शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

दिसंबर से डर लगता है

फिर धुंध उतरा करेगी और अपने दिन रौशन करने के लिए मेरे पास एक हीटर के अलावा कुछ ना होगा। कभी अपनी, कभी बच्चों की सेहत के लिए परेशान होते हुए मैं जीभर कर सर्दियों को कोसा करूंगी। लेकिन मेरी सज़ा की मोहलत फिर भी कम ना होगी।

उदास होने की कोई वजह ना होगी, सिवाय इसके कि मेरे हिस्से की धूप गुम होने लगी है आजकल। मुझे गुलाबी पर्दों, धूपवाले आंगन और खुली छत वाला अपना घर याद आया करेगा, और याद आएगा डैम का वो किनारा जहां घास नहीं, पीले फूल खिलते थे। अमरूद, गन्ने और ओल के अचार का स्वाद फिर ज़ुबान को सताने के लिए याद आ जाया करेगा अक्सर। आंगन में खिलनेवाली गुलदाऊदी, डालिया और पैन्ज़ी के लिए भी रो लूंगी कभी ज़ार-ज़ार।

फिर एक दिन थक जाऊंगी, खिड़कियों पर पर्दे डाल दूंगी, घड़ियों के मुंह पर बांध दूंगी पट्टियां और आंखें मूंदकर नींदों में रंग भरूंगी। सर्दियों में शुतुरमुर्ग हो जाने का अपना सुख है। हम एफडीआई, डर्टी पिक्चर और लोकपाल पर फिर कभी बात कर लेंगे।

7 टिप्‍पणियां:

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

आपको घर में रहते डर लगता है दिसम्बर से? हमें तो कोहरे में चलती रेलगाड़ियों की असुरक्षा को ले कर भय बना रहता है। रक्तचाप जरूर दस प्वॉइण्ट बढ़ जाता होगा माघ के महीने में! :-(

Rahul Singh ने कहा…

इससे जब बात करेंगी तो बात में असर होगा.

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

अभी और डरावना होने वाला है दिसम्बर।

monali ने कहा…

Hmmm har mausam ka apna ek alag rang aur ek alag dar h...

Arvind Mishra ने कहा…

......एक सर्दीली शुतुरमुर्गी ...हा हा हा ....(गुस्ताखी माफ़ ...)

SANDEEP PANWAR ने कहा…

जनवरी के नाम से तो बुरा हाल हो जाता होगा?

Puja Upadhyay ने कहा…

बहुत अपना सा लगा आपको पढ़ कर...कुछ लोग ऐसे ही पहली नज़र में अच्छे लगने लगते हैं...फिर फिर लौटूंगी यहाँ।