जितनी देर में मैंने आद्या के बाल बनाए, उतनी देर में उसने सामने खुले में जीमेल के इनबॉक्स के साथ कुछ छेड़-छाड़ कर दी। ये बात इसलिए लिख रही हूं क्योंकि सोच रही हूं कि मैं कितनी जल्दी चिढ़ जाती हूं। इतनी छोटी सी बात पर मैं बुरी तरह झल्ला गई थी। ज़िन्दगी के साथ तो पूरी दुनिया धड़ल्ले से छेड़छाड़ करने की हिमाकत करती रहती है। फिर भी चुप रह जाती हूं क्योंकि दुनिया से लड़ने की ताक़त नहीं है। बेटी मुझसे कमज़ोर है, इसलिए उसको डांट देना आसान है।
देख लो कि सुबह की शुरुआत किस तरह हुई है।
वैसे इस गिल्ट को मन में पालना नहीं चाहिए। वो डांट सुनकर भूल जाती है। मैं डांटकर नहीं भूल पाती। देखो न, अभी पंद्रह मिनट पहले ही मैं और आद्या छत पर खड़े होकर नीम की कमज़ोर सी टहनी पर अपनी कमज़ोर सी, लेकिन मीठी आवाज़ में गाती चिड़िया को देखते रहे थे। बसंत हवाओं में घुलने लगा है। मुझे शहीद स्मारक पार्क बुलाने लगा है।
कल शाम भी उतनी ही ख़ूबसूरत थी, और उतनी ही मज़ेदार भी।
हम सुजान सिंह पार्क के गॉल्फ अपार्टमेंट्स में एक भूतपूर्व सांसद (और 'erstwhile prince') के घर डिनर पर आमंत्रित थे। हम यानी मैं, एन १ और एन २। मुझे इस तरह के न्यौतों की आदत नहीं। इसलिए उलझन होती है। अगर एन न होतीं, तो मैं शायद किसी हाल में न जाती। एन मेरा हाथ थामें नए जहानों, नए किस्मों के लोगों के बीच लिए जाती हूं मुझे। (मुझे कल पहली बार इस बात का शिद्दत से अहसास हुआ कि अब मैं पुरुषों पर यकीन करना बिल्कुल बंद कर चुकी हूं, और ख़ुद को बचाए रखने के लिए अपनी ही जैसी औरतों की संगत का सहारा लेती हूं। लगने लगा है कि औरतें (सभी नहीं) कम से कम इमोशनली डैमेज तो नहीं करेंगी। दोस्तों की लिस्ट में से कई नाम कटने लगे हैं, लेकिन ये चर्चा और ये बात फिर कभी।)
साल में दो-चार बार निकलती हूं किसी के घर 'औपचारिक' विज़िट के लिए। वरना मेरे सारे दोस्त और जान-पहचान वाले इस दिल्ली में प्रवासी हैं, और हम सबों ने अपनी-अपनी बस्तियां, अपने-अपने घर यहां बसाए हैं। दिल्ली में पहली पीढ़ी हैं हम, इसलिए एक-दूसरे के संघर्षों के साक्षी रहे हैं। हमने डीटीसी बसों, फिर ऑटो, फिर दुपहिया, फिर छोटी गाड़ी और फिर बड़ी गाड़ी तक का सफ़र तय किया है। दो कमरे या तीन कमरे के मकान खरीद कर इस शहर में घर बना लेने का गुमान पाल लिया है।
मैं औरों का नहीं जानती, लेकिन इस शहर में प्रवासी होने का ख़्याल मेरे ज़ेहन से उतरता ही नहीं। इसलिए पुराने दिल्लीवालों के बीच बहुत उलझन होती है।
बहरहाल, कल की शाम पुराने दिल्लीवालों के बीच जो गुज़री उनसे बाद में कई कहानियां निकलेंगी। हमारे मेज़बान वी थे।
वी कपूरथला के वारिसों की आख़िरी खेप की संतान हैं, जिनकी बातों, किस्सों-कहानियों से रियासत अब भी बाकी है। रहते विदेश में हैं लेकिन दिल्ली और अपनी हवेली इसलिए लौटते रहते हैं क्योंकि उनके लैब्रेडॉर इन दोनों जगहों पर रहते हैं। खाने की मेज़ पर वे अपने कुत्तों की रईसी के किस्से सुनाते रहे। यहां स्टाफ का पूरा महकमा इसलिए रहता है ताकि कुत्तों को दिन में पांच बार घुमा सके, गाड़ी में बिठाकर लोदी गार्डन ले जा सके। वे स्काईप पर कुत्तों से हर रोज़ बात करते हैं। (मैं अगले जन्म में लैब्रेडॉर होना चाहती हूं। अगले सात जनम में वरना इस हैसियत तक पहुंचने का और कोई रास्ता नहीं।)
मैं आमतौर पर लोगों को जज नहीं करती, और सिर्फ़ श्वानप्रेम के दम पर वी को भी जज नहीं कर रही। इसके अलावा वी न सिर्फ़ एक शानदार मेज़बान हैं बल्कि एक नेकदिल इंसान भी हैं। उनकी साफ़गोई उनके किस्सों से झलकती रही। जज नहीं कर रही, लेकिन ये मेरा तजुर्बा है कि जो इंसान ख़ुद की ग़लतियों पर भरी महफ़िल में ठहाके लगाकर हंस सकता है, और जो इंसान दो घंटे की बातचीत में किसी और की एक बार भी चुगली नहीं करता, उसे मैं अच्छे इंसान का तमगा दे देती हूं। वरना महफ़िलें जमती ही इसलिए हैं ताकि महफ़िल में आए लोगों की चापलूसी की जा सके, और महफ़िल से बाहर छूट गए लोगों की चुगलखोरी में आसानी हो। महफ़िल किस टाईप की है, उसका इस मूलभूत इंसानी फ़ितरत से कोई वास्ता नहीं होता।
वी के दाईं तरफ एम थीं - बेहद ख़ूबसूरत, और बहुत ग्रेसफुल। लेखिका हैं, और एक बहुत बड़ी पब्लिशर। उनके पास तांत्रिकों के मज़ेदार किस्से थे। उन्हें सीरियसली इन किस्सों को किताब की शक्ल देनी चाहिए। मुझे तो मालूम ही नहीं था कि तांत्रिकों की एक दुनिया ऐसी भी है जो मनोहर कहानियां के पन्नों और इंडिया टीवी के स्क्रीन के अलावा वाकई कहीं और बसती है।
उनके सुर में सुर टी मिलाती रहीं। उन्होंने मद्रास पर एक शानदार किताब लिखी है। टी क्लासिकल डांसर हैं। याद आया कि इन्हें मैंने द हिंदू के पन्नों पर कई बार देखा है। मैन एशियन लिटररी प्राइज़ के लिए नॉमिनेट होने से पहले और उसके बाद। टी कम बोलती थीं और बहुत सारा मुस्कुराती थीं।
महफ़िल में रंग जमाने लाहौर से एक मेहमान आए। लाल जूतों में। मुझे एएस के लाल जूते ज़िन्दगी भर याद रहेंगे, और उनकी आवाज़ की हरकतों में उतरे शकील बदायूंनी के लफ़्ज भी। एएस फ़रीदा ख़ानम के शागिर्द रहे हैं, और कोक स्टूडियो के अगले सीज़न में नज़र आएंगे। साथ ही ब्रॉडवे पर भी। गुड लुक्स और ट्रेन्ड आवाज़ क़ातिल कॉम्बिनेशन होती है। अगर मैं 'all good-looking men are flirts, and useless' की दीवार अपने चारों ओर लेकर न घूम रही होती तो इस शख़्स पर पक्का दिल आ जाता। (अब I am not a flirt, and I am definitely useful का यकीन अब सब यकीनों पर भारी पड़ता है।)
बाकी की शाम पेंटिंग्स, कविताएं, गीत, किताबें - इन्हीं के चारों ओर घूमती रही थी। जाने कॉन्याक का असर था या महफ़िल में होते हुए भी वहां न होने की बीमारी, मैं कोलकाता के बारे में सोचती रही थी, और पूर्णिया के बारे में, और सिवान के बारे में, और मोरवन के बारे में, और रांची के बारे में।
हम सब कहां से आए हैं? हम सब जहां हैं, वहां हैं क्यों? इस स्पेस में एक साथ एक वक़्त पर होने की वजह क्या है? यहां से हम क्या लेकर जाएंगे? लोग इतनी ही देर के लिए मिलते क्यों हैं? यूनिवर्स किस मैथेमैटिकल कैलकुलेशन पर काम करता है? उस कैलकुशन में टाईम - वक़्त - की कीमत क्या है? क्या वक़्त रेलेटिव होता है, या फिर एब्सॉल्यूट? हम सब क्या चाहते हैं? जब थोड़ा सा प्यार और थोड़ी सी प्रशंसा ही ज़िन्दगी में सबसे ज़्यादा मायने रखती है तो फिर हम लालची क्यों हो जाते हैं? ख़्वाहिशें रेलेटिव होती हैं तो फिर दर्द क्यों नहीं?
सवाल कई हैं और जवाब कही नहीं। मैं जहां हूं, वहां क्यों हूं?
एन ये क्या गुनगुना रही हैं?
ऐ दिल की ख़लिश चल यूं ही सही
चलता तो हूं उनकी महफ़िल में
उस वक़्त मुझे चौंका देना
जब रंग पे महफ़िल आ जाए
पोस्टस्क्रिप्ट - कल पी से भी मिली थी बुक फ़ेयर में। काश उससे कहीं और मिलती। बुक फ़ेयर में होना अपने आप में एक डिज़ैस्टर था। मैं गई न होती तो देखा न होता कि दिखावा और झूठ, धोखे और भ्रम जितने बड़े होते जाते हैं, उतने ही बड़े कवि, लेखक, साहित्यकार बनते चले जाते हैं आप। मैं सिर्फ़ ये जानती हूं कि मैं यहां नहीं कहीं और होना चाहती हूं। वरना एक दिन दिखावा करते करते कुछ और हो जाऊंगी।
3 टिप्पणियां:
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (20.02.2015) को "धैर्य प्रशंसा" (चर्चा अंक-1895)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।
kafi kuch kahti hai aap ki post,jise hum aksar sunte nahin hai
aapke dvaara likhe gae shabd baandhte hain padhne ke liye !
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