मुझे टीवी प्रो़डक्शन पढ़ाने के लिए बुलाया गया है। दस क्लासेज़ के दस मो़ड्युल्स में वो सबकुछ समेटना है (और सिखाना भी है) जो आप टीवी में दस सालों तक रहकर भी नहीं सीख पाते। मैं एक छोटे-से अभ्यास के साथ क्लास शुरू करती हूं। ब्रॉ़डकास्ट में अपना भविष्य तलाश कर रहे छात्रों को उनके पसंदीदा कार्यक्रम के बारे में लिखने को कहती हूं, 100 शब्दों में। 23 में से 8 एनडीटीवी इंडिया के 'रवीश की रिपोर्ट' पर अपनी टिप्पणी देते हैं, 3 आजतक पर आनेवाली 'सीधी बात' को अपना पसंदीदा कार्यक्रम बताते हैं, दो ने 'बिग बॉस' के बारे में लिखा है तो ज़्यादातर लड़कियां आईबीएन 7 पर ऋचा अनिरुद्ध के कार्यक्रम 'ज़िन्दगी लाइव' जैसे कार्यक्रम पसंद करती हैं और वैसा ही कुछ बनाना चाहती हैं। लेकिन एक और कार्यक्रम है जो क्लास में भी टीआरपी के लिहाज़ से इन सभी को मात दिए है - इंडिया टीवी पर आनेवाला 'आपकी अदालत'।
आख़िर ऐसी क्या बात है रजत शर्मा के इस कॉन्सेप्ट में, जो सोलह-सत्रह सालों बाद भी ये कार्यक्रम इतना लोकप्रिय है? नेता हों या अभिनेता, बाबा रामदेव हों या राखी सावंत, रजत शर्मा की अदालत में सब कठघरे में घिरते नज़र आते हैं। ऐसा क्या है इस शख्स में जिसने भारतीय टेलीविज़न की शक्ल बदल डाली? मुझे एक बड़ा दिलचस्प वाकया याद आ रहा है। 1997-98 की बात रही होगी, 'आपकी अदालत' ज़ी पर ख़ासा लोकप्रिय हो चला था। मैं तब लेडी श्रीराम कॉलेज में थी, ग्रैजुएशन का दूसरा साल था। कॉलेज में तब एक "Academic Forum" हुआ करता था जो हर गुरुवार को किसी भी क्षेत्र की जानी-पहचानी हस्ती को छात्राओं से रूबरू होने के लिए बुलाया करता था। फोरम के चार कन्वीनरों में से एक मैं भी थी। मुझे याद नहीं कि रजत शर्मा को बुलाने का आइडिया किसके दिमाग में आया। लेकिन मैं झूठ नहीं बोलूंगी। मुझे पूरा यकीन था कि एक निजी चैनल पर इस तरह का कार्यक्रम (वो भी हिंदी में! ) पेश करनेवाले किसी पत्रकार को सुनने के लिए लड़कियां तो नहीं ही जमा होंगी, कम-से-कम एलएसआर में तो बिल्कुल नहीं। बुलाना था तो स्टार न्यूज़ से किसी को बुलाते (एनडीटीवी तब स्टार न्यूज़ के लिए कॉन्टेन्ट बनाया करता था)। राजदीप सरदेसाई को बुलाया होता। वीर संघवी आ सकते थे। अंग्रेज़ी अख़बार के किसी और संपादक को बुलाते। रजत शर्मा को सुनने कौन आएगा?
बहरहाल, हमने पूरे कॉलेज में पोस्टर लगा दिए। जहां-जहां नोटिस डालना था, डाल दिया गया। किसी एक कन्वीनर को वक्ता का परिचय देने की और दूसरे कन्वीनर को धन्यवाद ज्ञापन की ज़िम्मेदारी दी जाती। मुझे दोनों में से कोई काम नहीं मिला था और मैं इत्मीनान से ऑडिटोरियम में बैठकर कार्यक्रम शुरू होने का इंतज़ार करती रही। रजत शर्मा आए, हमारे बीच से एक कन्वीनर ने चिकनी-चुपड़ी भाषा में उनका परिचय देना शुरू किया। श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स से पढ़ाई की, 'ऑनलुकर', 'द संडे ऑबज़र्वर' और 'द डेली' के साथ जुड़े रहे, देश के सबसे कम उम्र के संपादकों में से एक, और अब टीवी पत्रकार हैं। 'आपकी अदालत' का हल्का-फुल्का ज़िक्र ही आया। ये शायद तब का समय रहा होगा जब उन्होंने ज़ीटीवी छोड़कर अपना प्रोडक्शन हाउस शुरू ही किया था।
रजत शर्मा ने अंग्रेज़ी में बात करना शुरू किया, सधी हुई भाषा, लेकिन लहज़े में अंग्रेज़ियत नहीं। और अचानक उन्होंने खुद ही अपने बारे में बताना शुरू किया। मुझे याद है कि अंग्रेज़ी बोलते-बोलते उन्होंने हिंदी में बोलना शुरू कर दिया - शायद अपने बचपने की तंगहाली के बारे में कुछ बता रहे थे। दिल्ली में रहे, दिल्ली में पढ़े, लेकिन कई भाई-बहनों के बीच दिल्ली में हर दिन एक संघर्ष था, कुछ ऐसा कहा था उन्होंने। कुछ लाइनें तो मुझे वैसी की वैसी ही याद हैं - "ये जो मोटा चश्मा देख रहे हैं ना मेरी आंखों पर, दरअसल ये रेलवे स्टेशन की स्ट्रीट लाईट के नीचे पढ़-पढ़कर इम्तिहान देने का नतीजा है।" उनकी कहानी सुनते हुए कॉलेज ऑडिटोरियम में गहरा सन्नाटा था। "अंग्रेज़ी तो मुझे आती ही नहीं थी, वो तो कॉलेज के दोस्तों ने सिखाई। मैं आप लोगों की तरह किसी पब्लिक स्कूल, किसी कॉन्वेंट में नहीं पढ़ा।" और इतना कहते-कहते रजत शर्मा फिर अंग्रेज़ी में अपनी बात कहने लगे। कैसे कॉलेज में अरुण जेटली, विजय गोयल जैसे छात्र नेताओं से दोस्ती हुई, कैसे इमरजेंसी के दौरान उनमें भारतीय राजनीति की गहरी समझ और रुचि पैदा हुई, कैसे पत्रकारिता में रिसर्चर बनकर आए, कैसे रिपोर्टर बने और कैसे प्रीतिश नंदी जैसे पत्रकारों के साथ चंद्रास्वामी का सच उजागर किया। लेकिन ये कहना पड़ेगा कि पूरे चालीस मिनट रजत शर्मा ने दर्शकों को बांधे रखा और जीवन के कुछ अनमोल संदेश (Do what you believe in.) के साथ जब उन्होंने बोलना ख़त्म किया तो लड़कियां ज़ोर-ज़ोर से तालियां बजा रही थीं। बिना किसी तैयारी के मुझे धन्यवाद ज्ञापन के लिए भेज दिया गया - In Hindi and English, both, मुझसे किसी ने कहा और मैं जाने क्या बोलकर मंच से उतर आई। शायद विपरीत परिस्थितयों से जूझने और प्रेरणा-स्रोत होने जैसा कोई घिसा-पिटा जुमला इस्तेमाल किया था मैंने। रजत शर्मा से पत्रकारिता का गुर सीखने के लिए कई लड़कियां उनके पीछे-पीछे विज़िटर्स रूम तक गई थी। झूठ नहीं बोलूंगी, उनमें से एक मैं भी थी। मुझे हिंदी और अंग्रेज़ी पर उनकी ज़बर्दस्त पकड़ ने बेहद प्रभावित किया था और स्ट्रीट लैंप वाली बात तो ज़ेहन में कई दिनों तक रही थी।
इसी रजत शर्मा को हमने बाद में जीभर कर कोसा भी। इंडिया टीवी का कॉन्टेन्ट हमारी कई औपचारिक-अनौपचारिक चर्चाओं में मज़ाक का विषय बना। इंडिया टीवी टाइप के सुपर्स, हेडलाइन्स पर हम हंसते भी थे (ये 2004-2005 की बात है)। लेकिन इसी इंडिया टीवी ने न्यूज़ के मायने बदले, टीआरपी की नई परिभाषा तय की और टीवी के दिग्गजों को ठेंगा दिखाते हुए शीर्ष पर ऐसा कायम हुआ कि खिसकाना मुश्किल।
पढ़ाने के दौरान ही हमने एक और अभ्यास किया क्लास में - कॉन्सेप्ट नोट लिखने का। कुछ छात्रों के कॉन्सेप्ट कुछ ऐसे थे - 'एलियन्स, सच या फ़साना', 'योग भगाए रोग', 'फ़ैशन के पीछे का सच'। मैं मन-ही-मन इन्हें इंडिया टीवी लायक कॉन्टेन्ट करार देती रही, लेकिन सच तो ये ही कि अब तकरीबन सभी टीवी चैनल इसी ढर्रे पर चल पड़े हैं। जो शख़्स अगली पीढ़ी को भी इस क़दर प्रभावित कर रहा है उसमें कोई बात तो होगी ही!
4 टिप्पणियां:
संस्मरण हमारे के अतीत के दस्तावेज होते हैं. मैं सोचता हूँ कि समय का क्षय नहीं होता उसका आरोहण होता है. समय वर्तुल में नहीं चलता कि लौट कर कहीं आ सके इसलिए हम उन बीते हुए पलों से उसे खोज कर लाते हैं.
इस संस्मरण में एकांगी प्रश्न मुखरित है. उसके उत्तर के लिए बहुत सारी भिन्न स्थितियों और सरोकारों के बारे में बात करनी होगी. मैं इससे बचते हुए आपको इस बात के लिए बधाई देना चाहता हूँ कि आपने बहुत जल्दी लेखन के लिए खुद को तैयार करना शुरू कर दिया है.
शुभकामनाएं.
अच्छा लगा यह संस्मरण पढ़ कर. रजत शर्मा की आपकी अदालत याद है आज से ११-१२ साल पहले की. यहाँ इंडिया टीवी आता नहीं तो कभी देख नहीं पाते. लेकिन उनके बारे में जानना अच्छा लगा.
मीडिया का अपना ही एक आकर्षण है...कुछ रहस्यमय....कुछ चमकीला .....कुछ जुझारूपन .....कुछ विवाद ...कुछ जुनून ....कुछ दीवानापन ....कुछ सफेद ....कुछ काला .... बहरहाल रजत जी के बारे में जानकर अच्छा लगा .....इस क्षेत्र में आपके उज्जवल भविष्य की शुभकामनायें.
अच्छा संस्मरण है। रजत शर्मा के बारे में भी कुछ पता चला। लेकिन यह भी लगा एक बारगी कि आदमी प्रसिद्ध होने के बाद अपने अभाव के दिन के किस्से सुनाने से चूकता नहीं। मुक्तिबोध सही ही कहते थे शायद- दुखों के दागों को तमगों सा पहना!
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