शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

'सच' बनाम 'मज़ा' यानी लव ऑफ़ कॉमन पीपुल

मुझे ठीक-ठीक याद नहीं वो वाकया। लेकिन भाई की ज़ुबानी कई बार सुन चुकी हूं ये किस्सा, इसलिए यहां दुहरा सकती हूं। हम सातवीं-आठवीं में थे तो हमें ब्रिटिश लाइब्रेरी की मेंबरशिप दिलाई गई। पापा हमें वो अंग्रेज़ी पढ़ाक बनाना चाहते थे जो वो ख़ुद चाहकर भी नहीं बन सके होंगे। इसलिए, हमें उस उम्र में हार्डी बॉयज़, फ़ेमस फाइव और  सीक्रेट सेवेन की दुनिया में उलझा दिया गया और रांची की अपनी बेहद मिडल क्लास, बेहद साधारण ज़िन्दगी से परे हमने धीरे-धीरे एक और दुनिया बना ली। (राज़ की बात है कि अंग्रेज़ी किताबों में छुपाकर मैं शिवानी के उपन्यास पढ़ती थी और भाई अपनी टेबल के नीचे पिस्का मोड़ से एक रुपए देकर किराए पर लाई हुई नागराज की चार कॉमिक्स रखता था।) भाई का तो नहीं मालूम, लेकिन मैंने मजबूरी में ही सही, अपनी पीढ़ी के बाकी लोगों की तरह जितना एनिड ब्लाइटन पढ़ा, उतना किसी और को पढ़ा होगा, मुझे नहीं लगता। ख़ैर, मुद्दा ये नहीं कि हमने ब्रिटिश लाइब्रेरी के समंदर में से कितने मोती चुने और कितनी रेत जेबों में भरी। मुद्दा ये है कि उस समंदर के किनारे बैठने की क़ीमत कितनी बड़ी हुआ करती थी।

ब्रिटिश लाइब्रेरी घर से कुछ दसेक किलोमीटर दूर था। सालाना मेंबरशिप दो सौ रुपए की और हर चार हफ्ते पर किताबें लौटाने जाने का खर्च रिक्शे के भाड़े के तौर पर। हम या तो रिक्शा करते या फिर ऑटो लेते। हम यानी मैं और मेरा छोटा भाई। हम तीनों में सबसे छोटा अभी चौथी या पांचवीं में था, लेकिन सबसे स्मार्ट था। उसने किताबों के प्रति अपनी उदासीनता बहुत पहले ही साफ़ कर दी थी, इसलिए उससे अख़बार पढ़ने (और फिर अंग्रेज़ी और हिंदी में ख़बर पर टिप्पणी लिखने) को भी नहीं कहा जाता था।  हंस लीजिए हमपर, लेकिन हमने ये कसरत हर इकतीस दिसंबर को कई सालों तक की, पापा के डर से। भाई ने स्मार्टली, और मैंने बेवकूफ़-ली।

ख़ैर, हमें कुल मिलाकर तीस रुपए मिला करते - पंद्रह आने के, पंद्रह जाने के। ऑटोरिक्शा से जाना सस्ता पड़ता था, लेकिन हम रिक्शा लेना इसलिए पसंद करते थे क्योंकि रिक्शा हमारी निजी सवारी टाईप का फ़ील देता था। फिर रिक्शे पर गप मारने का बहुत सारा टाईम भी मिलता था। वैसे ऑटो से जाने का मतलब होता, सीधे दस रुपए की बचत। तो ऐसे ही दस-पांच रुपए बचाते हुए हमने बीस रुपए इकट्ठा किए। मैं बड़ी थी, इसलिए ज़ाहिर है पैसा मेरे हाथ में होता। पैसे बचे तो हमने एक दिन जोश-जोश में कावेरी जाने का फ़ैसला किया।

कावेरी तब रांची के महंगे रेस्टुरेन्ट्स में से एक था। वहां तब भी लंबी कतार लगती थी, अब भी शायद लगती है। हम जैसे बारह-तेरह साल के पिद्दियों के लिए कावेरी जाना मूनवॉक कर आने के बराबर था। ख़ैर, हम कावेरी में घुस गए और मेन्यू कार्ड देखा तो समझ गए पिद्दी को पिद्दी का शोरबा ही मिल सकता है। जितने पैसे हमारे पास थे, उसमें एक ही मसाला डोसा और एक ही नींबू पानी ऑर्डर किया जा सकता है, वेटर को टिप देने का तो ख़ैर कोई सवाल ही नहीं है (जो हमारी शान के ख़िलाफ़ था)। बकौल भाई, डोसे के लिए आतुर (और भुक्खड़) भाई की प्लेट से निवाला बांट लेने का मन बहन का हुआ नहीं और नींबू पानी में से भी मैंने उसका हिस्सा निकाल दिया (ये मैं नहीं, भाई बताता है सबको। मैं तो सिर्फ़ उसे कोट कर रही हूं)।

हम 'गरीब' नहीं थे, सत्तर और अस्सी का स्टाईल स्टेटमेंट बन गई 'गरीबी' के हिसाब से तो बिल्कुल नहीं। लेकिन फिर भी ज़िन्दगी क़तरा-क़तरा नसीब होती थी, कई सारी कटौतियों के बाद। एक बड़े परिवार को चलाने का दारोमदार एक कंधे पर। गांव और शहर के बीच का संतुलन बनाए रखने का भार एक कंधे पर - बाबा के कंधे पर। इसलिए हम तीसरी पीढ़ी तक जो आता, बहुत सारी राशनिंग के साथ आता। बस ख़्वाब प्रचुर मिले विरासत में। बड़े-बड़े ख़्वाब। अपनी क्षमता की सीमाओं को तोड़ते हुए नई सीमाएं सुनिश्चित  करने का ख़्वाब। पैरों में पहिए डालकर अथक चलते रहने का ख़्वाब। नए शहर, नए गांव देखने का ख़्वाब। एक गाड़ी खरीदने का ख़्वाब। एक घर खरीदने का ख़्वाब। एक पहचान बना लेने का ख़्वाब। बाबा का दिया ख़्वाब। पापा का दिया ख़्वाब। मम्मी का दिया ख़्वाब। आईआईटी का ख़्वाब। लाल बत्ती का ख़्वाब। दौलत-शोहरत का ख़्वाब। और किसी कावेरी में कभी वेटर को टिप न दे पाने के गिल्ट से हमेशा के लिए निजात पा सकने लायक हैसियत रखने का ख़्वाब। जो ज़िन्दगी पापा न जी सके, वो उन्हें दे सकने का ख़्वाब। जो मम्मी को न मिला, वो छीनकर हासिल करने का ख़्वाब।  

पैसे नहीं होते थे, लेकिन उन ख़्वाबों के बारे में रात-रात पर बात करते रहने का जुनून था। छत पर सर्दी की धूप सेंकते हुए, गर्मी की छुट्टी में गांव के लिए बस में सफ़र करते हुए, कावेरी में खाने के लिए कई हफ्तों तक पैसे बचाते हुए, और एक मसाला डोसा के टुकड़े बांटकर खाते हुए हम सिर्फ ख़्वाब में जीते। वो ख़्वाब अजीब-से थे। सफलता का मतलब ठीक-ठीक मालूम नहीं था, लेकिन बस सफल होना था - सक्सेसफुल, एक्सिट्रिमली सक्सेसफुल एंड रिच। ख़्वाब को 'सच' में बदलने और उस सच का 'मज़ा' ले पाने का जोश था।

मैं जिस कॉलेज में थी, वो रईसों का कॉलेज था। 'मज़ा' वहां भी था लेकिन 'सच' कुछ और निकला। कॉलेज के बैंक से सौ रुपए निकालने के लिए दस बार सोचना पड़ता और फिर हिम्मत बांधकर लंबी लाइन लगानी पड़ती। उस उम्र में वैसे तो एक-दूसरे को बहुत सारा प्यार करने के लिए किसी ख़ास सरनेम की ज़रूरत नहीं पड़ती क्योंकि तितली बाद में जैसी भी बनकर निकले, कैटरपिलर से प्यूपा बनने के स्टेज पर तो सभी रंगों की तितलियां एक-सी ही होती हैं। लेकिन फिर भी घर से चिट्ठी के साथ, सोच-समझकर खर्च करने की ताक़ीद के साथ आनेवाले ड्राफ्ट का बेसब्री से इंतज़ार रहता और अपना जेबखर्च निकालने के लिए कई बार जी-जान लगाकर इंटर-कॉलेज प्रतियोगिताएं भी जीतनी पड़ीं। अब का पता नहीं, लेकिन तब कॉलेज फेस्टिवल्स में विजेता टीम को २००० रुपए तक, और सर्वश्रेष्ठ वक्ता को १००० रुपए तक का नकद पुरस्कार मिलता था। २००० रुपए लाजपत-सरोजिनी में भटकने, पीवीआर साकेत जाकर सात रुपए की टिकट लेकर फिल्में देखने और मैकडॉनल्ड्स से सात रुपए का कोन खाने के लिए बहुत होते थे। यानी तब भी तंगी के कैक्टस पर ख़्वाबों के फूल खिलते रहे और 'सच' पर 'मज़ा' हावी रहा, और ज़िन्दगी कड़वे-तीखे सच के बावजूद मज़ेदार रही। लेकिन 'सच' अक्सर चुभता था। मैं तंगहाली नहीं चाहती थी। (और ये स्वीकार करते हुए मुझे इतनी ही  झिझक हुई कि ये लाईन तीन बार टाईप की और दो बार डिलीट।) 

फिर अपने मोमेन्ट ऑफ एपिफ़नी के बारे में बताती हूं। कॉलेज थर्ड ईयर में थी। दिसंबर के एक सर्द और उदास वीकेंड पर मैंने अपनी दोस्त राशि का म्यूज़िक सिस्टम उधार मांगा था और रांची से रिकॉर्ड कराकर लाए अंग्रेज़ी गानों का एक कैसेट सुन रही थी। पॉल यंग को पहले भी सुना था, लेकिन उस दिन कुछ हो गया था मुझे 'लव ऑफ कॉमन पीपल' सुनते हुए। 

Living on a dream ain't easy
but the closer the knit, the tighter the fit
and the chills stay away.
Just to take 'em in stride for family pride.
You know that faith is in your foundation
and with a whole lot of love and a warm conversation
but don't forget to pray.
Making it strong where you belong

and we're living in the love of the common people,
smile's from the heart of a family man.
Daddy's gonna buy you a dream to cling to,
Mama's gonna love you just as much as she can
and she can.

मैं रिवाइंड कर-करके गाने का ये हिस्सा सुनती रही थी। उस समय अंग्रेज़ी गाने ठीक से समझ आते नहीं थे और गूगल था नहीं कि मदद मिलती। लेकिन कम-से-कम सत्तर बार मैंने ये अंतरा सुना और कॉपी में एक-एक शब्द लिखती रही। मुझे नहीं मालूम किसी और के साथ कभी हुआ होगा या नहीं, लेकिन मेरे साथ हुआ और इस एक शाम सुने हुए इस एक गाने ने मुझे ज़िन्दगी का सार सीखा दिया। मैं अकेले कमरे में बैठकर यूं रोई कि जैसे आंसुओं ने रूह का कोई हिस्सा पोंछ-पाछ कर साफ़ कर दिया है। उस दिन समझ में आया कि ड्राफ्ट से ज़्यादा ज़रूरी वो चिट्ठियां हैं जो मम्मी लिखा करती हैं। समझ में आया कि ईनाम में मिले पैसों से ज़्यादा बड़ी बात ये है कि मैं ईनाम जीत पाने के क़ाबिल थी। समझ में आया कि बंगला-गाड़ी-शोहरत से घर नहीं बनता। घर उस प्यार से बनता है जो प्यार हर सुबह बाबा फोन करके जताते हैं, तीन सौ लड़कियों के बीच के perpetually engaged इकलौते लैंडलाईन पर आधे-आधे घंटे तक फोन मिलाने की जद्दोज़ेहद और खीझ के बावजूद। समझ में आया कि ख़्वाबों का क्या है? हसरतों के पंखों पर सवार होकर ये आपको कहीं भी लेकर जा सकते हैं। लेकिन faith, भरोसा, यकीन, विश्वास आपको ख़ुद से जोड़े रखता है और ये भरोसा उनसे आता है, जो आपको प्यार करते हैं। ये भरोसा ख़ुद से आता है। हसरतों के पंखों को आपका अपना हौसला ही हवा दे सकता है और फिर ज़मीन पर गिरने या उतरने के लिए एक मुकम्मल पैड faith देता है।

इस एक गाने ने भी 'सच' और 'मज़ा' - इन दो दुश्मनों में समझौता कराने का तरीका सिखा दिया।   

आख़िर सच क्या है?

सच ईएमआई और फ़ीस चुकाने की चिंता है। सच शाम को आनेवाली सब्ज़ियों के न्यूट्रिएंटरहित होने की नाराज़गी है। सच एक किलो प्याज़ के डॉलर से महंगे हो जाने का गुस्सा है। सच धीरे-धीरे गिरता बैंक बैलेंस है। सच भविष्य का ख़ौफ़ है। सच वो डर है कि अगर कल को हमारे पास कुछ न बचा तो क्या होगा? सच अपने सपनों का दारोमदार अपने बच्चों के नाज़ुक कंधों पर डालते हुए उनके लिए बड़े-बड़े नामुमकिन ख़्वाब देखने की ढीठई है। सच कई-कई सालों तक कई-कई पीढ़ियों से वास्ता रखते हुए भी एक दिन भुला दिए जाने, रिडन्टेंट, अनावश्यक, बेकार हो जाने का शाश्वत सत्य है। सच गुल्लक में बचाए जाते रहने वाला यही डर है। सच मोदी है। सच आसाराम है। सच परमाणु हथियारों पर होने वाली लड़ाई के डर के ख़िलाफ़ लिखे जा रहे शांति प्रस्ताव हैं।

और मज़ा?

मज़ा जेब को रफू किए जाने की हाजत को जीभ चिढ़ा पाने का हौसला है। मज़ा मूलचंद फ्लाईओवर के नीचे आलू के परांठे दस रुपए में खा लेने और पचा लेने की शक्ति है। मज़ा बारिश के पानी से बनाई गई चाय की चुस्की है। मज़ा वो बेफ़िक्री, वो तटस्थता है जो जेब की गर्मी नहीं तय कर पाती। मज़ा मर जाने से पहले बहुत सारे लोगों को बहुत सारा प्यार दे पाने की शक्ति है। मज़ा दो मीठे बोल हैं, किसी को अपना समझकर गले लगा लेने से मिली उष्णता है, किसी के कंधे पर सिर टिकाकर रोने का सुख है। मज़ा अपनी हथेली पर किसी दोस्त की उंगलियों की नरमी की याद है। मज़ा सांस में अपने बच्चों के पसीने की खुशबू होने का सुख है। मज़ा उन्हीं बच्चों को बाद में उड़ने देने का विश्वास है। मज़ा इस बात पर यकीन है कि ज़िन्दगी में हसरतें बची रहें तो आस्था भी बची रहती है। मज़ा एक गाने में डिफ़ाईनिंग मोमेन्ट ढूंढ लेने का दीवानापन है। मज़ा कॉमन पीपुल के बीच का एक होते हुए भी एक्स्ट्राऑर्डिनरी हौसला रखना है। मज़ा इस नश्वर दुनिया में होते हुए भी ख़ुशी का वो एक लम्हा जी लेना है जो उस लम्हे का इकलौता शाश्वत सत्य है।

अब कहिए कि सच चाहिए या मज़ा? :-)

पोस्टस्क्रिप्ट: और अगर मेरी डायरी पढ़ते हुए भी इमोशनल नहीं हुए तो पॉल यंग का ये गाना सुनिए। (कवितानुमा गीत के बोल http://www.metrolyrics.com/love-of-the-common-people-lyrics-young-paul.html पर पढ़े जा सकते हैं)