शनिवार, 27 नवंबर 2010

मेरा होना... यूं होना!

नन्हीं उंगलियों में
उलझा है टूथब्रश।
पेस्ट लगे होठों पर
थिरकी मुस्कान को
बाबा उंगलियों से
छू लेते हैं।
हर्फों, गिनती,
पहाड़े, व्याकरण में
जीवन की सीख देते हैं।
मेरा होना
बाबा की पोती होना है।

अपनी बनारसी में लिपटी
सपनों की थाती
मां मुझे सौंपती है।
पापा मेरी सीढ़ियां
अपनी बचत में गिनते हैं।
मेरे गिरने-संभलने में
भी साथ चलते हैं। 
मेरा होना
इनकी बेटी होना है।

ये मुझसे घी के परांठों,
किताबों की ज़िल्द,
मच्छरदानी खोलने,
लगाने पर लड़ते हैं।
रातों की नींद
मेरे दिवास्वपनों के
नाम करते हैं।
मेरे बंधन को ये
अपनी रक्षा कहते हैं।
मेरा होना
इनकी दीदी होना है।

मेरे बनाए घर को
ये जन्नत कहते हैं।
सात फेरों की कसमों पर
जीते-मरते हैं।
एक डोर हैं ये
जो मुझको मुझसे
आज़ाद करते हैं।
मेरा होना
इनकी पत्नी होना है।

तोतली बोली,
बहती नाक,
तेल की मालिश और
बेतुकी कहानियों से
ये मेरे दिन-रात भरते हैं।
मेरी गोद को अपनी
दुनिया कहते हैं।
मेरा होना
इनकी मां होना है।

कहते हैं,
मैं धरती जैसी हूं।
जीवन को रचती रहती हूं।
मेरे हाथों में नरमी है
जो पत्थर मोम बनाती है।
मेरा आंचल तो ऐसा है
सूरज को छांव  बनाता है।
मैं पूजा हूं, और जोगन भी,
मैं रचना हूं, रचयिता है
संगीत हूं और कविता भी।
एक सपना हूं,
और सपने का सच होना भी।
मेरा होना
एक औरत होना है।

पुनश्च - और अपना यूं होना अपने जन्मदिन पर याद आए तो सिर नवाकर उस अलौकिक शक्ति को याद करती हूं जिसने मेरा होना, यूं होना बनाया।

गुरुवार, 25 नवंबर 2010

क्षणिकाएं

(1)

मेरी खिड़की पर चमका है सूरज बल्ब जैसा
इत्ती-सी रोशनी में 
दिल्ली की सर्दी नहाई है।

(2)

ना चहक चिड़िया की ना गौरैया का फुदकना,
मेरी सुबह फिर भी गुलज़ार है
बच्चों के हंसने-रोने से।

(3)

ये कैसी आपाधापी है, ये कैसी भागमभाग मची,
एक बस्ते में हम सबने सुबह-सुबह
अपना पूरा दिन समेट लिया है।

(4)

पूरे दिन का टॉनिक चाहिए,
इसलिए मैं झुककर
बच्चों के बालों की खुशबू सांसों में भर लेती हूं।

(5)
भागती-दौड़ती सड़कों पर
इंसान की फितरत का पता चलता है।
मैं? मैं बाईं कतार में रुकती-चलती हूं।
(6)

दफ़्तर के कोलाहल में ही कई बार
अपने मन का शोर 
काग़ज़ पर उतरने लगता है।
(7)

घर लौटी हूं।
कोलाहल में संगीत है, शोर भी लगता गीत है।
सोफे पर बच्चों ने पूरा रॉक बैंड सजाया है!

(8)

मेरे रूखे-उलझे बाल 
उसकी नन्हीं उंगलियों से सुलझते हैं।
"तुम बेटी हो, मैं मम्मा हूं," कहती है छोटी आद्या!

(9)

मेरी गर्दन में झूल जाता है वो,
मेरे चश्मे पर उसकी सांसों का धुंआ है।
पूरे दिन में पहली बार मुझे कुछ साफ़ नज़र आया है!

(10)

हम तीनों पापा का स्वागत करते हैं,
ध्यान खींचने की पुरज़ोर कोशिश में
हमने उनको टीवी के सामने ले जा पटका है!
(11)

नवंबर की ठंड और बारिश को
मोरपंखी नीला कंबल और
हम तीनों के पैरों की गर्मी ऊष्म बनाए है।

(12)
कहानियां हैं, लोरियां हैं, 
एक-दूसरे की उंगलियों में उलझे हाथ भी।
नींद में अब मैं सपने नहीं देखती!


(13)

सूरज आज नहीं निकला,
फिर भी दिल्ली की सर्दी रोशन है।
दिन भर के लिए हमने हथेलियों में गर्मी भर ली है...

बुधवार, 17 नवंबर 2010

ये घर बहुत हसीन है

पता नहीं किन-किन गलियों से होकर हम इस सफेद इमारत के सामने पहुंचे हैं। गणेश अपार्टमेंट्स - यही तो नाम था। सामने आसाराम बापू का आश्रम, उसके बगल में गंदा-सा खाली मैदान, मैदान में गायें-बकरियां-बैल-कुत्ते नवंबर की धूप सेंकते हुए। ये फरीदाबाद का दयाल बाग़ है। नाम अपमार्केट, लेकिन अपमार्केट जैसा कुछ भी नहीं। मैं एक हाथ से अपनी साड़ी और दूसरे से दोनों बच्चे संभालते हुए इमारत में घुसी ही हूं कि आदित को तेज़ उबकाई आई है और पूरा फर्श उसकी उल्टी से भर गया है। इसे क्या हो गया? घर से तो हम ठीक ही निकले थे। आद्या को पीछे हटाते हुए मैं पहले आदित को संभालती हूं। आद्या ने मेरे हाथ का बैग और पर्स अपने कमज़ोर कंधों पर ले लिया है। हम किसी तरह लदे-फदे से दूसरी मंज़िल पर चले आते हैं।

घर में घुसते ही मुझे पता ही नहीं चला कि किसने आदित को गोद ले लिया, कौन आद्या का हाथ पकड़कर भीतर ले गया। इन सभी लोगों को मैं पहचानती हूं, ये मेरी छोटी मौसी का घर है। घर बेशक नया है, लेकिन घर में मौजूद रहनेवाली ये भीड़ मैं 1995 से देख रही हूं, जबसे मौसी की शादी हुई। अपनी आवाज़ में क्षमा-याचना घोलकर मैं एक बाल्टी पानी मांगती हूं, उल्टी साफ करने के लिए। पैर छूने-छुआने, आर्शीवाद देने-लेने के बीच मैंने देखा ही नहीं कि इसी भीड़ में से किसी को आदित ने अपनी उल्टी की हुई जगह बालकनी से दिखा भी दी और सफाई हो भी चुकी।

ये एक संयुक्त परिवार है, फरीदाबाद में रहनेवाला एक संयुक्त बिहारी परिवार। यहां मेहमान नहीं आते। आते भी हैं तो घर के सदस्य कहलाते हैं। यहां आनेवाला अतिथि यहीं का होकर रह जाता है और ये कोई अतिशयोक्ति नहीं। जितनी बार मौसी के घर आई हूं, एक नया चेहरा देखा है। फलां बुआ के फलां देवर का फलां बेटा। दिल्ली कंप्यूटर कोर्स करने आया है। यहीं रह गया। फलां चाची की बेटी दिल्ली नौकरी ढूंढने आई। यहीं रह गई। कोई गांव से इलाज कराने आता है, कोई लड़का देखने। जो आता है, यहां अपनी निशानी छोड़ जाता है। शायद कुल बारह-तेरह बच्चे हैं जो किसी-ना-किसी मकसद के साथ यहां, मौसी के घर में रह रहे हैं। मौसाजी और उनके छोटे भाई इन बच्चों को सिर पर छत देते हैं, मार्गदर्शन देते हैं। उन दोनों की पत्नियां सबको प्यार से खिलाती-पिलाती हैं और अक्सर अपने घर के बजट में कटौती कर कभी उनके इम्तिहानों के फॉर्म भरती हैं तो कभी उन्हें फ्रेंच क्लास के लिए भेजती हैं। उम्र? मौसी मुझसे छह साल बड़ी हैं और उनकी देवरानी शायद मेरी उम्र की होंगी। लेकिन इतने सालों में मैंने उन्हें कभी परेशान नहीं देखा, कभी शिकायत करते नहीं देखा, और सच रह रही हूं, कभी परेशानी की लकीर नहीं देखी माथे पर।

इस घर के चूल्हे में अन्नपूर्णा विराजमान है, मैंने कई बार कहा है उन दोनों से। आज हम दो घंटे के लिए गए थे वहां, पूरे आठ घंटे बिताकर लौटे हैं। और शायद बच्चों का वश चलता तो कभी नहीं आते।

घर किसे कहते हैं? हम घर में अपना कोना तलाश करते हैं, बनाते भी हैं। उस स्पेस को हम एक घेरे के भीतर रखते हैं। टेबल का कोई कोना, बिस्तर, अपनी कोई अलमारी या फिर चौका-चूल्हा - सबपर अपनी छाप ढूंढते हैं, अपना वर्चस्व चाहते हैं। यहां किसी का कोई निजी स्पेस नहीं। तीन कमरों में नहीं जानती कितने लोग रहते हैं, एक साथ। दोनों मौसी लोगों के दो-दो बच्चे हैं। मौसी की बेटी अनन्या डाउन्स सिंड्रोम के साथ पैदा हुई थी। लेकिन इतने सारे लोगों के बीच में रहते हुए उसमें असाधारण कुछ भी नज़र नहीं आता अब। मेरे बच्चों को इतनी देर में ही कोई कीबोर्ड बजाना सीखा रहा था, कोई पेंटिंग करा रहा था। बच्चों के लिए सब मौसियां थीं, सब मामा लोग थे।

आठ घंटे कैसे बीते, पता ही नहीं चला। वहां से लौटी हूं तो लगता है हम कितने स्वार्थी हैं, कितनी शिकायतें रखते हैं ज़िन्दगी से! घर ईंट-गारे-पत्थर-बालू से नहीं बनता। घर रेशमी पर्दों, महंगी टाइलों और रंगीन दीवारों से भी नहीं बनता। घर प्यार से बनता है, सहिष्णुता, धैर्य से बनता है। अपनापन घर की सबसे बड़ी नेमत होती है। इतनी बड़ी भीड़ को खिलाते-पिलाते हुए भी मौसी और छोटी मौसी मेरी विदाई करते हुए छठ का प्रसाद डिब्बे में बंद करके देना नहीं भूलती। माथे पर सिंदूर लगाती हैं, नई बिंदी सजाती हैं और हाथ में एक-एक कड़ा डालती हैं। जितनी बार जाती हूं उतनी बार बच्चों को नए खिलौने मिलते हैं।

मैं मौसी और छोटी मौसी का आशीर्वाद लेने के लिए झुकी हूं। इतना कह पायी हूं कि अपने धैर्य और विश्वास, प्यार और संस्कार का दो फ़ीसदी दे दो मुझे मौसी। मैं इतने में सोना बन जाऊंगी। (देखा! अभी भी अपने बारे में सोच रही हूं...)

मंगलवार, 16 नवंबर 2010

Talk. Talk. TALK!!!

What I would like to do now is use the time that is coming now to talk about some things that have come to mind. We are in such a hurry most of the time, we never get much chance to TALK. The result is a kind of endless day-to-day shallowness, a monotony that leaves a person wondering years later where all the time went and sorry for that it's all gone.

So, here is your chance to TALK. What started with a monologue sometimes results into very meaningful dialogue, with ideas flowing in from all sides - sometimes inspirational, sometimes creative, intuitive, imaginative... 

Talking doesn't necessarily proceed by laws or by reasons. Talking proceeds by feelings, intuition and conscience. Talking, I would say, is a representation of thoughts and behaviour. 

Let's see what a talk can do. The "meaningful" one will be unadorned but emotional and it may not look inspirational immediately. But it surely brings order to the chaos of mind and makes the unknown known. If not that, it at least helps us acknowledge the unknown, and sometimes helps us accept it. I would measure "a meaningful talk" by the control it has managed to achieve over outbursts of emotions. 

And then, there is a talk which just eases your mind, brightens up your day, brings a smile on your face. It may not have a purpose behind it, but it certainly holds as much significance in one's life. Why would you otherwise long for those nonsensical, high-spirited, aimless conversations with family and friends and friends of friends and people waiting to be your friends over endless number of coffee/tea/alcohol sessions?

Talking, however, is an art. You may not possess it inherently, but you train yourself bit-by-bit. You learn the aesthetics, you learn to restrain or to set yourself free. You learn when to become straightforward, and when to add that zing of humour and you learn how to sound diplomatic and subtle. 

27th October 2002

PS: I haven't known the art yet, 8 years hence. And what am I doing here sharing this long-forgotten thought? Reminding myself of the importance of talking, which I most often forget. I am also starting a monologue here, hoping that it will result into dialogues which will hopefully be consequential and comprehensible.

सोमवार, 15 नवंबर 2010

पुराने पन्नों से - भाग चार

After reading "English, August" by Upamanyu Chatterjee

"It's very tempting to take the easy way out, to go on about how the people here are so dull, ignorant, smug and provincial. They are all that, but there's also something very wrong about my attitude to them".

"Do not choose the soft option just because it is the soft option. One cannot fulfill oneself by doing so. Yet it is also true that it is your life, and the decisions have to be yours."

"English, August" chronicles the life of a trainee civil servant, and I must say that this one character Agastya has made me feel terribly guilty of what I have been doing of my own life. I could identify with Agastya Sen some bit, because I feel that confusion and disorientation at this stage of my life. Life can be so unsettling at times, and so dull and prosaic. You do feel the yearning of wanting to break free too. The moment when you want to shrug off the responsibilities, when you would rather want to be worthless. That suits us sometimes, you see. 

But having said that, you can be an escapist only momentarily. One has to come back to life. So, what you ought to do of your life should come naturally to you, not as a pressure or as a compulsion, as if you didn't have any other choice! I wonder if that was the feeling that made Agastya come back to the community of "Sahibs"!

I loved Chatterjee's punchy one-liners. They hit you so hard! I can't be so ruthlessly honest while communicating, I can't write without inhibitions. No, not yet. And well, I am glad there are some like me too, disoriented and disillusioned. I won't be so harsh on myself now. 

7.30 PM
17th March, 2000
(IIMC hostel) 

"Whatever you choose to do, you will regret everything or regret nothing. You are not James Bond, you only live once."

रविवार, 14 नवंबर 2010

पुराने पन्नों से - भाग तीन

Poetry

I celebrate
The glow of life,
Amidst tiny cracks of make-up,
Futile bickering,
Amidst hope of vanity.

I celebrate
When bubbles of exasperation bursts.
Amidst superfluous commotion.
Avoiding sharp,
Distressed eyes.

I celebrate,
Because I have found you,
Poetry.
You are not my portrayal of escape.
You remain prime justification
Of who I am,
Of my elements,
With all my impediments.

(2oth February 1999)

गुरुवार, 11 नवंबर 2010

पुराने पन्नों से - भाग दो

तन्हां

एक तन्हां वृक्ष,
कुछ पत्ते, थोड़े फूल,
लेकिन ना आबोहवा
ना नमी का निशां।
रेगिस्तान के बीच
चिलचिलाती धूप में खड़ा।
रेत पर ढूंढता रहेगा
वो वृक्ष कोई पदचिन्ह।
हज़ार बार बनाई होगी
हवाओं ने
कोई आकृति
सतह पर बिछी हुई मिट्टी पर।
मौन, चुपचाप, शांत
प्रतीक्षा करेगा वो वृक्ष,
अपनी थोड़ी-सी छांव
किसी पथिक से बांटने के लिए।

(10 फरवरी 1995)

प्रतिभा

शांत झील का किनारा,
झील में खिलता एक कमल
शायद बेचैन है
किसी प्रशंसक के लिए।
क्योंकि झील का किनारा
है बिल्कुल निर्जन।
तो क्या उस कमल का
कोई प्रशंसक नहीं आएगा?
क्या एक सुन्दर फूल
कहीं तक पहुंचने से पहले
मुरझा जाएगा?
फिर कोई एक प्रतिभा
खुद को सबके सामने
लाने से पहले
अपनी रोशनी खो चुकी होगी।
कमल कमज़ोर है,
असहाय।
झील के बीच
खिले उस कमल को
कौन पूछे?

(14 फरवरी 1995)
(ये कविता मैंने अपनी मां के लिए लिखी, जिनका नाम प्रतिभा है...)

दस्तूर

वक्त गुज़रता जा रहा है
और मैं तकाज़ा ले रही हूं वक्त का।
भूत, वर्तमान, भविष्य का।
सोचती हूं,
वक्त का पहिया घूमता जाएगा
घूमता जाएगा निरंतर।
क्या होगा भविष्य मेरा?
मेरे अपनों का?
मेरे देश का?
इस संसार का?
ये प्रश्न मेरा नहीं, सबका है।
सब भविष्य के लिए ही तो जीते हैं।
यही उम्मीद लेकर
कि वर्तमान से भविष्य बेहतर होगा।
समझती हूं,
जबतक हम हैं,
वक्त की चिंता है।
भविष्य की चिंता है।
यही तो है
वक्त का,
कुदरत का दस्तूर।

(16 फरवरी 1995)
(कमाल की बात है कि ठीक दस साल बाद इसी दिन मेरी शादी हुई। वक्त का, कुदरत का दस्तूर!)

उस क्षितिज के पार क्या है

तोड़कर दिखला दो मुझको
उस क्षितिज के पार क्या है
ढो रहे जिसको निरर्थक
उस जीवन का सार क्या है
हर तरफ निराश जन के
जीवन का आधार क्या है
रूढ़ियां ही तो बंधन हैं
और कारागार क्या है
जीवन से तो जीत ही गए
अब हमारी हार क्या है
मांग रहे दो पल मौत से
बाकी अब उधार क्या है
दुख-सुख तो सहते रहे
अब वक्त की मार क्या है
जीवन के बहते निर्झर में
अपनी बहती धार क्या है
इतनी लिप्साएं हैं अपनीं
उनका अब उद्गार क्या है
कोई मुझको ये बतला दे
आखिर ये संसार क्या है
उस क्षितिज के पार क्या है?

(18 फरवरी 1995)
(हो सकता है ये कविता महादेवी की कविता से प्रभावित रही हो)

सावन का आना

सावन आया पास तुम्हारे लेकर नई कहानी
देखो, आज पुनः उस अमराई में कोयल बोली।

लगी पपीहा शोर मचाने रूत है भीगी-भीगी सी
लगता मानो उठनेवाली है बिटिया की डोली

गिर गई बूंदें, शर्म से लाल हुए हैं बादल
किसने डाली उनपर कुमकुम और रोली?

छायी हरियाली बाग, खेत, खलिहानों में
खेल रहा है जग सारा हरे रंग की होली।

(15 अगस्त 1995)
(ये कविता मुझे जिस पन्ने पर मिली, उसमें फिजिक्स के सवाल हल करने की कोशिश जैसा भी कुछ नज़र आया मुझे। वो सवाल फिर कभी...)

पुराने पन्नों से

लंबे समय से गायब हूं। बहाने कई होंगे। यहां बहाने या अपने आलस्य की सफाई देने नहीं आई। आई हूं वो बांटने जो दीपपर्व से पहले घर की सफाई के दौरान हाथ लगा। एक पुराना बक्सा, बक्से में बंद एक पीली-सी फटी हुई डायरी और एक फाइल जिसमें अख़बार की कई कतरनें मिलीं... ये डायरी, ये पन्ने 1994 से लेकर 1996 तक के हैं, जब मेरी उम्र 15 से 17 के बीच रही होगी। अब पढ़कर हंसी आ रही है, हैरान भी हूं कि ये सब लिखा कैसे होगा। क्या-क्या नहीं है इनमें? मेरी कविताएं जो छपीं, पुस्तक समीक्षाएं, वे पात्र जिन्होंने प्रभावित किया, quotes, उन किताबों के नाम जो मैंने पढ़ा होगा और पढ़ना चाहती थी, उन गानों की लिस्ट जो मैं हमेशा सुनना चाहती थी... इन पन्नों को उलटते हुए लगा जैसे खुद से एक साक्षात्कार हुआ है। ये ख़ुद पर यकीन पुख़्ता होने जैसा कुछ अनुभव है, जिन्हें यहां के यहां, अभी के अभी लिख लेना चाहती हूं। इसलिए क्योंकि किसी ऐसे क्षण, जब भरोसा डिगने लगे तो मैं वापस यहीं आ सकूं, reinforcement के लिए।

(नीचे आनेवाली कविताएं 'आज' में 'नए हस्ताक्षर' स्तंभ में छपीं, 1 फरवरी 1995 से 16 फरवरी 1995 के बीच)

भारत-वेदना

थककर चलते भारत पर एक गाज-सा गिरा है,
क्षुधित, पिपासु आंखों में आंसू का एक सिरा है।
एक दुख ही सहना हो, तब तो चुप रह जाऊं मैं,
भारत मां को रोते देखा, कैसे ये सह जाऊं मैं?
कहीं गरीबी, कहीं, अशिक्षा, कोई ना पीछा छोड़े,
इन कांटों को घेरों को बोलो तो कैसे तोड़ें?
भरपेट मिले ना भोजन, तन ढंकने को वस्त्र नहीं,
पूछूं आज मैं किससे, ये समाज क्या त्रस्त नहीं?
'कम हों बच्चे, कम हो जनता', कल था जिनका नारा,
आज उन्हीं लोगों को देखो, प्लेग ने है मारा।
पूरब चीख उठा है, पश्चिम भी रो रहा है,
उत्तर, दक्षिण में हाय ये क्या हो रहा है।
खुदा के लिए लड़े, बदनाम करें कभी राम को,
तरस जाते हैं वही लोग खुदाई के नाम को।
भ्रष्ट हो गए मां के बच्चे ले झूठ का सहारा,
कुछ ना बचा तो सज़ा देकर प्रकृति ने ही मारा।
मां भारती! कैसे पूछूं बोलो कब मुस्काओगी?
परतंत्रता के बाद के बंधन कैसे तोड़ पाओगी।
हाय! तुमको मेरी माता, कैसे-कैसे दिन हैं देखने,
इन पल्लवित अधरों को हंसी के बिन हैं देखने।
नहीं देख सकती मैं तुमको मां ऐसे ही रोते,
पर आंसू पोंछने को आगे लोग भी होते!
एकता का गीत गाऊं, साथ कोई दे दे।
कठिन डगर है, हाथों में हाथ कोई दे दे।

(1 फरवरी 1995)


उसे रोको

चंदा की शीतल चांदनी ने
मन में एक आशा-सी जगाई है।
आशा, रजनी के अंधेरे में
एक प्रकाश-पुंज की
जो उस तिमिर रात्रि को चीरता हुआ
मेरे समीप से गुज़रा है।
उसी धुंधली रोशनी में
एक परछाई को जाते देखा है।
मेरी निगाहें उसका पीछा करती हैं,
उसके ठहरते ही मेरी नज़रें ठहर जाती हैं।
मैं उसका परिचय जानने को उत्सुक हूं।
उसने बताया है,
वो सच्चाई है।
समाज के कोप, क्रोध से बचने के लिए
वो जा रही है, दूर कहीं।
वो जा रही है,
उसे रोको,
उसे रोको!

(2 फरवरी 1995)

तृषिता

पानी पर खींची हुई लकीरें
ज्यों खुद हो जाती हूं गुम।
क्या करोगी जब
गीली मिट्टी पर
पूरी लगन से
तुम्हारी उंगलियां
कल्पनाओं की लकीरें बनाएं
और निर्मम जल-धार
उन्हें बहाकर ले जाए।
अश्रुकणों से बोझिल पलकें
देखती रह जाएंगी जल-धार को।
कितना वैषम्य है यहां!
कितनी आशाएं
दम तोड़ देती हैं
फलीभूत होने से पहले।
शायद तुम्हारे कदम
फिर भी उठें,
उसी मृगतृष्णा की ओर।
और तृषिता हो जाओ तुम,
वहीं, जहां
आशा की किरणें फिर भी
नज़र आती हैं
पानी की लकीरों को छूते हुए!

(3 फरवरी 1995)

सोमवार, 1 नवंबर 2010

आऊंगी एक दिन। आज जाऊं?

मैं कहां हूं?
आज मिलूंगी मैं किधर?

अपनी ही तलाश में
निकली हूं घर से।
लौटूंगी फिर यहीं,
इसी चौखट पर।

मेरी ख़ुद से
एक जंग है आज।
निकलना है आगे,
ख़ुद से ही मुझको,
ये है ऐसा सफ़र।

जो लौटी तो ठीक,
ना लौटी तो
संभाले रखना
मुझे मेरे साथी,
यहीं, इसी जगह पर।