मुझे जितना लिखना चाहिए, उतना लिखती नहीं हूं।
मैं जितना लिख सकती हूं, उतना भी नहीं लिखती।
मैं सिर्फ़ लिखने के बारे में सोचती रहती हूं। इतना सोचने लगी हूं अब तो कि रात की नींदें ऊटपटांग कहानियों में गड्डमड्ड होने लगी हैं। जी में कई किस्म के आईडिया आते रहते हैं। मन दुनिया भर की फ़िल्में बना लेना चाहता है। दुनिया भर की कविताओं में अपनी आड़ी-तिरछी क्षणिकाएं घुसेड़ देना चाहता है।
फिर कौन सी चीज़ है जो मुझे रोके रखती है? कौन सी चीज़ है जो आपको रोके रखती है?
आलस है। मेरे भीतर गंभीर अकाट्य इनकॉरिजिबल आलस है। मैं जानती हूं कि जबतक काग़ज़ तक पहुंचुंगी नहीं, तब तक लिखूंगी कैसे? लिखूंगी नहीं तो मालूम कैसे चलेगा कि जितने सारे आईडिया दिमाग़ में घूमते रहते हैं उनमें दम है या नहीं। लेकिन मुझे अपनी नींद बहुत प्यारी है। मैं हमेशा स्लीप डिप्राइव्ड होने के बहाने बनाती रहती हूं। बच्चों के सोने के साथ बिस्तर पर इसलिए लेट जाती हूं क्योंकि मन और शरीर दोनों थके होने का दावा करते रहते हैं। रातभर बेशक नींद न आती हो लेकिन उठकर न किताबों तक पहुंचती हूं न पन्नों तक। वहीं दिमाग़ के एक अंधेरे कोने दूसरे खाली कोने तक भटकते भटकते कहानियां भी दम तोड़ देती हैं, किरदार भी।
मेरे कंप्यूटर में आधे-अधूरे पड़े कई ड्राफ्ट्स इस बात के गवाह हैं। आलस वाकई इंसान का सबसे बड़ा दुश्मन है।
आलस है या एन्कज़ाइटी? नेगेटिविटी ऑक्टोपस की तरह होती है। उसके कई हाथ होते हैं, और ये हाथ आपके कमज़ोर पड़ते ही आपकी गर्दन का रास्ता ढूंढ लेते हैं। ये जो सांसें रुक जाने का भ्रम होता है, ये जो दम के घुट जाने की फीलिंग आती है वो हमारे अंदर से उपजी नेगेटिविटी से आती है।
मै तमाम कोशिशों के बावजूद अपने भीतर के इस ऑक्टोपस को सुला नहीं पाती। वो दिन के उठते ही अपना असर दिखाना शुरु कर देता है।
मेरे पास नहीं लिखने के कई बहाने हैं।
मुझसे घर में बैठकर नहीं लिखा जाता। घर में होती हूं तो दिमाग़ फ़ालतू की कई चीज़ें देखता रहता है। बच्चों की अलमारियां साफ नहीं हैं। स्टोर रूम का कचरा खाली करना है। फ्रिज की सफाई करनी है। बिस्तर पर की चादरें बदलनी हैं। बाथरूम का जाला साफ़ करना है। जाड़े के पकड़े पैक करने हैं। कंबल भीतर डालने हैं। पंखों की सफाई करनी है। कुशन कवर बदले जाने हैं। सोफा ठीक कराना है। किताबों की रैक पर धूल जमा हो गई है। लिस्ट अंतहीन है। कहां से शुरु करूं और कहां ख़त्म, इस चक्कर में काम न शुरु होता है न ख़त्म होता है। मैं दिनभर सोचती रह जाती हूं। काम कुछ होता नहीं और अगले दिन मैं उसी उलझन में घर के इस कोने से उस कोने तक भटकती रहती हूं। शाम को बच्चों के आने के बाद मैं लिख नहीं सकती। बच्चों के स्कूल जाने के बाद मेरी तन्हाई मुझे घेर लेती है। हो तो मुश्किल, न हो तो परेशानी। न लिखने का बहाना हर हाल में कायम रहता है।
मेरे पास कई फ्रीलांस असाईनमेंट हैं, जो लेखन से ही जुड़े हैं। जो थोड़ा-बहुत वक्त होता है, उसमें मैं काम पूरा करने की कोशिश करती रहती हूं ताकि कुछ पैसे मिलें और ज़िन्दगी की गाड़ी चलती रहे। न लिखने का बहाना फिलहाल ये है कि मेरे पास कोई नौकरी नहीं जिससे मुझे महीने के आख़िर में एक निश्चित तनख़्वाह मिले। नौकरी होती तो न लिखने का बहाना वो हो जाता।
मेरा अपना डर भी मुझे घेरे रहता है। लिखकर असफल होने से अच्छा है बिना लिखे अफ़सोस मनाते रहना कि लिख ही नहीं पा रहे। दुनिया में इतने सारे हैं तो - लेखक। उन्होंने क्या बदल दिया? उनकी ज़िन्दगी में कहां है सुख-शांति? बेचैनी लिखकर भी होगी। न लिखो तो भी होगी। फिर क्रिएट करने की पीड़ा से गुज़रना ही क्यों? हर बार अपने भीतर पलने देना एक ख़्याल और फिर उसने कमज़ोर पैदा होने, या अबॉर्ट हो जाने की तकलीफ़ से गुज़रना। ये कहां की समझदारी है?
मुझे जिस तरह का लिखना चाहिए, लिख ही नहीं पाती। अपनी तरह का लिखती रहती हूं बस। बेमतलब की बातें। बेमानी किस्से। मैं कमर्शियल और लिटररी के बीच झूलती रहती हूं। क्या अच्छा होता कि या तो रविंदर सिंह की तरह प्रेम की मशी मशी कहानियां लिखकर बहुत फ़ेमस, और बहुत अमीर हो जाती। या फिर अपनी पीढ़ी के आधुनिक कथाकारों की तरह शब्दों की जादूगरी के दम पर अच्छा (और साहित्यिक) लिखने का दंभ पालने का सुख मिलता। न मैं इधर की हूं न मैं उधर की। न मैं अंग्रेज़ी में लिख पाती हूं, न हिंदी में। थोड़ा-थोड़ा दोनों ओर होना मेरे न लिखने का एक और बहाना है। मुश्किल ये है कि मैं पोज़िशन बदलने को भी तैयार नहीं।
मेरी फिल्म स्क्रिप्ट आधी पड़ी है। मेरी किताब पूरी नहीं हो पा रही। मेरी कहानियों को किरदार तो मिल गए हैं, शब्द नहीं मिल रहे। मैं हूं भी, नहीं भी। ये बेचैनी मुझे तबाह कर देगी।
आप पूछेंगे कि आज किस खुशी में नहीं लिख रही? इसलिए क्योंकि मेरे पास कई काम हैं। मुझे बैंक जाना है। मुझे एक अनुवाद पूरा करना है। मुझे कई सारे ईमेल भेजने हैं। मुझे घर की सफाई करनी है। फ्रिज से बहुत सारा बासी खाना निकाल कर उसमे ताज़ी सब्ज़ियों के लिए जगह बनानी है। मेरे पास पढ़ने के लिए बहुत सारी किताबें हैं। मेरे पास वक़्त नहीं है। मेरे दिमाग़ में बासीपन भरा है। ब्ला ब्ला ब्ला ब्ला।
मैं ठहरी ठहरी थक गई हूं। भटकना चाहती हूं। मैं लिख इसलिए नहीं पा रही क्योंकि भटक नहीं पा रही। ये बात मैं किससे कहूं?
1 टिप्पणी:
anu jii..aisa lag rha hai jaise aap mere man ki baat keh rhi hain..khair maine aapki neela scarf padhi hai jisme aapka autograph bhi hai..:) mujhe bahut pasand aayi aapki kitaab
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