गुरुवार, 25 मार्च 2010

पहाड़ों पर भी लोग रहते हैं

डोरियो पहुंचना आसान नहीं। इस गांव तक पहुंचने के लिए जसीडीह आना होता है, जो यहां का सबसे करीबी रेलवे स्टेशन है। जसीडीह से गोड्डा की दूरी 80 किलोमीटरहै और डोरियो गोड्डा से भी तकरीबन 60 किलोमीटर दूर है। डोरियो झारखंड की राजमहल पहाड़ियों पर बसा हुआ एक छोटा सा गांव है, जहां से सबसे नज़दीक की पक्की सड़क भी 20 किलोमीटर दूर है।

पहाड़िया नाम की आदिम जनजाति (प्रीमिटिव ट्राइबल ग्रुप) पर एक फिलम बनाने के सिलसिले में मेरा डोरियो जाना हुआ। बिहार-झारखंड में पली-बढ़ी, लेकिन अपने ही राज्य के इस चेहरे से मैं पूरी तरह अनभिज्ञ थी। गांव तक पहुंचने के लिए हमने ९ किलोमीटर का पहाड़ी रास्ता पैदल तय किया। रास्ते में छोटे-छोटे पहाड़ी कस्बे हैं और उन कस्बों की टूटी-फूटी झोंपड़ियां वहां की हक़ीकत बयां करती है। इन गांवों और पहाड़ी बस्तियों तक आधुनिक जीवन की कोई मूलभूत सुविधा नहींपहुंची। अपनी धुन में तेज़ी से भागती हुई दुनिया ने राजमहल के पहाड़ों पर बसे इन पहाड़िया आदिवासियों को अपने विकास की राह में शामिल करना ज़रूरी नहीं समझा। इसलिए यहां ना सड़क पहुंची है ना स्कूल और अस्पताल ही।
झारखंड के संथाल परगना के ज़िलों – गोड्डा, दुमका, पाकुड़, साहिबगंज, देवघर और जामताड़ा में पहाड़िया आदिवासियों की आबादी बसती है। जैसा कि नाम से ज़ाहिरहै, पहाड़िया पहाड़ों पर बसते हैं। झारखंड में करीब दो लाख आदिम जातियों के आदिवासी हैं जिनमें असुर, बिरहोर, बिरजिया, कोरवा, पहाड़िया, साबर और पहाड़ी खड़िया प्रमुख हैं। इन आदिम जातियों में से साठ फ़ीसदी पहाड़िया हैं।

जीने के लिए ये पूरी तरह पहाड़ों और जंगलों पर निर्भर हैं। पानी का इंतज़ाम करने के लिए इन्हें मीलों पथरीले रास्ते पर चलकर झरने तक जाना होता है और तब घर मेंपानी का एक घड़ा आता है। यहां ना बिजली पहुंची है ना टेलीफोन के तार। कई परिवारों के सिर पर तो एक अदद सी छत भी नहीं। बाहर की दुनिया से संपर्क बने रहने केनाम पर कुछ टूटी-फूटी, टेढ़ी-मेढ़ी सड़कें हैं। आज जब पहाड़ छोटे होते जा रहे हैं और जंगल खाली, तो पहाड़िया आबादी और सिमटती जा रही है। सदियों का संघर्ष है किआमतौर पर अमनपसंद पहाड़िया मैदान पर रहनेवाले समुदायों पर जल्दी भरोसा नहीं करते। सालों की गरीबी, अशिक्षा, कर्ज़ और बीमारियों ने इन्हें और कमज़ोर बना दिया है।

अस्सी के दशक में हुए एक अध्ययन के मुताबिक किसी पहाड़िया गांव से पक्की सड़क की औसतन दूरी 11.7 किलोमीटर, सबसे नज़दीकी अस्पताल की दूरी 8.2 किलोमीटर, स्कूल की दूरी 6.9 किलोमीटर और किसी छोटे से बाज़ार की दूरी 2.3 किलोमीटर है। लेकिन इन पहाड़ों में बसे गांवों की एक झलक ही ये साबित करने केलिए काफी है कि तीस साल बाद भी हालात बहुत नहीं बदले। अनुमान है कि एक पहाड़िया परिवार की वार्षिक आय औसतन 5,000 से 6,000 रुपये के बीच होती हैजबकि राष्ट्रीय स्तर पर प्रति व्यक्ति वार्षिक आय 20,734 रुपये और झारखंड में प्रति व्यक्ति वार्षिक आय 14,990 रुपये है।
पहाड़ों पर आजीविका के लिए शायद ही कोई ज़रिया यहां बसनेवालों के लिए उपलब्ध है। पहाड़िया आज भी झूम खेती पर निर्भर हैं। पहाड़ों और पहाड़ों की ढ़लानों परजंगल काटकर पहाडिया लोग लोबिया, मक्का, बाजरा और सरसों जैसी कुछ फसलें उगाते हैं। जिनके पास खेत नहीं, वे पत्ते चुनकर या लकड़ियां बेचकर अपना गुज़ाराकरते हैं। आजीविका का कोई और साधन इन गांवों में मौजूद नहीं है।

लेकिन गांवों में किसी भी पहाड़िया के घर पर चले जाइए, आपका हंसकर ही स्वागत होगा। पहाड़ों से बाहर की दुनिया से इन्हें कोई शिकायत नहीं। ये मलाल नहीं कि शहरों में जहां हर-रोज़ तरक्की के नए सोपान चढ़े जा रहे हैं, वहां उन्हें साथ लेना किसी ने ज़रूरी नहीं समझा। इसलिए भी, कि ये पहाड़िया वोट-बैंक नहीं हैं। इनके पास मतदाता पहचान-पत्र नहीं, अंत्योदय कार्ड, बीपीएल कार्ड आदि का नाम इन्होंने अब सुनना शुरू किया है। इसलिए नहीं कि सरकार इनतक पहुंचने की कोशिश कर रही है। इसलिए क्योंकि कुछ गुमनाम स्वयंसेवी संस्थाएं और लोग बिना शोर-शराबा किए इनके गांवों तक पहुंचकर इनकी ज़िन्दगी को बेहतर बनाने की दिशा में प्रयासरत हैं।

मैं फिल्म की शूटिंग के दौरान एक परिवार से बातचीत के लिए उनके आंगन में जाकर खड़ी हुई। घर का मुखिया गाय चराने गया था। मां तीन बच्चों के साथ आनेवाले चौथे बच्चे को कोख में लिए घर की छप्पर ठीक करने में लगी थी। घर का आंगन खुलेआम परिवार की माली हालत की सच्चाई सुना रहा था। लेकिन उस पहाड़िया महिला के चेहरे पर परेशानी का कोई भाव नहीं था। घर के भीतर जाकर वो हमारे लिए पानी और मिट्टी के एक कुल्हड़ में मक्के के उबले हुए दाने ले आई। अगले वक्त के भोजन के नाम पर उस परिवार के पास वही मुट्ठी भर दाने थे, लेकिन घर आए मेहमानों के सामने उसे भी परोसने से पहले उस महिला ने दो बार भी नहीं सोचा। इतनी दरियादिली, ऐसी मेहमाननवाज़ी मैंने अपनी पूरी ज़िन्दगी में नहीं देखी।

इस परिवार के बच्चे स्कूल नहीं जाते। मलेरिया दो बच्चों की जान ले चुका है। शहर इतनी दूर है कि किसी का मजदूरी के लिए जाना भी मुमकिन नहीं। किसी तरह लोबिया, मकई और कुछ सब्ज़ियों की खेती कर परिवार का पेट भरते हैं। पीने का पानी दो किलोमीटर दूर एक पहाड़ी झरने से आता है। कोई बीमार पड़ा तो ओझा ही इकलौता सहारा है। वरना तो सबसे नज़दीक का प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र (पीएचसी) भी आठ-दस किलोमीटर दूर है। सुंदर पहाड़ी के तीनों प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र चिकित्सा केन्द्र कम, तबेले ज्यादा लगते हैं। फिर उतनी दूर जाए कौन, और तब जब दवा या डॉक्टर की गारंटी ही ना हो? बारिश में इस इलाके का क्या हाल होता होगा, सोचकर दिल बैठ जाता है।

जिस राज्य में सरकारी खज़ाने के हज़ारों करोड़ रुपये घोटालों के नाम पर स्वाहा हो जाते हैं, वहां मुख्यधारा से अलग-थलग पड़े इन आदिवासियों को कौन पूछे? और ये हाल गोड्डा औऱ दुमका ज़िले का है, जो राज्य के मुख्यमंत्री शिबू सोरेन की कर्मभूमि रही है। 1989 से अब तक दुमका के लोगों ने शिबू सोरेन को पांच बार संसद तक पहुंचाया हैं। लेकिन ये दोनों ज़िले राज्य के सबसे पिछड़े इलाकों में से हैं।

सुंदर पहाड़ी के पहाड़िया आदिवासियों से पूछिए तो उनकी बेचारगी साफ ज़ाहिर होती है। थोड़ी-बहुत उम्मीद की जो किरणें दिखाई देती हैं, वे भी दो-चार एनजीओ के दम पर है। जो आबादी भोजन, पानी, आजीविका, चिकित्सा, शिक्षा, सड़क और स्वच्छता (सैनिटेशन) जैसी मूलभूत ज़रूरतों के लिए जूझ रही हो, उसे जनतंत्र, अधिकारों और कर्तव्यों का क्या पाठ पढ़ाया जाए? हाशिए पर जी रहे ऐसे कई समुदायों के लिए मुख्यधारा से जोड़ने के लिए सालों के अथक परिश्रम की ज़रूरत पड़ेगी। लेकिन जनतंत्र की इस दबी-कुचली आवाज़ को ऊपर तक पहुंचाएगा कौन? और अगर आवाज़ पहुंचा भी दी जाए तो क्या ऊपर बैठे लोग इतने संवेदनशील हैं कि इन आदिवासियों का दर्द समझ सकें?

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सोमवार, 22 मार्च 2010

अमीर छात्रों के लिए काम कर रहे हैं अमीर कपिल सिब्बल

सरकार ने भारत में विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए दरवाज़े खोल दिए हैं। हर सिक्के के दो पहलुओं की तरह इस फैसले के भी दोनों पहलू समझ में आ रहे हैं। इसमें कोई शक नहीं कि इससे शिक्षा के क्षेत्र में नए विकल्प खुलेंगे, शिक्षा की गुणवत्ता शायद बेहतर होगी और हो सकता है, देशी-विदेशी विश्वविद्यालयों की इस प्रतिस्पर्द्धा का फायदा उन शिक्षकों को भी मिले जो सालों से कम वेतन का रोना रो रहे हैं।

लेकिन ये तो तय है कि भारत में कैंपस स्थापित करने का सबसे बड़ा फायदा विदेशी विश्वविद्यालयों को ही मिलेगा। शिक्षा के क्षेत्र में भी भारत दुनिया के सबसे बड़े बाज़ारों में से है। भारत से हर साल तकरीबन 1.20 लाख छात्र उच्च शिक्षा के लिए विदेशों का रूख करते हैं, जिसमें से अधिकांश छात्रों की मंज़िल अमेरिका होती है। मानव संसाधन मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक विदेशी संस्थानों में पढ़ने के लिए छात्र और अभिभावक सालाना 4 बिलियन डॉलर (तकरीबन 180.2 अरब रुपये) खर्च करते हैं। हैरानी नहीं कि अटलांटा की जॉर्जिया टेक यूनिवर्सिटी ने 2008 में ही भारत में कैंपस खोलने के लिए हैदराबाद में 250 एकड़ ज़मीन खरीद ली थी।

वैसे तो सरकार ने ये शर्त रखी है कि पचास करोड़ की रजिस्ट्रेशन फीस के साथ-साथ संस्थानों को भारत के कैंपस से होने वाला मुनाफा देश से बाहर ले जाने की इजाज़त नहीं होगी। लेकिन इस फ़ैसले का सबसे बड़ा नुकसान होगा बढ़ती हुई फीस। जब ये संस्थान अंतरराष्ट्रीय स्तर की शिक्षा देने का दावा कर रहे हैं, तो ज़ाहिर है, फीस भी अंतरराष्ट्रीय स्तर का ही लेंगे। पहले भी देश में तकरीबन 150 विदेशी शिक्षण संस्थान भारतीय संस्थानों के साथ करार कर कई तरह के कोर्स चला रहे हैं।

एक नज़र डालते हैं ऐसे कुछ कोर्स और उनकी फीस पर। अमेरिका के बाबसन कॉलेज के सहयोग से पर्ल बिजनेस स्कूल में दो साल के एमबीए के लिए आपको 7.5 लाख रुपये (सिक्योरिटी के 30 हज़ार रुपये को मिलाकर) देने होते हैं। इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी एंड मैनेजमेंट (पार्टनर – यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन) की चार साल के बी.टेक. की ट्यूशन फीस करीब सवा छह लाख रुपये है, जबकि दो साल के मैनेजमेंट के लिए 5.8 लाख रुपये फीस है। राष्ट्रीय शैक्षिक योजना एवं प्रशासन विद्यालय (नीपा) की वेबसाईट पर तमाम ऐसे संस्थानों की सूची मौजूद है जो विदेशी विश्वविद्यालयों के साथ मिलकर उच्च शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों में डिग्रियां उपलब्ध करा रहे हैं।

एक बार विदेशी विश्वविद्यालयों ने अपने कैंपस देश में खोले तो साफ तौर पर ऐसे भारतीय संस्थानों की मांग घटेगी जो विदेशी डिग्रियां उपलब्ध करा रहे हैं। लेकिन ये भी सच है कि उच्च शिक्षा की ऐसी सुविधाएं उन्हीं छात्रों को मिल सकेंगी जिनकी जेबों में डॉलर या यूरो होंगे। छात्रों, शिक्षकों और विपक्षी पार्टियों की तरफ से सरकार के इस फैसले पर क्या प्रतिक्रिया आती है, ये देखना अभी बाकी है।

लेकिन हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि जिस देश की 60 फीसदी जनसंख्या की उम्र 25 साल से कम हो, वहां देश की तरक्की के लिए उच्च शिक्षण संस्थानों की सख्त जरूरत है। आंकड़े बताते हैं कि हमारे देश में सिर्फ 7 फीसदी छात्रों के लिए ही हाई स्कूल के बाद शिक्षण सुविधाएं उपलब्ध हैं। सरकारी शिक्षण संस्थानों की हालत कैसी है, इससे हम सब वाकिफ हैं। भारत में कैंपस स्थापित करने का मन बना रहे विदेशी विश्वविद्यालयों ने अपनी फैकल्टी को वहां की तन्खवाह पर भारत आने का निमंत्रण देना शुरू भी कर दिया है। यानि पहले से ही लचर स्थिति से जूझ रहे भारतीय शिक्षण संस्थानों के लिए प्रतियोगिता और कड़ी होने जा रही है। विदेशी विश्वविद्यालयों की नजर आईआईटी और आईआईएम जैसे बड़े संस्थानों की फैकल्टी पर है। उनके पास निवेश के लिए पूंजी होगी और जाहिर है, संस्थानों का मूलभूत ढांचा भी अंतरराष्ट्रीय स्तर का बनाने की कोशिश होगी। हो सकता है इस प्रतियोगिता से से भारतीय विश्वविद्यालयों की नींद खुले और शिक्षा की गुणवत्ता का स्तर बढ़ाने की ओर कुछ कदम भी उठाए जाएं।
लेकिन फिलहाल ये विचार दूर के ढोल लगते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस फैसले का फायदा उन्हीं छात्रों को मिलनेवाला है जो पहले भी विदेश जाकर पढ़ाई पूरी करने में आर्थिक रूप से सक्षम हैं। हां, यूजीसी के नियंत्रण में अगर विश्वविद्यालय छात्रों के लिए स्कॉलरशिप की व्यवस्था करें और नए क्षेत्रों में (जैसे बायोटेक्नॉलोजी, ऑटोमोबिल इंजीनियरिंग, स्पेस टेक्नॉलोजी, इन्वेस्टमेंट बैंकिंग, फिल्ममेकिंग) उच्च शिक्षा के अवसर प्रदान करें तो सरकार का ये फैसला वाकई मील का पत्थर साबित होगा।

वैसे बहस यहीं खत्म नहीं हो जाती। ये भी उतना ही ज़रूरी है कि हम उच्च शिक्षा के क्षेत्र में मांग और आपूर्ति के अंतर को अपनी ओर से पाटने की व्यवस्था करें। मानव संसाधन मंत्री कपिल सिबल के मुताबिक 2020 तक भारत को एक महाशक्ति के रूप में दुनिया के सामने पेश करना है तो उसके लिए 27 हज़ार नए उच्च शिक्षण संस्थानों को खोलने की आवश्यकता है। इसमें 269 विश्वविद्यालय और 14 हजा़र कॉलेज शामिल हैं। सच तो ये है चंद विदेशी विश्वविद्यालयों के कैंपस इस ख्वाब को पूरा करने के लिए नाकाफी हैं। मेहनत हमें करनी होगी। बदलाव हमें लाना होगा, ताकि हर कस्बे, हर शहर को एक अदद हाई स्कूल और कॉलेज मुहैया कराया जा सके।

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बुधवार, 17 मार्च 2010

हमें आरक्षण मत दो, मर्दवादी व्यवस्था की क़ैद से मुक्त करो

पिछले दिनों महिला आरक्षण बिल के राज्यसभा में पास हो जाने की खबर ने सबसे ज़्यादा सुर्खियां बटोरीं। इन दिनों समाज में जेन्डर इक्वेलिटी पर नई बहस छिड़ी है। लेकिन इस राजनीतिक बहस के बीच मेरा ध्यान दो छोटी-छोटी खबरों ने ज्यादा आकर्षित किया। 13 मार्च (शनिवार) को पहले पन्ने की खबर बनी, थल और वायुसेना में महिलाओं को स्थायी कमीशन मिलना। दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश के मुताबिक ना सिर्फ महिलाएं पांच सालों के बाद अपने पुरुष सहयोगियों की तरह स्थायी कमीशन की हकदार होंगी, बल्कि उन्हें पेंशन जैसी सुविधाएं भी मिल सकेंगी। सेना में पेंशन और बाकी सुविधाओं के लिए 20 साल की नौकरी जरूरी होती है। मौजूदा नियमों के तहत महिलाओं को सिर्फ 14 सालों के लिए सेना में रखा जाता था।

दूसरी छोटी-सी खबर मैंने टाइम्स ऑफ इंडिया के एक सप्लीमेंट पन्ने पर आज देखी। एशिया के 77 इंजीनियरिंग कॉलेजों के छात्रों के बीच कार-रेसिंग के लिए सिंगल सीटर कार का प्रोटोटाईप तैयार करने के लिए एक प्रतियोगिता का आयोजन किया गया। आमतौर पर ऑटोमोबिल इंजीनियरिंग या इस क्षेत्र से जुड़ी तमाम तकनीकियों में लड़कों को ही माहिर समझा जाता है। लेकिन इतनी बड़ी (और दिलचस्प) प्रतियोगिता लड़कियों की एक टीम ने जीती। इस प्रतियोगिता में भारत ही नहीं, एशिया के तमाम बड़े इंजीनियरिंग कॉलेजों (आईआईटी समेत) के छात्रों ने हिस्सा लिया था। यहां तक कि कार की डिज़ाईन तैयार करने के बाद उसे टेस्ट ड्राईव पर ले जाने के लिए भी एक लड़की ही निकली थी।

आखिर इन दो खबरों की यहां चर्चा का क्या औचित्य है? ये दोनों खबरें समाज के उस तबके की है जो जेन्डर को लेकर बिना किसी बहस में पड़े चुपचाप अपना रास्ता तलाशने में यकीन करता है। 33 फीसदी आरक्षण से जिसका कोई लेना-देना नहीं।

एक और रिपोर्ट मैंने अखबारों में ही पढ़ी। अमेरिका के वर्कफोर्स का 52 फीसदी हिस्सा अगर महिलाएं हैं तो स्पेन में 48 फीसदी, कनाडा में 46 फीसदी और फिनलैंड में 44 फीसदी महिलाएं कामकाजी लोगों में शुमार हैं। भारत में सिर्फ 23 फीसदी महिलाएं ही काम पर जाती हैं। मुझे इन आंकड़ों को देखकर कोई हैरानी नहीं हुई। हम ऐसे समाज का हिस्सा हैं जहां बचपन से ही लड़कियों को मां, बहू या बेटी के तौर पर उनकी ज़िम्मेदारियों का अहसास कराया जाता है। जहां बताया जाता है कि पहले परिवार का दारोमदार तुमपर है, फिर कुछ और। चाहे करियर को लेकर आपने कितनी भी संजीदगी से मेहनत क्यों ना की हो। ये सब जानते-समझते हुए भी, ऐसे हालात से लड़ते हुए भी दो पुरुषप्रधान क्षेत्रों में महिलाओं ने अपनी छोटी-सी जीत बिना किसी आरक्षण के ही तो दर्ज की है।

मैं लालू-मुलायम जैसे नेताओं की तरह महिला आरक्षण विधेयक का विरोध नहीं कर रही। सिर्फ इतना कह रही हूं कि मुट्ठीभर ताकतवर महिलाओं के साथ-साथ बाकी की साठ करोड़ महिलाओं का भी तो सोचिए। ये भी तो सोचिए कि संगठित और असंगठित, दोनों क्षेत्रों में कैसे महिलाओं को प्रोत्साहन दिया जाए कि अपनी तमाम ज़िम्मेदारियों को निभाते हुए भी आत्मनिर्भर और सक्षम बन सकें।

यहां आरक्षण किसे चाहिए? हमें काम के लिए लचीले समय-सारणी की व्यवस्था चाहिए। कुछ ऐसी नीति चाहिए जो मां बनने के बाद काम छोड़नेवाली महिलाओं के वापस अपने काम पर लौटने को आसान बना सके। हमें संगठित ही नहीं, असंगठित क्षेत्रों में काम करनेवाली महिलाओं के बच्चों की देखभाल के लिए अच्छे क्रेश की व्यवस्था चाहिए, चाहे वो आंगनबाड़ी के स्तर पर हो या कॉरपोरेट के स्तर पर। महिला सशक्तिकरण के लिए बहस या भाषणबाज़ी से ज़्यादा कारगर ऐसे छोटे-छोटे सामाजिक बदलाव होंगे। फिर महिलाएं सेना में भी अपना परचम लहराएंगी, संसद में भी। वो भी बिना आरक्षण के।

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सोमवार, 15 मार्च 2010

आजी की बरसी

अंग्रेज़ी के दो बड़े अख़बारों में बरसी का निमंत्रण छपवा दिया गया था। पहले ही पन्ने पर - तीन कॉलम का। इतना ही बड़ा कि सफेद पल्लू माथे पर डाले आजी की गंभीर-सी दिखने की कोशिश में दबी मुस्कान को नज़रअंदाज़ करना मुश्किल था। पूर्णेश्वरी देवी, ये नाम था आजी का। शाश्वती को तो आज पता चला था। आजी उम्र के उस मोड़ पर थीं जहां उन्हें नाम लेकर बुलाने वाला कोई बाकी नहीं था इस दुनिया में। शाश्वती ने उन्हें या तो अम्मा के नाम से जाना या फिर आजी के नाम से। हां, गांव में सब उन्हें ज़रूर बड़की मालकिन कहकर बुलाते थे।

शाश्वती स्कूल ले आई थी वो अख़बार। अपने दोस्तों को दिखाते हुए बोली, ''आजी हैं मेरी, माई ग्रैंडमदर। शी पास्ड अवे ऑन टेन्थ ऑफ मार्च लास्ट इयर। हम बड़ी धूमधाम से इस साल गांव में उनकी बरसी मना रहे हैं। मेरे सभी कज़िन्स आ रहे हैं विदेश से। इट इज़ गोइंग टू बी ए ग्रैंड अफेयर यू सी। पापा तो कहते हैं, चीफ मिनिस्टर भी आएंगे।''

और आते भी क्यों ना। पापा सीएम के निजी फिज़िशियन थे और रूलिंग पार्टी के सबसे बड़े पेट्रन्स में से एक। ममा को तो अगले चुनाव में टिकट दिलवाने की भी बात थी।

वैसे आजी अपने पीछे एक भरा-पूरा, संपन्न और प्रतिष्ठित परिवार छोड़ गई थी। दो बेटियां, जिनमें एक लंदन में थी और एक न्यूयॉर्क में। नाती-नतनी में कोई डॉक्टर था तो कोई इन्वेस्टमेंट बैंकर। दोनों दामाद भी बड़े मशहूर डॉक्टर थे। ये बात और थी कि पिछले पंद्रह सालों में आजी से मिलने कोई नहीं आया था। बेटियां मां का हाल जानने के लिए भाइयों को ही फोन कर लिया करती थीं कभी-कभी।

दो बेटे भी थे आजी के। शाश्वती के पापा से बड़े डॉ महेन्द्र प्रसाद शाही - लखनऊ में सिविल सर्जन थे। उनका एक बेटा अमेरिका के केलॉग्स बिज़नेस स्कूल में था तो दूसरा रोड्स स्कॉलरशिप पर ऑक्सफोर्ड चला गया था। आजी से तो ख़ैर बड़े पापा भी शायद ही कभी मिल पाते थे। साल-दो साल में एक बार गांव चले आया करते। लखनऊ से सीवान आना भी तो आसान नहीं था। ऊपर से गांव तो और बत्तीस किलोमीटर दूर। सड़कें ऐसीं कि बड़ी ममा का डिस्क जवाब देने लगता। फिर ममा और बड़ी ममा ने आपस में ही तय कर लिया कि साल में एक-एक बार बारी-बारी से आजी को देखने आ जाया करेंगी। इतना वक्त तो था नहीं कि गांव आकर आजी के पास महीने-दो महीने रह लेती दोनों। ममा को पार्टी के काम से छुट्टी नहीं मिलती थी और बड़ी ममा को अपनी किट्टी पार्टियों और सोशल फंक्शन्स से। फिर विदेश भी तो जाना होता था परिवार के बाकी लोगों से मिलने के लिए। और आजी थीं कि अपना गांव और अपने खेत छोड़ने को कतई तैयार नहीं थीं।

एक दिन बड़ी बुआ ने फोन पर ममा से आजी के बारे में पूछा। ममा का जवाब शाश्वती को बहुत पसंद आया था। ''नो न्यूज़ इज़ गुड न्यूज़ जीजी। आप बेवजह इतनी फ़िक्र करती हैं अम्मा की। जब हफ्तों तक कोई ख़बर ना मिले तो समझ लीजिएगा सब ठीक ही होगा। खु़दा ना ख़ास्ता कुछ हो गया तो वक्त रहते ख़बर कर देंगे हम आपको।''

लेकिन आजी ने किसी को कोई वक्त नहीं दिया था। अपने नौकरों के साथ खेती-बाड़ी संभालते, कटनी-दौनी कराते एक रात छियासी साल की आजी चुपचाप इस दुनिया से चली गईं, किसी से बिना कुछ कहे-सुने, बिना किसी शिकायत के।

बड़े पापा किसी सेमिनार में हिस्सा लेने के लिए कैनबेरा गए थे। बड़ी बुआ और फूफाजी एथेन्स में थे, लंबी छुट्टियों के लिए। छोटे फूफाजी की ओपन हार्ट सर्जरी हुई थी और छोटी बुआ उन्हीं के साथ अस्पताल में थीं। संयोग से पापा पटना में ही थे। आजी के मुंशीजी सुबह चार बजे ही घर पहुंच गए। आजी के मरने की ख़बर पर पापा की प्रतिक्रिया भी बेहद सधी हुई रही। कहीं कोई रूदन-क्रंदन नहीं, रोना-कलपना नहीं। बड़े व्यावहारिक ढंग से पापा ने अपनी फोनवाली डायरी निकालकर सबको ख़बर देना शुरू कर दिया। फोन पर बात करते हुए उनकी आवाज़ में भी संयम था। ममा ने ज़रूर चार आंसू बहाए - ये कहते हुए कि कैसे अम्मा उन्हें बिना सेवा का मौका दिए चली गईं। बीच-बीच में वे गांव से आनेवाले गेहूं और चावल के बोरों और सरसों तेल के कनस्तरों की चर्चा भी करती थीं जो आजी मौसम-दर-मौसम पटना भेज दिया करती थीं। ममा को तो इसकी फिक्र थी कि अब पुश्तैनी मकान और खेतों की रखवाली कौन करेगा।

बहरहाल, सात बजते-बजते पापा के सभी करीबी दोस्त घर आ गए थे। पापा सक्सेना अंकल और सामनेवाले डॉ. लाल को लेकर अपनी इनोवा में गांव चले गए। ममा और शाश्वती घर पर ही रुक गए। अंत्येष्टि गांव में ही हुई और पापा देर रात घर भी लौट आए। आर्यसमाजी तरीके से बाकी सब क्रिया-कर्म करने का फ़ैसला लिया गया। पापा का तर्क था कि घर के बाकी सदस्यों के बगैर श्राद्ध का कोई औचित्य नहीं बनता। ममा भी मान गईं। अगले सोमवार को उन्हें पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के लिए जयपुर जाना था और वो हर हाल में बैठक में मौजूद रहना चाहती थीं।

जिस आजी को शाश्वती ने जीते जी मुश्किल से देखा, उस आजी को अब वह हर सुबह ड्राइंग रूम में मुस्कुराते देखा करती। उनकी तस्वीर पर चंदन की बड़ी-सी माला टांग दी गई थी और पापा सुबह-सुबह वहां अगरबत्ती जलाना नहीं भूलते।

बड़े पापा तीन हफ्ते बाद लखनऊ लौटे तो पापा से फोन पर कहा, ''श्राद्ध तो हम कर नहीं पाए ठीक से अम्मा का। एक काम करो वीरेन्द्र। बरसी करेंगे हम धूमधाम से अगले साल। गांव ही चलेंगे सब लोग। दोनों जीजी और बाकी बच्चों को अभी से ख़बर कर देते हैं। इट विल बी ए नाइस गेट टूगेदर। व्हॉट डू यू से?''

पापा तुरंत राज़ी हो गए। आजी की पहली पुण्यतिथि की तैयारी के लिए पूरे बारह महीने का वक्त था। ममा ने तो अपनी एक डायरी भी तैयार कर ली जिसमें मेहमानों के नाम नोट किए जाने लगे। बरसी क्या होती है, ये शाश्वती की समझ से बाहर था। बल्कि कभी-कभी तो उसे लगता कि ये बात ममा-पापा की समझ के बाहर थी। उन सबको उस भव्य आयोजन की फिक्र थी जिसकी बदौलत उन्हें गांव-समाज में अपनी प्रतिष्ठा मज़बूत करने का मौका मिलता। बड़े पापा और बड़ी ममा बरसी के एक हफ्ते पहले ही गांव पहुंच गए थे। उससे पहले ममा-पापा ने जाकर घर के रंग-रोगन का काम पूरा करवा दिया। कोई पांच सौ ख़ासमख़ास मेहमान आनेवाले थे बरसी में।

दोनों बुआ, फूफाजी और बाकी सारे बच्चे दो दिन पहले दिल्ली आए थे। बड़े पापा और बड़ी ममा गए थे सबको लेने के लिए। वैशाली एक्सप्रेस के सेकेन्ड एसी के आधे डिब्बे में भरकर शाही परिवार सीवान पहुंचा। सीवान के स्टेशन पर लोग घूम-घूमकर इस अनोखे परिवार को देखते रहे। गांव की सीमा पर से ही सड़क के दोनों ओर खड़े होकर लोगों ने चार गाड़ियों में लदकर आए लोगों का हाथ हिला-हिलाकर स्वागत किया। बड़े पापा गदगद थे और दोनों बुआ की आंखों के कोनों पर आंसू टंगे हुए थे। शाश्वती को तो गांव का कुछ भी याद नहीं था, लेकिन बाकी भाई-बहन अपने बचपन के कई किस्से कहते-सुनते हंसते-हंसते लोट-पोट हुए जा रहे थे।

पुण्यतिथि की एक रात पहले पूरा परिवार आंगन में बैठा। बड़ों के लिए कुर्सियां डाल दी गई और छोटों ने चारपाईयों पर जगह बना ली। सबने जमकर उस रात आजी को याद किया। आजी से बाईस साल पहले गुज़रे बाबा की भी चर्चा हुई बीच-बीच में। पहला प्रस्ताव बड़े पापा की ओर से आया, ''लड़कियों के लिए स्कूल खोलते हैं अम्मा के नाम पर। इतना बड़ा घर है। मैं और तुम तो आकर रहेंगे नहीं यहां। भलाई का काम भी हो जाएगा, संपत्ति की रखवाली भी हो जाएगी। कोई भरोसेमंद आदमी रख लेंगे देखभाल के लिए।''

पापा अस्पताल के पक्ष में थे। ''एक बार हमसे अम्मा ने कहा था दो-चार साल पहले, बबुआ डॉक्टर नइखे अगल-बगल कौनो। बड़ी दिक्कत होखेला। कबो कबो मन ठीक ना लागेला त बुझाला ना केकरा से देखाईं, कहां जाईं। वो तो ख़ैर अम्मा चाहती थीं मैं ही आ जाया करूं हफ्ते-दो हफ्ते में। ऐसा मुमकिन कैसे होता, आप ही बताईए भैया। वैसे अस्पताल ठीक रहेगा, क्यों बड़का पाहुन?''

बड़े फूफाजी भी पापा से सहमत थे, ''जिसके दो बेटे डॉक्टर, दो दामाद डॉक्टर, उसके नाम पर तो अस्पताल ही खुलना चाहिए भाई।''

बगल से आए गोतिया के रवीन्द्र काका ने भी सुर में सुर मिलाया, ''बड़ी सहनशील और महान महिला थीं बड़की भौजी। हम तो साठ साल से देख रहे हैं उनको। बच्चों को पढ़ा-लिखा कर कहां से कहां पहुंचा दिया और खुद गांव में ही रहीं, अकेली। उनका नाम तो अमर होना ही चाहिए। तुमलोग मिलकर अस्पताल ही खोलो - पूर्णेश्वरी देवी मेमोरियल अस्पताल।''

ममा ने कहा, ''अम्मा की आत्मा को बड़ी शांति मिलती होगी आज। उनका पूरा परिवार उनके आंगन में बैठकर उनके गुणों का बखान कर रहा है।''

आजी के गुणों का बखान करते-करते रात गुज़री, सुबह हुई। आजी की बरसी का पूरा कार्यक्रम ठीक उसी तरह संपन्न हुआ जैसा सभी चाहते थे। भजन-कीर्तन हुआ, भोज हुआ, दरिद्रनारायण को जमकर खिलाया गया, शुद्ध घी में बने लड्डू आस-पास के गांवों में बांटे गए। चीफ मिनिस्टर भी आए थोड़ी देर के लिए। पत्रकारों की मंडली के सामने अस्पताल बनाए जाने की घोषणा करवा दी पापा ने। चीफ मिनिस्टर जाते-जाते एक नया शिगूफा छोड़ गए थे, ममा को यहीं की विधानसभा सीट के लिए टिकट दे दिया जाए।

बरसी की रात सभी बेहद खुश थे। पापा-ममा को मुंहमांगा वरदान मिला था। बड़े पापा बरसी के इतने शानदार आयोजन और अस्पताल के नाम खूब सारा चंदा देकर खुद को मातृऋण से उऋण समझ रहे थे। दोनों बुआ ज़िन्दगी भर विदेश में रहकर अपने बच्चों को फैमिली वैल्युज़ का जो पाठ पढ़ाती आ रही थीं, उसके साक्षात दर्शन भी करा दिए थे उन्हें।

लेकिन दालान में टंगी आजी की मुस्कुराती तस्वीर के पीछे की सालों लंबी तन्हाई किसी को नज़र नहीं आई थी।

कमल का फूल

पार्क में बच्चे कमल का फूल खेल रहे हैं। बचपन में खेला करते थे हम ये खेल। दो साथी बैठकर विभिन्न मुद्राओं में हाथों को नीचे से ऊपर ले जाते थे, बारी-दर-बारी। और तीसरे साथी को हाथों के ऊपर से छलांग लगाना होता था। हर बारी में दोनों साथियों के हाथ साथ-साथ ऊपर, फिर थोड़ा ऊपर जाते थे। फिर ऐसे कि सिर से ऊपर हाथ हों। हमें कूद ने में मज़ा आता था, कमल का फूल बनाने में नहीं। जिस बच्चे का पैर हाथों से बने फूल से छू जाए, उसकी बारी बैठने की होती।

ऐसे कई खेल हैं जो अब बच्चे नहीं खेलते। पार्क के ये बच्चे भी सर्वेन्ट्रस क्वार्टर के बच्चे हैं। अपार्टमेंट के बाकी बच्चे तो स्विमिंग, टेनिस, साइकलिंग और बास्केट बॉल जैसी एक्टिविटिज़ के लिए कई तरह की अकादमी में जाते हैं।

डेंगा-पानी, लुका-छुपी, आंखमिचौली, गिली-डंडा जैसे खेल हम जैसे छोटे शहरों के लोअर मिडल क्लास तबके के वयस्कों की यादों का हिस्सा-भर हैं अब। तब पूरे मोहल्ले के बच्चे एक मैदान में या किसी के आंगन में दोपहर की नींद के बाद इकट्ठा होते। हमें दोस्त बनाने के लिए कभी मेहनत नहीं करनी पड़ी। मैं अपने बचपन के दोस्तों से सदियों से नहीं मिली, लेकिन अपनी गुड़िया की शादी की बारात में हमने किसे-किसे समोसे खिलाए थे, आज भी याद है। गिली-डंडा मुझे मेरे भाई ने सिखाया, साइकिल और स्कूटर चलाना एक दोस्त के चाचा ने। हम जुटते तो धमाचौकड़ी होती, कित-कित के लिए खींची गई लकीरों कई दिनों तक आंगन की शोभा बढ़ाती। ये सारे खेल कहां चले गए? मैं अपने बच्चों को ये सब क्यों नहीं सिखाती?

फिलहाल, मैं अपने दोनों बच्चों और उनके जैसे अपार्टमेंट के बाकी बच्चों को रिंग-अ-रिंग रोजेस खेलने के लिए बुला रही हैं, उन्हें दोस्ती करने के लिए प्रोत्साहित कर रही हूं। लेकिन मेरा पूरा ध्यान कमल के फूल की ओर है।

शुक्रवार, 12 मार्च 2010

मैं औरत भी हूं, इंसां भी

आंखों में हैं ख्वाब कई, पैरों में लेकिन बंदिश है,
मुझको मेरी मिले ज़मीं, इतनी-सी ही ख्वाहिश है।
कभी खड़ी रही, कभी टूट गई,
मैं औरत भी हूं, इंसां भी।

मैं जीवन का बीज लिए उम्मीदों पर ही जीती हूं,
शिवशंकर-सा विष सारा कंठ सहारे पीती हूं।
फिर भी अमृत ही मैं घोलूं
मैं औरत भी हूं, इंसां भी।

मंरे कंधों पर बोझ कई, कई रिश्तों का भी मतलब मैं,
कभी कहते हो बरकत हूं, कभी बन जाती हूं गफलत मैं।
फिर भी तुमपर मैं करूं यकीं,
मैं औरत भी हूं, इंसां भी।

मुझसे ही घर में खुशियां हैं, मुझसे ही रौशन है दुनिया,
कभी अम्मा हूं, कभी दीदी मैं, फिर बनती हूं मैं ही मुनिया।
मेरी थोड़ी तो कद्र करो,
मैं औरत भी हूं, इंसां भी।

आने दो मुझको घर अपने, फिर आंगन की देखो रौनक,
फूल-फूल में रंग होंगे, कोना-कोना होगा जगमग।
कई रूप-रंग में सजती हूं,मैं औरत भी हूं, इंसां भी।

सोमवार, 1 मार्च 2010

कहां गई वो होली, कहां गया वो फाग

रंगों में घुलता था प्यार,
आंगन होता था गुलज़ार,
पकवानों की खुशबू थी,
चलती थी मदमस्त बयार।
आमों के मंजर पर भौंरे
गाते थे जब मीठा राग।
कहां गई वो अपनी होली
कहां सुनें हम वैसा फाग।

गदराए महुए को देख
बौराता था पवन बहार।
मटर के मीठे फलियों में
घुलता था अमृत-सा स्वाद।
सरसों के पीले थे फूल,
हरियाले खेतों का साग।
कहां गई वो अपनी होली
कहां सुनें हम वैसा फाग।


जब झड़ते थे पीले पत्ते.
दिन बढ़ता, बढ़ती थी प्यास
सूखे मौसम में खिलता था
गुलमोहर और अमलतास।
लीची, चीकू, अमरूदों से
सजते थे फिर अपने बाग।
कहां गई वो अपनी होली
कहां सुने हम वैसा फाग।

पूरा मोहल्ला घर था अपना
सबसे रिश्तों के थे नाम।
घर से आंगन, फिर दुआर पर
इतना-सा था अपना काम।
छत पर ढूंढे ध्रुवतारा फिर
जब हम रातों को जाग।
कहां गई वो अपनी होली
कहां सुनें हम वैसा फाग।