मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

इस मुसाफ़िर को रहगुज़र से क्या

मेरे ख्वाब को भाई ने संजीदगी से लिया है। उसे मेरे जीने का बेढब तरीका अक्सर परेशान करता है क्योंकि वो खुद बहुत सुलझा हुआ और समझ से काम लेनेवाला शख्स है। मेरे सपने की डिकोडिंग करते हुए उसे लगता है कि मुझे उसके मैनेजमेंट ज्ञान की सख्त ज़रूरत है। मुमकिन है। मैनेजमेंट स्कूल और मल्टीनेशनल कंपनियों की खिदमत का नतीजा है कि उसका करियर एक तय ग्राफ फॉलो करता है, एक्सपोनेन्शियली बढ़ता हुआ, साल-दर-साल नए रास्ते बनाता हुआ। इस टू-डाइमेंशनल ग्राफ के मुक़ाबले मेरा करियर मल्टीडाइमेंशनल है, जो मेरी मैं नहीं जानती कि मुझे क्या चाहिएवाली सोच का नतीजा हो सकता है।

फिगर आउट द चैलेंजेस। उन्हें कागज़ पर लिखो, मेरे से चार साल छोटा भाई मुझे समझाता है।

आई लाइक। तुमने चैलेंज कहा, प्रॉब्लम नहीं।

डू यू नो वॉट यू वॉन्ट?”

आई नो वॉट आई डोन्ट वॉन्ट।

फेयर इनफ। वो भी लिखो, वो चीज़ें जो तुम्हें नहीं चाहिए।

मैं ये कसरत हज़ारों बार कर चुकी हूं, नतीजा सिफ़र ही होता है, मैं उससे कहना चाहती हूं लेकिन कहती नहीं। वो मेरी मदद करनी की कोशिश कर रहा है, मुझे ध्यान देना चाहिए।

एक महीने में लोग अमूमन कितना काम करते होंगे, पहला सवाल।

हम्म, थोड़ी देर दिमाग में जल्दी से हिसाब लगाने के बाद मैं कहती हूं, अस्सी घंटे?” चार घंटे से ज्यादा कोई क्या काम करता होगा?

180 घंटे, वो एकदम आराम से कहता है। आमतौर पर हम हिंदुस्तानी 180 घंटे काम करते हैं। तुम कितनी देर करती हो?”

इस सवाल का जवाब देना मुश्किल है। अव्वल तो मैं काम में बिताए गए वक्त को क्वालिटेटिवली देखना चाहूंगी, दूसरा – मैं फेसबुक, ब्लॉगिंग, गाने सुनना और कविताएं पढ़ना और लिखना भी काम का ही हिस्सा मानती हूं। ये सब मेरी क्रिएटिव लर्निंग का हिस्सा हैं, मैं उसको बताना तो यही चाहती हूं लेकिन कहती नहीं। खुद पूरी तरह सहमत नहीं हूं इसलिए।

काम को उसके आउटपुट से जज करो। देयर हैज़ टू बी समथिंग टैन्जिबल।

टैन्जिबल यानि ...। लेकिन जहां कोई इम्तिहान ना देना हो, वहां लर्निंग प्रोसेस को कैसे जज करें? दस घंटे का डीटीपी जॉब बनाम एक घंटे की रचनात्मकता, इसे कैसे जज किया जाए? 'काम' क्या है मेरे जैसे फ्रीलांसर्स के लिए?

टाईम मैनेजमेंट। तय करो कि तुम कितनी देर क्या करना चाहती हो। मुझे नहीं मालूम था कि मैनेजमेंट पढ़ने के इतने फायदे हो सकते हैं। प्रोबलम सॉल्विंग स्किल एक वो शय है जो मेरे पास कभी नहीं हो सकती। मुझे उलझने की क्रॉनिक बीमारी है। दिमाग में हिसाब बैठने लगता है – मैं इतनी देर ये काम करूंगी, उतनी देर वो... बच्चों के लिए मेरे पास इतने घंटे होंगे और घरेलू कामों के लिए इतने। सोने के लिए आठ घंटे तो चाहिए ही, और दिन में चौबीस घंटे ही होते हैं।

मेरा सवाल घूम-फिरकर वही है, इन सबके बीच 'मैं' कहां हूं? तमाम सारी ज़िम्मेदारियां हैं, रिश्ते बनाए और बचाए रखने की मशक्कत है, रोज़ी-रोटी का सवाल है, बच्चों के भविष्य की चिंताएं हैं, मनुष्य के सामाजिक प्राणी होने का दारोमदार है। मेरा होना किससे मुकम्मल है? क्या वजूद इन्हीं सब टुकड़ों से बनता है? 

नियर डेथ स्टडीज़ और क्युबलर रॉस मॉडल के लिए मशहूर स्विस मनोचिकित्सक एलिज़ाबेथ क्युबलर रॉस लिखती हैं, 'अपने भीतर की ख़ामोशी से संपर्क में आना सीखो और ये जान लो कि इस जीवन में हर एक चीज़ का एक उद्देश्य है।' लेकिन अपने भीतर की खामोशी बाहर के शोर में कहां सुनाई देती है? 180 घंटे की भाग-दौड़ और जीतोड़ मेहनत ज़रूर एक मुकाम पर ले जाती होगी, लेकिन मैंने रास्ते में रुककर अपने पैरों के छालों की ओर देखा क्या? मुझसे इतनी तेज़ नहीं भागा जाता मेरे भाई, ना सलीका आया है जीने का। इसी बेतरतीबी और बेचैनी में सुकून है। ये बेतरतीबी मेरी रिकवरी प्रोसेस का हिस्सा है। मैं तुम्हारी तरह होना चाहती हूं, ये भी सच है। जानती हूं कि अगर तुम्हारी कही और सिखाई हुई एक चौथाई बातें भी मान लीं तो ज़िन्दगी बन जाएगी। लेकिन मुझे रुक-रुककर, थम-थमकर चलने की आदत है। 

शायद इसलिए ख्वाब का आखिरी हिस्सा माकूल है। सफ़र कहां का है, नहीं जानती। कारवां कौन सा है, ये भी नहीं मालूम। मंज़िल किधर, कैसे बताऊं। चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब...

पोस्टस्क्रिप्ट: एलिज़ाबेथ रॉस के इंटरव्यू का एक हिस्सा कॉपी-पेस्ट कर रही हूं विकीपीडिया से। रॉस ने शायद ये मेरे जैसे आलसी, काम से बचनेवाले लोगों के लिए ही कहा होगा - "स्विट्ज़रलैंड में जिस ढर्रे पर मेरी शिक्षा-दीक्षा हुई उसका मूल आधार एक ही था - काम काम काम। तुम तभी किसी काम के इंसान हो अगर तुम काम करते हो। लेकिन ये पूरी तरह गलत है। आधा काम, आधा नाचना-कूदना - सही मिश्रण तो यही है।"

तो मैं अबतक क्या करती रही हूं? काम? उछल-कूद? उछलते-कूदते काम? काम करते हुए उछल-कूद? 

एक और कोट पढ़ा है आज ही - "The noun of self becomes a verb. This flashpoint of creation in the present moment is where work and play merge." 

~ Stephen Nachmanovitch (Musician, Artist and Author) 

काम और मनोरंजन या उछल-कूद, इन सबके बीच रचनात्मकता बची रहती है, ये जानकर संतोष हुआ है। मैं बची रह जाऊंगी और सफ़र कट जाएगा, इसका यकीन है अब। 180 घंटे नामुमकिन नहीं लगते। थैंक यू भाई!

5 टिप्‍पणियां:

Amrita Tanmay ने कहा…

बढ़िया...

Rahul Singh ने कहा…

खुद को खुद में खोज लेने, पा लेने से ही बन पाती है लय.

वाणी गीत ने कहा…

बेतरतीबी और बेचैनी में सुकून ढूंढ लेने में ही भलाई है !
अच्छा लिखा !

rashmi ravija ने कहा…

उनलोगों से बड़ा रश्क होता है...जो हर काम बड़े तरतीब से कर लेते हैं...बड़े organized होते हैं...यहाँ तो बैकलौग ही ख़त्म नहीं होता...और एक गिल्ट पलता रहता है भीतर...पर सच ये भी है कि..सर पर दस काम बकाया ना हों..तो जीना ही मुश्किल हो जाए...

Arvind Mishra ने कहा…

पढ़कर मन उद्विग्न सा हो गया .... :(