शनिवार, 31 मार्च 2012

ऐसे ही लिखती रहना, महुआ

गर्मी की छुट्टियों में मैं ससुराल में थी, पूर्णियां में। दिनभर दो-चार ही काम होते थे, जीभकर के लीची, आम और चीकू खाना, जीभर के सोना और उमसभरी दोपहर में बच्चों को सुलाने के लिए जीभर के झूठी-सच्ची कहानियां बुनना। एक काम और भी था, मैचिंग चूड़ियों औऱ बिंदियों के साथ शिफॉन की रंग-बिरंगी साड़ियां पहनकर आस-पास के मंदिरों के दर्शन करने जाना। आरएन शाह चौक पर का महावीर मंदिर मेरा फेवरिट हुआ करता था। मंदिर से ठीक सटी किताबों की एक दुकान थी जहां आधी पत्र-पत्रिकाएं तो मैं खड़े-खड़े पढ़ जाती। किताब की दुकान वाले अंकल जी को बहूरानी का यूं चौक पर खड़ा होना नहीं भाता था। कहते, ड्राईवर को पर्ची लिखकर भेज दिया करो, किताब हम घर ही भेजवा देंगे। उनको क्या बताती कि इस इकलौती आउटिंग को खो देना किसी कीमत पर गवारा नहीं था।
उसी किताब की दुकान पर एक उपन्यास देखा - मैं बोरिशाइल्ला। महुआ माजी... नाम इतना सुना हुआ क्यों है? ये रांची वाली महुआ तो नहीं? वहीं महुआ थीं जिन्हें मैं आठवीं से जानती थी। जिन्हें आकाशवाणी पर सुना था, जिनकी कविताएं रांची एक्सप्रेस में पढ़ी थीं। झट से किताब उठा ली और चार दिनों में चार सौ पन्ने पढ़ गई, एक सुर में। महुआ की किताब पढ़कर मैं इतनी ही खुश थी कि जाने किसको किसको फोन करके उस किताब के बारे में बताया। इसमें शक नहीं कि कथानक और भाषा शैली के लिहाज़ से मैं बोरिशाइल्ला वाकई अद्भुत है। लेकिन मुझे एक गृहिणी का लेखिका में परिणत हो जाना और इस तरह की एक महाकथा लिख डालने की हिम्मत करना ही पुलकित कर रहा था।

किसी तरह महुआ का फोन नंबर ढूंढ निकाला और उन्हें फोन किया तो वो पुणे में एफटीआईआई में फिल्म अप्रीसिएशन का कोर्स कर रही थीं। पंद्रह दिन बाद हमने रांची में मिलना तय किया और पंद्रह दिन तक मैं उस महुआ के बारे में सोचती रही जिससे रांची में मिली थी पहली बार - जो अंग्रज़ी सीखने के लिए एक इंस्टीट्यूट में जाया करती थी और जिस क्लास में मैंने अपनी मां की उम्र की महिलाओं को ग्रामर पढ़ाया था एक दिन।

उस क्लास में भी महुआ अलग दिखती थीं, अब भी अलग दिखती हैं। ठीक वैसी ही, जैसी दस साल पहले थीं। मैं कितना बदल गई थी लेकिन। तब कॉलेज में थी, अब दो बच्चों की मां हूं। तब रंग-बिरंगे ख़्वाबों के पंखों पर सवार रहती थी, अब हक़ीकत की सख़्त ज़मीन थी पैरों के नीचे। फिर महुआ वैसी की वैसी कैसे थी? दरअसल, महुआ भी वैसी की वैसी नहीं थी। एक लंबा सफ़र तय किया था उन्होंने और लेखन अपनेआप में थका देनेवाली एक प्रक्रिया होती है। ख़ासकर तब जब लोग आप पर तरह-तरह के लांछन लगाने से भी बाज़ ना आएं।

सुना है कि उनकी दूसरी किताब के लिए भी कई पुरस्कारों ने नवाज़ा गया है उन्हें। अभी दूसरी किताब पढ़ना बाकी है, लेकिन मैं बोरिशाइल्ला और महुआ की लेखन-यात्रा पर उनसे हुई बातचीत के हिस्से यहां पेस्ट कर रही हूं, जो अपने लैपटॉप की सफाई के दौरान मिले मुझे। दुआ ये भी है कि वो लिखती रहें, छपती रहें और सराही जाती रहें।

(बातचीत जून २०१० में महुआ के घर रांची में हुई।)

अनु-
महुआ जी, जब मैं आपसे पहली बार २००१ में रांची में मिली थी तो आपको एक घरेलू महिला के रूप में देखा था। एक ऐसी घरेलू महिला के रूप में, जिसमें कुछ करने की ललक थी, एक नया क्षितिज तलाश करने की ख्वाहिश थी। फिर नौ सालों में ये सफ़र कैसे तय किया?

महुआ - मैं रांची में ही पली-बढ़ी। वैसे तो हम मूलतः ढाका के हैं, लेकिन मेरे दादाजी तीस के दशक में ही रांची आकर बस गए। मेरे नानाजी बोरिशाल, बांग्लादेश के थे। उनका परिवार भी पचास के दशक में कोलकाता आ गया। मैं ज़रूर बंग-भूमि में नहीं रही, लेकिन झारखंड और कोलकाता के बंगाली परिवारों से सामिप्य की वजह से बंगाली संस्कृति से कभी दूर नहीं थी। १७ साल की थी तो मेरी शादी हो गई। १८ साल में बड़ा बेटा हुआ, २० में छोटा बेटा। हम संयुक्त परिवार में थे, इसलिए कम उम्र में ही मैंने सभी पारिवारिक ज़िम्मेदारियां उठाना सीख लिया। बच्चों को बड़ा किया। पत्नी, बहू का कर्तव्य निभाया। ये सब करते हुए भी पढ़ने-लिखने का शौक नहीं छूटा। बच्चे बड़े हुए तो मैंने बी.ए., एम.ए., पी.एच.डी. किया। खाली समय में मैं डटकर पढ़ती। लिखने की हिम्मत ज़रूर देर से आई।
अनु - गंभीर लेखन की शुरूआत कैसे हुई? आप पहले कविताएं लिखा करती थी। मुझे याद है कि आकाशवाणी, रांची से युवावाणी में और कई बार दूरदर्शन पर भी आप कविताएं पढ़ा करती थीं।

महुआ -(हंसकर) अब वे कविताएं खुद को ही बचकानी लगती हैं। पहले कविताएं ही लिखना शुरू किया जो स्थानीय अखबारों में छपी भी। लेकिन साहित्य के फलक पर मुझे पहली पहचान २००१ में मिली, जब कथादेश के नवलेखन अंक में मेरी पहली कहानी “मोइनी की मौत” छपी। वो कहानी दरअसल मैंने एक थीसिस के लिए शोध के दौरान लिखी। रांची में हमारे घर के पास एक आदिवासी बस्ती थी, जिसपर मैं कुछ रिसर्च कर रही थी। उसी क्रम में कहानी लिख डाली। पाठकों को कहानी पसंद आई, संपादकों ने प्रोत्साहित किया और फिर लिखने का सिलसिला चल पड़ा।

अनु -
यानि पद्य से गद्य तक का सफर सुनियोजित नहीं था?

महुआ -कविताएं मुझे बहुत सुकून देती हैं। कालिदास से लेकर रवीन्द्रनाथ टैगोर तक, जहां तक मुमकिन हो सका है, मैं सबकुछ पढ़ती रही हूं। लेकिन गद्य के ज़रिए अपने विचारों को ज़्यादा विस्तृत और व्यवस्थित ढंग से पाठकों तक पहुंचाया जा सकता है। फिर अपने अनुभवों में मैंने जो भी सहेजा-समेटा उसे कहानियों में ढालना शुरू कर दिया। कहानीकार के तौर पर ही राष्ट्रीय स्तर पर मेरे लेखन की संभावना को पहचाना गया। उसके बाद मैंने गुणीजनों के सान्निध्य में स्वयं को और तराशा। रचानाएं जब छपने लगीं कि तो मुझे साहित्यिक सभाओं में बुलाया जाना लगा जो मेरे लिए बहुत लाभदायक साबित हुआ। इससे मुझे हिन्दी मुख्यधारा साहित्य को समझने का मौका मिला, पाठक क्या चाहते हैं, आलोचकों की विभिन्न रचनाओं के बारे में क्या राय है, ये मैंने मंच पर और मंच के पीछे साहित्याकारों से लगातार संपर्क में रहते हुए सीखा।

अनु -
लेखन के लिए इस तरह की नेटवर्किंग कितनी आवश्यक है?

महुआ -देखिए, नेटवर्किंग जैसा शब्द इसकी गंभीरता को थोड़ा कम करता है। बल्कि मैं कहूंगी कि आप लिखें और छपें, इसके लिए ज़रूरी है कि आप साहित्य के संपर्क में रहें। हिंदी की महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं को उलट-पुलटकर देखें, आलोचक क्या लिख रहें हैं ये समझने की कोशिश करें। साहित्यकार के लिए भी खुद को अपटूडेट रखना बहुत ज़रूरी है वरना आपकी कलम की धार भोथरी होने लगेगी, विचार फीके पड़ने लगेंगे। नए लोगों के साथ-साथ क्लासिक्स को, पुराने लेखकों को भी पढ़ना बेहद ज़रूरी है। मूल बात ये कि एक कुकून, एक सुरक्षा कवच में रखकर आप लेखन जैसा काम नहीं कर सकते।

अनु -
कहानियां लिखते-लिखते “मैं बोरिशाइल्ला” लिखने का विचार कैसे आया?

महुआ -ये उपन्यास भी पूर्वनियोजित नहीं था। जैसा कि मैंने किताब की भूमिका में लिखा है और आपको बताया भी, हम मूलतः बांग्लादेश के हैं। मैं कभी बांग्लादेश नहीं गई, लेकिन बचपन से दादी-नानी, मां और अपने कई रिश्तेदारों से ढाका और बोरिशाल की इतनी कहानियां सुनी कि बांग्लादेश जैसे मेरी कल्पना में बस गया। बंटवारे के बाद और साठ के उत्तरार्द्ध में हमारे कई रिश्तेदार भारत आकर बस गए। लेकिन उनकी जन्मभूमि उनकी यादों में बसी रही, जिसकी तमाम सारी कहानियां हमें सुनने को मिलती रही। उपन्यास के मुख्य पात्र केष्टो भी हमारे संबंधी ही हैं। बोरिशाल मैंने दो लोगों की नज़रों से देखा – एक मेरी नानी और दूसरे केष्टो घोष। मैंने जब बोरिशाल की कहानी लिखनी शुरू की तो उन्हीं के नोस्टैलजिया को आधार बनाया। लेकिन कहानी लिखने के क्रम में बांग्लादेश अभ्युदय के कई और पहलू सामने आने लगे, कई और तथ्य जुड़ते चले गए। एक देश को और बेहतर समझने और उसके बारे में लिखने की मेरी लालसा बढ़ती गई और तब मैंने और गंभीरता से शोध शुरू कर दिया। कोलकाता में बसे उन तमाम लोगों से बातचीत की जिन्होंने इस कालखंड को बहुत करीब से देखा और झेला। लेकिन मेरे दिमाग में ये बहुत स्पष्ट था कि बांग्लादेश के अभ्युदय की गाथा लिखते हुए मैं इसे मात्र एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ के रूप में नहीं लिखना चाहती थी। ये भी सच था कि कथानक तथ्यों पर आधारित था, इसलिए इतिहास के साथ छेड़छाड़ नहीं की जा सकती थी। इसलिए मैंने देश के लोगों के ज़रिए उसकी कहानी कही, लेकिन साक्ष्यों को आधार बनाया। जहां तक संभव हो सका, लिखित सामग्री की खोज की। लोगों के अनुभव और शोध, दोनों इस उपन्यास के लेखन में भरपूर इस्तेमाल हुए।

अनु -
“मैं बोरिशाइल्ला” एक बहुआयामी उपन्यास है। इसमें इतिहास है, राजनीति है, समाजशास्त्र है, यहां तक कि पत्रकारिता भी है। आपने उपन्यास में एक पत्रकार को पन्ने-दो पन्नों में ही जगह दी है, लेकिन वो एक आंकड़ा पेश करता है जो पूर्वी पाकिस्तान के साथ पश्चिमी पाकिस्तान के पक्षपाती रवैए को पुष्ट करने के लिए काफी है। इतने सारे गंभीर तथ्यों के बीच भी आपने भाव-प्रवाह और काव्यात्मकता बरकरार रखी। ये संतुलन कैसे मुमकिन हो सका?

महुआ -यहां मेरा कवि होना काम आया। दरअसल, उपन्यास लेखन के लिए शिल्प और कथानक दोनों ज़रूरी है। कथाकार तभी सफल होगा जब वो एक अच्छी कहानी कहेगा, साथ ही उसे बेहतर ढंग से पेश भी कर सकेगा। जहां तक इस उपन्यास का सवाल है, मैंने इतिहास को साहित्य में ढालने की कोशिश की और उसके लिए तथ्यों को मुकम्मल तरीके से समेटकर पेश करने का प्रयास किया। मैं जानती थी कि कहीं-कहीं तथ्य बोझिल हो रहे हैं। लेकिन पाठक बेशक पन्ने पलटे, उन तथ्यों को देना बहुत ज़रूरी था। जानकारी देने के क्रम में कथा-रस बाधित होता है, लेकिन मैं इस उपन्यास को एक ऐसा दस्तावेज़ बनाना चाहती थी जो उस देश और काल-खंड से जुडी समस्त राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जानकारियां पाठकों तक पहुंचाए। मुझसे कई लोगों ने कहा कि बांग्लादेश की कहानी लिखी और आपने शेख मुजीबुर्रहमान को हीरो नहीं बनाया? लेकिन मैं आम बांग्लादेशियों के संघर्ष की गाथा लिखना चाहती थी और ईश्वर की कृपा से मैं सफल भी रही।

अनु -
केष्टो के ज़रिए बांग्लादेश की गाथा कई परतों में पाठकों के समक्ष खुलती है। पूर्व बंगाल का लोक-जीवन, स्वाधीनता के लिए संघर्ष, विभाजन की विभीषिका, युद्ध की भीषणता, शासन परिवर्तन का व्यापक प्रभाव, सांप्रदायिक दंगों की आग – इतना सबकुछ समेटना कैसे मुमकिन हो सका?

महुआ -सच कहूं तो इस उपन्यास में आईं नब्बे प्रतिशत घटनाएं सच्ची कहानियां हैं जो मैंने उपन्यास के लिए शोध के दौरान सुनीं। मैं तो बस एक माला की तरह इन्हीं सच्ची कहानियों को पिरोती चली गई। लेकिन ये इतना आसान भी नहीं था। महीनों तो मुझे शोध करने में लगे। चूंकि पूरे उपन्यास में ऐतिहासिक तथ्यों को आधार बनाया गया है, इसलिए पात्रों को प्रामाणिक बनाना आवश्यक था। मेरी कल्पना-शक्ति कहानियों को एक सूत्र में पिरोने के काम आई, लेकिन घटनाक्रमों को इकट्ठा करने के लिए मैंने सालों मेहनत की। कई मुक्तियोद्धाओं से मिली, उनके परिवारों से मिली। पत्र, लेख, डायरी के पन्नों को कथा का आधार बनाया। ऐतिहासिक साक्ष्यों के लिए कोलकाता में बांग्लादेश हाई कमीशन की लाइब्रेरी में घंटों गुज़ारे। जहां तक हो सका, अख़बार, पत्र-पत्रिकाएं खंगाल डाली। यहां तक कि केष्टो का भी ५० पन्नों का इंटरव्यू लिया। दरअसल, कई मुक्तियोद्धाओं की कहानी केष्टो के संघर्ष के ज़रिए दिखाई गईं हैं। एक केष्टो बांग्लादेश की आम जनता की तकलीफों का प्रतीक है। केष्टो के ज़रिए ही मैंने विभिन्न लोगों की कहानियों को एक सूत्र में पिरोया। मसलन, केष्टो के ननिहाल की कहानी मेरी मां के ननिहाल की कहानी है। “वो देखो खुड़शोशुर” पाठ में जिस शौंकोरी की चर्चा है वो किस्सा मेरी दादी सुनाया करती थीं। बल्कि मुझे तो लगता है, कई बार ईश्वर ने भी पाठ को पूरा करने में मेरी मदद की। एक उदाहरण देती हूं। बोरिशाल में स्वाधीनता संग्राम के दौरान चल रही सरगर्मियों का प्रसंग लिख रही थी। तभी एक सुबह एक स्थानीय अखबार में संपादकीय पृष्ठ पर एक लेख पढ़ा – बोरिशाल पर। लेख था कि कैसे बांग्लादेश के बोरिशाल से पहली बार “वंदे मातरम्” स्वाधीनता का मंत्र बनकर निकला। रांची में बैठकर बोरिशाल पर अनायास ही लेख पढ़ना, इसे ईश्वरीय पहल ही तो मानेंगे। लिखने के क्रम में ऐसी कई घटनाओं से मेरी हिम्मत बढ़ती गई। एक के बाद एक स्त्रोत मिलते चले गए और मेरी लेखनी चलती रही। मेरी कल्पना ने इतिहास के तथ्यों को गल्प से जोड़ने का काम किया।

अनु -
आप बांग्लादेश कभी नहीं गई, फिर वहां के लोक-जीवन को कैसे साकार कर पाईं? जिस अंचल को देखा तक नहीं उसका इतना मार्मिक चित्रण?

महुआ -एक बंगाली के लिए पानी में डूबे अंचल की कल्पना मुश्किल नहीं। भैला बनाने और उसपर चढ़कर आस-पास के गांव घूम आने की कहानियां भी मैंने खूब सुनी हैं। पश्चिम बंगाल की बाढ़ के दृश्यों से मैंने पूर्वी बंगाल के गांवों के चित्रण की प्रेरणा ली। जहां तक भौगोलिक विवरण का सवाल है, मैंने बांग्लादेश के मानचित्र की मदद ली। आपको एक प्रसंग याद होगा जहां क्रैकडाउन के दौरान केष्टो आलम के साथ ढाका से भाग निकलता है। बोरिशाल के लिए जो तय रास्ता है, वो खतरे से खाली नहीं। इसलिए दोनों जंगल, गांव, बस्ती, नदी, तालाब, सड़क के रास्ते कभी नाव, कभी बैगलगाड़ी पर और कभी पैदल बोरिशाल तक पहुंचने की कोशिश करते हैं। इस प्रसंग के लिए भी मैंने बांग्लादेश के मानचित्र की मदद ली और तब जाकर इस यात्रा का सही-सही विवरण मुमकिन हो सका कि यात्रा किस रास्ते होगी, कितने दिन लगेंगे, कौन से गांव रास्ते में पड़ेंगे वगैरह। जहां तक लोकगीतों का सवाल है, मुझे शुरू से अपनी पसंद के गीत और कविताओं को एक जगह लिखने की आदत रही है। उपन्यास लिखने के दौरान ये संग्रह काम आया। और ये कहूं कि प्रकृति चित्रण की प्रेरणा कालिदास से मिली तो अतिशयोक्ति ना होगी।

अनु -
आप पर ये भी आरोप लगे कि ये रचना आपकी मौलिक नहीं है। ये भी कहा गया कि उपन्यास का पूर्वार्द्ध तो किसी की डायरी का हिस्सा है।

महुआ -(हंसकर) और आपने ये भी सुना होगा कि मैंने चंद लाख रुपए देकर ये उपन्यास लिखवाया। इसकी सफाई में कुछ कहना बोलनेवालों को और मौके देने जैसा होगा। पहले ऐसी बातें चोट पहुंचाती थीं, लेकिन पाठकों की चिट्ठियां पढ़ती हूं तो सभी मलाल धुल जाते हैं। मैं अपनी ऊर्जा किसी तरह की सफाई देने में लगाने की बजाए अपने अगले उपन्यास को लिखने पर केन्द्रित करना चाहूंगी। मझे पूरी उम्मीद है कि मेरा अगला उपन्यास मेरे लेखन को लेकर जो शंकाएं हैं उनका समाधान कर देगा।

अनु -
रांची जैसी जगह में बैठकर लिखना कितना मुश्किल है? क्या पारिवारिक और सामाजिक ज़िम्मेदारियां आड़े नहीं आतीं?

महुआ -मैंने अपनी प्राथमिकताएं हमेशा स्पष्ट रखी हैं। मैंने लिखना तभी शुरू किया जब मेरे बच्चों का करियर एक दिशा पकड़ चुका था। मैं बेशक एक लेखिका हूं, लेकिन फेमिनिज़्म का झंडा मैंने अपने घर के अंदर नहीं उठाया। घरवालों को कभी शिकायत का मौका नहीं दिया। यही वजह रही कि मुझे अपने पति और बच्चों का पूरा समर्थन मिला। लिखने के दौरान भी मैं कई बातें अपने बच्चों से बांटती हूं और अटकने पर वे मेरी मदद भी करते हैं। तकनीक की समझ मुझमें नहीं, तब मेरे बेटे ही मेरा काम आसान करते हैं। मैं राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मसलों पर पढ़ते-लिखते हुए भी अपने परिवार के प्रति ज़िम्मेदारियों को नहीं भूलती। जहां तक रांची में बैठकर लिखने का सवाल है, ऐसा नहीं कि मैं इस दायरे से बाहर नहीं निकलती। मैं शहर, राज्य, देश के बाहर भी जाती हूं, विभिन्न परिचर्चाओं में शामिल होती हूं। प्रतिभा किसी भौगोलिक चौहद्दी की मोहताज नहीं होती।

अनु -
अब महुआ माजी से पाठकगण क्या उम्मीद रखें? अगला क्या लिख रही हैं आप?

महुआ -
अगला उपन्यास झारखंड पर ही है। यहां के आदिवासियों को केन्द्र में रखकर कुछ लिख रही हूं। इसके अलावा फिल्म जैसे माध्यम को भी बेहतर समझना चाहती हूं। अभी एफटीआईआई, पुणे से एक महीने का कोर्स करके लौटी हूं। मुंबई में कुछ फिल्मकारों से बातचीत भी हुई। बस ये समझ लीजिए कि लिखती रहूंगी और जहां तक हो सकेगा, पाठकों तक सार्थक, प्रासंगिक कहानियां पहुंचाती रहूंगी।  

शुक्रवार, 30 मार्च 2012

ऐसे लिखा एक औरत ने (Thus wrote a woman)

मैंने कहा ना कि मैं फेमिनिस्ट नहीं हूं? मैं ऐसे परिवार में पली-बढ़ी जहां पित्तृ-सत्ता को पैदा होते ही स्वयंभू सर्वसर्वा मान लिया जाता है, जहां बेटों-भाईयों-पतियों की सेवा करना जीवन का एकमात्र उद्देश्य होता है, जहां रसोई का इकलौता काम घर के पुरुषों की जिव्हा को संतुष्ट करना होता है, जहां बहुएं अगली पीढ़ियां पैदा करने और घर-बार चलाने के लिए ही लाई जाती हैं। ये सब बिना किसी सवाल या रत्ती-भर बदलाव के पीढ़ी-दर-पीढ़ी होता आ रहा है। हमें भी सवाल पूछना नहीं सिखाया गया था। ना उंगली उठाने की इजा़ज़त थी। घर के दरवाज़े पर लगे रेशमी पर्दे के इस तरफ जो भी हो रहा हो, पर्दे के बाहर से दुनिया वाहवाहियां ही करती तो अच्छा था।

शादी ऐसे परिवार में हुई जो मातृप्रधान था। महिलाओं पर घर और ज़मीन-जायदाद की प्रशासनिक ज़िम्मेदारियां निभाने का दारोमदार था। बहुएं चौके में नहीं जाती थीं, खाना महाराज बनाया करते। इस परिवार में पचास के दशक से ही बहुएं पटना वूमेन्स कॉलेज से पढ़कर आईं। कोई बहू प्रशिक्षित भरनाट्यम नर्तकी थी तो कोई अंग्रेज़ी साहित्य की प्रकांड विदुषी। कोई श्वेत-श्याम एलबम में नेहरू के साथ सनग्लासेस लगाकर खड़े होने की तस्वीरें बार-बार दिखाया करतीं तो किसी के भाई-बंधु नामी-गिरामी मंत्री होते। सुना तो ये भी है कि मेरी एक काकी सास अपने ज़माने में घुटने तक बूट्स डाले दोनाली बंदूक लिए जीप चलाती हुई जंगलों में शिकार के लिए जाया करती थीं। फॉरेस्ट गेस्ट हाउस में दो-चार को हलाल करने के बाद जाम भी उठातीं, जश्न भी मनातीं।

फिर तो ऐसे परिवारों में रहते हुए अपने वजूद के बारे में सोचने की कोई वजह ही नहीं थी। फेमिनिस्म को अपनी किताबों की अलमारी का हिस्सा भी बनाया जाए, इसकी तो बिल्कुल नहीं। फिर ये एड्रियन रिच को कैसे पढ़ लिया मैंने? मेरी सिरहाने एक फेमिनिस्ट कवयित्री कब और कैसे आकर बैठ गई? क्यों एड्रियन का लिखा पढ़ा तो बार-बार पढ़ती रही?

एड्रिएन रिच के लाइफ इवेन्ट्स से तादात्म्य स्थापित करने जैसा कुछ भी महसूस नहीं किया कभी। लेकिन क्यों उसके लिखे हुए में वो नज़र आता था जिसे कहने-सुनने की हिम्मत मुझमें नहीं थी, ना होगी? क्यों फुल वूमेन्स लाइफ को लेकर मेरे मन में कई सवाल उमड़ते-घुमड़ते रहे? क्यों उसके लिखे प्रेम गीत पढ़ती रही, बंद करती रही, फिर हिम्मत की एक बार और पढ़ने की?

एड्रिएन क्रांतिकारी थीं और वियतनाम युद्ध विरोधियों को अपने घर में बुलाकर बहस-मुबाहिसे करतीं, ब्लैक पैंथर आतंकियों के लिए पैसे जुटाने का काम करतीं। उनके पति को लगने लगा कि उनकी बीवी सनक गई है और अपनी पत्नी से अलग होने के तुरंत बाद उन्होंने जंगल में जाकर खुद को गोली मार ली। इस व्यक्तिगत त्रासदी ने भी एड्रिएन को वो होने से नहीं रोका, जो वो बनना चाहती थी।

शादी के तकरीबन बीस साल बाद एड्रिएन अपनी सेक्सुएलिटी को लेकर मुखर हुईं और बाद में उनकी कई कविताओं में लगातार उनकी सेक्सुअल आईडेंडिटी कविताओं का केन्द्रीय विषय भी रही। वो युद्ध के खिलाफ लिखती रही, अपने निज को बचाए रखने के लिए लड़ती रही। वो इन्टेलेक्ट की पराकाष्ठा थी, उसने ज़िन्दगी अपनी शर्तों पर जिया और जीवन से जुड़े तमाम अंदरूनी और वाह्य कॉन्फलिक्ट्स, तमाम संघर्षों के बारे में बेबाकी से लिखा। एड्रियन रिच को पढ़ती हूं तो लगता है, ज़रूरी नहीं एक अच्छी औरत बने रहना, क्योंकि दुनिया में लाखों-करोड़ों औरतों ने अच्छाई का ये ख़ूबसूरत सतरंगी मखमली दुपट्टा ओढ़ रखा है बखूबी। कोई तो हो जो चिलमन हटाने की हिम्मत रखता हो, किसी की आवाज़ में तो हो सत्ताओं को हिलाने की ताक़त, कोई तो हो जिसे छुपकर आधी रात को पढ़ा जा सके और नींद में ही सही, उसकी हिम्मत की दाद दी जा सके।

आद्या, तुम्हारे लिए मम्मा ने एड्रियन की एक कविता का अनुवाद किया है। तुम्हारे लिए इसलिए क्योंकि पीढ़ियां गुज़र जाती हैं, देश-परिवेश बदल जाते हैं लेकिन कई परिस्थितियां सार्वभौमिक होती हैं। हमारे-तुम्हारे वजूद और मुकम्मल पहचान की लड़ाई भी उनमें से एक है। ये कविता मेरी सबसे पसंदीदा कविता-संग्रह 'स्नैपशॉट्स ऑफ ए डॉटर-इन-लॉ' से ली गई है।

"To have in this uncertain world some stay
which cannot be undermined, is
of the utmost consequence."
Thus wrote
a woman, partly brave and partly good,
who fought with what she partly understood.
Few men about her would or could do more,
hence she was labeled harpy, shrew and whore.

"इस अनिश्चित दुनिया में रहा जा सके कुछ ऐसे
जिसे आंका ना जाए कमतर, वह
प्रतिष्ठा की पराकाष्ठा है"
ऐसे लिखा
एक औरत ने, जो थोड़ी साहसी थी और थोड़ी भली
जो लड़ती रही उससे जिसे थोड़ा-सा भी समझी।
थोड़े ही थे वो आदमी जो उसका बिगाड़ पाते कुछ,
इसलिए उसे कह दिया गया क्रूर, कर्कशा और वेश्या।

बुधवार, 28 मार्च 2012

बावरा मन, मन की बावरी बातें

आद्या,

अजीब-से दिन हैं ये बेटा। बड़ी दिनों से कोई अच्छी ख़बर नहीं मिली। गुड़गांव में एक मेदान्ता अस्पताल है। हमारी तीन करीबी लोग उस अस्पताल में हैं आजकल, अलग-अलग वजहों से, अलग-अलग हादसों के शिकार। तीनों मौत के मुहाने पर खड़े हैं लेकिन उम्मीद बाकी है, हार किसी ने मानी नहीं और मोह की रेशमी डोर ने ज़िन्दगी को भी बांध रखा है अबतक। इन दिनों सोचती हूं कि ज़िन्दगी का वाकई कोई ठिकाना नहीं होता, हादसे रास्ते के किसी भी मोड़ से टकरा सकते हैं हमसे। यही वजह है कि तुम्हारे लिए ख़्यालों की अमानत सहेजती रहती हूं। जो वक़्त मेहरबां ना हुआ तब भी तुम्हारे औचक सवालों का कोई सोचा-समझा-योजनाबद्ध जवाब तो हो।
आज तुम पूछ बैठी कि दिल और दिमाग तो समझ गई, ये मन क्या है? मन हमारे भीतर का वो हिस्सा है जहां से ख़्याल पैदा होते हैं। यही मन चिंताएं करता है, सोचता है, स्मृति के टुकड़े पालता-पोसता है, अहसासों की चादर पसारता है, हमारे व्यवहार और सोच और कई बार काम-काज को नियंत्रित करता है। इस दुरूह मन को तो बड़े-बड़े ऋषि-मुनि-तपस्वी-देव-गंधर्व बूझ नहीं पाए, तो मैं क्या समझा पाऊंगी तुमको। लेकिन ये बता सकती हूं कि इस मन की सुनें कैसे। कैसे जाने कि अंदर से आनेवाली कौन-सी आवाज़ सही है, कौन-सी बेमानी क्योंकि हम अक्सर ख़ुद को बीच बाज़ार में भरी भीड़ के टकराते हुए भी चौराहों पर खुद को बेहद तन्हां पाते हैं। कोई जीवनी शक्ति भीतर ही होती है अपनी मददगार, वरना यहां कंधे कई होते हैं सिर रखकर रोने के लिए फिर भी गीली-धुंधली आंखों से अपनी उलझनों के धागे हमें खुद ही सुलझाने पड़ते हैं।
अपनी इसी जीवनी शक्ति का स्रोत होता है मन। और इस मन के बारे में क्या कहूं मैं तुमसे? अरण्यक पर्व में झील के किनारे यक्ष ने पूछा था युधिष्ठिर से, कौन धरती से भारी है और है पर्वत से भी ऊंचा? कौन वायु से भी तेज है और किसकी संख्या खर-पतवार से भी है ज़्यादा? युधिष्ठिर ने कहा, मां धरती से भी भारी है और पिता पर्वत से ऊंचे हैं। मन वायु से तेज़ है और हमारी चिंताएं हैं असंख्य।
ये असंख्य चिंताएं भी दरअसल मन के हवाई घोड़े पर ही सवार रहती हैं। घोड़े की लगाम थामना असंभव है, लेकिन सुना है कि उसकी आंखों पर पट्टियां बांधी जा सकती हैं। सुना है कि मन को एकाग्र किया जा सकता है।
मन का एकाग्र, एकचित्त हो जाना एक ही हालत में मुमकिन होता है, जब आप प्रेम में होते हैं। कोई निस्वार्थ, निश्छल प्रेम ही आपके मन को आपके अनुरूप बना दिया करता है। तुम दोनों पैदा हुए थे तो मुझे बहुत दिनों तक ऐसे किसी प्रेम में एकाग्र होने की अनुभूति हुई थी। अब हमारा वजूद अलग-अलग होने लगा है तो प्रेम भी बंटने लगा है शायद। घनीभूत है अब भी, लेकिन मन कई और जगहों पर लौट गया है फिर से।
एक और बात बताऊं? मन कई नामुमकिन लगनेवाली चीज़ों को ज़िन्दगी का हिस्सा बना देने का माद्दा रखता है। मन चक्करघिनी भी है, आपको एक बवंडर में डालकर अविराम गोल-गोल घुमाकर पछाड़ भी सकता है। मन थकाता है, मन जिलाता है, मन बनाता है, मन रुलाता है। कई लेयर्स पर काम करनेवाले इस मन को मांजना-बांधना एक कला होती है जो तुम वक्त के साथ सिखोगी। नहीं भी सीख पाई तो क्या? दुनिया में आजतक कोई एक शख्स मन को एक्सपर्ट नहीं बन पाया है और मैं फ्रॉयड की बात नहीं कर रही। मनोविज्ञान को पढ़कर ज्ञानी बन जाना और बात है, अपने मन को ठीक-ठीक एक ही ज़िन्दगी में समझ पाना और।
तो इस मन को बांधने की कोशिश मत करना। अपनी तर्कशक्ति को बचाए रखना, इच्छाओं को भी। अपने फ़ैसले खुद लेना और सही-गलत के भेद के लिए सलाह-मशविरे कम करना। तुम सबसे बेहतर जानती हो, ये याद रखना। जो गल्तियां हुईं भी तो क्या? मन पर मरहम लगाने की कला भी हम इन द प्रोसेस ऑफ लिविंग सीख ही जाते हैं। मन हो तो कभी मन मार कर ही सही, मम्मा से कुछ और सवाल पूछ लेना। मेरा मन तुम्हारे मन की मम्मा है।
मन को जीती,
तुम्हारी मम्मा 

मंगलवार, 27 मार्च 2012

हर ख्वाहिश पे दम निकले

आद्या-आदित,

कल रात मम्मा को एक दोस्त ने कहा था, कितना अच्छा होता जो हमारे बारह-चौदह हाथ, दो-चार दिमाग और आठ-दस दिल होते। अपनी इसी ज़िन्दगी में अपने दो-चार क्लोन्स रखने की ख्वाहिश तो वैसे कई बार मैंने भी की है। फिर भी कह दिया उनसे कि कितना अच्छा होता जो ख़्वाहिशें ही नहीं होतीं। हम अक्सर अपनी ख्वाहिशों को कबूलना नहीं चाहते। गीता पढ़नेवाली पीढ़ियों की संतानें हैं ना, जहां कृष्ण ने अर्जुन से कहा था, मेरे पास तब आ सकोगे जब तुम्हारे मन में कोई इच्छा बाकी ना रहे।

हे नारायण, तुम्हारी रची हुई मायावी दुनिया में रहते हुए ये कैसे मुमकिन है? इससे तो अच्छा था इंसानों और जानवरों के बीच के इकलौते भेद - दिमाग - को रखा ही नहा होता। इसी दिमाग की उपज है कि घास-फूस की झोंपड़ी जैसी ज़िन्दगी पर ख़्वाहिशों के छप्पर डालकर हम अपने लिए मुश्किलों के सामान जुटाने लगते हैं उस झोंपड़ी में, आनेवाली आंधियों, आग और बारिश से बेख़बर।

इस झोंपड़ी में मैंने कई कोने मुकर्रर कर दिए हैं कई तरह की ख़्वाहिशों के लिए। कुछ तुम दोनों के लिए, कुछ तुम्हारे पापा के लिए। कुछ मेरे भाई-बंधुओं-भाभियों के लिए, कुछ जिगरी यार-दोस्तों, सखी-सहेलियों के लिए। एक कोना पूरी क़ायनात के लिए भी तय है कि कोई तो वो दिन होगा कि जो लौह-ए-अज्ल में लिखा है।

कमाल की होती हैं ये ख्वाहिशें, नहीं? बच्चों के हाथ में आ गए पिघलते हुए चॉकलेट के बड़े-बड़े टुकड़ों की तरह। खाओ तो मुश्किल, बचाओ तो मुश्किल।

जापान में बौद्ध धर्म की एक नई धारा सोका गक्काई के प्रवर्तक निचिरेन दाइशोनिन लिखते हैं, बॉन्नो सोकू बुदाई यानि अर्थली डिज़ायर्स आर एन्लाइटन्मेंट यानि यही ख़्वाहिशें ज्ञान के दरवाज़े खोलती हैं। ख़्वाहिशें हमारी चिंताओं, द्वेष और मानसिक परेशानियों की स्रोत हैं। वो ज्ञान की ओर हमें कैसे ले जाती होंगी भला? ख़्वाहिशें तो भ्रम हैं, साक्षात माया - ज्ञान की राह में रोड़ा। दाइशोनिन के मुताबिक लालच, क्रोध, बेवकूफी, दर्प और शक से पैदा होनेवाली ख़्वाहिशें हमारी ज़िन्दगी पर नकारात्मक असर डालती हैं। लेकिन हम सब में ये ख़्वाहिशें बहुत स्वाभाविक तरीके से उपस्थित होती हैं, इसलिए ये ज़रूरी है कि हम स्वयं में वो समझ और अंदरूनी ताक़त पैदा करें जिनसे हमारी ख़्वाहिशें हमारी निजी बेहतरी का मार्ग प्रशस्त करें। जिस दिन हमने अपनी ख्वाहिशों से बचना, उनके कतराना छोड़ दिया, उस दिन उन्हें पूरा करने के रास्तों की समझ पैदा हो जाएगी। कहना आसान, करना मुश्किल। लेकिन नामुमकिन नहीं।

इस वक्त मेरी क्या ख्वाहिश है? एक अच्छी नींद से ज़्यादा कुछ नहीं। कल सुबह? एक अच्छे दिन से ज़्यादा कुछ नहीं। कल दोपहर? चंद तयशुदा ज़िम्मेदारियों के निभ जाने से ज्यादा कुछ नहीं। कल शाम? चंद हसीन दोस्तों के साथ से ज्यादा कुछ नहीं। कितनी थोड़ी-सी तो हैं ख्वाहिशें हर दिन के लिए। प्यार के दो बोल, गर्दन में झूलती बांहें, ना खत्म होनेवाली कहानियां और जेब को हाजत-ए-रफू से बचा लिए जाने के दो-चार उपाय। सब कितना आसान, कितना सहज, कितना सुलझा हुआ।

बस कमबख़्त दिमाग उलझा दिया करता है। लम्हों-लम्हों से बेमानी सवाल पूछता है। ये ऐसा क्यों? वो ऐसा कैसे? ये ना होता तो क्या होता? वो जो होगा तो क्या होगा? जिस दिन हर रोज़ की ख़्वाहिशों को अपनाकर जीना सीख गए, ज़िन्दगी की जंग आसान हो गई बस। कहना आसान, करना मुश्किल। सुनो बच्चों, मम्मा की लिखी हुई एक और टूटी-फूटी कविता। 

मैंने लिख डाली हैं ख़्वाहिशें
अपनी मेरी जान,
जो पूछो कभी कि
क्या चाहोगी, मरने से पहले।

मुझे ख्वाहिश है नीले समंदर की
जहां आती-जाती लहरों-सी
प्रेम की घड़ियां
सख़्त चट्टानों से टकराती हो।

मुझे चाहिए हरी-भरी वसुंधरा
तुम्हारे नेह की बारिश में
भीगी हुई
बंजर ज़मीं से भी फूटेगा बीज।

मुझे ख्वाहिश है
बर्फ से ढंके एक पहाड़ की
कि लाल सूरज
वहीं दिखा पाता है इन्द्रलोक।  

मुझे चाहिए एक जंगल
पलाश के फूलों से दहकता
कि खुशबू टिकती नहीं,
रंग बचा रहता है देर तक।

मुझे दिलाना नमकीन रेगिस्तान
सुना है कच्छ में
आधी रात को
चांद आकर बैठता है पहलू मेँ।

मुझे सौंपना चंद शब्दों की दौलत,
कह डालने की थोड़ी-सी हिम्मत
चुटकी-भर में,
तुम्हारे लिए भर सकूं अपनी सतरंगी डायरी।

पर सुनो, ख़्वाहिशें बची रहें दो-चार बाकी
तो ज़िन्दगी पर
किया जा सकता है भरोसा
जिया जा सकता है फिर, आज की रात।

रविवार, 25 मार्च 2012

हर्फ़ों के तीखे खंजर

आधी रात गए परेशानियों की निशानियां थी पेशानी पर, एक और रात नींद ना आने का डर था और आते-जाते कुछ ख़्याल थे। उन्हें हर्फो़ं में उतारा था तो जाने क्या बना, कि कविताओं की विभिन्न विधाओं के बारे में मुझे ख़ास जानकारी नहीं। ना ग़ज़ल, नज़्म, त्रिवेणी, हाइकू, छंद, मुक्त छंद की समझ है। हालांकि लिखा हुआ मुकम्मल हुआ जब भाई ने काफ़िया मिलाया, आधी रात के बाद बैठकर। कुछ शब्द लिए एक-दूसरे से ख़्वाबों में बात करने का नतीजा है ये। ये कविताएं ना भी हो तो आज की सुबह उम्मीदनुमा कुछ लगती है कि सफ़र कट ही जाएगा, हम पा ही लेंगे एक हसीन मुकाम।

1.
हमारे दिल के चाहे पर कसो ना फ़ब्तियां
दुआएं और क्या होती हैं, ख़्वाहिशों के सिवा। - अनु

तुम्हारा मुस्कुराना भी, कि अब है तीर सा चुभता
बलाएं और क्या होती हैं, चंद नालिशों के सिवा। - प्रशांत


2.
निकल आए थे हर्फ़ों के कुछ तीखे-तीखे खंजर
आह हम भरते रहे, कत्ल-ए-आम होता रहा। - अनु

हमारी आहों में मिन्नत थी, गुलाबी थी नज़र मगर
नशे में तुम थे ऐ हमदम, छलकाए-जाम होता रहा - प्रशांत

3.
बुतपरस्ती अब नहीं करते, ना बदगुमां सिर झुकता है इन दिनों
हमें फिर भी कहनवाले काफ़िर कहा करते हों तो कोई बात नहीं। - अनु

ना अपना रास्ता कोई, ना ही कहीं ठिकाना है इन दिनों
जो अपनी मंजिल पर चंद आवारा रहा करते हों तो कोई बात नहीं। - प्रशांत

4.
किसने कहा मुश्किलें कम हो गईं,
यहां हर शख़्स सौ दर्द लिए चलता है।
किसी को चारागरी आती नहीं,
फिर भी अजनबी कंधों पर हाथ रखता है। - अनु

जिगर में एक चिंगारी थी, वो अब दिल तक पहुंची है
कि जलता दिल भी आँखें सर्द लिए चलता है
ये अच्छा है हमें हाराकिरी आती नहीं
खुदा भी खुदी वालों को अपने साथ रखता है। - प्रशांत

5.
नहीं है ख़ौफ़ ज़लज़लों का, ना हादसों का डर है आजकल
जो जान पर आई तो तैर जाएंगे एक आग का दरिया भी
बस एक तेरी तरकश से निकले सच का तीर डराता है। - अनु

ना कम किस्मत का ही है डर, ना समय से पहले होगी जुम्बिश
जो खुद पे हो तो हंस के काटेंगे लम्हे-गिरया भी
कि जिससे थी दुआ मांगी, मेरा वो पीर डराता है।  - प्रशांत

6.
मत सिखाओ लीक पर चलना
कि तुम्हारा रास्ता मेरा हो, ज़रूरी नहीं
मुझे तुम भी तो अजनबी रास्ते पर मिले थे हमसफ़र। - अनु

दोस्त हो मेरे, वाईज़ नहीं बनना
कि तुमसे वास्ता मेरा हो, ज़रूरी नहीं
क्या करोगे जो मोहब्बत ही बन जाए शिकायत ग़र!! - प्रशांत

किसने कहा मैं फेमिनिस्ट हूं?

इन दिनों हालत ये है कि यमराज अपने भैंसे को लेकर यमलोक ले जाने के लिए दरवाज़े पर पहुंच जाएं तो हाथ जोड़कर विनती करूंगी, दो दिन और छोड़ दो। अपने अदृश्य भैंसे को मृत्युलोक के किसी दर्शनीय स्थल की स्वादिष्ट घास चर लेने दो, खुद यहीं आराम फरमाओ, काम से छुट्टी पाओ और मुझे अपनी डेडलाइन पूरी कर लेने दो। मर तो मैं यूं भी रही हूं, तुम्हारे तरीके से कल-परसों मर जाऊंगी, और क्या।

एक दोस्त ने निमंत्रण भेजा था, फेसबुक पर। ज़ुबान बुक्स एक बातचीत आयोजित कर रहा है इंडिया हैबिटेट सेंटर में। विषय है, वीमेन्स राइटिंग्स एंड द वीमेन्स मूवमेंट। ये लो कर लो बात। माने कि फेमिनिस्टों का एक और जमावड़ा। इस आपाधापी में कहां जा पाऊंगी माथे पर बड़ी बिंदी लगाए, कंधे पर झोला लटकाए स्त्री-विमर्श पर धाराप्रवाह बोलने की क्षमता रखनेवाली ईलिट महिलाओं की बात सुनने के लिए?

फेमिनिस्म पर मैं कई पूर्वाग्रह पाले चलती हूं। फेमिनिस्म का अर्थ क्या है? मेरी समझ से फेमिनिस्म उन आंदोलनों का नाम है जो महिलाओं के लिए सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक अधिकारों की लड़ाई के लिए एक मंच प्रदान करते हैं। मैं हमेशा मन में कई सवाल लिए चलती रही - क्या बिना संघर्ष के अधिकार नहीं मिल सकते? कॉन्फिल्क्ट बनाए रखना ज़रूरी है? हम किस तरह की बराबरी मांगते हैं? ये संघर्ष झूठे यकीनों और दिलासाओं के पुलिंदों  के अलावा आख़िर है ही क्या? फेमिनिज़्म के नाम पर उठाई जानेवाली ये आवाज़ क्या आम स्त्रियों का जीना मुहाल नहीं कर देती? हम बिना अपने शरीर और सेक्सुएलिटी की बात किए विमर्श को आगे नहीं बढ़ा सकते?

ज़िन्दगी को लेकर मेरे फंडे बड़े स्पष्ट हैं - घर बनाए, बचाए रखना प्राथमिकता होना चाहिए। बच्चों के लिए मिसाल बनो। ऐसा कुछ भी मत करो, कहो और बोलो जिससे तुम्हारे अपनों को शर्मिंदा होना पड़े। अपेक्षाओं की गठरी ताउम्र उठाए रखो अपने कंधों पर। सवाल मत पूछो। जितना हो सके, हामी भरो। अच्छी और भली बनो। दूसरों के ख्यालों की कद्र करो, हर क़ीमत पर। एक तय दायरे में ही ज़िन्दगी हसीन लगती है। बेतरतीबी बेचैन करती है, उलझाती है। इसलिए दायरे भूलो मत। इसमें गलत भी क्या है?

गलत क्या है - इस सवाल का जवाब मिले, ये जरूरी है। इसलिए जरूरी है कि आप इस तरह की बातचीत में शिरकत करें। वरना मैं उन लोगों में से हूं जिन्हें फेमिनिस्ट कह दिया जाए तो वे इसे गाली की तरह लिया करती हैं। तो आख़िर ये वूमेन्स राइटिंग की दुनिया है क्या? आधी दुनिया से आते ही अभिव्यक्ति के तरीके कैसे बदल जाया करते हैं? आख़िर इन घिसे-पीटे सप्रेशन और इमैन्सिपेशन की कहानियों के अलावा इन राइटिंग्स में किन औऱ भावनाओं को जगह मिलती होगी। मीना कंडास्वामी को पढ़ा तो लगा, ओवर द टॉप राइटिंग है, एक्स्ट्रावैगेंट एक्जैजरेशन। निवेदिता मेनन के लिखे हुए लेख पढ़े तो लगा, इस अकादमिक लेखन में राजनीति शास्त्र और समाज शास्त्र है, लेकिन मैं कहां हूं। विनीता कोएल्हो के गोवा वाले घर में उनकी बनाई हुई पेंटिग्स देखीं तो लगा, टीवी और फिल्मों की दुनिया में अपनी आधी ज़िन्दगी गुज़ार देने के बाद अब उन्हें यही करने को मिला - एक्टिविज्म? कैनवस पर अपना बदन उघाड़े पीठ दिखाती ज़ुल्फें लहराती स्त्री की पेंटिंग बनाना और बात है, हर रोज़ अपने वजूद के लिए नई रणनीतियां बनाते हुए इस दुनिया में दाल-रोटी-मकान जैसी ज़रूरतों को पूरा करने की कोशिश में लगे रहना और। ये तस्वीरें, ये कविताएं, ये कहानियां, ये उपन्यास क्या काम आएंगे? अपने-अपने घरों में, अपने-अपने काम की जगहों पर संघर्ष किसी तरह के आंदोलन में शामिल हो जाने से मुश्किल ही होते होंगे, इसका मुझे पुख्ता यकीन था।

शायद यही डर था कि मैं फेमिनिस्टों की परछाई से भी बचकर चला करती हूं। बहरहाल, मैं इस बातचीत में शामिल होने के लिए बैठ ही गई, थोड़ी देर के लिए ही सही। पहला झटका ए. रेवती की ओर से आया। रेवती  हिजरा हैं, और ये उनकी पहचान का एक अहम हिस्सा है। मैं औरत हूं, मेरी फीलिंग्स औरत जैसी, मैं भी मां बनना चाहती, सुन्दर दिखना चाहती... टूटी-फूटी हिंदी में रेवती कहती हूं। निवेदिता मेनन जैसी स्कॉलर के सवालों का जवाब रेवती इतनी आसानी और सादगी से दे जाती हैं कि निवेदिता भी प्रभावित हैं, हम भी। रेवती ना सिर्फ लेखिका हैं, बल्कि एक अभिनेत्री और सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं जो महिलाओं के अलावा हिजरा और ट्रांसजेन्डर समुदायों के लिए क्राइसिस इन्टरवेंशन में लगी हैं। मुझसे भी बुरी हालत में हैं कई महिलाएं, मेरे अपने समाज के लोग। उनके लिए आवाज़ कौन उठाएगा? उनको हिम्मत कौन देगा?

मुझे अचानक लगा है कि वाकई शुतुरमुर्ग बन जाने में मैं चैन महसूस करती हूं। कौन कहे कि ज़्यादतियां हैं हर तरफ। मेट्रो स्टेशन पर गाड़ी लगाते हुए पार्किंग वाला मुझे दस बजे तक आने की हिदायत देता है तो मैं सोचती हूं, दस बजे क्यों। आठ बजे के बाद तो घरों में ही होना चाहिए हम लोगों को। ट्रेनों और बसों में महिलाओं के लिए आरक्षित डिब्बे और सीटें ढूंढती हूं। सुनसान सड़कों और गलियों से होकर गुज़रने से बचती हूं। बलात्कार जैसे सेन्सेटिव मुद्दों पर कोई राय नहीं रखती, रखती भी हूं तो कहती नहीं कुछ। डोमेस्टिक वायलेंस पर तो बिल्कुल बात नहीं करती। ये किसी और दुनिया के हिस्से होंगे, मेरी दुनिया के तो नहीं हैं। आर्थिक आजा़दी जैसे विषय दुरूह लगते हैं। सीए और बैंकों से बात करना मेरा काम थोड़े है? मुझे घर बचाए रखना है। मुझे अपने बच्चों को एक आसान, अनकॉम्पलिकेटेड, सुलझी हुई, सहज दुनिया देनी है जहां कोई आइडेन्टिटी क्राइसिस नहीं, कोई कॉन्फ्किक्ट नहीं। ये रेवती मेरे लिए मिसाल नहीं बन सकती। मैं दबी-कुचली महिला थोड़े हूं? ये और बात है कि मैं रेवती को गले लगाकर रोना चाहती हूं, जाने क्यों।

दूसरी लेखिका हैं सलमा। असली नाम कुछ और है, लिखती सलमा के नाम से हैं। त्रिची की हैं और ना हिंदी जानती हैं ना अंग्रेजी। लेकिन टूटी-फूटी अंग्रेज़ी में अपनी जो कहानी कहती हैं उसका सार कुछ ऐसा है - स्कूल १३ साल में छूट गया। भाई लाइब्रेरी से किताबें लाकर दिया करता था जो वो छुप-छुपकर पढ़ती रहीं। फिर शादी हो गई। पहले मायके से बिना हिजाब निकलने की इजाज़त नहीं थी, अब ससुराल जेल बन गई। कविताएं लिखना शुरू किया। कभी पड़ोसी, कभी मां की मदद से स्थानीय पत्रिकाओं में छपती रहीं। पति को पता चला तो बहुत नाराज़ हुए। कहा, ये अच्छी औरतों का काम नहीं है, यूं घर के बाहर अपने बागी विचारों को पेश करना। सलमा नहीं मानी तो चेहरे पर एसिड फेंक देने की धमकी दी। फिर भी ये जुनूनी औरत लिखती रही, जाने क्यों। क्या गरज थी? उसके लिख देने से क्या बदलना था? उपन्यास छप गया, मशहूर हो गईं, फिर किस्मत के ऊंट ने करवट बदली और पंचायत की कुर्सी हाथ आ गई। इस शोहरत के बावजूद कहती हूं, आई एम नॉट ए गुड वूमैन, नो। माई पीपल्स टेल मी, शी इज नॉट गुड। शी राइटिंग थिंग्स नॉट नाईस। शी सेईंग थिंग्स नॉट गुड। फिर क्यों सलमा? अपनी इज्ज़त की धज्जियां उडाकर मिली शोहरत का क्या करोगी? ये और बात है कि उनकी सुनाई कविता मैं अपने साथ घर ले आईं हूं -

चमगादड़ कमरे में बंद/
अलमारियों से टकराकर/
गिर जाया करता है ज़मीन पर/
चिडिया पार कर जाया करती है/
चहारदीवारियां, खेत-खलिहान, नदी-नाले और पहाड़।

बातचीत के सिलसिले खत्म हुए हैं। मैंने हार्डकोर फेमिनिस्टों की लिखी हुई कई किताबें खरीद लीं हैं, उस पैसे से जो मां ने होली के कपड़े खरीदने के लिए दिख थे। ये जानते हुए भी, कि इन किताबों को पढ़ने के लिए ताने भी सुनने पड़ सकते हैं। ये जानते हुए भी कि गलती से इनके बारे में कुछ लिख दिया तो और भी बड़ी फेमिनिस्ट कहलाई जाऊंगी।

विनीता कोएल्हो ने फिर भी अपनी किताब पर मेरे लिए लिख दी हैं दुआएं - टु मच मोर दैन टेलीविज़न। टु फिल्म्स, बुक्स एंड वंडरफुल स्टोरिज़... हैपी राइटिंग! विनीता, इस दुआ को अमल में लाने की हिम्मत मुझमें नहीं कि मैं सलमा नहीं, रेवती नहीं, फेनॉमेनल वूमैन नहीं, फेमिनिस्ट नहीं। मुझे तो अपने वजूद पर भी गुमां नहीं।

सही ही कहती है नताशा। फेमिनिस्ट बनने के लिए कई अनफेमिनिस्ट काम करने पड़ते हैं पहले।

शुक्रवार, 23 मार्च 2012

मुस्कुराने का कोई सबब नहीं होता

इन दिनों अजीब-सी हालत है। आंधियां मध्य-पूर्व और पूर्वी अफ्रीका के रेगिस्तानों में चलती हैं, मौसम दिल्ली का बदल जाता है। ३१ मार्च की डेडलाइन नौकरीपेशा लोगों की सांसत कम, हम जैसे फ्रीलांसर्स के गले की हड्डी ज्यादा बन जाती है। सो, इन दिनों धूल भरी आंधियां हैं, ऑस्टियोपरोटिक मां की टूटी हुई कुहनी की चिंताएं हैं, अस्पताल के आईसीयू में पड़ी एक प्यारी लड़की के लिए दुआएं मांगने के बेसाख़्ता सिलसिले हैं, बच्चों के नए सेशन का आगाज़ है, ढेर सारे डेडलाइन्स हैं और हैं कुछ टूटी-फूटी कविताएं। वैसे सब बेमानी है क्योंकि कुछ ठहरता नहीं। आद्या और आदित, मम्मा की डायरी पढ़कर परेशान होना नहीं क्योंकि ये उलझे-उलझे सितमगर दिन भी निकल ही जाएंगे, तुम्हारे रतजगों वाले बचपन की तरह।

१.

मां ने सिखाया था बचपन से
कि जितनी हो चादर, उतना ही फैलाना पांव

क्या करें जब कम पड़ने लगे चौबीस घंटे भी।

२.

वो ज़िद्दी है मगर मन का है कोमल
अपने-उसके रिश्ते में हैं परछाईयां कहीं की

मैं भी तो तुम जैसी ही हो गई हूं, मां।

३.

रेगिस्तान में चलती है आंधियां
बदल जाती है हवा-फ़िज़ां दिल्ली की

कहां-कहां जुड़ी होती हैं इंसानों की नियतियां।

४.

दर्द के रेशे हैं, टूटी हुई कुहनी है
बिखरे तकिए, कुशन, चौके का बोझ है सिर पर

पचपन की स्पीड को भी चाहिए एक स्पीडब्रेकर।

५.

बालकनी में झूलती है जयपुरी चादर
छोटी नैपियां, ऊनी कपड़े, नई मां की चुन्नी

सुना है, हमारी पड़ोसन के घर बेटा हुआ है।

६.

ठेके पर हो जाती है पेंटिंग
घर भी तो मिल जाता है ईएमआई पर आजकल

हेडलाईन है, तलाक मिलना और हो गया आसान।

७.

रिक्शे की मूठ पकड़े, गले में बोतल टांगे
गीली आंखें लिए जा रही है वो स्कूल पहले दिन

मुस्कुराने का कोई सबब नहीं हुआ करता।

बुधवार, 21 मार्च 2012

ज़िन्दगी से वादा तो नहीं था

उससे बातें करने में डर लगता है कभी-कभी। किसी की निगाहें आर-पार देख पाती होंगी, ऐसा उसकी कोमल, तरल आंखों को देखकर लगता है। उसके सामने छुपाना मुश्किल, बताना मुश्किल। वो डॉक्टर ठहरी। पहले मर्ज़ के लक्षण पूछेगी, फिर नब्ज़ टटोलेगी, दिल का हाल बिना स्टेथोस्कोप के समझ जाएगी और रगों में दौड़ते लहू के प्रेशर का अंदाज़ा मेरे चेहरे का रंग देखकर पता कर लेगी। उसके बेलौस, बेबाक सवाल मुझे परेशान करते हैं। छुपाओ तो मुश्किल, बताओ तो आफ़त।

"क्या हुआ है तुझे, कोई मन का रोग है?" गुस्से में होती है तो उसकी पंजाबियत लहज़े में उतर ही आती है।

"मन के ही रोग तो होते हैं सारे। तुम तो डॉक्टर हो, साइकोसोमैटिक डिसॉडर के बारे में तुमसे बेहतर कौन जानेगा?"

"सायकियाट्रिस्ट, क्योंकि तेरा दिमाग खराब हो गया है।"

"दिमाग खराब नहीं, दुरुस्त हुआ है अब तो। पहले बेसबब गुज़र जाया करते थे दिन, अब उन्हें थामकर रखना चाहती हूं। अब होश में आई हूं कि ज़िन्दगी गुज़रती जा रही है और सपनों की टोकरी में से जादूगर ने खरगोश तो निकाले ही नहीं, रंग-बिरंगे प्लास्टिक के फूलों का गुलदस्ता हाथ में थामा नहीं, सिर पर लटकती छतरी ने रंग बदले नहीं। तो फिर ये कैसी माया थी? कैसा जादू था?"

"किसने सिखाया था कि ख़्वाबों में जादुई दुनिया बुनते रहो?"

"जाने किसने। बचपन से ही ऐसी हूं।"

"हम सब बुनते हैं जादू की दुनिया। हम सबको रंगों के बाज़ार से प्यार होता है। देख तो सही, आस-पास सब जादू ही तो है।"

"हां है ना। लेकिन मन बहलता क्यों नहीं?"

"चल उम्र के पहिए को उलटा घुमाते हैं। दस साल पीछे गए तो क्या-क्या बदलेगी तू?"

"कुछ भी नहीं। सब वैसा का वैसा ही चाहिए। मैंने ये कब कहा कि मुझे कोई शिकायत है ज़िन्दगी से?"

"शिकायत ना सही, मोहब्बत ही सही। लेकिन देख ना, हर हाल में तो हम जी ही लिया करते हैं, वक्त कट ही जाता है, साल निकल ही जाते हैं।"

"वही तो। दिन, महीने, साल तो निकल ही जाया करते हैं। मंथरचाल चलते इन लम्हों का बोझ नहीं ढोया जाता।"

"लम्हे नहीं कटते?"

"हां।"

"लम्हे ही भारी पड़ते हैं?"

"शायद।"

"फिर तो तुझे कोई परेशानी नहीं। धीरे-धीरे खिसकते लम्हों में जीना कितना आसान होता होगा। मुझे तो वक्त के तेज़ी से भागने का डर लगा रहता है।"

"अच्छा? डॉक्टर को भी डर लगता है?"

"क्यों नहीं लग सकता?"

"नहीं, मुझे लगता था डॉक्टर बड़े ज़हीन होते हैं, बड़े समझदार। उन्हें दर्द की समझ होती है, इलाज का शऊर होता है।"

"डॉक्टरों को अपना इलाज करना नहीं आता। तुझ जैसे मरीजों के मर्ज की भी कोई दवा नहीं उनके पास।"

"फिर? मैं और तुम एक ही नाव पर? हम ऐसे ही मर जाएंगे एक दिन, किसी भलमानस चारागर के इंतज़ार में?"

"ना, हम ऐसे ही जिए जाएंगे एक-एक दिन। ऐसे ही जादू भरे ख़्वाब देखते हुए। किसी को चारागरी नहीं आती, यहां कोई मसीहा नहीं बैठा।"

"ऐसा ना कहो मेरी जान। दिल डूबा जाता है।"

"तो संभालो उसको। आधी गुज़र गई और जो आधी बची है, उसे जीने का इंतज़ाम करो कोई। आउट ऑफ द बॉक्स करो कुछ, कुछ वाइल्ड, कुछ ऐसा कि मरते वक्त अफ़सोस ना बचे कोई।"

"मैं भाग जाना चाहती हूं। किसी ऐसी ट्रेन में बैठकर जिसकी मंज़िल का पता ना हो, जिसके स्टेशन्स पर लगे पतों की भाषा मुझे पढ़नी ना आए, जहां कोई मुझे जानता ना हो।"

"बैड आईडिया। तुझे अपने शहर की पगली की कहानी सुनाऊंगी कभी। फिलहाल कुछ और सोच।"

"फ्लिंग। लेट्स हैव अ फ्लिंग।"

"इवेन वर्स। कुल्हाड़ी पर जाकर पैर मारने की बात ना कर। कुछ और सोच।"

"नहीं सूझता। कुछ नहीं सूझता।"

"यू आर अ क्रिएटिव पर्सन। लुक फॉर ए क्रिएटिव सोल्यूशन।"

"माने?"

"माने अपने लिए तिलस्म रच। माया की एक दुनिया। ऑल्टर इगो तलाश कर। अपने नेमेसिस ढूंढ के ला। किरदारों में उन्हें रख और आउट ऑफ द बॉक्स एक ऐसी दुनिया रच जहां तू नहीं, लेकिन वो तेरी अपनी है। उस दुनिया में अपने प्यार के लिए अपनी शर्तें चुन। अपने दुखों पर छाती पीटने के अपने तरीकों का इजाद कर। अपने आंसुओं को जगह दे, लोट-पोट कर हंस और ऐसे जी कि जैसे कभी ना जिया हो कहीं। लुक एट वॉट पावर यू हैव गॉट वूमैन।"

"ये लो कर लो बात। कहां तो मैं जादू की दुनिया से निकलकर रियल वर्ल्ड में जीने की बात कर रही हूं, कहां तो तुम मुझे अंधेरे कुंए में ढकेल रही हो।"

"अंधेरे में ही दिखेगी रोशनी। जहां हम और तुम बैठे हैं वहां सब धुंधला-धुंधला है, ना उजला ना स्याह, ना शाम ना सुबह। अंधेरे में जाने की हिम्मत कर। वहीं से ख़ज़ाना हाथ आएगा।"

"ये क्या था? हमारे बीच ये कैसी बातचीत थी?"

"काउंसिलिंग सेशन था। बहुत सारा वक्त है, बहुत सारे लम्हे हैं। उनका कुछ तो हासिल हो।"

"तब भी जब ज़िन्दगी से ऐसा कोई वादा नहीं था?"

"तब भी जब ज़िन्दगी से ऐसा कोई वादा नहीं था?"

 "और मायूसियों से शामें भरने का था?"

"नहीं था। ज़िन्दगी से कोई वादा नहीं था।"

"देन यू पुल थ्रू, गर्ल।"

मंगलवार, 20 मार्च 2012

An open letter to the birthday boy

Hello birthday boy,

I rarely know how to begin writing a letter. It is often abstract, like everything else that I start in my life. This one is also going to be as random as it can get. I want to start with a conversation that we loved having as kids - you and I and G going back to Morwan as these high-flying super successful super achievers super humans. We were super focused even as kids as we got into role-plays - you as an entrepreneur, I as a writer and G as yet another globetrotting business man. We haven't done so badly, after all, and we are more or less on the track.

There could be another way of looking at what we have achieved till now, or what we haven't. That's the way I inherently see things as, with constant criticism and cynicism. I crib and cry, I curse and die. The inner realm of my thought process is cynical and negative. If I consciously make an effort of keeping that under control, it is because of you.

In the midst of this everyday hustle-bustle of life, you are the one who reminds me of those juvenile dreams. You are the one who reminds me of the strength lying within - even when life seems ordinary, dreams look unachievable and nothing seems to be working out, even when gloom engulfs the day and sun hides behind the clouds.

From where I am framing this letter in my head, I see a tree full of brightly blooming bougainvillea, and as the lenses of my eyes are busy capturing the images of red, yellow and magenta flowers, the gloomy day doesn't matter anymore. This is the symbol of beauty of life blossoming in its unique and varied forms. You are the one who has made me believe that it doesn't matter if the sun has hidden behind the clouds, because rain will not remain in the sky forever. So won't the sun. Moon will descend and grow. And times will change. Like that colorful patch of wild evergreen flowers, you, my brother, are the harbinger of hope for us.

You are the reason why I believe in accomplishing the impossible. Your unshakeable conviction makes me admire the small differences I bring to the world. You make me appreciate what we as individuals are, what we could be and what we should be.

While you carry this immense responsibility of spreading hope and belief, I have often wondered what your dark days are like. What happens when you don't find the mornings sunny and exhilarating(which you often don't)? Here is what I pray for, today and always. May your solid foundation of faith in yourself and others stay; may you overcome your personal challenges without even letting God know; may you be the champion of courage; may you grow and let others grow with you; may your presence be truly the greatest of all treasures. And the world will say one day when you pass by, "Kitna gazab aadmi hai!"

Stay what you are - a springboard for hope, dreams, growth and love.

Happy birthday, yet again!
Didi

(Angrezi mein likhna pada kyunki Hindi typewriter chal nahi raha. Saara typos aur grammatical errors ka doodh-bhaat maan liya jaaye. :D) Birthday present - one of my favourite songs, one of your favourite singers as Hridaynath Mangeshkar and Javed Akhtar's magic fills up the evening.

रविवार, 18 मार्च 2012

So you are a writer, huh?

It has taken many weeks and many sessions with the love of my life N to come to terms with the fact that it is alright to call oneself a writer. I have often resisted being called an artist, a writer or a filmmaker.

But now when people ask me what I do, I answer, "I'm a writer and a blogger."

"Yes, that's right. But what do you do?"

"Ummmm.... I write."

I have seen disbelief. I have seen them frown. Precisely the reason why I have stopped going to the neighbourhood park now. Precisely the reason why I am wary of making friends outside of my fraternity. And precisely the reason why I was at my alma mater to talk about various career options as a writer.

It is surprising that even though I earned my first pocket money as a ten-year-old because of what I wrote, even though I often earned prize moneys to buy that fancy pair of jeans or kurta out of creative writing competetions and even though for most part of my career I have written scripts, concept notes, e-mails, web content, reports, features and columns to make a living, I would still not call myself a writer. That is because we often believe that writing is something you do by the night. Writing can be a 'hobby' but it can't be your day job and writing can't be something which will fetch you money. That is only partially true, though. It takes time. The gestation period is extremely long and tedious. But it pays, sooner or later.

"Oh, so you are a writer? What exactly do you write?" Asked my daughter's classmate's Mum, who sat next to me sms-ing incessantly on her Blackberry.

"Anything that can fetch me some money," I wanted to tell her. But it sounded cheap.

"Scripts. I write scripts." That would have been the easiest answer.

"Your kids are lucky. A writer-Mum can never fall short of bedtime stories. You must be a good storyteller too."

Well, yes. But no. I am yet to learn Scheherazade style of storytelling. I still grapple with words and characters every night to fill them with interesting stories which unfortunately fail to hold their attention. They now have their own stories, you see.

"So you are a writer? Why don't you write a bestseller?" That dear friend asks out of sheer concern. Do you know of a shortcut, I want to ask her. Since there are none, is bestseller the only reason why I should write? I write because I love walking into the walls. When dark and lonely times don't offer you any solace, your writing does. That one shitty and not-so-great piece can make you float. And if this is the only way to redemption, what's the harm in holding onto it for the rest of your life? Bestsellers can wait till the next lifetime. So can the blockbusters. So can money, may be. If writing is what I am passionate about, money and fame are only logical conclusions.

For now, I believe that writing is a spiritual experience, like painting or chanting or meditating. Like every other such experience you prepare your ground before writing - listen, observe, eavesdrop, be in tune with the universe, fall in love with pansies and petunias, walk on the dry leaves, wait and watch.

You sometimes wait for eternity. Sometimes, you know what you want to write about. Sometimes there is inspiration. Sometimes money is the only inspiration. Sometimes you write that one piece with your kids jumping on your head, sometimes you get into a cocoon. Sometimes you read to be able to write. Sometimes you stack away every readable material. Sometimes you write to communicate with the world. Sometimes you write to listen to your innermost fears. Sometimes you gather the strength to write about things you dare not acknowledge. Sometimes you muster some more strength to gag yourself from communicating the unwanted.

Writing is a trackable process. You do see yourself growing and recovering through your writings. You see yourself evolve. You see yourself angry, grief-stricken, ecstatic, depressed, hopeful, hopeless, happy, hapless - all through what you have written. You see your mind and soul as one, in tune with what you feel and convey. Didn't I say writing is a spiritual experience?

But aren't writers often depressed, confused, insecure, promiscuous and hypocrites? Yes, there are better adjectives in the thesaurus if you please. A writer is volatile because she is sensitive. This state of insecurity and confusion is quite helpful because it pepares the ground for pushing some more, thinking some more and expressing some more. As for promiscuity and hypocrisy, good storytellers also make for some brilliant stories.

So, with all the juvenile and not-so-happening things that I am writing and churning out everyday, I finally declare myself a writer. (Aah, this is quite liberating. The accepatance of yourself as a writer, I mean). I also hereby accept that this may call for a brutal murder of my "nice" self. While I move forward on a difficult and fascinating journey, come along only if you are willing to share the grief.

गुरुवार, 15 मार्च 2012

फिर भी फूल खिले हैं गुलशन-गुलशन

साल के इस वक्त शहर पर गज़ब की ख़ूबसूरती उतरी होती है। मौसमी फूल अपने पूरे शबाब पर होते हैं, नीम अपनी पीली पत्तियां गिरा-गिराकर अगले मौसम के स्वागत करते हुए नई कोंपलों के लिए जगह बना रहा होता है, सड़कों के किनारे लगे अशोक के पेड़ का कोमल भूरा-हरा रंग ट्रैफिक जाम को बर्दाश्त करने लायक बना देता है। मौसम ठीक ऐसा है कि गाड़ी की खिड़कियां उतारकर चलने का मन करे। हम पार्क से निकलकर कहीं और जाने की तैयारी में नोएडा की मुख्य सड़क पर चले आए हैं। गोधूलि उतर आई है और सड़क पर घर जानेवालों की बेचैनी उनके हाईबीम वाली हेडलाइट्स और ओवरटेकिंग की जल्दी देखकर पता चलती है।
बेटी ने पूछा है, मम्मा, ये फूल कहां से आए हैं?

ऊपरवाले ने बनाया।

और पेड़?

वो भी।

गाय-भैंस-बकरियां-चिड़िया?

उन्हें भी ऊपरवाले ने रचा।

आसमान-सूरज-चांद-तारे?

वो भी बेटा।

और हम? हम कहां से आए?

हमें भी ऊपरवाले ने ही रचा।

गॉड ने डिसाईड किया कि आप ही मेरी मम्मा होंगी?

हां बेटा।

और मम्मा, गॉड ने ही डिसाईड किया कि ये ट्रैफिक सिग्नल पर खड़ी आंटी भीख मांगेगी?

शायद, बेटा।

गॉड ने डिसाईड किया कि मैं लड़की, आदित लड़का?

हां, बेटा।

मैं अब उसके सवालों से परेशान होने लगी हूं। मेरी बेटी को जिरह करने की आदत है, पांच साल की उम्र में ही, और कई बार उसके तर्कों और सवालों का जवाब होता नहीं मेरे पास। कोई गोरा, कोई काला क्यों होता है? लोग गरीब क्यों? किसी का घर छोटा, किसी का बड़ा कैसे? हम सबको जब गॉड ने बनाया तो हमें इतना अलग-अलग कैसे कर दिया?

आदू, आप बड़ी होंगी तो समझेंगी धीरे-धीरे, मैंने बात टालने की कोशिश की है। लेकिन उलझी हुई हूं खुद से। वाकई, इतने सवालों का जवाब है किसी के पास? अच्छे और बुरे कर्मों का फल है, उससे कहूं या गीता के अध्यायों का सार सुनाऊं उसे? कैसे कहूं कि ऊपरवाले ने सबकुछ रचा और रच दिए इंसान, उसे दे दी समझ और उस समझ का इस्तेमाल करने की बेजां ताक़त। कैसे कहूं कि उसे बेजां ताकत के दम पर इंसान ने ख़ुद को बेजुबां जानवरों पर हावी बनाया और फिर धीरे-धीरे प्रकृति को नोचा-खसोटा-मोड़ा-मरोड़ा। कैसे कहूं कि उसी बेजां ताक़त के दम पर रच दी सत्ताएं और बना दिए शोषक और शोषितों के अलग-अलग तबके। कैसे कहूं कि ये बेजां ताक़त कभी ज़मीन के नाम पर इस्तेमाल हुई, कभी धर्म और जाति के नाम पर। कैसे कहूं कि दरअसल इंसान मकड़ियों की तरह खुद ही मायाजाल रचता है और उसी में घुटकर मर जाया करता है एक दिन। और ये भी कैसे कहूं कि उसी मायाजाल में लिपटे हम इंसान अपने-अपने कर्मों को भोगने के लिए कई और तरह के जाल रच लेते हैं। कैसे कहूं कि इस चक्रव्यूह से निलकने का रास्ता नारायण ने बताया तो था नर को, लेकिन नर इसमें घूमते रहने के लिए अभिशप्त है।

मेरे सिरहाने ज्ञान का अथाह भंडार है। कुछ लेखकों, कुछ कवियों-दार्शनिकों-समाजशास्त्रियों की कच्ची-पक्की समझ के पन्ने हैं किताबों के रूप में। इनकी खाक छानूंगी तो भी आद्या के यक्षप्रश्नों का जवाब नहीं ढूंढ पाऊंगी, इसका पुख्ता यकीन है मुझे। फिर भी इंसान और इंसानियत पर यकीन बना रहे, इसकी कोशिश करती रहूंगी। तमाम भेदभावों के बावजूद ये दुनिया हसीन है, कहूंगी उससे। बताऊंगी कि हम उस शहर के वाशिंदे हैं जहां लड़कियों और औरतों को आठ बजे के बाद घर से बाहर ना निकलने की सलाह दी जाती है, लेकिन फिर भी हिम्मत टूटती नहीं, ज़िन्दगी थमती नहीं और किस्म-किस्म की दरिंदगियों के बावजूद हम अपना यकीन बचाए रखते हैं। सच भी कहूंगी उससे कि हम ऐसे लोकतंत्र के अनुगामी है जहां सबकी अपनी ढफली, अपना राग है, जहां किसी के राजा होने से हालात नहीं बदलते, जहां भ्रष्टाचार और बेईमानी उत्तरजीविता का मूलमंत्र है। लेकिन कहूंगी उससे कि यहां हमें सवाल पूछने की और ऊंचा बोलने की भी स्वतंत्रता है। सिखाऊंगी उसको कि पोएटिक जस्टिस हाइपोथेटिकल ही सही, लेकिन एक ख़ूबसूरत भरोसा है। कहूंगी कि यकीन मानो, प्रकृति अपना संतुलन बना लिया करती है।

अपने भरोसों की चादर खींचकर लंबी कर ली है, कटे-फटे हिस्सों को रफू कर लिया है और जहां मुमकिन हो सका है एपलिक वर्क से सजा दिया है उसको। वो विरासत में सौंपूंगी बच्चों को। कुछ तो मैं और पापा, मामी और मामा, दादी और बाबा, नानी और नाना और बाकी दोस्त सिखाएंगे तुमको। कुछ अपनी समझ का सिरा तुम खुद विकसित करोगी। सही-गलत, छोटा-बड़ा, ऊंच-नीच, सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय, ज़िन्दगी औऱ मौत से जुड़े सवाल पूछती रहोगी, आवाज़ उठाती रहोगी, वक्त का पहिया घूमता रहेगा, तुम्हारी समझ तुम्हें हर रोज़ नई सीख और सिद्धांत देती रहेगी और गुलशन में फूल खिलते रहेंगे इसी तरह, साल-दर-साल। 

मंगलवार, 13 मार्च 2012

भूली हुई नायिकाएं

कल रात महाभारत की कहानी सुनते हुए पांच साल के बेटे ने पूछा, सिर्फ पांडव, कौरव और कृष्ण थे वहां? तो फिर लड़कियां कहां थीं? वाकई, महाभारत की नायिकाएं कहां थीं? गंगा, कुंती, गांधारी, द्रौपदी और सुभद्रा की तो कहानियां सुनीं, लेकिन बाकी नायिकाएं कहां थीं? महाभारत का बीज कहां से आया? दुर्योधन की पत्नी कैसी रही होगी? जीवनभर सारथिपुत्र कहलाने और दुर्योधन की आजीवन कृतज्ञता का बोझ ढोने को शापित कर्ण की पत्नी वृशाला को कैसा लगता होगा जब उसका पति पथ-पथ पर घोर उपहास का पात्र बनता होगा? वो कैसी पत्नियां रही होंगी कि एक ने साथ छोड़कर चले जानेवाले पति की मौत का उपहार मांगा होगा मातृऋण के बदले, तो दूसरी ने नागमणि का दान दिया होगा? वो कैसी पत्नी रही होगी जिसने अपने इकलौते पुत्र को युद्धक्षेत्र में भेजने में संकोच नहीं किया होगा - वो भी उस पिता के बुलावे पर जिसे बेटे ने देखा तक नहीं। महाभारत धर्म और अधर्म, जय और पराजय, विलास और संन्यास, महत्वाकांक्षा और अभिमान, सुरक्षा और भय, भोग और त्याग, युद्ध और शांति, कर्म और दुष्कर्म, जीवन और मृत्यु की महागाथा है। महाभारत उन भूली हुई नायिकाओं का शोक-गीत भी है जो अपने कर्मों को भोगने के लिए इस महागाथा के पन्नों का हिस्सा बनीं।

सत्यवती

ऊंची महत्वाकांक्षा
अप्रतिम सौंदर्य
केवट का घर
वृद्ध राजा का महल
देवव्रत के भीष्म
होने का फल
निष्फल पुत्र
अभिमान क्षुण्ण 

मत्स्यगंधा, तुम
गंगा की लहरों पर ही सुरक्षित रहती!


हिडिंबा

प्रेम में समर्पण
विरह को अर्पित
जीवन-दर्शन
सुहाग में वैधव्य
पति को सर्वस्व
छिनी भाई की शान
किया कुरुक्षेत्र में
पुत्र का बलिदान

हे देवी हिडिंबा
तुम राक्षसी ही भली थी!

माद्री

ना कोई लिप्सा
ना ही प्रतिकार
ना मांग ही कोई
ना मिला वरदान
कुंती की छाया
अश्विनी की माया
पति का बाहुपाश
चिता की आग

ओ माद्री,
तुम्हें सती तो ना होना था!


भानुमति

सुयोधन की नायिका
दुर्योधन की संगिनी
दुःस्वप्नों का श्राप
पति के पाप
अधर्म का साथ
खलनायक का हाथ
द्रौपदी से डाह
इंद्रप्रस्थ की चाह

हे काशीकन्ये,
तुम्हें मोक्ष कैसे मिलना था!


चित्रांगदा

मणिपुर की रानी
वीरांगना, अभिमानी
अर्जुन हुए पस्त
रूप से मदमस्त
बब्रुवाहन बना नायक
अर्जुन-सा धनुर्धर
बेटे से वचन
पितृवध की कसम

हे अर्जुन पत्नी,
पति से ये कैसा बदला था?

उलुपी

नागों की कन्या
मोहक और रम्या
अर्जुन से नेह
दिया जीवन सस्नेह
नागमणि का मान
पति को प्राण-दान
अपेक्षाओं से किनारा
बेटे को संवारा

ओ उलुपी,
एक रात के बदले ऐसे बलिदान?

उत्तरा

विराट की बेटी
मत्स्यवंशी कन्या
नृत्य में प्रवीण
अभिमन्यु की प्रिया
कुरुक्षेत्र की धरोहर
कोख में विरासत
ब्रह्मास्त्र की सताई
नारायण की बचाई

ओ उत्तरी,
उस जीवन से कीमती विजय का कोई टुकड़ा ना था।

गुरुवार, 1 मार्च 2012

मुंबई से पोस्टकार्ड



तुझे देखा है लेटे हुए बातें करते ऐ समंदर 
कभी साहिल पे भी पैग़ाम दिए जाता है
जो मौज तेरी नहीं कहतीं तेरे डर से ज़ालिम
वो सुर्ख सूरज उतरते हुए कहे जाता है
तू शहंशाह है और तेरे राज में ही ऐ बेदर्द
सितमगरों का ये शहर बसता चला जाता है
तूने जादू से रचा है जो एक हसीन तिलस्म
वो तेरी गहराई से भी ऊंचा हुआ जाता है
तू ख़्वाबों का है साथी, तू अश्कों का है डेरा
तेरे पानी में हरपल ज़हर घुला जाता है
तू अपनी बेरूखी का ये लबादा ओढ़े ही रख
बेफिक्र ये शहर तुझपे काबिज़ हुए जाता है


 २

हवा से बातें करता
धुंए के जाम पीता
ठोकरों, गड्ढों से
मुझको बचाता
चला जाता है वो
धीमे-धीमे गुनगुनाता

आज की दोपहर
हमसफ़र बना है ऑटोवाला।

 ३

दो रुपए में
खरीद लिया है सनसेट प्वाइंट
और समंदर के किनारे की
थोड़ी-सी हरियाली
एक डक पॉन्ड भी है उसमें
सी-सॉ पर हैं बच्चे
रिबॉक पहने
उनकी आया इतराती है

मेरे जूतों ने कहा है,
नहीं काटेंगे तुझे
कि इतने सस्ते में
जॉगर्स पार्क के ये महंगे नज़ारे
हर दिन कहां मिलते हैं?
 



सुना है वो सुपरस्टार
सिर्फ़ दो घंटे सोता है हर रोज़
सुना है धुंए के छल्लों से
उलझती है रात

सुना है कि वो होती है
बहुत तन्हां
कि उसकी वैनिटी
सिर्फ सेट्स और वैन में मिला करती है

सुना है कवि है कोई
दिन में लिखता है आईटम नंबर
और रात में रोते हुए
कामायिनी पढ़ता है

सुना है ये शहर
ख़्वाबों को पर देता है
सुना है कि ये नींद-ओ-चैन
गिरवी रखता है।