शुक्रवार, 23 अगस्त 2013

इस कहानी को कौन रोकेगा?

दो हफ्ते भी नहीं हुए इस बात को। आपको सुनाती हूं ये वाकया। मैं अलवर में थी, दो दिनों के एक फील्ड विज़िट के लिए। मैं फील्ड विज़िट के दौरान गांवों में किसी महिला के घर में, किसी महिला छात्रावास में या किसी महिला सहयोगी के घर पर रहना ज़्यादा पसंद करती हूं। वजहें कई हैं। शहर से आने-जाने में वक़्त बचता है और आप अपने काम और प्रोजेक्ट को बेहतर तरीके से समझ पाते हैं - ये एक बात है। दूसरी बड़ी बात है कि आप किसी महिला के घर में और जगहों की अपेक्षा ख़ुद को ज़्यादा सुरक्षित महसूस करते हैं। मेरी उम्र चौतीस साल है और मैं दो बच्चों की मां हूं। बाहर से निडर हूं और कहीं जाने में नहीं डरती। डरती हूं, लेकिन फिर भी निकलती हूं। रात में कई बार अकेले स्टूडियो लौटी हूं। देर रात की ट्रेनें, बसें या फ्लाइट्स ली हैं। कई बार मेरे पास कोई विकल्प नहीं होता, कई बार ख़ुद को याद दिलाना पड़ा है कि डर कर कैसे जीएंगे।

लेकिन यकीन मानिए, अंदर का डर वही है जो छह साल की एक बच्ची के भीतर होता होगा।

ख़ैर, इस बार अलवर में मेरे लिए एक होटल में रुकने का इंतज़ाम किया गया। मैं दिल्ली से अकेली गई थी, एक टैक्सी में। (यूं तो मैं पब्लिक ट्रांसपोर्ट लेने में यकीन करती हूं, लेकिन यहां पब्लिक ट्रांसपोर्ट में भी 'safety' है?) दिन का काम खत्म करने के बाद बेमन से होटल में चेक-इन किया। मुझे अकेले होटलों में रहने से सख़्त नफ़रत है। फैंसी होटल था - सुना कि अलवर के सबसे बड़े होटलों में से एक। कार्ड लेकर कमरे में गई। पीछे से एक हेल्पर ने आकर मेरा सामान रखा। मैंने दरवाज़ा खोला और दरवाज़े पर ही खड़ी रही, तब तक जब तक वो हेल्पर मेरा सामान और टिप लेकर बाहर नहीं चला गया (मैं कमरे में अंदर किसी अनजान इंसान के साथ खड़ी होने का ख़तरा भी नहीं मोल लेती)। तब तक सहायक कार्ड लेकर उसे जैक में डालकर कमरे की बत्तियां जला चुका था।

अंदर आई। सबसे पहले दरवाज़ा देखा। दरवाज़े में भीतर कोई कुंडी, कोई चिटकनी नहीं थी। लोहे की एक ज़ंजीर थी बस, जिसके ज़रिए आप दरवाज़े को हल्का-सा खोलकर बाहर देख सकते थे। सेफ्टी के नाम पर बस इतना ही। वो ज़ंजीर भी बाहर से खोली जा सकती थी। वैसा दरवाज़ा बाहर से किसी भी डुप्लीकेट कार्ड से खोला जा सकता था।

मैंने रिसेप्शन पर फोन किया। पूछा, "भीतर से दरवाज़ा बंद कैसे होता है?" एक आदमी आया और कमरे में घुसते ही उसने सबसे पहले कार्ड निकाल लिया, "इसी कार्ड से बंद होगा कमरा", उसने कहा और कार्ड निकालकर मोबाइल की रौशनी में दरवाज़ा बंद करने का तरीका बताने लगा। कमरे में घुप्प अंधेरा, मोबाइल की हल्की रौशनी के अलावा। मैं इतनी ज़ोर से डर गई थी कि मुझे पक्का यकीन है, उस आदमी को मेरे मुंह में आ गई जान और मेरी धड़कनें साफ़ सुनाई दे गई होंगी। (विडंबना ये कि मैं अभी-अभी गांव में लड़कियों के स्कूल में सेल्फ-डिफेंस की ज़रूरत पर बक-बक करके आई थी)

मैंने ज़ोर से चिल्लाकर कहा, "लाइट जलाइए आप पहले।"

उसने मुझे घूमकर देखा और कहा, "मैडम मैं तो..."

"मैं समझ गई हूं कि दरवाज़ा कैसे बंद होता है। पुट द डैम थिंग बैक एंड स्विच ऑन द लाईट्स", मैंने चिल्लाकर कहा, उस आदमी को कमरे के बाहर भेजा, रिसेप्शन पर फोन करके उन्हें कमरे में चिटकनियों की ज़रूरत पर भाषण दिया (जो महिला रिसेप्शनिस्ट को समझ में आया हो, इसपर मुझे शक़ है) और फिर दरवाज़ा अंदर से बंद कर दिया। उसके बाद मैंने जो किया वो हर उस कमरे और नई जगह पर करती हूं जहां सोने में मुझे घबड़ाहट होती है। मैंने कमरे के स्टडी टेबल को खींचकर दरवाज़े के पीछे लगाया। फिर उसके ऊपर भारी-भरकम बेडसाईड टेबल रखा। फिर उसके ऊपर अपना सूटकेस रखा।

नहीं, उस रात मुझे नींद नहीं आई थी और वो रात कई उन रातों में से थी जिस रात मुझे अकेले (या अपने बच्चों के साथ अकेले) सफ़र करते हुए नींद नहीं आती। क्यों? मैंने ट्रेन में अपनी बर्थ पर सो रही एक अकेली लड़की के साथ रात में बदतमीज़ी होते देखा है। वो लड़की डर के मारे नहीं चिल्लाई थी। मैं चिल्लाई थी। हर हिंदुस्तानी लड़की की तरह मैंने अपने बचपन में एक भरे-पूरे घर में छोटी बच्चियों तो क्या, बड़ी लड़कियों और छोटे लड़कों के साथ होती गंदी हरकतें देखी हैं जिसे सेक्सुअल अस़ल्ट कहा जाता है। देखा है कि उन्हें कहां-कहां और कैसे छुआ जाता है। ये भी बताती हूं आपको कि इनमें से कई बातें मुझे आजतक किसी को भी बताने की हिम्मत नहीं हुई, मां को भी नहीं और मुझे पक्का यकीन है कि उन लड़कियों ने भी किसी से कहा नहीं होगा। चुप रह गई होंगी। क्यों, वो एक अलग बहस और विमर्श का मुद्दा है। उस दिन भी मैंने गांव के स्कूल की बच्चियों की ज़ुबान में उनके अनुभव सुने थे। आप सुनेंगे तो आपको शर्म आ जाएगी।

उस दिन मेरा हौसला पूरी तरह पस्त हो गया जिस दिन मेरी साढ़े छह साल की बेटी ने स्कूल ड्रेस पहनते हुए कहा, "मम्मा, स्कर्ट के नीचे साइकलिंग शॉर्ट्स पहना दो।" "क्यों", मैंने उसे तैयार करते हुए एक किस्म की बेफ़िक्री के साथ पूछा, "आज हॉर्स-राइडिंग है?" "नहीं मम्मा। कुछ भी नहीं है। स्कूल में लड़के नीचे से देखते हैं। सीढ़ी चढ़ते हुए, चेयर पर बैठते हुए। मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता।"

मैं शब्दों में अपना शॉक बयां नहीं कर सकती। मैंने उसे मैम और मम्मा को बताने की दो-चार बेतुकी हिदायतों के बाद साइकलिंग शॉर्ट्स पहना दिया और पूरे दिन परेशान होकर सोचती रही। छह साल की बच्ची को अच्छी और बुरी नज़र का अंदाज़ा लग गया। हम अपनी बेटियों की कैसे समाज में परवरिश कर रहे  हैं! उसे विरासत में क्या सौंप रहे हैं? डर?

आद्या अभी भी पार्क में साइकलिंग शॉर्ट्स में जाती है, या फिर वैसे कपड़ों में जिससे उसकी टांगें ढंकी रहें। यकीन मानिए, मैंने उसे कभी नहीं बताया कि उसे क्या पहनना चाहिए। इस एक घटना ने मुझपर एक बेटे की मां होने के नाते भी ज़िम्मेदारी कई गुणा बढ़ा दी है। मैं रिवर्स जेंडर डिस्क्रिमिनेशन करने लगती हूं कभी-कभी, न चाहते हुए भी। बेटे को संवेदनशील बनाने की ज़िम्मेदारी बहुत बड़ी है। बेटा पालना ज़्यादा मुश्किल है, ज़्यादा बड़ी ज़िम्मेदारी है।

फिर भी 'रेप' या यौन हिंसा को रोकने के लिए ये काफ़ी नहीं है। जब तक छोटे से छोटे यौन अपराधों (ईवटीज़िंग, छेड़छाड़) को लेकर कानून को अमल करने के स्तर पर ज़ीरो टॉलेरेन्स यानी पूर्ण असहिष्णुता का रास्ता अख़्तियार नहीं किया जाएगा, महिलाओं, लड़कियों, बच्चियों के ख़िलाफ़ हिंसा को लेकर बड़े बदलाव की उम्मीद बेकार है। दरअसल, इतना भी काफ़ी नहीं। जब तक ज़्यादा से ज़्यादा लड़कियां और औरतें पब्लिक स्पेस में नहीं आएंगी, डिस्क्रिमिनेशन कम नहीं होगा। समस्या ये है कि एक समाज के तौर पर हम अभी भी लड़कियों और औरतों से घरों में रहने की अपेक्षा करते हैं। सार्वजनिक जगहों पर उनकी संख्या को लेकर हम कितने पूर्वाग्रह लिए चलते हैं, इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मेट्रो में, लोकल ट्रेनों में महिलाओं के नाम के एक ही कोच होते हैं। बाकी जनरल कोचों में गिनी-चुनी महिलाएं। अपने दफ्तरों, बाज़ारों, दुकानों, सड़कों, गलियों में देख लीजिए। क्या अनुपात होता है पुरुष और महिला का? को-एड स्कूलों में? कॉलेजों में? डीटीसी की बसों में महिलाओं के लिए कितनी सीटें आरक्षित होती हैं? शहर की सड़कों पर कितनी महिलाओं को गाड़ी चलाते देखा है आपने? ६६ सालों में सोलह राष्ट्रीय आम चुनाव, लेकिन देश की ४८ फ़ीसदी आबादी के प्रतिनिधित्व के लिए ३३ फ़ीसदी सीटों के आरक्षण को लेकर बहस ख़त्म ही नहीं होती। जो पुरुष औरतों को बराबरी का हक़दार मानते ही नहीं, वे उसे अपमानित, शोषित और पीड़ित करने का कोई मौका नहीं छोड़ेंगे। फिर हमारे यहां तो यूं भी पुरुषों के इस बर्ताव को मर्दानगी समझा जाता है। जब तक मर्दानगी की परिभाषा बदलेगी नहीं, मर्द नहीं बदलेंगे, बराबरी की बात फ़िज़ूल है। हम हर बलात्कार का मातम ही मना सकते हैं बस।   

रह गईं औरतें और लड़कियां तो सदमे में होते हुए भी, अपने डर से लड़ते हुए भी बाहर जाने और काम करने का हौसला रखेंगी ये। हमारे पास चारा क्या है? फिर भी मैं अकेले अनजान जगहों पर सफ़र करने की हिम्मत रखूंगी, चाहे इसके एवज़ में मुझे कमरे को भीतर से कई सारे फर्नीचर लगाकर ही क्यों न बंद करना पड़े। फिर भी मैं मर्दों पर, लड़कों पर भरोसा करती रहूंगी। पूरी ईमानदारी से इस भरोसे को बचाए रखने की कोशिश करूंगी और इसके ख़िलाफ़ उठने वाले हर शक़ का इलाज ढूंढने की कोशिश करूंगी।  मैं फिर भी अपने बच्चों को एहतियात बरतने के साथ-साथ भरोसा करना ही सिखाऊंगी। बेटी नज़र और 'टच' पहचानने ही लगी है। बेटा भी शायद धीरे-धीरे अपनी बहन की ख़ातिर और उसके जैसी कई लड़कियों की ख़ातिर ख़ुद को बदलना सीख जाए, मर्दानगी की परिभाषा बदलना सीख जाए। आमीन! 

रविवार, 11 अगस्त 2013

हज़ार दुश्वारियों के बीच

संडे का दिन संडे की तरह ही गुज़ारा जाए तो अच्छा। संडे का मतलब है देर से जागना, देर से नहाना, देर तक बिस्तर पर पड़े रहकर किताब और अख़बार पढ़ना, पूड़ी-भुजिया टाईप का कुछ नाश्ता करना और फिर से देर तक बिस्तर पर पड़े रहकर कोई थ्रिलर पढ़ना। मन हुआ तो बीच में अपनी पसंद के गाने सुनते जाना। ऐसा संडे बहुत दिनों के बाद लौटा है। आज जी लेते हैं कि कल से यूं भी डेडलाई्न्स की चिंता में जान गंवाना है। ज़िन्दगी की दुश्वारियां यूं भी कमबख़्त कहां कम होती हैं?

स्कूल में थी तो नया-नया बीटल्स सुनने का शौक़ चढ़ा था।  वो भी टार्गेट मैग़ज़ीन पढ़कर। जॉन लेनेन, पॉल मैककार्टने, जॉर्ज हैरिसन और रिंगो स्टार हमारे पोस्टर बॉयज़ थे जिनके पोस्टर्स मैगज़ीन से फाड़कर दीवारों पर लगाने की इजाज़त कभी नहीं मिली, लेकिन लव, लव मी डू/यू नो आई लव यू बजता तो लगता, जीवन का शाश्वत सत्य यही है। सत्य के चेहरे क्रश के हिसाब से बदलते रहते, लेकिन भावना उतनी ही शाश्वत रही। तब हमारी उम्र क्या थी, ये मत पूछिएगा। हम अस्सी के दशक में बड़े हो रहे बच्चे थे, लेकिन हमें मैडोना, माइकल जैक्सन और द पुलिस उस तरह पसंद नहीं आए जिस तरह अपने दादा-परदादा के ज़माने के क्लासिक्स भाए। हम पॉप, रॉक, मेटल के ज़माने में भी बीट और ब्लूज़ ढूंढते। या फिर क्लिफ रिचर्ड, नील डायमंड के अटरली होपलेसली रोमांटिक गाने। हां, बॉब डिलैन के गानों के बोलों की वजह से फोक रॉक ज़रूर सुनने लगे। मेटल और हार्ड रॉक से वास्ता बहुत बाद में पड़ा, इसलिए रोलिंग स्टोन्स, एरिक क्लैप्टन और लेड ज़ेपलिन भी अपने दौर के कुछ बीसेक साल बाद मेरी ज़िन्दगी में आएं। डायर स्ट्रेट्स के लिए तो अभी भी कानों को उस तरह तैयार नहीं कर पाई, जैसे घर में बाकी लड़कों को देखती हूं। जब मेरी अंग्रेज़ी की डिक्शनरी में साइकेडेलिक शब्द जुड़ा तब समझ में आया कि पिंक फ्लॉयड को कल्ट क्यों माना जाता है। 

आज एक-एक करके सब सुनती रही। बीटल्स, कार्पेन्टर्स, सीलिन डियॉन, मैरिया कैरे, साइमन एंड गारफंकल, एरिक क्लैप्टन और यहां तक कि मैडोना भी। फेसबुक पर बिना सोचे-समझे डाल दिए गए एक गाने पर मिली प्रतिक्रिया ने साबित कर दिया है कि अभिव्यक्त करने के तरीके, वाक्य-विन्यास बेशक अलग-अलग हों, लेकिन नोस्टालजिया की शब्दावली एक-सी होती है।

इस नोस्टालजिया को लिए-लिए पार्क आ गई हूं।

दूर कोने में एक-दूसरे की ओर पीठ किए खो-खो खेलने के लिए बैठ बच्चे, आस-पास के स्कूलों को लेखा-जोखा लेने निकली मम्मियां,रिसेशन के ज़माने में नाम भर के इन्क्रिमेंट को सिर धुनते पापा लोग, दूर विदेशों में अपने-अपने बेटे-बहुओं, बेटी-दामादों का बखान करती दादियां और करप्शन का रोना रोते दादाजी लोग, और फिर पुराने गानों पर शुरू हुई बातचीत में धीरे-धीरे जुड़ते, अपनी पसंद के गाने जोड़ते सभी उम्र के लोग - संडे की शाम पार्क कुछ ऐसे गुलज़ार हुआ है कि पूरे हफ्‍ते का टॉनिक मिल जाने का गुमां हुआ है।

टॉनिक ही टॉनिक है। ठीक सात से ठीक आठ बजे तक चलने वाले रंग-बिरंग फव्वारे से मिलने वाला विज़ुअल टॉनिक। आठ लोगों की ज़िन्दगियों के फ़साने के अठहत्तर रूपों के बारे में सोचते रहने के लिए ज़ेहन को टॉनिक। सोचते रहिए कि उनकी ज़िन्दगी में ये न होता तो क्या होता, यूं हुआ होता तो क्या हुआ होता।

कुल मिलाकर सबकी तकलीफ़ें एक-सी हैं। एक सी महंगाई। एक-सी बेवफाई। एक-से धोखे। एक-सा भ्रष्टाचार। एक-सी बीमारी। मर जाने का एक-सा डर। एक-सा प्यार। एक-सी उम्मीद। एक-सा नोस्टालजिया। नोस्टालजिया के लिए भी एक-सा नोस्टालजिया। सिर्फ बाहर का आवरण अलग है। खरोंचो तो भीतर सब एक-सा। हम फिर भी कितने अलग-अलग हैं!

इन एक-से लोगों की अलग-अलग कहानियां सुनते हुए ज़िन्दगी गुज़ार पाते तो क्या ही अच्छा होता। लेकिन ग़म-ए-रोज़गार भी है, ग़म-ए-इश्क भी। अब यही इकलौता जस्टिफिकेशन है इस बात का कि मैं बोलने बहुत लगी हूं आजकल, बात कम करती हूं। सुनती भी बहुत हूं, लेकिन ध्यान कम देती हूं। लिखती भी ख़ूब हूं आजकल, लेकिन सोचती नहीं। पढ़ती हूं, लेकिन मनन नहीं करती।

जब जीने को बहुत हो और वक्त की कमी हो तो ऐसा ही होता होगा शायद।

संडे ढलने लगा है और कल के डेडलाईन की चिंता सताने लगी है। लेकिन बीटल्स ने शाम को डूबने से बचा लिया है।

सोमवार, 5 अगस्त 2013

एक थी मनभर


अलवर शहर से कुछ साठेक किलोमीटर दूर एक सरकारी बालिका विद्यालय में मनभर देवी से मुलाक़ात होती है। मनभर मन भर हंसती हैं, मन भर हंसाती हैं। मन भर मन लायक बातें करती हैं - कुछ इस तरह कि उनके आस-पास गोल घेरे में बैठी लड़कियों का मन उनसे भरता ही नहीं। लड़कियों को उनसे और बातें करनी हैं, कुछ और कहानियां सुननी हैं। लड़कियों के पास सवालों का पिटारा है, मनभर किसी सवाल को नहीं टालतीं। 

स्कूल में सेल्फ-डिफेंस की क्लास लेने आईं मनभर देवी को देखकर लगता है कि किसी सशक्त महिला को ऐसा ही होना चाहिए। बल्कि हर महिला को ऐसा ही होना चाहिए। उनके चेहरे में अजीब-सी कशिश है। वे बातें कर रही हैं तो मैं ध्यान से उनकी बोली सुनकर ये समझने की कोशिश करती हूं कि दूध-सी गोरी और बेहद ख़ूबसूरत चेहरे वाली ये महिला कहां की होगी? कश्मीर की? या फिर पंजाब की? हालांकि मनभर पंजाबी नाम ज़्यादा लगता है, कश्मीरी कम। लेकिन उनमें कश्मीरी सौंदर्य ज़्यादा है, पंजाबी अल्हड़पन कम। 

हम बहुत देर तक बात नहीं करते। मैं उन्हें सिर्फ क्लास लेते हुए देखती हूं। उम्र का अंदाज़ लगाना मुश्किल है क्योंकि उनका छरहरा शरीर और मेहंदी रंगे बाल मेरे अंदाज़ के बीच का फ़ासला बन जाता है। ये महिला लड़कियों से हर तरह की बात करती हैं - सेक्स, यौन हिंसा, छेड़खानी, प्यार और समझौते, रिश्ते और नाते, शादी, बच्चे, घर में होने वाली मार-पीट और घर की चहारदीवारी के भीतर होनेवाला सेक्सुअल अब्युज़। मैं मनभर देवी की साफ़गोई और बात करने के तरीके की कायल होने लगी हूं। 
  
मनभर की कहानी जानने को बेचैन हूं। उम्र की समझदारी एक बात है, लेकिन ज़िन्दगी के अनुभव ही आपको इस क़दर 'वाइज़' (अंग्रेज़ी और उर्दू, दोनों) बना सकते हैं। 

मनभर देवी को क्लास के बाद खींचकर एक कोने में लेकर आई हूं। "अपने बारे में कुछ बताईए न", मेरी गुज़ारिश में बच्चों-सी ठुनक है लेकिन मैं उनसे इतनी लिबर्टी तो ले ही सकती हूं। 

"मेरे बारे में क्या सुनेंगी मैडम? मैं तो अंगूठा छाप। पढ़ना-लिखना भी नहीं जानती?"

"हैं, सच्ची?" मैं हैरान हूं। "आपको सुनकर और देखकर तो नहीं लगता।"

"वो तो सालों से घिस रही हूं न ख़ुद को, इसलिए ज़िन्दगी ने सब सिखा दिया। मेरी बेटी बहुत पढ़ी-लिखी है वैसे। एम ए किया है सोशल वर्क में। जयपुर में काम करती है। दामाद भी। दोनों बहुत ख़ुश हैं।"

"और आप? मैं उनसे पूछती हूं।"

"मेरे तो दिन ढल गए मैडम जी।"

"दिन के ढलने से पहले की कहानी सुनाईए न", मैं फिर एक बार कहती हूं। 


"हम जात के दर्ज़ी हैं - यहीं राजस्थान के (मेरा पहला अनुमान ग़लत साबित होता है)। मैं पांच बहनों के बीच की थी।"

"उम्र कितनी है आपकी?"

"साठ की होने वाली हूं।"

"रियली? आपको देखकर नहीं लगता।"

मनभर हंस देती हैं। अब देखती हूं कि उनके दाएं गाल पर गड्ढा बन जाता है हंसते हुए। 

"सास बहुत मानती होंगी", मैं गाल पर पड़ने वाले गड्ढे की ओर इशारा करती हूं। "मेरी सास ने मुझसे यही कहा था, और उनकी सास ने उनसे यही, एक अतिरिक्त जानकारी भी दे देती हूं उनको साथ में।"

"आप और आपकी सास खुशकिस्मत होंगे मैडम। मैं नहीं थी। छह साल की उम्र में शादी हो गई। दस साल बड़े लड़के से। मां-बाप के पास और बेटियां थीं, इसलिए गौना करने की जल्दी थी। शादी के बाद शरीर पर क्या-क्या गुज़री ये मत पूछो। बस इतना समझ लो कि कुछ समझ में भी नहीं आता था कि हो क्या रहा है। मैं छुपती तो सास बांह खींचकर पति के आगे कर देती। बारह साल की उम्र में पेट में बच्चा आ गया। मर भी गया पेट में ही। सुन पाएंगी अगर बताऊं तो कि क्या हुआ।"

"हूं? हां... बताईए न..." मैं हैरान हूं कि मनभर अपनी कहानी इतने मैटर-ऑफ-फैक्टली कैसे सुना सकती हैं! 

"पेट में बच्चा आया, ये तो तब पता चला जब पेट में ज़ोर से दर्द होने लगा। गांव की एक औरत आई। पेट में कान लगाया और बोला बच्चा तो मर गया। फिर दो-तीन औरतों ने मुझे लिटाकर मेरे पेट को दबा-दबाकर वो मरा हुआ बच्चा पेट से निकाल दिया। मैं एक हफ्ते तक खाट से नहीं उठ पाई।"

"अलवर की उमस में मेरे रोएं सिहरने लगे हैं। मैं अपनी दोनों हथेलियां ज़ोर से आपस में भींचकर खड़ी हो जाती हूं। मैंने ज़ख्‍म कुरेदा ही क्यों?"

"फिर पति पीछे और मैं भागती फिरूं। शादी का मतलब यही तो था, मेरी सास ने कहा मुझसे। अब मैं किससे क्या बोलती? अब सोच लो कि इतने साल पहले की बात है। तब मायके जाना भी पाप था। मैं तो कई साल अपने घरवालों से मिली ही नहीं थी। ख़ैर, फिर पेट में एक और बच्चा मर गया। चौदह साल की उम्र में पहला बेटा हुआ, फिर दो साल बाद दूसरा और फिर एक बेटी हुई। मैं नौ महीने पेट से होती और फिर बच्चा पैदा करने के बाद फिर से नौ महीने... पता नहीं कैसे जी रही थी। जी में आता था उस आदमी का गला घोंट दूं। लेकिन हिम्मत कभी नहीं हुई।"


"फिर आप ये..." मैं उनके नारीवादी रूप के बारे में पूछ रही हूं। 

"फिर एक दिन पति दो-चार मर्द ले आया। बोला, इनके साथ सो जा। तीन हजार रुपए मिलेंगे। उस ज़माने में तीन हज़ार बहुत होते थे। मैं तो बहुत रोई। बहुत हाथ-पैर जोड़े। मैं जितना रोती, वो मुझे उतना ही मारता। मैं किसी तरह पड़ोस में भागकर बच गई उस दिन। रात में कुंए में कूद गई लेकिन लोगों ने बचा लिया। ज़िन्दगी का रास्ता बदलना था, शायद इसलिए बचा लिया।"

"उस दिन मैंने कसम खा ली, ऐसे आदमी के पास दुबारा लौटने से रही। दो-एक दिन बाद मौका देखकर घर से भाग गई। सोचा, अपने लिए रोटी जुटा लूंगी तो बच्चों को ले जाऊंगी। वैसे सच कहूं तो बच्चों से बहुत लगाव था नहीं। बच्चे तो दुश्मन लगते। अब एक सोलह साल की लड़की पूरे दिन कुटती-पिटती हो और फिर बच्चे पैदा करती हो तो उसे बच्चों से क्या लगाव होगा?"

"मैंने झाडू-पोंछा किया। बर्तन मांजे। किसी तरह काम करके पेट पालती रही लेकिन उस आदमी के पास नहीं गई जो मुझे वैसे भी वेश्या बना देता। किस्मत से एक डॉक्टर मिल गईं, उन्होंने एक एनजीओ से जोड़ दिया मुझे। वहीं अपना नाम लिखना, जोड़-घटाव करना सीखा और वहीं काम करने लगी। कई साल काम किया। काम मालूम क्या था? अपने जैसी औरतों से जाकर मिलना... उनको हिम्मत देना... उनको पढ़ाना-लिखाना... बेटियों को मरने से बचाना... मैं जी गई। मुझे जीने का मकसद मिल गया। बच्चों को लेने के लिए लौटी तो आदमी ने बेटी को थमा दिया और भगा दिया घर से। खुद जैसी है, वैसी ही इसको बनाना। बोल के निकाल दिया घर से। मैंने भी कसम खाई - अपने जैसी तो बनाऊंगी लेकिन पढ़ाऊंगी। मेरे जैसी किस्मत ऊपरवाले ने दी भी हो उसको तो बदल दूंगी लड़कर। बेटी को स्कूल-कॉलेज भेजा। पैसा-पैसा जोड़कर पढ़ाया। उसकी नौकरी लगी और फिर उसने अपनी पसंद से शादी की - एक ब्राह्मण लड़के से। मैं शादी के ढकोसले नहीं मानती, लेकिन मुझे समाज के सामने साबित करना था कि एक अनपढ़ बेचारी औरत तय कर लो तो कुछ भी कर सकती है। हिम्मत है किसी की कि अब कोई बोल ले कुछ मुझसे? एक बात बोलूं? जयपुर में घर बनाया मैंने। बेटे-बहू वहीं आकर रहते हैं अब। आदमी भी। लेकिन उन सबको मैं किराएदार से ज्यादा कुछ नहीं समझती। अपना काम करती हूं। अपनी धुन में रहती हूं। मैं... मैं मदद करूंगी उनकी... उनसे मदद लेने से पहले ईश्वर उठा ले, यही बिनती करती हूं।"

मनभर की कहानी सुनते हुए मन भी भर गया है, आंखें भी। है किसी में इतनी हिम्मत?

शनिवार, 3 अगस्त 2013

बहती धारा बन जा, फिर दुनिया से डोल

हैप्पी बर्थडे बाबा!

मैं बचपन की तरह इस बार भी काग़ज़-कलम लेकर चिट्ठी लिखने बैठना चाहती थी। हर बार की तरह इस बार भी कोई आड़ी-तिरछी कविता लिखी होती आपके लिए और आपके सिरहाने, तकिए के नीचे एक रंगीन लिफ़ाफ़े में वो चिट्ठी रख दी होती इस बार भी।

लेकिन वो सिरहाना नहीं रहा, चिट्ठी लिखने की आदत नहीं रही और आप भी नहीं रहे।

आप नहीं रहे बाबा, लेकिन आपको मन में कई-कई दफ़े चिट्ठियां अब भी लिखा करती हूं। सफर में हर मोड़ पर दोराहा नज़र आता है, हर बार दुविधाएं घेरे रहती हैं। कुछ ज़िन्दगी का चलन यही है कि जो जूझना जानता है उसके सामने जि़न्दगी चुनौतियां भी उसी तेज़ी से फेंक दिया करती है। कुछ फितरत ऐसी है कि उन चुनौतियों को गले लगाने में ही सुख मिलता है।

आप नहीं रहे बाबा, लेकिन फिर भी मेरी चिट्ठियों का जवाब आपने मुझे हमेशा लिखकर दिया है। मुझे हर बार कहीं न कहीं से अपने सवालों का जवाब मिल ही जाया करता है - कभी किसी किताब में, कभी किसी गाने में तो कभी किसी कहानी में। मैं यकीन के साथ कह सकती हूं कि मेरी ही भाषा में मेरे सवालों के जवाब भेजने वाले आप ही होते होंगे, बाबा। हालांकि आपकी सालगिरह पर लिखी इस चिट्ठी के जवाब में मुझे कोई जवाब नहीं चाहिए। ये तो बस ख़ैरियत की चिट्ठी समझ लीजिए।

तो बाबा, यूं समझ लीजिए कि सब ख़ैरियत है। बारह सालों में सबने तरक्की ही की है, पीछे कोई नहीं लौटा। जिस रांची में आपने सारी ज़िन्दगी बसर की, जहां की पहाड़ियों और डैमों के किनारे हमें पिकनिक पर लेकर गए वो रांची अब मेट्रो कही जाने लगी है। पंजाब स्वीट हाउस के पंतुए और कावेरी के डोसों के स्वाद का तो पता नहीं अब, लेकिन कैफ़ै कॉफी डे की कॉफ़ी और डॉमिनॉज़ के पिज़्जा का स्वाद दिल्ली, मुंबई या चेन्नई से अलग होगा, ऐसा लगता नहीं है।

अरे हां, आपको ये भी बताना था कि दिल्ली की सड़कों पर फर्राटे से गाड़ी चलाती हूं अब। आप मेरे बगल में बैठे होते तो देखते, रिवर्स करते हुए न मेरी आंखें बंद होतीं न आपकी। मैं यकीन दिलाकर कह सकती हूं कि मेरी ड्राइविंग देखकर अब आपका ब्लड प्रेशर नहीं बढ़ता। अब मारुति ८०० तो क्या, ज़रूरत पड़े तो ट्रक भी चला सकती हूं। लेकिन आपको लॉन्ग ड्राईव पर ले जाने की मेरी ख़्वाहिश अधूरी ही रह गई। अब भी गाड़ी में गाने सुनती हूं तो लगता है, बाबा को ऐसी ड्राईव पर ये वाला गाना पसंद आता।  

बाबा, जिस मोबाइल फोन से फोन लगाने के बत्तीस रुपए प्रति कॉल और फोन रिसिव करने के सोलह रुपए प्रति कॉल लगा करते थे, उस मोबाइल फोन के मनचाहे नंबर अब मुफ्‍त में बंटा करते हैं। जिस कंप्यूटर पर टाइपिंग सीखने के लिए मैं बीस-बाईस किलोमीटर दूर  आपकी फैक्ट्री जाया करती थी, वो कंप्यूटर हमारी मेज़ों से उतरकर हमारी गोद में और अब हमारी गोद से उतरकर हमारी हथेलियों में समा गया है। जिस मनमोहन सिंह के ख़ामोश उदारीकरण के आप कायल हुआ करते थे, उस मनमोहन सिंह की ख़ामोशी की अब दुनिया कायल है। उदारीकरण बड़ी निर्ममता से हमें और महत्वाकांक्षी, और लोभी, और भ्रष्ट बनाने में लगा हुआ है। आप कौन-सा सबसे बड़ा घोटाला देख कर गए थे बाबा? बोफोर्स? हर्षद मेहता? अब करदाताओं के पैसे की जो हेराफेरी और घोटाले होते हैं, उन्हें घोटाला नहीं कहा जाता, निवेश, बाज़ार और बिज़नेस कहा जाता है।

बाबा, अपनी फैक्ट्री में जर्मन असेम्बली लाइन को हटाकर जिस चीन की मशीनें आपने  लगाई थीं उस चीन के प्रोडक्ट्स ने फैक्ट्रियों पर तो क्या, घरों में, यहां तक कि आद्या और आदित की खिलौनों की अलमारी तक में घुसपैठ कर ली है। मैं जिस बेड-टेबल पर बैठकर ये चिट्ठी लिख रही हूं न, वो भी उसी चीन से बनकर आया है जिस चीन के बारे में आप कहा करते थे कि चीन और भारत - इन दोनों देशों के कॉलैबोरेशन से दुनिया का नया सुपरपावर तैयार होगा। आपकी ही तरह आपकी और आपके बाद की पीढ़ी भी इसी गफ़लत में जीती रही। भारत-चीन युद्ध के बाद आप 'पीस' और 'नॉन-वायलेंस' का लबादा ओढ़े ड्रैगन की जादुई शक्ति की चपेट में आने वाली पहली पीढ़ी थे। उसके बाद की पीढ़ियां चीनी प्लास्टिक, कलम, कॉस्मेटिक्स, कपड़े, जूते, सुई और दीवाली की लड़ियां खरीदकर ख़ुद को धन्य मानती है। जो भी हो, वक्त के साथ कदमताल करने की बात आपने तब भी कही थी।

बाबा, आपने जिन मिडल क्लास मूल्यों की विरासत हमें सौंपी उनपर एक हज़ार लानतें हम हर रोज़ भेजते हैं फिर भी उन्हीं मूल्यों की गठरी टांगे नौकरियों पर जाते हैं, काम करते हैं और घर आकर उसी मिडल क्लास तरीके से परिवार भी चलाते हैं। शहर और गांव के बीच के पुल थे आप। हम उस पुल को जला डालने की ख़्वाहिश रखते हैं, लेकिन फिर भी जला नहीं पाते। जडों के हो न पाने और जड़ों से अलग न हो पाने की दुविधा के साथ ज़िन्दगी गुज़ार देने वाली हमारी तीसरी पीढ़ी आख़िरी हो शायद।

बाबा, ज़िन्दगी की तमाम तल्ख़ियों के बीच आपके जीने का अंदाज़ याद आता है तो बड़ी उम्मीद बंधती है। आपकी दरियादिली हममें बची रहे और आपकी तरह अपनी शर्तों पर अपने तरीके से जीना हमें आ जाए, यही उम्मीद हमें एक साल से दूसरे साल, ज़िन्दगी की राहों के एक माइलस्टोन से दूसरे माइलस्टोन तक खींचते हुए लिए ले जाती  है।

बाबा, मैं नहीं जानती आप कहां हैं। मैं ये भी नहीं जानती कि मरने के बाद हमारी रूह का क्या होता है। लेकिन रूह कहीं कुछ होती है तो आपकी वो रूह मेरे लिए बहुत बेचैन होती होगी, मैं ये भी जानती हूं। बाबा, आप जहां भी जिस भी ज़िन्दगी के रूप में हों - चाहे गाय हों या बकरी, सांप हों या बिल्ली या फिर किसी इंसानी रुप में आपकी रूह ने धरती का रूख़ किया हो - आप चाहे जहां हों, आपकी रूह वही बनी रहे जो थी, यही दुआ है। आप वैसे ही दूसरों की मदद करते रहें, आप वैसे ही ज़िंदादिल बने रहें, आप वैसे ही सबके भरोसे जीतते रहे, आप वैसे ही कड़ी मेहनत करके ज़िन्दगी की सीढ़ियां चढ़ते रहें, आप वैसे ही नामुमकिन को मुमकिन बनाते रहें और आप वैसे ही मेरे ज़ेहन में लौट-लौटकर मेरे मुश्किल सवालों का जवाब देते रहें, ये दुआ मैं दिन में कम-से-कम दो बार ज़रूर मांगती हूं।

शुक्रिया बाबा। आप न होते तो ज़िन्दगी में इतना यकीन न होता। आप न होते तो ये नहीं मालूम चलता कि वक्त के साथ बदलने में, धारा के साथ बहने में सुख है। वरना ठहरा हुआ पानी तो मलेरिया और डेंगू  के मच्छरों का घर बनता है। आपसे सीखा है कि अपने बच्चों से सीखने में कोई हर्ज़ नहीं। आपने मुझसे ई-मेल आईडी बनाना सीखा था। मैं अपने बच्चों के साथ बच्चों के लिए ही ई-बुक्स तैयार करना सीख जाऊंगी। आप न होते तो यकीन न होता कि किसी को इस कदर भी प्यार किया जा सकता है कि उसकी रूह को छुआ जा सके। आप न होते तो किसी ने ये भी नहीं सिखाया होता कि ब्लैक, व्हाईट और ग्रे शेड वाली ज़िन्दगी में और भी कई रंग हैं। हमें बस अपनी आंखों पर के चश्मे बदलने की ज़रूरत है। आप न होते तो समझ नहीं आता कि जीने का कोई सही या ग़लत तरीका नहीं होता। हम अपने तरीके खुद अपनी सहूलियत के हिसाब से ईजाद करते हैं। ज़रूरत सिर्फ ये ध्यान में रखने की है कि हमारे तरीकों से किसी और को तकलीफ़ न पहुंचे।

हैप्पी बर्थडे बाबा। जहां रहिए, सुकून से रहिए।