(जनवरी)
कुछ और वक़्त निकला,
एक और साल गुज़रा।
जनवरी की ठंड में भी
देखो, लम्हें कैसे पिघलते हैं।
(फरवरी)
घर आओ सूरज दादा,
पकडूं मैं धूप का एक कोना
जब उसका रंग गुलाबी हो,
सीधे मेरे घर आती हो।
छन-छनकर फरवरी बिखरे
बच्चों का ज्यों हंसना-रोना।
(मार्च)
ये मौसम है जलते जंगल का
जब पलाश आग लगाता है
सुर्ख लाल फूलों से
होली की मांग सजाता है।
मार्च, तुम्हारे गालों पर भी
आओ, टेसू के रंग मल दूं मैं।
(अप्रैल)
गुलमोहर की छांव-सा है अप्रैल,
थोड़ा नर्म भी, थोड़ा गर्म भी।
अमलतास-सी फितरत उसकी,
रंग सुनहरा,
पर छुओ तो
पत्तों के संग झड़ जाएगा।
(मई)
कहां से आई है ये गर्मी,
मई तुम किससे जलती हो?
लाई कहां से आग सीने की
क्यों अंगारों पर चलती हो?
(जून)
जून, तुम्हारी करूं शिकायत?
बरखा को वापस भेज दिया है
सूरज का पकड़ा है दामन,
दुनिया को बेहाल किया है।
(जुलाई)
कानों में घूंघरू बजते हैं
जब बरखा थिरककर आती है
जुलाई संग यहीं ठहरना,
बदरा बिदेसी।
(अगस्त)
झूम-झूमकर आई बरखा,
अगस्त की कलाई पर बांधी राखी,
एक वादा भी लिया बादलों से,
कि कहीं पर कोई सितम ना ढाएं।
वादे? वादे तो तोड़ने के लिए होते हैं।
(सितंबर)
आता है चुपचाप सितंबर,
नहीं किसी से कुछ है कहता।
कभी बना बादल का संगी,
धूप के साथ कभी है रहता।
(अक्टूबर)
खिड़की पर झूलते आम के पत्ते
कैसे सर-सर बतियाते हैं।
अक्टूबर,
मैंने ऐसे तो तुम्हें जादू करते पहले नहीं देखा।
(नवंबर)
आया है खुशनुमा नवंबर,
बक्सों से निकले हैं स्वेटर।
चौपालों पर भीड़ जमी है,
धूप की हमको लत लगनी है।
(दिसंबर)
कहां से आई है ये पछुआ
हाड़ कंपाती लाई सर्दी,
गुज़रा देखो वहां दिसंबर
यादों से झोली फिर भर दी।
हुआ खत्म ये बारहमासा,
साल नया फिर से आएगा।
रंग बदले फिर से धरती,
पहिया ये चलता जाएगा...
कुछ और वक़्त निकला,
एक और साल गुज़रा।
जनवरी की ठंड में भी
देखो, लम्हें कैसे पिघलते हैं।
(फरवरी)
घर आओ सूरज दादा,
पकडूं मैं धूप का एक कोना
जब उसका रंग गुलाबी हो,
सीधे मेरे घर आती हो।
छन-छनकर फरवरी बिखरे
बच्चों का ज्यों हंसना-रोना।
(मार्च)
ये मौसम है जलते जंगल का
जब पलाश आग लगाता है
सुर्ख लाल फूलों से
होली की मांग सजाता है।
मार्च, तुम्हारे गालों पर भी
आओ, टेसू के रंग मल दूं मैं।
(अप्रैल)
गुलमोहर की छांव-सा है अप्रैल,
थोड़ा नर्म भी, थोड़ा गर्म भी।
अमलतास-सी फितरत उसकी,
रंग सुनहरा,
पर छुओ तो
पत्तों के संग झड़ जाएगा।
(मई)
कहां से आई है ये गर्मी,
मई तुम किससे जलती हो?
लाई कहां से आग सीने की
क्यों अंगारों पर चलती हो?
(जून)
जून, तुम्हारी करूं शिकायत?
बरखा को वापस भेज दिया है
सूरज का पकड़ा है दामन,
दुनिया को बेहाल किया है।
(जुलाई)
कानों में घूंघरू बजते हैं
जब बरखा थिरककर आती है
जुलाई संग यहीं ठहरना,
बदरा बिदेसी।
(अगस्त)
झूम-झूमकर आई बरखा,
अगस्त की कलाई पर बांधी राखी,
एक वादा भी लिया बादलों से,
कि कहीं पर कोई सितम ना ढाएं।
वादे? वादे तो तोड़ने के लिए होते हैं।
(सितंबर)
आता है चुपचाप सितंबर,
नहीं किसी से कुछ है कहता।
कभी बना बादल का संगी,
धूप के साथ कभी है रहता।
(अक्टूबर)
खिड़की पर झूलते आम के पत्ते
कैसे सर-सर बतियाते हैं।
अक्टूबर,
मैंने ऐसे तो तुम्हें जादू करते पहले नहीं देखा।
(नवंबर)
आया है खुशनुमा नवंबर,
बक्सों से निकले हैं स्वेटर।
चौपालों पर भीड़ जमी है,
धूप की हमको लत लगनी है।
(दिसंबर)
कहां से आई है ये पछुआ
हाड़ कंपाती लाई सर्दी,
गुज़रा देखो वहां दिसंबर
यादों से झोली फिर भर दी।
हुआ खत्म ये बारहमासा,
साल नया फिर से आएगा।
रंग बदले फिर से धरती,
पहिया ये चलता जाएगा...
4 टिप्पणियां:
बहुत सुंदर हर ऋतु हर माह का वर्णन....
बड़ी अलग सी रचना है... बारहमास के रंग समेटे
भारत की बारहमासी ऋतुएं,
एक पन्ने पर, चंद शब्दों में वर्णित,
खुबसूरती कविता की नहीं, उन भावनाओं की है
जो आपके मन में पनपीं, उपजीं, पल्लवित हुईं
और अब हमारी नजरों के समक्ष प्रस्तुत हुईं.
बधाई, शुभकामनाएं
मोनिका जी और संज्ञा जी, बहुत शुक्रिया।
.
अनु जी,
हर महीने को बखूबी , बखाना है आपने। हर मॉस की अपनी एक खुशबू आपकी रचना में दिखाई दे रही है....
मेरा तो महिना है श्रावण का , वोही सबसे ज्यादा लुभाता है मन को।
इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए आपका आभार एवं शुभ कामनाएं।
दिव्या।
.
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