बुधवार, 7 दिसंबर 2011

ऐसी भी बातें होती हैं

वो एक ऐसी ही सुबह थी - धुंध से भरी, ठंडी और तीखी हवाओं वाली। सुबह-सुबह तुम्हारे फोन ने जगाया था, दस मिनट में गेट पर मिलने की बात मैंने सुन भी ली और उन कीमती दस मिनटों को नींद के हवाले भी कर दिया था। याद नहीं कि तुम दस मिनट में पहुंचे थे या एक घंटे में, लेकिन मुझे फिर फोन की घंटी ने ही उठाया था। 'नीचे आओ, हम घर ढूंढेंगे और चाय पिएंगे।' मैं अभी भी मंगेतर थी, तुम्हारी म्यूज़, इसलिए तुम्हें इंतज़ार करवाती तो भी तुम्हें नाराज़ होने का हक़ नहीं था।

ट्रैक्स और सफेद जॉगिंग शूज़ में मैं नीचे थी, दिसंबर की सर्दी और छुट्टी के दिन रजाई छोड़ देने की मजबूरी को जीभर कर कोसते हुए। हम गली के किसी मोड़ पर चायवाले के सामने रुककर चाय पीते, और मुझे भी मना करने का हक़ ना होता। तब भी जब मैं चाय पीती नहीं थी, खाली पेट तो बिल्कुल नहीं और पैन में काली पत्तियों के साथ खौलती काली चाय को देखकर मुझे आमतौर पर उबकाई ही आती थी। लेकिन चाय के कड़वे स्वाद की कल्पना करते हुए मैंने ग्लास अपने हाथ में ले लिया था, कुछ ठंडी हथेलियों पर रहम करने के लिए, कुछ तुम्हें निराश ना करने के डर से। फिर धूप चढ़ जाने तक हम घर की लोकेशन ढूंढते रहे थे - बहुमंज़िली इमारतों और तंग गलियों से होकर गुज़रते हुए एक घर बनाने की ख्वाहिश में हमने एक और छुट्टी निकाल दी थी। हमारी शादी में अब डेढ़ महीने बाकी थे।

घर अब छह साल पुराना हो गया है, शादी की साढ़े साती भी जल्द ही उतर जाएगी। इस घर की दीवारों पर हमारे बच्चों ने अपनी इतनी निशानियां रख छोड़ी हैं कि दीवारों पर नए रंग करवाने का जी नहीं चाहता। चाय मैं अब भी नहीं पीती, खाली पेट तो बिल्कुल नहीं और तुम अभी भी किसी नई तलाश में हो।

फेसबुक पर आधी रात को अचानक तुम्हारे नाम का मेसेज आता है। 'कैसी हो?' मैं हैरान होकर अपनी स्क्रिन देखती हूं। तुमने तो अपनी तस्वीर भी नहीं लगाई।

'पतिदेव, इज़ दैट रियली यू?'

मेरे सवाल के जवाब में तुमने लिखा है, 'पहली बार और शायद आखिरी बार। फेसबुक चैट पर इस तरह। इतनी रात गए क्या कर रही हो?'

'डिप्रेशन पर पढ़ रही हूं और लिखने जा रही हूं, इस उम्मीद में कि इससे बेहतर महसूस कर सकूंगी।'

'डिप्रेशन स्टेट ऑफ माइंड है। हम सब इससे गुज़रते हैं। And the strong woman that you are, the word will not stay with you for long.'

स्ट्रॉन्ग वूमैन - ये तमगा जाने कब हासिल कर लिया। इस वक्त मैं तुम्हें बताना चाहती हूं कि मैं बिल्कुल स्ट्रॉन्ग नहीं। किसी के कंधे पर रो लेने का एक कमज़ोर लम्हा सबसे बड़ा तोहफा होगा मेरे लिए। मैं बिल्कुल स्ट्रॉन्ग नहीं। रात को अंधेरे में मेरी भी सांसें उखड़ती हैं, अकेले कमरे से बाहर निकलने में डर लगता है और बच्चों के सो जाने के बाद हिचकियां ले-लेकर रो लेने के बाद पानी पीने की इच्छा भी होती है तो किचन तक जाने के लिए आदित को गोद में उठाकर बाहर निकलती हूं।

तुम्हें निराश ना करने का डर अब भी कायम है। तब काली चाय की शिकायत नहीं करती थी, अब अकेले होने की नहीं करती।

लेकिन सच तो ये है अकेले इस तरह बच्चों को बड़ा नहीं करना चाहती। मेरे पैरों के नीचे की ज़मीन अक्सर धोखे देती नज़र आती है। मैं सोशल गैदरिंग्स में नहीं जाना चाहती क्योंकि तुम साथ नहीं। मैं हमउम्र मांओं और अपने बच्चों के हमउम्र दोस्तों की वो सेटिंग्स खोजती हूं जहां कोई पापा के शाम को ना आने को लेकर हैरानी ना जताता हो। मुझे बैंक जाने से नफरत है, इंटरनेट बैंकिंग तो मुझे बिल्कुल समझ नहीं आती। मैं डॉक्टर के पास अकेले नहीं जाना चाहती, पीटीएम में टीचर ने तुम्हारे बारे में पूछना छोड़ दिया है और दो बच्चों को संभालते हुए मॉल में गाड़ी पार्क करते हुए मुझे तुम्हारी बहुत याद आती है। मैं तुम्हारी टिकट पर किसी और को सफ़र करते देखते हुए, एयरपोर्ट और स्टेशनों पर अपने सूटकेस और ट्रॉलियां अकेले खींचते हुए भी थक चुकी हूं।

घर तो हम साथ ढूंढने निकले थे ना? फिर इस घर को घर बनाए रखने का दारोमदार मेरे तन्हां कंधों पर कब और कैसे आ गया?

मुझे शिकायत करने का हक़ नहीं। तुममें शिकायत करने लायक कुछ है ही नहीं। तुम सीरियस टाईप हो, सॉलिड। तुम कभी झूठ नहीं बोलते, किसी को खुश करने के लिए भी नहीं। तुम अपने परिवार से बेइंतहा प्यार करते हो और ये तमाम कुर्बानियां उनकी बेहतरी की ख़ातिर ही है। तुम परंपराएं नहीं तोड़ते, झूठे वादे नहीं करते और जो कहते हो, उसपर कायम रहते हो। तुम्हें मुझपर अटूट भरोसा है और तुम्हें निराश करना मेरे लिए अक्षम्य अपराध हो शायद।

लेकिन स्ट्रॉन्ग तो मैं फिर भी नहीं कहलाना चाहती। मेरी कमज़ोरी माफ़ करो और मुझे कमज़ोर ही बने रहने दो क्योंकि तुम्हारी गैरहाज़िरी में तुमसे प्यार करते-करते मैं और कमज़ोर पड़ने लगी हूं।

तुम्हारी पुरानी गाड़ी में 'अनुपमा' का कैसेट बजा करता था। जाने क्यों सुबह से उसी फिल्म का एक गीत लूप में बजा रही हूं।

15 टिप्‍पणियां:

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

ज़िंदगी के उतार चढाव को कहती अच्छी अभिव्यक्ति

varsha ने कहा…

दो बच्चों को संभालते हुए मॉल में गाड़ी पार्क करते हुए मुझे तुम्हारी बहुत याद आती है। मैं तुम्हारी टिकट पर किसी और को सफ़र करते देखते हुए, एयरपोर्ट और स्टेशनों पर अपने सूटकेस और ट्रॉलियां अकेले खींचते हुए भी थक चुकी हूं। achcha likha hai aapne.

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सहते सहते कहना सीख जाने का हुनर सिखा देती है जिन्दगी।

vandana gupta ने कहा…

कुछ ऐसी भी बातें होती हैं जो कहना चाहकर भी नही कही होती हैं।

Arvind Mishra ने कहा…

निःशब्द हूँ !

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

बहुत अच्छा लिखा है आपने।

सादर

सदा ने कहा…

बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति ।

निवेदिता श्रीवास्तव ने कहा…

बहुत अनकही सी बातों को कह गई आपकी लेखनी .....

Thinking Cramps ने कहा…

Loved this, Anu. Khud ko kamzor mehsoos karte huye bhi strong ho-ke aage badhna - is mein bhi bahut himmat chahiye. Hats off, and all the best. Tum strong ho na ho, tum kaabil ho :)

Puja Upadhyay ने कहा…

बहुत हद तक आइडेंटिफ़ाय कर सकती हूँ इस पोस्ट से...बेहद अच्छा लिखा है आपने।

मेरा मन पंछी सा ने कहा…

gahare bhav or gahare ahsas ko vyakt karati sundar abhivyakti..

मन के - मनके ने कहा…

गहन अभिव्यक्ति के साथ,जीवन-पथ की राहें,शायद सुनसान

विभूति" ने कहा…

गहन बेजोड़ भावाभियक्ति....

Sadhana Vaid ने कहा…

किसी के कंधे पर रो लेने का एक कमज़ोर लम्हा सबसे बड़ा तोहफा होगा मेरे लिए। मैं बिल्कुल स्ट्रॉन्ग नहीं। रात को अंधेरे में मेरी भी सांसें उखड़ती हैं, अकेले कमरे से बाहर निकलने में डर लगता है

बहुत भावपूर्ण कहानी है अनु जी ! एक बहुत स्ट्रौंग साथ ही साथ कमज़ोर लडकी की कहानी जो किसी अपने के सहारे के लिये एक झूठी उम्मीद को जीना भी नहीं चाहती और उससे अपना दामन भी नहीं छुड़ा पाती ! बहुत ही मर्मस्पर्शी कहानी है ! बधाई स्वीकार करें !

शेषधर तिवारी ने कहा…

ज़िंदगी की खोज में खुद खो गयी है ज़िंदगी
एक वीराना बिछाकर ... सो गयी है ज़िंदगी
बस यही है मेरा उद्गार....