रविवार, 29 जुलाई 2012

मेट्रोनामचा 1: मैं सुन्दर हूं!

मेट्रो इज़ रियली द बेस्ट थिंग दैट हैपेन्ड टू डेल्ही, मैंने ये घिसा-पिटा सा जुमला मन ही मन दोहराया, और खुद को रात भर की कश्मकश के बाद मानसिक रूप से तैयार किया कि दिल्ली में टिकना है तो हर रोज़ काम पर जाने के लिए मेट्रो की आदत डाल लेनी चाहिए। नोएडा से गुड़गांव तक का सफ़र मेरे लिए एक हसीन लॉन्ग-ड्राईवनुमा होता रहा है अबतक। सफ़र कुछ इस तरह से प्लान किया कि रास्ते में किसी मनपसंद आरजे का साथ हो। साथ में वो सीडीज़ निकालीं जो मैं इत्मीनान से सुनना चाहती हूं। लेकिन आप ये काम महीने में दो-चार बार कर सकते हैं, हर रोज़ नहीं। पेट्रोल की बर्बादी और समय का विनाश क्रिमिनल है। 

इसलिए मेट्रो से ही जाना तय किया। यूं भी साढ़े सात बजे निकलना है, ऑफ़ ट्रैफ़िक आवर्स में, तो बैठने की जगह तो कहीं गई नहीं। भीड़ भी हो तो लेडी़ज़ कंपार्टमेंट में खड़े होकर झेली जा सकती है भीड़। यूं भी जिसने जवानी के दिनों में डीटीसी बसों की धक्का-मुक्की और बदतमीज़ियां झेल ली, उसके लिए मेट्रो का लेडीज़ डब्बा लक्ज़री है।

साढ़े सात का टार्गेट अनरियल था। बच्चों की बस ने दस मिनट की देरी करके अपशकुन की शुरुआत कर डाली। सात चालीस। मेट्रो स्टेशन तक पहुंचते-पहुंचते कुल सात मिनट और। सेक्योरिटी चेक इन, एक्सलेटर और वेटिंग, कुल चार मिनट और। यानी मेट्रो में घुसते-घुसते तकरीबन आठ बज ही गए - पीक ट्रैफिक आवर!   

जहां मैं चढ़ी वो तीसरा स्टेशन है। जगह नहीं बैठने की, लेकिन आराम से खड़े होकर कोई किताब पढ़ी जा सकती है। मेरे बगल में खड़ी लड़की के हाथ में जो किताब है वो जानी-पहचानी लग रही है। "लाइफ़: एन एनिग्मा, ए प्रेशस ज्वेल" जिसके लेखक हैं जापान के दाइसाकू इकेदा - धर्मगुरु, आध्यात्मिक नेता, विश्व शांति के प्रचारक। मुझे कॉलेज जाने वाली लड़की के हाथ में ये किताब देखकर सुखद आश्चर्य हुआ है। मैं उससे बात करना चाहती हूं, लेकिन वो कुछ इस तरह ध्यानमग्न है कि उसे टोकना साधना में विघ्न डालने जैसा कुछ होगा।

बाकी डिब्बे में रंगों का कॉलोज बिखरा पड़ा है जैसे। कोई लड़की गीले बालों को उंगलियों से सुलझा रही है, कोई आंटी वैभवलक्ष्मी कथापाठ कर रही हैं। जाने कितनों के कानों में ईयरप्लग्स हैं। दो लड़कियां एक-दूसरे से धक्कामुक्की करते हुए भी मोबाइल पर एन्ग्रीबर्ड्स खेले जा रही हैं। मोबाइल, तेरी महिमा अपरंपार है। नैस्कॉम यूं ही नहीं कहता कि अगले एक साल में मोबाइल बिज़नेस 36,000 करोड़ से भी बड़ा हो जाएगा। 

मुसीबत तो दरअसल राजीव चौक स्टेशन पर भयावह भीड़ के रूप में दिखाई पड़ती है। एक-दूसरे को धकियाते-मुकियाते प्लैटफॉर्म पर जगह तो बना लिया है लड़कियों, अब हम ट्रेन में कैसे घुसेंगे? हमें किसी तरह की मेहनत नहीं करनी पड़ती। भीड़ अपने-आप धकेलती हुई मेट्रो में चढ़ा भी देती है, आपके लिए खड़े होने की जगह भी बना देती है। वर्क फ्रॉम होम कितनी बड़ी लक्ज़री है, ये एक घंटे में ही समझ में आ गया है। अगले चालीस मिनट फास्ट-फॉरवर्ड मोड में चलते तो क्या शानदार मॉन्टाज बनता। उतरती भीड़। चढ़ती भीड़। हिलती भीड़। ब्रेक लगने पर एक-दूसरे पर गिरती भीड़। पैर कुचलकर आती भीड़। सॉरी बोलकर जाती भीड़।

लेकिन कमाल है कि मैं वन-पीस गुड़गांव के आखिरी स्टेशन पर उतर गई हूं। ना जी, पिछले दो घंटे में कहीं बैठने की जगह नहीं मिली। सब एफर्टलेस है। स्टेशन से बाहर निकल आना भी, ऑटो स्टैंड तक जाना भी और खुद से मेट्रो पर ऐसी भीड़ में कभी ना चढ़ने के वायदे करना भी। मैं मीटिंग में महज़ पैंसठ मिनट की देरी से पहुंची हूं। आई टुक अ मेट्रो - ये एक कथन मेरे सारे गुनाहों की माफ़ी है। च्च-च्च। आर यू ऑलराइट? डु यू वॉन्ट सम टी-कॉफ़ी? अच्छा, इतना बड़ा किला फ़तह किया है मैंने?

घड़ी देखकर ऐसे समय पर निकली हूं कि जब भीड़ ना हो सड़कों पर। घुटनों भर पानी हो तो भी कोई बात नहीं। सावन से बरस जाने के लिए अर्ज़ी तो हमीं ने डाली थी ना। मुसीबत बोलकर नहीं आती, बरसती हुई आती है।
रुका जा सकता है, बारिश के थमने तक। लेकिन फिर पीक आवर में चलने का ख़तरा कौन मोल ले? रंग-बिरंगी छतरियों के बीच जगह बनाते हुए डिब्बे में बैठने की जगह भी मिल गई है। लेकिन इस वक्त मुझे भीड़ की सख़्त ज़रूरत है। गीले होने के बाद डिब्बे के एसी में ऐसी ज़बर्दस्त कंपकपी हो रही है कि सीधे बैठना मुश्किल। डिब्बे में बिल्कुल भीड़ नहीं। कोई कमबख्त मेरे बगल में बैठने भी नहीं आता। एक यात्री पर दो सीटें! इसी को कहते होंगे मर्फीज़ लॉ।

एक महिला अपने दो बच्चों के साथ चढ़ी है दो बैग लेकर। बच्चों की पोशाक देखते ही लग जाता है कि एनआरआई हैं। मेरे बगल में आकर बड़ी भारी अमेरिकन लहज़े में अंग्रेज़ी बोलते हुए पूछती हैं - हाऊ मच टाईम बिफोर आईएनए? मैं उन्हें बगल में बैठ जाने को न्योत देती हूं। स्ट्रैटेजी काम आई है और मैं बेशर्म की तरह उन्हें कहती हूं, एक्चुअली वी कैन अकॉमोडेट द किड्स एज़ वेल। दो लोगों की सीट पर बैठे चार लोग, और दुबक कर बैठी मैं। सर्दी बर्दाश्त करने लायक हो गई है। अब मैं किताब निकाल सकती हूं।

लेकिन रंग-बिरंगे और दिलकश चेहरों के बीच किताब खोल लेने का हासिल? ज़िन्दगी क्या है, किताबों को हटाकर देखो - अपनी मां को टीनएज में पढ़ाई से बचने के लिए ऐसे शेर ख़ूब सुनाया करती थी। मां से याद आया है, किसी लड़की के बारे में पूछ रही थीं मुझसे फोन पर। देखा है उसको? शादी का मामला है। सुन्दर तो है लड़की? मैं हैरान-परेशान मां से पूछती हूं - सुन्दर कौन होता है? सौन्दर्य का पैमाना क्या है? सुन्दरता बहुत सब्जेक्टिव मसला नहीं? अरे बाबा, जो आंखों को भाए। मैंने मां का कहा हुआ यहां मेट्रो में आजमाने का फ़ैसला किया है। देखते हैं कौन सुन्दर है और कौन नहीं।

मेरे ठीक सामने मैजेंटा रंग की सलवार-कमीज़ में बैठी लड़की (या महिला?) का वज़न 100 किलो से कम क्या होगा। लेकिन सलीके से बनाए गए बाल, तरतीब से लिया गया दुपट्टा, पैरों में मैचिंग चप्पलें और नाखूनों पर मैचिंग नेलपॉलिश के साथ-साथ उसका हैंड बैग और हाथ में मौजूद एक आईफोन और एक टैबलेट उसके बारे में जो राय बना रहा है वो सुन्दर और ग्रेसफुल के बीच का कुछ है। उसके बगल में नेपाली नैन-नक्श वाली लड़की। आंखें मूंदे, सिर पीछे की तरफ टिकाए, कान में ईयर-प्लग्स लगाए वो जिन भी ख़्यालों में हो, उसके चेहरे पर उतर आई आभा से मैं हतप्रभ हूं। सुन्दर! तीसरी लड़की। चेहरे पर टीनएज की निशानियां इस उम्र में भी। कसकर पीछे की ओर बंधे बाल। पलकों पर आईलाईनर और फीकी पड़ गई लिप्स्टिक, साथ-साथ थकी हुई उंगलियां को तोड़कर थकान उतारने की कोशिश। सुन्दर ही है, ये भी। चौथी - गहरे लाल रंग का टॉप, खुले हुए बाल, गर्दन पर झूलता क्रॉस और गहरा सांवला रंग। फिर भी चेहरे में एक अजीब-सा आकर्षण है। फोन पर किसी से बात करते हुए मुस्कुराती है तो दाहिने गाल पर पड़नेवाले गड्ढे की तस्वीर खींचने का मन करता है। ज़ाहिर है, मेरी आंखों को भा ही रही है। पांचवीं, छठी, सातवीं, आठवीं... पंद्रहवीं... अठारहवीं और मेरे बगल में बैठी एनआरआई। सब सुन्दर। टेढ़े-मेढ़े दातों की भरपाई बालों ने किया, बालों की रंग ने, रंग की आंखों ने, आंखों की होठों ने, होठों की गर्दन ने, गर्दन की मुस्कुराने के तरीके ने... मां को फोन करके कह दूंगी, मुझसे ऐसे ऊटपटांग सवाल ना पूछा करें कि कौन सुन्दर है और कौन नहीं।

मुझे तो वो गुलाबी अंगूरों को पैरों पर सजाए, दरवाज़े से टिककर फ्लोटर्स वाली अपनी सहेली के साथ ज़ोर-ज़ोर से ठहाके लगाती पीले-से चेहरे, छोटे-से बालों और नारंगी रंग की शर्ट को जींस में डालकर अपने अंदाज़ पर ख़ुद ही इतराती बेहद गंवार-सी दिखनेवाली शहर की लड़की सुन्दर दिखती है मां! उसमें कुछ तो होगा जो बहुत सुन्दर होगा।

गुरुवार, 26 जुलाई 2012

और ये रही मेरी अंतिम इच्छा...

मैं लखनऊ में थी जब पल्लवी ने फोन किया। किसी की शोक सभा के लिए जाना था, और उसे कुछ दो सौ-तीन सौ लोगों से बात करनी थी वहां। मुद्दा था, व्हाट शुड आई से। इससे भी बड़ा मुद्दा था शोकसंतप्त परिवार के दुख के लम्हों के बीच आभार व्यक्त करना  - इसलिए क्योंकि जानेवाले ने जाते-जाते अपना अंगदान कर किसी की ज़िन्दगी बचाई थी। मैं उस परिवार की कहानी नहीं जानती, सिर्फ़ इतना जानती हूं कि दो भाईयों ने मिलकर अपनी मां के अंगों का दान किया।

ऐसा भी होता है? मरने के बाद भी दो-चार ही सही, लोग सोचते हैं कि अंगदान किया जाए? बल्कि हमारा तो अपने कपड़ों, जूतों, घर-गृहस्थी, नाते-रिश्ते के साथ-साथ उस इंसान की अस्थियों और राख से भी मोह नहीं छूटता जो चला जाया करता है। क्या कहोगी पल्लवी? अपनी हैरानी और अविश्वास से लौटी हूं तो हमने फोन पर ही एक छोटा-सा नोट तैयार कर लिया है। (पल्लवी के वोट ऑफ थैंक्स का ये असर रहा कि शोकसभा के बाद ना सिर्फ अंगदान की प्रक्रिया के बारे में और जानकारी लेने के कई लोगों ने उससे संपर्क किया, बल्कि उनमें से कई ने अंगदान की शपथ लेने की इच्छा भी ज़ाहिर की।)

लखनऊ से नोएडा लौट आई, और उन सारी चीज़ों को टटोल-टटोलकर देखती रही जिन्होंने बांध रखा है। परदों के रंग, सोफे पर बेतरतीबी से डाले हुए कुशन, आले पर सजाकर रखी गईं यादगारियां, शीशे और क्रिस्टल के ग्लास, कुछ फिल्मों के पोस्टर्स, 469 किताबें, 128 सीडीज़, अनगिनत तस्वीरें, चौके के बर्तन, बेड कवर्स, चादरें, दरियां, रजाईयां, साड़ियां, दुपट्टे, लहंगे, जनपथ से लाई गई जंक ज्वेलरी और लिकिंग रोड की चप्पलें... ये गृहस्थी है और इनमें से किसी एक चीज़ को भी ख़ुद से जुदा कर देना लाज़िमी नहीं लगता। हम मोह के ऐसे मकड़जाल में उलझे हैं कि बाहर निकलने का कोई रास्ता ही नहीं। ये क्या है और इसके लिए है? जब इन छोटी-छोटी चीज़ों से मन नहीं भरता तो अपनी ज़िन्दगी से क्या भरेगा? मरना कौन चाहता है, और दूसरी दुनिया के रास्ते को भी दुरुस्त बनाए रखने के लिए कैसे-कैसे जुगत भिड़ाते हैं हम! जो आज किसी के उठ जाने की बारी आ गई तो? तो फिर ये सब किस काम का? इतनी उलझनें क्यों पैदा करते हैं हम अपने लिए? मरने के बाद खाक हो जाने वाले शरीर की सुविधाओं का सामान क्यों जुटाते रहते हैं फिर भी? इसलिए कि हम जोगी, साधु-संन्यासी नहीं। हमारी ज़िम्मेदारियों का निर्वहन इन क्षणभंगुर सुखों की परिणति में माना जाता है। 

मुझे मालूम नहीं कि मोहभंग हो जाना किसको कहते हैं। ये भी नहीं मालूम कि मैस्लो के आवश्यकता सिद्धांत के पिरामिड पर पांचवें और अंतिम स्तर की आवश्यकता की सिद्धि कभी हो भी पाती है या नहीं। लेकिन इतना जानती हूं कि प्रेम, सुरक्षा, आत्मसम्मान और आत्मसिद्धि का मूल केन्द्र अहं होता है - ये मेरा है, मेरी दुनिया, मेरी बात, मेरी गुरूर, मेरे ख्वाब, मेरी इच्छाएं, मेरा स्वार्थ - इन सबसे जुड़ा हुआ अहं का बोध। उस अहं को तोड़ने के लिए मेरे आस-पास की चीज़ों से मोह तोड़ना होता होगा शायद। और उस मोह को तोड़ देने का सबसे सुन्दर ज़रिया होता होगा दान - कंबल दान, या 101 रुपए का चढ़ावा नहीं, बल्कि सही मायने में दान। 

इतना लिख लेने के बाद मैं इस मुगालते में आ गई हूं कि आत्मबोधनुमा कुछ हुआ है मेरे साथ, और अपने परिवार के लिए मैं एक विश-लिस्ट छोड़ रही हूं जो मैंने पूरे होश-ओ-हवास में, बहुत सोच-समझकर तैयार की है। नॉट दैट आई एम गोईंग टू डाई एनी टाईम सून, लेकिन डोनेशन विशलिस्ट लिख लेने में क्या बुराई है? कॉरपोरेट्स भी तो भरवाते हैं बेनेफिशियरी फॉर्म। तो बस, इसे यही समझ लिया जाए। 

1. आंखें, लीवर, लिगामेंट और बाकी जो भी अंग काम में आ सकते हैं, उनका दान कर दिया जाए। इसके लिए किसी भी नज़दीकी सरकारी अस्पताल से संपर्क साधा जा सकता है। बाकी, अंगदान का शपथपत्र, जितनी जल्दी हो सके, मैं भर दूंगी। मेरे शरीर को ना जलाया जाए, ना दफ़न किया जाए बल्कि शव को छात्रों के रिसर्च और एनैटॉमी की बेहतर समझ के लिए मेडिकल कॉलेज को दान कर दिया जाए। इसे वाकई मेरी हार्दिक इच्छा माना जाए।

2. अपने शरीर के बाद अपनी जमा की हुई चीज़ों में सर्वाधिक प्रिय मेरी किताबें हैं। उन्हें किसी गांव या किसी छोटे से शहर के वाचनालय को दान कर दिया जाए।

3. मेरे मरने के वक्त मेरे सेविंग अकाउंट में जितने भी पैसे हों, उसे किसी गांव के स्कूल को दे दिया जाए और मुमकिन हो तो उस फंड से उनके लिए वोकेशनल ट्रेनिंग (ख़ासकर, खेती-किसानी और बागवानी; और कार्पेन्ट्री जैसे हुनर) की व्यवस्था की जाए। मैं इसकी शुरूआत अपने जीते-जी करके जाऊंगी वैसे।

4. लॉकर में सदियों से पड़े मेरे गहनों को मेरी मां और मेरी सासू मां में बांट दिया जाए (वो ना रहे तो परिवार की सबसे बड़ी महिला को दिया जाए)। जो जहां से आया, वहीं लौट जाए क्योंकि मुझे इस बात का शत-प्रतिशत यकीन है कि सोने-चांदी-हीरों के गहनों से मेरे बच्चों या अगली पीढ़ियों को भी कोई सुख नहीं होना है।

5. कांजीवरम, बनारसी, पोचमपल्ली, जामावार, संबलपुरी, इकत, पटौला और कांथा जैसी साड़ियां और पश्मीने की दो शॉल एक-एक करके उन बहनों, बेटियों, भतीजियों और बच्चों में बांट दी जाए जिनकी अगले बीस सालों में शादी होगी। बाकी साड़ियां और कपड़े 'गूंज' को दे दिए जाएं। 

6. मेरी सबसे अनमोल अमानत - मेरे कॉन्सेप्ट नोट्स, आधी-अधूरी कहानियां, स्क्रिप्ट्स और स्क्रिनप्लेज़, रिसर्च के फोल्डर और ब्लॉग मेरे भाई की संपत्ति मानी जाए। वो जैसे चाहे, इस दो कौड़ी के कॉन्टेन्ट का इस्तेमाल कर सकता है।

7. सैकड़ों तस्वीरों की थाती दोस्तों को सौंप दी जाए - यादगारियां जहां कीं, उन्हीं को मुबारक।

8. बच्चों को परवरिश और पतिदेव को भरोसा देने के अलावा मेरे पास और कुछ नहीं - ना कोई और चल संपत्ति ना अचल ही।  
  
यदि मेरी विशलिस्ट से प्रेरित होकर आप भी दान का शपथपत्र भरना चाहते हैं तो http://donateyourorgan.com/ और https://www.facebook.com/pages/Mohan-Foundation/239983060819?ref=ts से संपर्क कर सकते हैं।

रही बात मेरी, तो मेरा कुछ भी ना होने की बात मन से मान लेते ही आस-पास सब हल्का हो गया है।

और रह गई बात एक रूह की तो चचा ग़ालिब के हवाले से, "क़यामत है कि होवे मुद्दई का हम-सफ़र ग़ालिब/ वो काफ़िर जो ख़ुदा को भी ना सौंपा जाए है मुझ से।"

मंगलवार, 24 जुलाई 2012

आओ बच्चों तुम्हें सिखाएं...

लिखना तो 13 नंबर की सवारी करते हुए अंकशास्त्रियों की दुकान के आगे लंबी भीड़ लगाते हुए 13 तालकटोरा रोड से 'रिटायरमेंट हाउस' जा पहुंचे 13वें राष्ट्रपति के बारे में था। लेकिन मेरे सामने उससे भी बड़ा मुद्दा था - खाली पेट्रोल टैंक को भरवाने में और कितने पैसे देने पड़ेंगे, उसकी चिंता से भी बड़ा; छह रुपए महंगे हो गए टूटा बासमती चावल से भी बड़ा; सूखे की चेतावनी से भी बड़ा; कोपभवन में लंबी छुट्टी के लिए जा बैठे कृषि मंत्री की डिमांड लिस्ट से भी बड़ा; महंगाई, मुद्रास्फीति, राजकोषीय घाटे से भी बड़ा...

मुद्दा ये है कि मेरे बच्चों की शब्दावली में एक नया वाक्यांश जुड़ गया है। सुबह-सुबह उन्होंने एक-दूसरे की चुगली की।

"मम्मा, आपको पता है आद्या ने कल बस में एक बच्चे को 'उल्लू का बच्चा' कहा।"

इतना सुनना था कि मुझे लगा, मेरे इर्द-गिर्द की दुनिया ठीक मेरे आंखों के सामने धराशयी होने लगी है जैसे। ये कैसे हो गया? ये मेरी परवरिश तो हो ही नहीं सकती। लंबी गहरी सांसें लेकर दिमाग स्थिर करते हुए मैं कोई फ़ैसला सुना पाती, इससे पहले ही अपराधी ने ना सिर्फ़ गुनाह क़बूल कर लिया, बल्कि मौका-ए-वारदात का अक्षरशः विवरण भी दे दिया।

"मम्मा, अयान ने मुझे बस में धक्का दिया। अपने स्कूल बैग से मुझे पुश किया। और मैंने ये जो बोला... ये... ये मैंने आदित के फ्रेंड अयान से ही सीखा है। वही खेलता रहता है ऐसे बच्चों को साथ... आप आदित को बोलो ऐसे फ्रेन्ड्स नहीं बनाएगा। आदित ने भी रुचि मौसी को कहा था - वही - वही मम्मा - उल्लू का बच्चा... मुझे भी कहा था... उल्लू का बच्चा..."

मेरी पहल समय का तकाज़ा था।

"उल्लू देखा है आपने?"

"हां..."

"जैसा दिखता है उल्लू, मैं वैसी दिखती हूं? मेरी शक्ल... मेरी नाक... मेरी आंखें...?"

"नहीं मम्मा..."

"फिर रुचि मौसी दिखती होगी बेबी उल्लू के जैसी, नहीं?"

"नहीं मम्मा..."

"फिर हम एक-दूसरे को ऐसे नामों से क्या बुलाते हैं?"

"लेकिन आप भी तो हमको कहते हो मम्मा... सोनचिरैया, तोता, कोयल, बिलोरी..."

मम्मा की एमटीवी बोलती बंद! जल्दी से तर्क ढूंढो कोई नया। अल्लाह, मैंने वकालत ही पढ़ ली होती... या थोड़ा और होता प्रेसेंस ऑफ़ माइंड। बच्चों के साथ जिरह करना भी सीख गई हूं।

"तो आपको ये नाम बुरे लगते हैं?"

"नहीं मम्मा..."

"और उल्लू का बच्चा?"

"गुस्सा आता है सुनकर।"

"तो बस... जवाब मिल गया... हम ऐसी बात क्यों कहें जो हमें ख़ुद अच्छी नहीं लगती? जो सुनकर गुस्सा आता है?"

कितनी आसानी से कह गई हूं ये। बस स्टॉप पर हुई ये बातचीत दो घंटे बाद भी परेशान कर रही है। बच्चों को बड़ा करने के क्रम में आप कई समझौते करते हैं खुद से - पैसे के साथ, काम के साथ और सबसे बड़ी बात, वक्त के साथ। उससे भी बड़ा समझौता अपने व्यक्तित्व के साथ होता है, क्योंकि यही एक चीज़ आपके बच्चों को सबसे ज़्यादा प्रभावित करती है। जो बच्चे देख रहे होते हैं, वही सीख रहे होते हैं।

मैं फिर भी साध्वी नहीं बन सकती, ना आर्ष स्वभाव एक रात में जीना आ गया है। फिर भी, भाषा और लहज़े में कई बदलाव तो लाना ज़रूरी है। बड़ी मुश्किल से अपने शब्दकोष से 'बेवकूफ़', 'बदतमीज़', 'पाजी', 'कमीना' और ऐसे ही कई शब्द निकाले गए। 'ओह शिट' तब जाकर बोलना बंद किया जब ढाई साल का आदित मेरी ही तरह सिर पर हाथ मारकर वही शब्द दुहराने लगा। 


ये भी सच है कि बच्चों को कहां-कहां बचाएंगे? पार्क में साथ खेलनेवाला कबीर 'अबे ओय' कहकर आदित को बुलाता है तो मुझे अपने गुस्से पर नियंत्रण के लिए दस तक की गिनती गिननी होती है। छोटा भीम बच्चों को 'बुली बच्चों' को धराशायी कर देने के गुर सिखाता है और तरह-तरह के स्टंट्स दिखाता है तो मैं टीवी बंद कर देना चाहती हूं। स्कूल बस पर उन्हें चढ़ाते हुए बस में गूंजती जलेबी बाई की मटकती-झटकती आवाज़ सुनाई देती है तो मैं ड्राईवर से चैनल बदल देने की गुज़ारिश ही कर सकती हूं। सुबह के अख़बार को लेकर बैठने के क्रम में 'प्लेबॉय' के कवर शूट से लौटी शर्लीन चोपड़ा बत्तीसी के साथ और सबकुछ निपोड़ती दिखाई देती है तो मेरे साथ-साथ मेरे बच्चे भी देख रहे होते हैं।

हम अपने आस-पास और माहौल को कितना बदल सकते हैं, ना बच्चों को सौ पर्दों के पीछे छुपाकर रखा जा सकता है। स्कूल जाएंगे ही, बाहर निकलेंगे ही, मीडिया से बचाया नहीं जा सकता और श्लील-अश्लील सब दिखाई देगा उनको। 

और ये हैं मेरे दो 'शरीफ़' बच्चे!
ऐसे में हम बड़ों की ज़िम्मेदारी क्या बनती है? सही-गलत का पाठ पढ़ाने का हक़ हमें कितना है, या उन्हीं पर छोड़ दिया जाए दारोमदार? जैसे हमारे भीतर नैतिकता का कस्टमाइज्ड फिल्टर लगा है, उनके भीतर भी होगा शायद। ना, मुझे तो लगता है ये फिल्टर इन्सटॉल करने की ज़िम्मेदारी मेरी है। 

मेरे दोस्त मुझे हेलीकॉपटर मदर कहते हैं तो गलत नहीं कहते। मैं वाकई उल्लू हूं।   

रविवार, 22 जुलाई 2012

हमको मन की शक्ति देना!

सुबह की हलचल रास्तों और पगडंडियों पर  उतर आई है। साइकिलों पर बाज़ार और शहर की ओर काम के लिए निकलते लोग हैं, खेतों में धान की रोपनी की तैयारी करती महिलाएं हैं, पेपरमिंट के खेतों में खर-पतवार उखाड़ते बच्चे हैं और चारों ओर कई रंग-रूपों में पसरी हई ज़िन्दगी है। उसी ज़िन्दगी से एक टायर उधार मांग कर धूल भरे रास्तों पर उसे दौड़ते-नचाते छोटे बच्चे हैं। इनमें से कुछ स्कूल के यूनिफॉर्म में हैं, कुछ ने निकर तक नहीं पहनी। और हम एक बड़ी-सी गाड़ी में बैठे हुए इन सब के बीच से होकर गुज़रते हैं। इन दृश्यों और मेरी नज़रों के बीच की जो खिड़की है, वो पहियों पर सवार है।

मैं एक बाहरवाली हूं और यहां के जिग-सॉ पज़ल में कहीं फिट नहीं बैठती। मेरी तमाम कोशिशों के बावजूद स्कूल और बच्चे, टीचर और परिवेश एक सब्जेक्ट ही बना रहता है; उसमें मेरा घुलना-मिलना मुमकिन नहीं। मेरा वास्ता इस जगह से सिर्फ इतना-सा ही है कि यहां की कहानी सुननी है, कुछ अनुभवों को लम्हा-भर जीना है और बेहद ख़ूबसूरत वाक्य-विन्यासों में भारी-भरकम विशेषणों के साथ डालकर उसे छाप देने के लिए तैयार कर देना है। मेरा जॉब प्रोफाइल इससे ज़्यादा और कुछ करने का स्पेस नहीं छोड़ता, कि एक स्टोरी ख़त्म होती है तो दूसरी की तलाश शुरू हो जाती है। एक केस स्टडी के माध्यम से जिस बड़े ट्रेन्ड पर अख़बार और रिपोर्टों के ज़रिए बहस-मुहाबिसे होंगे, और कोई बात कह दी जाएगी, उनसे मेरा नाता कुछ घंटों से ज़्यादा का नहीं होता।

एक पत्रकार का, या एक संचारकर्मी का दायित्व क्या होता है? यही ना, कि निष्पक्षता से एक स्टोरी रिपोर्ट की जाए, और उनसे बिना अटैच हुए अगली स्टोरी की ओर बढ़ चला जाए? मैं मेनस्ट्रीम पत्रकार नहीं, ना मुझपर हर रोज़ एक स्टोरी फाइल करने का दबाव है। फ्रीलांसिंग का सबसे बड़ा फ़ायदा होता है कि आप अपने पसंद की स्टोरिज़ अपने तरीके से कर सकते हैं। उनमें थोड़ी देर जी भी सकते हैं और उनसे ज़िन्दगी भर का रिश्ता भी बनाए रख सकते हैं। डेली रिपोर्टिंग वन-नाइट स्टैंड की तरह होती है - थ्रिल वैसी ही देती है, लेकिन उससे टिकाऊ बने रहने की उम्मीद करना बेवकूफ़ी होती है।

इसलिए मुझे स्कूल में नंगे पांव मीलों लंबा रास्ता तय करके आए बच्चों के बारे में बैठकर सोचने की लक्ज़री है, प्रतीक और प्राची के घर-परिवार का अनुमान लगा सकने का भी वक्त है। भाई-बहन हैं प्रतीक और प्राची। प्रतीक तीसरी में पढ़ता है, प्राची पहली में है। दोनों स्कूल यूनिफॉर्म में हैं, और पैरों में हवाई चप्पल है। टिफिन का वक्त है और प्रतीक अपनी बहन का हाथ पकड़े चापाकल की ओर ले जा रहा है। इनके पास टिफिन नहीं? खाली पानी पीकर भर लेंगे अपना पेट? मैं दोनों से पूछती हूं, "कुछ खाया अभी?" "नहीं।" "कुछ खाना है?" दोनों मेरा चेहरा देखते रहते हैं। फिर मैं सोचती हूं, इन्हें दूं क्या? मेरे पर्स में बिस्किट भी तो नहीं। कम-से-कम टॉफ़ियां ही होतीं। दस सेकेंड के बाद प्राची कहती है, "पानी पीना है।"

मैं पूछती हूं, "कुछ खाया था सुबह?"

"हां, रोटी-सब्ज़ी खाई थी।"

मुझे राहत मिली है सुनकर।

"कैसे आते हो स्कूल?"

"पैदल।"

"अच्छा कितनी दूर है घर?"

दोनों चुप। इन्हें दूरी का क्या अंदाज़ा होगा? मैं भी कितनी बड़ी बेवकूफ़ हूं।

"अच्छा,  वक्त कितना लगता है आने में?"

दोनों चुप। अब खुद पर कोफ़्त हो रही है। इन बच्चों से कैसे ऊलजलूल सवाल पूछ रही हूं? दोनों चापाकल की ओर बढ़ गए हैं, और मुझे अचानक अपने बच्चों के साथ किए जाने वाले एक सौ मनुहार याद आ गए हैं। लंच में क्या दूं? काजू-किशमिश? चीज़ स्लाइस? आलू के परांठे? सैंडिविच? वो भी तब, जब दिन में ब्रेकफास्ट और लंच उसी फैंसी एयरकंडीशन्ड स्कूल में मिलता है, जहां वो पढ़ने जाते हैं। दोनों बच्चों की एक महीने की फ़ीस शायद प्रतीक और प्राची के परिवार की सालाना आमदनी हो। उत्तर प्रदेश की सालाना प्रति व्यक्ति आय क्या है? शायद 26,000 के आस-पास। और मेरे गृह राज्य बिहार का? वो भी शायद इतना ही। हम कितनी सारी विसंगितयों के साथ जीने वाले लोग हैं!!!

मैं यहां से लौट जाऊंगी, और भूल जाऊंगी कि प्राची और प्रतीक को स्कूल आने के लिए कड़ी धूप में पैदल चलना होता है; भूल जाऊंगी कि अपनी ज़रूरतें बढ़ाने वाले हमीं होते हैं, अपने दुख बढ़ाने वाले भी हम ही। मैं भूल जाऊंगी कि जिस शिक्षा और जिस शानदार जीवन-शैली को हम अपने बच्चों का मौलिक अधिकार समझ लेते हैं, देश की तीन-चौथाई आबादी के लिए वो मयस्सर भी नहीं। 

रही बात काम की, तो देखिए ना कितना फैंसी काम है हमारा! हम गरीबी, भुखमरी, बाल मजदूरी, आदिवासी जन-जीवन और जनसाधारण से जुड़े सरोकारों पर काम करते हैं और फील्ड विज़िट्स के लिए हवाई यात्राएं करते हैं। देश को गांवों को कुछ उसी तरह जानने का दावा करते हैं जैसे ट्रेन की खिड़की से बाहर दिखाई देनेवाले दृश्यों को देखकर लगे कि आपने तो सकल ग्राम्य-जीवन समझ लिया। 

हम विसंगतियों को और बढ़ाने वाले लोग हैं। पोस्ट पर मिली वाहवाहियों को देख कर तय करूंगी कि अगली कहानी को लोकप्रिय बनाने के लिए कौन-कौन से एलीमेंट्स डाले जाने हैं। प्राची और प्रतीक का क्या है, सब अपनी-अपनी किस्मत लेकर आते हैं। बाकी, झूठी-सच्ची बातों को ऐसे पेश करना कि सामने वाले को वही सबसे बड़ा सच लगे, कम्युनिकेशन स्किल्स इसी को तो कहते हैं ना? हमें अब अगली स्टोरी की तलाश करने दो और दुआ मांगो मन की शक्ति की कि ख़ुद को निरपेक्ष ही रख सकें। 
कुनौरा के भारतीय ग्रामीण विद्यालय में 'हमको मन की शक्ति देना' गाते बच्चे


बुधवार, 18 जुलाई 2012

मैं मन मार, हूं इस पार

एक दोस्त थी मेरी। थी, क्योंकि अब उससे कोई सरोकार नहीं। पागल थी, मस्त-मलंग। दुनिया की फ़िक्र नहीं, उंगलियां उठानेवालों की परवाह नहीं। उसने किया वो जो दिल ने चाहा। हथेली पर दिल लेकर घूमने वालों को ठोकरें भी बड़ी मिलती हैं, दिल के टूट जाने का ख़तरा भी उतना ही बना रहता है। जाने कितनी बार टूटी, जाने कितनी बार सहेजा खुद को। हमने भी तोड़ा होगा एक-दूसरे का दिल, जन्म-जन्मांतर की दोस्ती के वायदे करने के बाद भी भरोसे को बचा नहीं पाए होंगे एक-दूसरे के। हम एक ही शहर में हैं, लेकिन जुदा हैं एक-दूसरे से। मैंने कई बार फोन बदला है, कई बार गैर-ज़रूरी नंबरों से अपना फोनबुक खाली किया है। एक उसका नंबर नहीं मिटता। एक उसको फोन उठाकर नहीं कह पाती कि याद आया करती हो तुम।

हम साथ होते हुए भी एक-दूसरे से इतने जुदा कैसे हो जाते हैं?

हो ही तो जाते हैं क्योंकि एक ही घर में अजनबी हो जाते हैं दो इंसान। भाई-भाई में जन्मों की दुश्मनी हो जाती है, परिवार विघटित हो जाते हैं, घर टूट जाया करता है, रिश्ते बिखर जाया करते हैं। इन सभी की जड़ एक अहं होता है जो टूटता ही नहीं। जाने किस पत्थर का बना होता है हमारा अभिमान।

अहं ही आड़े आ रहा है कि फोन नहीं कर पा रही हूं उस दोस्त को। क्या कहूंगी? कैसे कहूंगी कि इतने सालों तक तुम्हें याद भी किया लेकिन तुम्हारे बिना जीने की ऐसी आदत पड़ गई है कि तुम हो ना हो, कोई फ़र्क़ पड़ता नहीं, फिर भी पड़ता है। पहले प्यार को एक टीस बनाकर जिए जाने का दर्द भी ऐसा ही होता होगा शायद, बचपन की दोस्त को खो देने के जैसा।

अहं आड़े आ जाता है और कई बार शुक्रगुज़ारी के तरीके भूल जाते हैं हम। कई बार साथ होते हुए भी कह नहीं पाते, ना होते तो क्या होता। मैं अपने अहं की वजह से सबसे भाग रही हूं इन दिनों क्योंकि कभी-कभी पलायन इकलौता रास्ता होता है। दर्द  के तार में झूठी-सच्ची टीस के मोती गिन-गिनकर पिरोना ज़िन्दगी में रुचि बचाए रखता है क्योंकि उन्हीं के दम पर दिलफ़रेब कहानियां रची जा सकती हैं, पोस्ट लिखकर वाहवाहियां जमा की जा सकती हैं।

ये सारी तकलीफ़ें झूठी-मूठी हैं, हमारी अपनी पैदा की है, हमारे अपने दिमाग की उपज। इसलिए क्योंकि दर्द में डूबा इंसान किसको दिलकश नहीं लगता? मन मारकर जीनेवाली अपनी कहानियां सुनाकर सहानुभूतियां जमा करके सबसे मशहूर हुआ जा सकता है, कई दिलों में डेरा डाला जा सकता है। आंसू बहाकर, अपनी दुख-गाथा सुनाकर सबसे ज्यादा दोस्त और हितैषी बना सकते हैं आप। कमज़ोर, टूटे हुए इंसान पर सबको प्यार आता है, सीधे तौर पर उससे ख़तरा सबसे कम होता है इसलिए। ट्रैजडी हिट होती है, ट्रैजिक एंडिंग वाली लव स्टोरी सुपरहिट।

कह दो कि इतनी तकलीफ़ में हैं कि आस-पास उड़ते फिरते शब्दों को सलीके से एक क्रम में रख देना नहीं आ रहा तो सबसे ख़ूबसूरत कविता बनती है। इसलिए आओ झूठे-सच्चे दर्द जीते हैं। आंसुओं को बाहर निकालने के एकदम झूठे बहाने ढूंढते हैं। सिर को दीवार पर मारकर टीस पैदा करने के तरीके ईजाद करते हैं। आओ रोना रोते हैं कि फिर बेमुरव्वत निकली ज़िन्दगी और हौसले ने तोड़ दिया है दम फिर से। आओ, दूर बैठे किसी ना मिल सकने वाले साजन की दुहाई देते हुए फिर से कच्चे-पक्के गीत लिखते हैं। आज की रात मेरे पास मेरी बचपन की दोस्त के ना होने का बहाना है।


है उनका भी आधा आसमान

मेरे घर काम करने आनेवाली सुषमा के परिवार में पांच सदस्य हैं – मां-बाप, दो बेटियां और एक बेटा, यानि परिवार में दो पुरुष और तीन औरतें। हालांकि काम पांचों करते हैं। दोनों बेटियां मां के साथ मिलकर अहले-सुबह घर के काम-काज निपटाकर ‘चार पैसे’ कमाने निकलती हैं और तब जाकर एक महानगर में किराए के मकान में रहते हुए, अपने खर्च चलाते हुए ये मुमकिन हो पाता है कि सुन्दरवन के किसी गांव में रहनेवाले एक परिवार को पैसा भेजा जा सके। 

सुषमा और उसकी मां जैसी महिलाएं असंगठित यानि अनऑर्गनाइज़्ड वर्क फोर्स का हिस्सा हैं। हो सकता है, इनकी आमदनी देश के सकल घरेलू उत्पाद में कोई सार्थक योगदान नहीं दे रही हों। लेकिन सच तो ये है कि कई बार देश की आत्मा कहे जानेवाले गांवों की अर्थव्यवस्था में ऐसी महिलाएं अहम भूमिका अदा करती हैं। 

ये महिलाएं वर्कफोर्स का एक हिस्सा हैं – एक बेहद उपयोगी और लाभकारी हिस्सा। वर्कफोर्स के दूसरे हिस्से को परिभाषित करना थोड़ा आसान है। संगठित क्षेत्र में अपनी शिक्षा और काबिलियत के दम पर अपना परचम लहराने वाली महिलाएं भारतीय प्रशासनिक सेवा से लेकर सेना में, शिक्षा के क्षेत्र से लेकर सॉफ्टवेयर इंडस्ट्री में, यहां तक कि साहित्य और कला के क्षेत्र में भी अपना नाम रौशन कर रही हैं। सेना से लेकर मेडिकल, हॉस्पिटैलिटी से लेकर बैंकिंग तक उनकी भागीदारी दिखाई देने लगी है। यहां तक कि पुरुषप्रधान क्षेत्र माने जानेवाले रेलवे चालक और ऑटो ड्राईवरी में भी इक्का-दुक्का ही सही, लेकिन महिलाओं की भागीदारी के किस्से यदा-कदा सुनने को मिल जाया करते हैं। हालांकि आंकड़े एकत्रित करनेवाली एजेंसियां भी स्वीकार करती हैं कि कामकाजी होने के तौर पर महिलाओं की भागीदारी को अक्सर वास्तविकता से बहुत कम आंका जाता है। बावजूद इसके, पिछले सालों में पेड वर्कफोर्स यानि वेतनभोगी जनबल में महिलाओं की भागीदारी बड़ी तेज़ी से बढ़ी है।

बढ़ी है आमदनी भी 

मिसाल के तौर पर, सॉफ्टवेयर इंडस्ट्री में कुल वर्कफोर्स का 30% महिलाएं हैं और तनख्वाह, पोज़िशन या पर्क के लिहाज़ से वे अपने पुरुष सहयोगियों से पीछे नहीं हैं। 2001 में भारत में शहरी महिलाओं की औसत मासिक आमदनी साढ़े चार हजार रुपए से कम थी, जो 2010 तक बढ़कर दुगुनी से भी ज्यादा यानि 9,457 रुपए हो गई। महिलाओं की आमदनी में हुई इस वृद्धि का असर सीधे तौर पर परिवार की आमदनी पर पड़ा जो दस सालों में 8,242 रुपए से बढ़कर 16,509 रुपए हो गई। इतना ही नहीं, भारत में प्रति व्यक्ति सालाना आमदनी (पर कैपिटा इनकम) 16,688 रुपए से बढ़कर 54,825 रुपए हो गई, यानि आमदनी में 228% वृद्धि हुई। 

आमदनी बढ़ने का असर परिवार के रहन-सहन और खर्च करने की ताकत पर भी पड़ा। यहां तक की कृषि और कृषि से जुड़े क्षेत्रों के वर्कफोर्स का बड़ा हिस्सा महिलाएं हैं। बल्कि इस क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी तकरबीन 90% है। वर्ल्ड बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक खेतों में महिलाएं कुल मजदूरी की 55% से 66% तक की ज़िम्मेदारी निभाती हैं जबकि डेयरी प्रोडक्शन में तो उनकी भागीदारी 94% है। जंगलों से जुड़े छोटे और गृह उद्योगों में 51% महिलाएं कार्यरत हैं और यही बात हस्तकरघा उद्योग के मामले में भी लागू होती है। श्री महिला गृह उद्योग लिज्जत पापड़ ने इस दिशा में आनेवाली कई पीढ़ियों के लिए एक सशक्त उदाहरण पेश किया है। 

बदली है हमारी भी सोच

क्या वजह है कि धीरे धीरे ही सही, लेकिन वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी को ना सिर्फ अहमियत दी जा रही है, बल्कि तमाम मुश्किलों और चुनौतियों के बावजूद उन्हें शिक्षित होने और काम करने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है? दरअसल, सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य में धीरे-धीरे ही सही, लेकिन बदलाव आ रहा है। शहरीकरण और भूमंडलीकरण का नतीजा कह लीजिए कि शहरों में डबल इनकम यानि दुगुनी आय की आवश्यकता महसूस होने लगी। बीस साल पहले तक महिलाएं किसी मजबूरी की वजह से काम करने निकला करती थीं। उनके लिए काम भी तय थे – स्टेनोग्राफर, टाइपिस्ट, रिसेप्शनिस्ट या फिर टीचर। वक्त के साथ-साथ नए आयाम खुले और ये स्टीरीयोटाईप भी बदला। कुछ समाज बदला, कुछ समाज की ज़रूरतों के हिसाब से नीतियां और छह महीने की मैटरनिटी लीव और बेहतर वेतन की मांग धीरे-धीरे पूरी होने लगी तो महिलाओं के लिए काम करना थोड़ा-सा आसान हुआ। हालांकि, वर्कप्लस पर बराबरी की मांग अभी भी जोर-शोर से उठाई जाती है, लेकिन हम सफर में आगे तो बढ़े हैं और नए रास्ते भी खुलने लगे हैं।  

शिक्षा ने इस दिशा में एक बड़ी भूमिका निभाई है। 1991 में जहां मात्र 39.29 प्रतिशत महिलाएं साक्षर थीं, वहीं 2001 में महिलाओं की साक्षरता बढ़कर 53.67 बढ़ गई। 2011 में हुई जनगणना के मुताबिक अब 65.46 प्रतिशत महिलाएं साक्षर हैं और पुरुषों और महिलाओं की साक्षरता की दर के बीच के अंतर में भी गिरावट आई है। ज़ाहिर है, साक्षर महिलाओं ने अपने आस-पास दिखाई देनेवाले काम के अवसरों का भरपूर फायदा उठाया और परिवार तथा समाज की बेहतरी में योगदान दिया। पंचायत में महिलाओं को मिलनेवाले 33 फीसदी आरक्षण ने ना सिर्फ गांवों और पंचायतों में उनके नेतृत्व का मार्ग प्रशस्त किया, बल्कि कई पिछड़े इलाकों से महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए उठाए गए कदम की खबरें आईं। कच्छ में उजास रेडियो पर आकर आम-तौर पर दबी-कुचली महिलाओं ने ना सिर्फ अपनी समस्याओं के बारे में खुलकर बात की बल्कि ड्रिप इरिगेशन और बीज की बेहतर किस्मों के बारे में भी सवाल पूछे। 

हालांकि राष्ट्रीय राजनीति में अभी भी महिलाएं बड़ी भूमिका में नहीं आ पाई हैं। ११ फीसदी सांसद और 
मंत्री पदों पर मौजूद १० फीसदी महिलाओं के कंधों पर ही सत्ता के केन्द्र में जाकर आधी आबादी के प्रतिनिधित्व का दारोमदार है।

अंबानी परिवार की बड़ी बहू की छवि से बाहर निकलकर एक सफल उद्योगपति और बिज़नेसवूमैन के रूप में खुद को स्थापित करनेवाली नीता अंबानी कहती हैं, भारतीय महिलाओं को मल्टीटास्किंग में महारत हासिल है। आप भारत के किसी परिवार में चले जाएं, वहां पत्नी, बहू, मां और विभिन्न अन्य भूमिकाएं के अलावा कामकाजी महिला की ज़िम्मेदारी निभानेवाली औरतें मिल जाएंगी।

मैटरनिटी ब्रेक से वापस आनेवाली मांओं को फिर से उनके लायक काम दिलाने के लिए बनाई गई कंपनी फ्लेक्सिमॉम्स अब कई शहरों में अपना नेटवर्क बना चुकी है। इस एक कंपनी से एक लाख से ज्यादा महिलाएं जुड़ी हुई हैं जो इस बात का पुख्ता सबूत हैं कि महिलाओं को भी दुगुनी जिम्मेदारी उठाने से गुरेज नहीं। अपने बच्चों को बड़ा करने के लिए दस साल का ब्रेक लेने के बाद काम पर लौटीं सुरेखा जायसवाल कहती हैं कि काम तो मैं कॉलेज के बाद ही करने लगी थी। शादी के बाद भी घर-परिवार ने प्रोत्साहित ही किया। लेकिन बच्चों को वक्त देना चाहती थी, इसलिए ब्रेक लिया। बच्चे बड़े हो गए तो लगा कि ना सिर्फ परिवार, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था में भी योगदान दिया जाए। और क्यों ना हो? मेरे पास काबिलियत है, प्रतिभा है और अब वक्त भी।
 


  काबिलियत का सही उपयोग

वक्त का सही इस्तेमाल कामकाजी महिलाएं वाकई सही तरीके से करती हैं। और इसके एवज में असंगठित वर्कफोर्स को मिलनेवाले काम के रूप में समाज को वापस किया गया योगदान अनदेखा नहीं किया जा सकता। एक बड़ी ई-कॉमर्स कंपनी की सीईओ पर्ल अक्सर कहा करती हैं, या तो मैं घर से बाहर निकलूं और एक बड़ी कंपनी को और बड़ा बनाऊं, करोड़ों का बिजनेस करूं, अपने साथ-साथ अपने पचास कर्मचारियों के बारे में सोचूं, एक कुक, एक मेड और एक ड्राईवर को नौकरी दूं और उन्हें अच्छी तनख्वाह दूं या फिर घर में रहूं, कुक, मेड और ड्राईवर का काम करूं और बारह-पंद्रह हजार की बचत कर लूं। समझदारी भरा निवेश किसे कहेंगे? ये दोहराने की आवश्यकता नहीं कि वाकई, समझदारी भरा निवेश किसे कहा जाएगा।

ये निवेश परिवार की माली स्थिति को भी बेहतर बनाने में काम आया है। महिलाओं की ओर से आनेवाली पूरक या अतिरिक्त आय ने शहरों में घर और संपत्ति में निवेश करने के रास्ते खोले, बच्चों को बेहतर और बड़े स्कूलों में भेजा गया और ज़रूरतें पूरी होने के बाद शौक को पूरा करने में भी कोताही नहीं बरती गई। द ग्रेट इंडियन मिडल क्लास के उठान के पीछे महिलाओं की ओर से आनेवाली अतिरिक्त आय ने एक बडी भूमिका निभाई। प्रकाश शर्मा मुंबई में एक बड़ी कंपनी में ऊंचे पद पर कार्यरत हैं। एक बेटा है और ऐसी कोई जिम्मेदारी नहीं जो उनकी आमदनी से पूरी नहीं हो सकती। बावजूद इसके प्रकाश अपनी पत्नी ऋतिका को काम करने के लिए प्रोत्साहित करते रहे। घर में बैठी ऋतिका देश को क्या दे रही है? ये उनकी पहली दलील थी। ऋतिका ने कमाना शुरू किया तो दोनों ने मिलकर और बड़ा घर ले लिया, मां-बाप के बुढ़ापे के लिए पैसे भिजवाए और परिवार के सदस्यों की मदद की। इतनी ही नहीं, अपने पेंशन प्लान और बुढ़ापे के लिए बेहतर तरीके से निवेश किया। प्रकाश कहते हैं, ऐसे देख लो ना कि जो ऋतिका पिछले साल तक कोई टैक्स नहीं अदा कर रही थी, बाहर जाने से भी कतराती थी, मेड नहीं रखना चाहती थी, खर्च नहीं करना चाहती थी, वही ऋतिका अब डेढ़ लाख रुपए टैक्स दे रही है। हमारे परिवार की खर्च करने की कुव्वत बढ़ी है। हमने दो और लोगों को काम पर रखा है। आखिर ये सब कहां जा रहा है? कहीं ना कहीं उसका कमाया हुआ देश की उन्नति में काम तो दे ही रहा है।  

अभी से एक पीढ़ी पहले तक इन्हीं मध्यवर्गीय परिवारों में महिलाओं के लिए काम तय थे। आमतौर पर घर के सारे काम महिलाएं खुद निपटाया करती थीं। कपड़े धोने से लेकर गेहूं की सफाई और कुटाई-पिसाई, कपड़े सिलने और स्वेटर बनाने तक के कामों में इस कदर उलझी होती थीं कि उससे परे कुछ सोचती भी तो रसोई राजनीति के बारे में सोचतीं। सुविधाएं बढ़ी हैं, परिवार छोटे होने लगे हैं और सुविधाओं के साथ-साथ महिलाओं को अब वक्त मिलने लगा है तो ज़रूरी है कि उनकी रचनात्मकता का बेहतर इस्तेमाल हो। घर की चहारदीवारी से बाहर निकलकर कुछ भी रचनात्मक करने से ना सिर्फ उनकी और परिवार की स्थिति में सुधार होगा, बल्कि देश और समाज पर उसका स्पष्ट असर दिखाई देने लगेगा। अधिक से अधिक महिलाएं नीतिनिर्माण और नेतृत्व की दिशा में शामिल हो पाएंगी और समाज में बराबरी का सपना मुमकिन हो पाएगा। खुद को बचाए रखने और बेहतर उपयोग में आने की समझ ने भी कई महिलाओं ने ना सिर्फ अपने लिए, बल्कि अपने देश के लिए भी उन्नति के मार्ग प्रशस्त किए हैं और कई विकसित देश इसकी मिसाल हैं। उदाहरण के लिए, अमेरिका में महिलाओं की कुल खरीदशक्ति (परचेसिंग पावर) ३.३ ट्रिलियन डॉलर यानि १७६ खरब रुपए है। निवेश के मामले में भी वहां की महिलाएं पीछे नहीं। तकरीबन आधे स्टॉक्स में महिलाएं ही निवेश करती हैं, यानि नैस्डैक और डाउ जोन्स दरअसल उन्हीं के नाजुक कंधों पर टिका है। अमेरिका के कुल ३५ प्रतिशत बिजनेस की मालकिन भी महिलाएं ही हैं उन्होंने २.७ करोड़ से ज्यादा लोगों को नौकरियां भी दे रखी हैं। अतिशयोक्ति ना होगी अगर हम कहें कि अमेरिका को सुपरपावर बनाने में वहां की महिलाओं का बड़ा हाथ है।

 शिक्षा और हुनर बड़ा हथियार

हालांकि भारत जैसे देश में सोच में आनेवाला ये बदलाव लेकिन सोच में आया ये बदलाव सालों की जद्दोजेहद का नतीजा है। सालों पहले सावित्री बाई फूले और ज्योतिबा फूले, सरला रॉय और आर एस सुब्बाललक्ष्मी ने भारत में महिलाओं की शिक्षा के लिए जो मुहिम चलाई उसकी सफलता अब सामने आ रही है। उनकी कोशिशों का असर है कि हम उस समाज के नागरिक हैं जहां बेटियों में भी वक्त और पैसे का निवेश किया जा रहा है। हालांकि महिलाओं के वर्कफोर्स का सक्रिय हिस्सा होने के लिहाज़ से अभी भी हमें एक लंबा सफर तय करना है।

दस-पंद्रह साल पहले तक ये आम था कि बेटों को बड़े और महंगे स्कूलों में पढ़ाया जाए और बेटियों को किसी तरह ग्रैजुएशन करा दिया जाए। पढ़ाई इतनी ही कराई जाती थी कि उनकी भले घरों में भले लड़कों के साथ शादी हो जाए। लेकिन ये चलन भी बदला है। लड़कों और लड़कों के घरवालों की ओर से पढ़ी-लिखी और कामकाजी लड़कियों की मांग होना अब नई बात नहीं। आईआईटी से इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर चुके बेटे के लिए रिश्ता खोजने निकलीं जमशेदपुर की नीलम देवी कहती हैं, वो ज़माना गया जो आईआईटी के लड़कों के लिए मोटा दहेज लेकर सुन्दर-सी लड़की ले आते थे लोग। हमें तो पढ़ी-लिखी लड़की चाहिए, जो देश-विदेश में बेटे के साथ रह सके। बेटे के सपने को साझा करे, जरूरत पड़ने पर उसके काम में हाथ बंटाए। पैसा-कौड़ी सबकुछ थोड़े होता है? गुण और विद्या सबसे बढ़कर है।

विद्या दी गई तो गुण भी निखरे। दसवीं और बारहवीं के नतीजे प्रमाण हैं कि लड़कियों ने साल-दर-साल अपनी मेहनत और लगन से ना सिर्फ लड़कों की बराबरी की, बल्कि उन्हें पछाड़ा भी। देशभर में कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के इम्तिहानों में भी लड़कियों ने बेहतर प्रदर्शन किया। और तो औऱ, हाल ही में आए यूपीएससी के नतीजों से साबित हो गया कि स्कूली शिक्षा से लेकर एन्ट्रेन्स एक्ज़ाम्स और देश की सर्वाधिक प्रतियोगी परीक्षा में भी लड़कियों ने अपनी काबिलियत दिखाई। कमाल की बात तो है कि इस साल की दोनों टॉपर्स देश के उस राज्य की मूल निवासी हैं जहां का सेक्स अनुपात पूरे देश के लिए चिंता का सबब बना हुआ है।

सरकारी सेवा हो या प्राइवेट नौकरियां, अपनी लगन और मेहनत से तमाम जेन्डर डिस्क्रिमिनेशन के बावजूद महिलाओं ने धीरे-धीरे अपने लिए जगह बनाई। भारतीय राजस्व सेवा की अधिकारी रहीं श्रीमती एफ मेन बताती हैं कि आमतौर पर महिलाओं को फायनेंस में निपुण नहीं माना जाता। उन्हें अच्छा एडमिनिस्ट्रेटर माना जाता है, अच्छा मैनेजर भी, लेकिन आंकड़े और रुपए-पैसों का खेल उन्हें समझ में आएगा, इसपर कई बार सवाल उठाए जाते हैं। लेकिन कई महिला अफसरों ने यहां भी अपनी काबिलियत साबित की है। और तो और, कई ऐसे मामलों में कड़े कदम उठाए हैं जो सालों से फाइलों की धूल खा रहे थे। महिला अफसर आमतौर पर अपराईट और ईमानदार होती हैं। उन्हें आसानी से मैनिपुलेट नहीं किया जा सकता।

गौरतलब है कि महिलाओं की स्थिति को लेकर अंतरराष्ट्रीय पत्रिका न्यूज़वीक ने २०११ में १६५ देशों का एक सर्वे कराया। महिलाओं के सशक्तिकरण की स्थिति को लेकर भारत नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका से भी पीछे १४१वें स्थान पर था। भारत वैश्विक ताकत बनने की राह पर है लेकिन इतनी तरक्की और समाज में आए इतने बदलावों के बावजूद ऐसा भी नहीं कि हमने ऐसा माहौल तैयार करने में सफलता हासिल कर ली है जहां महिलाएं पूरी तरह से सशक्त हों। महिलाओं के सशक्तिकरण की राह उनके आर्थिक स्वावलंबन से खुलता है, लेकिन हम अब भी ऐसे माहौल के निर्माण के लिए संघर्षरत हैं जहां कार्यक्षेत्र में पुरुष और महिलाओं को बराबर की हिस्सेदारी मिलती हो। गांवों में महिलाओं की स्थिति तो शोचनीय है ही। वे घरों और खेतों में काम करना अपनी जिम्मेदारी समझती हैं और कई बार सही मजदूरी की मांग भी नहीं करतीं। लेकिन शहरों में, यहां तक कि बड़े दफ्तरों में महिलाओं के लिए एक हितकर माहौल तैयार हो सका है, ऐसा नहीं है। महिलाओं के काम करने के लिहाज से भारत को दुनिया का चौथा सबसे खतरनाक देश बताया गया है। कार्यक्षेत्र में यौन उत्पीड़न और शोषण जैसी समस्याएं भी महिलाओं के लिए अवरोधक का काम करती हैं। ऊपर से देरतक काम करनेवाली महिलाओं की सुरक्षा को लेकर खुद प्रशासन ऊटपटांग सवाल उठाया करता है। इन सारी चुनौतियों के बावजूद महिलाओं ने हार नहीं मानी और घर और बाहर, दोनों मोर्चों को बखूबी संभाला है।

अभी इम्तहां और हैं

जिन राज्यों की आर्थिक स्थिति बेहतर है, वहां महिलाओं की कार्यक्षेत्र में भागीदारी भी कम है। जनगणना रिपोर्ट के मुताबिक पंजाब में मात्र 4.7 प्रतिशत महिलाएँ घर के बाहर काम करती हैं जबकि हरियाणा में 3.6। जिस दिल्ली के लिए आमतौर पर महिलाओं के काम करने के लिए बाहर निकलने की सबसे असुरक्षित जगह माना जाता है, वहां मात्र 4.3 प्रतिशत काम कर रही हैं। उत्तर प्रदेश में 5.4 प्रतिशत जबकि बिहार में 16.3 प्रतिशत और उड़ीसा में 26 प्रतिशत महिलाएँ घर के बाहर नौकरी करने या काम करने के लिए जाती हैं। इसमें एक तथ्य जो गौर करने लायक है कि दक्षिण के राज्यों में जहाँ साक्षरता का प्रतिशत ज्यादा है वहाँ पर राज्यों की आर्थिक स्थिति अच्छी होने के बावजूद महिलाएँ घर के बाहर काम या नौकरी के लिए जाती हैं। तमिलनाडु में ये प्रतिशत 39 है जबकि आंध्रप्रदेश में 30.5 और कर्नाटक में 23.7 है।

वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी के लिहाज से भारत दुनिया के सबसे पिछड़े देशों में से एक है। जूनियर, मिडल और सीनियर, तीनों स्तरों पर भारत में महिलाओं के लिए बहुत जगह बनाए जाने की गुंजाईश है। लेकिन एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में जूनियर से मिडल लेवल के पोज़िशन तक जाते-जाते ४८.०७ प्रतिशत महिलाएं काम छोड़ देती हैं जबकि मिडल लेवल से सीनियर लेवल तक जाते-जाते २९ फीसदी महिलाएं काम छोड़ देती हैं। कॉरोपोरेट जगत में सिर्फ ६ फीसदी महिलाएं ही बोर्ड में शामिल हैं। 

अधिकांश महिलाएं दफ्तर में बढ़ती ज़िम्मेदारियों के साथ काम का बोझ नहीं संभाल पाती और नौकरी छोड़ देती हैं या अपने करियर को लेकर पुरुष की तरह गंभीर नहीं होना चाहती। इस परिस्थिति में बदलाव के लिए परिवार और समाज के स्तर पर बदलाव लाने होंगे, जहां एक कामकाजी महिला को सहयोग के लिए कारगर सपोर्ट सिस्टम तैयार किया जा सके और महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण के रास्ते प्रशस्त किए जा सकें। उम्मीद फिर भी है कि परिवार, समाज और देश को अपनी अर्थव्यवस्था की बेहतरी में महिलाओं के योगदान की कीमत समझ में आएगी और उसके लिए शायद पैमाने भी मुकर्रर हो जाएं। लेकिन महिलाओं को भी अपनी सोच में बदलाव लाना होगा और ये समझना होगा कि सितारों की जगह सिर्फ उनके आंचल में ही नहीं, आसमान में भी है जिन्हें छूकर आने की काबिलियत उनमें है।

शनिवार, 14 जुलाई 2012

पिया बावरी, हुई बावरी

ज्ञानी ने कहा, "मैं तुम्हें मोक्ष का रास्ता दिखाने आया हूं। मेरा काम तुम जैसी मूढ़, मूर्ख, अज्ञानी स्त्रियों को सत्य का मार्ग  दिखाना है।"

स्त्री बोली, "आपका स्वागत है महोदय, किन्तु मैं सही मार्ग पर हूं। मुझे रास्ता बदलने की कोई आवश्यकता नहीं।"

ज्ञानी ने कहा, "मूर्ख औरत! तू जिस रास्ते पर है वो इच्छा-विलास का रास्ता है। तुझे भोगेच्छा के सिवाय कुछ नहीं सूझता। ये ही लिप्साएं तेरे अंतःसंघर्ष का कारण हैं। मैं तुझे इन सबसे मुक्ति दिलाने आया हूं।"


स्त्री ने जिरह की, "यही शाश्वत द्वंद्व इस संसार का शाश्वत सत्य है महोदय। इन्हीं अंतःसंघर्षों के कारण ही तो सभ्यताएं बनती हैं, मिटती हैं। इन्हीं अंतःसंघर्षों से तो मनुष्य अपनी परिस्थितियों को बेहतर, और बेहतर बनाता है। यहीं अंतःसंघर्ष उसे संघर्षशील बनाते हैं।"


ज्ञानी स्त्री के दुर्भाग्य को बदल देने को आतुर था। कहा, "इन संघर्षों से परे उठ औरत। ईश्वर की शरण में जा। ये कष्ट-साधना किसके लिए है? इस तुच्छ शरीर की  तुच्छतर आवश्यकताओं के लिए?" 


स्त्री ने बड़ी-बड़ी हिरण-सी आंखों से अडिग हिमालय-से लगने वाले ज्ञानी की ओर देखा। अपने अंतर से उमड़ते ज्ञान से दीप्त ज्ञानी के चेहरे के तेज से घबराकर स्त्री ने नज़रें नीची कर लीं। फिर संयत होकर पलकें उठाईं कि कांपते होठों पर उतरनेवाले शब्दों ने घबराकर साथ छोड़ दिया तो पनियल विकल आंखें कह देंगी मन की बात।


ज्ञानी को आंखों की भाषा नहीं समझ में आती थी। वह तो तर्कशील था, शास्त्रार्थ में हार-जीत के बल पर निर्णय लेता था। उसका जीवन अलक्षित मार्गों से परे था, उन रास्तों पर मिलनेवाली अनायास ठोकरों से भी ऊपर था। उसकी यात्रा का लक्ष्य एक ही था - मोक्ष के फलस्वरूप ईश्वर की प्राप्ति। उसके कर्म भी नपे-तुले, सोचे-समझे होते - हर गलती के बदले एक परोपरकार; हर दुराचार के बदले एक गंगा-स्नान। ज्ञानी के बही-खाते में हर कर्म का लेखा-जोखा होता। मोक्ष के रास्ते में कहीं कोई अड़चन क्यों आती भला?


"मुझे देख। मैं संसार से परे हूं। संतुष्ट हूं, सुखी हूं। चिंताएं मेरी नींद नहीं डसतीं। मैं निर्भय, निडर हूं क्योंकि मेरे साथ ईश्वर है।" 


"मुझे देखिए। मैं संसार में घुली-मिली हूं। असंतुष्ट हूं, दुखी हूं। चिंताएं सताती हैं, इसलिए समाधान ढूंढती हूं। यूं भी सोकर किसे जीवनयापन करना है। डरती हूं, आशंकित रहती हूं, इसलिए ईश्वर में यकीन करती हूं।"


"किन्तु ईश्वर तो तुम्हें भय से मुक्त करता है।"


"मेरा ईश्वर मेरी तरह ही डरपोक है। उसे मेरी बददुओं का डर है।"


"स्त्री, तुम सांसारिक ईश्वर की बात कर रही हो। मैं तो परम परमात्मा की..."


"आपने देखा है परम परमात्मा को? कोई साक्षात्कार हुआ है कभी?"


"वही तो कहना चाहता हूं कि मन में बसता है वह। मन में झांको और देखो..."


"देखो कि क्या भला है और क्या बुरा। देखो कि मन में बैठा ईश्वर क्या कहता है, किस रास्ते ले जाता है। मेरे मन में बैठा मेरा ईश्वर मेरी तरह ही मनमौजी है। मेरे मनमोहन ईश्वर को इस संसार से प्रेम है, और पेड़-नदियां-फूल-बादल-धूप-छांव में बसता है वह। मेरा ईश्वर मुझे संसार से प्रेम करने को कहता है। कहता है कि जो इस जन्म में ना मिला, अगले में मिलेगा कि जीवन जैसी नेमत बार-बार मिलनी चाहिए। मेरा ईश्वर मुझे मोक्ष के नहीं, प्रेम के रास्ते पर ले जाता है। मेरा अहित करते हुए भी मेरे चरित्र के उस पक्ष को विकसित करता है जिससे मुझमें प्रेम और आस्था बढ़े। मेरे चरित्र का यह पक्ष ज्ञान के मौखिक उपदेशों से नहीं संवरता, जीवन के थपेड़ों से संवरता है। मेरा जो भाग्य विधाता रच रहा है उसी में मेरा मोक्ष है।"


"यह तुम्हारा एकांगी दृष्टिकोण है मूर्ख औरत। तुम्हारी यही सोच तुम्हारे दुखों का कारण है। तुम्हारे जीवन की उपयोगिता सांसारिक बंधनों से मुक्त होने में है; त्याज्य इच्छाओं और भोग-विलास की वस्तुओं से; क्षणभंगुर और मिथ्या संबंधों से अलग होने में है। जीवन को उदात्त और व्यापक बनाने में है। छोटे-छोटे क्षणों में बंधकर रह जाने में नहीं है। संसार से बंधने में नहीं है।"


"मेरे जीवन की उपयोगिता मुझे सौंपे गए काम करते रहने में है। जो मिला, उसके माध्यम से ईश्वर से प्रेम करते रहने में है। ईश्वर की बनाई हुई दुनिया जो भाषा समझती है, ईश्वर भी वही भाषा समझता होगा शायद। मेरे जीवन की व्यापकता मेरी सिमटी हुई दुनिया और सोच-समझ में ही है। मेरी अज्ञानता मेरी सबसे बड़ी ढाल है और मेरे क्षणिक सुख का इकलौता साधन है। मुझे इसी संसार के प्रेम में पड़े रहने दीजिए प्रभु!"


"प्रेम भी तो शास्त्रीय है, ज्ञान के चक्षु खोलता है।"


"मेरा प्रेम अंधा बना रहना चाहता है। वह शास्त्रीय नहीं; सहज, सुगम और सुलभ है।"


"तू बावरी है।"


"बावरी ही बनी रहना चाहती हूं। पिया बावरी।"








शुक्रवार, 13 जुलाई 2012

दोष तुम्हारा है, पागल लड़की!

ऐ लड़की,

तार-तार हुई अपनी इज्ज़त और अपने वजूद को लेकर कहां जाओगी अब? तुम तो मुंह दिखाने लायक ही नहीं बची कि लोग तुम्हारी पहचान नहीं भूलेंगे, वो चेहरे ज़रूर भूल जाएंगे जो तुम्हें सरेआम नोचते-खसोटते रहे थे। 

लड़की, सारा दोष तुम्हारा ही है। पार्टी में गई थी ना? वो भी गुवाहाटी जैसे शहर में? तो लो भुगतो अब। अपने दायरे में रहना सीखा नहीं था क्या? किसी ने बताया नहीं था कि पार्टियों में जाने और सड़कों पर खुलेआम बेफ़िक्री से घूमने, अपनी मर्ज़ी से रास्ते चुनने का हक़ तुम्हें नहीं; इज्ज़तदार घर के शरीफ़ लड़कों को होता है। 

पहन क्या रखा था जब घर से पार्टी के लिए निकली थी? ज़रूर मिनी स्कर्ट और टैंक टॉप पहन कर निकली होगी। या फिर तंग टीशर्ट और जीन्स? घर में दुपट्टा नहीं था? हिजाब ही खरीदा होता एक? हालांकि ठीक-ठीक बता नहीं सकती कि साड़ी में लिपटी निकली होती तो बच गई होती।

और इतना भी नहीं जानती कि बिना किसी 'मेल मेंबर' के घर से बाहर स्कूल और ट्यूशन के लिए निकलना भी गुनाह होता है लड़की के लिए? और किसी को नहीं तो अपने छोटे भाई को साथ लिया होता। पड़ोस का ही कोई दसेक साल का बच्चा होता, किसी सहेली का भाई ही होता, तुम्हारा कोई क्लासमेट होता। कोई तो होता साथ। कोई पुरुषनुमा परछाई साथ चलती तो इस हादसे बच जाती तुम शायद। जानती नहीं किस समाज में रहती हो? यहां अंधेरों के तो क्या, रौशनी के भी घिनौने हाथ होते हैं जो तुम्हें अपनी गंदी उंगलियों और तीखे नाखूनों से खसोट लेने के लिए बेताब होते हैं, तुम्हें छूकर देखना चाहते हैं, तुम्हारी आंखों में उतर आए डर और तुम्हारी पीड़ा से अपने पौरुष को बल देना चाहते हैं। 

लड़की, तुम्हारी अरक्षितता, तुम्हारा नाज़ुकपन तुम्हारा सबसे बड़ा गुनाह है। उससे भी बड़ा गुनाह उस बेचारगी को भूलकर रास्ते पर अकेले चलने की ज़ुर्रत करना है। उससे भी बड़ा, और बड़ा गुनाह चौबीस घंटे लड़की होने की अतिसंवेदनशीलता को याद ना रखना है।  

सुना कि तुम मां-बहन की गुहार लगा रहा थी लड़कों के सामने? अरे पागल, नहीं जानती क्या कि यहां लोग बहनों को भी नहीं छोड़ते? ऊपरी आवरण से मसीहा और संरक्षक-सा दिखाई देने वाला तुम्हारा कोई 'कज़न ब्रदर' या 'गार्डियन' अकेले में तुम्हें बख़्श देगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। मां ने सिखाया नहीं था कि किसी पर भरोसा नहीं करना? किसी पर भी नहीं। किसी ने बताया नहीं था कि हम ऐसे भीरुओं के बीच रहते हैं जो ऊंची आवाज़ में चिल्लाना जानते हैं, मौका-ए-वारदात पर कुछ क़दम उठाना नहीं जानते? मैं होती वहां तो कुछ कर पाती, कहना मुश्किल है। बचकर आंखें नीची किए किनारे से निकल गई होती शायद। हम जैसे तमाशबीन रहनुमाई के लिए थोड़े ना पैदा हुए हैं?

वैसे अब क्या करोगी तुम पागल लड़की? पूरे देश ने ये वीडियो देखा है। बल्कि यूट्यूब पर तो विदेशों में बैठे लोगों ने भी तुम्हारा हश्र देख लिया। तुम्हारे गली-मोहल्ले के लोग तुम्हारा जीना दूभर ना कर दें तो कहना। तुम्हारे स्कूल में बच्चे और टीचर्स तुम्हें अजीब-सी निगाहों से ना देखें तो कहना। और ठीक चौबीस घंटे में तुम्हारे साथ चला घिनौना तमाशा पब्लिक मेमरी से ना उतर जाए तो कहना। इस हादसे का बोझ लेकर जीना तुम्हें हैं।  

नपुंसकों के बीच रहती हो लड़की। यहां किसी तरह के न्याय की उम्मीद मत करना। लेकिन जैसे सड़क पर अपने साथ हुई कई छेड़खानियां भूल गई, अपने जिस्म पर कई बार आई गंदी छुअन भूल गई, वैसे इस नोचे और खसोटे जाने को भी भूल जाने की कोशिश करना। याद सिर्फ इतना रखना कि इस दुनिया में सांस लेना मुश्किल है, तुम्हारा जीना मुश्किल है और मर जाने में भी सुकून नहीं। ऊपरवाले ने फिर किसी तरह का बदला निकालने के लिए अगले जन्म में लड़की बनाकर भेजा तो? 

एक बुर्का सिलवा लो लड़की और अकेली मत निकला करो सड़कों पर। वैसे मैं अपनी बेटी को कैसे बचा कर रखूं, इस उलझन में हूं फ़िलहाल। उससे भी बड़ी उलझन है कि बेटे को उन्हीं इज्ज़तदार लोगों के घरों के शरीफ़ लड़कों में से एक होने से कैसे बचाया जाए?

तुमसे और क्या कहूं सिवाय इसके कि अपना ख़्याल रखना और अपने आंसुओं को बचाए रखना। तुम्हें पागल होने से यही आंसू बचाए रखें शायद।

अलविदा, पागल लड़की। 

  

बुधवार, 11 जुलाई 2012

तुझे सब है पता... है ना, आद्या...

मैं बिखरी हुई थी, उलझी हुई और ऐसे परेशान कि ख़ुद को समेटना मुश्किल।

जैसे ही लगने लगता है कि ज़िन्दगी एक ढर्रै पर आने लगी है, ईश्वर इम्तिहानों के नए तरीके ऊपर से फेंक देता है हम इंसानों के लिए, ताकि हम अपनी औक़ात में रहें और ना भूलें कि ख़ुशी का हर लम्हा, सुकून का हर पल बेशक़ीमती है। वो शुक्रगुज़ारी के तरीके ईजाद करवाता रहता है हमसे।

और शुक्रगुज़ारी के कई सहज और स्वाभाविक रास्ते दिखाते हैं हमारे बच्चे।

हम हमेशा अपने बच्चों को नासमझ समझने की नासमझियां किया करते हैं। उनकी मासूमियत को बच्चों की कमअक्ली मानते हैं और अपने अनुभवी होने का वो दंभ जीते हैं जो ताउम्र बच्चों के सामने हांका जाता है।

मैं भी नासमझ हूं इस लिहाज़ से। जो बातें बच्चों को बताना नहीं चाहती, लेकिन उनके सामने बोले बिना रह नहीं सकती, वो बात अंग्रेज़ी में कहती हूं - आज से नहीं, जब से वो पैदा हुए थे, तब से।

मियां जी से बहस करनी हो तो अंग्रेज़ी में। भाई से फ़ोन पर लड़ना हो तो अंग्रेज़ी में। बैंक के कस्टमर केयर एक्ज़ेक्युटिव पर सही वक्त पर कार्ड और पिन ना भेजने की कोफ़्त निकालनी हो तो अंग्रेज़ी में। अपनी किसी दोस्त के सामने इस नामुराद ज़िन्दगी जीने का रोना रोना हो तो अंग्रेज़ी में।

ये और बात है कि उन्हें अंग्रेज़ी भी ठीक-ठाक समझ आने लगी है अब तो। सोचती हूं, अपनी भड़ास निकालने के लिए फ्रेंच सीख लूं, या फिर चाइनीज़ ही, लेकिन बड़ी आसानी से ये भूल जाती हूं कि बच्चे भाषा के मोहताज नहीं होते। उन्हें आपकी आवाज़ के उतार-चढ़ाव और चेहरे के भाव पढ़ने का पैदाइशी हुनर आता है। 


तो दरअसल हम हैं डिनायल मोड में, जो बच्चों की नादानियों में अपने एडल्टहुड की बदगुमानियां जीते हैं। परिस्थितियों को पहचाने और उनके मुताबिक पेश आने की कला सीखनी हो तो चौबीस घंटे के लिए पांच साल के बच्चों की तरह बन जाइए। ज़िन्दगी के वो क़ीमती नुस्खे मिलेंगे जिसे कोई मनोवैज्ञानिक, कोई ज्ञानी, कोई कवि-लेखक-कलाकार और दुनिया का सर्वश्रेष्ठ गुरु सीखा नहीं सकता। 

अभी सोमवार की ही बात है। बच्चे स्कूल से आकर अपने कमरे में काग़ज़ के फूलों में रंग भर रहे थे। वॉटर पेंट, क्रेयॉन्स, पेंसिल, इरेज़र और बिखरी हुई कलरिंग की किताबों के बीच इतनी भी जगह ना थी कि मैं उनके पहलू में बैठ सकूं। थोड़ी देर तक खड़े होकर उनकी खिलखिलाहटों में अपनी आहटें घोलने के बाद मैं वापस अपने कमरे में चली आई।

मैं टूट जाने के कगार पर थी और घर से भाग जाना चाहती थी। ये मुझसे नहीं होगा... किस काम के रिश्ते, और उनको ढोना जो अपनी ही कई कुर्बानियां मांगता हो... हम किस गफ़लत में जिए जाते हैं... किस उम्मीद में कि मृत्युशैया पर होंगे और ज़िन्दगी का लेखा-जोखा कर रहे होंगे तब कोई पछतावा नहीं होगा, इसलिए जिए जाएं इस तरह कि जैसे सब जीते हैं अपनी-अपनी परेशानियां और दुखों के साथ? हौसले का बिखर जाना सबसे बड़ा सदमा होता है, और जाने क्यों उस शाम ऐसा ही लग रहा था कि अब हौसला नहीं है और जूझने का।

ईश्वर के लिए ये सही वक्त था कि मुझे शुक्रगुज़ारी का एक और तरीका सिखाता। और वो भी उस बिटिया के ज़रिए, जो सब जानती-समझती है; जिसकी आंखें ताड़ जाती हैं हर भाव और जिसे अपने तरीके से जीना भी आता है, ज़िन्दगी के पाठ सिखाना भी आता है... बिटिया, जो मेरी सबसे बड़ी टीचर है।

एक सफ़ेद लिफ़ाफ़ा लेकर आई थी वो, जिस पर हरे रंग के स्केच पेन से मेरा नाम अंग्रेज़ी में लिखा था - कैपिटल लेटर्स में - ए, एन, यू। "पापा ने भेजा है," उसने कहा तो मुझे थोड़ी हैरानी हुई। ड्राईंग रूम में टीवी देख रहे आद्या के पापा मुझे लिफ़ाफ़ा क्यों भेजेंगे? जो कहना होगा, आवाज़ देकर बुलाएंगे जहां होंगे, और फिर कहेंगे। लेकिन आद्या किसी और वजह से क़ासिद बनी हुई थी इस लम्हे, और लिफ़ाफ़े से निकला ख़त जब खुला तब जाकर मजमून समझ में आया।

"आई लव यू अनु", ये लिखा था ख़त में, और वो भी आद्या की हैंडराइटिंग में। 


सुना था कि बच्चे मां-बाप के बीच पुल बन जाने का काम करते हैं। उस पल पहली बार महसूस भी कर लिया था।


उस काग़ज़ के टुकड़े पर उतर आई कुछ गर्म बूंदों ने बड़ी राहत पहुंचाई थी। हौसला लौट आया है, और यकीन भी।

मैं कब बिखरती हूं, क्यों बिखरती हूं, कब बनती हूं और कब बिगड़ती हूं, तुम्हें सब है पता, है ना आद्या?


मंगलवार, 3 जुलाई 2012

गर्मी छुट्टी डायरिज़ समापन: और मैं सुघड़ गृहिणी ठहरी!


गर्मी छुट्टियों से वापस आने का अफ़सोस ज़्यादा इसलिए सालता है क्योंकि पूरब में आषाढ़ के आगमन की आहट छोड़कर हम भट्ठी में झोंक दिए गए हैं। फिर छुट्टियां ख़त्म होना यूं भी किसे रास आता है? जैसे-जैसे जाने की घड़ी नज़दीक आ रही है, सासू मां की लिस्ट लंबी होती जा रही है।

मेरे साथ सालभर की सौगात आती है - घर के पिसे हुए सूखे मसाले, दार्जिलिंग की ख़ास लौपचू चाय, घर के पेड़ से तोड़ा हुए तेज़पत्ता, दालचीनी, खेतों के सरसों का पेरा हुआ तेल, आम और मिर्ची का अचार, बेसन के लड्डू, गाय का घी, गुड़, शहद, मूढ़ी, चूड़ा और सत्तू। हां, कम-से-कम एक बोरा आम भी, जिसे किसी तरह लड़-झगड़कर एक टोकरी करवाया जाता है। पैकिंग में दो लोग जुटते हैं और ये कम-से-कम अठतालीस घंटे चलनेवाला कार्यक्रम होता है। ये कोई नहीं सोचता कि बहू अकेली अनपैकिंग करते हुए कैसे ज़ार-ज़ार रोएगी।

तो हो गई पैकिंग और इस बार तो साथ में सिलिगुड़ी के एयरपोर्ट मोड़ बाज़ार से खरीदे गए कांच के बर्तन और सात किस्म के चाकू भी हैं। मुझे पटना तक छोड़ने आए पापा आठ बार हिदायत दे चुके हैं - पैसे की चिंता मत करना। कम-से-कम दो कुली ले लेना। मैं भी सांस-ही-सांस में कुछ बुदबुदाती हूं - जेतना के बबुआ ना ओतना के झुनझुना। इसी सामान के चक्कर में हर साल फर्स्ट एसी की टिकट कटवाना पड़ता है, पूरा एक कूपे बुक होता है आम, लीची और मसालों के लिए। मज़ाक थोड़े है कि सत्तू और चूड़ा के बिना तो हमारी एक शाम नहीं कट सकती दिल्ली में!

दो बच्चों और एक दर्ज़न सामान के साथ लौट आई हूं दिल्ली, और कुली (और पतिदेव) से बहस-मुबाहिसे करते हुए घर भी पहुंच गए हैं हम। सब अनपैक हो गया है, बस घर से आए सामान को खोलने से बचती रही हूं। बात दरअसल ये है कि इसके लिए पहले रसोई की सफ़ाई भी ज़रूरी होती है। वो डिब्बे और मर्तबान खुलने लगे हैं जिनमें महीनों से झांका नहीं मैंने। मर गए। घी तो रखी हुई है अभी। तेल भी है। मसाले के डिब्बे भी खाली नहीं हुए। स्टील के तीन बड़े डिब्बों में मूढ़ी है और शहद में मरी हुई चींटियां तैर रही हैं। सत्तू में कीड़े जैसा कुछ चल रहा है और अचार के मर्तबान तो खुले ही नहीं। मेरी मां पिछली बार जो नींबू के अचार डालकर धूप में सूखने के लिए बालकनी में रख गई थी, उसे मैंने दस दिन बाद उठाया था - तब जब ओस और धूप ने अचारनुमा चीज़ की मिट्टी पलीद कर दी थी। हाय, ये आंवले का मुरब्बा बनाने में भी मम्मी ने कितनी मेहनत की होगी। इसमें फफूंदी लग गई है। और एक डिब्बे में तिल के लड्डू बंद पड़े हैं। तिल तो जाड़े में खाते हैं ना? यानि छह महीने से यूं ही...

सारे डिब्बों को निकालकर मैंने सफाई अभियान या यूं कहिए कि जनवितरण अभियान शुरू किया है। नए-पुराने सारे सामान कामवालियों, गाड़ी साफ करनेवाले भैया और खाना बनानेवाली महरी के नाम पोलिथीन में बंद करने लगी हूं। केरल से आए गर्म मसाले, श्रीनगर से आया बादाम और अखरोट, सदर बाज़ार से टांगकर लाए गए नमकीन, सासू मां के खेतों का मूंग, मायके के खेतों का कतरनी चूड़ा, ननिहाल की गोड़िन का बनाया हुआ मकई और चने का भूंजा - सब बांट दूंगी। आम भी, कि सड़ जाएं इससे अच्छा है कोई खा ले।

ठीक छह दिन में मम्मी को सीवान से आना है मेरे पास। फोन पर पूछती हूं, क्या ले आएंगे तुम्हारे लिए बबुनी? भूंजा एकदम ताज़ा है, घर का समझ लो। मामाजी खूब बढ़िया चावल दे गए हैं। खीर अच्छी बनेगी उससे। बाबू लोग बेसन का लड्डू पसंद से खाएगा कि ठेकुआ-खजूर? लंगड़ा आम लेते आएंगे? मैं तीस सेकेंड तक मौन हूं। बता दूं अपनी मां से कि उनकी बेटी कितनी सुघड़ गृहिणी है?