बच्चों ने खेलते-खेलते अपनी उंगलियां
मेरी हथेलियों में फंसाई हैं।
तभी मेरे ज़ेहन में
एक बात कौंध आई है।
कैसे गुज़रे ये साल,
क्यों हो इसका मलाल।
जब बिटिया मेरी आंखों में झांक
बड़े प्यार से मुस्कुराई है।
कभी बांहों को मैंने
झूला बनाया है।
कभी दोनों को कंधों पर बिठाया है।
कभी मीठी-सी थपकी से
तेरे लिए नींदिया बुलाई है।
कभी खाने को मनुहार किया,
और शिद्दत से प्यार किया।
कभी टॉफियों की लालच में
मैंने तुम्हें कड़वी दवा पिलाई है।
तुम बुढ़ापे की उम्मीद भी,
कुछ कर गुज़रने की ज़िद भी।
तुम्हारे लिए कई बार मैंने
अपनों से की लड़ाई है।
मां की तरह मंदिर में जुड़ते हाथ,
व्रतों, त्यौहारों में तुम्हारी बात।
मेरी नसीहतों, हरकतों में भी तो
मेरी मां ही उतर आई है।
जैसे मां के घोंसलों से उड़े हम,
और एक नई दुनिया से जुड़े हम,
वैसे ही खाली होंगे हमारे भी घोंसले,
ये सोचकर जाने क्यों मेरी आंखें भर आईं हैं।
मेरी हथेलियों में फंसाई हैं।
तभी मेरे ज़ेहन में
एक बात कौंध आई है।
कैसे गुज़रे ये साल,
क्यों हो इसका मलाल।
जब बिटिया मेरी आंखों में झांक
बड़े प्यार से मुस्कुराई है।
कभी बांहों को मैंने
झूला बनाया है।
कभी दोनों को कंधों पर बिठाया है।
कभी मीठी-सी थपकी से
तेरे लिए नींदिया बुलाई है।
कभी खाने को मनुहार किया,
और शिद्दत से प्यार किया।
कभी टॉफियों की लालच में
मैंने तुम्हें कड़वी दवा पिलाई है।
तुम बुढ़ापे की उम्मीद भी,
कुछ कर गुज़रने की ज़िद भी।
तुम्हारे लिए कई बार मैंने
अपनों से की लड़ाई है।
मां की तरह मंदिर में जुड़ते हाथ,
व्रतों, त्यौहारों में तुम्हारी बात।
मेरी नसीहतों, हरकतों में भी तो
मेरी मां ही उतर आई है।
जैसे मां के घोंसलों से उड़े हम,
और एक नई दुनिया से जुड़े हम,
वैसे ही खाली होंगे हमारे भी घोंसले,
ये सोचकर जाने क्यों मेरी आंखें भर आईं हैं।
5 टिप्पणियां:
तुम बुढ़ापे की उम्मीद भी,
कुछ कर गुज़रने की ज़िद भी।
तुम्हारे लिए कई बार मैंने
अपनों से की लड़ाई है।
मां की तरह मंदिर में जुड़ते हाथ,
व्रतों, त्यौहारों में तुम्हारी बात।
मेरी नसीहतों, हरकतों में भी तो
मेरी मां ही उतर आई है।
कंधे पर बिठा के खपरैल की मुंडेर
के पीछे .इन्हीं हाथों से दिखा - दिखा के
चंदामामा को, गौरैया को, कबूतर को..,
न जाने कितनी बार, दिन में - रात में,
कटोरी और गिलास से दूध पिलाया था.
माँ जिसे दिखता नहीं अब मोटे चश्मे से भी,
हर चीज पहचानती है वह, बस आभास से..,
एहसास से.., उसके होने के विश्वास भर से.
किन्तु, ...माँ को सब...दीखता है.....,
बहुत स्पष्ट दिखता है, सैकड़ो मील दूर से...
मेरा बेटा, मेरी बहू, मेरे नाती - पोते..,
क्या कर रहें हैं? ..कैसे खेल रहें हैं?
कौन सो रहा है? ..कौन रो रहा है?
कौन है बीमार ? .और कौन है परेशान?
बिल्कुल सही कहा है आपने। दिल को छुती हुई रचना। संसार के सारे मॉं बाप बच्चों के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहते है। पर उम्र के एक मोड. पर आकर वे उनके लिए बोझ क्यो बन जाते है।
हृदयस्पर्शी कविता...मन में गहराई तक उतर गई।
जैसे मां के घोंसलों से उड़े हम,
और एक नई दुनिया से जुड़े हम,
वैसे ही खाली होंगे हमारे भी घोंसले,
ये सोचकर जाने क्यों मेरी आंखें भर आईं हैं।
आँखें नम हो गयी अपने घोंसले तो खाली हो चुके है। बस बेटी होने का यही दर्द सालता है। अच्छी भावपूर्ण रचना। शुभकामनायें
कहते है की ग़ालिब का है अंदाजे बयां और !
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