शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

एक निश्छल-सी मुलाकात

"फोन रखो, फोन रखो, मेरे सामने से नवीन निश्चल आ रहे हैं।"

"नवीन निश्चल कौन? देख भाई देख वाले?"

"नहीं। मतलब हां। वही नवीन निश्चल लेकिन हंसते ज़ख़्म और बुढ्ढा मिल गया वाले।"

"जाओ लड़की, तुम्हें बुढ्ढा मिल ही गया आख़िर", मेरी दोस्त ने फोन रख दिया था और मैं खुद को सहेज-समेटकर चेहरे को सामान्य करने की कोशिश करते हुए सामने से आ रहे शख्स की ओर बढ़ गई थी। हम आरे कॉलोनी के एक स्ट़ूडियो में शूट कर रहे थे। मैं मुंबई में नई थी और पर्दे पर नज़र आनेवाले कलाकारों को आंखों के सामने हर रोज़ देखती, लेकिन याद नहीं कि किसी की ओर ऐसे बात करने के इरादे से क़दम बढ़ाए हों। मुझे किसी से बातचीत शुरू करने में बहुत वक्त लगता है लेकिन नवीन निश्चल से जाने क्यों एक बार में बात करने पहुंच गई थी।

"हैलो सर, आर यू आउट ऑन अ ब्रेक?"

"नॉट रियली। बट वी आर गेटिंग रेडी फॉर द नेक्स्ट शॉट। डू आई नो यू, बाई द वे?"

"नमस्ते, मेरा नाम अनु है और मैं पीछे वाले स्टूडियो में प्रोडक्शन देख रही हूं। नाउ यू नो मी। एंड आई नो यू, ऑफ कोर्स।"

"यू नो ऑफ मी।"

"राईट, बट वी कैन स्टिल टॉक, कैन वी नॉट?" मैंने झेंपते हुए कहा।

"ऑफ कोर्स वी कैन। खड़े होकर या बैठे कहीं?"

मैं कुर्सियां खींच लाई। उनका रंग इतना ही गोरा था कि मैं एक बार को सोचती रही कि इनके लिए मेकअप तो दमकती त्वचा को छुपाने के लिए करना पड़ता होगा। सावन भादो में इसलिए रेखा और काली नज़र आती हैं अपने ही गोरे हीरो के आगे।

"कहिए, क्या बात करना चाहती हैं?" वो कुर्सी पर पीछे होकर बैठ गए थे, दाहिनी टांग पर दूसरी टांग चढ़ाकर। हथेलियों की गोरी, लंबी उंगलियां चेहरे को थामे थीं। सफ़ेद बाल पेशानी छोड़कर थोड़ा-सा चांद दिखाते हुए पीछे की ओर खिसकने लगे थे। उनकी गोरा रंग अब आंखों को चुभने लगा था।

"मैं आपकी बहुत बड़ी फैन हूं। मैं 11 साल की थी जब हंसते ज़ख्म देखी थी, 1989 में। जनरल इलेक्शन्स के टाईम में। भूली नहीं हूं वो फिल्म।"

"उम्र क्या है आपकी?"

"जी, बाईस साल।"

"हंसते ज़ख्म आपकी पैदाइश के पहले की फिल्म है।"

जी... (जी में आया कह दूं कि मुझे अपने पैदाइश के पहले की तमाम चीज़ें अच्छी लगती हैं। डिज़ास्टर तो मेरी पैदाइश के साथ ही आया होगा दुनिया में, लेकिन चुप रही।)

"हां, चेतन आनंद की फिल्म थी, मेरी अबतक की सबसे बेहतरीन फिल्मों में से एक... प्रिया एंड आई एज़ द लीड पेयर। प्रिया को पहचानती हैं आप?"

"जी, हीर रांझा आई थी उनकी। गाने सुने, फिल्म नहीं देखी मैंने।"

"हम्म।"

"आस्था भी देखी मैंने", संभलते और डरते हुए कहा मैंने।

"हां, यू आर एन एडल्ट, यू मस्ट हैव सीन इट।" 

मैं तय नहीं कर पा रही थी कि अब बातचीत का सिरा कैसे आगे बढ़ाऊं। फिल्मों पर, देख भाई देख पर, उनके कैरेक्टर रोल्स पर और इस उम्र में भी काम करने की मजबूरी पर। पूछना चाहती थी कि रेखा के साथ सावन भादो करते हुए और फिर २५ साल बाद आस्था में काम करते हुए कैसा लगा होगा? बुलंद सितारे जब गर्दिश में जाने लगे होंगे तो कैसा लगा होगा? आपका कोई परिवार नहीं? कोई अपना नहीं? आप इस उम्र में भी क्यों एक्टिंग करते हैं? क्या एक्टिंग भी लत होती है एक तरह की? कई सवाल मन में थे, लेकिन पूछने में हिचक थी। मैं इन्हें जानती भी तो नहीं। जाने क्या सोचें ये मेरे बारे में।

"आई विल हैव टू टेक योर लीव। बट आई ओ दिस यंग फैन ऑफ माईन अ कप ऑफ टी। चाय?"

मैंने स्पॉट बॉय के हाथ से चाय ले ली। कुछ ना सूझा तो पूछा, आप यहां टीवी सीरियल की शूटिंग करने आए हैं?

"नहीं, एक फिल्म की। इनडोर शूट है। डॉक्टर बना हूं मैं। इट्स ए कैमियो।" (फिल्म का नाम बताया उन्होंने मुझे, लेकिन अब याद नहीं।)

करीब-करीब जीभ जलाते हुए मैंने चाय खत्म की और उन्हें अटपटा-सा थैंकयू कहती हुई वापस अपने फ्लोर पर आ गई।

२००६ में न्यूज़ रूम में खबर आई कि किसी गीतांजली निश्चल की खुदकुशी की। टिकर में डालना है या वीओवीटी बनाना है, मैंने अपने एडिटर से पूछा था। वीओवीटी.... नवीन निश्चल के वीडियो के साथ। गीतांजली ने अपने पति नवीन निश्चल और उनके भाई पर उत्पीड़न का आरोप लगाते हुए खुदकुशी की थी। नवीन निश्चल हिरासत में ले लिए गए और अपनी ज़मानत याचिका में बेगुनाही की गुहार करते हुए उन्होंने कहा कि उनकी पत्नी डिप्रेशन का शिकार थीं और मेडिकेशन पर थीं। उनके एक्सट्रीम मूड स्विंग्स की वजह से उन्हें घर छोड़ना पड़ा था और वो गीतांजली के साथ रहते ही नहीं थे।

उनपर पैकेज बनाते हुए मैं बार-बार नवीन निश्चल से हुई उस छोटी-सी मुलाकात के बारे में सोचती रही। मायानगरी में हक़ीक़त फिल्मों से कहीं ज़्यादा हैरतअंगेज़ होते हैं। जब आरे कॉलोनी में मैंने अपने क्रू को नवीन निश्चल से हुई मुलाकात के बारे में बताया तो मेरे प्रोडक्शन मैनेजर सतीश तेवाणी ने कई कहानियां सुनाईं। उनकी पहली पत्नी नीलू कपूर के बारे में, जो शेखर कपूर की बहन और देव-चेतन-विजय आनंद की भांजी थीं। शराब और शबाब के उनके प्यार के किस्से मशहूर थे और नवीन का नाम पद्मिनी कपिला और उसके बाद पम्मी नाम की किसी महिला से जुड़ा। गीतांजली खुद तलाकशुदा थीं और जब पूरी इंडस्ट्री को नवीन की कमज़ोरियों का पता था तो भी उन्होंने उनसे शादी करने का फ़ैसला किया। फिर नवीन उनकी हालत के लिए कहां ज़िम्मेदार थे? गीतांजली ने जानबूझकर ओखली में सिर नहीं डाला था?

नवीन निश्चल पिछले साल मार्च में एक शूट के लिए रणधीर कपूर के साथ पुणे जाते हुए दिल के दौरे का शिकार हुए और रास्ते में ही उनकी मौत हो गई। कोई वजह है नहीं कि मैं नवीन निश्चल से हुई उस एक मुलाक़ात को ऐसे याद करूं। लेकिन कई बार ज़िन्दगी हमें कई-कई रूपों में अलग-अलग मसलों पर सबक सिखाने आ जाया करती है। जाने संतुलन किस चिड़िया का नाम होता होगा, जाने क्यों कुछ लोग ताउम्र भटकने को अभिशप्त होते हैं और जाने क्यों कोई मुकम्मल ज़िन्दगी किसी को कभी नसीब नहीं होती। लेकिन स्टारडम अपने साथ कई श्राप लिए चलता है और आसान नहीं किरदारों के झुरमुट में, फ़रेबी चेहरों को जीते हुए अपना कोई भी असली चेहरा बचाए रखना। वैसे ये असली चेहरा भी जाने क्या बला है? मुझसे तमीज़ से बात करते नवीन के चेहरे को लेकर कम-से-कम मेरे मन में तो उनके असली रूप को लेकर कोई दुविधा पैदा नहीं हुई थी।

नवीन ने कई बार प्यार किया, कई बार धोखे खाए और दिए और हंसते ज़ख्म की उनकी सह-अदाकारा प्रिया राजवंश ने ज़िन्दगी में सिर्फ एक बार प्यार किया - चेतन आनंद से, और वो प्यार ऐसा निभाया कि चेतन आनंद की मौत के तीन-चार साल बाद ही चेतन के बंगले में ही उनकी हत्या भी कर दी गई। फ़साद की जड़ वो बंगला था जिसका एक-तिहाई हिस्सा चेतन अपने बेटों के साथ-साथ अपनी महबूबा प्रिया राजवंश के नाम कर गए थे।

प्रिया राजवंश की कहानी फिर कभी। फिलहाल उस चमकीली दुनिया के धुंधली, गंदली, मर्की हक़ीक़त को भूलकर हंसते ज़ख्म की एक कव्वाली लूप मोड में चला रही हूं आज के लिए। कैफ़ी आ़़ज़मी के गीत में जादू डाला है मदनमोहन ने।

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012

क्यों हम कुछ नहीं कहते

बचपन में एक कहानी सुनी थी। सात भाईयों की एक नाज़ों पली बहन है, भाई समंदर पार पैसे कमाने बिदेस चले जाते हैं, बहन भाभियों के साथ रह जाती है। बहन से डाह करनेवाली भाभियां उसे एक व्यापारी के हाथ सौंप देती हैं। व्यापारी उसे ब्याह के नाम पर दूसरे शहर ले जाता है। उसकी और बीवियां हैं वहां, कई और शौक, कई और चिंताएं, कई और ख़्वाहिशें। हवेली में अकेली बहन अपने पीहर को याद करती हुई दीवार से सिर मारती है, बावरी होकर इस आंगन से उस आंगन भटकती है। उसके दुख पर तरस खाकर हवेली में सदियों से बसनेवाली एक डायन प्रकट होती है और पूछती है उसके दुख का सबब। घर-बार ले लो, मुझे खुला आकाश दे दो, लड़की कहती है। डायन उसे चिड़िया बना देती है, और कहती है कि तू खुले आकाश में तो होगी, लताओं-पत्तियों की झांझरी में भी उड़ती फिरेगी, लेकिन याद रखना कि तुझे गीत गाकर किसी से कुछ कहना नहीं है। जो तूने कुछ गाने के लिए कंठ खोला तो तुझे लौटकर यहीं आना होगा, इन्हीं चहारदीवारियों में।

पीहर के आंगन में फुदकते फिरने का मोह छोड़ नहीं सकी लड़की और आज भी गूंगी चिड़िया बनी फिरती है। मेरी नानी कहती थीं, उससे तो अच्छा होता कि हवेली में ही रह जाती। कह तो वो कुछ ना सकी, यहां भी नहीं, वहां भी नहीं। कम-से-कम इंसान तो बनी रहती। मैं नानी से बहस करती, चिड़िया बनने में कितना सुख है नानी। यहां-वहां फुदकती फिरो, ना कोई चिंता ना कोई दुख। नानी के सौम्य चेहरे पर स्मित मुस्कान फैल जाती। मेरी दलीलों में क्या दम था? मेरी भोली समझ का सिरा कहां इतना विकसित हुआ था कि समझ पाता, ना कह पाने का मतलब क्या है।

मां से पूरी उम्र यही शिकायत रही कि वो किसी से कुछ कहती ही नहीं थीं। अपनी तकलीफ़ों के बारे में नहीं, अपने ख़्वाबों, ख्वाहिशों, बिना नींद की खाली रातों के बारे में भी नहीं। हमारी कामयाबियों-नाकामियों-ज़्यादतियों के बारे में भी नहीं। नतीजा ये हुआ कि उनका कहना किसी आतिश-फिशां के शोले उगलने जैसा साबित हुआ। मैंने फिर भी उनसे सीख नहीं ली। मुझे फिर भी कहना नहीं आया।

घुट्टी में घोलकर पिलाया गया कि मत बोलो, ख़ामोश रहो। किसी ज़्यादती के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई तो तुम्हारे दामन पर पहला दाग़ होगा। चेहरे पर उतर आई आंसुओं की लकीरों को पोंछते-पोंछते कहीं घिसा हुआ दामन फट भी जाए गलती से तो उसे रफू करने की ऐसा कला सीखो कि बाहर से दरार नज़र ना आए।  मत बोलो क्योंकि इसका हासिल कुछ नहीं होता। तुम्हारी आवाज़ नक्कारखाने की तूती से अधिक और क्या होगी? फिर शक्ति व्यर्थ जाएगी सो अलग।

तो चुपचाप अपने काम में लगी रहो, आंखों के बगल में घोड़ों-सी पट्टियां डाल लो और एक लीक पकड़कर पीटती रहो। ध्यान भटका तो खाई में जाओगी। ज़रूरत पड़े तो शुतुरमुर्ग बन जाओ या फिर सहानुभूतियां जुटाने के ज़रिए खोज लो। तुम ख़ामोश, बिचारी, टूटी-बिखरी लेकिन माहौल को बचाए रखने की कोशिश में जुटी हुई ही बेहद ख़ूबसूरत लगती हो। सवाल पूछो मत, जवाब मांगो मत, उंगलियां उठाओ मत। तुम जिस सभ्य, शालीन, संस्कारी समाज में पली-बढ़ी और अपने बच्चों को बड़ा करना चाहती हो वहां सवाल पूछे जाने को असभ्य करार दिया जाता है। आज़ादी की मांग कर दी तब तो कुफ्र हो गया। परस्तिश करो, ख़ुदा बनाओ उसे और अपने ख़ुदा की तमाम ज़्यादतियां झेलते रहो कि तुम्हारी महानता, तुम्हारा बडप्पन इसी में है।

ये भी याद रखना कि अपनी ख़ामियों का ख़ुलेआम प्रदर्शन जहां ख़ुदा के पौरुष का अहम हिस्सा होता है वहीं तुमने अपनी कमज़ोरियां सामने की तो हॉरमोनल डिसॉर्डर, पीएमएस और पर्सनैलिटी डिफेक्ट्स के हवाले से तुम्हें पागल क़रार देने में कोई देर नहीं लगाएगा। चुप रहो लड़की, चुप रहो और ख़ामोश होकर अपने काम में लगी रहो। देखा है कि तुम्हारी अलमारियां तुम्हारी बेकली बयां करने लगी हैं? आयरन टेबल पर रखे कपड़े तुम्हारे नाकारा होने पर शोर मचा रहे हैं चीख-चीखकर? अपनी ज़ुबां बंद रखो और सोच के टुकड़े-टुकड़े कर डिब्बों में बंद करके किचन के आलों पर रख आओ अभी के अभी। दिमाग का कीमा बना तो सीजनिंग के काम आएंगे ये ख़्याल।

सुना है कि कोई शायरा थीं, परवीन शाकिर। अपने लिखे हुए से इतना शोर मचाया कि ख़ुदा को बर्दाश्त ना हुआ और बयालीस साल की नाज़ुक उम्र में ऊपर लौट आने का फ़रमान सुना दिया गया। कम बोलती वो भी तो घर बचाती, अपनी ज़िन्दगी भी बचाए रखती शायद। कई लोगों की नाराज़गी का बोझ लिए दोज़ख़ गई होगी सो अलग।

सुनो तो क्या कहती है वो पागल शायरा...

नहीं, मेरा आँचल मैला है
और तेरी दस्तार के सारे पेच अभी तक तीखे हैं
किसी हवा ने उनको अबतक छूने की जुर्रत नहीं की है

तेरी उजली पेशानी पर
गए दिनों की कोई घड़ी
पछतावा बनके नहीं फूटी
और मेरे माथे की स्याही
तुझसे आँख मिलाकर बात नहीं कर सकती

अच्छे लड़के
मुझे न ऐसे देख
अपने सारे जुगनू सारे फूल
संभाल के रख ले

फटे हुए आँचल से फूल गिर जाते हैं
और जुगनू
पहला मौक़ा पाते ही उड़ जाते हैं
चाहे ओढ़नी से बाहर की धूप कितनी ही कड़ी हो!

ना, परवीन सी किस्मत नहीं चाहिये, इसलिये हम कुछ नहीं कहते!

मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

An oversold theory called love

"Your next column should be a Valentine's Day special", my Editor tells me over Gtalk.

Yes, yes, don't worry. It will be a totally tadakta-bhadakta, jhakaas item for your V-Day special, I assure him.


Anything written, said or expressed about love will always find audiences. How else do you think these love stories have been the bestsellers and tearjerkers across centuries, continents and cultures? I have been a voracious consumer of love stories myself and my day begins with Bollywood numbers that profess love of different moods and genres.


So, 650 words on love come as laminar flow. Rise in love, I preach. Find new beginnings, new things to love, and then come back to the one love you have had, I go on writing, taking cues from Khalil Gibran. The editor is happy, and so am I.


Only, there is something else that has been bothering me. I have to acknowledge this love story I have no business with, something in my head is screaming out loud. The thing is, this love story involves my maid, and it had a very tragic ending - so tragic that the one involved will never know what it feels like to rise in love or what it means to have new beginnings and curves in love. And the other will dread falling in love ever, again.


Savita, my maid, was young and pleasant; two reasons why I decided to have her around my kids. Only a mother can understand how her system eventually starts revolving around the support maids provide. My happiness, peace of mind, social commitments, ability to meet deadlines and enough time to get outrageous in the virtual world actually depended on her. She would take the kids to the park, so I could write those 650 words. She would fetch them from the bus stop, so I could do pro bono work for friends. She would cook that one meal, so I could write that one script which would ultimately be aired. Yes, my life depended on her. And, so I conveniently chose to ignore the time she would be spending on her mobile phone, talking and smsing incessantly to someone I didn’t want to know about. I conveniently chose to ignore the fact that she was young, and had all the right to have a boyfriend. She had all the right to fall in love.


She chose to fall in love, but soon realized the repercussions she would have to face. People from two states, two castes and two communities cannot be together. She came from western UP, and had witnessed rampant khap type violence. She had been brought up to bow down to traditions and patriarchy. She was never to consider getting married on her own, or her father would kill himself, she had been told umpteen numbers of times. But heart gave way, and she fell for our car cleaner’s son. After a torrid but short-lived affair, she was made to come back to her senses – this was not to be, marriage of choice would never be allowed, she would never be accepted in that family and moreover, she would never want to be the cause of her alcoholic father’s death.


She must have chosen to be the reason of the love’s death instead. Only this time, it wasn’t metaphorical. The young boy actually killed himself when she got cold feet and refused to elope with him.


It was nobody’s fault. Not Savita’s (she should have persisted), not mine (I shouldn't have ignored), neither the boy’s (he shouldn't have given up so easily), nor his parents’ (they shouldn't have ignored it either). But now, I seriously think that we should stop singing and listening to these meaningless songs of love, for we belong to a world which is the most intolerant when it comes to making our own choices. We live in a world which feels the most insecure when it finds an individual in love. We are not to make our own decisions. We are not to break the traditions. And we are never to allow the luxury of confidence to the lovers, either in themselves or in the system.


So, die in love. Kill yourselves. And if you do survive your own wrath and disillusionment, khaps will make sure you don’t live. If you are not the one killed for family honour, the deeply entrenched caste system will make your kids feel like outsiders all their lives. And no, it doesn’t matter whether you are in a big town or a small one. Getting married for the sake of love will be the toughest thing you will ever go through.


But no, I will keep that sham called love alive. I will watch Qayamat Se Qayamat Tak one more time, read Rumi, sing another song of unflinching love to my beloved and buy those red roses and chocolates for Rs. 500 on the name of St. Valentine. I will have academic discussions on Kabir, Rahim and Raskhan. I will love reading "Love in the time of Cholera" and I will continue to churn out those 650 words every Valentine's Day for whichever publication I will be writing for.


Did I not say that love is an oversold theory? It may be alright in theory, but it will rarely work in practice.

सोमवार, 6 फ़रवरी 2012

मन के शहर से पाती




खोजे डिब्बे दो-चार,

निकाल लिए पैकेट्स

खुल गई मेरे सिरहाने

से सटकर बैठी दराज़


समेटा-सहेजा,

झाड़ा-बुहारा

और बंद करके रख दिया

हमने आज फिर

टुकड़ों टुकड़ों का इंतज़ार।






चलो सपनों की चादर का कोई कोना तो थामो तुम

बिछा दें हम ज़मीं पर जो, किसी ख्वाहिश का लम्हा हो

जो सर पर और कुछ ना हो तो बस तारों का डेरा हो,

कोई तकिया हो बांहों का, मद्धम सांसों का घेरा हो

समंदर साथ में लेटे, बरसती रात हो हमपर

मिले जो सुबह सिरहाने, कोई शबनम का क़तरा हो

जो कहना भी नहीं आए तो चुप्पी साथ रख लेना

पलक का कोई एक मोती हमारे हाथ में देना

चूनर में बांध जो लूंगी तुम्हारे डर का टुकड़ा हो

बिछा दें हम ज़मीं पर जो, किसी ख्वाहिश का लम्हा हो






ना आवाज़ दो,

ना मुझको पुकारो

नहीं कर पाऊंगी

तुम्हारे पीछे बंद

मैं दरवाज़ा



नहीं कह पाऊंगी

आज फिर एक बार

अलविदा।

शनिवार, 4 फ़रवरी 2012

उम्र ढलती है तो ढला करे

"Why do you always have to look ten years older?" स्कूल में साथ पढ़नेवाली एक दोस्त से सदियों बाद भी मिलती हूं तो पहला कमेन्ट ये मिलता है। "Why do you always have to worry about looking younger," जवाब दे दिया है और बात ख़त्म हो जानी चाहिए। लेकिन होती नहीं। तुम ऐसे कपड़े पहनती ही क्यों हो, सिल्क की साड़ी ही क्यों, आंटी टाईप बिंदियां ही क्यों... अविराम सवालों के आगे मैंने हार मान ली है। ऐसा नहीं कि किसी ने पहली बार कहा हो कि मैं अपनी उम्र से बड़ी दिखती हूं। आज से नहीं, पिछले बीस सालों से सुन रही हूं। लेकिन इसमें ऐसा अजूबा भी क्या है?

चेहरे पर परिपक्वता ओढ़कर अपने इर्द-गिर्द एक हैलो बनाये रखने की सीख मेरी पहली नौकरी में एक सहयोगी ने दी थी। "Act dumb or act mature, or else you will be stalked. You will be hit at."  बस, इस बात को ऐसे गांठ बांध ली जैसे नौकरी में ख़ुद को बचाए रखने का ये मूलमंत्र था। मैंने बड़ी आसानी से दोनों कर लिया। आसानी से इसलिए क्योंकि मैं एल्डर सिस्टर सिन्ड्रोम की भी शिकार हूं। अपने से सवा साल छोटे भाई के यार-दोस्तों और उनके यार-दोस्तों की यूनिर्वसल दीदी हूं, और ये दीदीपन घर से बाहर, मेरे व्यक्तित्व के साथ चलता रहता है। अपने से चार साल छोटे भाई के दोस्तों को तो ख़़ैर मैं अपने बच्चों से बस ज़रा-सा ही बड़ा मानती हूं।

मिज़ाज की इस सनक का असर ये था कि मुझसे जन्मदिन पर मेरे दफ्तर के एक सहयोगी ने कहा, तुम्हें अब शादी कर लेनी चाहिए।

वो क्यों, मैंने पूछा।

"उम्र हो गई है तुम्हारी।"

"अच्छा? और जानते हैं कितने साल की हुई आज?"

"नहीं, कितने?"

"पच्चीस।"

"ओ, तब तो बहुत दिन हैं तुम्हारे पास।"

ये और बात है कि तीन महीने बाद वाकई मेरी शादी हो गई और जिन सहयोगी ने मेरी उम्र पर चिंता जताई, वो दरअसल खुद जन्मजात बुज़ुर्गियत ओढ़े चलते हैं।

मुझे अपने परिपक्व दिखने का ज़रा भी अफ़सोस नहीं होता। एंटी रिंकल क्रीम और बालों के सतरंगी शेड्स के पीछे भागती दुनिया से कैसे कहें कि कहीं संजीवनी बूटी मिलती नहीं है। उम्र के चढ़ते जाने की फिक्र क्यों हो, ज़ुल्फ़ सर होती है तो हुआ करे... खुशी ना मनाएं कि एक और साल का कर्ज़ उतारा, ज़िन्दगी के अहसान चुकाए? फोरेवर यंग फ़ितरत से होते हैं या सूरत से, या फिर अपने से कमउम्र सिरफिरों की सोहबत से?

पार्क में कोने में बैठकर बच्चों को खेलते देख रही हूं। दस-बारह साल की लड़की मेरे बगल में गिर आया शटल कॉर्क लेने आई है।

"कैन आई हैव दैट कॉर्क... मैम?"

"यस, हियर यू गो। एंड प्लीज़ कॉल मी आंटी। आई लाइक टू बी कॉल्ड आंटी।"

उसके चेहरे पर हैरत है, मेरे चेहरे पर मैच्योरिटी का एक और गाढ़ा लेप।

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2012

एक गीत पुराने पन्नों से

मैं बोलूं कुछ, तुम कुछ सोचो
हम साथ बहें पर साथ नहीं
तुम हमसाए हो, मेरे साथी हो
फिर भी हाथों में हाथ नहीं.

तेरे कांधों पर रखकर सर
पलकों की थिरकन गिनते थे
जब गर्म हथेली में अपनी
तकदीर की सर्दी भरते थे
वो नर्म-नर्म से दिन छूटे
और साथ मुलायम रात नहीं
तुम हमसाए हो, साथी हो
फिर भी हाथों में हाथ नहीं.

हमने सीखा है तुमसे ही
उम्मीद के बोझ लिए चलना
और गीली आंखों के पीछे
ख़ुश रुख़सार लिए मिलना
लेकिन बांटें हम चुपके से
अब ऐसी कोई बात नहीं
तुम हमसाए हो, साथी हो
फिर भी हाथों में हाथ नहीं

गुरुवार, 2 फ़रवरी 2012

एक फ़साना ऐसा हो

टूटी-फूटी,
उलझी-सिमटी
प्रेम में लिपटी
कहानी को
दूं छोड़
और बख़्श दूं ऐसा मोड़
जहां से लौटने की
ना बाकी हो कोई राह।


आवेग में बहती
बिफरती, बिखरती
नायिका से
पूछूं ना सख़्त सवाल,
ना कसूं कोई तंज,
ना हो कोई रंज
उसे दूं बिखरे बाल,
और एक शख्सियत बेहाल।

रचूं एक हीरो
जिसके हारने का
ना हो कोई मलाल,
जो कांधे पर रखकर सिर
कह सके अपनी बात
जिसकी नमकीन आंखें
चलती हों हर पल नई चाल।

ना पूछो
ऐसा फ़साना कहां
कहां हों ऐसे किरदार
कि हमने ख़्वाबों में
जागते हुए
गुज़ार दिए कई
बेशक़ीमती  साल...

बुधवार, 1 फ़रवरी 2012

गीत बसंत और अनुवाद

अपना नया रूप दिखाओ, ओ बसंत
बढ़ाओ अपना हाथ, मुझे ले लो साथ
और रंग दो अपने ही किसी रंग।

धूप दो ऐसी कि पिघलूं
और दो सुकूं कि रो लूं जीभर के
टूटी हुई ख्वाहिशों के लिए लिखने दो गीत
और सौंप दो वो आख़िरी पैग़ाम-ए-इश्क।

टूटने दो लहरों का सन्नाटा,
कि बर्फ़ पिघली तो होगी कहीं
कहने दो अलविदा सर्द हवाओं को
कि लौटा मेरा वो महबूब नहीं।

उड़ने दो तितलियों को घूंघट के पास
लगाने दो घूंघर में एक लाल गुलाब
ना छेड़ो कोई राग ओ बुलबुल आज की रात
जो गाऊंगी साथ, तभी पूरी होगी बात।

रुको, रख दूं तुम्हारे होठों पर उंगलियां
गुज़र जाए आंखों का पानी, गुज़र जाए ये नर्म रात
ये मौसम नहीं होने देगा हमें नमनाक
ना तोड़ो इसकी लय को, और ना ही बैठो मेरे पास।

Show me your beauty, O Spring –
Give me a gentle touch,
and smear your colour atop the green.

Grant me a sun full of warmth
Give me some peace
Let the air sing a song of heartache
And give me that one final fling.

Let the lakes break out of their listlessness,
For, freeze has come and gone.
Let me say my adiue to the chill,
And beloved, forlorn.

Let the butterfly grace my veil,
And let a red rose dazzle in my hair
Behold your mellow song, O nightingale
Let me sing with you, when I come there.

Hang in there, for you are not allowed to say
Let the water flow, let the placid night go
Spring is the season not for tear
Hold that rhythm but not with me, Oh dear!