बस यही बात है - किसी तरह खानापूरी करने और अच्छी तरह एक ज़िम्मेदारी पूरी करने में यही अंतर है। इतना सा ही। हमें भार टालने की बीमारी है। हम सबको। थोड़ा कम थोड़ा ज़्यादा। बात ये है कि इंसान फ़ितरत से ही आलसी होता है, और अगर भूख (फ़िज़िकल, इमोशनल, स्पिरिचुअल) तंग न करे तो कोई हाथ-पैर भी न चलाए। बिस्तर में पड़े रहने में बहुत सुख है। कोई खाना पहुँचाता रहे, हाथ धुलाने का इंतज़ाम भी कराता रहे और इंटरनेट जैसा कोई एक साधन हो जिसमें पीछे से कला की विभिन्न विधाएं आपके मनोरंजन का इंतज़ाम करती रहें - इससे ज़्यादा किसी को और क्या चाहिए?
लेकिन शुक्र है कि मन शरीर से कम आलसी है। उसे बेचैन रहने की आदत है। शुक्र है कि दिमाग़ अपने लिए खुराक ढूंढता रहता है और कुपोषण बर्दाश्त नहीं कर पाता। शुक्र है कि रूह कचोटती है, आप सुने न सुने।
इसका मेरे मॉर्निंग पेज लिखने न लिखने से क्या वास्ता है?
है न। इसका वास्ता हर उस काम से है जो मैं करती हूं।
इन दिनों मेरा मन कहीं नहीं लगता। कुछ करने में नहीं। तबियत का ख़राब होना सबसे ख़राब बहाना है। पूरे दिन बिस्तर पर पड़ी रही, इंटरनेट के साथ। पहले बुक माई शो पर देखती रही कि कौन कौन सी फ़िल्में शहर में लगी हैं। जी ने चाहा नहीं फिर भी कि उठकर कोई फ़िल्म ही देख ली जाए। फिर मैं कई देशों के गुमनाम गांवों की तस्वीरें इंटरनेट पर देखती रही - आइसलैंड से लेकर मोरॉक्को तक, न्यूज़ीलैंड से लेकर थाईलैंड तक, कोलैरैडो से लेकर हवाई तक, कुछ भी नहीं छोड़ा। जहां तस्वीरों से मन भर जाता था, यूट्यूब पर वीडियो लगा देती थी।
अनजान लोग। मुस्कुराते चेहरे। नई जगह। गुमनाम सड़कें। हसीन कहानियां। और ख़ूब सारा रोमांच। साल में एक महीने सबको इस तरह किसी नई जगह भटकने की इजाज़त मिलनी चाहिए। इससे दुनिया में प्रेम और सौहार्द्र बना रहेगा। इससे हम अपनी-अपनी जगहों, अपने अपने स्पेस को लेकर बिल्कुल पसेसिव नहीं होंगे। जो कहीं का नहीं होता, वो ही सबका होता है। हर घर में ऐसे एक फ़कीर का जन्म हो जाए तो परिवार टूटने से बंट जाए, संपत्ति के नाम पर किसी की आंखों में खून न उतरे।
लेकिन अफ़सोस कि ऐसा होता नहीं है।
हम अपने बच्चों को सेटल होना सिखाते हैं। उन्हें ऐसे काम, ऐसी नौकरी, ऐसे स्किल सिखने को कहते हैं जो उन्हें और कुछ बनाए न बनाए, 'फ़ाइनेंशियली सेक्योर' ज़रूर बनाए। हमने सफलता के पैमाने तय कर रखे हैं। घर, गाड़ी, बच्चे, छुट्टियां, फिर बड़ा घर, बड़ी गाड़ी, और बड़ी छुट्टियां। इस दौड़ में कुछ बचता नहीं है, सिर्फ़ ढेर सारी ख़लिश बची रहती है। फिर इस ख़लिश को भरने के लिए हम एक के बाद एक कई सारे जन्म लेते रहते हैं। ये सिलसिला टूटता नहीं, और यूनिवर्स का काम निकलता रहता है।
इन सबसे निकलने का कोई रास्ता है या नहीं, मैंने नहीं जानती। लेकिन मुझे लगता है कि बहुत सारी भटकन इस चक्रव्यूह से निकाल पाएगी। हम जब सफ़र में होते हैं - अपने अपने स्पेस से बहुत बहुत दूर - तब अपने शुद्ध रूप में होते हैं। तब हम ख़ुद से सबसे ईमानदार होते हैं।
मैं यूं ही घुमन्तू नहीं कही जाती। एक दिन, वो एक दिन आएगा जब बुद्ध की तरह सब छोड़कर जाने का वक़्त आएगा - सार्वभौमिक हित में। समस्ति के हित में। व्यक्ति के हित में। उस दिन के आने तक मैं तिल-तिल जीती रहूँगी।
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