सोमवार, 26 दिसंबर 2011

सहर तक अंजाम है ख़ाक हो जाना

रांची में हमारे घर के दाईं तरफ एक आदिवासी बस्ती है। बमुश्किल चार-पांच घर होंगे उसमें, और उनकी चार पीढ़ियों को हमने वैसे ही देखा है जैसे उस बस्ती ने हमें बड़ा होते देखा होगा। घर से बाहर रातू रोड तक जाने के लिए उस बस्ती से होकर एक शॉर्टकट रास्ता जाता है। हमें हमेशा उस रास्ते से ना आने जाने की सख्त हिदायत दी जाती रही है, और हम उसी लगन से हर बार उस हिदायत को अनसुना करते रहे हैं। बस्ती के बाहर कोने पर पीपल का एक बड़ा-सा पेड़ है जो हमारी रातों की नींदों में भूत-प्रेत और डायनों के डरावने सपने भरने के लिए काफी हुआ करता था। पेड़ से परे कुछ तीस फीट की दूरी पर एक कोना था जहां मरने के बाद उस बस्ती के लोगों को दफनाया जाता था। शहर के तमाम कब्रिस्तानों की तरह उस कब्रिस्तान पर भी अब इंसानों की बस्तियां उग आई हैं अब तो। पीपल के पेड़, बस्ती और हमारे छोटे से मोहल्ले के ठीक बीचोंबीच एक खाली जगह है जो कूड़ा-करकट फेंकने के काम आता है। उस गड्ढेनुमा खाली जगह से उठकर मलेरिया और ब्रेन फीवर जैसी बीमारियां हवाओं में तैरा करती हैं।

एक रात सपने में देखा कि उस गड्ढे में ढेर सारा पानी जमा हो गया है - मटमैला और ठंडा। कभी गड्ढा तालाब जैसा लग रहा है, कभी दरिया जैसा। उसके किनारे बने कच्चे रास्ते पर मैं अपने भाई के साथ खड़ी हूं और मेरे साथ हमारे पड़ोस की एक दीदी (मेरी दोस्त गुड्डी की बड़ी बहनों में से एक) है जिनसे मैं कई सालों से नहीं मिली। मैं और भाई पानी में उतरने पर आमादा हैं, सुषमा दीदी हमें नसीहतें दे रही हैं। भाई ने छलांग लगा दी है और मुझे कपड़ों के मैले हो जाने की चिंता है। घर में वैनिश भी तो खत्म हो गया है! डरते-डरते मैं पानी की गहराई नापने के लिए एक पैर नीचे उतारती हूं, संतुलन बिगड़ा है या किसी ने मुझे खींचा है, ये याद नहीं लेकिन मैं ना चाहते हुए भी पानी के भीतर हूं। भाई दरिया के बीच में कहीं दिखाई दे रहा है, और मुझे डर है कि कहीं वो डूब ना जाए। उसके साथ कोई और डूब रहा है - मेरे पति हैं, मेरा सबसे छोटा भाई, मुझे ये सूझ नहीं रहा। किनारे की कच्ची पगडंडी पर फिसलते हुए मैं गीली, मिट्टी से तर-ब-तर बाहर निकल आई हूं। याद नहीं, बाकी डूब गए या साथ निकल आए हैं।

कल ख़ैरात की एक और रात को भरने की कोशिश में मैंने कई उल्टे-सीधे काम किए - चुन-चुनकर वो गाने सुनती रही जिससे नज़र-ए-आब को बरसने के बहाने मिले, हीटर की रौशनी में कविताएं पढ़ती रही और आधी-अधूरी कहानियां बुनीं। भाई के साथ काफ़िया मिलाया और थककर नींद के आने का रास्ता देखती रही। आधी-अधूरी नींद में ख्वाब ने फिर उसी पीपल के पेड़वाले रास्ते का रुख किया जहां एक रात डूबने-उतराने का डर गलती से छोड़ आई थी।

उस गड्ढे में पानी नहीं दिखता अब, लेकिन बर्फ है या दलदल समझ नहीं पा रही। कभी लगता है छांगू लेक के किनारे खड़ी हूं कभी लगता है नताशा के घर के पीछे वाले पार्क के कोने का तालाब है। साथ में मेरा छोटा भाई खड़ा है, सबसे छोटा वाला। हाथ पकड़कर कहता है, चलो दीदी, घर पहुंच जाएंगे। मैं डरती हूं, पैरों के नीचे बर्फ पिघली तो, या दलदल में ही जा गिरे तो क्या हो? वो अपनी डिंपलवाली हंसी हंसता है और दो कदम आगे चलता है। मुड़कर मेरी तरफ देखता है और आगे आने का इशारा करता है। उसके आगे बढ़ते ही पैरों के नीचे घास उग आई है। लेकिन वैसी ही पीली और ठंड से सिकुड़ी हुई जैसी कड़क सर्दियों में रांची के लॉन में दिखा करती थी। अरे, ये तो सख़्त ज़मीन है, मिट्टी, मैं कहती हूं। हां, अंकुर फूटेंगे यहां से, पेड़ भी निकलेंगे, वो कहता है। लेकिन घर तो चलो इस रास्ते से। डरती क्यों हो? मैं दाहिने पैर से अपने नीचे की ज़मीन का जायज़ा लेती हूं। सख्त है, लेकिन एक बित्ता दूर बर्फ है शायद, या फिर दलदल। मैं नहीं बचूंगी। पैर पीछे खींच लिए हैं। वो पीछे आकर मेरा हाथ पकड़ लेता है और फिर मेरा कंधा। हमने वो रास्ता पार कर लिया है।

घर के आगे बच्चे हैं, थोड़ी दूर एक पहाड़ है और पूरे पहाड़ पर बिखरे हुए पीले फूल हैं। घसियारिनें घास की गठरियां बांधे सड़क के किनारे चल रही हैं और हम भूपेन्द्र की आवाज़ सुनते हुए गाड़ी में चलते जा रहे हैं।

गाड़ी में मुझे कोई जानी-पहचानी शक्ल क्यों नहीं दिखती? मेरे दोनों भाई कहां गए? मनीष और बच्चे? उन्हें कहां छोड़ दिया मैंने? मैं किस कारवां की ख्वाहिश में निकलती हूं? कौन सा सफ़र है ये और मंज़िल कहां है मेरी?

सुबह उठते-उठते मैंने ये कव्वाली अपने प्लेलिस्ट में डाल दी है।


"मेरे नामुराद जुनून का है इलाज कोई तो मौत है
जो दवा के नाम पे ज़हर दे उसी चारागर की तलाश है"



1 टिप्पणी:

विभूति" ने कहा…

गहन अभिवयक्ति........