शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

डायरी के पुराने पन्नों से

टुकड़े टुकड़ों में ख्याल...



"तुम अपने ख्वाब
बचाकर रखो
कि कल दुनिया
तुम्हारी आँखों में झांके
तो जिंदगी देखे!"



"बहाने और भी होते जो ज़िन्दगी के लिए
हम इक बार भी तेरी आरज़ू न करते"



"कहाँ ढूंढूं मैं,
कि गुम हूँ कई बरसों से/
मुझको ढूँढता फिरता है
अक्स मेरा"




"घेरकर मुझको खड़ी रुस्वाइयां चारों तरफ़/
और मेरे भीतर हैं तनहाइयां चारों तरफ़/
मुझको मैं ही नज़र आती नहीं अब, क्या कहूँ/
दिखती हैं मुझको परछाईंयां चारों तरफ़"




"जाने किस साये की तलाश रही मुझे उम्रभर/
जितना करीब आते गए, दूरियां बढती गयीं"


१९९६ की डायरी से

सोमवार, 20 दिसंबर 2010

बच्चे। हम सबके बच्चे।

पिछले हफ्ते घूमती रही हूं। पहले अहमदाबाद, फिर पुणे, फिर औरंगाबाद होते हुए बुलढ़ाना, फिर नागपुर, और वापस दिल्ली। मकसद था उन बच्चों की ख्वाहिशों को जानना-समझना, जो मेरे अपने नहीं हैं। मेरे अपने नहीं हैं, कुछ तो किसी के भी अपने नहीं हैं शायद। गरीबी, आर्थिक तंगी और कई बार आस-पास का माहौल इन्हें बचपन जीने का मौका नहीं देता, देता भी है तो चंद लम्हों की मोहलत के तौर पर।

मेरा सफ़र अहमदाबाद से शुरू हुआ, जहां मैं एक जनसुनवाई (पब्लिक हियरिंग) देखने गई थी। इस जनसुनवाई की ख़ासियत ये थी कि मुद्दा भी बच्चों से जुड़ा था, वक्ता भी बच्चे थे, श्रोता भी। हां, एक ज्युरी अवश्य उपस्थित थी जिनमें से एक लेखक-पत्रकार थे, एक नामचीन अभिनेत्री, एक अर्थशास्त्री, एक रिटायर्ड पुलिस अधिकारी, और एक चीफ जस्टिस। रंग-बिरंगे होर्डिंग, साफ-सुथरे कपड़ों में उपस्थित 600 बच्चे। इनमें से तीस को सीखा-पढ़ाकर स्टेज पर भेज दिया होगा, मेरे दिमाग में यही ख्याल आया पहले।

अपनी-अपनी कहानियां बच्चों ने गुजराती में सुनानी शुरू की। मैं गुजराती नहीं समझती, लेकिन पहली बार अहसास हुआ कि कुछ भावनाएं भाषा से परे होती हैं। प्रेम की कोई भाषा नहीं तो दुख-तकलीफ की भी कोई भाषा नहीँ। मैं एक-एक बच्चे की कहानी लिखने बैठ जाऊं तो एक महीना लगेगा। लेकिन एक की कहानी सुनाती हूं। नाम-रेहाना मान लीजिए। उम्र-यही कोई ग्यारह-बारह साल। ठीक-ठीक पता नहीं। शिक्षा-चौथी तक पढ़ी। अब स्कूल क्यों नहीं जाती? फिर घर में छोटे भाई-बहनों को कौन देखेगा? काम-सुबह छह बजे से नौ बजे तक सफाई, चौका-चूल्हा। नौ बजे से एक बजे तक अगरबत्ती बनाना। एक से तीन बजे तक खिलाना-पिलाना, चौका-चूल्हा। फिर तीन से नौ बजे तक अगरबत्ती बनाना। नौ से ग्यारह चौका-चूल्हा। किसी ने पूछा-सपना क्या है तुम्हारा? रेहाना ने चिढ़कर कहा-सपना क्या? यही करती हूं, यही करते-करते मर जाऊंगी। कह दूं कि टीचर बनना चाहती हूं तो उससे क्या होगा? उसके साफगोई कानों में शीशे की तरह घुलती रही, कई बच्चे आंखों के कोने पोंछते रहे।

भारत में चौदह साल से कम उम्र के बच्चों से बाल मजदूरी कराना दंडनीय अपराध माना जाता है। हालांकि, ये कानून भी बमुश्किल तीन-चार साल पहले लागू हुआ है। लेकिन इस कानून के घेरे में कई काम नहीं आते। खेतों में काम करना भी उनमें से एक है। कमाल की बात ये है कि सत्तर फीसदी बाल मजदूरी तो दरअसल खेतों में होती है। मुझे ये सारी बातें महाराष्ट्र जाकर पता चलीं। इस वक्त वहां कपास को तोड़ने का काम चल रहा होता है, और यही वो समय है जब बच्चे पूरा-पूरा दिन खेतों में काम कर रहे होते हैं। अपनी नन्हीं-नन्हीं उंगलियां से कपास बीनते समय उनके हाथ लहूलुहान होते हैं, पैरों में छाले पड़ते हैं और धूल-धक्कड़ से फेफड़ों को नुकसान तो पहुंचता ही है। सवाल है कि ये बच्चे काम ना करें तो करें क्या? काम करना क्या बड़ों का "काम" नहीं होता? बच्चों को स्कूल में, गांव की गलियों में, दोस्तों-साथियों के साथ पेड़ों पर धमाचौकड़ी करते हुए अपना बचपन नहीं जीना चाहिए?

ये एक लंबी बहस है, एक लंबी लड़ाई। लेकिन मैं गौतम की कहानी सुनाती हूं आपको। गौतम सात साल का है। आंखें चमकीली, सांवला-सा भोला चेहरा, लेकिन चेहरे पर सबकुछ जानने-समझने की होड़। माथे पर झूल आए भूरे-काले बालों को परे हटाता गौतम भीड़ में अलग-से नज़र आता है। गौतम दलित है, पिता शराबी है, मां नहीं है। स्कूल जाने का तो कोई सवाल ही नहीं था। कभी इस खेत में, कभी उसकी मजदूरी कर गौतम चार पैसे कमाता था। लेकिन गांव के दूसरे बच्चों की पुरज़ोर और लगातार कोशिशों के दम पर गौतम का स्कूल में दाखिला करवाया गया। हर दिन स्कूल छोड़ खेत में भागने का लालच, सताए जाने का ख़तरा। लेकिन दूसरे बच्चे गौतम की हौसला-हफ्जाई करते रहे और गौतम पिछले कुछ महीनों से स्कूल में बना हुआ है। जब हम स्कूल में बाकी बच्चों से बात कर रहे थे तो उन्होंने ही गौतम को ठेलकर हमारे सामने कर दिया।  पांच मिनट के भीतर गौतम हमसे बातें कर रहा था, कविता सुना रहा था, यहां तक कि हमारी मेज़बानी अपने घर पर करने की फरमाईश भी की। हम गौतम के घर गए भी, गौतम ने हमने चाय-नाश्ते के लिए भी पूछा। बातचीत और हंसी-मज़ाक के बाद जब हम बाहर निकलने लगे तो गौतम ने अपना दाहिना हाथ बढ़ाया और गर्मजोशी से हाथ मिलाते हुए कहा - "थैंक्यू!"

गौतम खुशकिस्मत था, उसे दोस्तों का साथ मिला। अपना बचपन वापस मिला। लेकिन एक अनुमान के मुताबिक भारत में दो करोड़ से ज़्यादा बच्चे मजदूरी करते हैं। इनकी कई और कहानियां फिर कभी। फिलहाल यही दुआ करूंगी कि सभी बच्चों को गौतम के दोस्तों जैसे साथी मिलें। बच्चे ही बच्चों को सबसे बड़े शुभचिन्तक होते हैं, ये जुड़वां बच्चों की मां से बेहतर कोई नहीं जानता। अपने साथ-साथ अपने साथियों को बचाए रखना, उनकी ज़रूरतों का ख्याल रखना, उनके अधिकारों को समझना, ये बच्चे ही कर सकते हैं दूसरे बच्चों के लिए। तो हम बड़े क्या करें? अपने बच्चों को उनके अपने ही साथियों के प्रति संवेदनशील बनाएं, उन्हें दूसरे बच्चों के साथ बड़ा होने दें, हमारे घेरे से भीतर उनका अपना सुरक्षित घेरा बने। मुझे तो फिलहाल एक सीख और मिली है। मेरे बच्चे मेरे लिए सबसे कीमती हैं। मेरे बच्चों जैसे बाकी बच्चे भी उतने ही कीमती हैं - हमारे लिए, हमारे समाज, हमारे देश के लिए।

शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

कहना क्यों नहीं सीखा?

चुप रहती हूं,
मन की कोई खलिश
तैरती रहती है
आंखों में पानी बनकर।
वो कहते हैं,
आंखें बोलती हैं
और चेहरा
खोल जाता है राज़।
मेरे अंदर का सब
जब यूं ही
छलक आता है
बार-बार,
तो फिर क्या कहूं मैं?

शिकवों का लफ्ज़ों में
बाहर आना
ज़हर उगलना ही तो है।
शिकवे आंखों से 
बहते हुए ही
कोमल लगते हैं।

बुधवार, 8 दिसंबर 2010

आज का अख़बार

शीतला  घाट पर
फटा है बम।
फिर बनारस पर
गिरे हैं ख़ून के छींटे।
चीख-चीखकर
रोती हैं
अख़बार में
पहले पन्ने की
लहूलुहान तस्वीरें।

फिर किसी नेता ने
खाए हैं रुपए।
उनहत्तर के बाद
लगे शून्य
गिनना भी तो
आता नहीं हमको।
अख़बार कहता है,
हज़ारों करोड़ का
घपला है।

फिर प्रेम की वेदी पर
बलि चढ़ी है
दो नौजवानों की।
फिर कुछ सपनों का
खून हुआ है।
अखबार कहता है,
जाती दुश्मनी थी।
जाति की भी।


फिर क्रिकेट में
बजा है डंका।
लेकिन पिटकर आए  हैं
बाकी खेलों में हम।
आईपीएल के आगे
बीपीएल लगते हैं
बाकी के खेल।
मैं नहीं कहती,
अख़बार में छपा है।

फिर मेरे घर
रोता-धोता आया है
आज का अख़बार।
खून में लिपटी है
हेडलाईन।
फिर कुछ चुगलियां हैं,
कुछ बेमानी-सी टिप्पणियां,
फिर अखबार ने
हमको झुंझलाया है।

बुधवार, 1 दिसंबर 2010

शिकायतें, जो रहती नहीं

तुमने झांककर
कमरे में देखा है
कहा कुछ भी नहीं।
मेरा तपता माथा
तुम्हारी उंगलियों की
छांव ढूंढता है।
मेरी गर्म हथेली पर
क्यों नहीं उतरती
तुम्हारे पसीने की ठंडक?
मैं घूमकर बिस्तर पर से
खिड़की को देखती हूं।
दो हरे पर्दे हैं,
और है नीम की हरियाली।
आंखें तब क्यों
लाल-सी लगती हैं?
क्यों सब
मुरझाया लगता है?
तुम तेज़ चले जाते हो,
मैं भी तो
थमती, रुकती नहीं आजकल।
ये पछुआ हमको
और बहाए जाता है।
कुछ कोमल-सा जो
मन में था,
वो खुश्क बनाए जाता है।
मैं नींद में कुछ
डूबती-उतराती हूं,
आवाज़ों को
कभी पास बुलाती हूं,
कभी दूर भगाती हूं।
इसी खुमारी में मैंने
तुम्हारी सधी आवाज़ सुनी है।
उसमें घुलते सुना है
दो तोतली बोलियों को।
तीनों आवाज़ें अब
खिलखिलाती हैं,
कुछ गीत गाती हैं।
कभी फुसफुसाती हैं।
मेरे मन की रही-सही
शिकायतें
दो ठंडे मोती बनकर
तकिए पर लुढ़क आती हैं।