मंगलवार, 29 नवंबर 2011

दोनों जहां से खोए गए हम

सांझा-पराती, झूमर और राम-जानकी विवाह के गीतों के बीच छत के कोने पर बैठकर हम हर रोज़ अपनी दुकान खोलना नहीं भूलते। 'ऑन्ट्रॉप्रॉन्योर' होने का ये सबसे बड़ा नुकसान है। होम प्रो़डक्शन में छुट्टी भी किससे मांगी जाए? सो, हम नीचे जाकर पंगत बिठा आते हैं और फिर वापस आकर अपनी फिरंगी क्लायन्ट से कॉनकॉल पर झूठी-सच्ची अंग्रेज़ी भी बतिया आते हैं। 

भाभी नई बहू है, उसे गांववालों के सामने जाने की इजाज़त नहीं। तो क्या हुआ अगर वो आईआईटी ग्रैजुएट है? तो क्या हुआ अगर वो इंटरनैशनली अपनी कंपनी की सबसे काबिल कन्सलटेन्ट्स में से गिनी जाती है? तो क्या हुआ अगर वो काम के सिलसिले में दुनिया अकेली नाप आती है? है तो वो यहां की बहू ही। लिहाज़ा लाल लहरिया साड़ी में लिपटी बहू पलंग के एक कोने में सिमटी 'माफिया क्वीन्स ऑफ मुंबई' के साथ वक्त काटती है और मैं शिकस्ता-ए-बहस से ख़फ़ा छत पर चहलकदमी करते हुए अपनी खिसियाहट कम करने की कोशिश करती हूं। ये दोनों जहां का संतुलन बनाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है।

छत पर शाम को उतर आई ठंड सुबह की धुंध में पसरने लगी है। पुल के पीछे से ठंडा सूरज झांकता है और मां शादी का काम-काज संभालते हुए भी पछुआ से बचने के लिए कान ढंकने की हिदायत देना नहीं भूलती। दादी को चापाकल से बाल्टी में ठंडा पानी भरकर सुबह-सुबह नहाने के लिए तैयार होते देखते हुए अपने लिए गर्म पानी मांगने में शर्म आती है। सो, अपने साथ-साथ बच्चों को भी शहादत के लिए तैयार कर देती हूं। उनके मनोरंजन के लिए ताली और कव्वाली है और हैं महेन्द्र कपूर 'ठंडे ठंडे पानी' के साथ। हाइजीन और कम्फर्ट ख़्याल के आख़िरी छोर हैं। गांव में बैक टू बेसिक्स।  

गांव-सीवान-पटना-सीवान-गांव-सीवान का सफ़र करते हुए शरीर जवाब दे जाता है और नीली ज़रीवाले आसमान तले बैठकर सुबह तक भाई की शादी देखने का शौक अगले दिन से हमारी आंखों की लाल डोरियों के रूप में नज़र आता है। शादी के आफ्टरइफेक्ट्स की पहली कैज़ुअल्टी आद्या है। हम सब बहुत पीछे नहीं। 

नई बहू को अपने घर लेकर आते-आते हम धराशायी हो चुके हैं। बीमारी भी कन्टेजियस है। नई बहू को भी नहीं छोड़ती। अगले दिन मरीज़ों को डॉक्टर के पास नहीं, डॉक्टर को मरीज़ों के पास लाना पड़ा है। एक-एक कर डॉक्टर साहब ने नौ लोगों का बुखार, बीपी और गला चेक किया है। थोक के भाव से एन्टीबायोटिक्स खरीद लाया गया है। सबसे पढ़ी-लिखी और काबिल बड़ी बहू को अपने साथ-साथ बाकी आठ लोगों को वक्त पर दवा देने की 
ज़िम्मेदारी सौंप दी गई है।

रिसेप्शन के लिए नई बहू तैयार है। मैं भी हूं, करीब-करीब। अपने सौम्य चेहरे को सजाने के बाद नई बहू मुझपर भिड़ती है। मैंने हाथ खड़े कर दिए हैं। बड़ी बहू मुझे उस राजस्थानी पोशाक का वास्ता देती है जो कई महीने पहले भाई के रिसेप्शन के लिए ख़ास जयपुर से मंगवाई गई थी। जैसे-तैसे पोशाक लपेटकर मैं ड्रेसिंग टेबल के सामने बिठा दी गई हूं। बड़ी बहू ने अपने गहने और टीका मुझे पहना दिया है, छोटी दुल्हन अपने लहंगे को संभालती हुई मेरा चेहरा दुरुस्त करने के लिए ब्रशनुमा औज़ार और काजल लेकर झुक गई है। 

पोशाक में लदी-फदी अपनी बीमार बेटी को शॉल में लपेटे मैं ठीक दस मिनट के लिए पार्टी में शरीक होती हूं। सबकी शक्लें अब स्लो मोशन में आंखों के सामने से गुज़र रही हैं। आंखों के लाल डोरे गहरे काले रंग में तब्दील होकर आस-पास हवा में तैरने लगे हैं। आद्या नींद में बिस्तर पर लिटाने के लिए ठुनक रही है। मैं वैसे ही स्लो मोशन में घर लौट आती हूं। आद्या हरे-पीले कंबल में है, मैं बिस्तर के कोने में। सामने आईने में शक्ल नज़र आ रही है। सबकुछ ऑलमोस्ट परफेक्ट है, जैसा सोचा था। लाइम ग्रीन और लेमन येलो कॉम्बिनेशन वाली पोशाक, जड़ाऊ हार और टीका, मैचिंग चूड़ियां और चप्पल। लेकिन फिलहाल मुझे मैचिंग कंबल ज़्यादा अपील कर रहा है। बिना किसी कोशिश के मैं उसी हाल में बेटी को गोद में चिपकाए कंबल में सिकुड़ गई हूं। 

बाहर नब्बे के दशक के सलमान, अक्षय, सैफ और राहुल रॉय की फिल्मों के गाने बज रहे हैं। कोई इन्हें सीडी बदलने को क्यों नहीं कहता? भाई ने दही-बैंगन बनवाया है ख़ास उड़िया स्टाईल। जाने गर्म जलेबी के साथ रबड़ी का स्वाद कैसा लगता होगा? मेरी मां की दोनों बहुएं बला की ख़ूबसूरत हैं। मैंने तो बड़ी मौसी को प्रणाम भी नहीं किया। पता नहीं क्या सोचती होंगी? बाबा होते तो रिसेप्शन कहां होता? रांची में कम-से-कम गीज़र तो था। भाई का रिसेप्शन दुबारा नहीं होगा। हम महीनों पहले से इस दिन का इंतज़ार कर रहे थे। हम शहरवाले हो गए हैं, गांव आते ही बीमार पड़ने लगे हैं। चापाकल, पीछेवाले आंगन में लौकी की बेल, ठंडा सूरज, पुल पर चलती गाड़ियां, मोबाइल पर फ्लैश करता मेसेज, ऑस्ट्रेलियन एक्सेंट में बात करती इंगा, वेबमेल, हाथों में रूमाल लेकर नाचता सैफ अली खान और दही बैंगन का स्वाद... नींद में सब गड्डमड्ड हो गए हैं...  

रविवार, 27 नवंबर 2011

कौना बने रहलू ऐ कोयलर...


ये बीसियों कमरों, बड़े दालानों, चार आंगनों और चार चापाकलों वाला घर है – हमारा पैतृक घर। यहां सालों भर लोग कम, अनाज की बोरियां और बिल्ली के बच्चे ज़्यादा दिखाई देते हैं। छठ-त्यौहार या शादी-ब्याह के मौके पर जब परिवार जुटता है तो महाराज को कोई तय गिनती नहीं बताई जा सकती कि कितने लोग होंगे। चालीस-पचास से लेकर सौ-सवा सौ तक – ये संख्या कुछ भी हो सकती है। लेकिन अन्नपूर्णा मेहरबान हैं कि हांडियों में खाना कभी घटता नहीं और विश्वकर्मा मेहरबान हैं कि सोने के लिए कमरे कम नहीं पड़ते।
हम यहां मेरे छोटे भाई की शादी की कुछ रस्में पूरी करने आए हैं। हमारी जड़ें नदी के किनारे बसे इस गांव में ज़रूर है, लेकिन शाखें बरगद की तरह ऐसे फैली हैं कि जाने कई शहरों में अब नई जड़ें नज़र आने लगी हैं। हम दो भाई-बहनों की शादी यहां से नहीं हुई लेकिन सबसे छोटे बेटे का शुभ विवाह करने के साथ-साथ अपनी सकल ज़िम्मदारियों की पूर्णाहुति के लिए पापा गांव लौटते, ये लाज़िमी था।
एक कमरे में हमारे जहाज़ जैसे सूटकेस चौतीस साल पुराने पलंग के नीचे धकेले जा रहे हैं। पलंग एन्टीक हो गया है मम्मा, बदल डालते हैं, मैंने कहा है। मम्मी भी एन्टीक हो गई है, मां ने हंसते हुए कहा है। इसलिए तो बदली जा रही है। पुरानी बहुओं की जगह नई बहुएं लेंगी अब। पदवी बदली है तो सिर का पल्लू भी सरक के कंधे पर उतरे, मैं मां से कहती हूं। लेकिन आदत से लाचार मां का पल्लू सिर से एक सेंटीमीटर भी नहीं सरकता। ऐसे लाल-पीले पल्लू से सिर ढंके हुए दिनभर चलते-फिरते सारे काम निपटा लेना भी एक कला ही होती होगी। मैंने ये कला सीखने की कोशिश भी नहीं की, ना ऐसी कोई मंशा है। सबकी रुसवाईयां झेलते हुए भाभियों को भी अपने ही पाले में रखा है।
तिलक-फलदान और शादी के साथ जनेऊ भी होना है, इसलिए सभी रस्में दोहराई जाएंगी। शगुन चूमाने के साथ सबसे पहली रस्म मटकोर की होनी है। मम्मी पूरे जतन से अपनी बड़ी बहू को (जो उड़ीसा से है) बिहार की रस्में समझाती जा रही हैं। हम किसान हैं, इसलिए मिट्टी और प्रकृति हमारे लिए सबसे पूजनीय है। पेड़, पौधे, घास-दूब, मिट्टी, हवा-पानी सबकी पूजा की जाएगी बारी-बारी से। नदी के किनारे खेत से शादी की वेदी बांधने के लिए मिट्टी खोदकर लाई जाएगी जिस रस्म को मटकोर कहते हैं।
मटकोर के लिए अंतःपुर से सभी महिलाएं लाल-पीली बनारसी और साउथ सिल्क की साड़ियों में निकलती हैं। अंधेरा घिर आया है, इसलिए किसी के हाथ में टॉर्च तो किसी के हाथ में लालटेन है। मुझे याद है कि पंद्रह साल पहले तक मेरी दादी तक को बिना बनारसी चादर से सिर ढंके दरवाज़े से निकलने की अनुमति नहीं थी। शुक्र है कि ज़रीवाले चादरों को संदूकों में डालकर उनके मुकम्मल जगह पहुंचा दिया गया है।  
कौना बने रहलू ए कोयलर, कौना बने जास/केकरा दुअरिया ए कोयलर कौना बने जास/केकरा दुअरिया ए कोयलर उछहल जासशुभ का संदेश लेकर आनेवाली कोयल को उलाहना देते हुए पहला गीत गाया जाता है, कौन से वन में इतने दिनों तक भटक रही थी ऐ कोयल, कितनी देर से हमारे दुआर पर आई हो अब। खुशी से लबरेज़ तुम्हारी आवाज़ सुनकर हमारे मंगलगीतों में भी खुशियां उतर आई हैं। घर की ड्योढ़ी से निकलते हुए कोयल के बहाने उन पुरखों को याद किया जाता है जो इस दरवाज़े से गुज़रे, जिनकी स्मृतियां शेष हैं और जिनके आशीर्वाद के बिना कोई भी शुभ कार्य संपन्न नहीं हो सकता।
गांव के हर समुदाय के सहयोग के बिना दो डेग बढ़ना मुमकिन ना हो, यहां तो शादी जैसे महायज्ञ का आयोजन है। इसलिए नाई-नाउन के साथ कुम्हार, दलित, अति दलित, हरवाहे और गोड़िन को बुलाया जाता है। पूजा के लिए दौरा अति दलित (गांव में जिसे डोम कहते हैं, और इस शब्द से मुझे चिढ़ है) के घर से आता है। इसी दौरे में पूजन सामग्री सजाकर रखा जाता है। घर से निकलते ही पहली पूजा ढोल की होती है, जिसे चमटोली से मंगवाया गया है। अक्षत, पान, सुपारी से पूजे जाने के बाद महिलाएं गीत गाते हुए निहोरा करती हैं - बजाव भईया चमरा बजाव डागाढोलक। लेकिन बिना अपने मनमुताबिक नेग लिए ढोल बजता नहीं, महिलाओं की टोली आगे बढ़ती नहीं। हंसी-ठठे और मान-मनौवल के बाद ढोलक की थाप पर गीत गाते हुए महिलाओं की टोली मिट्टी पूजन के लिए निकलती है। मिट्टी जे उठेला झकाझक/सोहाग के माटी/कौना बाबा के बेदी हम जाएब/सोहाग के माटी गाते हुए दूबवाली मिट्टी दौरे में डाल दी जाती है, सुहागन महिलाओं के खोयचे में जौ के दानों के साथ ढेर सारा आशीर्वाद डाल दिया जाता है और अब कुम्हार के चाक और कलश की पूजा होती है। किसान की गृहस्थी में इस्तेमाल होनेवाले सभी सामान, जैसे खर-मूसल और हल-जुआठ तक किसी ना किसी रूप में विवाह या शुभकार्य के दौरान पूजे जाते हैं।
अब हल्दी लगाने और आशीर्वाद लेने-देने का वक्त हो चला है। कोयल मोरों के इसी वन में बसी रहना, डाल-डाल पर से मीठी बोलियां बांटती रहना। हम अपने-अपने जंगलों को लौट भी गए तो अपनी जड़ें कहां भूल पाएंगे?
(पुनश्च: हमारे गांव का नाम मोरवन है। बचपन में याद है कि हमारे दरवाज़े पर फुलवारी में मोरों का एक जोड़ा रहता था। उन मोरों के साथ नाचकर हमने बारिश के कई मौसमों का आगाज़ किया है, उनके पंखों को किताबों के पन्नों में दबाया है और पेड़ों पर चढ़-चढ़कर उनके अंडे गिने हैं। मोर रहे नहीं, ना फुलवारी की वो रौनक रही। लेकिन जड़ें तो फिर भी यहीं हैं।)

शनिवार, 12 नवंबर 2011

ज़ुल्फ के सर होने तक

आज पार्क जल्दी आ गई हूं। दूर से ही जॉगिन्ग ट्रैक पर चक्कर लगाते कई सारे लोग नज़र आते हैं। पूरी कॉलोनी यहीं इकट्ठा हो गई है क्या वीकेंड की सुबह? फिर ध्यान आता है, मैं बूढों की बस्ती में रहती हूं। देश के किसी भी डिफेंस कॉलोनी (जलवायु विहार या आर्मी वेलफयर हाउसिंग कॉलोनी) में कुछ गज़ब की समानताएं मिलती हैं - सुबह-सुबह पार्कों में कसरत करते या टहलते बुज़ुर्ग लोग (रिटायर्ड डिफेंस अफ़सर), कोने की बेंचों पर गपियाती, प्राणायम करती महिलाओं की टोली (रिटायर्ड अफ़सरों की कभी ना रिटायर होनेवाली मेमसाहिबाएं) और सड़कों पर ग्रेट डेन से लेकर पग तक जैसी ब्रीडों के कुत्ते टहलाते अर्दलीनुमा नौकर। 

बहरहाल, अंकल-आंटियों की ब्रिस्क वॉकिंग के धक्के खाते फिरूं, इससे अच्छा है, बेंच पर बैठकर इंतज़ार ही कर लूं। थोड़ी देर में लाफ्टर क्लब में ठहाके लगाने के लिए सभी इकट्ठा होंगे जो दरअसल सुबह के इस पूरे कार्यक्रम का ग्रैंड फिनाले होता है। फिर धीरे-धीरे टोलियों में बंटकर ये सारे लोग अपने-अपने घरों को लौट जाते हैं और शायद पूरा दिन धूप ढलने के इंतज़ार में काटते हैं कि जब पार्क खुले, फिर मिलने-जुलने का बहाना ही मिले।

"जनरल बट्टा, हाऊ आर वी दिस मॉर्निंग?" बगलवाली बेंच पर काले बालों, सफेद तनी हुई मूंछों और हाथ में छड़ी वाले अंकल इतनी ज़ोर से आवाज़ लगाते हैं कि मैं भी जनरल बट्टा को ढूंढने लगती हूं। एक अत्यंत ऊष्म हैंडशेक के बाद दोनों उसी बेंच पर बैठ जाते हैं। 

"सब ठीक तो है? मैं देर शाम कॉल कर रहा था आपको। यू डिडन्ट टेक द कॉल। कहीं बाहर गए होंगे शायद।"

"नहीं। जल्दी सो गया था। ब्रांडी हेल्प्स। इट पुट्स मी टू स्लीप।"

"फिर से ब्रांडी? ऑन द रॉक्स? कुछ और ले लेते। मे बी यू शुड ड्रॉप इन टुडे फॉर सम गुड स्कॉच।"

इव्सड्रॉपिंग की आदत नहीं मेरी, लेकिन अगर बातचीत का मुद्दा इतना दिलचस्प हो तो ना चाहते हुए भी कान धोखा दे जाते हैं!

"लेकिन ब्रांडी में क्या खराबी है?"

"कुछ नहीं। लेकिन ब्रांडी आपके लिए नहीं है।"

"डू यू मीन टू से ब्रांडी सिर्फ बच्चों के लिए है?" जनरल बट्टा की आवाज़ अब इतनी ऊंची हो गई है कि आस-पास वॉक कर रहे लोग भी घूमकर उनकी ओर देख लेते हैं।

"ओह नो नो," मूंछोंवाले अंकल अपनी झेंप मिटाने के लिए एक बनावटी ठहाका लगाते हैं। "आई ओनली मीन टू इन्वाईट यू फॉर ए ड्रिंक, दैट्स ऑल।"

बातचीत खत्म हो गई है और दोनों लॉन की ओर चले जाते हैं जहां अगले दस मिनट तक ठहाके लगाने के लिए मशक्कत की जाएगी। ये भी मुमकिन है कि कई सारे बुज़ुर्गों के लिए ये दिन की पहली और आख़िरी हंसी हो। ये भी मुमकिन है कि जनरल बट्टा के लिए बेंच पर हुई बातचीत दिन की पहली और आखिरी हो। उसी लाफ्टर क्लब के सर्कल में मुझे ग्रे जैकेट और काले मफलर में अपने पड़ोसी कर्नल राजगढ़िया दिखते हैं। पिछली छह सर्दियों से मैं इन्हें इसी जैकेट और इसी मफलर में देखती आ रही हूं। ठंड बढ़ेगी तो काला मंकी कैप चढ़ जाएगा सिर पर। बाकी सुबह-शाम कर्नल राजगढ़िया यहीं मिलेंगे, पार्क में ही। नहीं जानती उनका घर कहां है, लेकिन ये सुना है कि अकेले रहते हैं और सर्वेन्ट क्वार्टरों में थोक के भाव से पल रहे बच्चों से अक्सर अपने यहां आकर रहने का अनुरोध करते हैं। "ही लुक्स लाइक ए पीडोफाइल टू मी," एक पड़ोसन ने पार्क में जब ऐसा कहा तो मैं सिहर गई थी। मैंने अपने बच्चों को कभी उनके पास जाने से नहीं रोका, सिर्फ एक बार गुज़ारिश की थी कि उन्हें टॉफी और चिप्स ना बांटा करें। एक तो आदत बिगड़ेगी, दूसरा बांटना हो तो उन्हें दिया जाए जो इतना-सा भी खरीद नहीं सकते। 

राजगढ़िया अंकल को देखकर मुझे पीडोफाइल वाली बात याद आ गई है। क्या ये मुमकिन नहीं कि नितांत अकेले रहनेवाला एक बुज़ुर्ग रात में अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित होता हो? जो किसी दिन सांसों ने उनकी बीवी की तरह बिना किसी अल्टीमेटम के उन्हें धोखा दिया तो? या अपने बच्चों की तरह जता-जताकर साथ छोड़ा तो? अकेले मरने का ख़्याल भी कितना ख़ौफनाक होता है? अस्सी के पार कोई किसी बच्चे के शोषण के बारे में क्या सोचेगा? उसके अपने डर इतने घने होंगे कि ईश्वरनुमा अस्तित्व से कोई दुश्मनी लेने की हिम्मत भी क्या बचती होगी? ये हमारी अपनी असुरक्षा होती होगी कि अपनी सोच में हम एक लाचार बुज़ुर्ग को भी नहीं बख़्शते। 'इट इज़ बेटर टू भी सेफ, ऑफ कोर्स, बट इट्स गुड टू बी सेन्सेटिव टू,' मुझे अपना जवाब याद आया है। 

याद आया है कि मेरे मम्मी-पापा और मेरे सास-ससुर अपने-अपने घरों में अकेले ही रहते हैं, बिना बच्चों को। हम छुट्टियों में मेहमान होते हैं, और कभी अपनी गृहस्थियों में उनके मेज़बान। हमारी ज़िम्मेदारी का ये चरम है। 

लाफ्टर क्लब के ठहाके बंद हो जाने के बाद मैंने राजगढ़िया अंकल के साथ टहलते हुए वापस आना तय किया है। तबतक अपनी डॉक्टर और क़रीबी दोस्त को एसएमएस करने लगी हूं, "भूल मत जाना कि ओल्ड एज होम में हम अपने कमरे एक-दूसरे के बगल में ही बुक करवाएंगे।"

बुधवार, 9 नवंबर 2011

बिग बॉस, हर सवाल का जवाब मिले, ज़रूरी है?

एटीआर में मेरी जान वैसे भी सूख जाती है। छोटी सी डगमगाती हुई प्लेन में एयर इंडिया की बदसूरत और बेहद अक्खड़ एयर होस्टेस ने सफ़र का ज़ायका और भी बिगाड़ दिया है। यूं भी हम ऐसी जगह जा रहे हैं जहां के बारे में जानने-समझने के लिए गूगल करने का भी मौका नहीं मिला है। इम्फाल... बस नाम ही काफी है, मैंने हंसते हुए सासू मां को फोन पर बताया है। साथ में कहा है, फोन ना लगे तो चिंता ना करें। नो न्यूज़ इज गुड न्यूज़। हम पिछले कुछ दिनों से लगातार सफ़र कर रहे हैं, एक शहर से दूसरे शहर, एक राज्य से दूसरे राज्य। इतना भी वक़्त नहीं मिला कि मणिपुर का कोई स्केच ज़ेहन में खींच सकूं। कॉलेज में पढ़नेवाली मणिपुरी दोस्तों के नाम के अलावा इस राज्य से अबतक कोई वास्ता नहीं पड़ा।

गुवाहाटी में अपने पुराने सहयोगी किशलय भट्टाचार्य से मणिपुर के बारे में टेढ़े-मेढ़े सवाल किए हैं तो इतना जवाब मिला है, 'Just be careful. Make sure you have enough protection. You may witness ambush towards the border, but that's all.' दैट्स ऑल?! इज़ दैट ऑल, रियली?

प्रोटेक्शन का मतलब इम्फाल एयरपोर्ट पर उतरते ही समझ में आया है। हम पांच मुसाफिरों को रिसिव करने के लिए सुरक्षाकर्मियों का मजमा लगा है जैसे। ऊपर से हम उतरे भी बड़े से कैमरे, ट्राईपॉड और मॉनिटर के साथ हैं। सुरक्षाकर्मी भी ऐसे-वैसे नहीं। ब्लैक कमांडोज़। मैं पतिदेव के कान में धीरे से फुसफुसाती हूं, "हमारे लिए? आर यू श्योर वी वॉन्ट टू डू दिस?"

कमिश्नर साहिबा भी पहली बार इम्फाल आई हैं। नॉर्थईस्ट की होते हुए भी। हमारे आगे-पीछे सफेद जिप्सियों में काले लिबासों, काले साफों और मशीनगनों के साथ लटकते ब्लैक कमांडोज़ को देखकर मेरे मन में पुख़्ता यकीन हो गया है, अब किसी एम्बुश से हमें कोई माई का लाल बचा नहीं सकता। तुम भी क्या याद करोगे सनम, कहां आकर जान दी तुम्हारी ख़ातिर... पतिदेव को कह देती, लेकिन याद आया है, नॉर्थईस्ट आने की ज़िद तो मैंने ही की थी।

इम्फाल एक उजड़ा हुआ शहर लगता है। टूटी-फूटी सड़कों पर अजीब-सी वीरानी पसरी है। राहगीर कम, पुलिसवाले अधिक दिखाई देते हैं यहां। पुलिसवालों और कमांडोज़ को देखकर सोचती हूं कि मणिपुर से जुड़ी ख़बरों में थोड़ा-बहुत कुछ पढ़ा भी है तो वो या तो मुठभेड़ से जुड़ी होती हैं या AFSPA के विरोध से। सड़क के दोनों ओर बिलबोर्ड्स लगे हैं और उनपर मणिपुरी फिल्मों के पोस्टर्स लगे हैं।  हमारे साथ चल रहे एक मणिपुरी अफसर बताते हैं कि मणिपुर में बॉलीवुड फिल्मों, हिंदी गानों और यहां तक कि सैटेलाइट चैनलों पर भी उग्रवादी संगठनों ने प्रतिबंध लगा रखा है। इस प्रतिबंध का एक बड़ा फायदा मणिपुरी फिल्म इंडस्ट्री को मिला है और निर्माता-निर्देशकों, कलाकारों, लेखकों, कॉरियोग्राफरों और टेक्निशिन्स की पूरी एक जमात मणिपुर में तैयार हो गई है। एन्टरटेन्मेंट इंडस्ट्री ने कई लोगों को रोज़गार दिया है। ज़रूर दिया होगा, मैं सोचती हूं, लेकिन दीवारों के पीछे बंद कर अभिव्यक्ति को किस तरह की आज़ादी दी जा सकेगी? बहरहाल, ये अलग बहस का मुद्दा है, क्योंकि मणिपुरी फिल्में लगातार राष्ट्रीय अवॉर्ड भी जीतती रही हैं।

हम इम्फाल में नहीं रुकते, सीधे मोरे के लिए निकल जाते हैं। मोरे म्यान्मार की सीमा पर मणिपुर से लगा एक छोटा-सा शहर है। मोरे से म्यान्मार होते हुए थाईलैंड और चीन तक रेल लिंक जोड़ने की योजना बड़ी पुरानी है। हो सकता है चीन इस योजना के अपनी ओर के हिस्से को अमली जामा पहना चुका हो, लेकिन हमारे यहां ये योजना कई सालों से कागज़ों पर है। फिलहाल ये शहर भारत और म्यान्मार के बीच के व्यापारिक संबंधों की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। हम वहां के लैंड कस्टम स्टेशन पर शूट करने जा रहे हैं।

इम्फाल तेज़ी से पीछे छूट रहा है। धान के खेत, बांस के जंगलों और सुपारी के पेड़ों से ज़्यादा मेरा ध्यान खुली जिप्सी पर लटके कमांडोज़ पर है, जो हर दिशा में मुंह करके खड़े हैं। सड़क पर कहीं लैंडमाईन बिछा ही हो तो ये हमें क्या बचा पाएंगे? हम खाना खाने के लिए चंडेल के कस्टम ऑफिस में रुकते हैं। सड़क के किनारे कहीं और खाना खाना बिल्कुल सुरक्षित नहीं। ऑफिस के चारों ओर, बाज़ार में इधर-उधर कमांडोज़ पसर जाते हैं। ना, मैं वीआईपी नहीं होना चाहती। आम नागरिक होने में कितना सुख और सुकून है।

मोरे गज़ब का ख़ूबसूरत कस्बा है। शाम चार बजे ही ढलने लगी है और हमारी खिड़की की बाहर पहाड़ी पर एक सफेद इमारत, शायद चर्च, पर सुनहरा रंग ऐसा लग रहा है जैसे ऑयल पेंटिंग करते-करते किसी पेंटर ने कैनवस पर वाटर कलर डाल दिया हो। सब बेमेल है। हरियाली, डूबता हुआ सूरज, गेस्ट हाउस की वीरानी और ब्लैक कैट कमांडोज़। कमिश्नर साहिबा मुझे नीचे आने का न्योता देती हैं। हम सिर्फ नीचे लॉन तक जा सकते हैं, बाज़ार तक जाना सही नहीं होगा। पतिदेव स्टोरी की तलाश में दो-चार कमांडोज़ के साथ बाज़ार की ओर जा चुके हैं। मेरा ध्यान ढलती शाम और ब्लैक टी पर कम, घड़ी पर ज़्यादा है। हमने वापस लौटकर मोमबत्तियां जला ली हैं। यहां बिजली नहीं आती। कस्बे में भी ऐसे ही घुप्प अंधेरा हो शायद। सामने पहाड़ी पर कहीं-कहीं रौशनी टिमटिमाती है। मनीष अब भी नहीं लौटे हैं।

सात बजे ही लगता है, आधी रात हो गई हो जैसे और अपनी फ़ितरत के मुताबिक ठीक तभी पतिदेव लौट आते हैं। कई दिलचस्प स्टोरिज़ मिल गई हैं, और हमारे लिए सरहद पार कर म्यान्मार के शहर तामू जाने की इजाज़त भी। खाने की मेज़ पर कल का दिन तय हो गया है। मणिपुर में भी लोग चावल-दाल-सब्ज़ी ही खाते हैं या हमारे लिए ख़ासतौर पर तैयार किया गया है ये डिनर, मैं ऐसा कुछ बेहूदा सवाल बगल में बैठी कमिश्नर साहिबा से पूछ बैठती हूं।

'दाल, चावल और हरी सब्ज़ियां हम खाते हैं। मछली खाते हैं, लेकिन मांस नहीं। मणिपुर के हिंदू तो प्याज़-लहसुन भी नहीं खाते', हमें कस्टम कांस्टेबल एम उमा सिंह अगले दिन खाने के दौरान बताती हैं। उमा हमारे लिए फल लेकर आई हैं जो बनारसी बेर जैसा है। बेर ही है, लेकिन बहुत मीठा और इतना स्वादिष्ट कि मैं बाज़ार से दो किलो बेर मंगवाने की गुज़ारिश कर बैठती हूं। तामू और मोरे - सरहद के आर-पार के शहरों में कैसे संस्कृतियां और परिवेश बदल जाता है, इस बारे में फिर कभी विस्तार से लिखूंगी, लेकिन फिलहाल मुझे उमा की याद आ रही है।

पति की मौत के बाद सरकारी नौकरी करती है उमा। मोरे में पोस्टेड है, लेकिन बच्चों को इम्फाल में अपनी मां के पास छोड़ रखा है। दो बच्चे तमाम हड़तालों और बंद के बावजूद स्कूल जाते हैं। उमा उन चालीस से ज़्यादा उग्रवादी संगठनों के बारे में बहुत मामूली-सी जानकारी रखती है जिनके कब्ज़े में मणिपुर है और अपने राज्य के मैती-नागा-कुकी संघर्षों के बारे में बात नहीं करना चाहती। उनकी आंखों में अपने दो बच्चों के लिए कई ख्वाब हैं जो जाने कैसे पूरे होंगे। मणिपुर से बाहर भेजने के लिए ढेर सारे पैसे चाहिए और एक सरकारी नौकरी की वजह से सिर पर मंडराते हज़ार खतरों और अलग-अलग संगठनों की उगाही की मांगों के बीच जी लेना ही अपने आप में एक चुनौती है।

हो सकता है उमा अब मोरे में नहीं, कहीं और पोस्टेड हो। लेकिन पिछले सौ दिनों से चली आ रही आर्थिक नाकेबंदी में वो और उसके जैसे 20 लाख परिवार कैसे जी रहे होंगे? देश का कोई और हिस्सा होता तो चंद घंटों के राष्ट्रीय राजमार्गों पर किए जानेवाले चक्का जामों ने नेशनल हेडलाइन्स बनाई होती। लेकिन एक अलग ज़िले की मांग को लेकर पूरे राज्य की व्यवस्था तहस-नहस भी हो जाए तो दिल्ली में किसी को क्या फर्क पड़ता है? मणिपुर देश के नक्शे में कहां पड़ता है, इसकी जानकारी भी है हमको? तो क्या हुआ अगर उमा को अपनी आधी तनख्वाह गैस सिलेंडर खरीदने में लगानी पड़ी होगी इस महीने? दोषी कौन है, उन दो समुदायों के नेता जो अपने अहं में उलझे हुए हैं या सरकार, जो इस गतिरोध को दूर करने में पिछले सौ दिनों से तो क्या, सालों से नाकामयाब रही है? चार महीने में चुनाव होने हैं। हैरान हूं कि आम मणिपुरियों ने अबतक बड़ा विद्रोह कैसे नहीं कर दिया?

जान का डर सबसे बड़ा डर होता है, ये मणिपुर में रहते हुए ही समझा जा सकता है, इम्फाल के ख्वैरम बाज़ार में दुपट्टे, पीतल और कांसे का सामान देखते-दिखाते हुए बातचीत के दौरान जिस टूटी-फूटी हिंदी में उमा बात करती हैं उसका अभिप्राय मैं यही लगा सकी हूं। लेकिन डर की भी एक हद होती होगी और जिस दिन वो डर ना रहा, उस दिन क़यामत आएगी।

क्या ये डर अब नहीं चूक गया होगा? ब्लैकमेलिंग की भी सीमा तो होगी ही और जब दवाओं, ज़रूरत की तमाम चीज़ों और खाने के सामानों की कमी के बीच मरने की नौबत आ ही जाए तो जान का डर क्या बचेगा फिर? लेकिन मैं इस उम्मीद में हूं कि इरोम शर्मिला की भूख हड़ताल, मुठभेड़ों, आर्थिक नाकेबंदियों और सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून हटाने की तमाम मांगों के संघर्ष के बीच उमा जहां हो, अपने दो बच्चों के साथ सही-सलामत हो और उसका सब्र ना चूके। दुआ ही कर सकती हूं क्योंकि यूं भी मणिपुर से मेरा क्या वास्ता और टीवी पर एक आर्थिक नाकेबंदी से हैरान-परेशान लोगों की ख़बरों के बजाए मैं स्वामी अग्निवेश की बिग बॉस में एन्ट्री के बाद टीम अण्णा की चुगलियां सुनना ज़्यादा पसंद करूंगी।

मणिपुर में सैटेलाइट चैनलों पर प्रतिबंध है। शुक्र है!

रविवार, 6 नवंबर 2011

Love is the reason

Dearest M,

I don't know where to begin. So I will start by wishing you a very happy birthday.

I have been thinking hard through many instances from where I want to begin... It could be our first meeting, it could be our first rickshaw ride together, or it could be the first piece of poetry we read out to each-other. Or it could well be about the first song we fell for together.

But I am suddenly reminded of the day I had come over to your place for the first time. It was a few months after your marriage. Or was it a couple of years into it? I don't remember the day or time, but what I do clearly remember is the first little thought that struck me - this was home to one of the people I loved the most, this was something she had created, she was responsible for the colours, crystals, glasses and fabric. It was a real thing and a sheer delight. Especially since I had grown up with this girl who could well have been footloose, and yet desired to be held back, who longed to be loved, and yet didn't really know how to do it.

I clearly remember that I was the one who was on the other side of the pole - footloose and nomadic, even though I could easily come across as someone who could cent percent commit herself into a relationship, who loved and received love, and yet didn't know how to make it the real thing. 

Life is full of surprises. So is love, my love. It has a never-ending opening, and it is hardly ever open to an ending. It is fun - excited, exciting, interested, interesting. It is only when you are in love that you are the most comfortable, and yet the most restless. It is only when you are in love that you can sleep peacefully next to the loudest snores under the sky, and yet you can lie sleepless, night after night. It is only when you are in love that you love to hate the one you love. 

And nobody better than you and I know that it doesn't come easy - this goddamned piece of love. Why am I talking about all this today, you may ask. 

Because you have been in love forever, and it is a time you are falling in love yet again with the one who kicks you and hurts you, who makes you cry and who makes you feel like you are nothing more than a piece of shit.

M, my love, at this very moment, I want to hug you and cuddle your big fat belly. And at this very moment I want to tell you that if it wouldn't be for love - the love you possess, the one which is growing inside you - you wouldn't have been what you are capable of. 

I wish beginnings could be prolonged - beginning of every time we have been in love, for beginnings are always exciting. But beginnings must move on and develop, love must have constant new beginnings. You must get away from the only one you have loved, you must have changes, other people, other places so you can come back to your love as if it were new, and have constant new beginnings in the relationship. 

And you are doing just that, creating a new beginning for the decade old relationship which will change it forever, and redefine it. Obviously, change will be troublesome. Change is something we always want to avoid. Especially when this change will shake you inside out and shock you to the wits. Especially when you will see an entity from within you grow into a separate one. Especially when creating this beautiful thing that everyone around you will wow about will seem like such a thankless, menial job that you will crave to run away... But work must be done, nappies must be washed and the little one must be fed - without a moment of glory, mind you. You can run away but you can't escape.


Here's wishing you a very happy birthday and here's praying for your tenacity (to survive the exhaustion), love (that will often cause despair, but it is ok) and strength (to deal with your childhood which will come to haunt you). Here's to the woman who has surpassed everyone's expectations, who loves and knows how to love. No matter how difficult it may seem, we have immense potential of putting our lives back on the right track.

So, let's celebrate all the wonderful moments that await you. This constant state of struggle with clouds of fear and dark shadows of doubts will be over soon. And when we have lived this one phase, just as phases of heartbreaks and fears and sorrows and inexplicable happiness, we will get together to celebrate your 50th birthday. 

M, my precious friend, I love you, and I wish you have a life that's full of love. For love is the answer to all the prayers we had recorded in our juvenile diaries.

Happy Birthday, once again.
Love, yet again,
A

शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

तुम तो गेम से बाहर हो ना गुड्डी?

स्कूल की खड़ूस प्रिंसिपल सिस्टर क्रिस्टिना को आख़िर लड़कियों पर दया आ ही गई। शुक्र है रेड चैपल में बैठी मदर मेरी का, वरना ये लोग तो हमें पूरी गर्मी झुलसाकर मार ही देते । सुबह पौने दस से चार बजे भी कोई टाईम है स्कूल का? पब्लिक स्कूलों में देख लो, एक बजे घर लौट आते हैं सब। हम ही अभागे अर्द्धसरकारी स्कूलों में कॉन्वेन्ट और सरकारी स्कूल के बीच के किसी अधकचरे से माहौल में फंसे हुए हैं।

ख़ैर, शुक्र है कि कल से मॉर्निंग स्कूल शुरू हो जाएगा। मॉर्निंग स्कूल यानि साढ़े छह से साढ़े बारह। फिर पूरे दिन पर अपना वश। जैसे चाहें दोपहर को मोड़े, जैसे चाहें मैदान में दौड़ते हुए शाम के कंधे पर चढ़कर रात तक पहुंचे और फिर थककर मां का दामन थाम लें। मैं इतनी-सी बात सोचकर बहुत खुश हूं, इतनी खुश कि स्कूल में पूरा दिन काटना मुश्किल।

गुड्डी का बुखार उतर गया होगा। सरद-गरम, मम्मी कहती हैं, और स्कूल से आकर पानी नहीं पीने देती। पांच बहनें हैं ना गुड्डी, उसकी मम्मी को इतना टाईम कहा होता होगा कि उसके सरद-गरम होने ना होने की परवाह कर सकें।

गुड्डी के इस बुखार के चक्कर में हमारा खेलना बंद है परसों से। घर के बाहर अभी भी कित-कित खेलने के लिए लकीरें खींची पड़ी हैं। मैंने देखभाल कर पत्थर के चपटे टुकड़े भी निकाल रखे हैं। ये भी ना हुआ तो हम खो-खो भी खेल सकते हैं आज तो, या फिर पिट्ठू। इसमें भी मन ना लगे तो मैंने दस अच्छी गोटियां चुन रखी हैं खेलने के लिए। उसके घर के आंगन के कोने में सीढ़ियों पर बैठकर गोटियां खेली जा सकती हैं देर तक। हमारी गुड़िया का गौना भी कराना होगा। शादी में समोसे, जलेबी खिलाए थे। गौने में बिस्कुट, लेमनचूस से काम चल जाएगा।

स्कूल का बैग कंधे पर लिए इतनी सारी योजनाएं बनाते हुए मैं घर आ गई हूं। साथ देने के लिए एक पत्थर का टुकड़ा है जिसे गली के मुहाने से ठोकर मारते हुए मेन गेट तक ले आने का लक्ष्य निर्धारित किया है मन-ही-मन। उलटे-सीधे ठोकरों की चोट खाता हुआ पत्थर गली में दाएं-बाएं भटकता है, मैं उसके पीछे-पीछे भटकती हूं। घर की दस कदम की दूरी कई मिनटों में तय होती है। गेट तक पहुंचकर लंबी सांस लेती हूं, पेट में दौड़ते चूहों का हाल पूछती हूं और जल्दी से पानी की बोतल से दो सिप ले लेती हूं अमृत का। घर में मम्मी दस मिनट तक पानी नहीं पीने देंगी वरना।
बैग एक तरफ, बोतल दूसरी ओर। जूते के तस्मों को खोलते हुए याद आया है, कल से रूटीन बदल जाएगा। इस एक बदलाव की खुशी ने मुझे कुर्सी पर फिर से सीधा कर दिया है। 

मम्मी की ओर देखती हूं, चुपचाप प्लेट में खाना डाल रही हैं। चाची कोनेवाले कमरे की चौखट पर खड़ी गहरे हरे पर्दों से उलझ रही हैं। उनकी साड़ी का बॉर्डर पर्दे के बीच में बने फूलों के रंग का है। मैचिंग मैचिंग। लेकिन दोनों ऐसे चुप क्यों हैं? मम्मी और चाची में किसी बात पर अनबन हुई हो, हो नहीं सकता। फिर मेरी कोई गलती पकड़ी गई है?

मम्मी? कुछ हुआ क्या?” उस उम्र में मुझे भूमिका बांधनी नहीं आती थी, अभी भी नहीं आती।

नहीं। दाल गर्म कर दें?”

नहीं। वैसे कल से गरम खाना खाएंगे दिन में। मॉर्निंग स्कूल शुरू। सुबह टिफिन में घुघनी दीजिएगा ना? परांठा-वराठा नहीं चाहिए, मेरा बोलना जारी है, बदस्तूर।

स्कूल से आकर हम होमवर्क कर लेंगे। पढ़ाई भी हो जाएगी। शाम को खेलेंगे गुड्डी के साथ। टोकिएगा मत। कितना अच्छा होता है मॉर्निंग स्कूल। कितना टाईम होता है सबकुछ करने के लिए। पेंटिंग क्लास के लिए भी स्कूल से सीधे नहीं जाना पड़ेगा। मम्मी... खाना खाकर गुड्डी को देखने जाएं?”

गुड्डी अस्पताल से नहीं आई है।

अच्छा, रात में आएगी तब चले जाएंगे। प्लीज़ मम्मी, थोड़ी देर के लिए। कल भी नहीं गए थे। आप गेट से टॉर्च दिखा दीजिएगा। हम तुरंत मिलकर चले आएंगे।

गुड्डी अस्पताल से नहीं आएगी।

मतलब? इतनी तबीयत खराब है। फिर चलिए ना, अस्पताल में ही देखकर आते हैं।

बबुनी, गुड्डी ना अईहें। गुड्डी गईली।

मतलब? चाची क्या बोल रही हैं? आपलोग क्या कह रहे हैं, हमको कुछ समझ नहीं आ रहा, स्कर्ट के लूप से निकाली गई बेल्ट मेरे हाथ में है। ज़ुराबों से पसीने की बदबू आ रही है, और मैं फिलहाल उन्हें उठाकर बाहर बाल्टी में डालना चाहती हूं। फिर समझ में आया है कि ये लोग कुछ गंभीर बातें कर रहे हैं।

गुड्डी गईली मतलब?”

गुड्डी नहीं रही। मर गई आज दोपहर। क्या करोगी बाबू... ईश्वर अच्छे लोगों को अपने पास जल्दी बुला लेता है।

अचानक याद आया है कि हिंदी में मुहावरे पढ़ाते हुए टीचर ने आज ही काठ मार जानासे वाक्य बनाने को कहा था...

………..

गुड्डी होती तो आज इकतीस की होती। मेरी तरह अदद-सा पति होता, दो बच्चे भी होते शायद। उसे लोग उसके गुड नेम – अनुपमा – के नाम से बुलाते। उसका कोई अपना उसे प्यार से अनु कहता तो वो कहती, अनु तो एक ही है, मेरी सबसे अच्छी दोस्त।

तुम खेल से कितनी आसानी से बाहर हो गई, नहीं? कित कित का आखिरी गेम मैंने जीता था, याद रखना। तब भी एक संदेश भिजवाया था ऊपर, आज भी याद दिला रही हूं, ईश्वर से पूछना कि अच्छे लोगों को इतनी जल्दी अपने पास बुला लेता है तो उसके स्टैंडर्ड से मुझमें क्या खराबी है?


गुरुवार, 3 नवंबर 2011

जान कहां रहती है सदा...

तुम्हें याद करना नहीं चाहती। कोई वजह भी तो नहीं है। सिवाय इसके कि कई बार जीभर के रो लेने के लिए कोई वजह चाहिए होती नहीं अक्सर। लेकिन सालों से तुम्हें एक वजह बनाती रही हूं। जब सूझा नहीं कि ये वीराना क्यों, इतनी तन्हाई क्यों, तो तुम्हारी आवाज़ को आवाज़ लगा दी। एक कोने में बजने दिया तुम्हें, यादों के घने कोहरे ओढ़ लिए और छलकने दिया तुम्हारी रौशन आवाज़ को। क्या पता वही रौशनी कोई रास्ता दिखाए...

लेकिन तुम किसी को क्या रास्ता दिखाती। कोई तदबीर तुम्हारी अपनी बिगड़ी तकदीर ना बना सकी। बल्कि तदबीर पर भी तकदीर का काला साया मंडराता रहा। प्यार में नाकाम इंसान कितना हारा हुआ होता है! क्यों प्यार किया था इतना, कि तकलीफ़ तुम्हें तो डूबा ही डाले, तुम्हारे सुननेवालों को भी ना बख्शे? तुम शापित ही तो रही होगी कि हाथ आई ज़िन्दगी रेत की तरह फिसलती चली गई... मिलोगी कभी तो पूछुंगी तुमसे, प्यार किया क्यों, जिया क्यों, और ऐसे मर क्यों गई। जिससे सबसे ज़्यादा प्यार किया, उसके सब सच झेले, उन फरेबों को भी झेला जो सच के नाम पर तुमपर थोप दिया गया। कैसे झेली होगी बेरूखी? कैसा लगा होगा जब उसकी आंखों में किसी और की परछाई देखी होगी तुमने पहली बार?

ज़िन्दगी से आंखें तुम्हें तो ना चुराना था गीता। तुम्हें ऐसे तो ना जाना था।

तुम्हें फिर से सुनने बैठी हूं। तुम्हारी आखिरी रिकॉर्डिंग रही होगी ये। कैसे मरते हुए भी उस प्यार को याद करके हल्की सी हंसी के साथ गाया होगा ये गीत? घर आकर रोई होगी या प्याला उठाया होगा कोई? अपने भीतर के सारे प्यार को कैसे इतनी सहजता से उडेल दिया होगा इस एक आख़िरी नग़मे में? तुमने आज फिर बेवजह बहुत रुलाया है गीता...

 

जाने दो मुझे, आज जाने दो

बजने दो आज फोन की घंटियां
मर भी जाए तो क्या है
मर जाए एक और डेडलाईन।
गुज़र जाने दो घंटों को 
पटरियों पर दौड़ती रेल की तरह।
आने दो ई-मेलों को
घबराए हुए कबूतरों की तरह
भरने दो इनबॉक्स।
जाने दो ट्रैफिक के शोर को
किनारे से,
पीछेवाले बजाते रहें हॉर्न 
सरकती रहे एक और भेड़चाल।
उड़ती रहे धूल,
गुज़रती रहे धूप
और निकल जाए आज का दिन भी।
मुझे रुक जाने दो आज, 
जीभर के सांस तो लेने दो,
थोड़ी देर तो और सो लेने दो मेरी जान!



बुधवार, 2 नवंबर 2011

बड़ा रे कठिन कइलू छठी के बरतिया...

छत पर खड़े होते तो सामने कांके डैम दिखता। दूर खेतों के पार, दो छोटी पहाड़ियों से लगकर खड़ा, शांत और स्थिर। पानी के किनारे भी नज़र आते, किनारों पर पसरे खेत भी। कहीं-कहीं खेतों के बीच से निकलती हुई पगडंडियां दूर घने मोहल्ले में जाकर गुम हो जाया करतीं। मैं अक्सर उन पगडंडियों-सा होने की ख्वाहिश करती - जिसका एक सिरा वीराना हो और दूसरा घनी बस्ती।

हमें उस डैम तक अकेले जाने की इजाज़त ना थी। अकेले तो क्या, दो-चार लोगों के साथ भी नहीं। घर से महज़ दो किलोमीटर नीचे चलते चले जाते तो डैम के किनारे ठंडी हवा और ढेर सारी जगह का आनंद लिया जा सकता था। लेकिन ऐसा ख़्याल भी वर्जित था। सभ्य लोगों के मोहल्ले खत्म होते ही डैम के पहले खेतों के आर-पार आदिवासी बस्ती थी जहां से हंड़िया की तीखी गंध सालों भर आती। उस बस्ती से काम करने के लिए महिलाएं या लड़कियां ही निकलतीं। मर्द या तो दिनभर मुर्गे लड़ाते नज़र आते या बरगद की ज़ड़ों पर बैठकर ताश के पत्ते बांटते। जो दो-चार आदमी काम पर जाते भी,  वे रिक्शा चलाते और दिहाड़ी मजदूरी करते। हां, शाम को हंड़िया पीने के वक्त स्त्री-पुरुष का भेद ना रहता और उस बस्ती की यही बात मुझे सबसे अच्छी लगती थी।

साल में दो दिन ही हमें इस बस्ती से होकर गुज़रने की आज़ादी थी। छठ के उन दो दिनों में घाट की ओर जाते हर  गली, हर पगडंडी में छठी मैया का वास माना जाता और तब रास्तों का भेद भी ख़त्म हो जाया करता। हंड़िया की गंध हालांकि उन दो दिनों में भी खूब आती थी, इतनी ही कि बस्ती से गुज़रते हुए छठव्रती ना चाहते हुए भी नाक पर हाथ रख दिया करते। ये बात और थी कि इस बस्ती की महिलाओं के बगैर किसी के चौके-चूल्हे क्या साफ होते, पूजाघर में झाड़ू-पोंछा कैसे होता और यहां के आदमियों के रिक्शे ना होते तो अर्घ्य के लिए सूप, दौरा, केतारी, नारियल और धूप-अगरबत्ती जैसी पूजन सामग्री दरवाज़े पर कैसे उतरती।

दोपहर होते-होते कांके डैम के चारों ओर पूरा रातू रोड जमा हो जाता। मन दूसरे किनारे पर लगा रहता और किनारों के बीच बहता पानी आग का दरिया लगता। इश्क जाने कैसे-कैसे रंग दिखाता है! इस सारी आपाधापी और कोलाहल में किसी की नज़र आप पर हो ना हो, दुपट्टे का रंग सतरंगी ही होता, कानों में कभी मछलियां, कभी तितलियां लटकतीं और कुर्ते का रंग हमेशा उस कार्डिगन से मैच करता जो पहली सर्दी के लिए निकला था पहली बार। खुद पर अंशभर भी अधिक प्यार आया हो तो माथे पर भी वही रंग चिपक जाता।

छठब्रतियों की नज़र अस्ताचल की ओर रत्ती-रत्ती खिसकते सूरज की हरकत पर होती तो बाकी पटाखे चलाने, एक-दूसरे को छेड़ने और किनारे पर गप्पें हांकने में लगे रहते। घाट पर कई सालों तक बहुओं को आने की इजाज़त ना थी। उनका काम घर में व्रतियों के लिए अगले दिन का भोजन तैयार करना, ठेकुए ठोकना और तलना होता। बाद में ये परंपरा भी बदली और बहुओं को सोलह श्रृंगार से साथ घाट पर लाया जाने लगा, जैसे किसी नुमाईश के लिए निकाला जा रहा हो। छठ के हैंगओवर में कई दिनों तक घाट पर आई बहुओं के रूप-रंग-गुण-अवगुण पर मोहल्ले की महिलाएं नुक्ताचीं के लिए भी बैठा करतीं।

सूरज के डूबने से पहले कादो-मिट्टी के किनारे से होते हुए फिसलते-गिरते पानी में उतर जाने की होड़ लग जाया करती। तब संतुलन बनाए रखने के लिए किसी अनजान का हाथ थामना भी वर्जित ना होता। पानी में अर्घ्य देने के लिए उतरी मां-चाचियों-काकियों-दादियों को छू लेने पर से छठी मैया का आशीर्वाद अपने लिए बुक हो जाया करता। उनके 36 घंटों के कठिन उपवास से हम इतने भी लाभान्वित हो जाएं, क्या कम था!

असल मशक्कत तो सुबह के अर्घ्य के लिए उठने में होती। रजाई छोड़ सुबह तीन बजे उठकर तैयार हो जाने का ख्याल भी उस वक्त से एक सज़ा से कम नहीं लगता। लेकिन यहां किसी उम्र के किसी शख्स को कोई छूट ना मिलनी थी।

......

"हलो पापा?" फोन पर इतना कहकर चुप हो गई हूं। पीछे से आती हुई आवाज़ में गीत के बोलों को पकड़ने की कोशिश में पापा क्या कह रहे हैं, ये सुना नहीं। दो-चार इधर-उधर की बातें करने के बाद फोन भी रख दिया है। जहां हूं, वहां से एक किलोमीटर की दूरी पर सनातन मंदिर में छठव्रती अर्घ्य देने के लिए छोटे-छोटे हौदों में उतरे होंगे, कालिंदी कुंज में यमुना के दोनों किनारों पर भी शायद सज गए होंगे घाट। थोड़ी और कोशिश करूं तो दिल्ली में मौजूद रिश्तेदारों के यहां उनकी छतों पर बैठकर बच्चों को छठ की पूजा भी दिखाई जा सकती है। ये भी ना हो तो टीवी पर अर्घ्य लाइव देखा जा सकता है। लेकिन कई बार स्मृतियां ऐसे घने कोहरे-सी साथ चलती हैं कि आगे कुछ दिखता नहीं, वक्त के साथ दो कदम चलते हुए नई स्मृतियां बनाने की भी इच्छा नहीं होती।

आज तीन बजे से जगी हुई हूं और कांके डैम के किनारे की वो पगडंडियां याद आ रही हैं जिनके एक सिरे पर वीराना होता, दूसरे पर घनी बस्ती। सुना है कि पगडंडियां रही नहीं और खेत घनी बस्तियों में तब्दील हो गए हैं।     दादी ने अभी-अभी कहा है फोन पर, अब हम बूढ़ हो गईल बानी...