कभी कोई आर्टिकल पढ़ा था चार्ल्स डार्विन के बारे में। अपनी आत्मकथा में डार्विन ने अक्सर ऐसी मानसिक स्थिति में होने की बात स्वीकारी जब तीन दिनों में कम-से-कम एक दिन उनसे कोई काम नहीं होता था, जब डर उन्हें इस कदर घेरे रहता था कि दिमाग नाकाम हो जाए और उनकी रुलाई ना बंद हो। ये मुमकिन है कि इसी दिमागी हालत ने डार्विन को काम करने की प्रेरणा दी, अपनी तन्हाई से बचने के लिए उन्होंने दुनिया से कन्नी काटी और अपने शोध की ओर अपनी पूरी ताकत झोंक दी। अपनी आत्मकथा में वे लिखते हैं, "काम ही इकलौती ऐसी चीज़ है जो मेरे लिए ज़िन्दगी को बर्दाश्त करने लायक बनाती है। काम ही एन्जायमेंट का इकलौता ज़रिया है।" डार्विन के लिए डिप्रेशन एक ऐसी ताकत थी जिसके दम पर उनका दिमाग समस्याओं को सुलझाने के काबिल बनता था।
हम डार्विन की तरह भले ही वर्कोहॉलिक या विलक्षण ना हों, लेकिन उनके जैसी मानसिक स्थिति से अक्सर रूबरू तो होते ही हैं। शामें अक्सर खालीपन लिए आती हैं, आवाज़ें अक्सर डूबती-सी लगती हैं और जीना कई बार बेमानी लगता है। जिस तरह शरीर बीमार पड़कर, थककर आराम मांगता है, वैसे ही दिलोदिमाग को भी आराम की ज़रूरत पड़ती होगी। अवसाद के लम्हे हमें यही बताने आते हैं - अब रुको, थमो। ना भी थमना चाहो तो अपनी शक्ति कहीं और लगाओ।
कई बार अवसाद हमारे लिए वरदान की तरह आता है। अपने आस-पास की गहरी खाई हमारे होश-ओ-हवास में अक्सर कम ही दिखाई देती है। अवसाद के लम्हों में हम अपने सबसे करीब, अपने सबसे शुद्ध, ईमानदार रूप में होते हैं। वल्नरेबिलीटी (vulnerability) का अपना सुख है। टूटकर बिखरने का शऊर सबको नहीं आता। जिसे आता है, वो वापस उतनी ही तेज़ी से खुद को जोड़ लेता है। टूटना और फिर खुद को समेटना हिम्मत का परिचायक है। जो टूटने से घबराता है, इस कदर चूर-चूर होता है कि नामोनिशां मिलना मुश्किल। मैं कोई एक्सपर्ट नहीं, लेकिन सबके सामने टूटकर अपने असली रूप में आ जाने का डर ही शायद ज़िन्दगी से पूरी तरह मुंह मोड़ लेना का सबब बनता होगा।
अवसाद की काली शामें गहरी रातें लेकर आती हैं और रातें कितनी भी गहरी हों, सुबह तो होती ही होगी। अपनी तकलीफों से परेशान हम खाना बंद कर दें, रतजगों को हथियार बना लें, तकिए को सूखने ना दें या फिर मर जाने की ही ख्वाहिश क्यों ना करें, कोई एक उम्मीद, एक हसीन लम्हा ज़िन्दगी को जिए जाने के काबिल बना ही जाता है।
कई घंटों के सेल्फ-इन्फ्लिक्टेड डिप्रेशन से तंग आकर मैंने डिप्रेशन के बारे में और समझने के लिए गूगल का सहारा लिया है। लंबी-लंबी थ्योरिज़ और एक्सपर्ट ओपिनयन ऊबाऊ हैं। डिप्रेशन के हर लक्षण में अपनी परछाई नज़र आती है। और फिर जॉन हॉपकिन्स में साइकिएट्री के प्रोफेसर के रेडफील्ड जेमिसन की थ्योरी पढ़ती हूं, रचनात्मक लोग तय रूप से डिप्रेशन प्रोन होते हैं। जेमिसन के मुताबिक अवसाद लोगों को बेहतर तरीके से सोचने की ताकत देता है। लेकिन तब, जब आपने अपनी तकलीफों की पहचान कर ली है और आप उनसे जूझने के लिए तैयार है। यही तो सबसे बड़ी विडंबना है: हमारी तकलीफें ही अंततः हमारे काम आती हैं, लेकिन उनसे बचने के लिए हम मारे-मारे फिरते हैं।
इतना ही नहीं, सफल माने जानेवाले इन्डिविजुअल्स को आम लोगों से आठ गुना ज्यादा डिप्रेशन होता है। मैंने खुद को 'ऑलमोस्ट डिप्रेस्ड', 'ऑल्मोस्ट क्रिएटिव' और 'ऑलमॉस्ट सक्सेसफुल' की श्रेणी में डाल दिया है। वैसे ऑलमोस्ट बेहतर महसूस करना ऑलमोस्ट डिप्रेस होने से ज्यादा आसान है!
7 टिप्पणियां:
दिमाग को कुछ न कुछ काम देते रहना चाहिये, चलता रहता है।
"मैंने खुद को 'ऑलमोस्ट डिप्रेस्ड', 'ऑल्मोस्ट क्रिएटिव' और 'ऑलमॉस्ट सक्सेसफुल' की श्रेणी में डाल दिया है. वैसे ऑलमोस्ट बेहतर महसूस करना ऑलमोस्ट डिप्रेस होने से ज्यादा आसान है." इसके लिए बहुत सी बधाई.
अवसाद भी छुपा हुआ वरदान (ब्लेसिंग इन डिस्गायिस ) -क्या कहने!
बर्ट्रेण्ड रसेल लिखते हैं कि डार्विन जीवन का उत्तरार्ध एक जगह पर रहे और मोनोटोनी में जिये।
He must have been a wanderer mentally.
ज़िंदगी जीते रहे शर्तों पे अपनी
मौत आयेगी, उसे भी देख लेंगे
dipretion se pyar karo meri tarah marna to hai hi
ऑलमोस्ट बेहतर महसूस करना ऑलमोस्ट डिप्रेस होने से ज्यादा आसान है! sahi
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