एक दोपहर को मैं फिर से जीना चाहूँगी। इसलिए क्योंकि जितना प्यार भाँग के नशे में बड़बड़ाते पति पर आता है, उतना ही होली के नशे में डूबे इलाहाबाद पर आया।

लोग अगले दिन फिर से होली खेल रहे थे और हम शहर धाँग रहे थे। बाहर से छू-छूकर देख रहे थे वो इतिहास जो इस शहर ने जिया है। यूनिवर्सिटी, साइंस फैकल्टी, आर्ट्स फैकल्टी, हिंदू छात्रावास, हाई कोर्ट, एल्फ्रेड पार्क, इलाहाबाद फोर्ट, त्रिवेणी, स्वराज भवन, खुसरो पार्क, कैथेड्रल...

पहले यमुना और फिर गंगा और फिर त्रिवेणी पर डोलते नाव पर ही कहीं लौट आने की दुआ भूल आई हूँ।

चिड़िया को खिलाने के लिए रखी नमकीन पर्स में ही लौटा आई हूँ।

अमरनाथ झा चौराहे पर छूट गई हैं प्रेम कहानियाँ।

लौटना होगा फिर से, इलाहाबाद।

 


मंगलवार, 3 मार्च 2015

मॉर्निंग पेज १९ और आनेवाली छुट्टी के दिन

कल से फिर शहर से बाहर। होली के लिए बड़ी ननद के घर इलाहाबाद। लैपटॉप और फ़ोन से पाँच-छह दिनों की छुट्टी। काग़ज़-कलम से अभ्यास शुरु करूंगी। जाने से पहले फिलहाल कई सारे काम निपटाने हैं, इसलिए आज के मॉर्निंग पेज का वक़्त काम की लिखाई के बहाने।

न होता ग़म-ए-इश्क़ तो ग़म-ए-रोज़गार होता...

सोमवार, 2 मार्च 2015

मॉर्निंग पेज १८ उदयपुर से लौटकर

१९९६ में मैं फ़र्स्ट ईयर कॉलेज में थी। हमारा सालाना थिएटर प्रोडक्शन हुआ करता था। उस साल जिस डायरेक्टर को बुलाया गया था उनका नाम था पीयूष मिश्रा। एनएसडी से थे, और बारह-तेरह सालों से थिएटर कर रहे थे। मेरी स्टेज पर जाने की औकात तो थी नहीं तब (वो तो ख़ैर अब भी नहीं है), इसलिए बैकस्टेज वॉलेन्टियर का ज़िम्मा मुझ फर्स्ट ईयर फच्चा को दिए जाने में किसी को कोई दिक्कत नहीं आई। हम जैसे फच्चों का काम प्रॉप्स एक जगह से उठाकर दूसरी जगह करना, लाइटिंग में असिस्ट करना, एक्टर्स के लिए जगह मार्क करना या किसी की ग़ैर-हाज़िरी में उसकी रिप्लेसमेंट बनकर प्रॉप बन जाना था। मैं सिर्फ एक ही वजह से जाती थी - पीयूष का गाना सुनने। एक बगल में चांद होगा, एक बगल में रोटियां उसी प्रोडक्शन एक थी सीपी, एक थी सीली के लिए लिखा गया था। हुस्ना भी उसी दौरान लिखा गया था। 

इनमें से कुछ बातें मैं भूल गई थी, लेकिन पीयूष मिश्रा को सब याद था। इसलिए हम उदयपुर में मिले तो बातचीत के सिरे यूं खुलते गए जैसे पहले तह-तह करके इसी मुलाक़ात के लिए कई सारी बातें पहले से किसी बक्से में रखी गई हों। ये मेरे लिए झिझक लेकिन फख़्र की बात थी कि हम एक ही मंच पर अपने-अपने सफ़र के बारे में बात करने जा रहे थे - क्रिएटिव सफ़र के बारे में। पीयूष की तुलना में मेरे पास कहने को उसका शतांश भी नहीं रहा होगा। 

लेकिन डिनर टेबल पर और ही माहौल था। पीयूष कविताएं सुनाते रहे। हम तालियां बजाते रहे। इस बीच जीना-मरना, पूर्वजनम, कर्म, धर्म, स्वर्ग-नरक, घर-परिवार, बीवी-बच्चे, मां-बाप, गीत-कहानियां सबकी बातें होती रहीं। 'कन्फे़स करो। माफ़ी मांगो। हर ग़लती की माफ़ी मांगो। तुम एक ज़रिया हो, करवा कोई और रहा है। ख़ुद को हुनरमंद मत समझो। ख़ुद को ब्लेस्ड समझो, गिफ्टेड समझो। मैं भी गिफ्टेड ही हूं बस, और वो किसी औऱ का गिफ्ट है,' पीयूष की सिर्फ़ इसी बात को मैं अपने साथ दिल्ली ले आई हूं गांठ बांधकर। यूनिवर्स ने उदयपुर के इस एक सफ़र में मेरे लिए कई संदेसे भिजवाए हैं। 

उन्हीं संदेसे में से एक मेरे सहयात्री का मेरे बग़ल में औचक होना था। एंडी - अपना नाम यही बताया उन्होंने। (मैंने आकर गूगल किया जो पता चला कि जनाब बहुत बड़े इंडस्ट्रियलिस्ट हैं और मुंबई के मड आइलैंड पर उनकी अरबों की संपत्ति है। बिज़नेस इन्टरेस्ट क्यूबा से लेकर आगरा तक में फैले हुए हैं।) 

एंडी को मुंबई की फ़्लाईट में होना था, लेकिन फ़्लाईट मिस हो गई और उन्हें किस्मत ने मेरे बगल में बिठा दिया। धोनी और मौसम से शुरु हुआ बातचीत का सिलसिला दार्शनिक हो गया। एक घंटे बीस मिनट की फ्लाईट में एंडी ने मुझे ज़िन्दगी जीने के सात सूत्र दिए। 

1. Consider yourself blessed. You are in this journey of life for a purpose.  
2. Don't lie. Either to yourself or to others. Stay mum if need be, but don't lie. 
3. Take care of your health. Eat healthy. Drink a lot of water. Especially when you are angry. 
4. Respect your sweeper, and your maid, and your driver, and everyone around you. But respect them the most who serve you and do your menial jobs. Offer them a meal. A glass of water. Always be grateful towards them. 
5. Never ever criticise. Never. It is not going to either change the person or the circumstance. If you can't change something, stay out of it. Don't get involved. 
6. Detach. Nothing belongs to you. Nothing. Accept everything with gratitude, but don't attach yourself to it. 
7. Don't use foul language. Be kind through your words, and through what you say. Every word, action or thought causes a reaction in the Universe. Everything gets recorded as karma, and comes back to you. 
   
एक ऐसा शख़्स जो स्कूल न गया हो, सिर्फ़ इसलिए क्योंकि गरीबी की वजह से स्कूल की फ़ीस भरने के पैसे नहीं थे। एक ऐसा शख़्स जिसने बर्तन धोने से अपना करियार शुरु किया और बात में कपड़े की मिलों में सुपरवाइज़र की नौकरी करता रहा। एक ऐसा शख़्स जिसे अपने मोबाइल पर संदेसे तक नहीं पढ़ने आते, और चिट्ठी लिखना नहीं आता। एक ऐसा सख्स जिसने अपने बच्चों के लिए एक बिज़नेस एम्पायर खड़ा कर दिया, और अब सिर्फ़ अपनी पत्नी के साथ ढेर सारा वक़्त गुज़ारने की ख़्वाहिश रखता है। कोई एक ऐसा शख़्स किसी फ्लाईट में औचक किसी अनजान को अपनी ज़िन्दगी की कहानी सुनाते हुए ज़िन्दगी जीने के बेसिक तरीके बता जाए तो उसे कैसे संजीदगी से न लिया जाए? 

विदा होते हुए एंडी ने कहा, 'Give my love and blessings to your children. And a big hug to your husband. Convey my regards to elders in your family. And chase your dream. Nothing is impossible. My life is an example of it. God bless you!'

अरमानी के सूट और सिल्क के स्कार्फ़, फेडोरा हैट और गुच्ची के चश्मे वाले सिंधी बिज़नेसमैन एंडी से दुबारा मिलना हो एक पेपटॉक के लिए, तो मैं जानती हूं एंडी के घर का पता। ढूंढ लूंगी। ऐसे लोगों से बार-बार मिलना चाहिए। एंडी मड आयलैंड के पूलावाला बंगले में रहते हैं।