दिल्ली इतिहासकारों की प्रिय नगरी रही है। समाजशास्त्रियों, राजनीतिविज्ञों और चुनाव विशेषज्ञों की भी। लेकिन दिल्ली ने सात फरवरी को कुछ ऐसा किया कि दिल्लीवालों को एक बार फिर इस शहर पर प्यार आ गया होगा। आप की सरकार की सबको उम्मीद थी, इस तरह सत्ताधारी पार्टियों को, दिग्गजों को ये शहर बेआबरू करके अपने कूचे से निकालेगा, ये किसी ने न सोचा होगा। किसी एक्ज़िट पोल ने आप को पैंतालीस से ऊपर की सीटें देने की हिम्मत नहीं की थी। या तो विश्लेषण करने वाले डरते हैं या ये जम्हूरियत कमाल की है कि ख़ामोश रहती है लेकिन मन ही मन दृढ़ निश्चय कुछ और करती है।
लेकिन दिल्लीवालों ने सच में लोकतंत्र पर भरोसा कायम कर दिया है। अचानक लग रहा है कि सत्ता पलटने की ताक़त वाकई वोटरों के हाथ में होती है और इस ताक़त को रसूख और पैसे से न तौला जा सकता है न खरीदा जा सकता है।
जब शहर नया इतिहास रच रहा था तो मैं कल कहां थी? साढ़े नौ बजे की मेट्रो ली थी मैंने, करोलबाग के लिए, ताकि डॉ नीरू कुमार से ग्यारह बजे का जो अप्वाइंटमेंट था - उसको निभा सकूं। एक अजीब किस्म का उल्लास था रिक्शा लेते हुए। एक तो फरवरी मेहरबान है, इसलिए मन (और दिमाग, दोनों) खुलने लगे हैं। जाड़े को विदाई देते हुए मुझे उतनी ही खुशी मिलती है जितनी बच्चों की बीमारी में उनकी देखभाल के बाद उनकी सुधरती हुई सेहत को देखकर होती है। लगता है, दुख और संताप के दिन बीते तो हंसने-खेलने के दिन आएंगे। फरवरी मेरे साथ यही करता है, निचिरिन दाईशोनिन के लिखे गोशो पैसेज - Winter always turns into spring - पर मेरे भरोसे को और अटल, अकाट्य बनाता है।
ख़ैर, जाड़ा बसंत में तब्दील हो रहा है और यही उम्मीद दिल्ली के लिए भी हो रही थी कल। मेरे पास स्मार्टफोन नहीं है, इसलिए मैं रिज़ल्ट की पल-पल की ख़बर पर नज़र नहीं रख पा रही थी। लेकिन मेट्रो में इसकी ज़रूरत ही किसको थी? मैंने लेडीज़ कूपे की आख़िरी सीट पकड़ ली। उससे आपका एक पैर लेडिजो के बीच होने की सुरक्षा में आपको रखता है तो कान जो है, वो जनरल डिब्बे की मज़ेदार बातों और हरकतों को रिकॉर्ड करते रहते हैं।
आप की जीत ने मेट्रो में चल रहे आधे डिब्बे को आप के वॉल्न्टियर में बदल दिया था। मैंने कम से कम सात लोगों से सुना कि वे फलां-फलां जगह से आप के वॉलन्टियर हैं, और अब जब नतीजे आ गए हैं तो पटेल नगर जा रहे हैं - वहीं, जहां फ्लैश डांस करते हुए बाकी के युवा वॉलन्टियर टीवी स्क्रीनों पर छाए हुए हैं।
बड़ा बदलाव और विकास क्या होता है, कौन जानता है? ये 'विकास' असल में होगा कब, ये भी कौन जानता है? बदलाव के चेहरे पर क्या फ्लाईओवरों की झुर्रियां होती हैं? या मेट्रो लाइनों की कटी-फटी लकीरें? कौन जानता है कि कांग्रेस जो बदलाव लाती रही है इतने साल, और बीजेपी जिस विकास के होने का दावा करती रही है उससे आप का बदलाव और विकास अलग होगा?
लेकिन ये देखिए कि अगर किसी पार्टी के कार्यकर्ता कॉलेज जाने वाले लड़के-लड़कियां हों, दफ़्तरों में अपनी पहली या दूसरी नौकरी कर रहे तीस-पैंतीस साल के युवा हों और जो जीत का जश्न मनाने मेट्रो से जा रहे हों तो कुछ तो बदला ही होगा न? वरना हम पूरी उम्र एसयूवी में घूमते पार्टी कार्यकर्ताओं को देखते रहे हैं। यही देखा है कि विधायक जी और वोटर का रिश्ता पोलिंग बूथ से निकलते ही ख़त्म हो जाता है। जो मुट्ठीभर लोग विधायक जी के आंगन और दरबार तक पहुंच पाते हैं, सिफ़ारिशी चिट्ठियों और फोन कॉल्स के ज़रिए पहुंचते हैं।
मैं उम्मीद की पैरोकार हूं। दिनभर उम्मीद के टुकड़े ढूंढती हूं। यहां-वहां भटकती रहती हूं कि रिश्तों में, परिवारों में, सड़कों पर, अख़बारों में उम्मीद ढूंढ सकूं और उसे बचाकर रख सकूं। दिल जहां डूबने की गुस्ताख़ी करने लगता है, उसे बचाने की कोशिश में किताबों में डुबकियां मारती हूं, उन लोगों से मिलती हूं जो दिल के डॉक्टर है, हैप्पीनेस के डॉक्टर हैं और ज़िन्दगी के तमाम संघर्षों के बाद भी अपने चेहरे पर मुस्कान बचाए रखते हैं।
मेरे जैसे घनघोर उम्मीदवादियों के लिए आप की सरकार लोकतंत्र की उम्मीद है। जिस तरह दिल्ली ने वोट दिया उससे साबित हो गया कि लोकतंत्र में कोई किला अभेद्य नहीं होता, और कोई इन्विन्सिबल नहीं होता। सत्ता की बदगुमानी में डूबते-डूबते सत्ताधारी भूलने लगते हैं कि पांच साल का वक़्त बहुत ज़्यादा नहीं होता। कुर्सी भले उनके नीचे हो, उस कुर्सी के पाए में बंधी रस्सी कहीं और है। अहंकार और ओवर कॉन्फिडेंस ले डूबता है।
मुझे नहीं मालूम बीजेपी के दफ़्तर में क्विंटल के भाव से मंगाई गई हरी-सफेद-केसरिया बर्फियों का क्या हुआ, लेकिन इस बार अपने-अपने चूल्हों पर गाजर का हलवा तो चढ़ाना बनता है। पांच साल में कितने झटके लगेंगे और कितनी वाहवाहियां मिलेंगी, उसके लिए ख़ुद को तैयार तो कर लिया जाए। और जब तैयारी करनी ही है तो मुंह मीठा करके, कैलोरी जमा करके की जाए। ये तो तय मानिए कि दिल्ली में अगले पांच साल बहुत ही हैपनिंग होने वाले हैं।
ऐसा नहीं कि घनघोर उम्मीदवादी कभी दिमाग से नहीं सोचता। इसलिए, मुझे साहिर लुधियानवी की एक नज़्म याद आ रही है। पूरी नज़्म याद नहीं इसलिए गूगल करके कॉपी पेस्ट कर रही हूं। लेकिन अभी के हालात के लिए इससे माकूल और कुछ न हो शायद।
ये शाख-ए-नूर जिसे ज़ुल्मतों में सींचा है
अगर फली को शरारों के फूल लाएगी
न फल सकी तो नई फ़स्ल-ए-गुल के आने तक
ज़मीर-ए-अर्ज़ में एक ज़हर छोड़ जाएगी
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