सोमवार, 26 दिसंबर 2011

काफ़िए की एक रात

आधी रात को भाई के साथ काफ़िया मिलाया तो नतीजा ये निकला..


कभी ख्याल बनकर ही छू लिया, कभी नींद उड़ाई एक ख़्वाब की
जो राज़ बना, हमराज़ बना, करूं कैसे शिकायत उस माहताब की

घनघोर घटा को जिसने बांधा है, ऐसी ताक़त है तेरे हिजाब की
जो तीर-ए-निगाह है पोशिदा, दो बूंद मिले उस नज़र-ए-आब की

कहो कैसे चैन आ जाएगा जब बात ना हो किसी इज़्तराब की
हम दीवाने हैं, अपनी हस्ती क्या, हमें उम्मीद कहां है इंतख़ाब की

हमने भी कहा चलो ऐसा भी हो, भूलें हर्फें माज़ी के किताब की
थोड़ी शक्लें वैसे हम पहचानते हैं तुझसे आनेवाले जवाब की

जब झोंके से ही काम बने, क्यों ख़्वाहिश करें फिर सैलाब की
पहले सुलझें अपनी ये उलझनें, तब बात करेंगे इंकलाब की

3 टिप्‍पणियां:

Smart Indian ने कहा…

@घनघोर घटा को जिसने बांधा है, ऐसी ताक़त है तेरे हिजाब की
जो तीर-ए-निगाह है पोशिदा, दो बूंद मिले उस नज़र-ए-आब की

वाह, क्या बात है!

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

पहले सुलझे अपनी उलझन फिर बात करें हम इंकलाब की।
..वाह!

विभूति" ने कहा…

बेहतरीन अभिवयक्ति.....