आद्या और आदित की किताबों का बंडल किसी ने प्रगति मैदान स्टेशन की एक्स-रे मशीन से उठा लिया। ये वो सदमा है जिससे मैं अभी तक उबर नहीं पाई हूं।
मेरे बच्चे बहुत नॉन-डिमांडिंग हैं, और बहुत समझदार। इस बात का मुझे फख़्र है। उनकी ख़्वाहिशें बड़ी छोटी छोटी होती हैं। आदित अपनी साइकिल के लिए पिछले कई महीने से पैसे जमा कर रहा है। आद्या अपने पैसे सहेज कर रखती है और किताबें या स्टेशनरी खरीदती है उससे। ये पैसे नानी-दादी के हाथों से मिला आशीर्वाद होते हैं, या मामा-मामी के दिए तोहफ़े। अभी इतने छोटे हैं कि इन्हें पॉकेट मनी मिलती नहीं। तो आद्या अपनी पॉकेट मनी कमाने के लिए काम तक करने को तैयार होती है। दोनों बच्चों ने मिलकर एक सिटी क्लब बना रखा है। सिटी क्लब में सिर दर्द, कमर दर्द वगैरह के लिए मालिश या चंपी का प्रावधान है। बच्चे अपनी तरफ से सेवा करते हैं औऱ बदले में बीस रुपए अपनी पॉकेट मनी में जुड़वाते जाते हैं। जिस दिन आया नहीं आती, उस दिन मेज़ साफ़ करना, झाड़ू लगाना, डस्टिंग कर देना - इन सारे कामों में उन्हें मज़ा आता है और इसके बीस रुपए भी उनकी पॉकेट मनी में जुड़ते चले जाते हैं।
मेरे घर में टीवी नहीं है। मेरे पास स्मार्ट फोन नहीं है। हमने आईपैड नहीं रखा, और हमारे पास टैबलेट नहीं है। एक इंटरनेट है बस, जिसकी वजह से यूट्यूब है और दो गाड़ियां है जिनकी वजह से एफएम रेडियो है। बच्चों के इकलौता शौक फ़िल्में देखना हैं। आदित गूगल मांगता है, वो भी ये देखने के लिए कि संजय लीला भंसाली ने कौन सी फिल्म किस साल में बनाई थी और रोहित शेट्टी की किस फिल्म की कमाई कितनी है। दोनों ने अभी तक कपड़ों को लेकर ज़िद नहीं की। जूते जब और जैसे खरीद दिए गए हैं, दोनों पहन लेते हैं। खिलौनों के लिए छुटपन से लेकर अब तक इन्होंने कभी ज़िद की हो, ऐसा मुझे या मेरे परिवार में किसी को याद नहीं। चॉकलेट किसी ने दे दिया तो सहेज कर रखा और खा लिया। वरना दुकान में जाकर ये भी नहीं कहा कि चॉकलेट खरीद दो। आइसक्रीम की दुकान के बाहर पूछते हैं किसी बड़े से, क्या मेरा गला ठीक है? क्या मैं आइसक्रीम खा लूं? न कह दो तो बहस नहीं करेंगे। उन्हें मालूम है उन्हें कौन सी चीज़ नुकसान पहुंचाती है।
ऐसे बच्चे जब किताबें खरीदने को कहते हैं तो मैं मना नहीं कर पाती। तब भी जब इनकी किताबें कई बार हफ़्तों नहीं खुलती। तब भी जब जेरॉनिमो स्टिलटन की सीरिज़ से मुझे सख़्त नफ़रत है या फिर ऐवेन्जर सीरिज़ के होने का मतलब ही मुझे नहीं समझ आता। लेकिन चूंकि इसी एक चीज़ में indulge करते हैं, इसलिए मना करना सही नहीं होता।
तीन दिन से कह रहे थे दोनों कि बुक फ़ेयर चलना है। शनिवार दिन तय किया और आदित के आई चेकअप के बाद हम नोएडा से दरियागंज, और दरियागंज से होते हुए प्रगति मैदान पहुंच गए। बच्चों ने पता कर रखा था कि उनकी किताबें कहां मिलेंगी। सो हम सीधे पहले चिल्ड्रेन्स पैवेलियन गए, और फिर हॉल नंबर सेवेन जहां उनके मतलब की किताबें होतीं। हमने ख़ूब सारी किताबें खरीदीं - बच्चों के लिए, उनके दोस्तों के लिए जो बर्थडे में तोहफ़े में दी जातीं। बच्चे घूम घूमकर अपने पसंद की दुकानों में जाते रहे, अपने लिए किताबें उठाते रहे।
हॉल नंबर बारह की हलचल से उन्हें कोई मतलब नहीं था। वहां मम्मा के मतलब के लोग थे, उनके मतलब की किताबें थीं। पुस्तक मेला सिर्फ़ किताबें देखने या खरीदने का बहाना नहीं होता। अब तो पुस्तक मेला लोगों से मिलने की जगह बन गया है - आपके लिक्खाड़ और पढ़ाक होने का सबूत। मैं कॉलेज के ज़माने से पुस्तक मेला जाती रही हूं। हर साल पूरा एक दिन सिर्फ़ और सिर्फ़ मेले के नाम होता था। इंटरनेट का ज़माना था नहीं, और न मोबाइल फोन का। तो भूले भटके अपने किसी दोस्त से टकरा गए तो वो अलग किस्म का थ्रिल होता था। हम किताबें सूंघते, उन्हें छूकर देखते। लेकिन उठाते सिर्फ़ राजकमल और रूपा के पेपरबैक्स थे। बाकी किताबें लाइब्रेरी में मिल जाया करती थीं। साठ रुपए से ज़्यादा की किताबें खरीदने की औकात थी नहीं और कुल बजट शायद ही तीन सौ पार करता था जिसमें फूड कोर्ट का लंच और डीटीसी का टिकट - दोनों शामिल होते।
हम पुस्तक मेला या लिटरेचर फेस्टिवल में होना एक किस्म का स्टेटस सिंबल बन गया है। हम तस्वीरें खींचते हैं और उन्हें सोशल मीडिया पर डाल देते हैं, जैसे पुस्तक मेले में होने का वही एक मकसद हो। हम दोस्त-यारों से मिलने जाते हैं वहां। उन्हें हैलो बोलते हैं, नंबर एक्सचेंज करते हैं और फिर वैसे ही टउआते हुए चले आते हैं।
मैंने कल बुक फ़ेयर में होना इसलिए इतना एन्जॉय किया क्योंकि मैं बच्चों के साथ उनके तरीके से भटकती रही थी। दौड़-दौड़ के हॉल में अपने पसंद के स्टॉल्स में जाना और वहां घंटों किताबें निहारना - बच्चे इसी शौक़ के साथ गए थे। उन्हें अपना स्टेटस नहीं बढ़ाना था। उनकी मां की तरह उनकी किताबें डिस्प्ले के लिए नहीं खरीदी जातीं। उनकी किताबें वाकई इसलिए खरीदी जाती हैं क्योंकि उन्हें वाकई मज़ा आता है।
बच्चों के लिए थ्रिल बड़े छोटे छोटे होते हैं। उन्हें चेहरों से कोई वास्ता नहीं होता। वे अक्सर नाम भी भूल जाया करते हैं। उन्हें तो ये भी नहीं मालूम कि कोई राईटर मशहूर भी हो सकता है। उनके लिए एक ही फेमस आदमी है पूरी दुनिया में - सलमान ख़ान, या फिर नरेन्द्र मोदी।
उन बच्चों की किताबें कोई उठा ले जाए तो क्या सदमा नहीं होगा?
4 टिप्पणियां:
ओह ये क्या हुआ? इतनी मुश्किल से चुन-चुनकर किताबें चुनी होंगी बच्चों ने और उन्हें किसी ने उठा लिया. बहुत बुरा हुआ ये तो. बच्चे कितने दुखी होंगे?
पैसों की चोरी से ज्यादा दुखद घटना है यह। खासकर बच्चों के कोमल मन पर जो चोट लगी और दुनिया की हकीकत उन्हें कुछ जल्दी पता चल गई।
आप बहुत सख्त माँ लगती है। और यह बहुत अच्छा है की आपके बच्चे इतने संभले हुए हैं। आजकल लोगो के घर में हर कमरे में टीवी होता है और आपने एक भी टीवी नहीं रखा हुआ। सच आपके बच्चे बिलकूल डिमांडिंग नहीं हैं। god bless them
निसंदेह हर पाठक को आपके बच्चों के बारे में जानकर बहुत खुशी हुई होगी लेकिन मुझे इसके पहले दिख रही है आपकी परवरिश जो इतनी अच्छी तरह आपने उनको दी है।
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