यही तो बच्चों का असली घर है
मां कहती हैं।
खुल जाते हैं चरमराते हुए दरवाज़े,
सीलन-भरे कमरों से
निकलते हैं गुज़रे ज़माने के पन्ने।
छत से लटकता कोई झाड़फानूस नहीं
लेकिन कोने में कांच के टूटे टुकड़े हैं।
सालों की धूल है कढ़ाई वाली चादर पर,
कुर्सी है कि खिसकाओ तो रो देती है।
दीवारों की नक्काशी पर जमी है काई,
एक पीपल कमरे में घुसपैठिया है।
इस आंगन में कभी बच्चे खिलखिलाते थे,
सूखे हुए आम की टहनी हमसे कहती है।
वो कोने में देखो, रसोई है जहां
सौ-सौ जनों के पेट की तपिश का थी इलाज।
मिट्टी के चूल्हे आग को तरसते हैं अब तो,
छत ढह गई है, फर्श भी तो धंस गई है।
खाली पड़ी हैं दूध की भी हांडियां,
कांसे-पीतल के बर्तनों की अब कौन सुने।
ठूंठ-से रह गए हैं पेड़ बगीचों के अब,
ना आम मीठे रह गए हैं और ना ही बोलियां।
ये पेड़ देखो, हरसिंगार-सा लगता है।
फूल खिलते थे, ये भी तो लहकता होगा।
यहां पीछे हुआ करती थी एक गौशाला,
दूध-दही से तो भंडार भरा रहता था।
शुद्ध घी में बना करते थे लड्डू बेटा,
पूरा गांव उस खुशबू से महकता होगा।
इन खेतों में लहलहाती थीं फ़सलें,
ज़मीन कहते हैं, हीरे उगाया करती थी।
इस पोखर से आती थीं सोने-सी मछलियां,
छठ में पूरा कुनबा यहां जमता था।
पोखर में नहीं है एक बूंद पानी,
आंखों के आंसू भी तो अब
बात-बात पर छलकते नहीं हैं।
इस दरवाज़े पर सजते थे घोड़े-हाथी,
हर रोज़ जैसे लगती थी एक बारात।
दुआर पर खड़ी बाबा की फीटन
टुकड़ों-टुकड़ों में खड़ी अब कबाड़ लगती है।
घर खंडहर लगता है, क्या कहूं तुमसे
ये पुश्तैनी जायदाद उजाड़ लगती है।
मैं अपने दिल की भी कैसे कहूं आपसे मां,
बच्चों को मैंने सौंपी है कैसी थाती।
एक दौड़ता-भागता शहर सौंपा है,
और बोझ डाला है अपेक्षाओं का कंधों पर।
आप माज़ी को लिए ढोती हैं, देखिए ना मां,
मैं भी तो कल को लिए फिरती हूं माथे पर।
ज़माने-ज़माने की बात है ये, क्या बोलूं,
हम दोनों की ही तो एक-सी दुखती रग है।
6 टिप्पणियां:
सीधे उतर गई भीतर यह रचना...
एक पीपल कमरे में घुसपैठिया है।
क्या गजब कहा!!
घर खंडहर लगता है, क्या कहूं तुमसे
ये पुश्तैनी जायदाद उजाड़ लगती है।
हकीकत बयाँ कर दी।
छत से लटकता कोई झाड़फानूस नहीं
लेकिन कोने में कांच के टूटे टुकड़े हैं।
हृदयस्पर्शी! वर्षों से वीरान पडे पैतृक घर को देखा तो लगभग यही भाव आये थे।
इन सालों में पढ़ी गयी कविताओं में ये सबसे बेहतरीन है. जीवन की जटिलता को सहजता से लिखना, चीज़ों को उनके आकार की जगह आत्मा से देखना, वक्त को कुदरत से नापना, उम्र को कांसे पीतल के बर्तनों की शक्ल में देखना...
कि अनमोल सब - कुछ था कि सब कुछ बदल गया है और ठीक इसी दर्द से हर एक पीढ़ी को गुज़रना होता है. हमारी अनुभूतियाँ जुड़ती जाती है नए दौर की चीज़ों से मगर छू नहीं पाते किसी की भी आत्मा कि यही ज़माने ज़माने की बात है... एक खूबसूरत बात...
कोई डेढ़ साल पहले लिखी हुई इस कविता को फिर से पढ़ना कितना अच्छा होता है.
अद्भुद है। आप इतनी अच्छी कविता भी लिखती हैं, मालूम न था। इस कविता में मुझे गीत के कुछ तत्व दिखते हैं, अगर थोड़ा संशोधन किया जाए तो किसी पीरियड मूवी के लिए गीत बन सकते हैं। सोचिएगा कभी।
वाकई अच्छी कविता है। बधाई व शुभकामनाएं।
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