सोमवार, 29 अगस्त 2011

बोरसोरा क्यों याद आता है बार-बार

शिलॉन्ग बहुत ख़ूबसूरत शहर है। लेकिन शहर से बाहर निकलते ही खासी पहाड़ियों से होकर गुज़रते हुए लगता है, इन पहाड़ों को नहीं देखा तो कुछ नहीं देखा। हम शिलॉन्ग से दक्षिण की ओर बढ़ आए हैं, नेशनल हाईवे से उतरकर पहाड़ों के बीच से होते हुए बांग्लादेश सीमा की ओर जा रहे हैं। शिलॉन्ग से कुछ 50 किलोमीटर दूर हम मॉसिनराम पहुंचे हैं। मॉसिनराम में चेरापूंजी से भी ज़्यादा बारिश होती है, और देश की सबसे गीली जगह यही है - मुझे वहीं पहुंचकर पता चलता है। ये शहर किसी कैलेंडर की तस्वीर जैसा लगता है। हरी-भरी, हसीन पहाड़ियों पर उतर आए बादल, बादलों के बीच छोटे-से टीले पर दिखता सफेद चर्च और बीच-बीच में खिले लाल-पीले पहाड़ी फूल।

लेकिन हमारी मंज़िल मॉसिनराम नहीं है। हमें भारत-बांग्लादेश सीमा पर मौजूद पश्चिम खासी पहाड़ियों के बीच बोरसोरा गांव जाना है। बोरसोरा में लैंड कस्टम स्टेशन है, जहां हमें अपनी फिल्म के लिए शूटिंग करनी है। बोरसोरा शिलॉन्ग से बोरसोरा की दूरी मात्र 130 किलोमीटर है। हमारा अपना अनुमान है कि ये दूरी हमें अगले चार घंटों में तय कर लेना चाहिए।

मॉसिनराम से निकलते-निकलते ये अहसास हो गया है कि ये दिल्ली-जयपुर हाईवे नहीं कि हम 130 किलोमीटर की दूरी देखते-देखते तय कर लेंगे। ना ये उत्तरांचल, हिमाचल के पहाड़ी रास्ते हैं जिनपर स्थानीय लोग कम, सैलानी अधिक दिखते हैं। खासी पहाड़ियों से गुज़रते-गुज़रते गांव भी पीछे छूटने लगते हैं। मीलों तक पंछी भी पर मारते नज़र नहीं आते, मोबाइल के नेटवर्क काम नहीं करते, कहीं दूर-दूर तक पानी भी नहीं मिलता। रास्ता ऐसा है कि सड़क के नाम पर ऊंचे-नीचे गड्ढे बचे हैं। गाड़ी के हिचकोलों में शिलॉन्ग में किया हुआ चीज़ ऑमलेट का नाश्ता बाहर निकल पड़ने को बेकरार है। दिमाग में एक मनहूस ख़्याल आता है - ख़ुदा ना ख़ास्ता अगर गाड़ी खराब हो गई तो क्या करेंगे!

और होता भी वही है। मैं सरकारी गाड़ी में कमिश्नर साहिबा के साथ हूं। लड़कों को (जिनमें मेरे पति और कैमरामैन शामिल हैं) एक जीपनुमा गाड़ी में भेज दिया गया है। लड़के तो बच जाते हैं, हमारी गाड़ी धोखा दे जाती है। एक वीरान रास्ता, दूर-दूर तक पहाड़ और जंगल, सड़क पर कमर पर हाथ रखे खड़ी दो महिलाएं और गाड़ी के इंजन से जूझता ड्राईवर। परफेक्ट! सफ़र इससे बेहतर क्या होगा!

जाने कितनी देर इंतज़ार किया है हमने। पंद्रह मिनट, आधा घंटा या एक घंटा - इससे क्या फर्क पड़ता है। आख़िरकार एक लोकल गाड़ी हम दोनों महिलाओं के लिए रुकती है, गाड़ी में बैठे स्थानीय लोगों को देखकर हम फीकी-सी मुस्कान देते हैं, कुछ अंग्रेज़ी-कुछ हिंदी में अपनी बात समझाते हैं और उस गाड़ी में किसी तरह अंटकर जीप को पकड़ लेने के लिए निकल पड़ते हैं। ये भी नहीं मालूम कि हमसे आगे निकली गाड़ी कहां मिलेगी, या बोरसोरा नाम की जगह है कितनी दूर। उसपर से ये गाड़ी हमें जाने कहां ले जाए।

जान में जान नीचे बहती नदी, उसपर बने एक पुल और पुल पर खड़ी सफेद जीप को देखकर आती है। जीप से लड़के निकलकर नीचे बहती नदी से उठकर आती ठंडी हवा का मज़ा ले रहे हैं। कमिश्नर साहिबा शांत हैं, लेकिन मेरा दिमाग खौल रहा है। घड़ी की ओर देखने की हिम्मत नहीं हो रही, लेकिन पेट में पड़नेवाली मरोड़ से लगने लगा है कि लंच का वक्त बहुत पहले निकल चुका है।

अब हम सारे-के-सारे जीप में ठूंस दिए गए हैं और अपनी मंज़िल - बोरसोरा - के लिए निकल पड़े हैं। रास्ते में जंगलों और पहाड़ों को देखकर मेघालय में तेज़ी से चल रहे अवैध खनन की ख़बरें याद आने लगी हैं। जगह-जगह खाली, उदास, टूटे-फूटे पहाड़ मुंह चिढ़ाते नज़र आते हैं। इनसे लाइमस्टोन निकाल लिया गया है, कोयले के लिए इन्हें चूर-चूर कर दिया गया है। पहाड़ियों के बीच बसे गांव अब किसी उदास पेंटिंग की तरह लगते हैं। पेंटिंग ही हों तो कितना अच्छा हो! वरना जीने के लिए यहां कितना संघर्ष करना पड़ता होगा, ये सोचकर मन घबरा जाता है। बीच-बीच में धान, मकई, आलू, अनानास और केले की फसलों के बीच सुख और हरियाली के चिन्ह मिल जाया करते हैं। लेकिन सड़क अभी भी ना के बराबर है।

दूसरी ओर से आते कोयले से लदे ट्रकों को देखकर बोरसोरा के करीब होने का अहसास होने लगा है। अबतक जो सड़क थी, अब काली-कलूटी नागिन लगती है। खुरदुरी, कोयले की खान से निकली, बदसूरत और जानलेवा। दूर से जो गांव दिखाई देता है, गांव कम, उजड़ी हुई बस्ती ज्यादा लगता है। टूटे-फूटे मकानों की छतों पर कोयले का रंग पसरा है। लोग भी कोयले-से ही दिखाई देते हैं।

प्यास और भूख से जान जा रही है। समझ में नहीं आता, यहां मिलेगा क्या। वैसे 130 किलोमीटर का रास्ता हमने आठ घंटों में तय किया है। शाम ढलने लगी है और सूरज भी कोयले की खान में उतरता-सा लगता है। हम लैंड कस्टम स्टेशन के दफ्तर पहुंचे हैं। झोंपड़ीनुमा घर में दफ्तर भी है और यहां तैनात कर्मचारियों के लिए रहने की जगह भी। ज़ाहिर है, बोरसोरा की पोस्टिंग पनिशमेंट पोस्टिंग ही मानी जाती होगी।

लेकिन यहां पांच तरह की सब्ज़ियां, दाल, मछली, चिकन और पुलाव हमारा इंतज़ार कर रहा है। कुछ भूख है और कुछ खाने की लज़्जत, हमें खाना खत्म करते-करते एक घंटा लग जाता है। अगले पंद्रह मिनट तक हम उस बंगाला कुक का आभार व्यक्त करने में लगाते हैं, जिसने हमारे लिए इतना स्वादिष्ट खाना बनाया।

अब भरे हुए पेट और अघाए मन के साथ रिएलिटी चेक की बारी है। दफ्तर से निकलकर सीमा तक जाना है, जहां से कोयला बांग्लादेश भेजा जाता है। हम गांव के छोटे-से बाज़ार से होकर गुज़रते हैं। दो-चार दुकानों में समोसे और जलेबियां तली जा रही हैं, एक-दो रोज़मर्रा की चीज़ों की दुकान है और दो-चार दुकानों में कपड़े बिक रहे हैं। दवा की दुकान एक भी नहीं, ना फलों की दुकानें हैं। रास्ते में मालूम पड़ता है कि बांग्लादेश की ओर नज़र आनेवाला गांव भी बोरसोरा ही कहलाता है। बांग्लादेश से हज़ारों की संख्या में मजदूर कोयले की खानों में अवैध तरीके से काम करने आते हैं। सीमा के आर-पार जाना बहुत आसान है क्योंकि कहां भारत खत्म होता है और बांग्लादेश शुरू, इसकी जानकारी कम ही लोगों को है। और तो और, बोरसोरा में लोग (यहां तक कि सरकारी कर्मचारी भी) बांग्लादेशी मोबाइल नेटवर्क का इस्तेमाल करते हैं। बीएसएनएल यहां बड़ी मुश्किल से काम करता है और प्राइवेट सर्विस ऑपरेटर तो ख़ैर यहां पहुंचे ही नहीं। ये भी होता है कई बार कि किसी की बीमारी में बांग्लादेश से डॉक्टर बुलाकर लाए जाते हैं। बोरसोरा में प्राइमरी हेल्थ सेंटर नहीं है, और बीमारियां इतनीं कि मलेरिया, कालाज़ार से बच भी गए तो बाढ़ के बाद होनेवाली बीमारियां जान ले लेंगी। रही-सही कसर कोयला माफिया और सरकारी नुमाइंदों की मिलीभगत निकाल देती है।

आज मुझे बोरसोरा की वो यात्रा क्यों याद आ रही है? सोचती हूं कि हर मायने में हाशिए पर बसे उस गांव का हमारे लिए क्या वजूद है? अन्ना का अनशन, भ्रष्टाचार खत्म करने की मुहिम और हमारी हाय-हाय वहां रहनेवाले लोगों की ज़िन्दगी में क्या फर्क ला सकेगी? ये भी सोचती हूं कि कानून आ भी गया तो कितना फर्क पड़ेगा? हमारे पास वैसे ही कई कानून, कई योजनाएं नहीं हैं? फोरेस्ट राइट्स एक्ट नियमगिरी पहाड़ियों को बचा सकेगा? नरेगा से गरीबी खत्म हो जाएगी? जाने फूड सेक्योरिटी एक्ट का क्या हुआ, लेकिन एक्ट दोनों सदनों से पारित हो भी जाए तो भूख मिटाई जा सकेगी?

सिनिकल होना आसान है, उम्मीद बनाए रखना बहुत मुश्किल। लेकिन एसी कमरे में बैठकर टीवी पर अन्ना की जीत का जश्न देखना और लैपटॉप पर ये पोस्ट लिख डालना भी उतना ही आसान है, बोरसोरा की हक़ीकत भुला देना बहुत मुश्किल।







शनिवार, 27 अगस्त 2011

चिट्ठी लिखेंगे, जवाब आएगा!

टीवी पर अभी-अभी लोकपाल पर अन्ना की तीन मांगों को पूरा करने में जुटी सरकार की कोशिशों की खबर देखी है। अनशन खत्म होगा, रामलीला मैदान की लीलाएं अब दोनों सदनों में दिखाई देंगी। पीएम की चिट्ठी और अन्ना की जवाब में लिखी चिट्ठी ना सिर्फ ऐतिहासिक हो गई है बल्कि पत्रों के इस आदान-प्रदान ने ई-मेल और एसएमएस के ज़माने में चिट्ठी को एक बार फिर उसकी खोई हुई इज़्जत लौटा दी है। वरना आजकल चिट्ठियां कौन दीवाना लिखता है?
 
फ्लैशबैक में जाने लगी हूं फिर से। क्लास खत्म हुई है अभी-अभी। कॉलेज के कॉरीडोर से चलकर हॉस्टल के कॉरीडोर तक आने में ढाई मिनट लगते हैं। लेडी श्रीराम कॉलेज के खंभों और लाल दीवारों के बीच से होकर गुज़रती हसीन टोलियों में से डे-स्कॉलर्स और हॉस्टलर्स को अलग-अलग पहचानना बहुत आसान है। डे-स्कीज़ नए फैशन के साथ कदमताल करती हैं - बेफिक्री से पेंसिल की मदद से बांधा हुआ जूड़ा, वेजीटेबल डाई वाली शर्ट और नीली जीन्स, गहरी काली आंखें और कानों से लटकर गर्दन से अठखेलियां करती सिलवर ईयररिंग्स, एलएसआर में फैशन इसे ही कहते हैं। हॉस्टलर्स की चप्पलें देखकर आप उन्हें पहचान सकते हैं, स्कर्ट की साइज़ अभी फैशन के मुताबिक दुरुस्त नहीं हुई, फैबइंडिया का चस्का नहीं लगा, जनपथ से फ्लिप-फ्लॉप्स खरीदे नहीं गए।

लेकिन फैशन से बेपरवाह हम हॉस्टलर्स किसी और फिक्र में हैं। डाकिया दुपहर को आया करता है अक्सर। लंचटाईम के आस-पास। हॉस्टल के बाहर पहले उसकी साइकिल देख लेते हैं। फिर पोस्टल कमिटी के किसी मेंबर को ढूंढते हैं (पोस्टल कमिटी का काम सबके कमरों में जाकर चिट्ठियां डाल आना है। हॉस्टल में तीन सौ लड़कियां हैं!) एनीथिंग फॉर मी?’ बड़ी उम्मीद से ये सवाल पूछा जाता है मेस में। पोस्टल कमिटी के सदस्य कई बार चिट्ठियां लिए-लिए ही मेस में खाना खाने आ जाया करते हैं। जवाब हैवन्ट सीन येट होता है अक्सर – हां भी नहीं, ना भी नहीं। 

खाना किसी तरह गले से उतारकर कमरे की तरफ दौड़ पड़ते हैं हम। धड़कते दिल से कमरे का दरवाज़ा खोला जाता है। दरवाज़े के नीचे से लिफाफे झांकते हों तो दुपहर की क्लास गोल करके कभी लॉन में, कभी लाइब्रेरी में, कभी कैफ़े के किसी बेंच पर अगले दो घंटे गुज़र जाया करते हैं – चिट्ठी पढ़ते हुए। लिफाफे ना हों तो हम अक्सर क्लास वापस लौट जाया करते हैं, उनसे रश्क करते हुए जिन्हें चिट्ठियों का सुख मिला है आज।

ये चिट्ठियां घर से आती हैं, ननिहाल से आती हैं, यार-दोस्तों के पास से आती हैं, पेन-फ्रेन्ड्स के पास से आती हैं। इनमें कभी जैसलमेर की रेत होती है, कभी कुपवाड़ा की ठंड होती है, कभी मम्मी के हाथ के खाने का स्वाद होता है कभी पापा की तल्ख़ नसीहतें होती हैं। पंद्रह किलोमीटर दूर नॉर्थ कैंपस में बैठी सहेली के दिल का हाल होता है, पटना के डेंटल कॉलेज में आनेवाले मरीजों की दांतों का दर्द होता है। इनमें प्यार होता है, मनुहार होता है, गीत होते हैं, कविताएं होती हैं, नानी की मन्नतें होती हैं, बाबा का लाड़ होता है।

चिट्ठियां मैं भी खूब लिखती हूं। ज़िन्दगी के कई अहम फैसले चिट्ठियां लिखते हुए किए हैं मैंने। अंग्रेज़ी चिट्ठियों से सीखी है, ग्रामर चिट्ठियों से पुख्ता बनाया है। ब्यूरो की अंग्रेज़ी स्पेलिंग इसलिए गलत नहीं होती क्योंकि मामाजी ने अपनी चिट्ठी में पांच जगह अंडरलाईन करके भेजा था। पीरू की राजधानी लीमा है, चिट्ठी से जाना था। पूरे पूरे tense की पढ़ाई मैंने चिट्ठियों में की है।

चिट्ठियों से ऐसा प्यार है कि जब चित्रहार में पहली बार शक्ति फिल्म का गाना देखा था तो सोचती रही थी कि कैसा लगा होगा उस महबूबा को जब डाकिए ने उसका लिखा ख़त वापस लौटा दिया होगा और कहा होगा, इस डाकखाने में नहीं/सारे ज़माने में नहीं/कोई सनम इस नाम का/कोई गली इस नाम की/कोई शहर इस नाम का। ये गीत मुझे अब भी परेशान करता है। और उतनी ही खुशी गुलज़ार-किशोर-राजेश खन्ना के डाकिया बन जाने पर होती है। पलकों की छांव में के डाकिए रवि पर मोहिनी को देखकर क्या गुज़रती होगी, अब भी सोचती हूं। और मन परेशान हो जाता है जब आशा की भींगी हुई आवाज़ आज भी गाड़ी के स्टीरियो में गूंजती है। ख़त लिखकर सामान लौटा देने की बात करते हुए, ख़तों के साथ उनमें लिपटी रातें वापस मांगते हुए किस माया का दिल ना रोया होगा! और पन्ना की आंखें देखी हैं हू तू तू में जब वो आदित्य को अपनी लिखी हुई ख्वाहिशों की चिट्ठियां पढ़ने के लिए चश्मे लगाने की ताक़ीद देती है? ख़त इतनी आसानी से थोड़े ना पढ़ लिए जाते हैं?

कई और चिट्ठियां याद आ रही हैं जो टुकड़ों-टुकड़ों में पढ़ी – नेहरू की इंदु को, अमृता की साहिर को, धर्मवीर भारती की पुष्पा को, बापू की टैगोर को, मेरी वर्ड्सवर्थ की विलियम वर्ड्सवर्थ को... कई याद रहीं, कई भूल गईं। लेकिन जो याद है, उन सब लोगों की हैंडराइटिंग है जो मुझे चिट्ठियां लिखा करते थे। किसको पायलट पेन से लिखना पसंद था, कौन सिर्फ लाल कलम से चिट्ठियां लिखा करता था, किसके लेटरहेड पर आती थीं चिट्ठियां, कौन अंतर्देशीय भेजता था, अब भी नहीं भूली।

अब चिट्ठियां नहीं लिखती, चिट्ठे लिखती हूं। और इस चिट्ठे के साथ स्मिता पाटिल की सांवली मुस्कुराहट, आरडी बर्मन का संगीत और लता मंगेशकर की आवाज़ में आनंद बख्शी की लिखी ग़ज़ल बांटने से खुद को रोक नहीं पाई हूं।    

http://www.youtube.com/watch?v=vUaLOTcyL3U&feature=related

शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

शॉट सर्किट से बचने के लिए

फेसबुक पर किसी बहुत पुराने दोस्त ने कमेंट छोड़ा है, कैसे करती हो ये सब। सुबह से सोच रही हूं, कैसे करती हूं! और क्या करती हूं? दिल की भड़ास कभी खुद लिखकर, कभी किसी का लिखा हुआ पढ़कर मन-ही-मन रोने और हंस लेने से निकल जाया करती है तो ये काम मैं बखूबी करती हूं। लिखना ‘therapeutic’ होता है तो होता हो। रो लेना भी होता है। कभी आंसुओं में, कभी गीतों में, कभी कविताओं-हाइकुओं में, कभी फेसबुक स्टेटस मेसेज में, कभी दिल का हिस्सा अपने लिखे फ़सानों में छोड़ आने में – इन सब तरीकों के अलावा खुद को दुरुस्त रखने का कोई और शऊर आता नहीं मुझे।

मैं रिश्तों के मामले में बहुत खुशकिस्मत हूं। मेरी बेटी पूछा करती है, जितने भाई आपके हैं उतने मेरे क्यों नहीं। फेसबुक पर तीन सौ से ज्यादा दोस्त हैं मेरे। फोनबुक में उससे भी ज्यादा दोस्तों के नंबर सेव्ड हैं। लेकिन फिर भी अक्सर होता है कि ऊपर से नीचे तक पूरा स्क्रोल देख जाती हूं। सोचती हूं, किससे बात करूं, किसको ख़त लिखूं, किससे पूछूं मिज़ाज कैसा है, किसको कहूं कि आज कास के फूलों को खिलते देखा है, मौसम बदल रहा है, बरसात अपनी नमी पीछे छोड़े जा रही है।

ये कैसी जद्दोजेहद होती है खुद की खुद से! हम कितने रिश्तों में बंधे होते हैं, कितने लोगों के अपने होते हैं, लेकिन फिर भी कितनी तन्हाई होती है भीतर। शोर बाहर होता है, खामोशी भीतर परेशान किए जाती है। कभी ऐसा हुआ है कि भीड़ में बहुत सारे लोगों के बीच बैठे हुए भी आप खुद को तलाशने के लिए किसी खाई में गिरता हुआ सा महसूस करते हैं? मेरे साथ अक्सर होता है। कल रात का सपना अचानक याद आ रहा है – मैं पानी के भीतर हूं, सिर के ऊपर तक पानी, पैरों के नीचे तक पानी... ज़मीन का कोई नामोनिशां नहीं। लेकिन पानी ने डराया नहीं है, मैंने पानी में कुछ अक्स उभरते देखे हैं। याद नहीं कौन-कौन थे। एक बाबा याद हैं, और दूसरा हृतिक रौशन है शायद। :-)  

इस सपने के मायने नहीं ढूंढूंगी , ना बिंबों, प्रतीकों के मतलब निकालूंगी। डूबकर ही सही, डर थोड़ी देर के लिए गायब तो हुआ है।

कई बार लिखने का कोई मकसद नहीं होता। आज भी नहीं है। लिखे जा रही हूं क्योंकि लिखा नहीं तो इस डर को डॉक्युमेंट करके नहीं रख पाऊंगी। बता नहीं पाऊंगी बच्चों को कि इतना आसान भी नहीं था जीना। रोज़-रोज़ हम कई तरह की अनुभूतियों से गुज़रते हैं। दिमाग और दिल के बीच कई तार जाते हैं और शॉर्ट-सर्किट अक्सर हो जाया करता है। जब ऐसा कुछ हो जाया करे तो मेन स्विच ऑफ कर दिया जाना चाहिए और खुद को इलेक्ट्रॉक्युशन से बचाने के लिए परे हट जाना चाहिए – जैसे शॉर्ट सर्किट पड़ोस में हुआ हो और फिलहाल हमारी अपनी सुरक्षा से बढ़कर जीने का दूसरा कोई मकसद नहीं। 

कोई पूछे कि कैसे करती हो ये सब तो हंस दूंगी, अंदर ढकेले गए आंसुओं के कतरे गिन लूंगी और मेन स्विच ऑफ कर दूंगी क्योंकि आंखों का पानी शॉर्ट सर्किट के दौरान जानलेवा हो सकता है। पानी बिजली का गुड कडंक्टर है ना, इसलिए।  

गुरुवार, 25 अगस्त 2011

उम्मीद होगी कोई...

मेट्रो स्टेशन से उतरकर पैदल डांस क्लास के लिए जा रही हूं। सामने से अमरूदों से भरी एक रेहड़ी चली आ रही है। हेड-ऑन कॉलिज़न होने ही वाला है, कि मैं किनारे हट जाती हूं। घबराहट में नज़रें रेहड़ीवाले की तरफ चली जाती हैं, इसलिए नहीं कि टकराने से बच गई। इसलिए क्योंकि ना चाहते हुए भी उसके चेहरे से कुछ ऐसा टपक रहा है जिसको ही 'उम्मीद' कहते होंगे शायद। सुबह-सुबह वो रेहड़ी लेकर निकला ही होगा और किसी ग्राहक की उम्मीद में मेरे सामने से गुज़रा होगा, मुझसे अमरूद खरीदने की उम्मीद की होगी।

सवाल ये नहीं कि मैंने उसकी वो उम्मीद पूरी की या नहीं। सवाल है कि 'उम्मीद' को ज़िन्दगी से काटकर कैसे फेंक दिया जाए?

तीन दिन पहले की बात है। मैं एक करीबी दोस्त के साथ बैठी हूं। कुछ कहा नहीं जा रहा उससे, या कह भी रही होऊंगी तो रूंधे हुए गले से निकलनेवाली मेरी बातों का ओर-छोर ना उसे मिल रहा होगा, ना मुझे मिल रहा है। मैं बार-बार एक ही बात दुहराए जा रही हूं - "मेरी उम्मीदों को ठेस पहुंची है"। फिर मन-ही-मन सोचती हूं, उम्मीदों को भी, और अपेक्षाओं को भी। फादर ऑस ने भी बात-बात में सबसे कहा है, "लोअर योर एक्सपेक्टेशन्स। अपनी अपेक्षाओं को कम कर लो, तकलीफ़ नही होगी - रिश्तों में नहीं, ज़िन्दगी में भी नहीं।"

लेकिन ये मुमकिन तो लगता नहीं। सोचती हूं, उम्मीद और अपेक्षा में कितना फर्क है? आशा और प्रत्याशा में? क्यों उम्मीद को सही मान लिया जाता है और अपेक्षा के साथ एक नकारात्मक ख्याल जोड़ दिया जाता है? अपेक्षा करना भी तो कहीं-ना-कहीं उम्मीद करने का ही एक हिस्सा होता है। क्या हम खुद से, अपनी ज़िन्दगी से अपेक्षाएं नहीं रखते? उस रेहड़ीवाले ने उम्मीद की कि कोई ग्राहक सुबह-सुबह उसके अमरूद खरीदेगा। उसने मुझसे अपेक्षा की होगी कि मैं रुककर कम-से-कम मोल-भाव तो करूंगी।

अपेक्षा उम्मीद का अगला रूप नहीं होता? अपेक्षा उम्मीद का एक्सटेंशन नहीं है? तो फिर रिश्तों में या वैसे ही अपेक्षाएं रखने से क्यों मना किया जाता है बार-बार? आखिर उम्मीद के दम पर ही तो सब कायम है। और मीटर तो लगा नहीं होता भावनाओं में कि आज उम्मीद हो गई, कल पूरा का पूरा पैमाना भर लिया तो अपेक्षा की है मैंने किसी से कुछ की। अन्ना को अपने अनशन से और अन्ना के अनशन से हमें कुछ अपेक्षा है, हर भारत-पाक वार्ता से कुछ अपेक्षा होती है, सुबह घर से निकलो तो अपेक्षा करते हैं दिन के अच्छी तरह गुज़र जाने की, बच्चों से अपेक्षाएं होती हैं, बच्चों को बड़ों से होती है। बड़ों को इज़्जत पाने की अपेक्षा होती है, छोटों को प्यार पाने की। क्लास में कुछ सीखने की अपेक्षा होती है, दफ्तर में हर महीने खटकर महीने के आखिर में एकमुश्त आमदनी घर ले जाने की अपेक्षा होती है। यहां तक कि रास्ते में चलते हुए भी हम अपेक्षा रखते हैं  - किसी एक मुकम्मल जगह पहुंचने की अपेक्षा लिए ही तो घर से निकलते हैं हम। अब ऊपर 'अपेक्षा' की जगह 'उम्मीद' लिखें तो वाक्यों के अर्थ में कितना फर्क पड़ जाएगा? मेरे लिए अपेक्षा करना उम्मीद रखने का ही एक रूप है।

फिर उम्मीदों की गठरी कैसे कंधों से उतार दूं? कैसे उम्मीद ना रखूं उन लोगों से जिन्हें प्यार करती हूं? जब रेहड़ीवाला मुझ अनजान ग्राहक से उम्मीद कर सकता है तो यहां तो उन रिश्तों में उम्मीद रखने-खोने की बात है जो ताज़िन्दगी साथ चला करते हैं।

"रुकते नहीं हैं मेरे कदम, चलना इनकी तो फितरत है
रौशनी हो या कि ना भी हो, चाहे जैसी अपनी किस्मत है
हमने हाथों की लकीरों को अपनी ताकत से बदला है
हमने अपने हालातों को अपनी हिम्मत से बदला है
जो चलते रहने की आदत है ये कहीं से तो आई होगी
हमने घने अंधेरे में भी तो एक शम्मा जलाई होगी

उम्मीद ही होगी कोई जो हमने राहें नई निकाली हैं
उम्मीद ही होगी कोई जिससे किस्मत भी बदल जो डाली है
उम्मीद का दामन पकड़कर हम रिश्ते भी संभाले जाते हैं
उम्मीद ही होगी कोई जिससे रोते-रोते मुस्काते हैं

उम्मीद तो होगी कोई
उम्मीद ही होगी कोई"

(अजब को-इन्सिडेंस है कि ये मेरा सौवां पोस्ट है। उम्मीद ही रही होगी लगातार लिखते जाने की कि इस मुकाम तक पहुंचा है सफ़र।)

सोमवार, 22 अगस्त 2011

जब चंद ख्याल नींद से जगाने आए...

तेरे दर पर हमारा ज़ोर तो चलता नहीं है,
तुम्हीं कह दो कहां फिर सिर को फोड़ आएं हम।

तुम्हीं सरताज, तुम्हीं हमराज, तुम्हारी ही गुलामी है
ऐसे अपने रिश्तों को फिर कैसे तोड़ आएं हम।

मिली है आज़ादी तो क्या, हलक में सांस अटकी है
गले की फांस को फिर क्यों ना मरोड़ आएं हम।

गुल्लक में जो बचता है - हमारा आज है, कल है
चंद अपने सिक्कों को कैसे ना जोड़ आएं हम।

सालों राह देखी तो हमें मंसूब हुआ एक घर,
जन्नत हो कि दोज़ख़ हो, कैसे छोड़ आएं हम।

तुम दोस्त हो जब तो हमारी दौड़ फिर कैसी,
तुम हारे या कि हम जीते, क्यों ऐसी होड़ लाएं हम!

हवाओं का रूख जैसा भी हो, जिधर भी हो,
जो हम-तुम साथ हों तो बहती धारा मोड़ लाएं हम।

शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

आजा नच लें (भाग 3, 4, 5)

तीसरा दिन

मां पर अब नाचने का भूत सवार है। गुरुजी ने कहा है, हर सजीव-निर्जीव में संगीत है। संगीत सुनाई देता है, लय दिखाई देती है, बोल समझ में आने लगते हैं - साधना हर चीज़ को मुमकिन बना सकती है।

गुरुजी ने आज एक बहुत अहम बात कही है मां से, "तीन बातों का ख्याल रखना है आपको। पहला, आपमें सोलह साल की लड़की का स्टैमिना नहीं, इसलिए किसी से अपनी तुलना ना करें। दूसरा, अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखें। बीमार शरीर को कोई संगीत रुचिकर नहीं लगता। तीसरा और सबसे अहम, आप अपनी खुशी के लिए नाचें। सीखें भी तो अपनी खुशी से। बंदिशों में खुशी से बंधा जाए तो बंदिशें भी संगीतमय हो जाती हैं।"

मां ने तीनों बातें गांठ बांध लीं है। आज का पाठ 'ताल' से शुरू हुआ है।

"आचार्यों और शास्त्रकारों ने समय को बांधकर ताल की परिकल्पना की है। ताल कई प्रकार के होते हैं और उनकी मात्राएं अलग-अलग होती हैं। ताल पर पूरा संगीत निर्भर करता है। ताल को पहचानने के लिए ये जरूरी है कि आप सम और खाली पहचानें।"

गुरुजी तबले पर ताल के बोल बजाते हैं जिन्हें समझना मुश्किल नहीं। मां के मन में चल रहे 1-2-3-4/5-6-7-8/9-10-11-12/13-14-15-16 को गुरुजी ने तीन ताल का नाम दिया है।

सोलह मात्राओं और चार विभागों वाला तीन ताल सबसे सहज माना जाता है। इसलिए भी क्योंकि हमारे दिमाग के लिए वर्गाकृति में आनेवाले बोलों को समझना बहुत मुश्किल नहीं। ताल के पूरे आवर्तन पर मां को हस्तक मुद्राओं के साथ नृत्य करने को कहा जाता है। आज शिखर, मध्य और तल हस्त चक्र करते हुए गलतियां कम हुई हैं। भूमि प्रणाम भी बिना किसी गलती के पूरा हो जाता है।

नाचना मुमकिन है। 'तीन' या 'तीसरे' को लेकर 'तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा' वाली जो अवधारणा थी वो टूट जाती है। तीन ताल ने तीसरी क्लास में हिम्मत दे दी है।

चौथा दिन


मां ज़बर्दस्त आत्मविश्वास के साथ क्लास में आई है। घर में तत्कार का अभ्यास भी किया है। गाड़ी में एफएम पर बजते गानों में बीट पहचाना है, तीन ताल के विभागों में गीत को मन ही मन बांटा भी है। कितना आसान है तीन ताल को समझना!

लेकिन गुरुजी के सवालों का जवाब देना आसान नहीं। उन्होंने बड़ा बेसिक-सा सवाल पूछा है और मां कॉपी में झांकने लगी है। सवाल क्रमलय से जुड़ा है। जवाब मां के पास है नहीं।

"हमारी हर सांस एक लय में चलती है। क्या ये लय दिखाई देती है? लेकिन सांसों की गति से सांसों की लय का पता चलता है। जैसे हमारी सांसें बंधी हैं, वैसे ही लय भी बंधी होती है। जैसे सांसें नज़र आती नहीं, महसूस की जाती है, वैसे ही लय को महसूस किया जाता है। आपको नाचना तबतक नहीं आएगा जबतक आप लय को महसूस नहीं कर सकेंगी।"

मां पर अब दबाव बढ़ गया है। तीन ताल अच्छी तरह समझ लेने के बाद भी तबले पर बजते ठेके पकड़ में ही नहीं आते। तबले में ताल कुछ और है, पैरों की थाप कुछ और बोल निकाल रहे हैं। मां बार-बार रुकती है, बार-बार गलतियां करती है। क्रमलय को समझना मुश्किल है।

गुरुजी बैठ जाने को कहते हैं। तबले की बजाए अब तालियों का सहारा लिया जाता है। हर बोल के बीच पड़ते दम (gap) को सुनाया जाता है। बोल पढ़ते हुए कभी मां की सांस तेज़ चलने लगती है, कभी वो रुक जाती है। सांस लेती है तो बोल आगे निकल पड़ते हैं। सांसों का बोलों से सही सामंजस्य नहीं बन पा रहा है।

''जैसे हमारी सांसें, हमारी धड़कन गिनी हुई है वैसे ही बोल भी गिने हुए हैं। बोलों की ये पूरी रचना, तीन बार पढ़ी जानेवाली ये तिहाई हमारी सांसों की तरह ही एक तय समय के भीतर गिन ली जानी है।"

मां फिर कोशिश करती है। इस बार चक्करदार तिहाई पूरी पढ़ते हुए सांस नहीं फूलती, गलती नहीं होती और मुंह से दाहिने पैर पर गिरती ताली के साथ बोल भी सही निकलते हैं।

मां खड़ी होकर चक्करदार तिहाई पर नाचती है - तिग् दा दिग् दिग्/तिग् दा दिग् दिग्/थेई ता थेई - एक पल्ले को नौ बार करने के बाद ये तिहाई पूरी होती है।

जाते-जाते गुरुजी मां को एक शेर सुनाते हैं - 'उम्र घटती है हरेक सांस नई लेने से/फिर भी इंसां है कि सांस लिए जाता है...'

इस शेर ने अचानक मां को नाचने का, या यूं कहें कि जीने का नया हौसला दे दिया है।


पांचवां दिन

"गुरु अगर आमिल हो, शागिर्द अगर काबिल हो और खुदा अगर शामिल हो तो कला हासिल होती है," मां के क्लास में आते-आते ही गुरुजी ने मां से ये कहा है। मां की आंखों में उतर आए सवालों को देखकर गुरुजी आगे समझाते हैं, ''नाच सीखा देना मेरे अकेले के बस की बात नहीं। इसके लिए दोनों को लगना पड़ता है, और इससे भी बड़ी भूमिका अदा करनेवाली होती है किस्मत, जिसपर ऊपरवाले का बस चलता है। आप सीखना चाहें और मैं सिखाना चाहूं तो भी क्या? अगर ख़ुदा ना खास्ता आपकी तबीयत बिगड़ जाए तो? घर में कोई ज़रूरत आन पड़े तो? आपको दुनियादारी ऐसी उलझाए कि वक्त ना मिल पाए तो?

हे भगवान, गुरुजी को घर में फैले वायरल का पता चल गया है क्या, मां मन ही मन सोचती है।

"लेकिन मेरा और आपका काम मन लगाकर अपने हिस्से की भूमिका निभाते जाना है। आप इसके लिए तैयार हैं ना?"

मां की बांछें खिल जाती है। मां इतनी जल्दी हार नहीं मानना चाहती। कितनी मुश्किल से तो तिहाइयां समझ में आईं हैं! कितनी मुश्किल से एक के बाद एक तिहाई जोड़ते हुए पैर गलती नहीं करते। कितनी मुश्किल से तो उम्मीद जगी है, नाच सिखना इतना भी मुश्किल नहीं।

तिहाई के बाद अब टुकड़ा सीखने की बारी है। पहला टुकड़ा 'नटवरी' है। कृष्ण द्वारा रचाए गए रास के बोलों से बनी रचना सीखने के लिए भादो के महीने के कृष्ण पक्ष से बेहतर मुहूर्त और क्या होगा!

'तत् तत्/तिग् दा दिग् दिग्/तिग् दा दिग् दिग्/तत् तत्/थेई य थेई य क्लान/तत् तत्/तिग् दा दिग् दिग्/तिग् दा दिग् दिग्/तत् तत् थेई' - इतने बोलों पर नाचते-नाचते मां ने कुल 22 बार गलतियां की हैं। इतना कि अब ध्यान नाच की तरफ कम, गलतियां गिनने में ज्यादा जा रहा है।


गलतियों की एक क्वार्टर सेंचुरी पूरी करने के बाद गुरुजी रोककर कहते हैं, ''हम कहते तो हैं कि हम तन-मन-धन से सेवा कर रहे हैं, साधना कर रहे हैं। लेकिन ऐसा होता नहीं है। मन यहां हो नहीं तो आपका आंखें बता देती हैं। और मन यहां हो नहीं तो तन और धन से सेवा किसी काम की होती नहीं।"

मां शर्मिंदा है, कोने में बैठ जाती है और अपने मन से मन का मिज़ाज पूछती है। जवाब मिलता नहीं, मन लगता नहीं, उलझन आज फिर बढ़ गई है।


शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

आजा नच लें (भाग 2)

दूसरा दिन। मां वक्त से पहले ही पहुंच गई है और नोटबुक-कलम निकाल कर तैयार है। मां भी कितनी बेवकूफ है! नाच सीखना है, नाच। नाच नोटबुक में कलम से लिखकर नहीं सीखा जाता है? फिर कैसे सीखा जाता है, मां ने गुरुजी से पूछ लिया है। "पहले ही दिन में सब सीख लेंगी आप?" गुरुजी ने हंसते हुए पूछा है। मां झेंप गई है।

 'कथक किसे कहते हैं?' गुरुजी का पहला सवाल है।

मां हिंदुस्तानी नाच, कथा वाचन, कथ-क और दरबारी नाच जैसे शब्दों से भरकर एक टूटा-फूटा वाक्य कहती है।

'दरबारी है तो इसे शास्त्रीय नृत्य क्यों कहा गया?'

'......,'

मां चुप हो जाती है और विकीपिडिया से आए अपने अधजल गगरीनुमा ज्ञान पर शर्मिंदा है।

'अगर आप सब जानतीं तो मेरे पास क्यों आतीं? सीखने आईं हैं ना, तो कह डालिए कि नहीं आता, नहीं समझती, नहीं  जानती। इससे आपका ही विस्तार होगा, क्योंकि फिर सीखना कारगर होगा। मैं कथक की कोई परिभाषा नहीं लिखा रहा। अगले कुछ महीनों में आप अपनी परिभाषा खुद बनाएंगी। लेकिन फिलहाल, कथक का क, ख, ग सीखिए, ताकि सही परिभाषा गढ़ी जा सके।'

मां का पाठ शुरू हो जाता है - कथक के मूल बोलों 'तत्कार' को ठ, दुगुन, चौगुन और सोलह गुन क्रम लय में ताल देते हुए गुरुजी पहले बोलों को सही लय में - सही बीट के साथ - पढ़ना सीखाते हैं। फिर पहले नाच की बारी आती है। सकुचाती हुई मां गले से फिसलते शिफॉन के दुपट्टे को संभालती खड़ी हो जाती है। खड़े होने पर अचानक awkward शब्द का एकदम सही-सही मायने समझ में आता है। गुरुजी मेरे बगल में भूमि प्रणाम करके दिखाते हैं। मां अचानक सहम जाती है, ये मुझसे नहीं होगा, मेरा शरीर तो इतना लचीला है ही नहीं।

गुरुजी के साथ भूमि प्रणाम सीखने की प्रक्रिया शुरू होती है - दोनों हाथ 'उत्पत्ति' मुद्रा में, हाथों का खुलना, आंखों का हाथों के साथ उसी दिशा में जाना जहां हाथ जा रहे हों, पैरों की लय, झुककर पैरों पर बैठना, पुष्पक, पुष्पक खोलते हुए उठना और वापस उत्पत्ति पर। फॉर्मूला आसान-सा है, लेकिन ग्यारह कोशिशों में एक बार भी मां सही नहीं कर पा रही। गुरुजी बार-बार करवाते हैं, पैर जवाब देने लगे हैं, डिस्क विद्रोह करने को तैयार है। लेकिन गुरुजी हार नहीं मानते। मां का मन भी हार मानने से रोकता है। उसके बाद कई कोशिशों के बाद मुझे गुरुजी अपनी बहू के साथ भीतर भेज देते हैं। वो मुझे एक-एक स्टेप करवाकर समझाती हैं, सीधे खड़ा होना, हाथों का खुलना, पैरों पर बैठना - दो कोशिश में ही मुझमें अचानक सुधार आया है। लेकिन पैरों की हालत खराब है। क्लास खत्म हो गई है और मुझे लगने लगा है कि गुरुजी हाथ खड़े कर देंगे। पत्थरों ने किसी फिल्म में गीत तो गाया है, लेकिन पत्थर को नाच सीखाना आसान है क्या?