मंगलवार, 18 सितंबर 2012

जानेमन तुम कमाल करती हो!

मेरी प्रिय जानेमन,

कई दिनों से सोच रही थी तुमसे दिल की सारी उथल-पुथल साझा करूं, ज़िन्दगी के उन मुख़्तसर मसलों पर तुम्हारी राय पूछूं जो यूं तो बेतुकी और बेमानी होते हैं, लेकिन अक्सर उन मसलों की संजीदगी दो देशों में छिड़ी कूटनीतिक जंग से कम नहीं होती।

अब लोगों को भले ही ये लगता हो कि हमारी-तुम्हारी रोज़मर्रा की इस एकदम बेमज़ा और नीरस ज़िन्दगी में है ही क्या जिसमें किसी की दिलचस्पी हो, जिसके बारे में लिखा जाए, जिसके बारे में बात किया जाए... इससे बड़े भी तो कितने मसले हैं दुनिया में? लोग एक-दूसरे को मारते-काटते क्यों हैं... मौनमोहन सिंह के बाद कौन... एक मज़बूत विपक्ष का ना होना लोकतंत्र के लिए कितना बड़ा ख़तरा है... अरब देशों में आई क्रांति का हासिल क्या, वगैरह वगैरह।

ज़रूरी हैं ये सारे मसले। एक से बढ़कर एक ज्वलंत मुद्दे। एक से बड़ी एक चिंताएं। लेकिन ये सब तभी ना कि जब तक सांसें हैं, जान है, सेहत है, दिमाग़ है? बाकी, सुकून से परे अपने लिए दुनिया भर की हज़ार दुश्चिंताएं जुटा लेना और उन्हें मंथन के लिए दिमाग के सागर में डाल देने का काम तो हम हर रोज़ बख़ूबी करते हैं। जो काम करना आता नहीं वो लम्हा-लम्हा खिसकती, रेंगती ज़िन्दगी के छोटे-छोटे, नीरस, बेमज़ा, मन्डेन लम्हों में से कुछ उदात्त, कुछ सबलाईम निकालने का हुनर है।

जानेमन, ये हुनर तुम्हें आता होगा, ऐसा मैं सोचा करती थी। मुझे लगता था कि सोच और कल्पना के धागों में हक़ीकत को पिरोकर उनका संतुलन बनाकर चलनेवाले लोगों में से रही होगी तुम। मुझे लगता था कि तुम अपनी और अपने आस-पास बसी छोटी-छोटी नेमतों की कद्र करना जानती होगी। लेकिन मैं परेशान हूं क्योंकि तुम्हें हैरान-परेशान देखती हूं आजकल।

दिल की ये जो उथल-पुथल है ना, वो इसलिए है कि तुम्हें कटघरे में खड़ा करके तुमसे जिरह करना, जवाबतलब करना मुझे ज़रा भी रुचिकर नहीं लगता। टू इच हिज़ ऑर हर ओन। सबकी अपनी-अपनी ज़िन्दगियां होती हैं, जीने के तरीके होते हैं, और इन तरीकों में एक ही बात स्थायी होती है - बदलाव। हम हर रोज़ बदल रहे होते हैं, हर रोज़ एक नए तरीके से जीने की ख़्वाहिश कर रहे होते हैं। हर रोज़ हमारे लिए सही और ग़लत के मायने बदलते रहते हैं। इसलिए किसी से सवाल पूछने या उसे सही-गलत ठहराने का हक़ हमें किसी ने दिया नहीं। हम ना न्यायपालिका हैं ना कार्यपालिका। हम तो वो नगरपालिका हैं जिसपर अपनी ही भ्रष्ट व्यवस्था से जूझते हुए भी अपने ही टूटे-फूटे शहर को बचाए रखने का दारोमदार होता है।

तो फिर तुम्हें ख़त क्यों लिख रही हूं? सुबह-सुबह ऐसी भाषणबाज़ी से हासिल क्या करना चाहती हूं?

जानेमन, ये ख़त तुम्हें तुम्हारे बारे में ही कई चीज़ें याद दिलाने की प्रक्रिया का एक हिस्सा है। ये ख़त तमाम बदलावों के बीच उस शाश्वत सत्य को रेखांकित करने का एक ज़रिया है, जो हम अक्सर भूल जाया करते हैं। एक शाश्वत सत्य ये है कि इस पूरे विशालकाय ब्रह्मांड के उलझे-पेचीदा सांचे में हमें किसी एक रूप में कहीं घुसाया गया है, कहीं फिट किया गया है तो उसका कोई उद्देश्य ज़रूर होगा। लेकिन उस एक या अनेक उद्देश्यों को हम पूरा कर सकें, उसके लिए हमारा शारीरिक और मानसिक तौर पर दुरुस्त होना लाज़िमी है।

जानेमन, तुम एक स्त्री हो, बीवी हो, मां हो, और जाने किन-किन रूपों में उन उद्द्श्यों को पूरा करने की जुगत में लगी रहती हो। तुम्हारा घर साफ-सुथरा हो, तुम्हारे बच्चे हंसते-खेलते रहें, तुम्हारा सुहाग अमर-अडिग रहे, तुम्हारे काम पर कोई उंगली ना उठाए, तुम्हारा घर भी बचा रहे और तुम्हारी महत्वाकांक्षाएं भी, और सड़क पर चलते हुए तुम्हारा आत्मसम्मान बचा रहे - इन कोशिशों में तुमने देखा कि क्या हश्र करती हो अपना?

टेक ईट ईज़ी, जानेमन। लंबी गहरी सांसें लो और जो आस-पास त्याज्य है उसे छोड़ना सीखो। जाने दो, उन कड़वी बातों को, उन तकलीफ़देह सच्चाईयों को जो तुम्हारी रातों की नींद ख़राब करने चले आते हैं। दो-चार दिन के लिए अपना झंडा नीचे कर दो, और कहो कि इस संघर्षरत ज़ेहन को आराम दो। अपने साथ इतनी ज़्यादतियां क्यों करती हो? कह कर तो देखो, तुम्हारे लिए मदद के कई दरवाज़े खुलेंगे। सबकुछ इतना भी दुरूह नहीं।  इसमें कोई दो राय नहीं कि तुम्हारे अथक होने, साहसी होने और तुम्हारी हार ना मानने की प्रवृत्ति ही इस धरती की धुरी है। सबकुछ तुम्हारे इर्द-गिर्द ही चलता है। लेकिन धरती भी ऐसे घूमती है कि कहीं दिन का उजाला हो, कहीं रात का अंधेरा। और धरती भी सौर ऊर्जा से चलती है, किसी और की ताक़त से।

जानेमन, देखा है आस-पास कभी, कि कुछ भी स्टैंड-अलोन नहीं होता। प्रकृति धूप और बारिश पर निर्भर है, नदियां बर्फीली चोटियों और समंदर पर। पेड़ धरती से फूटते हैं, फल पेड़ों की डालियों पर आते हैं। चींटियां तक केंचुओं के मृत शरीर पर आश्रित हैं। शेर को हिरण चाहिए, हिरण को घास, और घास को फिर से शेर के अवशेष। ऐकला चॉलो रे की डाक लगाने वाला भी अपने पीछे एक कारवां जुटने की उम्मीद करता है।

तो फिर तुम्हें क्यों लगता है कि अपने कंधे पर दुनियाभर का बोझ लिए तुम जी जाओगी? तुम्हें क्यों लगता है कि पूरे घर-संसार का दारोमदार एक तुम्हारे खुद को माथे है? तुम्हें क्यों लगता है कि एक तुम स्थिर हो, बाकी सब आनी-जानी है?

जीवन का दूसरा और बेहद कड़वा सत्य ये भी है कि अपनी जिस दुनिया में ख़ुद को तुम इन्डिसपेन्सेबल, अपरित्याज्य माने रहती हो उस दुनिया का काम तुम्हारे बग़ैर बड़े मज़े में (और कई बार तो ज़्यादा बेहतर तरीके से) चलता है। इसलिए जानेमन, अपनी इत्ती-सी दुनिया से बाहर निकलो और देखो कि जीने-सुनने-समझने-भोगने-देने-समेटने के लिए कितना कुछ बाकी है अभी।

जियो मेरी जान, ख़ुद के लिए भी कभी-कभी, कि बाकी तो दूसरों के लिए जीना तो तुम्हारी ख़ूबसूरत फ़ितरत है।

अनु सिंह, सब समझती हो फिर भी कितनी नासमझ हो!! जानेमन, तुम वाकई कमाल करती हो!!!

ढेर सारे प्यार के साथ,

तुम्हारे भीतर की रूह,
जो बहुत सोचती है और उससे ज़्यादा बोलती है!