शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013

चोट, स्टिच और कविता

किसने कहा था कि मेरी ज़ुबान काली है? किसने कहा था कि सपनों में आने वाले दिनों के संकेत छुपे होते हैं? जाने किसने कहा था, लेकिन दोनों बातें सौ फ़ीसद सही निकलीं - उन तमाम अंदेशों की तरह जो मेरे दोस्त, मेरे शुभचिंतक हमेशा मेरे लिए ज़ाहिर किया करते हैं और जिन्हें नज़रअंदाज़ करते हुए मैं अपनी धुन में चलती चली जाती हूं। ठोकर हर हाल में लगनी है। बेहतर है कि ख़ुद के चुने रास्ते पर ख़ुद की शर्तों के साथ ठोकरें खाई जाएं।

बहरहाल, भूमिका बहुत हुई और मैं मुद्दे पर आती हूं। तो सपना ख़ौफ़नाक तरीके से सच निकला। आदित को चोट लगी आज। बुरी तरह। मैं घर पर नहीं थी और मेरे पास आद्या का फ़ोन आया। "मम्मा, जल्दी आओ। आदित गिर गया और और उसको बहुत-बहुत सारा ख़ून निकल रहा है।"

मैं घर में मौजूद इकलौती वयस्क - बच्चों की मौसी रुचि से बात करना चाहती थी। "मौसी फ़ोन पर नहीं आ सकती। वो आदित को बाथरूम में लेकर खड़ी है। उसके मुंह से ख़ून निकलना बंद नहीं हो रहा।"

आनन-फ़ानन में दो-चार नसीहतें देकर मैं घर की ओर भागी। ऐसी भागी कि दो ट्रैफिक सिग्नल तोड़े, एक ट्रैफ़िक पुलिस के रोके जाने पर गाड़ी को और तेज़ कर दिया (जाने इसका नतीजा क्यो होगा) और उल्टे-सीधे तरीकों से ओवरटेक करते हुए हांफते-सांस फुलाते किसी तरह घर पहुंची।

अस्पताल, सूजा हुआ मुंह, निकलता हुआ ख़ून और उन सबके बीच धीर-गंभीर सा एक बच्चा।

"डॉक्टर अंकल सुई भी देंगे?"

"हां बेटा। टिटनस की।"

"अच्छा। मुंह में भी देंगे?"

"हो सकता है। अनीस्थिसिया। स्टिच लगाने से पहले, ताकि तुम्हें दर्द ना हो।"

"आप मेरे पास होगे मम्मा?"

"शायद। हो सकता है डॉक्टर अंकल मुझे थिएटर से बाहर भी कर दें। मैं बाहर वेट करूंगी।"

"अच्छा। मेरे दांत टूट जाएंगे तो मुझे दर्द भी होगा?"

मैंने दांतों को हिलाकर देखा। मसूढ़ों से और ख़ून निकल पड़ा। इस बच्चे ने किस बुरी तरह ज़ख़्मी किया है ख़ुद को।

मैं आदित के कटे हुए होंठे, बहता हुआ ख़ून, टूटे हुए दांत के बीच अपना काम करती रही - गाड़ी चलाना, एटीएम से पैसे निकालना, बिल भरना, दवाएं लेकर आना... ऐसे कि जैसे ये सब रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का हिस्सा हो। मुझे एमरजेंसी में और लोगों को देखकर घबराहट भी नहीं हुई। मुझे ख़ून सने कपड़े देखकर घिन नहीं आई। ना जी मिचला। मैं अपने-आप से हैरान थी। एक साल भी नहीं हुआ इस बात को... पिछली गर्मी छुट्टियों में हम पूर्णियां में थे और मनीष के पीठ पर एक घाव हो गया था। किसी किस्म का सिस्ट जिसमें बुरी तरह इन्फेक्शन हो गया था। उस सिस्ट की ड्रेसिंग का काम मां करती थीं - मेरी सासू मां, क्योंकि मुझसे ज़ख़्म देखे नहीं जाते। किसी को सुई पड़ते देखकर मरीज़ से ज़्यादा मेरे चिल्लाने का ख़तरा रहता है। तो हुआ यूं कि छत पर खड़ी होकर मां मनीष के ज़ख़्म की गर्म पानी से सफ़ाई कर रही थीं। उन्होंने मुझे ये देखने के लिए बुलाया कि घाव सूखा है या नहीं, एक बार छूकर देख लो। मैं डरते-डरते पहुंची। तबतक मां घाव को दबाकर उससे पस निकालने लगीं।

आपको मेरी बात का यकीन नहीं होगा, लेकिन सिर्फ़ इतने से ज़ख़्म को देखकर मैं वहीं छत पर खड़े-खड़े गश खाकर ज़मीन पर गिर गई। होश आया तो बेचारे मनीष अपनी तकलीफ़ छोड़कर मेरे मुंह पर पानी के छींटे मारने में लगे थे और मां मुझे संभाले बैठी थीं। कई दिनों तक इस बात को लेकर मेरा मज़ाक उड़ाया जाता रहा। हम भी बेशर्म होकर खुद को सुकुमारी डिक्लेयर कर बैठे।

सुकुमारी मां के रूप में आती है तो सब बर्दाश्त करना सीख जाती है। अलर्ट होना, एमरजेंसी सिचुएशन हैंडल करना, ऑपरेशन थिएटर की बदबू में खड़े रहना, पट्टियां बदलना, एंटिबायोटिक का ठीक-ठीक डोज़ देना, अपने करीबी दोस्तों से मदद मांग लेना, उन्हें आवाज़ देकर बुला लेना - सबकुछ। कमाल है कि स्टिच वाले मुंह में खाना डालने के तरीके भी आ जाते हैं और दर्द के बावजूद थपकी देकर सुला देना भी। कमाल है कि इस बारे में बेबाकी से लिखना भी आ जाता है, और सोते हुए बच्चे के सिरहाने बैठे हुए उसपर इतना प्यार भी आ जाता है कि टूटी-फूटी कविताएं तक निकल आती हैं।



कहां से लाएं
शब्दों की दौलत
कहने की मोहलत
सुनने की फ़ितरत
जो लाना ही है
तो मांग न लाएं
तुमसे हमारा गुज़रा हुआ वक़्त?



मुल्तानी मिट्टी
आंवला और रीठा
पपीते का पैक
संतरे का छिलका
नाख़ून पर रंग
बालों पर रोगन
चम्मच-भर नींबू
ज़र्रा भर शहद

ज़ुबां की मिठास
आंखों की प्यास
जिस्म की ख़ुशबू से
दुनियादारी का क्या वास्ता?



धीमे धीमे
आंच जलाओ

अब दिल का
एक डोंगा चढ़ाओ

भर दो उसमें
इश्क का पानी

अपने आप को  
उसमें मिलाओ

पकने दो और
भूल भी जाओ

हाथ जलाओ
हाथ हटाओ

इस गाढ़ी चाशनी को
अब जहां चाहो, बांटकर आओ

मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

एक बिचारा प्यार, एक मैं और एक तुम

अजीब-सा सपना था। मैं आदित की बुरी तरह पिटाई कर रही थी। इतनी ही बुरी तरह कि ये लिखते हुए सपने का ख़्याल भी दिल की धड़कनें तेज़ कर देता है। घबराकर उठी और सबसे पहले उसके चेहरे को टटोला। वो चैन से सो रहा था।

मुझे कमरे में हल्की कुदरती रौशनी के साथ सोने की आदत है। मैं पर्दे गिराकर, खिड़कियां बंदकर नहीं सो सकती। बाहर से आती रात की अंधेरी रौशनी चाहिए। सबकुछ नियंत्रण में लगता है फिर, कि जैसे भीतर-बाहर सामंजस्य हो। शुक्र है कि रौशनी थी। वरना ऐसे ख़तरनाक ख़्याल ने मुझे और बेचैन कर दिया होता। खिड़की से आती स्ट्रीटलाईट की रौशनी में आदित का चेहरा देखती रही - बहुत देर तक, एकटक। हां, रात के आठ बजे इसे एक थप्पड़ पड़ा था - कई मिनटों की मशक्कत के बाद भी हैंडराइटिंग ठीक ना कर पाने के लिए। नहीं जानती कि सच था कि ख़्याल था - उस थप्पड़ का लाल निशान मुझे अंधेरे में अब भी दिख रहा था उसके दाहिने गाल पर। थप्पड़ तो आद्या को भी लगा था एक, पांच बार बताने के बावजूद सेन्टेन्स का पहला लेटर कैपिटल नहीं लिखने के लिए।

यही गिल्ट रहा होगा कि ऐसे आधी रात सताने आ गया। हम हालांकि सुकून से ही सोए थे। बच्चों से सख़्ती कर लेने के तुरंत बाद मैं उन्हें अपने आस-पास रखना चाहती हूं। उन्हें कहीं, किसी और के पास नहीं भेजती। मेरे बच्चों के साथ की ये उठापटक, सख्ती, प्यार, अनुशासन - सबपर मेरा एकाधिकार है। आदित मुंह खोलकर सो रहा था। दूसरी तरफ़ आद्या थी। तकिए पर बेसुध उसके काले घुंघराले बालों को देखकर सोचती रही - इसे और मुझे - दोनों को हेयरकट की ज़रूरत है। नए कपड़ों, नए जूतों की भी। शायद हम तीनों को एक छुट्टी की ज़रूरत है - जहां किसी चौथे का कोई दख़ल न हो। हां, अपने बच्चों के साथ अपने वक़्त को लेकर मैं ख़ुदग़र्ज़ हूं, बहुत ख़ुदग़र्ज़। इसलिए क्योंकि दिन-रात, दर्द-बीमारी, सीखने-बिगड़ने के कई अकेले लम्हे हम तीनों ने अकेले बिताए हैं।

मैं गगन के बारे में सोच रही थी। गगन मेरी दोस्त है, मेरी डॉक्टर भी। सुबह-सुबह फोन किया था उसने - रोते हुए। मैं बहुत बुरी हूं। मैं मर जाना चाहती हूं। मैंने आज सिमर को बाल से खींचा और उसे ज़ोर से थप्पड़ मारा। मैं अपने इकलौते बेटे के साथ ऐसे पेश आई। गगन रोती रही और मैं उसे फोन पर समझाने की नाकाम कोशिश करती रही।

मुझे अपनी मां बेतरह याद आ रही है इस वक़्त। मम्मी हम तीनों को लेकर ऑब्सेस्ड थी। इस हद तक कि हमारी नींद सोने और हमारी नींद जागने की कई सालों की उनकी आदत अबतक नहीं बदली है। मम्मी हमें उस चिड़िया की तरह अपने डैनों में छिपाए रखने की कोशिश करती रही जिसे हर वक़्त किसी ख़ूखार बिल्ली के हमले का डर सताता रहता है। मम्मी हमारी पढ़ाई को लेकर भी हद से ज़्यादा संजीदा थी। उन्हें अंग्रेज़ी नहीं आती थी, लेकिन अंग्रेज़ी स्कूलों में पढ़ रहे बच्चों का शब्दज्ञान बढ़ाने के लिए उन्होंने डिक्शनरी रटना शुरू कर दिया था। हमें कई सालों तक मम्मी ने ख़ुद पढ़ाया - खुद पढकर। हमें अपनी हथेली के पीछे पड़े दाग़ अभी तक नहीं भूले जो ख़राब हैंडराइटिंग लिखने की सज़ा के रूप में मिलते थे। मम्मी अपनी बेवकूफ़ी में मेडिकल की पढ़ाई अधूरी छोड़कर आई थी और इसका अफ़सोस इतना गहरा था कि हमें कोई भी काम अधूरा छोड़ने की अनुमति नहीं थी। ये मेरी मां का सख़्त चेहरा था। उनका नर्म रूप एक सौ अस्सी डिग्री का घुमाव था। मम्मी हमें हर रोज़ सुबह भजन या गीत गाकर उठाती। बहुत बड़े हो जाने तक भी हमें गले से लगाना, अपने गोद में लेना, सिर के बाल सहलाना - इन सबमें उन्हें कोई बुराई नज़र नहीं आई।

फिर एक दिन मम्मी ने हमें आज़ाद छोड़ दिया। उनका अब हमारी ज़िन्दगी पर कोई दख़ल नहीं। आज तक सिर्फ़ एक बार उन्होंने मेरे न आने की शिकायत की है, वरना हमसे ये तक नहीं पूछतीं कि तुम लोग मुझसे मिलने आते क्यों नहीं। मेरी मां से फ़ोन पर मैं ज़िन्दगी को लेकर कोई शिकायत नहीं कर पाती। मैंने आजतक और बेटियों की तरह उनसे कभी ससुराल का रोना नहीं रोया। वो पूछती नहीं। मैं बताती नहीं। फिर भी मैं जानती हूं कि उनसे बेहतर मेरे हालात, मेरी तकलीफ़, मेरे सुख और मेरा अच्छा-बुरा कोई नहीं समझ पाता होगा।

मैं अक्सर हैरान होती हूं कि सोलह साल तक बच्चों की ज़िन्दगी को सांस-सांस जीने के बाद उन्हें उन्मुक्त छोड़ दिया जाना कैसे किया होगा उन्होंने? कैसे तय कर लिया होगा कि मैंने अपनी जिम्मेदारी निभाई, अब इनका किया इनके नाम? दो दशक के बाद धीरे-धीरे कैसे काटी होगी गर्भनाल?

मैं इसी वक्त - रात के तीन बजे - गगन को फोन लगाना चाहती हूं। उसे कहना चाहती हूं कि मेरी मां अक्सर हमसे अपनी नाराज़गी, प्यार न मिल पाने की तकलीफ़ और ख़ुद को मिले अपमानों का बदला निकालती थी। मेरी मां भी अक्सर हमसे ठीक वैसे ही पेश आ जाया करती थी कि जैसे हम अपने बच्चों से आते हैं आजकल। फिर भी मेरी मां से बेहतर मुझे किसी ने समझा नहीं, न उतना प्यार किसी ने दिया। मम्मी के दिए हुए प्यार का ख़्याल भर अंदर के ज़ख़्मों पर मरहम लगा देता है। मम्मी की गर्दन में मुंह घुसाकर सो पाने की एक ख़्वाहिश हर मुश्किल दिन को आसान कर देती है। मम्मी को गले लगाने का सोचते ही लगता है कि सब ठीक हो जाएगा।

मैं गगन को ठीक यही बताना चाहती हूं, कि प्यार हर दर्द का इलाज होता है। हर अपमान की टीस प्यार से भरी जा सकती है। अपनी मां के बारे में प्यार से सोच लो तो पूरी दुनिया को उसकी दी हुई तकलीफ़ों के लिए माफ़ करना आसान हो जाएगा। अपने बच्चे की गर्दन में हाथ डालकर उसे अपनी तरफ़ खींचकर उसकी आंखों में आंखें डाले उसकी नाक चूम लो तो हर ख़लिश भर जाएगी। सच तो है कि बच्चों पर हाथ उठाना सही नहीं, लेकिन ये भी सच है कि हम और तुम भी तो ढेर सारे प्यार के हक़दार हैं। जो प्यार मिलेगा नहीं तो हम प्यार बांटेंगे कैसे? जो हिस्से में अपमान और क्लेश ही आएगा तो हम बदले में और क्या दे पाएंगे?

हम उस समाज के वाशिंदे हैं जहां औरत को सेविका मानने का प्रचलन रहा है, यहां उनके हिस्से कुछ नहीं आता। मां सारे नाज़-नखरे उठाएगी, बीवी घर चलाएगी और सब्ज़ी का झोला उठाएगी, बहन पानी का ग्लास थमाएगी और खाना लगाएगी, एक ख़ूबसूरत बेटी हमारे परिवार की शान कहलाएगी। उस औरत को ढेर सारा प्यार दिया जाए, ख़ूब सारा प्यार - ये किसी के ज़ेहन में भी नहीं आता। मेरे भी नहीं, कि मुझे अपनी मां को आई लव यू कहना चाहिए, मुझे अपनी सास को बार-बार गले लगाना चाहिए या फ़िर मुझे अपनी भाभियों का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि सबने कितने-कितने तरीकों से क्या-क्या संभाले रखा है।

गगन से मिलूंगी जल्द। उसे गले लगाऊंगी और उसका हाथ थामकर हम ख़ामोशी से पार्क की बेंच पर बैठे रहेंगे देर तक। प्राणायम करने के बहाने अपनी हथेलियों से चेहरे पर लुढ़क-लुढ़क कर आते आंसुओं को पोंछ डालेंगे और फिर रूख़सती लेंगे - अपने-अपने घरों का रूख करेंगे कि वहां जाकर ढेर सारा प्यार बांटा जा सके - बच्चों से, पति से, घर के और लोगों से। अपने हिस्से का प्यार अपने नाम करने की नाजायज़ कोशिश भी कर लेंगे।

सुबह हो चली है और बच्चों को उठाया है। बासी मुंह मेरी तरफ़ करके मेरी नाक में अपनी नाक सटाते हुए, मेरी गर्दन से लटकते हुए आदित ने कहा है, मम्मा, मैंने गॉड से प्रे किया था कि मुझे आप-जैसी मम्मा मिले। गॉड ने तो दुनिया की बेस्ट मम्मा दे दी।

मेरे सपने का डर धुल गया है और मन भर आया है - ढेर सारे प्यार से, ढेर सारी मुआफ़ी से। अपनी पहली माफ़ी की हक़दार मैं ख़ुद हूं। कमबख़्त रात के उस पल को भी माफ़ कर दूंगी जिसमें ख़ामख़ा की एक सोच आती है जो मेरी पूरी रात ख़राब करती है। 





सोमवार, 22 अप्रैल 2013

फ़िज़ूल है मन की बात कह देना



मैं क्या लिखूं? 

कोई इस बारे में क्या लिख सकता है? 

इस लिखने का हासिल भी क्या होगा? 

उस दिन सुबह टीवी पर पहला फ्लैश देखा था। पांच साल की बच्ची इस बार पीड़िता है। बच्ची। पांच साल की। पांच साल की बच्ची जिसके साथ ना सिर्फ़ बलात्कार हुआ बल्कि उसके साथ ऐसी हैवानियत हुई कि सोचकर रोआं-रोआं कांप उठता है। मैं क्या लिखूं इस बारे में? सारे अख़बारों की पहली ख़बर रही ये। आपने भी पढ़ी होगी। नहीं चाहा होगा फिर भी पढ़ी होगी। अपने सिर को दीवार पर मार देने की ख़्वाहिश जागी थी क्या भीतर? कुछ खौला था? कुछ दरका था अंदर? या पन्ने पलट दिए थे आपने, कि एक दिल्ली का गैंगरेप, एक सीकर रेप केस, एक भंडारा रेप केस भूले नहीं कि एक और। पांच साल की बच्ची है वो, ये कैसे भूलेंगे हम? साढ़े चार साल की एक और बच्ची है जो कहीं दूसरे शहर में अस्पताल में जूझ रही है। शहर का नाम क्या है, इससे फर्क़ नहीं पड़ता। गूगल कीजिए तो चार-पांच साल के बच्चों से जुड़ी ऐसी ६९,४००० ख़बरें मिल जाएंगी आपको - सिर्फ़ भारत के वेब पन्नों से। नहीं जानती कि ऐसी बच्चियों के लिए मर जाने की दुआ ज्यादा शिद्दत से करूं या उसके बच जाने की।

मैं आंकड़ों में बात नहीं करना चाहती फिर भी सुना है कि हमारे देश में हर डेढ़ मिनट में एक बलात्कार होता है। मुझे घिन आती है फिर भी मैंने गूगल करके देखा कि हमारे देश के तकरीबन पचास फ़ीसदी बच्चे यौन शोषण का शिकार हुए हैं – किसी ना किसी रूप में। बच्चे – यानी बेटे और बेटियां दोनों। कभी कोशिश मत कीजिए जानने की, या इस बारे में पढ़ने की। इसलिए क्योंकि हमें अपनी ख़ुशफ़हमियों की दुनिया में रहना है, हमें रातों की अपनी नींदें गुम करना गवारा नहीं। और ये जो ख़बर पढ़ी होगी ना आपने – ये ताज़ा ताज़ा – इससे अब सूखकर जम चुके ख़ून की भी बदबू नहीं आती। ये बलात्कार, यौन शोषण, अत्याचार की पराकाष्ठा है। नर्क की आग की तकलीफ़ इससे वीभत्स होती होगी, मुझे शक है।

मैं क्यों लिख रही हूं इस बारे में? सही है कि फ़ायदा भी क्या है। लेकिन मुझे भी याद रहे और आपको भी कि हमारे आस-पास हो क्या रहा है आख़िर। हम उस समाज के बाशिंदे हैं जहां पीड़ित परिवार को दो हज़ार रुपए का लालच देकर रिपोर्ट ना लिखाने की गुज़ारिश की जाती है। फिर डराया-धमकाया जाता है। हम उस समाज के बाशिंदे हैं जहां बलात्कार की रिपोर्ट लिखाने के लिए जाने वालों को पुलिस थानों में बंद किया जाता है, उन्हें मारा-पीटा जाता है। हम उस कमबख़्त समाज के बाशिंदे हैं जो लड़की-औरत, बूढ़ी-बच्ची या फिर बच्चे तक - किसी को बख़्शने में यकीन नहीं करता। हम उस बदकिस्मत समाज के बाशिंदे हैं जो अपने से कमज़ोर पर हावी होने में अपनी शान, अपनी मर्दानगी समझता है। हम उस बदनाम समाज के बाशिंदे हैं जो अब ना बदला तो गर्त में जाकर अपनी वजूद के निशान भी ढूंढ पाएगा, मुमकिन नहीं।

कौन-सा एंटी-रेप कानून? इस देश में कानून का ख़ौफ़ होता तो यही हाल होता? हमें अपने कानून पर उतना ही यकीन है जितना इस बात पर कि कानून-प्रक्रिया कानून के हाथों से भी लंबी होगी। मैं क्रांतिकारी नहीं। मैं एक सभ्य समाज में सबके समान अधिकारों की पक्षधर रही हूं। आप भी मेरे जैसा ही सोचती होंगी, है ना? लेकिन इस बार कानून और सज़ा का अधिकार अपने हाथ में लेने की तीव्र इच्छा जागी है। जब तक हवस के आगे किसी को कुछ ना समझने वाले शैतान के लिए उतनी ही दरिंदगी से पेश नहीं आया जाएगा, कुछ नहीं हो सकता। अपने हाथ में पत्थर उठाकर सरे-बाज़ार एक रेपिस्ट पर पत्थरबाज़ी नहीं होगी तो ये बंद नहीं होगा। जब तक उसके हवस की वजह काटकर उसके हाथ में नहीं थमा दी जाएगी तबतक अपने आप को, अपनी बेटियों, मांओं, बहनों को कितना भी बचाकर रख लें हम, डर पीछा नहीं छोड़ेगा। लेकिन एक बात बताऊं आपको? सब बातें फ़िज़ूल हैं। विकास की, जीडीपी की, तरक्कीयाफ्ता - अतुल्य भारत की। फ़िज़ूल हैं कानून। फ़िज़ूल है शासन, प्रशासन, व्यवस्था। फ़िज़ूल है शोर-शराबा, हल्ला-गुल्ला, विरोध-प्रदर्शन। फ़िज़ूल है मेरे आपके भीतर की ये तकलीफ़, हमारा ये गुस्सा। फ़िज़ूल है हमारी शर्मिंदगी और हमारा डर, ठीक उसी तरह जिस तरह फ़िज़ूल है मेरा अपने मन की बात आज इस तरह लिख देना। 

(गांव कनेक्शन में मेरा इस हफ़्ते का कॉलम - मन की बात) 

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2013

थक के बैठे हों कि जैसे ज़मीं-आसमां

गुज़री हुई रात की उद्विग्नता लिए जगने का कोई मतलब नहीं होता। रात गई, बात गई। लेकिन कुछ बातें बेसबब बेवजह बेमतलब हैंगओवर की तरह आस-पास टंगी रह जाती हैं। मैं रात भर रोने की वजह ढूंढती रही - यूं जैसे कि कोई गुबार था जिसे निकालने का रास्ता न दिखता हो। रेशमा नाक़ाम रही। गुलज़ार नाक़ाम रहे। बेग़म अख़्तर काम न आईं। किसी ठुमरी-किसी दादरा से जी न बहला। कभी यूं भी होता है कि फ़नकारों और शब्दों के जादूगरों की जादूगरी भी किसी काम नहीं आती। हमें अपने दर्द के फ़साने ख़ुद लिखते होते हैं। उनका आग़ाज़ भी, उनका अंजाम भी।

ये क्या है कि जो शहद-सी रात में भी ज़हर घोलता रहता है? ये क्या है कि जिसको मैं अपने हाथ से धक्का देकर दूसरी ओर कर देना चाहती हूं? ख़ुद से परे। ख़ुद से जुदा। उसके पहलू में होते हुए बहुत सारा आराम, बहुत सारी दिलासाएं और मीठी थपकी जीत लेने के बाद भी मैं नींद में परेशान हूं। टुकड़ों-टुकड़ों में डरावने सपने आते हैं। ट्रक के उन पहियों के नीचे आ जाने का सपना जिनपर गुडईयर लिखा है। गांव के आंगन में बने मिट्टी के चूल्हे में दाहिने हाथ के जल जाने का सपना। पहनने के लिए अपनी अलमारी से साड़ी निकालते हुए हर पल्लू पर मिलनेवाले पैबंद का सपना। यस, वी आर लिविंग इन ए वर्ल्ड ऑफ़ अ कॉमन पीपल, स्माइल्स फ्रॉम द हार्ट ऑफ़ अ फ़ैमिली मैन... पॉल यंग के साथ मैं गाने की कोशिश करती हूं ख़्वाब में, और न गला साथ देता है न सुर।

आंख आदतन पौने छह बजे खुलती है। गीले तकिए और बढ़ी हुई धड़कनों से घबड़ाकर मैं अपनी ही नब्ज़ टटोलती हूं। ऐसा हुआ नहीं कभी कि सुबह का पहला ख़्याल डर हो - संगीन डर, गहरा डर, स्याह डर, भयंकर डर। मुझे कुछ हो गया है। मैं मनीष को जगाना चाहती हूं लेकिन उसको आदित की तरह मुंह खोलकर सोते देखकर उठाने को मन नहीं माना। डर से ख़ुद ही जूझना होगा। मैंने इससे भी मुश्किल घड़ियां देखी हैं। कम-से-कम घर भरा हुआ तो है। लोग साथ तो हैं।

डर से डील करने का मेरा तरीका बहुत ख़राब है। तनाव और दबाव से भी। ये अक्सर या तो नासूर की तरह अंदर पकता रहता है और एक दिन गंदी तरह फूट जाता है या फिर मैं अपने आस-पास के सबसे कमज़ोर शिकार को हल्के-हल्के खरोंचती रहती हूं, उसे चोट पहुंचाती रहती हूं। जब तक अपनी मां के साथ रही, उनके साथ करती रही। आज हाथ में आदित आया है और ट्रिगर है उसका स्कूल जाने से मना कर देना। आद्या का सिक्स्थ सेंस बहुत ज़बर्दस्त है। वो ठीक-ठीक जानती है कि उसे अपनी मां से कब और कितनी दूरी बनाए रखनी है और कब बेहद नज़दीक आना है। वो जानती है कि कब खाना खिलाने के लिए मां की गोद में ठुनकना है और कब मां के हाथ में पानी का ग्लास पकड़ाना है। आद्या आज बिना किसी की मदद के ख़ुद नहा चुकी है, ख़ुद यूनिफॉर्म पहनकर, जूतों में पॉलिश लगाकर नाश्ता करने बैठ चुकी है। आदित कोने में कान पकड़कर खड़ा है। नहीं, मैंने सज़ा नहीं दी। मैंने उससे कुछ कहा तक नहीं, सिवाय इसके कि ठीक है, तुम स्कूल नहीं जाओगे।

आद्या ही नहीं, आदित भी जानता है कि कब कहां कितना रुठना-मनाना है। हम बच्चों की समझ को अक्सर नज़रअंदाज़ करते हैं। उन्हें किससे कहां कैसे पेश आना है, ये बात वो बड़ों से बेहतर जानते हैं।

सुलह की पहल आदित ने की है और हम मिस होती-होती बस भी पकड़ लेने में क़ामयाब हो जाते हैं। आदित बस को हाथ से रोकता है और मेरी तरफ़ घूमकर कहता है, मम्मा, अब तो बस भी आ गई। एक मिट्ठू तो दे दो। मैं उसे गले लगाकर रोना चाहती हूं, लेकिन उसे बस में बिठाकर स्कूल भेज दिया है।

घर आने का कोई मतलब नहीँ। बच्चों के जाने के बाद बेचैनी और बढ़ जाएगी। मैं पार्क में आ गई हूं। दो चक्कर के बाद रोड टू पैराडाईज़ नाम के पौधों की क्यारियों के बग़ल में हरे रंग की बेंच पर बैठ जाती हूं। ऐन्ज़ाइटी कम नहीं हुई। मैं फ़ोन पर बहुत देर तक बेमतलब के स्टेटस अपडेट्स पढ़ती रहती हूं। सब बेचैन हैं। सबके पास वक़्त कम है, शब्द थोड़े हैं और कहने को बहुत सारी बातें हैं। मेरी तरह। यहां भी सुकून नहीं।

"बिटिया, आप प्राणायम नहीं करते?" मुझे ख़्याल ही नहीं रहा कि कब मेरे बग़ल में ये बुज़र्ग़ आकर बैठ गए हैं। एक्स-आर्मी आफ़िसर ही होंगे। शहीद स्मारक पार्क में अस्सी फ़ीसदी जमात इन्हीं की होती है। इनकी मूंछें और हाव-भाव को देखकर जाने-क्यों फ़िल्म 'छोटी-सी बात' के कर्नल जूलियस नागेन्द्रनाथ विल्फ्रेड सिंह यानी अशोक कुमार याद आए हैं जो अरुण यानी अमोल पालेकर को प्रभा का दिल जीतने के हुनर सिखाते हैं। अंकल मुझे पंद्रह मिनट तक अनुलोम-विलोम और भ्रामरी जैसे प्राणायम सिखाते हैं। जल-नेति के फ़ायदे बताते हैं। मेरा ध्यान इनकी बातों के कॉन्टेन्ट से ज़्यादा इनके बोलने के लहज़े पर है जिसे सुनते हुए मुझे जीजाजी कर्नल शर्मा की बात याद आई है, "वी आर ऑल प्रॉडक्ट्स ऑफ़ द सेम असेम्बली लाईन। वी विल ऑल साउंड द सेम।"

मैं शुक्रिया कहकर उठने लगती हूं तो वो कहते हैं, "आई सी यू हियर एवरीडे। यू रिमाइंड मी ऑफ़ माई डॉटर। मैंने तुम्हें तुम्हारे बच्चों के साथ भी देखा है अक्सर। वाई डू दे वेयर ग्लासेस ऐ ट सच एन यंग ऐज? कल मैं तुम्हें एक और एक्सरसाईज़ सिखाऊंगा - आंखों की, बच्चों के लिए।"

मैं हैरान हूं। जिसे मैंने कभी देखा तक नहीं, उसने मुझमें क्या ढूंढ लिया? ये कैसे कनेक्शन हैं? हम कहां से आए लोग हैं? हमारे बीच का कैसा रिश्ता है? ये भी सच है कि पंद्रह मिनट के लिए मैं एन्क्ज़ाईटी हैंगओवर भूल गई हूं। सब अच्छा तो है। मुझपर अजनबी लोग भरोसा करते हैं। मेरे बच्चे मेरी बदली हुई नज़रों को बदल देते हैं। आठ साल की उठा-पटक के बाद मैंने अपने रिश्ते को उस मुक़ाम तक पहुंच दिया है कि जहां लड़ लेने के बाद भी हम एक-दूसरे के मुंह पर दरवाज़े बंद करने की बदतमीज़ी नहीं करते। न मुंह घुमाकर सोते हैं कभी। हम एक-दूसरे की पसंद के लायक चाय बनाना और अख़बार मंगाना भी सीख रहे हैं। मेरी सास अपनी बेटी को आशीर्वाद देते हुए कहती हैं कि बहू मिले तो मेरी बहू जैसी मिले तुमको। मम्मी-पापा अपने-अपने हिस्से की शिकायतें मेरे रजिस्टर में दर्ज कराते हैं। मुझसे सात साल छोटी मेरी भाभी मुझे लगे लगाकर कहती है कि आप ख़ुश रहती हैं तो हम ख़ुश रहते हैं दीदी। भाई मेरी ज़ुबान को पत्थर की लकीर मानते हैं। चंद अपवादों को छोड़कर मुझमें दोस्ती बचाए और बनाए रखने का क़ुदरती हुनर है।

फिर ये डर क्यों है? ये कैसी बेचैनी है? 

घर लौटकर आई हूं तो तूफ़ान मचा है। पापा के फ़िर से कहीं चले जाने और लौट के आ जाने पर। गेट में ताला बंद ना होने पर। मां की थकान और झल्लाहट पर। मनीष की झुंझलाहट पर। मां थककर ठाकुर-स्थान के ठीक नीचे बैठी हैं। मनीष की आंखों में जो बेबसी है उसने रात के गुबार को बाहर निकालने का बहाना दे दिया है।
बेबसी ही है हम सब की। पापा अपनी बीमारी से बेबस हैं। मां अपने जीवन-साथी की बीमारी और थकान से बेबस हैं। मनीष अपने मां-बाप की बेबसी से बेबस है। मैं कुछ कर ना पाने की बेबसी से बेबस हूं और हम सबने अपने-अपने बेबसियों से समझौते कर लिए हैं। हम अपने समझौते के साथ ख़ुश होकर जी ना पाने की हालत में बेबस हैं। एक बीमारी पूरे परिवार को बेबस कर सकती है - कम से कम तीन पीढ़ियों को।

लेकिन किसको अपने मर्ज़ी की मुकम्मल दुनिया मिलती है, बोलो? कोई तरीका नहीं वरना ग़ुलाम अली की एक ग़ज़ल सुनाती जो कल रात से दिमाग़ में घूम रही है -

"हल्के-हल्के ज़मीं पर वो मिटते निशां
थक के बैठे हों कि जैसे ज़मीं-आसमां

ये अंधेरों की बातें अब ना करो
बात मुद्दत के सुलझी है ये दास्तां

जो सुनाए थे तुमने मुझे किस्से कभी
कहते-कहते रुकी है वो मेरी ज़ुबां

तेरी हर बात पे मैंने सिज्दे ही किए
बंदिगी ऐसी देखी है तुमने कहां"



गुरुवार, 11 अप्रैल 2013

पापा के खोने और मिलने के बीच



रात के डेढ़ बजे लैंडलाईन पर आज तक कभी कोई फ़ोन नहीं आया। 

लेकिन २३ मार्च की रात को सुकून की ख़ामोशी ओढ़े घर को नींद से घनघनाते फ़ोने ने जगाया था। ऐसे मौकों पर अंदेशे बिल्कुल साफ़-सुथरे होकर आधी नींद में भी सोचने-समझने की ताक़त को घेर लेते हैं। 

“पापा कहीं चले गए हैं, फ़ोन उठाते ही मां ने कहा और फिर उनकी रुलाई फूट गई। मां और पापा, यानी मेरे सास-ससुर होली हमारे साथ मनाने के लिए कटिहार से दिल्ली डिब्रूगढ़ राजधानी में आ रहे थे और ऐसे कई सफ़र दोनों साथ-साथ साल में कई बार करते हैं। मुश्किल ये है कि आठ साल पहले सिर पर लगी एक चोट की वजह से अब याददाश्त कई बार पापा को तन्हा छोड़ने लगी है और थोड़ी देर के लिए वो ये भूल जाते हैं कि वो कहां हैं, किसके साथ हैं और उन्हें जाना कहां है।

पापा ६५ साल के हैं, और हमारे देश के जीवन-दर के लिहाज़ से उन्हें बहुत उम्रदराज़ नहीं कहा जाएगा। लेकिन कुछ उम्र का असर था, और कुछ बढ़ती दिमागी बीमारी का प्रभाव और कुछ उनकी बैचैन फ़ितरत कि उस रात ट्रेन के मुग़लसराय स्टेशन पर रुकते ही आधी रात को पापा ट्रेन से मंज़िल के आने से पहले ही उतर गए। 

मां की नींद खुली तो ट्रेन प्लैटफॉर्म से खिसकने लगी थी और पापा सामने की सीट पर नहीं थे। ट्रेन रुकवाकर अपने पति को खोजने की मां की सारी कोशिशें नाकाम गईं और उस नाकामी का अपराधबोध और डर हिचकियों में फोन पर निकला।

डेढ़ बजे रात से पापा को खोजने की कोशिश शुरू हो गई। हम कई सौ किलोमीटर दूर थे। मुग़लसराय में हम किसी को जानते तक नहीं थे। लेकिन पैंतालीस मिनट के भीतर आधी रात होने के बावजूद देश के सबसे बड़े जंक्शनों में से एक मुग़लसराय में पैंसठ साल के एक लापता आदमी को खोजने का काम शुरू हो गया। 

मां ट्रेन में थीं, हम दिल्ली में और पापा गुमशुदा थे। हमें रेलवे, पुलिस और मीडिया में बड़े ओहदों पर बैठे कुछ दोस्तों का सहारा था। बावजूद इसके एक ऐसे बुजुर्ग को खोजना मुश्किल था जो भूल जाने की हालत में अपना नाम और घर का पता तक नहीं बता पाते। मुमकिन था कि उन्होंने कोई दूसरी ट्रेन ले ली हो। ये भी मुमकिन था कि वो मुग़लसराय शहर में कहीं खो गए हों। मुग़लसराय से उस वक़्त होकर गुज़रने वाली सभी ट्रेनों और उन सभी स्टेशनों पर गुमशुदगी की रिपोर्ट पहुंचा दी गई जहां पापा के उतरने की संभावना थी। वाराणसी, इलाहाबाद, कानपुर, दिल्ली और हावड़ा के रूट में गया, धनबाद, गोमो, आसनसोल और हावड़ा तक आरपीएफ़ को इत्तिला कर दिया गया। दिल्ली और आस-पास के शहरों से परिवार के लोग मुग़लसराय तक पहुंच गए। घर-परिवार, दोस्त-यार, अनजान लोग तक मदद के लिए आगे आए, सांत्वना दी, फोन करके हिम्मत बंधाते रहे। मनीष को सुबह साढ़ चार बजे एयरपोर्ट के लिए टैक्सी में बिठा आने के बाद से फ़ोन बजना बंद नहीं हुआ। 


स्कूल के दोस्त, कॉलेज के दोस्त, आईआईएमसी के दोस्त, एनडीटीवी के दोस्त, ब्लॉगर दोस्त, ऑनलाईन दोस्त, भूले दोस्त, बिसरे दोस्त, नए दोस्त, पुराने दोस्त... मुसीबत के कुछ घंटों में अपनी ख़ुशकिस्मती का अहसास हुआ। जिसने सुना, मदद के लिए हाथ बढ़ाया। जैसे बन पड़ा, मदद की भी। जहां रहे, हाथ थामे रखा और सहारा देते रहे। 

फिर भी अगले कई घंटों तक पापा की कोई ख़बर नहीं आई। स्टेशनों, बाज़ार और गलियों में ढूंढने की नाकाम कोशिश के बाद अस्पतालों के चक्कर भी लगाए गए। शाम तक हम उनके मिलने की उम्मीद खो चुके थे। 

हमारे देश में हर साल तक़रीबन पांच लाख लोग गुम हो जाते हैं, यानी हर रोज़ १३७० लोग और हर घंटे पचास से ज़्यादा। इनमें से एक फ़ीसदी से भी कम की ख़बर मिल पाती है। गुमशुदगी की वजहें कई होती हैं – मानसिक तनाव, घर छोड़कर चले जाना, ह्यूमन ट्रैफिकिंग यानी मानव तस्करी, अपहरण, दुश्मनी या फिर पापा की तरह भूलने की बीमारी। फिर भी हमारे देश में ऐसी कोई भी केन्द्रीकृत व्यवस्था नहीं है जिससे गुमशुदा की तलाश करना आसान बनाया जा सके। एक अरब पच्चीस करोड़ की आबादी में पांच लाख गुम भी हो जाएं तो इससे देश को बहुत फ़र्क़ नहीं पड़ता, उस परिवार और समाज को ज़रूर पड़ता है जो अपने किसी प्रिय के खो जाने का ग़म लिए पूरी ज़िन्दगी जीता है। ना लौट आने की उम्मीद होती है, ना उसके मर जाने पर यक़ीन करने का मन होता है।

रात घिरने लगी और उत्तर प्रदेश के एक बड़े पुलिस अधिकारी ने मुझे फोन पर कहा, मैं आपको झूठी दिलासा नहीं दूंगा। पुलिस के हाथ में कुछ नहीं। जो है, ऊपरवाले के हाथ में है। हिम्मत बनाए रखिए और दुआ कीजिए कि आपके ससुर जहां हों, ठीक हों। पूरे बीस घंटे में उस लम्हे मैं दूसरी बार फूट-फूटकर रोई थी। पहली बार तब टूटी थी जब मां ने बताया कि पापा अपना फोन और पर्स तक भूल गए हैं। उन्हें लौटकर आने का इकलौता ज़रिया बंद हो गया था। लेकिन इंतज़ार ख़त्म नहीं हुआ था। मुझे यकीन था कि हमारे आस-पास अच्छे लोग ज़्यादा हैं, जो मुसीबत में दर-ब-दर भटकते किसी बुज़ुर्ग को देखकर उनकी मदद ज़रूर करेंगे, और पापा को देर-सबेर ही सही, अपना नाम और पता ज़रूर याद आ जाएगा। लेकिन मुग़लसराय जैसे एक जंक्शन से गुम होने की चुनौती ये थी पापा देश के किसी शहर में भी हो सकते थे। 

ठीक यही हुआ। इक्कीस घंटे के इंतज़ार के बाद हमारे पास कोडरमा से किसी का फोन आया। पापा कोडरमा स्टेशन से पंद्रह-अठारह किलोमीटर दूर एक गांव पहुंच गए थे। ये गांव कई मुसलमान परिवारों की एक बस्ती थी – चाराडीह नाम की। 

टुकड़ों-टुकड़ों में पापा के गुम होने और हम तक उनकी ख़बर आने के बीच की जो कहानी हम तक पहुंची, वो कुछ यूं थी – मुग़लसराय स्टेशन पर उतरने के बाद रात में ही पापा स्टेशन से बाहर चले गए। उन्हें याद नहीं था कि जाना कहां है और आए कहां से हैं। शहर में भटकने के बाद जब ट्रेन में बैठे होने की याद आई तो वापस लौट गए और जो पहली ट्रेन दिखी, उसपर बैठ गए। ट्रेन में नींद आ गई और नींद खुली तो कोडरमा में थे। वहीं उतरकर उन्होंने चलना शुरू कर दिया और धूप के चढ़ने के साथ भूखे-प्यासे रास्ते पर चलते रहे। उन्हें ना कोई नंबर याद था ना जगह की सुध थी। शाम होने लगी तो वो मुस्तफ़ा नाम के एक आदमी के घर के बाहर पड़ी कुर्सी पर बैठ गए और कहा, ये मेरा घर है। मुस्तफ़ा वहीं नमाज़ पढ़ रहे थे। नमाज़ अता करने के बाद मुस्तफ़ा ने बस्ती के और लोगों को आवाज़ दी और पूछा कि कोई इस बुज़ुर्ग को जानता था क्या। बस्ती के लोगों ने पापा से बात करने की कोशिश की। धूप, थकान और घबड़ाहट से बेहाल पापा वहीं गश खाकर गिर गए जिसके बाद मुस्तफ़ा ने मोर्चा संभाल लिया। उन्हें होश में लाने से लेकर उन्हें खाना खिलाने और आराम करने देने की जगह देते हुए उस फ़रिश्ते सरीखे इंसान ने एक बार भी ना सोचा कि ये नया आदमी कौन और इससे मेरा नाता क्या, या फिर इसकी धर्म-जात क्या। पापा ने टुकड़ों-टुकड़ों में अपना परिचय दिया और मुस्तफ़ा बस्ती के लड़कों के साथ मिलकर फोन और इंटरनेट कैफ़े की मदद से उन जानकारियों के आधार पर पापा के घर का पता करने की कोशिश करते रहे। आख़िर में पापा को पटना में रहनेवाले अपने एक बचपन के दोस्त का नाम और घर का आधा-अधूरा पता याद आया। मुस्तफ़ा और बस्तीवालों ने गूगल पर वो आधा पता डाला और कई कोशिशों के बाद पापा के दोस्त से बात करने में क़ामयाब हो गए। 

बाकी की कहानी लिखते हुए मेरे हाथ ये सोचकर कांप रहे हैं कि अगर मुस्तफ़ा ने पापा को अपने घर से निकाल दिया होता तो? या फिर लावारिस समझकर पुलिस के हवाले कर अपने कर्तव्य की इतिश्री ही समझ ली होती? या फिर एक गांव में बैठे हुए तकनीक का इस्तेमाल कर एक भूले हुए आदमी का पता खोजने की नामुमकिन-सी कोशिश ही ना की होती तब?

पापा घर लौट आए हैं और गुमशुदगी और तलाश का ये एक दिन हमें ज़िन्दगी के कुछ अहम और नायाब पाठ सिखा गया है। अपने बच्चों की तरह अपने बुज़ुर्गों का ख़्याल रखना हमारी ज़िम्मेदारी है। जैसे बच्चों को अकेले नहीं छोड़ा जा सकता, वैसे बुज़ुर्गों को भी नहीं। उनकी देखभाल के लिए एक सुदृढृ व्यवस्था का निर्माण वो चुनौती है जिससे पार पाना ही होगा। आमतौर पर गुम होनेवालों में बड़ी संख्या बच्चे, बुज़ु्र्ग और मानसिक रूप से परेशान, तनावग्रस्त लोगों की होती है और उनकी गुमशुदगी पूरी तरह रोकी तो नहीं जा सकती। लेकिन हमारी थोड़ी-सी जागरूकता एक परिवार को बिखरने से बचा सकती है। कहीं किसी भटके हुए की मदद करना एक छोटा-सा ग़ैर-ज़रूरी काम लग सकता है, लेकिन ये छोटा-सा काम किसी एक इंसान और उसके परिवार को बड़े दुख से बचा सकता है। मुस्तफ़ा नाम के एक अनदेखे अजनबी ने सहृदयता का जो पाठ पढ़ाया है, वो भी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा सबक है।


बाकी, पापा को हर रोज़ थोड़ा और बूढ़े होते देखना, थोड़ा और निरीह होते देखना और उनकी सलामती के लिए हर पल सज्दे में बैठी मां को देखना है वो तकलीफ़ है जो न कही जाए तो ही अच्छी। 

(रिपोर्ट के रूप में ये पोस्ट पहले गांव कनेक्शन में प्रकाशित हुई।)