उस एलआईजी फ्लैट में कटनेवाली ज़िन्दगी के अनुभव बयां करने बैठूं तो एक हफ्ता लग जाएगा। लेकिन ये बता सकती हूं कि छोटे शहर से नाक पर गुरूर और ज़िन्दगी को लेकर हसीन ख़्याल लेकर आई लड़की की कई धारणाएं उस एक जगह ने बदल डालीं। 12-14 कमरों का घर, हसीन गुलाबी पर्दे, ढेर सारा स्पेस, अपना बाथरूम, टीवी और म्युज़िक सिस्टम, शॉफर ड्रिवेन एयरकंडीशन्ड एस्टीम, रांची क्लब की हसीन शामें और लॉन में खिलनेवाले पेट्यूनिया, जिनिया, गुलाब और ग्लैड्युला के फूल पीछे छूट गए थे। यहां रोज़-रोज़ की जद्दोजेहद थी। दो कमरों में समाए पढ़ने के लिए दिल्ली आए कई बच्चे और अनगिनत मेहमान थे, दो घंटों के लिए आनेवाला पानी और मदर डेयरी का बेस्वाद दूध था और ढेर सारी उमस और मच्छरों से भरी शामें थीं। रही-सही कसर रेड, ब्लू और ग्रीन लाइन बसों ने पूरी कर दी थी। ऐसा लगता था जैसे किसी राजकुमारी के पैरों के नीचे से मखमली कालीन और सिर पर से भव्य और सुंदर कंगूरों वाली छत खींचकर उसे जून की धूप में पंजाबी बाग के चौराहे पर आज़ादपुर से आनेवाली बस का इंतज़ार करने के लिया खड़ा कर दिया गया हो।
बस भी मिली, मैं कॉलेज भी जाने लगी। लेडी श्रीराम जैसे फैन्सी कॉलेज में अपना टूटा-फूटा गुरूर बचाने के लिए कई मुखौटे ओढ़े, कई रंग बदले। नए शहर में नए लोगों के बीच जीना आसान ना था तो नामुमकिन भी ना था। ये शहर लाखों लोगों को हर दिन आशियाना देता है, मेरे पंखों को परवाज़ क्यों ना देता? हॉस्टल ना मिला तो पेइंग गेस्ट बनकर साउथ दिल्ली में रहने का अनुभव भी हुआ, फिर पचपन खंभों और लाल दीवारों वाला कॉलेज भी एक दिन घर बन ही गया। धीरे-धीरे इस शहर से नाता भी बदलने लगा। लेकिन ये एक लंबी और थका देनेवाली प्रक्रिया थी। ये शहर मुझे बांहें फैलाए बुलाता, मैं अड़ियल और ज़िद्दी महबूबा की तरह मुंह फेर कर नए मुकाम तलाशती।
याद है कि पहली छुट्टियों के बाद लौटते हुए ट्रेन में वॉकमैन पर लूप मोड में बैट्री डाउन हो जाने की हद तक 'छोड़ आए हम वो गलियां' सुनती रही थी और बाथरूम में जाकर नाक सुड़कती रही थी। ये भी याद है कि दिल्ली की परिधि में ट्रेन के दाख़िल होते ही कंटीले बबूल और गंदी यमुना को देखकर दिल डूबने लगता था, मन होता था कि यार्ड तक जाकर इसी ट्रेन में बैठी रहूं और वापस घर चली जाऊं। ये भी याद है कि दिल्ली को बेहतर समझने-जानने की कोशिश में मैंने बक़ायदा दिल्ली पर वर्कशॉप किए, खुशवंत सिंह की निगाहों से वेश्यारूपी दिल्ली को समझना चाहा, तमाम वो कोशिशें कीं कि इस शहर से मुझे मोहब्बत ना हो तो नफ़रत भी ना हो। लेकिन हर तीन महीने पर घर लौट जाने की बेचैनी होती, कैरियर के हर पड़ाव पर रांची जा बस जाने के बहाने ढूंढती। लेकिन ऐसी किस्मत कि लौटकर यही आती, कभी पढ़ाई पूरी करने, कभी नौकरी की तलाश में। दिल्ली को ठुकराने की तमाम कोशिशें नाकाम रहीं और मैं यहीं की होकर रह गई हूं।
पंद्रह सालों में इस शहर ने वो सभी सुख और पहचान दिए, जो एक शहर से आप हासिल कर सकते हैं - क़रीबी दोस्त, नौकरी और नौकरी छोड़ने का भरोसा, फोनबुक में मौजूद सैंकड़ों नंबर, बिना किसी प्लानिंग के कहीं चलते हुए जाने-पहचाने चेहरे मिल जाने का सुख, आज़ादी, अपनी मर्ज़ी का जीवन, ऑटोवालों से उलझने का आत्मविश्वास और हर तरह के मौसम की मार झेलकर भी बचे रह जाने का साहस। इसी शहर ने अनुभवों का टोकरा बगल में ऐसा रखा कि आजतक चुन-चुनकर फूल और कांटे निकाल रही हूं उनसे। सात रुपए में पीवीआर में सामनेवाली रो में बैठकर 'मेन इन ब्लैक' देखी तो पांच सौ रुपये देकर लक्ज़री क्लास में 'द डर्टी पिक्चर' देखने की कुव्वत भी आई। 442 और 724 से सीढ़ियों पर लटकर तीखी धूप में रिंग रोड के पिघलते अलकतरे को देखा तो अपनी गाड़ी रोककर अपने माज़ी को लिफ्ट भी दिया है इसी शहर में रहते हुए। पांच रुपये में रिक्शेवालों के साथ बैठकर छोले-कुलचे का लंच मूलचंद फ्लाईओवर के नीचे किया तो कई वीकेंड्स पर सुबह छह बजे कॉफी पीने के लिए वसंत कॉन्टिनेन्टल और ताज भी गई।
हम कई सारे कच्चे, नासमझ ख्वाब लेकर आए थे यहां। आज पैरों के नीचे ज़मीन है और एक भरोसा भी कि नामुमकिन कुछ भी नहीं होता। दावे के साथ नहीं कह सकती कि इस शहर को पूरी तरह जान-समझ लिया है। ये ज़रूर कह सकती हूं कि इस शहर ने हम जैसे चुन-चुनकर निकाले हैं और मेरी मुकम्मल पहचान इसी शहर की देन है। मैं इस शहर में अपना बुढ़ापा नहीं गुज़ारना चाहती, ना बच्चों को यहीं बसते देखने की ख्वाहिश है। लेकिन तमाम ऐसी दूरियों के बावजूद इस शहर से करीबी रिश्ता बन गया है अब। यहां ट्रैफिक बढ़ता नहीं, ना महिलाएं सुरक्षित हैं इस शहर में। यहां सड़कों पर सांस लेना मुश्किल है, सड़क की पटरियों पर बिना टकराए चलना नामुमकिन। यहां ओवरटेकिंग के झगड़े में गोलियां चल जाती हैं, टोल पर छ्ट्टे मांगो तो मौत मिलती है। लेकिन फिर भी ये शहर दरियादिल है, जीना अपने तरीके से सिखाता है और सबको खुद में कुछ इस तरह समाता है कि अपने-पराए का भेद मुश्किल।
दिल्ली कल राज के सौ साल पूरे कर लेगी। मुझे और तो कुछ सूझता नहीं सिवाय इसके कि एक बार के लिए ये मान ही लूं कि ये शहर ना होता तो वो रास्ते भी ना होते जो इतने सालों में तय किए, ना मंज़िलें होतीं ना उन्हें पार कर लेने का हौसला होता। बाकी, हमें जो मिला, उसकी शिकायतें करना तो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। उन्हें बेशक तड़प लेने दो जिनके लिए दिल्ली दूर है। दिल्ली की बात चली हो और ग़ालिब को याद ना किया तो क्या किया...
'सताइशगर है ज़ाहिद इस क़दर जिस बाग़े-रिज्वां का/वो इक गुलिस्ता है हम बेख़ुदों के ताक़े-निसियां का।'
[ज़ाहिद जन्नत के जिस बाग़ की इस क़दर तारीफ़ करता है वो (दिल्ली) तो हम बेखुदों के ताक़ पर रखा एक गुलदस्ता भर है]
8 टिप्पणियां:
यादें अक्सर ऐसी ही होती हैं, आप ने बेहतरीन ढंग से संजोया तो और भी यादगार बन आयीं.. एक एक लफ्ज, हर एक लाइन अपनी पहचान की नजर आती है.. चाहे ७२४ नंबर की बस हो या मूलचंद फ्लाई ओवर या फिर वो गाना 'छोड़ आये हम वो गलियां' और हर तीन महीने में घर जाने की और वही बस जाने की चाहत और फिर उम्मीद समेटे हुए मन मार कर वापस दिल्ली आना, जैसे गर्मी की छुट्टियों के बाद वापस मन मार कर स्कूल जाना, कदम बेबसी में आगे बड़ते है... लेकिन दूसरा सीन उतना ही हिम्मत देने वाला, राह दिखाने वाला और उन राहों में मजबूती से बड़ते रहने का जज्बा देता है, एक बेहतरीन प्रेरनादायी लेख के लिए शुक्रिया.......
बेदिल दिल्ली की दास्ताँ एंड मेकिंग आफ मिज़ अनु सिंह चौधरी!
मेरा सहज बोध मुझे दिल्ली से हमेशा आगाह करता रहा ..मैं नहीं फंसा इसकी दिल्लगी में ....
हम नहीं चाहते थे कि कुछ ऐसा बीते ...
अभी खा के ठोकर संभालने न पाए , के फिर खाई ठोकर संभलते संभलते
मगर दिल्ली ने तो बहुत कुछ दिया है आपको ,आबाद किया है बर्बाद तो नहीं ही ....
ये दिल्ली रोजनामचा आगे भी सूने की तमन्ना रहेगी
*सुनने
शहरों का अपना व्यक्तित्व होता है, स्नेह हो जाता है उनसे भी।
सधी हुई शैली में बेबाक शब्द चित्रण
घर की दहलीज को पार करने भर की मुश्किल होती है। सुख, आज़ादी, अपनी मर्जी का जीवन, हर तरह के मौसम की मार झेल कर भी बचे रहने का साहस और किसी भी से उलझने का आत्मविश्वास- सब अपने आप दामन में फूल की तरह झरने लगते हैं।
किसी भी शहर को पूरी तरह समझ लेना मुमकिन नहीं। लेकिन इस अधूरेपन में ही वे कच्चे और नासमझ ख्वाब पलते हैं, जो हमारे कदमों को खींच कर किसी शहर में लाते हैं, और हम उसके बाशिंदे इस कोशिश में किसी धुन की तरह फिर से एक नए नासमझ ख्वाबों की दुनिया में कदम-दर-कदम उसे पूरी तरह जान-समझ लेने के लिए जान लगा देते हैं। अधूरेपन का अपना सुख है। हो सकता है इसका दुख कई बार पूरा होने जाने के अहसासों का सपना बतौर मजबूरी सौंप जाता है। लेकिन अधूरेपन से लड़ने का मौका मिलता है। लड़ने से भरोसा और फिर पैरों के नीचे वह जमीन भी, जहां से अपनी बनाई वह दुनिया बहुत प्यारी लगती है, जहां अपना सुख, आज़ादी, अपनी मर्जी का जीवन, हर तरह के मौसम की मार झेल कर भी बचे रहने का साहस और किसी भी से उलझने का भरोसा हो।
बेहतरीन और सार्थक पोस्ट.....
गज़ब की शैली!
धड़धड़ पढ़ता चला गया, गोया बैठा हूँ किसी सुपर फास्ट ट्रेन में।
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